सोमवार, 21 जनवरी 2013

वैसे इस पोस्‍ट का अंतिम हिस्‍सा ग़ज़ल का सफ़र पर लगाने के लिये था लेकिन उसको यहीं लगाया जा रहा है ।

पिछली पोस्‍ट 20 दिसम्‍बर को लगाई थी, पिछले साल । उसके बाद से अब तक कुछ नहीं लगाया । एक नया साल आ गया और उसके साथ ही कयामत का वो दिन भी बीत गया जिसको लेकर पिछले कई सालों से शंका कुशंका चल रही थी । 20 दिसम्‍बर को पोस्‍ट लगाई और उसके बाद से अब तक कोई पोस्‍ट नहीं लगाई तो ऐसा लग रहा था कि मानो वो 20-12-2012 की घटना हो ही गई हो । किन्‍तु वास्‍तविकता ये है कि बीच में व्‍यस्‍तता हो गई । कुछ कहानियां, कुछ साक्षात्‍कार, कुछ आलेख समय पर कर के  देने थे । बस उनमें ही लग गया सारा समय । किसी अपने ने इसी बीच उलाहना भी दिया कि आप प्रोफेशनल हो गये हो । तो अपना आकलन किया । क्‍या सचमुच ऐसा हुआ है । पता लगा कि सचमुच ऐसा हुआ है । मगर ये प्रोफेश्‍ानल होना रातों रात नहीं हुआ । लेखन एक विशेष प्रकार के प्रोफेशनल होने की मांग करता ही है । उसके बिना कुछ संभव नहीं है । वैसे तो हर क्षेत्र एक प्रकार के प्रोफेशनल होने की मांग करता है, किन्‍तु, लेखन सब से ऊपर है । क्‍योंकि, यहां आप जो कुछ लिख रहे हैं वो दर्ज हो रहा है । आपकी खोज भी और आपकी गलतियां भी । दोनों ही दर्ज हो रहे हैं । बस इसी कारण कुछ संभल कर काम करने की कोशिश करता हूं । सफलता के कई दुश्‍मन होते हैं । तो बस ये कि व्‍यस्‍तता अब है तो है । तिस पर ये भी अपना खुद का व्‍यवसाय है, सो उसकी भी जवाबदारियां हैं ।

वैसे तो हम हर नये साल का स्‍वागत मुशायरे से करते हैं, लेकिन इस बार सोचा कि कुछ अलग किया जाये । बीच में देश में कई दुर्भाग्‍यपूर्ण घटनाएं हुईं । ऐसी घटनाएं जिन्‍होंने समाज के मानस को झकझोर कर रख दिया । इसके समानांतर ही एक और घटना मेरे साथ भी हुई । मुझे किसी साहित्यिक पत्रिका के लिये कुछ सामाजिक सरोकारों वाली ग़ज़लें भेजनी थीं । मैंने इस ब्‍लाग के कुछ सदस्‍यों से संपर्क किया । पता चला उस प्रकार की ग़ज़लें किसी के भी पास नहीं हैं । साहित्‍य समाज का दर्पण है तो फिर हम साहित्‍यकार कैसे कहलाएंगे यदि हमारी रचनाओं में अपने वर्तमान का प्रतिबिम्‍ब ही न हो । ये कैसी रचनाएं हैं जो प्रेमिका के बालों, उसकी आंखों, शराब के प्‍यालों और पिलाने वाले की मेहरबानी पर तो काफी कुछ कह रही हैं, किन्‍तु, अपने समय की विडम्‍बनाओं पर जो कुछ नहीं कह रही हैं । ये कैसा नियम है कि आप प्रेमिका पर लिख  सकते हैं भूख पर नहीं । ये कैसा नियम है कि आप महबूब पर लिख सकते हैं मां पर नहीं । यदि अपने समय पर चोट नहीं करे तो वो रचना ही कैसी । कबीर से लेकर गालिब और गालिब से दुष्‍यंत तक हर किसी ने अपने समय की जड़ता को तोड़ने की कोशिश की है । भला बताइये कि 'पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहाड़' या 'खुदा के वास्‍ते परदा न काबे से हटा ज़ालिम' से बढ़ कर और प्रगतिशीलता क्‍या हो सकती है । और 'एक गुडि़या की कई कठपुतलियों में जान है' को आपातकाल के समय लिखना । इससे बड़ी अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता और क्‍या होगी ।

