सोमवार, 30 मई 2011

वो कदँब के फूल, जमुना में नहाना, वो झलंगा, छाछ-लस्सी बाँटती थी, गर्मियों की वो दुपहरी. आज तरही में सुनते हैं श्री नवीन सी चतुर्वेदी जी की एक बहुत ही सुंदर ग़ज़ल.

इस बार की तरही ग़ज़लों ने मन को खूब प्रसन्‍न कर रखा है, एक से बढ़कर एक ग़ज़लें आ रही हैं. होली की तरही में बहर और मिसरे के कारण जो फीकापन आ गया था वो अब इस बार में हट गया है. दरअसल में तरही के पीछे जो सोच होती है वो ये होती है कि नये नये विषयों पर नयी नयी बहरों पर भी क़लम को आज़माया जाये. नहीं तो होता क्‍या है आपको बहरे हजज में महारत हो गई तो आप पेले जा रहे हैं, धे ग़ज़ल, धे ग़ज़ल, एक ही बहर पर. जो बहरों के जानकार हैं वो तो समझ रहे हैं लेकिन आम श्रोता को कहां जानकारी होती है. तो इसीलिये तरही का आयोजन होता है. नहीं तो आप तो कहें कि साहब हम तो बस प्रेम की ही ग़ज़लें लिख सकते हैं ये मौसम वौसम पर लिखना अपने बस की बात नहीं है, तो साहब दरअसल में तो आप कवि हैं ही नहीं, कवि तो वो होता है जो हर विषय पर अपनी क़लम की धार को सिद्ध करके बता दे. खैर ये तो बात हुई तरही की, टेम्‍प्‍लेट को कुछ लोगों ने पसंद किया है कुछ न नहीं मगर फिर भी ऐसा लग रहा है कि लोगों को फिलहाल तो अच्‍छा लग रहा है तो अभी तो इसे बनाया रखा जायेगा फिर आगे देखते हैं.  दो दिन से एक दांत के दर्द ने जान सुखाई हुई है, आज भी बड़ी पीड़ा के बीच से पोस्‍ट लिखी जा रही है.  तो आइये आज सुनते हैं श्री नवीन सी चतुर्वेदी जी से उनकी ये जानदार शानदार ग़ज़ल.

ग्रीष्‍म तरही मुशायरा

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और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी

 

nmc image OBO नवीन सी चतुर्वेदी

पिता का नाम:- श्री छोटू भाई चतुर्वेदी
गुरु जी:- कविरत्न श्री यमुना प्रसाद चतुर्वेदी 'प्रीतम'
[गुरुजी के नाम से इस वर्ष से हम लोग सरस्वती पुत्रों का सम्मान शुरू कर रहे हैं,
जन्म स्थान:- मथुरा, जन्म तिथि:- २७ अक्तूबर, १९६८, हाल निवास:- मुंबई
शिक्षा:- वाणिज्य स्नातक, लड़कपन में ऋग्वेद की कुछ ऋचाओं के पाठ का सौभाग्य मिला,
भाषा:- मातृभाषा ब्रज भाषा के अतिरिक्त हिन्दी, अँग्रेज़ी, गुजराती और मराठी में लिखना, पढ़ना, बोलना और उर्दू का थोडा बहुत ज्ञान,
कामकाज:- सीसीटीवी, बॉयोमेट्रिक, एक्सेस कंट्रोल, पे-रोल सॉफ़्टवेयर वग़ैरह http://vensys.biz
लेखन विधा:- पद्य - छन्द, ग़ज़ल, कविता, नवगीत वग़ैरह, भूतकाल में एक स्थानिक समाचार पत्र के लिए कोलम भी लिखा था,
प्रकाशित पुस्तक - इकलौती  "ई-किताब' पिछले महीने ही प्रकाशित हुई लिंक:- http://thatsme.in/page/6377873:Page:7512
अन्य:- आकाश वाणी मथुरा और मुंबई से काव्य पाठ, कई पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन एवम् गोष्ठियों में काव्य पाठ, कुछ ऑडियो केसेट्स के लिए भी लिखा, एक केसेट के लिए गुजराती में ब्रज में होने वाली 'चौरासी कोस की ब्रज परिक्रमा' के लिए भी लिखा,

रचना प्रक्रिया
जब भी कुछ सोच कर लिखने बैठता हूँ, कुछ लिख ही नहीं पता, मेरे लिए इस प्रक्रिया को परिभाषित करना वाकई कठिन है, कहने को कुछ भी कह लूँ, परन्तु, मेरा ये प्रबल विश्वास है कि हम लिखते नहीं हैं - स्वयँ माँ शारदा हमें अपना माध्यम बनाती हैं - जिसके लिए हम सभी को उन के प्रति प्रतिदिन कृतज्ञता प्रकट करते रहना चाहिए, जय माँ शारदे,

ब्लॉग्स:- ठाले बैठे, समस्या पूर्ति, वातायन
फेसबुक प्रोफाइल:-facebook.com/navincchaturvedi
कमजोरी:- भाषाई चौधराहट को सहजता से स्वीकार नहीं कर पाता
मेरी रोजी रोटी : http;//vensys.biz

तरही ग़ज़ल

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फालसे-सैंसूत वाली, गर्मियों की वो दुपहरी,

याद में हैं दर्ज अब भी, गर्मियों की वो दुपहरी.

