सोमवार, 20 मार्च 2017

आज शीतला सप्तमी पर होली की आग का ठंडा करके होली के त्योहार का समापन होता है, तो अपनी अत्यंत ठंडी ग़ज़ल लेकर आ रहे हैं भभ्भड़ कवि भौंचक्के।

मित्रों होली का मुशायरा बहुत ही अच्छा रहा। सबने ख़ूब कमाल की ग़ज़लें कहीं। और सबसे अच्छी बात तो यह रही कि क़फिये की परेशानी बताने वालों ने भी ग़ज़ब की ग़ज़लें कहीं। अब मुझे लगता है कि हम यहाँ पर और कठिन प्रयोग भी कर सकते हैं। आप सब जिस अपनेपन से आकर यहाँ पर महफ़िल सजाते हैं उसके लिए आप सबको लाखों लाख सलाम प्रणाम। असल में तो यह ब्लॉग है ही आप सबका, यह एक परिवार है जिसमें हम सब वार-त्योहार मिलते हैं एक साथ एकत्र होते हैं और ख़ुशियाँ मनाते हैं। अब अगला त्योहार ईद का आएगा जून में तो हम अगला त्योहार वही मनाएँगे। चूँकि हमें शिवना साहित्यिकी हेतु हर चौथे माह एक मुशायरा चाहिए ही तो हमें अब इस प्रकार से ही करना होगा। ईद इस बार जून के अंतिम सप्ताह में है तो हम पवित्र रमज़ान के माह में अपना मुशायरा प्रारंभ कर देंगे और ईद तक उसको जारी रखेंगे। जुलाई के अंक हेतु हमें ग़ज़लें प्राप्त हो जाएँगी।

आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में

आज भभ्भड़ कवि अपनी ठंडी ग़ज़ल लेकर आ रहे हैं ताकि बहुत अच्छी और गर्मा गर्म ग़ज़लों से रचनाकारों ने जो होली की आग भड़का रखी है वह शीतला सप्तमी के दिन ठंडी हो जाए। कुछ शेर भभ्भड़ कवि ने घोर श्रंगार में लिख दिये हैं होली के अवसर का लाभ उठाते हुए, आप इस बात पर उनकी ख़ूब लानत-मलानत कर सकते हैं। मित्रों इस बार का जो क़ाफिया था वह ज़रा सी असावधानी से मिसरे से असंबद्ध हो सकता था और भर्ती के क़ाफिये में बदल सकता था। भभ्भड़ कवि ने केवल यह देखने की कोशिश की है कि वह कौन से क़ाफिये हैं जो बिना असंबद्ध हुए उपयोग किए जा सकते हैं और किस प्रकार से उपयोग किये जा सकते हैं। इस बार का रदीफ़ बहुअर्थी रदीफ़ था। रंग शब्द के कई अर्थ होते हैं। पहला तो वही रंग मतलब एक वस्तु जैसे ‘लाल रंग’, दूसरा रंग रंगने की क्रिया जैसे ‘मुझे रँग दे’, तीसरा रंग एक अवसर जैसे ‘आज रंग है’, चौथा रंग एटीट्यूड में होना, फुल फार्म में होना, प्रतिभा का पूरा प्रदर्शन जैसे यह कि ‘आज तो वह पूरे रंग में है’, पाँचवा रंग होता है असर, किसी का असर, जैसे ‘मैं हमेशा उसके रंग में रहा’। इसलिए इस बार सबसे ज़्यादा प्रयोग करने के अवसर थे, और रचनाकारों ने किए भी। भभ्भड़ कवि ने अलग-अलग क़ाफियों के साथ अलग-अलग प्रयोग करने की टुच्ची-सी कोशिश की है। बहुत सारे शेर कह डाले हैं, कौन रोकने वाला है, उस्ताद कहा करते थे कि बेटा बुरा ही करना है तो ख़ूब सारा करो, गुंजाइश रहेगी कि उस ख़ूब सारे बुरे में एकाध कुछ अच्छा भी हो जाए। कुल 32 क़ाफियों का उपयोग इस ग़ज़ल में किया गया है। जो क़ाफिये असंबद्ध होने के ख़तरे से भरे थे उनको छोड़ दिया गया है। तो आइये इतनी अच्छी ग़ज़लों के बाद यह कड़वा किमाम का पान भी खा लिया जाए। तो लीजिए प्रस्तुत है भभ्भड़ कवि भौंचक्के की ग़ज़ल।

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भभ्भड़ कवि ‘भौंचक्के’

जिसको देखो वही है तेरे रंग में
कुछ तो है इस तेरे साँवले रंग में

इक दुपट्टा है बरसों से लहरा रहा
सारी यादें रँगी हैं हरे रंग में

दिल की अर्ज़ी पे भी ग़ौर फ़रमाइये
कह रहा है रँगो भी मेरे रंग में

रंग डाला था होली पे उसने कभी
आज तक हम हैं भीगे हुए रंग में

बस इसी डर से बोसे नहीं ले सके 
दाग़ पड़ जाएँगे चाँद-से रंग में

तुम भी रँगरेज़ी देखो हमारी ज़रा
"आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में"

जिस्म से रूह तक रंग चढ़ जाएगा
थोड़ा गहरे तो कुछ डूबिये रंग में

थक गया है सफ़ेदी को ढोते हुए
अब रँगो चाँद को दूसरे रंग में

आज रोको लबों की न आवारगी
बाद मुद्दत के आए हैं ये रंग में

ख़ूब बचते रहे रंग से अब तलक
सोलहवाँ जब लगा, आ गिरे रंग में

हम दिवानों की होली तो बस यूँ मनी
उनको देखा किये भीगते रंग में

इक दिवाना कहीं रोज़ बढ़ जाएगा
रोज़ निकलोगे गर यूँ नए रंग में

दिल को मासूम बच्चा न समझो, सुनो
तुमने देखा कहाँ है इसे रंग में

दोस्ती का जो करते थे दावा बहुत
एक सच जो कहा, आ गए रंग में

रिंद प्यासे हैं तब तक ही ख़ामोश हैं
थोड़ी मिल जाए तो आएँगे रंग में

उसके रँग में रँगे लौट आए हैं घर
घर से निकले थे रँगने उसे रंग में

उफ़ ! लबों की ये सुर्ख़ी, ये काजल ग़ज़ब !
आज रँगने चले हो किसे रंग में

शर्म से जो लरजते थे दिन में वही
रात को अपने असली दिखे रंग में

मन में कोंपल-सी फूटी प्रथम प्रेम की
कच्चे-कच्चे सुआपंखिये रंग में

वस्ल की शब बरसती रही चाँदनी
हम नहाते रहे दूधिये रंग में

तब समझना कि तुमको मुहब्बत हुई
मन जो रँगने लगे जोगिए रंग में

ज़ाफ़रान एक चुटकी है शायद मिली
इस तेरे चाँदनी से धुले रंग में

ज़िंदगी ने थी पहनाई वर्दी हरी
मौत ने रँग दिया गेरुए रंग में

आसमाँ, फूल, तितली, धनक, चाँदनी
है हर इक शै रँगी आपके रंग में

फिर कोई दूसरा रंग भाया नहीं
उम्र भर हम उसीके रहे रंग में

वस्ल की रात उसका वो कहना ये, उफ़ !
'आज रंग डालो अपने मुझे रंग में'

हैं कभी वो ख़फ़ा, तो कभी मेहरबाँ
हमने देखा नहीं तीसरे रंग में

आपका वक़्त है, कौन रोके भला
आप रँग डालें चाहे जिसे रंग में

कल की शब हाय महफ़िल में हम ही न थे
सुन रहे हैं के कल आप थे रंग में

रूह पर वस्ल का रँग चढ़े, हाँ मगर
जिस्म भी धीरे-धीरे घुले रंग में

है 'सुबीर' उम्र का भी तक़ाज़ा यही
ख़ुश्बुए इश्क़ भी अब मिले रंग में

तो मित्रों यह है भभ्भड़ कवि भौंचक्के की ग़ज़ल। दाद खाज खुजली जो कुछ भी आपको देना है आप उसके लिए स्वतंत्र हैं। सड़े अंडे, टमाटर आदि जो कुछ आपको देना है वह आप कोरियर भी भेज सकते हैं। भभ्भड़ कवि पूरे मन से उन सबको स्वीकार करेंगे। तो अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों। होली के मुशायरे का इसी के साथ समापन घोषित किया जाता है। भभ्भड़ कवि ने पूरे बत्तीस लोटे पानी डाल कर उस आग को बुझाया है जिसे आप लोगों ने मेहनत से सुलगाया था। तो मिलते हैं अगले मुशायरे में।

शनिवार, 18 मार्च 2017

होली का मुशायरा अब अपने अंतिम पड़ाव तक आ पहुँचा है। आज तरही के समापन से ठीक पहले सुनते हैं पारुल सिंह जी, राकेश खण्डेलवाल जी और तिलकराज कपूर जी को।

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मित्रों इस बार का तरही मुशायरा बहुत ही आनंद में बीता है। एक से बढ़ कर एक ग़ज़लें सामने आईं हैं। इन ग़ज़लों में कई तरह के रंग खिले और होली का एक पूरा माहौल इन ग़ज़लों में बन गया। अब हम धीरे धीरे समापन तक आ गए हैं। समापन हमेशा ही एक प्रकार का ख़ालीपन मन के अंदर पैदा करता है। मगर अभी तो एक अंक और आएगा जिसमें भकभौ आएँगे।

आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में

आइये आज होली के तरही मुशायरे को आगे बढ़ाते हैं। समापन के ठीक पहले सुनते हैं पारुल सिंह जी, राकेश खण्डेलवाल जी और तिलकराज कपूर जी को। और अंत में भभ्भड़ कवि को समापन करना है ऐसा हम मान कर चल ही रहे हैं। तो इसके बाद अब कोई ग़ज़ल नहीं भेजिए क्योंकि बस अगली पोस्ट अंतिम होगी जिसमें समापन होगा।

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पारुल सिंह

शाम ढलने लगी लाल-से रंग में
जैसे आँचल किसी का उड़े रंग में

मैँ ग़ज़ल घोल लाई सजन चाँद में
आओ रँग दूँ तुम्हें इश्क़ के रंग में

चाँद ने बाहों में भर के पूछा मुझे
शर्म से गाल क्यूँ रँग गए रंग में

फागुनी रात ने चाँद से ये कहा
और मस्ती मिला, बावरे, रंग में

झम झमा झम झमकती फिरे ज़िंदगी
हो गई है धनक आपके रंग में

हैं ज़रा सा ख़फ़ा अब मना लो हमें
ये मिलन फिर सजे इक नए रंग में

शर्त है बात हक़ की ज़ुबाँ पर न हो
ढल गई है वफ़ा कौन से रंग में

दिल मिले साथ दिल के गले से लगा
केसरी घुल गया है हरे रंग में

बस गए धूप बन के नज़र में पिया
वस्ल ही वस्ल है अब खिले रंग में

शाम ढलने लगी लाल-से रंग में मतले में ही प्रकृति का बहुत सुंदर चित्र खींचा गया है। और उसके बाद गिरह का शेर भी हल्की सी तब्दीली के साथ बहुत ही सुंदर बना है। ग़ज़ल का चाँद में घोलना और उसके सजन का रँगना वाह क्या प्रतीक हैं। और अगले ही शेर में चाँद का बाहों में भरना भी और पूछना भी कि गाल क्यूँ रँग गए हैं, क्या बात है सुंदर। अगले शेर में एक बार फिर से चाँद है जिसे रात कह रही है कि और मस्ती मिला बावरे, वाह क्या बात है बहुत ही सुंदर शेर है। और किसी के प्रेम में ज़िंदगी का धनक बन जाना और झमकते फिरना ग़ज़ब है। झमकना ही तो प्रेम का सबसे पहला लक्षण होता है।  हक़ की बात करने से मना किया जाता है तो उसमें वफ़ा सचमुच नहीं होती है। प्रेम में तो सब कुछ हक़ के दायरे में आ जाता है। और जब पिया धूप बन कर नज़र में बस जाएँ तो हर क्षण वस्ल का ही होता है और वह भी धूप के ​खिले रंग में। वाह वाह क्या बात है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल।  
TILAK RAJ KAPORR JI