एक युवा, होनहार और मेरे बहुत पसंदीदा शायर का उत्‍तर था कि उनको इस प्रकार की सामाजिक सरोकारों वाली ग़ज़लें लिखने ( क्षमा करें कहने) से मना किया गया है । मुझे समझ में नहीं आया कि मना करने के पीछे क्‍या कारण है । मैंने बहुत विस्‍तार से जानने की कोशिश नहीं की । किन्‍तु ये तो पता चल ही गया कि उस प्रकार की शायरी खारिज हो जाती है इसलिये उस प्रकार की शायरी लिखने से रोका जाता है । मगर हम ये नहीं देखते कि उस प्रकार की शायरी को 'लोक' तो स्‍वीकार कर रहा है । ' हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिये' ये लोक ने स्‍वीकार कर लिया है अब इसे किसी साहित्यिक संस्‍था की स्‍वीकृति की आवश्‍यकता नहीं है ।  अदम गोंडवी को क्‍यों खारिज किया जाता है मैं समझ नहीं पाता । मेरे विचार में अदम गोंडवी अपने समय के सबसे महत्‍वपूर्ण शायर हैं । मैंने पहले भी कहीं लिखा है कि इतिहास से जब कुछ स्‍पष्‍ट नहीं होता तो उस समय के साहित्‍य में पड़ताल की जाती है । साहित्‍य को विश्‍वसनीय माना जाता है । ये माना जाता है कि साहित्‍य में उस समय की आहटें मिलेंगी ही । प्रेमचंद ने साहित्‍य को समाज का दर्पण यूं ही नहीं कहा है ।

मगर एक बात और, बात ये कि जब हम किसी सामाजिक सरोकार पर कलम चलाएं तो वो कोरी भावुकता न हो, जैसा कि हमने दामिनी के मामले में फेसबुक पर देखा । बस लिखने के लिये लिख दिया गया । ये सब खारिज हो जाएगा । भावुकता, क्रोध, दुख इन सबसे ऊपर उठ कर लिखा जाए । दुष्‍यंत और अदम गोंडवी ने अपने तरीके से लिखा । उसमें हिंदी के कवि सम्‍मेलनीय मंचों पर आजकल पढे़ जाने वाले वीर रस वाली भावुकता नहीं थी, जिसमें केवल तालियां प्राप्‍त करने पर जोर होता है । ये तरीका तात्‍कालिक है । ये समय के साथ ही खत्‍म हो जाता है । समय का द्वंद अगर कविता में नहीं है तो वो कविता कहीं नहीं पहुंचती । यदि कहीं नहीं पहुंच रही तो ये समझिये कि वो कविता ही नहीं है । अपने समय का द्वंद कविता में होना ही चाहिये । स्‍वामी विवेकानंद ने कहा था कि साहित्‍य को समाज के नकारात्‍मक पक्ष पर पैनी निगाह रखनी चाहिये । असली साहित्‍य वहीं से उपजेगा ।

नकारात्‍मक पक्ष को देखते रहने मतलब ये है कि साहित्‍यकार की भूमिका सफाईकर्मी की होती है । उसे सजावट नहीं देखनी है, उसे तो केवल ये देखना है कि गंदगी कहां है । साहित्‍यकार सजावटकर्मी नहीं है वो सफाईकर्मी है । परंतु दुर्भाग्‍य ये है कि आजकल साहित्‍यकार सजावट कर्मी हो गया है । उसका काम शब्‍दों से सजावट करने का रह गया है । यदि हिंदी का कवि है तो कुछ परिमल शब्‍दों से या अगर उर्दू का शब्‍द है तो अरबी फारसी के शब्‍दों से कशीदाकारी की, सजावट की और हो गई रचना तैयार । साहित्‍यकार लिखे और साहित्‍यकार ही पढ़े तथा समझे । 

खैर चलिये तरही मुशायरे के लिये मिसरे की घोषणा के साथ बात को विराम दिया जाए ।

'ये क़ैदे बामशक्‍कत, जो तूने की अता है '

( 221-2122-221-2122)

