शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

लिपि का बड़ा खेल है । देवनागरी और उर्दू ये दो लिपियां ज़रूर हैं लेकिन बोलते समय दोनों हिंदी हो जाती हैं । और इसी की पैदाइश है सौती क़ाफिया ।

कई लोगों से मिलते मिलाते पिछला बरस बीत ही गया । पिछला बरस जिसमें कि काफी कुछ हो गया । लगभग इसी समय फरवरी में ज्ञानपीठ की घोषणा हुई और एक सपना पूरा हुआ । ब्‍लाग जगत से परिचय में आये अधिकांश लोगों से पहली बार मिलवा कर गया वो साल । राकेश खंडेलवाल जी, शार्दूला दीदी, पूर्णिमा बर्मन जी, दिव्‍या माथुर जी,  दिगम्‍बर नासवा, अनुराग शर्मा, कंचन चौहान, गौतम, रवि, वीनस, सीमा गुप्‍ता,फुरसतिया जी, कुश से 2010 में मिलना हुआ ( प्रकाश और अंकित से 2009 ने मिलवा दिया था ) । बहुत सी यादें लेकर बीत गया वो साल । दो कहानियां लिखीं और दोनों ही चर्चित हुईं ( चित्रा जी ने इस बार कहा कि पंकज साल में दो या तीन से ज्‍यादा कहानियां मत लिखना । ) । कम लिखना और अच्‍छा लिखना बेहतर है बजाय अधिक और खराब लिखने के । तो उस हिसाब से चौथमल मास्‍साब और सदी का महानायक ये दोनों कहानियां पिछले वर्ष में ठीक रहीं । सदी का महानायक का नाट़य रूपांतरण हो रहा है और शायद उस पर कोई लघु फिल्‍म भी बन रही है ( जैसी मुझसे स्‍वीकृति ली गई है ) । ये वो सहर तो नहीं के साथ ही कई लोगों की नाराज़गी झेलनी पड़ी । कई अपने नाराज़ हो गये । तो एक बहुत अपने ने उपन्‍यास पढ़कर कहा कि पंकज तुम अपनी तुलना एक बार तसलीमा नसरीन और रशदी से तो करो । अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के अपने खतरे होते हैं जो सब नहीं उठाते, लेकिन किसी न किसी को उठाने होते हैं ।एक और शोधपरक उपन्‍यास की भूमिका बन रही है । देखें क्‍या होता है । बहुत दिनों से कुछ नहीं लिखा, तो गौतम का फोन आ गया, लगा कि चलो कोई तो है जो परवाह कर रहा है इस बात की । ये पोस्‍ट गौतम के ही नाम ।

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 सौती काफिया : जैसा कि पहले ही कहा था कि इस बार होली पर सौती मुशायरा करवाने की इच्‍छा है । सौती मुशायरा आजकल तो नहीं होता । लेकिन जैसा कि एक किताब में पढ़कर ज्ञात हुआ कि पहले काफी होते थे । आजकल सौती क़ाफि़या ये शब्‍द तो चलन में है । सौती काफिया का अर्थ ये कि ऐसा काफिया जो उर्दू के हिसाब से ग़लत है लेकिन ध्‍वनि के हिसाब से सही है उसे सौती काफिया कहा जाता है । जैसे उर्दू में ख़ास  के साथ आस तथा प्‍यास  के काफिये नहीं लगाये जा सकते । क्‍योंकि खास  में जो  स है वो स्वाद  ( उर्दू का एक अक्षर ص) से बन रहा है तो आस  में   जो है वो सीन ( उर्दू का एक अक्षर س) से बन रहा है । देवनागरी में कोई फर्क नहीं दिखता लेकिन उर्दू में जब लिखेंगें तो फर्क साफ दिखेगा । इसलिये जब भी कोई शायर खास  के साथ आस, प्‍यास   को काफि़या बनायेगा तो पहले कह देगा कि '' माफ कीजिये इसमें मैंने सौती काफिया लगाया है ।''  इसी प्रकार से ख़त  के साथ मत, लत  को नहीं लिया जा सकता है । यदि ले रहे हैं तो आपको कहना होगा कि आपने सौती काफिया लगाया है ( जो ग़लत तो है लेकिन समान ध्‍वनि उत्‍पन्‍न कर रहा है अर्थात फोनेटिकली सही है, लिंग्विस्टिकली ग़लत है ) । यहां पर ये बात भी जान लें कि  आग  साथ दाग़  का क़ाफिया लगाना सौती काफिया  की श्रेणी में नहीं आता क्‍योंकि ये ध्‍वनि ( फोनेटिकली ) भी ग़लत है तथा लिपि ( लिंग्विस्‍टकली ) भी ग़लत है ।  आग  की ध्‍वनि तथा बाग़  की ध्‍वनियों में अंतर है । इसलिये मेरे विचार में आग  के साथ दाग़  का काफिया लगाना हिंदी या देवनागरी में भी ग़लत है और उर्दू में तो है ही ।