तिलकराज कपूर

भांग को घोटते घोटते रंग में
क्‍या न क्‍या कह गये अधचढ़े रंग में।

टोलियों में चले मनचले रंग में
अजनबी भी मिले तो रंगे रंग में।

साल भर मेक-अप से पुते रंग में
कुछ मिटे रंग से, कुछ मिले रंग में।

रोग मधुमेह जबसे लगा मित्रवर
अब मिठाई न कोई चले रंग में।

एक उत्‍सव सराबोर है रंग से
फायदा मत उठा मुँहजले रंग में।

रंग इन पर चढ़ेगा न दूजा कोई
गोपियाँ हैं रँगी श्‍याम के रंग में।

टेसुओं से लदी डालियाँ कह रहीं
आईये, खेलिये, डूबिये रंग में।

सीख शाला से बच्‍चों ने हमसे कहा
खेलिये न रसायन भरे रंग में।

कुछ मुहब्‍बत मिलाकर गुलालों में हम
''आओ रंग दें तुम्‍हें इश्‍क़ के रंग में।''

तिलकराज जी ने होली के रंगों में रँगी यह ग़ज़ल कही है बहुत ही सुंदर ग़ज़ल। मतले में एक बारीक सी बात है, जिन लोगों ने भाँगा घोंटने वालों को देखा है वे इस बारीकी को समझेंगे कि उस समय घोंटने वाला अलग ही रंग में होता है, उस रंग को बहुत अच्छे से उठाया है मतले में। और साल भर जो मेकअप से पुतते हैं उनके लिए होली के क्या मायने भला ? उनकी तो साल भर ही होली होती है। मधुमेह का रोग अगले शेर में एक दुखती रग पर हाथ रख रहा है। गोपियों पर उद्धव ने बहुत रंग चढ़ाने की कोशिश की थी लेकिन हार गए थे और कह दिया था कि रंग इन पर चढ़ेगा न दूजा कोई। टेसुओं से लदी डालियाँ सचमुच ही आमंत्रण देती हैँ कि होली आ गई है और होली होनी चाहिए। और अंत में मुहब्बत को गुलालों में मिला कर किसी को अपने इश्क़ के रंग में रँगने का आमंत्रण बहुत ही सुंदर। क्या बात है वाह वाह वाह।

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राकेश खण्डेलवाल

पन्चमी आ गई सतरँगे रंग में
आओ रंग दें तुम्हें इश्क के रंग में

राह तकते हुये नैन थकने लगे
आयें भकभौ लिये फ़लसफ़े रंग में

आस! होली पे अब रहनुमाई रँगे
एक शफ़्फ़ाक से दूधिये रंग में

आई गज़लों की तहज़ीब हमको नहीं
फ़िर भी गज़लें कहें डूब के रंग में

रंग  इक जो चढ़े फिर न उतरे कभी
तरही आयेगी हर पल नये रंग में 
राकेश जी बहुत कम ग़ज़लें कहते हैं। इस बार भभ्भड़ कवि भौंचक्के को निमंत्रित करने हेतु उन्होंने भी ग़ज़ल कह ही दी है। और जब राकेश जी का निमंत्रण है तो भकभौ को आना ही होगा। रंग की पंचमी जो इधर मालवा अंचल में होती है वह सचमुच ही सतरँगे रंग् की होती है। और अगले ही शेर में भकभौ को पीले चावल देने राकेश जी सीधे वाशिंगटन डीसी से आ गए हैं। भकभौ पर अब दबाव बन चुका है पूरा। अगले शेर में देश की राजनीति को श्वेत रंग से रँगे जाने की एक ऐसी कामना जो हर देशवासी के मन में है। आमीन। इतनी अच्छी ग़ज़ल कहने वाले को ग़ज़ल की तहज़ीब नहीं आती यह कहना ही ग़लत है। और अंत में हमारे इस तरही मुशायरे की लिए एक प्रार्थना है कि यह होता रहे यूँ ही निरंतर। बहुत ही सुंदर कामना और बहुत ही सुंदर ग़ज़ल। क्या बात है वाह वाह वाह।

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तो मित्रो यह हैं आज के तीनों रचनाकार और आपका वही काम कि आपको दाद देना है खुलकर। क्योंकि आपकी दाद ही भकभौं के लिए हौसला बढ़ाने का काम करेगी।

बुधवार, 15 मार्च 2017

हर त्यौहार का एक रंग वह भी होता है जिसे बासी रंग कहा जाता है, इस ब्लॉग पर बासी रंग और ज़्यादा खिलता है। आइए आज तिलकराज कपूर जी और डॉ. सुधीर त्यागी के साथ बासी रंग मनाते हैं।

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होली का पर्व आया और चला भी गया हालाँकि हमारे इधर मालवा में तो अभी असली रंग का दिन रंग पंचमी बचा हुआ है। हमारे यहाँ होली पर तो नाम का रंग होता है असली तो रंग पंचमी ही होती है। और इस बार तो लग रहा है कि यहाँ ब्लॉग पर भी रंग पंचमी तक रंग चल ही जाएगा। बल्कि लगता है कि भभ्भड़ कवि भौंचक्के की इण्ट्री तो शायद उसके भी बाद हो पाए। कुछ नए लोग जुड़ रहे हैं जो दौड़ते भागते रेल पकड़ रहे हैं। जो भी हो हमारा मक़सद तो यही है कि रचनाधर्मिता को बढ़ावा दिया जाए, जो भी हो, जैसे भी हो। असल तो रचनाधर्मिता ही होती है। तो आइए आज रंग भरे माहौल का और बढ़ाते हैं।

आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में

मित्रो इस बार की ग़ज़लें बहुत परिपक्व ग़ज़लें हैं। और ऐसा हुआ है कुछ कठिन रदीफ और काफ़िये के कॉम्बिनेशन के कारण। यह सारी ग़ज़लें और गीत शिवना साहित्यिकी पत्रिका के अगले अंक में प्रकाशित होंगे। और हाँ चूँकि पत्रिका त्रैमासिक है तो अब हमें साल में चार मुशायरे तो आयोजित करने ही होंगे। होली दीवाली तो होते ही हैं अब लगता है वर्षा और ग्रीष्म के मुशायरे भी आयोजित करने होंगे। आइए आज बासी होली मनाते हैं तिलकराज कपूर जी और डॉ. सुधीर त्यागी के साथ।

TILAK RAJ KAPORR JI

तिलकराज कपूर

शह्र डूबा कहूँ कौनसे रंग में
दिख रहे हैं सभी आपके रंग में।

रंग क्या है, समझने की चाहत है गर
सर से पा तक कभी डूबिये रंग में।

प्यास लगने पे अक्सर ही हमने पिये
अश्रु अपनी घुटन से भरे रंग में।

किस तरह से वो निष्पक्ष होंगे कहो
जन्म जिनका हुआ और पले रंग में।

जब मुहब्बत में आगे निकल आये हम
दौर रुस्वाईयों के चले रंग में।

जो दिखा आँखों से बस वही तो कहा
ये खबर क्यूँ  छपी दूसरे रंग में ।

रंग नफ़रत का तुमसे उतर जायेगा
''आओ रंग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में।''

वाह वाह तिलक जी तो एक के बाद एक ग़ज़लें प्रस्तुत करते जा रहे हैं। पहले दो लग चुकी हैँ और अब यह तीसरी ग़ज़ल, क्या बात है। सच है जब सब के सब किसी एक ही रंग में रँग चुके हों तो यह कह पाना बड़ा मुश्किल होता है कि कौन किस रंग में रँगा है। रंग क्या है समझने की चाहत हेतु सर से पैर तक डूबने की सलाह बहुत ही सुंदर है। किस तरह से वो निष्पक्ष होंगे भला में जन्म होना और पलना जो रंगों में कहा गया है वह बहुत ही गंभीर इशारा है। पत्रकारिता की ख़बर लेने वाला शेर जिसमें कहा गया है कि हमने तो कुछ और कहा था लेकिन छपा तो कुछ और है बहुत ही अच्छा शेर बना है। एक सुचिंतित टिप्पणी है यह आज की पत्रकारिता पर। और अंत में गिरह का शेर भी उतना ही सुंदर बना है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल क्या बात है वाह वाह वाह।

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डॉ. सुधीर त्यागी

क्या मिला तुमको नफ़रत भरे रंग में
आओ रँग दे तुम्हे इश्क के रंग में

ऐसी बस्ती बसे काश कोई, जहाँ
आदमी प्रेम के बस रँगे रंग में

अब नहीं हैं अमन के कबूतर यहाँ
सब रँगे केसरी या हरे रंग में

प्यार, मनुहार, तकरार सब हैं रखे
क्या पता तुम मिलो कौनसे रंग में

अब बचे कौन कातिल नज़र से यहाँ
घुल गई भंग जब हुस्न के रंग में

डॉ. सुधीर जी पहली बार हमारे मुशायरे में आ रहे हैं। दिल्ली के रहने वाले हैं और कविताएँ ग़ज़लें लिखने का शौक़ रखते हैं। पहली आमद है इसलिए तालियों से स्वागत आपका। मतला में ही गिरह को बाँधा गया है और बहुत अच्छे से बाँधा गया है। और अगले ही शेर में एक ऐसी बस्ती की कामना करना जहाँ पर हर आदमी बस और केवल बस प्रेम के ही रंग में रँगा हुआ हो। सचमुच ऐसी बस्ती की कामना तो हम सब रचनाकार करते हैं। अगला शेर जिसमें अमन के कबूतरों के माध्यम से हमारे झंडे के तीसरे रंग की बात कही गई है बहुत ही सुंदर बन पड़ा है। प्यार, मनुहार, तकरार सब रखने की बात करने वाला शेर प्रेम की अंदर की कहानी कहता है, सच में हमें सारे रंग ही रखने होते हैं। और अंत में हास्य का तड़का लगाए शेर कि हुस्न के रंग में जब भंग घुल जाए तो उससे कौन बचेगा फिर।

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तो यह है आज की बासी होली। आप दाद देने का काम जारी रखिए क्योंकि दाद से ही भभ्भड़ कवि को आने की प्रेरणा मिलेगी। अभी शायद कुछ और बासी होली मने और उसके बाद करण अर्जुन की तर्ज़ पर भभ्भ्ड़ कवि आएँगे।

सोमवार, 13 मार्च 2017

होली है भई होली है रंगों वाली होली है। आज होली का दिन है आप सबको रंग भरी शुभकामनाएँ। आइए आज पाँच रचनाकारों के साथ मनाते हैं होली का पर्व आदरणीय तिलक राज कपूर जी, राकेश खंडेलवाल जी, अश्विनी रमेश जी, सुमित्रा शर्मा जी, मन्सूर अली हाश्मी जी और अनीता तहज़ीब जी के साथ।

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होली है भइ होली है रंगों वाली होली है, रंगबिरंगी होली है। बुरा न मानो होली है, बुरा न मानो होली है। उल्लास, उमंग और तरंग लिए होली आपके द्वार पर आ खड़ी हुई है। आइये होली के रंग में हम सब डूब जाएँ और आज रंगमय हो जाएँ। सब परेशानियाँ भूल जाएँ, सारी रंज़िशें भुला दें और बस होली मय हो जाएँ। जो रंग हो वह बस होली का ही हो। बाकी सारे रंगों को अब कुछ दिनों के लिए भूल जाएँ हम। 

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आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में

आइए आज पाँच रचनाकारों के साथ मनाते हैं होली का पर्व आदरणीय तिलक राज कपूर जी, राकेश खंडेलवाल जी, अश्विनी रमेश जी, सुमित्रा शर्मा जी, मन्सूर अली हाश्मी जी  और अनीता तहज़ीब जी के साथ।