ये मिसरा बहुत द्वंद के बाद जनमा है । क़ैदे बामुशक्‍कत मतलब हमारी जिंदगी और तूने मतलब उस दुनिया बनाने वाले ने । मेरी इच्‍छा है कि इस बार की ग़ज़ल में कहीं इश्‍क मुहब्‍बत, पारंपरिक प्रकार के शेर, न होकर समसामयिक चर्चा हो । समय के साथ द्वंद हो । हम ये देखने का प्रयास करें कि हम दुष्‍यंत और अदम गोंडवी को खारिज तो करते हैं लेकिन हम क्‍या उस तरीके से   लिख सकते हैं । क्‍या हम जनवादी, मनुष्‍य की बात करने वाली ग़ज़ल लिख सकते हैं । क्‍या हम ऐसी ग़ज़ल लिख सकते हैं जिसके एक भी शब्‍द को समझने के लिये किसी को न तो हिंदी का शब्‍दकोश उठाना पड़े और न उर्दू का । क्‍या हम भी ऐसी ग़ज़ल कह सकते हैं जिसके शेरों को विद्वान अपने भाषणों में इस्‍तेमाल करें और जिसके शेरों को  आम आदमी भी समझ ले । ग़ज़ल जिसमें अपने समय का प्रतिबिम्‍ब हो। ग़जल़ जो अपने समय के सामाजिक सरोकारों पर बहस का खुला आमंत्रण देती हो ।

आइये इस बहर के बारे में     जानें । ये एक गाई जाने वाली बहुत लोकप्रिय बहर है । जो मुरक्‍कब बहर 'मुजारे' की उप बहर है । इसका वज्‍न है 221-2122-221-2122 अर्थात मफऊलु-फाएलातुन-मफऊलु-फाएलातुन । कुछ याद आया । नहीं आया । सही याद आया । वो तराना इसी बहर पर है । सारे जहां से अच्‍छा हिन्‍दोस्‍तां हमारा । बहर का नाम है 'बहरे मुजारे मुसमन अख़रब' । आइये ये भी जानें कि ये नाम कैसे पड़ा । सबसे पहले तो ये जाने लें कि बहरे मुजारे का सालिम वजन है 1222-2122-1222-2122 अर्थात मुफाईलुन-फाएलातनु-मुफाईलुन-फाएलातनु । इस रूप में ये बहुधा उपयोग में नहीं लाई जाती । इसकी मुज़ाहिफ शक्‍लें ही उपयोग में लाई जाती हैं । अब हमारी वाली बहर में हमने क्‍या किया है कि 2122 रुक्‍नों में तो कोई परिवर्तन नहीं किया किन्‍तु, 1222 रुक्‍न को 221 कर दिया है । अर्थात मात्राएं कम करते समय हमने दो लघु मात्राएं कम कीं एक प्रारंभ से (खिरम) और एक अंत से ( कफ्फ ) । इस प्रकार का परिवर्तन कर मात्राएं कम करने को नाम दिया गया है  खरब, और इससे बनने वाला रुक्‍न हुआ अखरब । दो लघु मात्राएं कम करने पर जो रुक्‍न बना वो हुआ 'फाईलु' जिसको हम समान मात्रिक ध्‍वनि मफऊलु से भी दर्शा सकते हैं । तो चूंकि मुफाईलुन का मफऊलु किया गया इसलिये अखरब नाम के साथ जुड़ेगा । चार रुक्‍न हैं इसलिये मुसमन बहर हुई ।

आइये अब देखें की रदीफ और काफिया क्‍या है । रदीफ तो है 'है' तथा काफिया है 'आ' (अता) की मात्रा ।

वैसे तो इसकी धुन समझने के लिये सारे जहां से अच्‍छा हिन्‍दोस्‍तां हमारा को गुनगुनाया जा सकता है । एक प्रसिद्ध भजन की ध्‍वनि भी इसी प्रकार की है, ध्‍यान दें कि मैं केवल ध्‍वनि कह रहा हूं रुक्‍न नहीं । 'करते हो तुम कन्‍हैया मेरा नाम हो रहा है, मेरा आपकी कृपा से सब काम हो रहा है' । ध्‍वनि विज्ञान के हिसाब से इसकी ध्‍वनि बिल्‍कुल हमारे मिसरे की ही है । बस ये जान लें कि दोनों जगह जो 'मेरा' आया है उसे गिरा कर 'मिर' पढ़ा जाएगा । ये बात मैं केवल ध्‍वनि विज्ञान की कर रहा हूं, बहर विज्ञान की नहीं ।

बहर विज्ञान के हिसाब से एक बहर है । जिसमें पहले रुक्‍न   में 221 के स्‍थान पर 1121 लिया जाता है । अर्थात मफऊलु के स्‍थान पर फएलातु । अगर मात्रिक योग के अनुसार देखें तो बात समान रही । ध्‍वनि के हिसाब से देखें तो समान ही ध्‍वन‍ि आती है। किन्‍तु, ये एक अलग बहर है । 1121-2122-1121-2122 बहरे रमल मुसमन मश्‍कूल। पढ़ते समय इसकी ध्‍वनि वही होगी जो सारे जहां से अच्‍छा की होगी । किन्‍तु ज़रा सा अंतर तो है । जिसके कारण ये रमल की उप बहर है और हमारी बहर मुजारे की उप बहर । अब अगर आप 'सारे जहां से अच्‍छा हिन्‍दोस्‍तां हमारा' और ' ये न थी हमारी किस्‍मत कि विसाले यार होता' को एक साथ गुनगुनाएंगे 'करते हो तुम कन्‍हैया की' की तर्ज पर तो आपको लगेगा कि अरे, ये तो एक ही मामला है, किन्‍तु मामला अलग अलग है एक नहीं है ।