आह को चाहिये एक उम्र असर होने तक, कौन जीता है तेरी ज़ुल्‍फ़ के सर होने तक

ये मतला एक बार गौतम ने प्रश्‍न की तरह उछाला था कि इसमें तो क़ाफि़या सर को बनाया गया है तो फिर आगे इस ग़ज़ल में चचा गालिब ने ख़ाक हो जाएंगें हम तुमको ख़बर होने तक, दिल का क्‍या रंग करूं ख़ूने जिगर होने तक, शम्‍अ हर रंग में जलती है सहर होने तक  जैसे प्रयोग कैसे कर लिये । कायदे में तो क़ाफिया सर से बंध गया था । दरअसल में ये मतला भी उर्दू में पढ़ने पर समझ में आता है कि वहां पर असर में जो   है वो से ( ث )  से बन रहा है तथा सर में जो  स  है वो सीन ( س ) से बन रहा है । उर्दू में  स तीन प्रकार से लिखा जाता है से, सीन और स्वाद ( ث س ص  ) और तीनों में अलग अलग ही माना जाता है ।   उर्दू को देवनागरी में लिखना बहुत मुशिकल है क्‍योंकि हम तो तीनों ही स ( से, सीन और स्वाद )  के लिये केवल   ही लिखेंगें । तो फिर अंतर तो कहीं हुआ ही नहीं । ठीक वैसे ही जैसे उर्दू में   को 6 तरीके से लिखा जाता है (जीम, ज़ाल, ज़े, ज़्हे,  ज़्वाद, और ज़ोय ج ذ ز ژ ض ظ),    को दो तरीके से लिखा जाता है ते और तोय (  ت ط  ) तथा   को दो तरीके से  अलिफ़ और ऐन ( ا ع  )   लेकिन जब आप इनको देवनागरी में लिखेंगें तो केवल और कवल ज, अ और  ही लिखेंगें । यहां पर मामला थोड़ा लिपी से जुड़ा हो जाता है इसलिये उसको समझने के लिये हमें वह लिपि भी आनी चाहिये । हालांकि मैं अभी भी इस बात का झंडा उठा कर खड़ा हूं कि जो चीज़ जिस लिपि में लिखी जा रही है उसे उसी लिपि‍ के नियमों का पालन करना चाहिये । यदि आप देवनागरी में लिख रहे हैं तो आपको देवनागरी के ही नियमों का पालन करना चाहिये । इसलिये यदि आप देवनागरी में ग़ज़ल कह रहे हैं तो आपको सौती काफिये कहने की इजाज़त होनी चाहिये ( जो नहीं है ) । यदि आप देवनागरी में ग़ज़ल कह रहे हैं तो आपको छोटी ईता की इजाज़त होनी चाहिये ( जो नहीं है ) । अब ये प्रश्‍न कि यदि ये इतने सारे ज, स, त अ हैं तो क्‍यों हैं तथा हैं तो इनका क्‍या अर्थ है । असल में ये अरबी से आये हैं जहां इनके लिये अलग अलग ध्‍वनियां हैं । लेकिन हिंदी तथा उर्दू में नहीं है ( ऐसा इसलिये क्‍योंकि देवनागरी तथा उर्दू ये दो लिपियां हैं जिनकी एक ही भाषा है हिंदी । या यूं कह लें कि हिंदी को दो प्रकार की लिपियों में लिखा जा सकता है देवनागरी तथा उर्दू, मगर बोला एक ही प्रकार से जाता है । ) । अरबी में इनको बोलते समय अलग अलग प्रकार से ज़बान तथा गले का प्रयोग होता है लेकिन उर्दू और हिंदी में नहीं होता । यदि आपने किसी को पवित्र कुरान पढ़ते हुआ सुना है तो आप समझ रहे होंगें कि वे ध्‍वनियां किस प्रकार निकाली जाती हैं जो इन अक्षरों को अलग अलग करती हैं । जैसे क्‍यों वुसअ़त शब्‍द में   अक्षर के नीचे नुक्‍ता लगा है जबकि हम तो ये जानते हैं कि नुक्‍ता तो केवल क,ख, ज, ग, फ में ही लगते हैं । लेकिन ये नुक्‍ता बताता है कि   का उच्‍चारण अब विशिष्‍ट हो गया है अब उसे गले के विशेष भाग से बोलना है ।

सौती मुशायरा : तो इस प्रकार से सौती काफिया का अर्थ निकलता है । लेकिन ये सौती मुशायरा ,ये तो कम सुना हुआ लगता है । दरअसल में सौती मुशायरे के बारे में जो कुछ मुझे ज्ञात हुआ है वो ये है कि ये भी तरही मुशायरे की ही तरह होता था जिसमें कि बहर रदीफ और काफिया दे दिया जाता था । जिस पर गज़ल लिखनी होती थी । लेकिन ग़ज़ल और शेर की परिभाषा के उलट यहां पर शेर इस प्रकार निकालने होते थे जिनमें मिसरे का कोई भी अर्थ नहीं निकले । केवल बहर के वज्‍न के हिसाब से शब्‍द रख रख कर मिसरा इस प्रकार बनाया जाये कि उसका कोई भी अर्थ नहीं हो । यद‍ि कोई अर्थ बन गया तो शेर खारिज । यदि रदीफ काफिये से शब्‍दों का कोई तारतम्‍य मिल गया तो शेर खारिज । गरज ये कि आपको केवल वज्‍न के बारे में सोचना है, कहन के बारे में बिल्‍कुल भी नहीं । इसके बारे कहा जाता है कि ये बहुत ही मुश्किल काम होता था । तथा इससे बहर के बारे में काफी जानकारी मिल जाती थी । मुश्किल काम तो मुझे अभी इसलिये भी लग रहा है कि मैं अभी तक एक मिसरा नहीं बना पाया हूं । ऐसा जिसमें सारे रुक्‍न एक दूसरे से रूठे रूठे हों । कोई किसी का पूरक नहीं हो । इस प्रकार की ग़ज़ल सुनने वालों को खूब आनंद देती हैं इसलिये इस बार होली पर सौती तरही का आयोजन किया जायेगा ताकि फुल बेवकूफी से भरी ये ग़ज़लें आनंद दे सकें ।