TILAK RAJ KAPORR JI

तिलक राज कपूर

बंद अधरों में है अधखिले रंग में
एक नाज़ुक कली मदभरे रंग में।

शह्र डूबा कहूँ कौनसे रंग में
दिख रहे हैं सभी आपके रंग में।

श्याम के रँग डूबी हुई राधिका
क्या दिखा तू बता साँवले रंग में।

चाँद छत पर ठहर देखता ही रहा
चाँद आग़ोश में चांद के रंग में।

एक दुलहिन हथेली रचाते हिना
सोचती है सपन क्या भरे रंग में।

रास का अर्थ तुम भी समझ जाओगे
”आओ रंग दें तुम्हें  इश्क  के रंग में।”

तिलक जी की एक ग़ज़ल हम कल भी सुन चुके हैँ, यह दूसरी ग़ज़ल है उनकी। मतला ही मानों श्रंगार रस से सराबोर होकर लिखा गया है। घनघोर श्रंगार का मतला। और अगला हुस्ने मतला भी प्रेम की अलग कहानी कह रहा है। सारे शहर किसी एक के रँग में रंग जाए तो क्या कहा जाए फिर। प्रेम से आध्यात्म की ओर जाता हुआ अगला शेर जिसमें श्याम के रंग में डूबी हुई राधिका से कवि पूछ रहा है कि क्या रखा है भला साँवले रंग में, उधो याद आ गए इस शेर को पढ़ कर।  हथेली पर हिना सजाती दुलहन की सोच कई अर्थ समेटे है आने वाले समय को लेकर अनिश्चितता के चलते। और अंतिम शेर में रास का अर्थ समझाने के लिए इश्क़ के रंग में रँगने का शेर ख़ूब बना है। बहुत सुंदर ग़ज़ल क्या बात है वाह वाह वाह। 

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राकेश खंडेलवाल

आई होली पे तरही नयी इस बरस
आओ रंग दें तुम्हें इश्क के रंग में
और मैं सोचता सोचता रह गया
भाई पंकज हैं डूबे लगा भंग में

कौन सी तुक है आई समझ में नहीं
आज टेपा यहाँ इश्क करने लगे
सूरतो हाल का रंग सारा उड़ा
और वे इश्क का रंग भरने लगे
अब तो नीरज के, पंकज के कुछ शेर ले
हम भी कह देंगे सब एक ही संग में
जब खुमारी उतर जायेगी, तब  कहें
आओ रंग दें तुम्हें इश्क के रंग में

इश्क की बोतलें आई गुजतात से ?
या कि गंगा किनारे सिलों पर घुटी
इश्क हम तब करेंगे हमें दें प्रथाम
चार तोले की लाकर के शिव की बुटी
पास में अपने कोई ना चारा बचा
आजकल जेब भी है जरा तंगमय
होलियों का चढ़े थोड़ा महुआ तो फ़िर
आओ रंग दें तुम्हें इश्क के रंग में

अपने माथे पे हमने तिलक कर लिया
और सौरभ रखा टेसुओं का निकट
सज्जनों को दिगम्बर करे होलिका
सामने आ खड़ी है समस्या विकट
अश्विनी हो गई उत्तराफ़ाल्गुनी
आज पारुल भी, गुरप्रीत भी दंग हैं 
और नुसरत ने ये मुस्कुरा कर कहा
आओ रंग दें तुम्हें इश्क के रंग में

राकेश जी का यह गीत हमारे ब्लॉग परिवार को ही समर्पित है। होली के रंग लेकर आए हैं वे सबको हास्य के रंग में सराबोर करने के लिए। यही शिष्ट और शालीन हास्य तो होली की विशेषता होती है कविता में। राकेश जी ने उस रंग से हम सबको सराबोर कर दिया है। मिसरा ए तरह से लेकर क़ाफिया तक सभी को लपेट लिए हैं राकेश जी। जोगीरा सारारारा की धुन पर राकेश जी ने नीरज जी, सौरभ जी, तिलक जी से लेकर युवाओं तक सभी को रँग में रंग दिया है। उनकी कलम से चली हुई पिचकारी ने किसी को भी नहीं छोड़ा है। सबके माथे पर प्रेम से चंदन मिश्रित गुलाल उन्होंने लगा दिया है। बहुत ही सुंदर गीत हम सब इसके रंग में रंग चुके हैं। बहुत ही भावपूर्ण और सुंदर गीत क्या बात है वाह वाह वाह।

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अश्विनी रमेश

चाँद तारों भरी महफिले रंग नें
”आओ रंग दें तुम्हें  इश्क  के रंग में।”

मद भरा ये समां नाचे झूमे यहां
रम गये हम यहाँ यों नये रंग में

रंग में रँग गये हम किसी के यहां
खो गये अब नयन  मदभरे रंग में

होली आयी रे आयी रे होली ए हो
रँग के इक दूजे को नाचो रे रंग में

छेड़ दो रागिनी प्रेम की आज तो
खो सके  सुरमयी  बावरे रंग में

दौलते हुस्न के रंग तो  कम चढ़े
रँग गये हम मगर  सांवले रंग में

माफ़ करना हमें हो गये मस्त हम
रँग गये इस कदर हम तिरे रंग में

अश्विन जी ने बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है। पूरी ग़ज़ल होली के रंग में ही रँगी हुई है। होली के मूड को और ज़्यादा रंग में बढ़ाती हुई यह ग़ज़ल है। किसी के मदभरे रंग में रँग जाना ही तो होली होती है। मदभरे नयनों के रंग में जब कोई रंग जाता है तो उसके बाद ही तो होली होती है। होली में यही तो होता है कि हम एक दूसरे को रंग कर नाचते हैं गाते हैं और धमाल मचाते हैं। दौलते हुस्न के रंग हमेशा ही कम पड़ते हैं क्योंकि मन तो हमेशा ही साँवले रंग में रँगना चाहता है। यही तो असली रंग है। जो रंग मन पर चढ़ जाए वही असली रंग होता है जो तन पर चढ़ता है वह तो नकली रंग होता है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह। 

sumitra sharma

सुमित्रा शर्मा 

झूम हर तृण रहा फाग के रंग में    
बूटी ज्यों  घुल गई हो हरे रंग में

शीत में थीं विरह के जो धूसर हुईं
चाह बौरा गईं  फागुने  रंग में

छोड़ दो जोगिया और  वलकल  अभी  
आओ रंग दें तुम्हे इश्क के रंग में

ढाई आखर के रंग में जो डूबा यहां
रंग रहा वो हरिक दिन नए  रंग में

पास घर के तुम्हारे क्या पार्लर खुला
रोज़ तुम सज रही जो  नए  रंग में

रंग भरने की बिरियाँ वो कौली भरें
बेधड़क हो अनंग ज्यों घुले रंग में

केश चांदी हुए तो अलग रौनकें
गात उजला लगे इस पके रंग में

पार सरहद उड़े रंग ये इश्क का
जो न भीगे ज़मीं खून के रंग में

ये जुनूँ इश्क का इस क़दर तक बढ़े
सांस रँगने लगे सांवरे रंग में

वाह वाह क्‍या ही सुंदर ग़ज़ल कही है सुमित्रा जी ने आनंद ही ला दिया है । मतले में ही जो बात कही है कि किस प्रकार से फाग के रंग में हर तिनका झूम रहा है जैसे कोई भांग पी रखी हो। बहुत ही सुंदर। और गिरह का शेर तो शायद पूरे मुशायरे का सबसे ज़बरदस्‍त शेर बना है। जोगिया और वलकल को छोड़कर इश्‍क़ के रंग में रंगने की जो बात कही है वह बहुत ही ग़ज़ब कही गई है बहुत ही सुंदर। ढाई आखर के रंग में डूबने की बात भी अगले ही शेर में बहुत अच्‍छे से कही गई है। और यहां से अपने रंग में आते हुए हास्‍य का रस ग़ज़ल ने पकड़ लिया है घर के पास पार्लर का खुलना और रोज़ नए रंग में दिखना यह बहुत ही सुंदर प्रयोग है। अगले शेर में ग़ज़ल घनघोर श्रंगार में डूब जाती है रंग भरने की बिरियां वो कौली भरें, अहा आनंद ही आनंद और मिसरा सानी रहस्‍य को खोलता हुआ। फिर उसके बाद अगला शेर केश में चांदी घुल जाने के बाद भी उस रंग का आनंद ले रहा है पके रंग का आनंद उठा रहा है। अंतिम शेर भी श्रंगार के रंग को समेटे हुए बहुत ही खूब बन पड़ा है, सांस के सांवले रंग में रंगना वाह क्‍या बात है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल है क्‍या बात है वाह वाह वाह।

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अनिता 'तहज़ीब'

आई होली सभी रँग गये रंग में
हैं मुलाकातों के सिलसिले रंग में

सुब्ह आई सँवर सुनहरे रंग में
शाम घुलने लगी साँवरे रंग में

रंग अपना ज़रा घोल दे रंग में
देखूँ कैसी लगूँ मैं तेरे रंग में

रंग उतरे न ताउम्र इसका कभी
"आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में"

द्वार आँगन हँसी कहकहे गूँजते
रँग गया फ़ाग भी मसखरे रंग में

रंग ही रंग आयें नज़र हर तरफ़
रँग गई ज़ीस्त उम्मीद के रंग में

कोई जादू ही आता है शायद तुझे
अब मेरे रतजगे हैं तेरे रंग में

चाँदनी छा गई हर गली बाम पर
चाँद भीगा हुआ प्रीत के रंग में

लाल पीला हरा जामुनी चम्पई
भर गई हैं बहारें नये रंग में

एक झोंका हवा का मिला पत्तों से
छाँव सजने लगी धूप के रंग में

अनीता जी ने हमारे ब्लॉग परिवार के बारे में कहीं पढ़ा और बस वे आ गईं इस मुशायरे में शामिल होने। उनका चित्र नहीं मिला तो एक छोटी बिटिया का चित्र लगाया जा रहा है। मतला बहुत ही सुंदर है मुलाक़ातों के सिलसिले ही तो होते हैं जो किसी भी त्योहार को त्योहार बनाते हैं। अगले दोनों हुस्ने मतला भी सुंदर बन पड़े हैं सुबह का सुनहरे रंग में रँगना और शाम का साँवले रंग में डूबना, सुंदर चित्र है। और अगला हुस्ने मतला तो कमाल है किसी से अपना रंग रँग में घोलने की चाह ताकि उसमें स्वयं को रँग कर देखा जा सके, वाह क्या बात है। उसके बाद गिरह का शेर भी बहुत ही सुंदर बना है। बहुत ही सुंदर शेर। एक और सुंदर शेर जिसमें ज़ीस्त का उम्मीद में रँग जाना और हर तरफ़ प्रेम ही प्रेम दिखाई देना चित्रित है। और एक शेर जिसमें जादू से रतजगे का रंग जाना बहुत ही कमाल का शेर है। सच में यही तो ग़ज़ल का शेर होता है। अंतिम शेर में भी बहुत नाज़ुक बात कही गई है जिसमें हवा के झोंके से पत्तों का मिलना और छाँव का धूप के रंग में रँगना। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है अनीता जी ने। वे इस ब्लॉग पर पहली बार आईं हैं उनका स्वागत है। बहुत सुंदर ग़ज़ल क्या बात है वा​ह वाह वाह।

mansoor hashmi

मन्सूर अली हाश्मी

आज फिर आ गये हैं गधे रंग में
भाँग पी चल रहे हैं रँगे रंग में।

मार दें न दुलत्ती कि बचिये ज़रा
हैं गधे आज कुछ चुलबुले रंग में।

बच के रहना सखी आज होरी के दिन
रोड पर फिर रहे हैं गधे रंग में।

ए-ए करते हुए शब्द के सिर चढ़े
कैसे-कैसे मिले काफिये रंग में।

वोट के बदले मिलते यहाँ नोट हैं
अब गुलाबी, थे पहले हरे रंग में।

शब्द में, अर्थ में, गीत में, छन्द में
आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में।