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गर्म कर के आमियाँ, दादी बनाती थी पना जो,

उस पने से मात खाती, गर्मियों की वो दुपहरी.

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वो घड़े-कुंजे, वो खरबूजे, वो खस-टटिया महकती,

और सन्नाटे में डूबी, गर्मियों की वो दुपहरी.

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वो कदँब के फूल, जमुना में नहाना, वो झलंगा,

छाछ-लस्सी बाँटती थी, गर्मियों की वो दुपहरी.

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शाम-सुब्‍ह पार्क जाना, या बगीची को निकलना,

पर मढैया में ही बीती, गर्मियों की वो दुपहरी.

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ठीक ग्‍यारह बाद ही, आँगन का टट्टर पाट कर के,

भाई-बहनों सँग बिताई, गर्मियों की वो दुपहरी.

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गर्म हवा चलते हुए भी, वोह शीतल जल 'मुसक' का,

जानती थी फ्रिज न ए. सी., गर्मियों की वो दुपहरी.

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झिराझिरी, वातायनी उन सूत वाली कुर्तियों में,

खूब क्या थीं ठाठ वाली, गर्मियों की वो दुपहरी.

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टाट से ढक के बरफ, वो बेचता कल्लू का पुत्तर,

और उस पे चिलचिलाती, गर्मियों की वो दुपहरी.

ब्रज वासी हैं नवीन भाई तो क्‍यों न फिर यमुना  और कदंब का जिक्र आये. और वो भी इतने सुंदर तरीके से कि वो कदंब के फूल, यमुना में नहाना वो झलंगा, बहुत ही सुंदर शब्‍द चित्र खींचा गया है इस मिसरे में, अहा. झिरझिरी वातायनी उन सूत वाली कुर्तियों में और वो घड़े कुंजे वो तरबूजे, ऐसा लग रहा है कि पूरा का पूरा गर्मियों का बचपन यादों के गलियारे से निकल कर सामने आ गया है. सुंदर ग़ज़ल.

तो सुनिये और आनंद लीजिये इस सुंदर ग़ज़ल का और इंतजार कीजिये अगली तरही का.

शुक्रवार, 27 मई 2011

शाम होते-होते सूरज की तपिश कुछ कम हुई पर, चाँद के माथे पे झलकी गर्मियों की ये दुपहरी.आज तरही मुशायरे में सुनते हैं अंकित सफर की एक बहुत ही ख़ूबसूरत ग़ज़ल.

धीरे धीरे हम समापन की तरफ आ रहे हैं, हालांकि समापन का मतलब ये नहीं है कि सारी ग़जलें पूरी हो गई हैं, समापन का मतलब ये है कि आधा सफर पूरा हो गया है. और हां इस बीच याद आया कि 2007 में जब ब्‍लागिंग शुरू की थी तब से अब तक अपने इस ब्‍लाग का टेम्‍प्‍लेट कभी भी नहीं बदला,  पता नहीं क्‍यों उस टेम्‍प्‍लेट से मोह सा हो गया था। हां उसे अभी भी सेव करके रखा है, यदि ये वाला कुछ दिनों में नहीं जमा तो अपना वही सदाबहार वापस कर लेंगे, क्‍योंकि परेशानी तो अभी से हो रही है इस वाले में, इसमें हिंदी के अक्षर अचानक ही अंग्रेजी में हो जाते हैं. काम करते करते कुछ और परेशानी भी आ रही है. खैर ये तो हुई आज की.

आज हम एक सुंदर बच्‍चे से उसकी ख़ूबसूरत ग़ज़ल सुनने जा रहे हैं. पहचान तो गये ही होंगे आप, जी हां बात हो रही है अंकित सफर की तो चलिये आज सुनते हैं अंकित से उसकी तरही ग़ज़ल.