बहरे वाफर :  बहरे वाफर पर इस बार का होली का सौती मुशायरा होना है  । इस बहर पर लगभग नहीं के बराबर काम उर्दू तथा हिंदी में मिलता है । बहर का रुक्‍न हजज जैसा है । बस फर्क ये है कि बहरे हजज में जहां 1222 होता है वहीं इसमें 12112 होता है अर्थात हजज की तीसरी दीर्घ मात्रा को दो लघु में बांट दिया है । ध्‍वनि लगभग एक जैसी है दोनों बहरों की । गुनगुनाने में एक सी ही लगती हैं । जैसे कामिल और रजज लगती हैं । क्‍योंकि वहां पर भी एक दीर्घ को तोड़ कर दो लघु बना कर बहर को अलग अलग कर दिया है और यहां पर भी वही है । खैर तो इस बार की योजना बहरे वाफर पर सौती तरही करने की है । यदि आप लोग वाफर मुसमन सालिम पर कोई सौती मिसरा लिख पाएं तो भेजें । जैसे

जो तुम  न अगर, कहीं से न दिल, कभी ये ख़बर, नहा के चलो

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अब ये तो एक उदाहरण है जो बहुत जल्‍दी में यहीं पर बनाया है । आप लोग तो माहिर लोग हैं मुझे भरोसा है कि टिप्‍पणियों में ही मिसरे मिलेंगें और उन्‍हीं में से हम तय कर लेंगें होली के सौती मुशायरे का मिसरा क्‍या होगा । जल्‍दी करें क्‍योंकि होली सर पर है अब तो एक माह से भी कम का समय बाकी है ।

और अंत में गीत ( झेला जाये )

मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

तरही के समापन के लिये इनसे बेहतर कौन हो सकता है, तो आज सुनिये वसंत पंचमी के इस पावन त्‍यौहार पर तीन मातृ शक्तियों की ग़ज़लें और प्रणाम कीजिये मां सरस्‍वती को ।

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या कुन्‍देंदु तुषार हार धवला, या शुभ्र वस्‍त्रावृता

या वीणा वर दंड मंडित करा, या श्‍वेत पद्मासना

आज मां सरस्‍वती का प्राकट्य दिवस है । मां सरस्‍वती, जिनके कारण आज हम सब एक सूत्र में इस प्रकार से बंधे हैं । मां को बुद्धि और ज्ञान की देवी कहा गया है लेकिन मुझे लगता है कि मां सरस्‍वती तो सकले व्‍यक्तित्‍व की देवी हैं । वे ही किसी व्‍यक्ति की चेतना को इस प्रकार से नियंत्रित करती हैं कि कोई गांधी, कोई प्रेमचंद, कोई गा़लिब, कोई तुलसी तो कोई लता मंगेशकर हो जाता है । हम सब उस मां के बहुत ऋणी हैं कि उसने हमें शब्‍दों के माध्‍यम से विशिष्‍ट बना दिया । उसने हमें वाणीपुत्र कहलाने का गौरव प्रदान किया । न हों भले हम ल्‍क्ष्‍मीपुत्र, लेकिन हमें गर्व है कि हम वाणी पुत्र हैं । उसने हमें करोंड़ों में से चयनित किया है ये हमारा सौभाग्‍य है । उसने हमें जीवन भर 99 को 100 करने की जुगाड़ में लगे किसी धनिक के रूप में जीवन काटने से बचा लिया । उसने हमें बचा लिया इस बात से कि हमारे जीवन का एक ही लक्ष्‍य हो पैसा । हमें उसने शब्‍दों की सत्‍ता दी है । हम इस शब्‍दों की सत्‍ता के प्रहरी हैं । हम किसी हीरे मोतियों से भरे कोषागार पर कुंडली मार के बैठे सर्प नहीं हैं । हम अपनी रचनाओं के संसार में मस्‍त होकर झूमते भ्रमर हैं जो हर पुष्‍प का रसपान करके अपने लिये मधु संचय कर रहे हैं । मधु जो अपने लिये नहीं दूसरों के लिये होगा ।

और आज केवल एक शेर मां के चरणों में अपनी तरफ से सुमन के रूप में समर्पित कर रहा हूं

मुझे वर दे मां, मेरी लेखनी, न कभी झुके, न कभी रुके

मेरे सीने में, यूं ही आग हो, मेरे हाथों में, यूं ही संग हो

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नववर्ष तरही मुशायरा

नये साल में नये गुल खिलें नई खुश्‍बुएं नया रंग हो

आज मां सरस्‍वती के प्राकट्य दिवस पर मां वाणी की तीन आराधिकाएं अपने शब्‍दों के पुष्‍पों से और अपने भावों चंदन से मां शारदा का पूजन कर रही हैं । आदरणीया निर्मला कपिला जी, आदरणीया लावण्‍या शाह जी और आदरणीया देवी नागरानी जी की ग़ज़लों से बेहतर और क्‍या हो सकता था आज के दिन के लिये । तो आज सुनें तीनों कवयित्रियो को ।

Nirmla Kapila di

आदरणीया निर्मला कपिला जी
नये साल मे सजें महफिलें चलो झूम लें कि उमंग हो
तेरे नाम का पिएं जाम इक खूब जश्न हो नया रंग हो
घटा छा रही उमंगें जवां खिले चेहरे हसीं शोख से
नये साल मे नये गुल खिलें नई हो महक नया रंग हो
तू मुझे कभी नही भूलना किये ख्वाब सब तेरे नाम अब
मेरा प्यार तू मेरे साजना रहूँ खुश तभी कि तू संग हो
कोई रह गया किसी मोड पर नही साथ था नसीबा मेरा
फिरूँ ढूँढती पता खुद का मै कोई खत सा ज्यों कि बैरंग हो
लिखूँ तो गज़ल मिटे दर्द सा भूल जाउँ मै सभी गम अभी
याद जब तलक करूँगी उसे रहूँगी सदा यूँ हि तंग हो
मेरे ख्वाब तो मुझे दें खुशीरहे जोश मे जरा मन मेरा
ए खुदा करो इनायत जरा मेरी ये खुशी नही भंग हो
गुजारे हुये कई साथ पल याद जब करूँ रुलायें मुझे
कौन बावफा कौन बेवफा छिडी मन मे जो कोइ जंग हो
कभी वक्त की नज़ाकत रही कभी वक्त की हिमाकत रही
नही लड सके कभी वक्त से लडे आदमी जो दबंग हो
नहीं गोलियाँ कभी हल रही किसी बात का किसी भी तरह
सभी ओर हो चैन और अमन करो बात जो सही ढंग हो
मिटे वैर और विरोध सा रहें प्यार से सभी देश मे
जियें चैन से ये दुआ करो जमीं पर कभी नही जंग हो
कौन नगर है कौन सी गली जहाँ हो नही कभी शोर सा
जरा होश खो किसी सडक पर युवा जब चलें हुडदंग हो