प्रीत में, रीत में, सुर में, संगीत में
गुन गुनाऊँ तुम्हें हर नये रंग में।

'हाश्मी' केसरी तो कन्हैया हरा
मित्रता से बने हैं सगे रंग में।

हाशमी जी हास्य रस की ग़ज़लें कहते हैं, यह उनका ही रंग है। मतला ही गधे को प्रतीक बना कर हास्य के माध्यम से मानसिकता पर व्यंग्य कस रहा है। बहुत ही अच्छा मतला। अगले ही शेर में एक चेतावनी सामने आ रही है जन साधारण को सूचित करते हुए। दुलत्ती से बचने की समझाइश देते हुए। और अगले शेर में सखी अपनी सखी को चेतावनी दे रही है कि बच के रहना आज सड़क पर गधे अपने रंग में फिर रहे हैं। अगले शेर में तरही मिसरा के क़ाफिये को ही लपेट लिया है शायर ने और ख़ूबी यह कि ए-ए की ध्वनि के साथ लपेटा है तो हमारे काफिये की भी ध्वनि है और गधे का भी यही स्वर होता है। वाह। वोट के बदले मिलते नोट में गुलाबी और हरे रंग का प्रयोग मिसरा सानी में बहुत ही सुंदर हुआ है, यह शेर बहुत कमाल का हुआ है। और गिरह का शेर जिस प्रकार एकदम रंग बदल लेता है वह चौंका देता है, जिन चीज़ों से रँगना चाहता है कवि वह बहुत सुंदर है। इसके ठीक बाद का शेर भी इसी प्रकार के भाव लिए हुए है। कितने तरीक़े से प्रेमी अपने महबूब को गुनगुनाना चाहता है। और मकते का शेर तो अंदर तक भिगो देता है। बहुत ही सुंदर भावना से भरा हुआ शेर। क्या बात है बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।

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तो आप सबको होली की शुभकामनाएँ। आपके जीवन में रंग रहें, उमंग रहे, उल्लास हो और जीवन ख़ुशियों से भरा रहे हमेशा। आप यूँ ही खिलखिलाते रहें, जगमगाते रहें। दाद देते रहें। और इंतज़ार करते रहें भभ्भड़ कवि भौंचक्के का।

शनिवार, 11 मार्च 2017

होली है भइ होली है रंग बिरंगी होली है, आइये आज होली मनाते हैं अपने इन रचनाकारों के साथ आदरणीय नीरज गोस्वामी जी, पवन कुमार जी, तिलक राज कपूर जी, सौरभ पाण्डेय जी और मुस्तफ़ा माहिर के साथ मनाते हैं होली।

 होली है भइ होली है रंग बिरंगी होली है। मित्रो एक ओर होली सामने आ खड़ी हुई है। कल होली है और आज रात को होलिका दहन होना है। होलिका दहन के साथ ही हम होली के त्योहार के रंगों में डूब जाएँगे। हमारे यहाँ पर यह रंगों का त्योहार पूरे पाँच दिनों तक चलता है रंग पंचमी को रंगों का सबसे ज़्यादा हल्ला होता है। वैसे तो हमारे यहाँ मालवा में शीतला सप्तमी के साथ ही होली का समापन होता है। जब महिलाएँ जाकर होलिका दहन वाले स्थान पर पानी डाल कर होलिका की आग को ठंडा करके आते हैं। उस दिन घरों में ठंडा ही खाया भी जाता है। रात का बना हुआ बासी खाना। कुछ भी गरम नहीं खाया जाता है उस दिन। तो होली दहन से लेकर शीतला सप्तमी तक यह पूरा क्रम बना रहता है। आइये आज से होली के क्रम को प्रारंभ करते हैं।

आओ रंग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में
मित्रों इस बार का मुशायरा कठिनाई पर विजय का मुशायरा है। सभी रचनाकारों ने एक कठिन क़ाफिया बहुत अच्छे से निभा लिया है। तो आइये आज आदरणीय नीरज गोस्वामी जी, पवन कुमार जी, तिलक राज कपूर जी, सौरभ पाण्डेय जी और मुस्तफ़ा माहिर के साथ मनाते हैं होली।
 पवन कुमार
 
हुस्न को देख लें इश्क़ के रँग में
आओ रंग दें तुम्हें इश्क़ के रँग में

एक धनक सी बिखरती रहे आस पास
शेर कहते रहें इश्क़ के रँग में

दिल के अंदर थीं दुनिया की बेचैनियाँ
मिल गयीं राहतें इश्क़ के रँग में

बेक़रारी, जुनूँ और दीवानगी
बेख़ुदी, वहशतें इश्क़ के रँग में

पानियों पर नया रँग चढ़ता हुआ
भीगती बारिशें इश्क़ के रँग में

कोई करवट बदलता रहा रात भर
पड़ गयीं सिलवटें इश्क़ के रँग में

दिल को पागल बनाये सदा मोर की
कूकती कोयलें इश्क़ के रँग में

सबको पैग़ाम चाहत का देते रहें
सारी दुनिया रंगें इश्क़ के रँग में
पवन जी का मैसेज आया कि भाई ग़फ़लत में रदीफ़ कुछ बड़ा चयन कर लिया है। मैंने कहा कोई बात नहीं मिसरा तो वही है। तो उन्होंने इश्क़ के रंग में को रदीफ़ बना कर ग़ज़ल कही है। गुणी शायर हैं तो उनकी ग़ज़ल में भी उनका रंग दिख रहा है। मतला ही इतना ख़ूब है कि बस, रवायती शायरी का एक सुंदर उदाहरण। इश्क़ अपने रंग में रँग कर हुस्न को देखना चाहता है। एक धनक का बिखरना और उसके ही रंग में शेर कहते रहना, यही तो हर कवि की इच्छा होती है हर शायर की चाहत होती है। ख़ूब शेर। दिल के अंदर दुनिया की बेचैनियों को समेट कर इश्क़ के रंग में राहतें हर रचनाकार तलाशता है, उसे पवन जी ने बहुत ही सुंदर तरीक़े से व्यक्त किया है। बेक़रारी, जुनूँ, दीवानगी मतलब इश्क़ के सभी तत्वों को समेटे है शेर। बारिशों का भीगना और पानियों पर इश्क़ का रंग चढ़ना बहुत ही सुंदर शेर है। लेकिन जो शेर ठक से दिल पर आ लगता है वह है कोई करवट बदलता रहा रात भर… उफ़ क्या मिसरा सानी लगाया है, ग़ज़ब ग़ज़ब। और उतना ही सुंदर है अंतिम शेर दुनिया भर में प्रेम का संदेश फैलाने को लेकर की गई एक दुआ एक प्रार्थना। आमीन, ईश्वर इसे सच करे। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल क्या बात है वाह वाह वाह।
नीरज गोस्वामी
 
झुर्रियाँ क्या छुपीं फाग के रंग में
हम जवाँ-से ठुमकने लगे रंग में  

इन गुलालों से होली बहुत मन चुकी 
आओ रँग दें तुम्हें इश्क के रंग में

तल्खियाँ हों नदारद अगर खुश रहें  
तू तेरे रंग में, मैं मेरे रंग में 

बात कुछ तो फ़िज़ाओं में फागुन की है
हर कोई लग रहा है मुझे रंग में

कोई चाहत कभी कोई कोशिश न की
जो मिला हम उसी के रँगे रंग में  

उन सियारों के सिक्के चले तब तलक
जब तलक रह सके वो छुपे रंग में
 

बिन तेरे रंग में रंग “नीरज”  न था 
यूँ रँगा था सभी ने मुझे रंग में
मतला तो उसी रंग में है जिसको कि रंग-ए-नीरज कहा जाता है। अपने आप को सदा जवान मानने का रंग। उम्र को हराने का रंग। बहुत सुंदर। उसके ठीक बाद​ गिरह का शेर भी ख़ूब बना है। सचमुच जीवन में प्रेम के आने से पहले ही खेली जाती है गुलाल से होली, उसके बाद तो इश्क़ का ही रंग चलता है। वाह। और अगला ही शेर सारी तल्ख़ियों को एक दूसरे के रंग घोल कर बहा देने का इतना अच्छा संदेश दे रहा है कि उसे पूरी दुनिया में प्रसारित करने की इच्छा हो रही है। बहुत ही सुंदर शेर है। कोई चाहत कभी कोई कोशिश न की में मिसरा सानी बहुत ही सुंदर भावना लिए हुए है। सच में यदि हम हर किसी के रंग में अपने आप को रँगने का हुनर सीख जाएँ तो जीवन कितना आसान हो जाएगा हमारे लिए। लेकिन हम तो अपने रंग में दूसरों को रँगना चाहते हैं। उन सियारों के सिक्के चले एक गंभीर व्यंग्य समेटे है। लोक कथा को साहित्य में उपयोग करने का अनुपम उदाहरण। यह एक बड़ी कला होती है। और उसके बाद मकते का शेर भी बहुत गहरी बात कह रहा है सच तो यही है कि हमें दुनिया के सारे रंग लगा दिये जाएँ तो भी रंग तो हम पर किसी एक का ही चढ़ता है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है, क्या बात है वाह वाह वाह।
तिलक राज कपूर
 
इस तरफ़ बदनसीबी खिले रंग में
उस तरफ़ खुशनसीबी दबे रंग में।

नोटबुक के सभी वर्क़ कोरे थे पर
देखिये खिंच गये हाशिये रंग में।

आप कोरे हैं दिल के सुना था मगर
आपने भी लिखे फै़सले रंग में।

श्वेत भी है मगर देखते वो नहीं
ग़ुम सियासत हरे गेरुए रंग में।

सुब्ह‍ लायेंगे कैसे नयी वो कहो
जिनकी खुशियाँ हैं अँधियार के रंग में।

ज़ेह्न में रात भर प्रश्न उठते रहे
कुछ के उत्तर दिखे अनसुने रंग में।

जि़न्दगी से शिकायत बहुत हो चुकी
देखिये हर नया पल नये रंग में।

देख अत्फ़ाल की मस्तियों को कभी
खेलते धूप में, धूल के रंग में।

अर्थ दीवानगी का समझ जाओगे
”आओ रंग दें तुम्हें इश्क के रंग में।”
इस तरफ़ बदनसीबी और उस तरफ़ ख़ुशनसीबी के दबे और खिले रंग का प्रतीक तिलक जी ने अपने ही तरीक़े से उपयोग किया है जिसके लिए वह मशहूर हैं। मतला ही बहुत सुंदर बना है। नोटबुक के कोरे वर्क़ और हाशियों का रंग में होना यह एक गम्भीर पोलेटिकल शेर है जिसे ध्यान से समझे जाने की आवश्यकता है। अगला ही शेर एक बार फिर पोलेटिकल रंग लिए हुए है, भले ही वह ऊपर से प्रेम का शेर दिख रहा हो किन्तु है वह भी सुंदर पोलेटिकल शेर। श्वेत रंग पर किसी की नज़र नहीं पड़ना हमारे समय की सबसे बड़ी विडंबना है जिस पर किसी की नज़र पड़े न पड़े किन्तु शायर की तो पड़ेगी ही। और देश के किसानों, मज़दूरों के लिए समर्पित शेर जिनकी ख़ुशियाँ हैं अँधियार के रंग में, बहुत अच्छा शेर। मकते के ठीक पहले के दोनों शेर एक दम जीवन की सकारात्मकता की ओर ले चलते हैं। यही तो कविता होती है जो विडम्बनाओं की बात करते-करते सकारात्मक हो जाए। बच्चों की मस्तियों को देख कर हम सब जीवन को जीने का तरीक़ा सीख सकते हैं। वे जिस प्रकार धूल और धूप में खेलते हैं उससे सीखा जा सकता है।  गिरह को मकते में बहुत ही सुंदर तरीक़े से लगाया गया है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल, वाह वाह वाह क्या ही ख़ूब ग़ज़ल।
सौरभ पाण्डेय

दिख रहे थे अभी तक उड़े रंग में
सुर लगा फाग का.. आ गये रंग में

गुदगुदाने लगी फुसफुसाहट, उधर
मौसमों के हुए चुटकुले रंग में

ताकि मुग्धा हुई तुम पुलकती रहो 
आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में