ग्रीष्‍म तरही मुशायरा

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और सन्‍नाटे में    डूबी  गर्मियों की ये दुपहरी 

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अंकित सफर

तरही की ग़ज़ल न जाने कैसी बन पड़ी है, मगर जैसी भी बन पाई है भेज रहा हूँ. इस बार तो, ग़ज़ल में पसीने बहाने के बाद, परिचय, रचनाशीलता और गर्मी की यादों में भी पसीना बहाना है.
परिचय लिखने का सोचते ही कुछ typed से फॉर्मेट मन में खलबली कर रहें हैं. एक तो वो वाला जिसमे तथा-कथित मुजरिमों की तरह नाम, उम्र, जन्म-स्थान, पेशा और फलाना लिखते हैं और दूसरा वाला वो जो स्कूल के निबंधों में लिखे जाना वाला स्टाइल है कि फलां की पैदाइश यहाँ इतने दिन, महीने और वर्ष में हुई, माँ-पिता का नाम और इन्होने यहाँ से अपनी आरंभिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद, उच्च शिक्षा के लिए फला जगह का रुख किया और अच्छे मार्क्स में उत्तीर्ण होने के बाद या फिर कि पढाई में ज्यादा अच्छे ना होने के कारण वगैरह-वगैरह...... और एक बिंदास वाला नाम ही काफी है, एक और आया दिमाग में वैसे ये ज्यादा अच्छा लग रहा है इसलिए इसी स्टाइल में परिचय दे रहा हूँ ,

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अंकित 'सफ़र' नाम तो सुना होगा.
रचना प्रक्रिया के बारे में लिखना मतलब सीक्रेट कोड का खुलासा............ वैसे ज़ेहन आस-पास बिखरे हुए माहौल में से मिसरे चुनता है, दिल उन्हें थोडा rifine करता है और आखिरी में कलम उन्हें बुनना शुरू कर देती है.
अब तो गर्मियों की दुपहरी ऑफिस में बीतती है, मगर वो बचपन की दुपहरी का हमेशा ही बेसब्री से इंतज़ार रहता था. ननिहाल में सब भाई-बहनों का जमावड़ा लगता था और फिर तो पूछो ही मत...........लीचियों, आम के पेड़ों पे दिन-दहाड़े और रात के सन्नाटों में हमला, शाम होते ही छत या मैदान में पतंगों से पेंच लड़ना, दिन की गर्मी में छाँव में क्रिकेट, लूडो, कैरम, व्यापार वैगेरह-वैगैरेह.

तरही  ग़ज़ल

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जिस्म से बूंदों में रिसती गर्मियों की ये दुपहरी.

तेज़ लू की है सहेली गर्मियों की ये दुपहरी.
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शाम होते-होते सूरज की तपिश कुछ कम हुई पर,
चाँद के माथे पे झलकी गर्मियों की ये दुपहरी.
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सब्र खोती धूप में इक, भूख से लड़ते बदन के,
हौसले को आज़माती गर्मियों की ये दुपहरी.

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बर्फ के गोले लिए ठेलें पुकारे ज़ोर से जब,
दौड़ नंगे पाँव जाती गर्मियों की ये दुपहरी.

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छाँव से जब हर किसी की दोस्ती बढ़ने लगी तो,
''और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी.''
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उम्र की सीढ़ी चढ़ी जब, छूटते पीछे गए सब,
अब लगे कुछ अजनबी सी गर्मियों की ये दुपहरी. 

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आसमां अब हुक्म दे बस, बारिशें देहलीज़ पर हैं,

लग रही मेहमान जैसी गर्मियों की ये दुपहरी.

 मुझे लग रहा है कि आखिरी शेर तो जैसे किसी नक्‍काशी करने वाली पतली छेनी को लेकर दिन भर की मेहनत के बाद तराशा गया है. गिरह का शेर बहुत सुंदर तरीके से सामंजस्‍य स्‍थापित कर रहा है, जो अब तक कम देखने को मिल रहा था. और हां बर्फ के गोले लिये ठेलों की पुकार का दृश्‍य तो जैसे आंखों के सामने ही आ गया है. और चांद के मा‍थे से झलकने का शेर तो बहुत ही सुंदर बन पड़ा है. पूरी की पूरी ग़ज़ल बहुत ही खूबसूरत अंदाज में कही गई है.

तो सुनते रहिये ये ग़ज़ल. मिलते हैं अगले अंक में एक और शायर के साथ.

हां इस टेम्‍प्‍लेट में टिप्‍पणी का ऑप्‍शन ऊपर है पोस्‍ट के शीर्षक के पास.