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आदरणीया लावण्‍या शाह जी

नये साल में नये गुल खिलें , नई खुशबुएँ नया रंग हो

हों बुलंद हौसले सबके और , दिलों में सभी के उमंग हो

दिले बेकली ,  तू ठहर तो ले, ये सहर हुई, है  नई नई

ये चढ़ेगी ऐसे हवाओं में, कोई झूमती, ज्‍यों पतंग हो

रुत जा रही , रुत आ रही , कुछ झूम के , चुपचाप सी

ये है कहता दिल, मिटे हर तमस, अब रोशनी, की तरंग हो

जो लिखा है सब के नसीब में, वही होना है, हो रहेगा वो  

है ये इल्तजा, के दुआ सदा, मेरी मां की बस,  मेरे संग हो

मेरे हमनवां, ये जो सिलसिले , ये जो दोस्‍तों, की हैं महफिलें

ये चलें यूं हीं, न रुकें कभी,  कोई हाल हो, कोई ढंग हो

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आदरणीया देवी नागरानी जी

नया रँग हो नया ढँग हो, नई आस और उमँग हो

"नए साल में नए गुल खिले, नई हो महक नया रँग हो"

हो न बेवफ़ा कभी वक़्त ये , न गुनाह का कोई अँग हो

हो लहू में बूए -वफ़ा जहाँ, नई ख़ुशबू और तरँग हो

मुझे राहतों की जो छाँव दे , कोई ऐसा भी तो शजर मिले

मेरी रूह को दे सुकून जो , वहाँ बज रहा नया चँग हो

मेरे ज़ख़्म भर के सुकून दे , कोई साज़ ऐसा वो छेड़ दे

जो बजा सके मेरा साज़े -दिल, कोई ऐसा मस्त मलंग हो

मेरा आसमाँ भी ज़मीं भी तू , है क़रीम मेरा वजूद तू

मेरी मुश्किलों को पनाह दे, हर रँग में तेरा रंग हो

न हो माँग सूनी न गोद हो, न जुदाई का कोई ख़ौफ़ हो

है दुआ में कोई असर अगर, न हो हादसे औ' न जंग हो

न शिक्सता हो तू ऐ ज़िंदगी, यहाँ राह सच की है बँदगी

न भरोसा टूटे कभी तेरा , वो है डोर तुम ही पतँग हो

हूं आज का तरही का ये अंक सचमुच ही उस स्‍तर का है जिस स्‍तर का समापन का अंक होना चाहिये । तरही का उससे अच्‍छा समापन और क्‍या हो सकता था । तो आनंद लीजिये इन ग़जल़ों का और दाद देते रहिये तथा प्रतीक्षा कीजिये अगले तरही मुशायरे का ।

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

तरही अब अपने समापन की ओर बढ़ गई है इसके बाद एक अंक ओर तथा उसके साथ ही समापन हो जायेगा । लेकिन आज तो गुरूकुल के चार विद्यार्थी लेकर आ रहे हैं अपनी ग़ज़ल ।

इस बार का तरही मुशायरा कुछ परेशानियों से जूझता हुआ आगे चल रहा है । इस बीच कई सारी व्‍यस्‍तताएं भी आ रही हैं । 6 फरवरी को इंदौर में पर्यावरण पर आधारित कव‍ि सम्‍मेलन में भाग लेने जाना पड़ा । एक अच्‍छे काम के लिये किये गये कवि सम्‍मेलन में भाग लेना अच्‍छा लगा । नदी को मैं सबसे ज्‍यादा प्रेम करता हूं । इसलिये मैंने नदी पर ही सब कुछ पढ़ा । कुछ मुक्‍तक और एक गीत नदी पर । अभी वापस आकर आफिस में बैठा हूं । और अब ये तरही को लिख रहा हूं । क्‍योंकि फिर 9 को निकलना है यमुना नगर के लिये । और फिर पूरे सप्‍ताह की व्‍यस्‍तताएं हैं । खैर चलिये आज तो चलते हैं चार शायरों के साथ । और फिर अगले अंक में समापन करते हैं तीन शायराओं के साथ तरही का ।

नववर्ष तरही मुशायरा

नए साल में नये गुल खिलें, नई खुश्‍बुएं नया रंग हो

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कंचन चौहान 

प्रणाम गुरू जी,
लीजिये, हर बार की तरह ना ना कहते हुए, भी कुछ अशआर....! अपने गुरूभाईयों की नाक रखने को

जो लकीर खींचे वो मैं रहूँ, जो भी बुत गढ़े मेरा ढंग हो
तो नही फरक, मुझे है कोई, तू कहीं रहे, कोई संग हो।

तेरे ही लिये मैंने तुझको भी, ले तुझे तुझी को है दे दिया
जरा खुद को खुद से बचाना खुद, खुदी के लिये नया संग हो

तू रहे निगाह के सामने, तुझे छू सकूँ कि न छू सकूँ,
है मेरी तरफ ही तेरी नज़र, मेरा ये भरम नही भंग हो।