वो न आयेगा दर पे हमें है पता
अल्पना हम सजाते रहे रंग में

खेत किसको सुने किसको आगोश दे
फावड़े और फंदे दिखे रंग में 

मुट्ठियाँ भिंच गयीं, दिल दहकने लगा 
इस तरह गाँव के दल दिखे रंग में

फिर यही सोच कर थम गयीं सिसकियाँ
या खुदा, फिर खलल मत पड़े रंग में
मतला होली के रंग को ख़ूब समेटे हुए है। सच में यही तो होता है, हम सब जीवन की कठिनाइयों से जूझ रहे होते हैं और अचानक ही फाग का सुर लगता है और हम सब रंग में आ जाते हैं। बहुत ही सुंदर मतला। और अगले ही शेर में फुसफुसाहट के गुदगुदाहट तथा मौसमों के चुटकुले, एक पूरा का पूरा शब्द चित्र सामने बन जाता है आँखों के। अगले शेर में मुग्धा और पुलकित जैसे शब्द ग़ज़ल के सौंदर्य में कई गुना वृद्धि कर रहे हैं, यही होता है भाषा का सौंदर्य। अगला शेर निराशा के बीच आशा की अल्पना सजाते रहने की भावना लिए हुए है। प्रेम में इंतज़ार का अपना महत्व होता है, हम कई बार यह जानते हुए भी इंतज़ार करते हैं कि आने वाले को नहीं आना है। अगले दोनों शेर विडम्बना की बात करते हैं, जो हमारे समय की विडम्बना है। खेत में किसानों की आत्म हत्या और दूसरी और गाँव तक सांप्रदायिकता की भावना का पहुँच जाना यह हमारे समय की सबसे बड़ी समस्याएँ हैं, जिन पर शायर ने अपनी चिंता व्यक्त की है। केवल शायर, कवि  ही तो चिंतित होता है। और अंतिम शेर में सिसकियों का थम जाना एक दुआ के साथ कि फिर कभी ख़लल न पड़े रंग में । बहुत ख़ूब। क्या बात है बहुत ही सुंदर ग़ज़ल है वाह वाह वाह।
 
मुस्तफ़ा माहिर

ऐसे जीना भी क्या बेसुरे रंग में।
आओ रंग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में।

रंग असली तेरा कौन सा है बता
हर दफ़ा तू दिखे है नऐ रँग में।

प्यार गहराया ऐसा कि दिखने लगा
तू मेरे रंग में मैं तेरे रंग में।

तुझपे फबती हैं तेरी जफ़ाएं फ़क़त
तू लगे है बुरा दूसरे रंग में।

ज़िन्दगी सबकी बेरंग तस्वीर है
जो रँगी जाए अच्छे बुरे रंग में।

पूछते हो तो कह दूँ जचे है बहुत
तुमपे पटियाला वो भी हरे रंग में।
मुस्तफ़ा बहुत दिनों बाद हमारे तरही मुशायरे में शामिल हुए हैं। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल लेकर आए हैं वे। मतला ही कुछ अलग तरीक़े से कहा गया है कि जो कुछ भी प्रेम में नहीं है, इश्क़ में नहीं है वो बेसुरे रंग में ही होता है। जो इश्क़ के रंग में रँग जाता है वो सुर में आ जाता है। और अगले ही शेर में जो प्रश्न है कि रंग असली तेरी कौन सा है बता, बहुत ही सुंदर तरीके से बातचीत के लहजे में शेर को बाँधा है। मासूमियत के साथ। ख़ूब्र। और प्यार के बढ़ने का वही असर जिसमें हम एक दूसरे के रंग में ही दिखने लगते हैं। प्रेम यही तो होता है जिसमें एक दूसरे के रंग में हमें रंग दिया जाता है। लेकिन जफ़ाओं वाला शेर तो एकदम रवायती रंग लिए हुए है। ग़ज़ल के रवायती रंग में रँगा हुआ है यह शेर। तू लगे है बुरा दूसरे रंग में वाह क्या बात है ग़ज़ब। उस्तादाना अंदाज़ में कहा गया है यह शेर, कमाल का शेर। ज़िंदगी की बेरंग तस्वीर में अच्छे और बुरे रंग लगना सूफ़ियाना शेर है अचछा बना है। और अंत का शेर तो बहुत ही ग़ज़ब बन पड़ा है। हरे रंग के पटियाला सूट में महबूब को देखना और वो भी शायर की नज़र से, क्या बात है एकदम कमाल का शेर है यह। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है भाई। क्या बात है वाह वाह वाह।
वाह वाह आज तो सभी रचनाकारों ने मिलकर बहुत ही ख़ूब रंग जमाया है। ऐसी ग़ज़लें जिनको बार-बार पढ़ा जाए तो भी कम। उस्तादों के रंग में ग़ज़लें कहीं हैं सभी ने। तो आपका भी काम बढ़ गया है दाद देने का। जितनी सुंदर ग़ज़लें है उतनी ही अच्छी दाद भी दी जानी चाहिए। तो देते रहिए दाद।

रंगों का पर्व अब बहुत पास आ गया है आइए आज हम भी कुछ आगे बढ़ते हैं राकेश खंडेलवाल जी, द्विजेन्द्र द्विज जी, डा. मधु भूषण जी शर्मा 'मधुर', गिरीश पंकज जी और अंशुल तिवारी के साथ।

मित्रो अब तो आपके घर में भी पकवान तैयार होने लगे होंगे। गुझिया, पपड़ी, बेसन चक्की आदि खाने से ज़्यादा मज़ा इनकी ख़ुश्बू में होता है। दो दिन पहले से घरों में जो सुगंध उठती है वह तो जानलेवा होती है। जी करता है खाएँ कुछ भी नहीं, बस बैठ कर सूँघते ही रहें। तृप्त होने के लिए ज़रूरी नहीं है कि ज़बान को तकलीफ़ दी जाए सूँघ कर, सुन कर, देख कर या महसूस करके भी तृप्त हुआ जा सकता है। मगर नहीं ऐसा भी नहीं करना है। इतनी मेहनत से जो पकवान बन रहे हैं उनको खाएगा कौन। देखिए बीमारी तो होती रहेगी, आपके न खाने से भी रुकने वाली तो है नहीं, तो खाकर ही उसका मुकाबला करने में ज़्यादा समझदारी है।

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आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में

इस बार का मिसरा तो बहुत कमाल दिखा रहा है। सोचा भी नहीं था कि ऐसे-ऐसे क़ाफियों का ऐसा-ऐसा प्रयोग भी देखने को मिलेगा। इस बार का क़ाफिया ज़रा सी ग़लती से भर्ती का क़ाफिया हो जाने के ख़तरे की संभावना से भरा हुआ है। और उसकी सावधानी सभी रचनाकार बरत रहे हैं यह अच्छी बात है। रंग का पर्व सामने है तो   आज हम भी कुछ आगे बढ़ते हैं राकेश खंडेलवाल जी, द्विजेन्द्र द्विज जी, डा. मधु भूषण जी शर्मा 'मधुर', गिरीश पंकज जी और अंशुल तिवारी के साथ।

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राकेश खंडेलवाल जी

मौसमों ने तकाजा किया द्वार आ
उठ के मनहूसियत को रखो ताक पर
घुल रही है हवा में अजब सी खुनक
तुम भी चढ़ लो चने के जरा झाड़ पर
गाओ पंचम में चौताल को घोलकर
थाप मारो  जरा जोर से  चंग  में
लाल नीला गुलाबी हरा क्या करे
आओ रंग दें तुम्हें इशक के रंग में

आओ पिचकारियों में उमंगें भरें
मस्तियाँ घोल लें हम भरी नांद में
द्वेष की होलिका को रखें फूंक कर
ताकि अपनत्व आकर छने भांग में
वैर की झाड़ियाँ रख दे चौरास्ते
एक डुबकी लगा प्रेम की गंग में
कत्थई बैंगनी को भुला कर तनिक
आओ रंग दें तुम्हे इश्क़ के रंग में

बड़कुले कुछ बनायें नये आज फ़िर,
जिनमें सीमायें सारी समाहित रहें
धर्म की,जाति की या कि श्रेणी की हों
वे सभी अग्नि की ज्वाल में जा दहें
कोई छोटा रहे ना बड़ा हो कोई
आज मिल कर चलें साथ सब संग में
छोड़ कर पीत, फ़ीरोजिया, सुरमई
आओ रंग दें तुम्हें इश्क  के रंग में

आओ सौहार्द्र के हम बनायें पुये
और गुझियों में ला भाईचारा भरें
कृत्रिमी  सब कलेवर उठा फ़ेंक दें
अपने वातावरण से समन्वय करें
जितना उल्लास हो जागे मन से सदा
हों मुखौटे घिरे हैरतो दंग में
रंग के इन्द्रधनु भी अचंभा करें
आओ रंग दें तुम्हें इश्क के रंग में

होली के आ ही जाने की सूचना को लिए हुए यह गीत राकेश जी ने लिखा है। मनहूसियत को ताक पर धर कर चने के झाड़ पर चढ़ जाने का आह्वान होली के मौसम में ही किया जा सकता है। लेकिन पहले ही बंद में होली के माहौल में मानवता का संदेश लिए गीतकार का दूसरा पक्ष समाने आता है। जिसमें द्वेष की होलिका को जलाने और भांग में अपनत्व छानने जैसे प्रतीकों के माध्यम से गीत आगे बढ़ता है। वैर को भुला कर प्रेम की गंग में डुबकी लगा लेने का आमंत्रण बंद देता है। अगले बंद में वसुधैव कुटुम्बकम की बात कही गई है। एक ऐसा परिवार जिसमें दुनिया का हर मानव सदस्य हो जाए। सब एक ही में रहें न कोई छोटा, न कोई बड़ा।  तीसरा और अंतिम बंद होली के नए पकवानों की बता करता है उन गुझियों की जिनमें भाईचारा भरा हो। सचमुच आज के समय में ऐसे ही पकवानों की आवश्यकता है। वातावरण में समन्वय हो तो सब ठीक हो जाएगा। वाह वाह वाह क्या सुंदर गीत है कमाल।

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द्विजेन्द्र द्विज जी

रंग सारे ही घुलमिल गये  रङ्ग में
लाल  पीले  हरे  साँवले  रङ्ग में

मैं तेरे रंग में तू मेरे रंग में
चेह्रे भी रंग में आइने रङ्ग में

सूफ़ी सन्तों के मनभावने रङ्ग में
आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रङ्ग में

क्यों हो तन्हाइयों से सने रङ्ग में
आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रङ्ग में

रङ्ग ने रङ्ग में रङ्ग से बात की
रङ्ग कितने ही और आ गए रङ्ग में

जानेजाँ क्यों है तू अनमने रङ्ग में
आ भी जा आज तो  मनचले रङ्ग में

ये बुढ़ापे की चादर उतारो ज़रा
आके हमसे मिलो चुलबुले रंग में

साल भर की उदासी! ज़रा साँस ले
आज आने दे मुझको मेरे रङ्ग में

एक सपना यकायक मुझे ले गया
उसकी ख़ुश्बू से महके हुए रङ्ग में

मुँह छिपाएँ कहाँ आज मायूसियाँ
आज हैं दोस्तो ! क़हक़हे रङ्ग में

पल छिनों में गुज़र जाएगी ज़िन्दगी
थे अभी कुछ यहाँ बुलबुले रङ्ग में

कोई रङ्ग और मुझ पर चढ़ा ही नहीं
यार ! जब से रँगा मैं तेरे रङ्ग में

रङ्ग दुनिया  के हैं अब ख़लल की तरह
मेरी आँखों में आकर बसे रङ्ग में

कोई मौक़ा नहीं आज तकरार का
आज हैं सबके सब फ़लसफ़े रङ्ग में

क्या रहा ज़ायक़ा रङ्ग के खेल का
खेलने सब लगे अटपटे रङ्ग में

चढ़ गया रङ्ग रिश्तों पे बाज़ार का
कुछ तो है खोट खिलते हुए  रङ्ग में

चन्द शे’र आपके हमने क्या सुन लिए
आप गाने लगे बेसुरे रङ्ग में

कितने रङ्ग उनके चेहरे पे आए, गए
‘द्विज’! ये क्या कह दिया आपने रङ्ग में

द्विज भाई अपने ही रंग में ग़ज़ल कहते हैं। उनके शेर अलग से पहचाने जा सकते हैं कि हाँ ये इन्हीं के शेर हैं। एक दो नहीं पूरे चार मतले। और चारों ज़बरदस्त मतले। सूफी सन्तों के मन भावने रंग में के साथ बहुत ही सुंदर गिरह बांधी है उन्होंने। और उसके बाद ठीक पहला ही शेर कमाल का रच दिया है रंग ने रंग में रंग से बात की, वाह वाह वाह कमाल के रंग पिरोए हैं मोती की तरह। ग़ज़ब का शेर। और दो ख़ूबसूरत शेर इसके बाद एक तो साल भर की उदासी वाला और दूसरा एक सपना यकायक। वाह क्या बात है यह रंग द्विज भाई के शेरों की ही ख़ासियत है। कुछ और आगे एक और शेर आया है रंग दुनिया के अब हैं खलल की तरह, उसमें मिसरा सानी तो कमाल ही कर रहा हे। ग़ज़ब। चंद शेर आपके में बहुत गहरा व्यंग्य है, सामयिक व्यंग्य। और मकते का शेर भी बहुत ही ख़ूबसूरत बन पड़ा है यहाँ भी मिसरा सानी बहुत ही सुंदर बना है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है भाई, क्या बात है वाह वाह वाह।

madhu bhushan sharma

डा. मधु भूषण जी शर्मा 'मधुर'