बुधवार, 25 मई 2011

वो भले ही भूल जायें हम उन्हें ना भूल पाते याद उनकी लेके आती गर्मियों की ये दोपहरी । आज तरही में सुनिये एक साथ दो शायरों को डॉ संजय दानी और श्री निर्मल सिद्धू को ।

आज से रोहिणी का तपना भी प्रारंभ हो गया है जिसको कि नौतपा कहा जाता है । इस बार तो ये नौतपा और भी ज्‍यादा एक दिन बढ़ कर आया है मतलब दस दिन का है । कहते हैं कि नौतपे में जितनी तपन होती है उतनी ही बरसात की अच्‍छी संभावना होती हैं । 25 मई से दस दिन तक नौतपे के दस दिन हैं । सूरज अपनी पूरी शक्ति लगाकर कर पृथ्‍वी को जलाने का प्रयास करता है । और इसी के परिणाम से सागर से मेघों की टोली निकल पड़ती है सूरज की चुनौती का समाना करने, जलती, तपती धरती को राहत प्रदान करने । खैर चलिये हम चलते हैं आज की तरही ग़ज़लों की तरफ । आज एक साथ दो शायर हैं । इसलिये क्‍योंकि दोनों का ही परिचय आद‍ि प्राप्‍त नहीं हुआ है सो एक साथ दोनों को ही लगाया जा रहा है । एक बात और, टिपपणियां करने में कुछ समस्‍या आ रही है लेकिन बेनामी टिप्‍पणियों में नहीं आ रही है । यदि आपको भी टीप लगाने में समस्‍या आये तो टिप्‍पणी बाक्‍स में जहां ''इस रूप में टिप्‍पणी करें''  लिखा है वहां ''नाम / url''  का आप्‍शन चुन कर अपना नाम लगा दें उससे आपके नाम से टिप्‍पणी प्रकाशित हो जायेगी ।  और आपकी टिप्‍पणी बेनामी न होकर आपके ही नाम से हो जायेगी ।

ग्रीष्‍म तरही मुशायरा

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और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी

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संजय दानी

और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी,

याद नानी की दिलाती, गर्मियों की ये दुपहरी।

सूनी गलियां सूने मेढों के मुनासिब दायरे में,

इश्क़ को परवां चढाती , गर्मियों की ये दुपहरी।

खेतों के मज़दूर हम, सूरज भी हमसे ख़ौफ़ खाता,

देख हमको मुंह छिपाती, गर्मियों की ये दुपहरी।

सुनती जब शहनाई की आवाज़ शादी वाले घर में,

बेरहम सी मुस्कुराती ,गर्मियों की ये दुपहरी।

शाम की महफ़िल सजे जब गांव के चौपाल में तो,

साथ सबके गुनगुनाती, गर्मियों की ये दुपहरी।

उठती जब तलवार सावन की,गगन के सर पे,जाने

किस वतन को भाग जाती , गर्मियों की ये दुपहरी।

आम की बगिया में झपकी लेता जब ,जाने कहां से

नर्म झोंके ले के आती , गर्मियों की ये दुपहरी।

मुश्किलों से डरने वाले ज़िन्दा इन्सानों को दानी,

पाठ, हिम्मत का पढाती ,गर्मियों की ये दुपहरी

हूं काफी अच्‍छे शेर निकाले हैं संजय जी ने । खेतों के मजदूर हम सूरज भी हमसे खौफ खाता, देख हमको मुंह छिपाती गर्मियों की ये दुपहरी, बहुत अच्‍छे भाव से बांधा है शेर को । मकता भी बहुत सुंदर बन पड़ा है हौसलों से भरा हुआ । सूनी गलियां सूनी मेढ़ों के मुनासिब दायरे में, इश्‍क को परवान चढ़ाने का शब्‍द चित्र सुंदर है ।

NirmalSiddhu

निर्मल सिद्धू

ना सुनहरी ना रुपहली गर्मियों की ये दोपहरी

ये तो चुभती ये तो दुखती गर्मियों की ये दोपहरी

दूर तक ख़ामोशियां हैं जिस्म सबका है पिघलता

जान सबकी टांग देती गर्मियों की ये दोपहरी

आंख मुश्किल से लगे है सांस मुश्किल से चले है

सबके दिल को है जलाती गर्मियों की ये दोपहरी

सर्द क़ुल्फ़ी का निग़लना सर्द लहरों में वो तरना

दिल में ठंडक डाल जाती गर्मियों की ये दोपहरी

वो भले ही भूल जायें हम उन्हें ना भूल पाते

याद उनकी लेके आती गर्मियों की ये दोपहरी

साथ निर्मल के यही बस तेरी यादों का पिटारा

''और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये दोपहरी''

वो भले ही भूल जाएं हम उन्‍हें ना भूल पाते याद उनकी ले के आती गर्मियों की ये दुपहरी, अच्‍छा शेर बन पड़ा है । स्‍मृतियों के गलियारे में भटकता हुआ सा । और लगभग ऐसी ही तासीर लिये मकता भी सुंदर बना है जिसमें सुंदरता के साथ गिरह बांधी है । साथ निर्मल के यही बस तेरी यादों का पिटारा, हम सब के पास यही तो होता है किसी न किसी याद का पिटारा ।