मेरा बाग वो ही पुराना हो, नई फुनगियाँ, नई बेल हो,
नये साल में नये गुल खिलें, नई हो महक, नया रंग हो।
बने राडियाओं से दूरियाँ, रहे कलमाड़ी का फलक़ अलग,
मेरे देश में रहें शेर सब, नहीं आसतीं के भुजंग हो

रहे हर बरस सभी रुत भरी, वो शरद हो या कि हों बारिशें,
फगुआ उड़े, पुजे कजरियाँ, औ बसंत मस्त मलंग हो।

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रविकांत पांडेय

गुरुजी, प्रणाम। आलोचक "अर्श"  की  फेवरिट बहर ने जान निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। शेर ही  नहीं बन पा रहे हैं। लिहाज़ा कुछ  शेर पेश हैं, बगैर मतले के (इस बार तो मुशायरे से क्षमा मांग लेने को जी चाह रहा था ) -

यही सोचकर है रकीब को  यूं गले से मैंने लगा लिया
मैं कहा हूं चंदन अगर नहीं मेरे पास कोई भुजंग हो

हैं फकीर हम, हमें आती है सभी ठौर नींद यूं एक सी
वो जमीन हो, कि हो चारपाई, चटाई हो कि पलंग हो

न हो रूप पर तू फ़िदा शलभ नहीं रूप का है भरोसा कुछ
यूं बुला के पास जलाने का ये नया शमा का न ढंग हो

जो ये सोचते हैं कढ़ेगा कवि यूं कसीदे ताज की शान में
फिर उन अकबरों को बताओ ये कि तुम आज भी वही "गंग" हो

यूं सलाम कर, यूं दुआयें दे, दो हज़ार दस ने विदा लिया
नये साल में नये गुल खिलें, नई हो महक, नया रंग हो

है उड़ा रहा कोई शख्स तो कोई चाहता इसे काटना
तू संभल रवी तेरी जिंदगी यूं है जैसे कोई पतंग हो

नोट- कवि गंग (पूरा नाम गंगाधर) से एक दिन अकबर ने "आस करो अकबर की" इस वाक्यांश पर कविता लिखने को कहा। सोचा तो था कि मेरी प्रशंसा में कुछ लिखेगा किंतु हुआ उल्टा। कवि गंग ने यों लिखा-

एक को छोड बिजा को भजै, रसना जु कटौ उस लब्बर की।
अब तौ गुनियाँ दुनियाँ को भजै, सिर बाँधत पोट अटब्बर की॥
कवि ‘गंग तो एक गोविंद भजै, कुछ संक न मानत जब्बर की।
जिनको हरि की परतीत नहीं, सो करौ मिल आस अकब्बर की॥

अकबर ने खुद को अपमानित महसूस करते हुये इसका अर्थ पूछा। कवि गंग ने कहा-

एक हाथ घोड़ा, एक हाथ खर
कहना था सो कह दिया, करना है सो कर

अपनी स्पष्टवादिता के चलते कवि को (संभवतः जहांगीर ने) हाथी से कुचलवा कर मरवा दिया गया जिसका वर्णन कई परवर्ती कवियों ने किया है। जैसे-

सब देवन को दरबार जुरो तहँ पिंगल छंद बनाय कै गायो।
जब काहू ते अर्थ कह्यो न गयो तब नारद एक प्रसंग चलायो
मृतलोक में है नर एक गुनी कवि गंग को नाम सभा में बतायो।
सुनि चाह भई परमेसर को तब गंग को लेन गनेस पठायो

(हाथी = गणेश)

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प्रकाश सिंह अर्श 

गुरु जी प्रणाम ,
जैसे तैसे तरही लिख पाया हूँ ! अब आपके हवाले !

जो गिला है दर्द है पास में जो पुरानी याद बेरंग हो !
उसे छोड़ कर चलो हम मिले जहां बेक़रारी उमंग हो !!

मेरे सायबाँ मेरे हमनवां मेरे राज़दां मेरे पास आ ,
तेरे प्यार का मुझे आसरा भले और कोई न संग हो !

तुझे सोचना तुझे चाहना तुझे देखना तुझे पूजना ,
मेरी ज़िंदगी में है और क्या मेरे जीने का यूँ ही ढंग हो !

ये तमाम शह्र ही आजकल लगने लगा है अजीब सा ,
जिसे देखिये वही भागता फिरता है जैसे की जंग हो !

मेरे वास्ते कहीं कुछ न हो मेरी चाह है मरे मुल्क में ,
नए साल में नए गुल खिलें नई हो महक नया रंग हो !

बड़े नाज़ुकी से गुलाब भी करने लगे थे शिकायतें ,
ज़रा देखिये ज़रा सोचिये कोई आपसे नहीं तंग हो !

मेरे पास मेरा उसूल है तेरे पास तेरी शिकायतें ,
किसे छोड़ दूँ किसे थाम लूँ कोई डोर कोई पतंग हो !

वो परख रहे हैं मुझे ज़रा कोई उनको भी ये बताये तो ,
मेरा इश्क अपने मिजाज़ का यूँ लगे की जैसे तरंग/दबंग  हो !

मैं उसे हयात-ऐ- सुख़न कहूँ या वरक़-वरक़ मैं पढ़ा करूँ ,
जिसे देखता हूँ मैं गौर से तो लगे मेरा ही वो अंग हो !

वो कभी कभी आ जाता है मेरे ज़िंदगी के मज़ार पे ,
मुझे आदतें भी इसी की है तुम ऐ जहां क्यूँ दंग हो !