आओ रँग दें तुम्हें इश्क के रंग में
डूब जाएं चलो एक से रंग में

है ये होली का दिन कुछ बुरा क्यूं लगे
सारा आलम है जब सरफिरे रंग में

सुर्ख़ गालों की लाली लगी फैलने
जब सजनवा के हम आ गए रंग में

सात रंगों के सुर से सजा जब जहां
फिर सियासत है क्यूं बेसुरे रंग में

जान पाना ये होता न आसां कभी
कौन डूबा यहां कौन से रंग में

दिख गया जब भी रंगे-लहू ठीक से
फिर ये दुनिया दिखेगी नए रंग में

छा ही जाता है सब पे अलग सा नशा
जब भी आती है महफ़िल मेरे रंग में

मधुर जी ने मतले से ही होली का सुर ठीक प्रकार से लगा दिया है। मिसरा ए तरह को उलटबांसी प्रयोग करते हुए मिसरा उला बनाने का प्रयोग उन्होंने किया है। मतले में ही यह गुंजाइश होती है। अगले शेर में होली के अमर वाक्य बुरा न मानो होली है को बहुत ही सुंदरता के साथ शेर का मिसरा बना दिया है। और अगला शेर मिलन का शेर है प्रेम और मिलन का शेर। जब एक दूसरे पर एक दूसरे का रंग चढ़ जाता है। गोरी साँवली होने लगती है। सात रंगों के सुर से सजा जब जहाँ में व्यंग्य को पिरो लिया गया है। और अगला शेर एकदम होली के त्योहार में चलते हुए रंग में ले जाकर खड़ा कर देता है आपको जहाँ पहचानना ही मुश्किल होता है कि कौन् कहाँ है। दिख गया जब भी रंगे लहू बिल्कुल अलग ही तरीक़े का शेर है। और आखिरी शेर में उस्तादों के रंग वाली शायरी दिखाई दे रही है। मेरे रंग में महफ़िल आएगी तो अलग ही नशा छाएगा सब पर का उद्घोष करते हुए। वाह वाह वाह क्या बात है सुंदर ग़ज़ल।

girish pankaj
गिरीश पंकज जी

लाल, पीले, हठीले हरे रंग में
मन हमारा रँगा आपके रंग में

प्यार बाँटें यहां प्यार मिलता रहे
ज़िन्दगी को जिएं हम नए रंग में

फाग आया तो टूटे हैं बन्धन कई
तापसी भी दिखे मद भरे रंग में

रंग के बिन यहाँ ज़िन्दगी कुछ  नहीं
देखिए लग रहे कहकहे रंग में

रंग है इक नदी डूबते सब रहे
गोरे, काले हों या सांवले रंग में

रंग का संग जिनको मिला साथियो 
शान से वो जिए फिर मरे रंग में

यूं न बचते फिरो आज मौका मिला
'आओ रंग दें तुम्हें इश्क के रंग में'

हमने दिल से कहे शे'र अपने सभी
हम नहीं बोलते भंग के रंग में

आओ 'पंकज' उतारो ये चोला जरा
तुम हो कैसे अरे अनमने रंग में  

लाल पीले के बाद हठीले हरे की तो क्या बात है। सुंदरता तो उसी हठीले हरे से पैदा हो रही है। प्यार बाँटें ताकि प्यार सबको मिलता रहे की भावना लिए अगना शेर ज़िंदगी को नए रंग में जीने की बात कर रहा है। सचमुच यही तो होना चाहिए हम आपस में प्यार बाँटते रहें और प्यार से ही जीते रहें। अब उस बीच चूँकि फाग आया है तो तापसी तो मदभरे रंग में आएगी ही, उसे कौन रोक सकता है। और रंगों की वह नदी हमारा जीवन ही तो है जिसमें हम सब डूब रहें हैं कोई गोरा है कोई साँवला है तो कोई काला है। और रंग का संग जिनको मिल जाए वो शान से जीते भी हैं और मरते भी शान रंग में ही मरते हैं। यही तो रंग का सबसे बड़ा कमाल होता है। और गिरह का शेर भी खूब बन पड़ा है होली का मौका सचमुच ही ऐसा अवसर होता है जिसमें हर कोई अपना इश्क़ का रंग लिए फिरता है। बचने का दिन नहीं होता है होली का दिन यह तो रंगने का दिन होता है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल क्या बात है वाह वाह वाह।

ANSHUL TIEARI

अंशुल तिवारी

अब के फागुन है कुछ मनचले रंग में,
आओ रंग दें तुम्हे इश्क़ के रंग में।

लाल, पीले, ग़ुलाबी पुराने हुए,
आज हम भीग जाएँ, नए रंग में।

फ़ाग का है असर, हर बशर पर यहाँ,
घूमते हैं सभी जो, बड़े रंग में।

कोई सूरज नया आसमाँ में उगा,
धूप भी आई है कुछ खिले रंग में।

बात तुमसे जो कहनी थी, कह तो गए,
पर कही हमने कुछ, अटपटे रंग में।

भाँग का भी असर मुझ पे कुछ ना हुआ,
देखा तूने यूँ कुछ मदभरे रंग में।

ढूँढ़ते हम रहे, रंग जीवन में पर,
रंग सारे मिले, प्रीत के रंग में।

जब से उल्फ़त हुई, हमने तबसे सुनो,
अपने दिल को रँगा बस तेरे रंग में।

मेरा जो भी था, सब-कुछ तेरा हो गया,
तुम भी रँग जाओ ना, अब मेरे रँग में।

एक-दूजे से मिलकर यूँ घुल जाएँ अब,
श्याम-राधा थे जैसे घुले रंग में।

वास्तव में फागुन मनचला नहीं होता है, मनचले तो हम हो जाते हैं उसे दौरान और अपना सारा इल्ज़ाम ठोंक देते हैं फागुन में यह कह कर कि अबके फागुन है कुछ मनचले रंग में। जब प्रेम हो जाता है तो लाल पीले गुलाबी रंग भला भाते ही कब हैं तब तो उसी नए प्रेम के रंग में भींगने की इच्छा होती है। अच्छा शेर। कोई सूरज नया आसमाँ में उगा में शायर ने सामान्य से हट कर कुछ नए तरीके से बात को कहने की सफल कोशिश् की है। जब सूरज नया होगा तो धूप भी कुछ अलग तो होगी ही न्, अच्छा सुंदर शेर। मेरा जो कुछ भी था सब कुछ तेरा हो गया में यह अनुरोध बहुत ही मासूमियत के साथ आया है कि मेरे रंग में रंग जाओ न अब तुम भी। सचमुच यही तो समर्पण होता है जब हम एक दूसरे को अपना सब कुछ अर्पण करके एक दूसरे के रंग में रंग जाते हैं। और अंत का शेर एक बार फिर से राधा और श्याम के प्रेम के माध्यम से प्रेम की ही बात कर रहा है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।

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तो मित्रों यह थे आज के पाँच रचनाकार। अब आपके हवाले ये और इनकी रचनाएँ। दाद ज़रा दिल से देंगे तो आनंद आएगा। सुनने वाले को भी और सुनाने वाले को भी। तो देते रहिए दाद।

शुक्रवार, 10 मार्च 2017

होली के रंगों में रँगा हुआ यह तरही मुशायरा आइए आज पाँच शायरों की ग़ज़लें सुनते हैं धर्मेन्द्र कुमार सिंह, दिगम्बर नासवा, गुरप्रीत सिंह, नकुल गौतम और जनाब शेख़ चिल्ली।

मित्रों होली तो उमगने का त्योहार है। अंदर से उमड़ जाए तो होली हो जाती है। इसमें कहीं कोई अलग से व्यवस्था करने की आवश्यकता नहीं होती है। जो हो जाए वो होली होती है। मौसम कुछ बेईमानी करने लगता है, कुछ अपने ही अंदर से शरारत उपजने लगती है और होली हो जाती है। होली असल में एक ऐसा त्योहार है जो हमारी बैटरी को रीचार्ज करता है। साल भर में एक बार अपनी बैटरी को रीचार्ज कर लो और उसके बाद साल भर गन्नाते रहो। कभी-कभी मुझे लगता है कि कितना बुरा किया है हमने जो होली को एक धर्म विशेष के साथ ही जोड़ दिया, जबकि इसमें धार्मिकता-वार्मिकता जैसा कुछ नहीं है, यह तो विशुद्ध आनंद का अवसर होता है। खैर…..

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आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में

इस बार तो ऐसा लग रहा है कि चुनौती की स्वीकार कर सभी ने बहुत मेहनत के साथ ग़ज़लें कही हैं। असल में कठिन कार्य करना ही तो हमें अपने आप को कसौटी पर कसने का अवसर देता है, सरल कार्य का क्या है वह तो हो ही जाता है। इसीलिए इस बार का मिसरा जान बूझ कर कुछ कठिन रखा था। कठिन था क़ा​फियाबंदी में। मगर लगता है कि लोगों ने उसे भी आसान बना दिया और सहजता के साथ अपनी ग़ज़लें कह डालीं। आज पाँच शायरों की ग़ज़लें सुनते हैं धर्मेन्द्र कुमार सिंह, दिगम्बर नासवा, गुरप्रीत सिंह, नकुल गौतम और जनाब शेख़ चिल्ली। शेख़ चिल्ली साहब अपनी पहचान नहीं उजागर करना चाह रहे हैं। कोई बात नहीं।

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धर्मेन्द्र कुमार सिंह

एक दूजे को रँग दें नये रंग में
तुम गुलाबी रँगो हम हरे रंग में

आओ ऐसे मिलें एक दूजे से हम
रंग जैसे मिले दूसरे रंग में

गाल पर प्राइमर ये गुलाबी कहे
अब तो रंग दो पिया प्रीत के रंग में

रंग ये चढ़ गया तो न उतरेगा फिर
आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में