तो सुनते रहिये दोनों ग़ज़लों को और दाद देते रहिये । मिलते हैं अगले अंक में ।

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सोमवार, 23 मई 2011

जुड़ गयी यारों की टोली, इस बरस जब दोस्त आये, और फिर से चहचहाई, गर्मियों की ये दुपहरी। भीषण गर्मी के इस दौर में सुनिये श्री तिलक राज कपूर जी की कूल कूल ग़ज़लें ।

गर्मी अपना प्रचंड रूप ले चुकी है। हर तरफ जैसे आग सी बरस रही है और इन सबके बीच में कहीं कहीं आंधी, अंधड़ और बवंडर भी चल रहे हैं । गर्मी का अपना एक आनंद है । और उसके बाद आने वालनी वर्षा का अपना ही सुख है । पेड़ पर कच्‍ची कैरियां लद गईं हैं और मिट्ठू उनकी तलाश में जाने कहां कहां से आने लगे हैं । परी और पंखुरी अपने ननिहाल में हैं और वहां से रोज़ कैरियों के बारे में जानकारी ले रहीं हैं । बेल के पेड़ में नयी पत्तियां आ गईं हैं और हर तरफ गर्मियों का मौसम अपने सौंदर्य के साथ बिखरा हुआ है । तो ऐसे में ही चलिये आज सुनते हैं श्री तिलक राज कपूर जी से उनकी ग़ज़लें । ग़ज़लें ? दरअसल में तिलकराज जी ने दोनों ही मिसरों पर ग़ज़ल कहीं हैं । तो आइये आनंद लेते हैं उनकी ग़ज़लों का ।

ग्रीष्‍म तरही मुशायरा

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और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की ये / वो दुपहरी

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श्री तिलक राज कपूर जी

परिचय का प्रश्‍न आने पर समस्‍या यह खड़ी हो जाती है कि कौनसा परिचय दिया जाये इसलिये संदर्भानुसार परिचय तक सीमित रख रहा हूँ। मुझमें ग़ज़ल का शौक पैदा हुआ गऊ माता की कृपा से। हुआ कुछ यूँ इंजीनियरिंग करते समय मुझे कहानियॉं और उपन्‍यास पढ़ने का अच्‍छा शौक हुआ करता था मुझे इसलिये सारिका नियमित रूप से लेता था। कमलेश्‍वर जी ने 'सारिका' पत्रिका एक अंक समर्पित किया स्‍वर्गीय दुष्‍यन्‍त कुमार को। इसी में पहली बार मैनें 'दरख्‍़तों के साये में धूप' पढ़ी थी। बहुत क्रांतिकारी बात लगी उस ग़ज़ल में। उन दिनों खुले में सोना आनंद का विषय होता था गर्मियों में। बड़ा र्क्‍वाटर था जिसमें आगे भी काफ़ी जगह खुली थी जिसमें एक कोने में गाय भी बँधी रहती थी। रात को पढ़ते-पढ़ते सारिका को टेबल पर रखकर सो गया। थोड़ी देर में कुछ आवाज़ हुई तो नींद खुली और देखा कि हमारी गाय 'गौरी' बड़े मज़े से सारिका चबा रही है। सारिका को बचाने की गुँजाईश तो बची नहीं थी, पूरी तरह खाने दी। उस गाय का दूध पीने का परिणाम ही कहूँगा कि मैं ग़ज़ल कह पाता हूँ।