सुलभ जायसवाल


कहीं मुश्किलें कभी आफ़तें, कहीं राह में कोइ जंग हो 
चाहे जीत हो चाहे हार हो, तेरी रौशनी मेरे संग हो

नइ आस हो  नइ ताजगी, नइ हो पहल नया ढंग हो
नए साल में नए गुल खिले, नइ हो महक नया रंग हो 

कोइ जिंदगी न सुरंग हो, न ये कारवाँ ही अपंग हो
बरसे वहां धूप प्रेम की, जो ठिठुरता कहीं अंग हो
तेरे हाथ में मेरा हाथ हो, जो थके कभी जो गिरे कहीं
तेरे वास्ते हो जिगर मेरा, क्यूँ दोस्ती भला तंग हो

मैं हूँ नींद में तू है खाब में, मैं हूँ गीत में तू है राग में 
चलें उम्र भर यूँ ही हर कदम, जैसे थाप सह मिरदंग हो
ये सवाल है कश्मीर का, और हिंद के अभिमान का
मुंह तोड़ कर दे जवाब हम, कितना बड़ा ही भुजंग हो

हूं बहुत अच्‍छे शेर कहे गये हैं और हर एक ने अपने ही अलग अंदाज़ में कहे हैं  । कई  को कोट करने की इच्‍छा हो रही है लेकिन क्‍या करें इस बार के तरही को लेकर जो नियम बनाये हैं उनका पालन करना ही होगा । तो दीजिये दाद और प्रतीक्षा कीजिये अगले समापन अंक का ।

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

फरवरी का ये माह नये साल के एक माह पुराने हो जाने का संकेत है हमारा तरही मुशायरा भी नये साल की दहलीज़ को पार करके यहां तक आ गया है तो आज सुनिये तीन शायरों को ।

फरवरी का माह आने का मतलब होता है कि नया साल भी एक माह बूढ़ा हो गया है । एक माह बीत गया है । कई सारी बातें एक माह में हो गईं । कई कुछ ऐसा हो गया जो अप्रत्‍याशित था । और अब फरवरी सामने है । जिसमें अभी तो व्‍यस्‍तता ही व्‍यस्‍तता दीख रही है । 6 फरवरी से प्रारंभ हो रही व्‍यस्‍तता जो कि 18 तक की तो है ही । हां इन सबे के बीच ये कि 14 फरवरी को वेलेण्‍टाइन डे के दिन ही आदरणीया चित्रा मुदगल दीदी ने उपन्‍यास ये वो सहर तो नहीं पर एक विशेष कार्यक्रम रखा है । वो मेरे लिये खास है । और फिर ये कि सुधा ढींगरा दीदी के साहित्‍य पर एक विशेष आलेख का पाठ 11 फरवरी को सुधा दीदी के सामने ही करना है । 13 को दिल्‍ली में कई सारे लोगों से मिलना होगा ऐसा लग रहा है । तो चलिये अब चलते हैं तरही की ओर ।

नव वर्ष तरही मुशायरा

नये साल में नये गुल खिलें, नई खुश्‍बुएं, नया रंग हो

आज तीन शायर आ रहे हैं । तीनों ही अपने तरीके से ग़ज़ल कहते हैं । तीनों की ही कहन का अपना अंदाज़ है । और तीनों ही हमारे इस तरही मुशायरे के बहुत पुराने सदस्‍य हैं । नियमित रूप से हर तरही में हम गिरीश पंकज जी, मुकेश तिवारी जी और संजय दानी जी को सुनते आये हैं तो आज तीनों को एक साथ सुनते हैं ।

गिरीश पंकज
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जीवन हो ये सबका सुंदर हर पल हरदम नव उमंग हो
नए साल में नए गुल खिलें नई महक हो नया रंग हो
बीत गई जो बात भूल कर हम नूतन अध्याय रचें
लीक पुरानी छोड़ें साथी भीतर अपने इक तरंग हो
काम अधूरे होंगे पूरे है अब तो है संकल्प यही
चलते जाना लक्ष्य हमारा यही नया अब इक प्रसंग हो

होंगे अपने दुश्मन बेशक आलस भी या लापरवाही
सैनिक बनकर डटें लाम पर हारें ना हम नित्य जंग हो
मिलेंजुलें हम बढ़कर सबसे प्यार बांटना ही है जीवन
बिछड़े कोई नहीं यहाँ पर प्रेम-मोहब्बत साथ-संग हो
अंग विकल हों लेकिन अपना मन न कभी विकलांग रहे
काम करें कुछ ऐसा जिसको देख-देख हर शख्स दंग हो
बहुत अधिककी ख्वाहिश ले कर आखिर कितने पाप करें
धीरे-धीरे बढ़ते जाएँ यही लक्ष्य हो यही ढंग हो
देख रहे हैं अंधकार को इसे हराना है अब पंकज
उजियारे का दान करें हम हाथ हमारा नहीं तंग हो
जीवन हो ये सबका सुंदर हर पल हरदम नव उमंग हो
नए साल में नए गुल खिलें नई महक हो नया रंग हो 

mukesh tiwari[4]

मुकेश कुमार तिवारी

सरहदें मजबूत हों लहराये विजयी तिरंग हो

मुल्क में खुशियाँ बसे हर दिल में नई उमंग हो

नए गीत हों नए साज हों नई मौज नए अंदाज हो

हर बात में नई बात हो नई रीतियों का संग हो

नए रास्ते ईज़ाद हों नई मंजिलों पे हो नज़र

नए साल में नए गुल खिले नई खुश्बुएँ नया रंग हो

नए प्रश्न हों नई खोज हो उम्मीदियाँ नायाब हों

देख अपनी बुलंदियाँ रह जाये दुनिया दंग हो

हर हाथ को ये इल्म हो कि हर दुआ मकबूल हो

कलमा सजे मिरे होंठ पे तू जो गाता अभंग हो

इन्सान की तरह जियें ये दौर-ए-वहशत खत्म हो

अम्न की बातें चलें न ये रंजिशे न जंग हो

विश्वास हो इत्मीनान हो हर खौफ से अंजान हो

जिन्दगी कुछ यूँ चले पायाब खुशियाँ न तंग हो

 sanjay dani

संजय दानी

नये साल में नया गुल खिले नई हो महक नया रंग हो,
फ़िज़ा-ए-वतन में ख़ुलूस की सदा हो अदब की तरंग हो।
कहां तक अकेले चलोगे इश्क़ के सर्द, दश्ते-बियाबां में,
मेरा साया, गर न अजीज़ हो तो मेरी दुआयें तो संग हो।
ये लड़ाई सरहदों की,तबाह करेगी हमको भी तुमको भी,
तुम्हें शौक़े- जंग हो तो ग़ुनाहों के सरपरस्तों से जंग हो।