रंग फीके पड़ें जाति के धर्म के
ये ज़मीं खिल उठे प्रेम के रंग में

तितलियाँ भूल जाएँगी इसका पता
मत रँगो फूल को यूँ नये रंग में

एक झंडे में हँसते हैं भगवा, हरा
बात कुछ तो है इस तीसरे रंग में

सोचिए देश कैसा लगेगा, अगर
रँग दें सब को अगर एक से रंग में

मतले में कई बार रंग शब्द आकर जिस प्रकार से उसका सौंदर्य बढ़ा रहा है उसके कारण मतला ज़बरदस्त बन पड़ा है, गुलाबी और हरे रंग के प्रतीकों को उपयोग खूब हुआ है। एक दूसरे से मिलने के लिए अगले ही शेर में एक रंग के दूसरे रंग में रंगने का प्रयोग प्रेम से लेकर देश तक सबके लिए सामयिक बना है। गाल के गुलाबी प्राइमर के बाद पिया से अनुरोध के प्रीत के रंग में रँग दो वाह क्या बात है। अगले ही शेर में गिरह का शेर एक दावे के साथ आया है कि हमारे रंग में रँग जाओगे तो यह रंग फिर उतरने वाला नहीं है। एक झंडे में हँसते हैं भगवा हरा में सफेद रंग का महत्तव किस सुंदरता के साथ बखान किया गया है बिना उसका नाम लिए, यह ही कविता होती है। जब बिना नाम लिए कुछ कह दिया जाए और समझने वाले समझ भी जाएँ। और अंत का शेर एक प्रार्थना एक दुआ की तरह आता है। आमीन कहना तो बनता है। बहुत ही सुंदर गज़ल। वाह वाह वाह क्या बात है।

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दिगम्बर नासवा

अपने मन मोहने साँवले रंग में
श्याम रँग दो हमें साँवरे रंग में

में ही अग्नि हूँ जल पृथ्वी वायु पवन
आत्मा है अजर सब मेरे रंग में

ओढ़ कर फिर बसंती सा चोला चलो
आज धरती को रँग दें नए रंग में

थर-थराते लबों पर सुलगती हँसी
आओ रँग दें तुम्हें इश्क के रंग में

आसमानी दुपट्टा छलकते नयन
सब ही मदहोश हैं मद भरे रंग में

रंग भगवे में रँगता हूँ दाढ़ी तेरी
तुम भी चोटी को रँग दो हरे रंग में

जाम दो अब के दे दो ज़हर साकिया 
रँग चुके हैं यहाँ सब तेरे रंग में

मतला साँवले और साँवरे को बहुत ख़ूबसूरती के साथ प्रयोग करता है। और उसमें मन मोहने का उपयोग तो कृष्णमय कर देता है। और अगले ही शेर में धर्म से सीधे आध्यात्म की ओर ग़ज़ल बढ़ जाती है। प्रेम के कृष्ण से गीता के कृष्ण की ओर। पंच तत्वों को मात्रा के हिसाब से खूब बिठाया है। और अगला शेर एकदम देश, समाज और विश्व के कल्याण हेतु वसंती रंग का आह्वान करता हुआ आता है। बहुत खूब। गिरह का शेर विशुद्ध प्रेम का शेर, प्रेम की वह भावना जो अपने रंग में रँगने को आतुर है उसका बहुत खूब चित्रण किया गया है। रंग भगवे में रँगता हूँ दाढ़ी तेरी में रंगों के माध्यम से कितनी बड़ी बात कह दी गई है। आचार्य रामधारी सिंह दिनकर की याद आ गई, जिन्होंने कहीं लिखा था कि यह दोनों रंग ठीक से मिल जाएँ तो दुनिया पर राज करेंगे। और अंत का शेर भी अच्छा बना है सब रंग ही गए तो अब क्या फ़र्क पड़ता है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह क्या बात है।

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गुरप्रीत सिंह

कोई जादू तो था सांवले रंग में
राधिका रँग गई श्याम के रंग में

क्या धरा लाल पीले हरे रंग में
आओ रँग दें तुम्हें इश्क के रंग में

थी इनायत बड़ी धूप के रंग में
रंग दिखने लगे बूंद बेरंग में

कौन सा रंग तूने  लगाया मूझे
दाग लेकिन पड़े कौन से  रंग में

कैनवस पर न  क्यों जी उठे जिंदगी
ब्रश चलाता है वो डूब के रंग में

चढ़ गया रंग जिन पे मुहब्बत का वो
जी गए रंग में मर गए रंग में

रंगे जाने के साथ अब महक भी उठूं
थोड़ी खुशबू सनम घोल दे रंग में

भंवरे परवाने दोनों को न्यौता मिला
पर गया एक ही दावते रंग में

कत्ल जब भी हुआ है मेरे ख्वाब का
अश्क बहने लगे सुर्ख से रंग में

मतला वहीं से शुरू हो रहा है जहाँ से इस बार अधिकांश ग़ज़लें प्रारंभ हो रही हैं। लेकिन उसी बात को कुछ अलग अंदाज़ से कहा गया है। उसके ठीक बाद हुस्ने मतला में कमाल की गिरह बाँधी गई, सचमुच इन सारे रंगों में होता क्या है, जो होता है वह तो इश्क़ के रंग में ही होता है। और उसके बाद बूंद में प्रकाश के सातों रंगों का इन्द्रधनुषी चित्र क्या कमाल का खींचा गया है। वाह क्या बात है। कौन सा रंग तूने लगाया शेर बहुत गहरे अर्थ लिए हुए है, सचमुच जो परिणाम होता है वह अक्सर वैसा नहीं होता जैसी क्रिया की गई थी, बहुत खूब। कैनवस पर रंगों का जी उठना और डूब के रंग में ब्रश चलाना वाह क्या बात है, अलग तरीके से कही गई बात। चढ़ गया रंग शेर में मिसरा सानी बहुत अच्छा बन पड़ा है, मुहब्बत यही तो होती है जिसमें आदमी जीता भी है और मर भी जाता है। रंग में खूशबू घोलने का शेर और सुर्ख से रंग में अश्क बहने का शेर भी सुंदर बना है। वाह वाह वाह क्या बात है कमाल की ग़ज़ल।

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नकुल गौतम

फ्रेम कर लें सजा कर लम्हे रंग में
खेलें होली चलो इक नए रंग में

हो गयी है पुरानी मुहब्बत मगर
हैं ये किस्से नये के नये रंग में

धूप सेंकें पहाड़ों की मुद्दत के बाद
कर लें माज़ी नया धूप के रंग में

उस पहाड़ी पे कैफ़े खुला है नया
चल मुहब्बत पियें चाय के रंग में

एक भँवरे ने बोसा लिया फूल का
झूम उठी डालियाँ मद भरे रंग में

प्रिज़्म शरमा न जाये तुझे देख कर
रंग मुझको दिखें सब तेरे रंग में

जब से बूढ़ी हुई, हो गयी तू खड़ूस
डेट पर ले चलूँ क्या तुझे रंग में

चल पकौड़े खिलाऊँ तुझे मॉल पर
औ' पुदीने की चटनी हरे रंग में

आज बच्चों ने ऐसे रँगा है मुझे
घोल कर हैं जवानी गए रंग में

हम गली पर टिकाये हुए थे नज़र
और बच्चे थे छत पर डटे रंग में

छोड़ बच्चे गये अपनी पिचकारियाँ
मेरा बचपन दिखाया मुझे रंग में

एक दिन के लिए छोड़ भी दो किचन
"आओ रँग दूँ तुम्हे इश्क़ के रंग में"

मतले में नास्टेल्जिक प्रयोग के साथ अच्छा चित्रण किया है। और पहाड़ी को लेकर जो दो कमाल के शेर बने हैं उनका तो कहना ही क्या है। पहले शेर में माज़ी को धूप सेंक कर नया करने का अनूठा प्रयोग किया गया है। ग़ज़ब। और अगले शेर में तो यह कमाल आगे बढ़ गया है पहाड़ी पर बने कैफे में मुहब्बत को चाय के रंग में पीना, वाह यह हुआ है कोई शेर। कमाल। यही वो प्रयोग हैं जो आज की ग़ज़ल को करने ही होंगे यदि हम इनको नये रंग देना चाहते हैं तो। ग़ज़ल में एकदम से रंग बदलता है और हजल के शेर आ जाते हैं, जो बहुत ही मासूमियत के साथ कहे गए हैं बुढ़ापे की खड़ूसियत को दूर करने हेतु डेट पर ले चलने का मासूम से प्रस्तव गुदगुदा देता है। और उसके बाद एक और मासूम सी इल्तिजा जिसमें शिमला के प्रसिद्ध मॉल पर पकौड़े खिलाने की चाह व्यक्त की गइ है। वाह क्या बात है। और अंतिम शेर तो उफ उफ टाइप बना है। कितनी मासूमियत के साथ निवेदन है। वाह वाह वाह क्या बात है सुंदर ग़ज़ल।

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शेख़ चिल्ली

इंटरनेट पर घूमते हुए होली की बातें पढ़ते हुए आपके ब्लॉग तक पहुंचा। देखा की तरही का मिसरा दिया गया है।
तो कुछ मिसरे हमारे भी हो गए। अगर अपनी पहचान बताना ज़ुरूरी न हो तो मेरी भी एक ग़ज़ल देखिये। अगर ठीक लगे तो औरों को भी पढ़वाईए। मेरी पहचान यह है कि मैं अपने हिसाब से एक शायर हूँ। इसे आप शेख़ चिल्ली का ख़्वाब मान लीजिये, जो दिन में देखता हूँ।

लोग सब कंस होने लगे रंग में
खेलें होली कहाँ कृष्ण के रंग में

आज मथुरा भी बिज़नस का गढ़ हो चला
राजनीति बनारस करे रंग में

तोड़ कर मटकियों से चुरायेंगे क्या
दूध-घी यूरिया के बुरे रंग में

घोर कलयुग है आया, कसम राम जी
कैसे कैसे रसायन घुले रंग में

बांसुरी भी पुरानी हुई अब तेरी
राधिका भी तो डी. जे. सुने रंग में

कृष्ण बोले सुदामा से घबराओ मत
जो भी है सब रँगा है मेरे रंग में

आओ अब इक गिरह भी लगा लें ज़रा
"आओ रँग दूँ तुम्हे इश्क़ के रंग में"

शेख़ चिल्ली ये बातें बुरी हैं मगर
क्या हकीकत नहीं है मेरे रंग में?

अपनी पहचान का छिपा कर शेख़ चिल्ली साहब ग़ज़ल लाए हैं। ख़ैर इस ब्लॉग मंच पर तो सबका खुले दिल से स्वागत होता है। मतला ही बहुत अच्छे से बनाया गया है। सचमुच कंसों के दौर में कृष्ण वाली होली भला कैसे खेली जाए। शेख़ चिल्ली साहब शायद उत्तर प्रदेश से हैं तभी तो अगले शेर में दो प्रमुख धार्मिक नगरों की व्यथा को इतनी बख़ूबी व्यक्त किया है। और उसके बाद यूरिया से बने हुए दूध और मटकियों को तोड़ने की कहानी, यह शेर बहुत ही अच्छा बना है।  अगले शेर में जो टुकड़ा आनंद दे रहा है वह है कसम राम जी, मिसरे में टुकड़े यदि ठीक लग जाएँ तो इसी प्रकार आनंद देते हैं। बाँसुरी और डीजे के बीच समय के परिवर्तन की पड़ताल करता अगला ही शेर खूब कटाक्ष करता है समय पर। गिरह का शेर बिल्कुल ही नए तरीके से बाँधा गया है। प्रयोगधर्मी होना ही साहित्यकार को जिंदा रखता है। और मकते का शेर बहुत मासूमियत से एक तल्ख़ सवाल करता है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल क्या बात है, वाह वाह वाह।

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वाह वाह क्या बात है, आज तो पाँचों ही शायरों ने जलवा खींच दिया है। एक से बढ़कर एक शेर कहे हैं। अलग-अलग अंदाज़ में अपने-अपने तरीक़े से। आप लोगों के पास दिल खोलकर दाद देने के अलावा और अब चारा ही क्या है। तो दीजिए दाद ग़ज़ल की इस नई पीढ़ी को। और करते रहिए इंतज़ार।

गुरुवार, 9 मार्च 2017

आइये आज होली के क्रम को आगे बढ़ाते हैं चार रचनाकारों के साथ। आज होली के रंग लेकर आ रहे हैं राकेश खंडेलवाल जी, निर्मल सिद्धू जी, कुमार प्रजापति जी और भुवन निस्तेज।