बहरहाल ये तो हुई एक बात अब अगर मैं अपनी पहली ग़ज़ल को याद करूँ तो वो अनजाने में हो गयी थी, ऐसे ही एक ग़ज़ल पढ़ी और वैसा ही कुछ लिख डाला अपने भावों को लेकर। रदीफ़, काफि़या बह्र की समझ के बिना। हुआ यूँ कि आगर-मालवा में एक प्रतिभा काव्‍य मंच चलता था उसमें मुझे सुनने के लिये बुला लिया जाता था। ऐसे ही एक अवसर पर मैनें अपनी तथाकथित ग़ज़ल प्रस्‍तुत कर दी, खूब तालियॉं मिलीं (अब समझ में आता है कि वो मुझे प्रोत्‍साहित करने भर के लिये थीं)। गोष्‍ठी के बाद मुझे जनाब मोहसिन अली 'रतलामी' ने कहा कि ये ग़ज़ल लिखकर मुझे देना। अपना तो सीना गज़भर चौड़ा हो गया। लिखकर देने के दो दिन बाद मेरी ग़ज़ल मेरे पास लौटकर आई और बहुत कोशिश करने पर भी मैं उसे लय में नहीं पढ़ पा रहा था। अगली गोष्‍ठी में जब पुन: उस ग़ज़ल को सुनाने की फरमाईश हुई तो लय बन ही नहीं रही थी, मैं बोल बैठा कि 'मैं तो वो ही पुरानी वाली पढूँगा, ये मोहसिन भाई ने जो बदलाव किये हैं मुझे तो समझ नहीं आये'। आज मुझे एहसास होता है कि ये ग़ल्‍ती नहीं मूर्खता थी। मोहसिन 'रतलामी' साहब नेक इंसान थे और अच्‍छे शायर थे, उन्‍हें तो नागवार न गुजरा मगर उनके शागिर्दों को बहुत बुरा लगा। जब तक मैं आगर-मालवा में रहा मोहसिन 'रतलामी' साहब मुझे पूरी ईमानदारी से इस्‍सलाह देते रहे। आगर मालवा में ही मैनें एक कवि सम्‍मेलन में अज़हर 'हाशमी' साहब की 'चाय की चुस्कियों में कटी जि़न्‍दगी' को सुनकर पहली सही ग़ज़ल कही थी 'ये न पूछो कि कैसे कटी जि़न्‍दगी'। इसके बाद खरगोन पहुँचने पर मुझे एक मित्र ने 'फ़ायलातुन, फ़ायलातुन, फ़ायलातुन, फ़ायलुन' की बह्र इस तरह समझाई कि कहो 'मार चप्‍पल, मार जूता, मार घूँसा, रात दिन'। मैं इन्‍हीं दो बह्र पर सामान्‍यतय: कहता रहा। अब जरूर ब्‍लॉग जगत से जुड़ने के बाद अन्‍य बह्र समझीं। खरगोन में कुछ ग़ज़लें कहीं; आदतन पुराना कुछ संजोकर नहीं रखा, अब लगभग सब खो चुका है।

यूनीकोड फ़ोन्‍ट पर मैं बहुत समय से काम कर रहा था और उसीमें ग़ज़ल के संबंध में कुछ तलाशता हुआ आपके ब्‍लॉग पर आया था पहली बार। शायद आपको ज्ञात न हो ब्‍लॉग जगत से मैं जुड़ा आपके ही ब्‍लॉग से और पहली ब्‍लॉगिया तरही भी मैनें आपके ही ब्‍लॉग पर कही 'रात भर आवाज़ देता है कोई उस पार से'।

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और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी

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फिर कहॉं बचपन सी बीती, गर्मियों की ये दुपहरी

अब नहीं पहले की जैसी, गर्मियों की ये दुपहरी।

जुड़ गयी यारों की टोली, इस बरस जब दोस्त आये,

और फिर से चहचहाई, गर्मियों की ये दुपहरी।

साथियों से गप्पबाजी, छींटकर पानी छतों पर,

देर रातों तक न थमती, गर्मियों की ये दुपहरी।

अष्ट-चंगा-पै, पतंगें, अन्टी -अन्टा और ढउआ

साथ डंडा और गिल्ली, गर्मियों की ये दुपहरी।

बॉंधकर पक्का निशाना, फल गिराना और खाना

देर घर आने में करती, गर्मियों की ये दुपहरी।

सात गिप्पी , और लंगड़ी, खेलती नाजु़क वो लड़की

काश उसका रूप धरती, गर्मियों की ये दुपहरी।

ब्याह गु़डि़या का रचाने के लिये हमको मनाना

काश वो नखरे उठाती, गर्मियों की ये दुपहरी।

नौतपा पूरा न हो पाया दिखे पर मेघ काले

कुछ दिनों तो और रुकती, गर्मियों की ये दुपहरी।

नीर की इक बूँद मिल जाये कहीं इस आस में ही

यूँ भटकती ज्यूँ गिलहरी, गर्मियों की ये दुपहरी।

मित्र सारे छोड़कर कल चल दिये मुझको अकेला

''और सन्नाटे में डूबी, गर्मियों की ये दुपहरी।''

अब न 'राही' से कहो तुम फिर वही महफिल सजाये

बिन तेरे है अनमनी सी, गर्मियों की ये दुपहरी।

(2)

और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी

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व्यस्तता में गुम हुई थी गर्मियों की वो दुपहरी