मैं चरागे आशिक़ी को बुलंद रखूंगा मरते तलक सनम,
भले आंधियां तेरे ज़ुल्मी हुस्न की,बे-शहूर मतंग हो।
ये जवानी की हवा चार दिन ही रहेगी, आसमां पे न उड़
सुकूं से बुढापा बिताने , हाथों पे सब्र की ही पतंग हो।
वफ़ा के मकान की कुर्सियां पे लगी हों कीलें भरोसों की,
दिलों के मुहल्ले में ग़ैरों के लिये भी मदद की पलंग हो।
कहां राज पाठ किसी के साथ लहद में जाता है दोस्तों,
दो दिनों की ज़िन्दगी में हवस के मज़ार जल्द ही भंग हो।
मुझे अपने कारवां के सफ़र से जुदा न करना ऐ महजबीं,
तेरे पैरों की जहां भी हो थाप , वहां मेरा ही म्रिदंग हो।
तेरे आसमां पे मेरा ही हुक्म चलेगा दानी , ये याद रख,
मेरी नेक़ी जीतेगी ही तेरी बदी चाहे कितनी दबंग हो।

हूं कई सारे शेर उम्‍दा निकले हैं । ये बात सच है कि हर ग़ज़लगो का अपना एक अंदाज़ होता है जो उसका नाम लिखे बिना भी पहचाना जा सकता है । खैर तरही का ये अंक भी पढि़ये और दाद दीजिये तथा प्रतीक्षा कीजिये अगले अंक की  ।

मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

नये साल का मुशायरा अब तो जनवरी की दहलीज़ को पार करके फरवरी तक आ गया है, तो चलिये आज सुनते हैं चार शायरों की शानदार ग़ज़लों को ।

 इस बार का तरही मुशायरा जनवरी को पार करता हुआ फरवरी में आ गया है । वैसे इस बार तो ऐसा लगा था कि बहुत कम ग़ज़लें आएंगीं और जल्‍दी ही काम समाप्‍त हो जायेगा लेकिन हुआ वैसा नहीं । इस बार न केवल अच्‍छी बल्कि कई तो बहुत ही अच्‍छी ग़ज़लें मिली हैं । तरही को 8 फरवरी के पहले पूरा करने का मन है क्‍योंकि 9 को यमुना नगर के लिये निकलना है वहां सेमीनार में 10, 11 और 12 को रुकने के बाद 13 और 14 को दिल वालों की दिल्‍ली में रहकर ( वेलेण्‍टाइन डे भी दिल्‍ली में ) वापसी होगी । 14 को संभवत: आदरणीय चित्रा मुदगल दीदी ने उपन्‍यास ये वो सहर तो नहीं पर कोई कार्यक्रम रखा है उसमें शामिल होकर वापसी होगी । उसके बाद होली का तरही होना है और जाने क्‍या क्‍या होना है । 8 के पहले दो कवि सम्‍मेलन यहीं मध्‍यप्रदेश के होने हैं । सो बस बीच बीच में कभी कभी समय मिलता है तो भाग आता हूं । एक जगह तो कवि सम्‍मेलन जो कार्पोरेट से जुड़े लोग करवा रहे हैं वहां पर विषय पर कविता पढ़नी है सो नई लिखना पड़ रही है । तरही के लिये अभी तक एक मिसरा लिखा है और मिसरा आकर्षित कर रहा है कि पूरी ग़ज़ल कह ही दी जाये ।

नव वर्ष तरही मुशायरा

नये साल में नये गुल खिलें नई खुश्‍बुएं नया रंग हो

तरही  के इस बार के फार्मेट में जो तय हुआ था कि सारी ग़ज़लें उसी रूप में लगाई जाएंगीं जैसी प्राप्‍त हो रही हैं उससे काफी फायदा हुआ है । पहला तो ये कि ग़ज़लें बहुत उम्‍दा मिली हैं । और दूसरा ये कि ग़ज़लों में ग़लतियां भी कम ही मिली हैं । हालांकि 2212 और 11212  की उलझन ने सबका उलझाया है । नवीन चतुर्वेदी जी से इस विषय में काफी लम्‍बी बात भी हुई कि जो शब्‍द हिंदी में 112 की ध्‍वनि उत्‍पन्‍न करते हैं उनको क्‍यों नहीं ले सकते । खैर ये लम्‍बी बहस का विषय है पर एक बात समझ लें कि उर्दू में दो शब्‍द हैं नज़र और नज़्र  दोनों से आप बखूबी परिचित हैं । नज़री  तौर पर यदि ऐसा कहा जा रहा है तो वज्‍न 112 ही होगा  क्‍योंकि 22 करने पर शब्‍द नज़्री  हो जायेगा । खैर आइये चलते हैं सुनते हैं चार शायरों विनोद कुमार पांडेय, संदीप साहिल, नवीन चतुर्वेदी और धर्मेन्‍द्र कुमार सिंह को ।

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(विनोद कुमार पांडेय)