मित्रों कल बहुत अच्छे से मुशायरे की शुरुआत हुई होली के मुशायरे को दोनों रचनाकारों ने नए रंग से भर दिया। होली पर हम हमेशा धमाल रचते हैं, इस बार होली का धमाल अंतिम दिन ही देखने को मिलेगा। अंतिम दिन मतलब होली वाले दिन मचेगा यह धमाल। होता क्या है कि धमाल के चक्कर में ग़ज़लें अनसुनी रह जाती हैं। तो यह सोचा कि होली का धमाल अलग से मचाया जाए और ग़ज़लें अलग सुनी जाएँ। इसलिए ही अभी आपको होली का धमाल देखने को नहीं मिल रहा है।

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आओ रँग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में

इस बार मिसरे को लेकर बहुत सी बातें हो चुकी हैं, लेकिन ख़ुशी की बात यह है कि उसके बाद भी इतनी सारी ग़ज़लें आईं हैं। अलग अलग क़ाफियों के साथ। असल में हमारा ठीक इससे पूर्व का मुशायरा जो होली पर हुआ था उसमें भी क़ाफिये की ध्वनि यही थी, इसलिए सुविधा यह भी है कि पिछली बार की ग़ज़लों में से काफिये छाँट लिए जाएँ। ध्यानपूर्वक क्योंकि सारे नहीं चलेंगे कुछ ही चलेंगे।

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आइये आज चार रचनाकारों के साथ होली के इस क्रम को आगे बढ़ाते हैं। राकेश खंडेलवाल जी ने तीन बहुत सुंदर गीत भेजे हैं जो रोज़ एक के क्रम में आपके सामने आएँगे। निर्मल सिद्धू जी होली के मुशायरे की गाड़ी दौड़ते भागते पकड़ ही लेते हैं। और भुवन निस्तेज और कुमार प्रजापति  होली के मुशायरे में शायद पहली बार आ रहे हैं, आइये चारों के साथ मनाते हैं होली का यह अगला अंक।

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राकेश खंडेलवाल

सोच की खिड़कियां हो गई फ़ाल्गुनी
सिर्फ़ दिखते गुलालों के बादल उड़े
फूल टेसू के कुछ मुस्कुराते हुये
पीली सरसों के आकर चिकुर में जड़े
गैल बरसाने से नंद के गांव की
गा रही है उमंगें पिरो छन्द में
पूर्णिमा की किरन प्रिज़्म से छन कहे
आओ रँग दें तुम्हें इश्क के रंग में

स्वर्णमय यौवनी ओढ़नी ओढ़ कर
धान की ये छरहरी खड़ी बालियाँ
पा निमंत्रण नए चेतिया प्रीत के
स्नेह बोकर सजाती हुई क्यारियां
साग पर जो चने के है बूटे लगे
गुनगुनाते  मचलते से सारंग है
और सम्बोधनो की डगर से कहे
आओ रंग दें तुम्हरे प्रीत के रंग में

चौक में सिल से बतियाते लोढ़े खनक
पिस  रही पोस्त गिरियों की ठंडाइयाँ
आंगनों में घिरे स्वर चुहल से भरे
देवरों, नन्द भाभी की चिट्कारियाँ
मौसमी इस छुअन से न कोई बचा
जम्मू, केरल में, गुजरात में, बंग में
कह रही ब्रज में गुंजित हुई बांसुरी
आओ रँग दें तुम्हें इश्क के रंग में

पनघटों पे खनकती हुई पैंजनी
उड़्ती खेतों में चूनर बनी है धनक
ओढ़ सिन्दूर संध्या लजाती हुई
सुरमई रात में भर रही है चमक 
मौसमी करवटें, मन के उल्लास अब
एक चलता है दूजे के पासंग में
भोर से रात तक के प्रहर सब कहें
आओ रँग दें तुम्हें इश्क के रंग में

पूर्णिमा की किरण प्रिज्म से छन कर कहे, वाह राकेश जी इसी कला के तो हम सब कायल हैं। आपके गीतों में जो बिम्ब उभर कर आते हैं वो अद्भुत होते हैं। टेसू के फूलों का सरसों के चिकुर में आकर जड़ना वाह क्या बात है। पहले की बंद में चेतिया प्रीत का निमंत्रण तो कमाल कमाल है। चने के बूटे और सारंगों के मचलने का प्रतीक तो मानों उफ युम्मा टाइप का बन पड़ा है। दूसरे बंद में पोस्त गिरियों की ठंडाइयों का सिल और लोढ़े पर पिसना मन में ठंडक भर गया, लगा कि अभी दौड़ कर एक गिलास तो पी ही लें। और उस पर जम्मू से केरल तक ब्रज में गुंजित बाँसुरी का गूँज जाना तो बस पूरे देश में होली के रंग का एक अनूठा नमूना है। और तीसरे बंद में संध्या का लजाना ऐसा लगा मानों दूर ढलते सूरज की लालिमा आस पास फैल गई है। और अंत में भोर से रात तक के प्रहर सब के सब इश्क़ के रंग में रँगने को तैयार हैं। वाह क्या कमाल का गीत है। राकेश जी को यूँ ही तो नहीं कहा जाता गीतों का राजकुमार। वाह वाह क्या कमाल का गीत है।

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भुवन निस्तेज

राख उड़ती रही सुगबुगे रंग में
आप रंगते रहे मसअले रंग में

हाशिये भी अगरचे रँगे रंग में
रँग गए अब तो हर जाविये रंग में

रात भर ख्वाब आकर डराते रहे
और आई सुबह रतजगे रंग में

रंगसाजी करे खुद ब खुद फैसला
बस्ती फूलों की कैसे रँगे रंग में

आपके रंग में जाफरानी हवा
आपको सादगी क्या दिखे रंग में

पर्वतों से उफनती नदी ज़िन्दगी
गुनगुनाने लगी बावरे रंग में

आस्तीनों में ख़ंजर लबों पर हँसी
क्या हुई है वफ़ा आज के रंग में

बात ये खार से कौन कहता यहाँ
'आओ रंग दूँ तुम्हें इश्क के रंग में'

अब ये लहज़ा ग़ज़ल का बदलिये हुजूर
लाइए अब कहन को नए रंग में

ये नहर ने नदी से है पूछा 'सुनों
क्यों हमेशा से हो सरफिरे रंग में ?'

शायरी में दिखाओ असर फागुनी
हो गजल रंग में, काफ़िये रंग में ।

मतले का शेर ही पूरी ग़ज़ल का रंग पहले से बता रहा है कि यह अपने समय पर कटाक्ष करती हुई ग़ज़ल होने को है। और पूरी ग़ज़ल वैसी ही है भी। मतला ही हमारे पूरे समय पर चोट करता हुआ गुज़रता है।रात भर ख़्वाबों का आकर डराना और फिर सुब्ह का रतजगे के रंग में आना, कवि की कल्पना का कमाल है यह। रंगसाज़ी वाले शेर में रँगे को ही क़ाफिया बना कर कवि ने एक और कमाल कर दिया है। और यह क़ाफिया भी पूरी तरह से निर्वाह हो गया है। आपके रंग में जाफरानी हवा अगर ध्यान से सुना जाए तो इसकी ध्वनियाँ गंभीर पोलेटिकल व्यंग्य से भरी हैं। आस्तीनों में ख़जर और लबों पर हँसी हमारा सच में आज का समय है। गिरह का शेर भी बहुत सुंदर बनाया है, फूलों और काँटों का तुलनात्मक शेर बहुत कमाल के साथ रचा है शायर ने। और नहर का नदी से पूछना कि तुम हर समय सरफिरे रंग में क्यों हो, बहुत अच्छी कल्पना है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है। तीखे व्यंग्य के साथ। वाह वाह वाह कमाल।

nirmal sidhu
निर्मल सिद्धू

तुम भी रँग जाओगे फिर मेरे रंग में
आओ रंग दें तुम्हें इश्क़ के रंग में

चढ़ के उतरे नहीं इसमें है वो कशिश
डूब तो लो ज़रा इस नये रंग में

अब तो मौसम भी मदहोश होने लगा
क्यूँ न हम भी घुलें मदभरे रंग में

रंग भाता नहीं दूसरा कोई अब 
जबसे देखा है तुझको हरे रंग में

साये ग़म के कभी पास आते नहीं
जब रहे हम सदा प्यार के रंग में

मैं अलग तू अलग ऐ खुदा कुछ बता
आदमी ढल रहा कौन से रंग में

वाह वाह वाह क्या ग़ज़ल कही है। मतले में ही गिरह ठीक प्रकार से बाँधा गया है। अपने ही रंग में रँगना ही तो असल इश्क़ होता है। किसी दूसरे को अपने रंग में रँग लेना यही तो प्रेम है और मतले का शेर उस भावना को बहुत ही अच्छे से व्यक्त कर रहा है। पहला ही शेर एक निमंत्रण है अपने ही रंग में डूब जाने का। और एक चुनौती के साथ निमंत्रण है कि यह जो रंग है यह चढ़ गया तो उतरने वाला नहीं है। और मौसम फागुन का हो तो मद भरा रंग तो बिखरना ही है चारों ओर। रंग भाता नहीं दूसरा कोई अब में किसी एक को हरे रंग में देख लेना और उसके बाद हर रंग फीका हो जाना, वाह क्या बात है यह शेर हर पढ़ने वाले को यादों में ज़रूर ले जाएगा। और फिर वही बात कि जब तक हम प्रेम में हैं सबसे प्यार कर रहे हैं तब तक ग़म के साये कभी पास नहीं आते। और अंत तक आते-आते प्रेम को सूफ़ियाना अंदाज़ प्रेम के रंग को भी अपने रंग में रँग लेता है। वाह वाह वाह क्या बात है बहुत ही सुंदर ग़ज़ल।

KUMAR PRAJAPATI

कृष्ण कुमार प्रजापति

देख लेना सुधार आएगा ढंग में
आओ रंग दे तुम्हें इश्क़ के रंग में

उसको छेड़ा तो वो बुत ख़फ़ा हो गया
किस तरह आ गयी जान इक संग में

सीने छलनी हुए कट के सर गिर पड़े
कितने कम आ गए आन की जंग में

इससे पहले तो ऐसा नशा ही न था
क्या मिलाया है तूने मेरी भंग में

उँगलियाँ जल उठीं दिल सुलगने लगा
बिजलियों सी जलन है तेरे अंग में

अपनी साँसे मेरी सासों में घोल दे
देख जमना बहा करती है गंग में

सारा गुलशन उठाकर न दे तू "कुमार "
डाल दे फूल कुछ दामन ए तंग में

कुमार जी को शायद क़ाफिया समझने में कुछ ग़फ़लत हो गई है। उन्होंने ए की मात्रा के स्थान पर रंग को ही क़ाफिया बना लिया है। इस ब्लॉग की परंपरा है कि यहाँ जो रचनाएँ आ जाती हैं सबका सम्मान किया जाता है इस अनुरोध के साथ कि आगे से यह ग़फ़लत नहीं हो। मतला ही बहुत खूब बन पड़ा है जिसमें इश्क़ के माध्यम से सुधारे जाने की बात कही गई है। इससे पहले तो ऐसा नशा ही न था में किसीके हाथों को छूकर नशे के और बढ़ जाने की बात बहुत ही सुंदर तरीक़े से कह दी गई है। वस्ल को लेकर दो अच्छे शेर कह दिये हैं कुमार जी ने पहले तो उँगलियाँ जल उठने वाला शेर है जो प्रेम के दैहिक रूप को प्रकट करता है और उसके बाद अपनी साँसें मेरी साँसों में घोलने का अनुरोध प्रेम के दूसरे रूहानी पक्ष की बात करता है। और अंत में मकते का शेर बहुत छोटी सी कामना के साथ सामने आया है जिसमें केवल चंद फूलों की बात की गई है पूरे गुलशन के स्थान पर। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।  
holihai

लीजिए तो आज के चारों रचनाकारों ने होली के माहौल को अलग ही रंग में रँग दिया है। आपका काम तो वही है दाद दीजिए और खुल कर दाद दीजिए। दाद देते रहने में ही आपकी भलाई है नहीं तो होली पर आपके फोटो के साथ क्या होगा यह ख़ुदा ही जानता है।

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