तू मिला तो लौट आयी गर्मियों की वो दुपहरी।

याद में खोई हुई सी, गर्मियों की वो दुपहरी

भूत बन पीपल प लटकी, गर्मियों की वो दुपहरी

कौन अम्मा औ पिताजी की कहॉं था बात सुनता

खेलने को जब बुलाती, गर्मियों की वो दुपहरी।

अब न सादापन बचा वो, अब न अपनापन बचा है

उम्र गुजरी फिर न चहकी, गर्मियों की वो दुपहरी।

कद लिये बालिश्‍त भर, क्या कुछ नहीं थे कर गुजरते

एक पल में थी गुजरती, गर्मियों की वो दुपहरी।

बेवज़ह ही भर दुपहरी दूर खेतों में भटकना

छुट्टियों भर मस्तियों की, गर्मियों की वो दुपहरी।

वो गुलेलों से निशाना बॉंधकर अंबियॉं गिराना

सॉंझ होने तक न रुकती, गर्मियों की वो दुपहरी।

रोज सुनना इक कहानी, नींद के आग़ोश में फिर

रात सोना बिन मसहरी, गर्मियों की वो दुपहरी

आम, जामुन, बेर दिन भर, और फिर घर लौटने पर

शाम को मटके की कुल्फ़ीं, गर्मियों की वो दुपहरी।

अब कहॉं मुमकिन मगर दिन काश फिर वो लौट आयें

धूप थी जब चॉंदनी सी, गर्मियों की वो दुपहरी।

वक्त कैसे कट गया अब ये पता चलता नहीं है

''और सन्ना‍टे में डूबी, गर्मियों की वो दुपहरी।''

वो ज़माना और था जब कम न थे हम गुलमुहर से

और हमसे कम नहीं थी, गर्मियों की वो दुपहरी।

इस बरस अच्छा हुआ जो गॉंव की फिर याद आई

फिर उसी मंज़र पे लौटी गर्मियों की वो दुपहरी।

गॉंव के बाहर कहीं थी, एक भूतों की हवेली

जिसके दर जाने से डरती, गर्मियों की वो दुपहरी

साथ सारी उम्र रहना, हर बरस हमने कहा था

पर कहॉं मानी थी बहरी, गर्मियों की वो दुपहरी

बॉंधकर 'राही' हमें वो खुद छुपी इतिहास में है

वक्‍त की थी चाल गहरी, गर्मियों की वो दुपहरी

तिलक जी की ग़ज़लों को सुनना तो वैसे भी एक आनंद होता है और फिर आज तो एक के साथ एक फ्री मिल रही है  । समर स्‍पेशल ऑफर के तहत । बहुत ही सुंदर शेर निकाले हैंअब कहॉं मुमकिन मगर दिन काश फिर वो लौट आयें धूप थी जब चॉंदनी सी, गर्मियों की वो दुपहरी  शेर बहुत ही सुंदर बन पड़ा है धूप को चांदनी जैसा बताने का प्रयोग वहीं कर सकता है जो गर्मियों की कड़ी धूप में बचपन में जंगलों  में भटका हो जामुन, कैरियां और करोंदे तोड़ने के लिये । अष्‍ट चंगा पै, अहा याद दिला दी बचपन की । अभी पिछले साल ही परी पंखुरी को ये सिखाया है और अब दिन भर वो ये ही खेलती हैं । लंगड़ी खेलना, सात गिप्‍पी खेलना, और एक्‍सप्रेस जिसमें पीठ पर ध्‍प्‍पीस दी जाती थी । तिलक जी आपने तो पूरा बचपन ही उठा कर ग़ज़लों में भर दिया है । अहा आनंद ही आनंद ।

तो आनंद लीजिये तिलक जी की इन दोनों ग़ज़लों का और इंतजार कीजिये अगली तरही का ।

शुक्रवार, 20 मई 2011

क्यों ना बैसाखी हवाओं पर चले आते हो तुम भी, क्‍यों ना तुमको भी सताती, गर्मियों की वो दुपहरी । आज तरही मुशायरे में सुनते हैं कंचन सिंह चौहान की एक बहुत सुंदर ग़ज़ल ।

ग्रीष्‍म तरही मुशायरा

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और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी

आज हम तरही मुशायरे में कंचन चौहान की ग़ज़ल सुनने जा रहे हैं । इससे ज्‍यादा मैं कुछ नहीं कह सकता क्‍योंकि जब बात कंचन की हो तो किसी और के बोलने का स्‍पेस ही कहां होता है ।

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कंचन सिंह चौहान 

परिवार थोड़ा ज्यादा बड़ा है। शादी ब्याह में जब सब अपने अपने परिवार के ४ लोगो के साथ आशीर्वाद देने आते हैं, तब मेरे आते ही स्टेज पर अचानक भीड़ बढ़ जाती है और असल में मैं खुद भी निश्चित नही कर पाती कि किसे किसे अपने परिवार में शामिल मानूँ। फिर भी कुछ टुकड़े।