नए साल में,नए गुल खिलें,नइ हो महक,नया रंग हो

मन में नया उत्साह हो,नइ हसरतों के पतंग हो

भोजन मिले भूखे है जो,फुटपाथियों को छत मिले

आपस में हो सौहार्दयता,निर्धन धनी एक संग हो

हँस कर जियें सब बेटियों, माँ-बाप भी खुशहाल हो

ना दहेज की कोई माँग हो, ना ससुराल में कोई तंग हो

भय दूर हो सब हो सुखी, राहत मिले सब लोग को

बदनाम हो ना मुन्नी कोई, ना ही कोई भी दबंग हो

कोई नया मोदी न हो,और ना कोई कलमाड़ी हो

घोटालेबाजी दूर हो,सरकार के सही ढंग हो

सब मान लें इस ध्येय को, भगवान सारे एक है

हिंदू-मुसलमाँ एक हो, ना धर्म के लिए जंग हो

चारो तरफ बस हो खुशी,मुस्कान हो हर अधर पर

विकसित हो अपना देश यूँ, बैराक ओबामा दंग हो

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संदीप 'साहिल'

इनका जो फोटो इनके ब्‍लाग उभरता साहिल के प्रोफाइल में लगा है वही यहां पर लगाया है बाकी इनके बारे में कोई ज्‍यादा जानकारी नहीं है क्‍योंकि इनकी प्रोफाइल कहती है कि ये मेल ( पुरुष ) हैं और यूनाइटेड स्‍टेट रहते हैं ।

नए साल में, नए गुल खिलें, नयी हो महक, नया रंग हो
नयी सुबह हो, नयी शाम हो, नई दिल में सब के उमंग हो
नए साल में, मेरे साकिया, तू बरसता जा, यूँ ही बन घटा
न तो कुछ कमी तेरी मय में हो, न तो मैकदा तेरा तंग हो
ये मेरी दुआ है मेरे खुदा, तेरी छाँव में हो ये सब जहाँ
न बुराइयों का भुजंग हो, न नहूसतों का नहंग हो
मुझे तू सुने, तुझे मैं सुनूँ, आओ प्यार की, कोई बात हो
ये जो सरहदें हैं, मिटा दें हम, न कभी भी अब, कोई जंग हो
नयी मुश्किलें भी तो आएँगी, वो घटायें ग़म की भी छायेंगी
मुझे क्या फिकर, मुझे क्या है डर, मेरे हमसफ़र तू जो संग हो
ऐ मेरे उदू, ऐ हरीफ-ऐ-जां,  मेरी पीठ पर न छुरी चला
मुझे क़त्ल होने का शौक गर, तुझे क़त्ल करने का ढंग हो

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नवीन सी चतुर्वेदी

स-हृदय यही स-विनय कहें स-कुशल सभी स-उमंग हों|
नये साल में नये गुल खिलें नई खुश्बुएं नये रंग हों|१|
कु-मती भगे सु-मती जगे सु-मधुर विचार विमर्श हों|
सु-गठित समाज बनायँ और सदैव मस्त मलंग हों|२|
न बहे रुधिर न जले जिगर न कटे पतंग अनंत से|
न दबें कदापि अनीति से औ बिना वजह न दबंग हों|३|
विधिनानुसार चले जगत, अ-घटित घटे न कहीं कभी|
सदुपाय मीर करें वही चहुँ ओर मौज तरंग हों|४|
सु-मनन करें, सु-जतन करें, अभिनव गढ़ें, अनुपम कहें|
वसुधा सवाल उठा रही क्यूँ न फिर से ग़ालिब-ओ-गंग हों|५|

dharmendra kumar

धर्मेन्द्र कुमार सिंह

धर्मेन्‍द्र जी पहली बार संभवत: तरही में आ रहे हैं ये वरिष्ठ अभियन्ता जनपद निर्माण विभाग - मुख्य बाँध बरमाना, बिलासपुर हिमाचल प्रदेश में हैं । इनका ब्‍लाग मधुशाला नाम से है ।

नए साल में नए गुल खिलें नई हो महक नया रंग हो

जो भी फल लगें सभी में बँटें ये विकास का नया ढंग हो ।१।

लड़े तम से जो मरे कट के जो सभी चाँद थे मेरे देश के

न घटे कभी यहाँ चाँदनी हो उजाले में जो भी जंग हो ।२।

चलें बहस या चलें गालियाँ मचें झगड़े या बजें तालियाँ

चले जैसे भी रहे चलता ही न कभी सदन यहाँ भंग हो ।३।

रहीं टालतीं जिसे कुर्सियाँ गए साल ने दिया फैसला

रहें मिल के अब एक दूजे में होवे भगवा या हरा रंग हो ।४।

तेरे बिन सनम मेरी जिंदगी आ के देख ले बनी वह नदी

हो बहाव कुछ युँ तो जिसमें पर न तरंग हो न उमंग हो ।५।

नहीं गलती से कोइ काट दे ये कमर तेरी इसे साध ले

है मटक रही युँ लहर लहर ये कुरंग हो या पतंग हो ।६।

ये उगल जहर छुपे बिल में जा कभी भूख से जो है तड़पता

तभी निकलता है ये जानवर हो ये नेता या के भुजंग हो ।७।

जिसे देख लो यहाँ आ रहा जिसे मन हुआ वो ही जा रहा

न सराय सी ये बनी रहे गली प्रेम की जरा तंग हो ।८।

इस बार तो दाद देने का काम श्रोताओं पर ही छोड़ा हुआ है और श्रोता दाद भी खूब दे रहे हैं तो आज की ग़ज़लों में भी कई कई शेर दाद देने लायक हैं । कुछ शेर तो बाक़ायदा चौंका रहे हैं । तो आज की ग़ज़लों पर दीजिये दाद और इंतज़ार कीजिये अगली बार का ।

 

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