बहरे रमल मश्‍कूल में रमल के स्‍थाई रुक्‍न फाएलातुन 2122 में एक लघु प्रारंभ से (खबन)और एक अंत से हटाई  गई ( कफ्फ ) । इस प्रकार से मात्राएं हटाने की प्रक्रिया को शक्‍ल कहा जाता है और इस प्रकार बने रुक्‍न को मश्‍कूल । तो इस प्रकार से बहर का नाम हुआ बहरे रमल मुसमन मश्‍कूल । ये एक अलग बहर है किन्‍तु इसको हम बहरे मुजारे मुसमन अखरब की जुडवां बहर कह सकते हैं । ध्‍वनि विज्ञान के आधार पर ।

ये न थी हमारी किस्‍मत 1121-2122 के विसाले यार होता 1121-2122

सारे जहां से अच्‍छा 221-2122 हिन्‍दोस्‍तां हमारा 221-2122

करते हो तुम कन्‍हैया 221-2122 मिर नाम हो  रहा है 1121-2122

रमल के मामले में हुआ ये कि रमल स्‍थाई रुक्‍न फा+एला+तुन (सबब+वतद+सबब) की जुजबंदी में हमने पहले 'सबब' जुज ' फा' में से दूसरी मात्रा को 'खबन' परिवर्तन का प्रयोग करते हुए हटा दिया । सो वो रह गया 'फ' । साथ में हमने एक और परिवर्तन किया वो ये कि अंत के 'सबब' जुज 'लुन' में से अंतिम लघु मात्रा हटा दी 'कफ्फ' परिवर्तन का प्रयोग करते हुए । वो रहा गया केवल 'लु' । खबन+कफ्फ=शक्‍ल । इस प्रकार जन्‍मा रुक्‍न फएलातु जिसे कहा गया मशकूल । शक्‍ल=मशकूल ।       

मुजारे के मामले में हमने ये किया कि मुजारे के स्‍थाई रुक्‍न मुफा+ई+लुन ( वतद+सबब +सबब) की जुजबंदी में पहले जुज वतद की ठीक पहली मात्रा को 'खिरम' परिवर्तन करते हुए हटा दिया । सो 'मुफा' का रह गया केवल 'फा' । फिर पहले की ही तरह अंत के 'सबब' जुज 'लुन' में से अंतिम लघु मात्रा हटा दी 'कफ्फ' परिवर्तन का प्रयोग करते हुए । वो रहा गया केवल 'लु' । खिरम+कफ्फ=खरब । इस प्रकार जन्‍मा रुक्‍न मफऊलु जिसे कहा गया अखरब । खरब=अखरब ।    

चूंकि दोनों ही रुक्‍नों 'मफऊलु' और 'फाएलातु' की ध्‍वनियों में बहुत मामूली सा अंतर है इसलिये ऐसा लगता है कि दोनों  बहरें   एक ही हैं । ये वही अंतर ह‍ै जो बहरे  रजज तथा बहरे कामिल  के रुक्‍नों में   है या बहरे हजज तथा वाफर के रुक्‍नों में है । दीर्घ टूट कर दो लघु होने का अंतर ।

बहुत सारी बातें हो गईं । मगर कुल मिलाकर बात ये कि इस बार का मुशायरा 'गहरे मुजारे मुसमन अखरब' पर होना है । जिसका मिसरा है 'ये कैदे बामशक्‍कत जो तूने की अता है' । रदीफ 'है' तथा काफिया 'आ' । ये मुशायरा फरवरी माह में संपन्‍न होना है क्‍योंकि मार्च में होली का मुशायरा आ जाएगा ।  

यदि आपको आज की जानकारी अच्‍छी लगी हो तो आगे भी और उपलब्‍ध करवाई जाएगी । हालांकि ये वास्‍तव में ग़ज़ल का सफर के लिये थी किन्‍तु इसको यहां पर ही लिख दिया है । बस मूड की बात है । तो चलिये  तैयारी कीजिये तरही के लिये ग़ज़ल कहने की ।

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