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पहली तसवीर में तीनो भतीजे और दोनो भतीजियाँ। बड़े भतीजे अविनाश ने पिछली साल भईया के ना रहने के बाद से नौकरी छोड़ कर कानपुर में अपना बिज़नेस सेटल कर लिया और छोटे भतीजे अभिषेक के खुद के कालसेंटर्स हैं। बड़ी भतीजी अस्मिता ने इस साल इण्टरमीडिएट की परीक्षा दी है और छोटी भतीजी अनन्या ने हाईस्कूल की। अनन्या में कविता भी शुरू कर दी है और मुझे कंपटीशन दे रही है। तीसरा भतीजा अमोघ अभी बस शैतानी ही कर रहा है। दूसरी तसवीर में दोनो बेटे (भांजे)विपुल और विजित। विपुल ज़ी बिज़नेस में और विजित परास्नातक में लगे होने के साथ अपनी एनजीओ नवोन्मेष के प्रति समर्पित।

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तीसरी फोटो में अगल बगल दोनो दीदियाँ और बीच में छोटी भाभी। दोनो दीदियाँ मेरी माँ हैं और भाभी हम तीनो की चौथी बहन। चौथी तसवीर में दोनो बेटियाँ (भांजियाँ) नेहा (बड़ी दीदी की बेटी) और सौम्या (छोटी दीदी की बेटी)। नेहा ने पर्यावरण विज्ञान में परासनातक किया तभी हमने उसे गृहस्थन बना दिया अब शोध करना चाह रही है। सौम्या इस साल इंजीनियरिंग में प्रवेश लेगी। मेरा नाम पेपर में सबसे पहले इसके हाईस्कूल में मेरिट में आने पर आया, जब उसने आदर्श में अपनी मौसी का नाम लिया।

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पाँचवी फोटो में माँ और दोनो भाई। बड़े भईया पिछले साल नही रहे। छोटे भईया को मैं अपनी शक्ति मानती हूँ। और माँ तो है माँ.....!! छठी तसवीर में मेरे साथ पिंकू, अवधेश त्रिपाठी। इसका ज़िक्र नही करूँगी तो बेइमानी करूँगी। पिछले चार साल से मैं विजित और पिंकू साथ साथ रह रहे हैं। रिश्ता अलग अलग समय पर अलग अलग... कभी भाई, कभी पिता कभी मित्र....! फिलहाल वकील हैं और मुंसिफ बनना चाहता है। ११ मई को तिलक हो गई और २१ मई को उसकी शादी है। मेरे परिवार में अगला सदस्य उसकी पत्नी है।

मेरा परिचय, मेरा अस्तित्व, मान सम्मान इन्ही सोलह लोगों के कारण है। मेरे पिता जी और संदीप, वो दो शख्स जो अब इस दुनिया में नही हैं, उन्हे भी नही छोड़ा जा सकता।। मैं वो हूँ जो इन्होने बना दिया।

जन्म कानपुर में। ११ महीने की थी जब पोलियो ने गले के नीचे सारा शरीर अपनी चपेट में ले लिया। मैं अपने ऊपर बैठी मक्खी तक नही हटा सकती थी। अटैक के दो मिनट बाद से दवा चलने लगी। दोनो बड़ी बहनो ने अथक परिश्रम करके मुझे अपना काम करने के लायक बनाया और जीवन जीने का सपना दिया। बाबूजी ने अपने बेटों से ज्यादा सपने अपनी छोटी बेटी को ले कर गढ़े थे। हाईस्कूल में आते आते बाबूजी चले गये और सपने रह गये। दुख का मतलब समझ में आया और संवेदनाएं आईं। शिक्षा से नौकरी पाने तक का सफर बता कर कहानी में इमोशनल टच नही डालना चाहती। अंग्रेजी और हिंदी से परास्नातक और एसएससी से अनुवादक की परीक्षा पास की। संगीत से प्रभाकर भी किया। पहली पोस्टिंग घर से २००० किमी दूर आंध्र प्रदेश में हुई, भाषा और बोली से परे वहाँ भी प्रेम का नुसखा काम किया और वहाँ भी अपने मिल गये। फिलहाल पिछले ८ सालों से लखनऊ में। पहले ४ साल दीदी के साथ और अब अपने।

नौकरी के बाद साहित्य पढ़ने के शौक को धार दी, हिंदी से परास्नातक भी तभी किया। मदर टेरेसा के 365 qotes पर लिखी एक पुस्तक जो आंध्रा में पढ़ी उसने जिंदगी को अलग मायने दिया। और अनुभव फिल्म के गाने ने भी। "तुम बेसहारा हो तो किसी का सहारा बनो।" मुझे पता चल गया कि मुझे जिदगी में क्या करना है। और वो कर रही हूँ। ऐसा मानती हूँ कि कबिरा के ढाई अक्षर का सही अर्थ सिर्फ मैं जानती हूँ और सब बस ऐसे ही कहते हैं। जिंदगी ने बहुत से रिश्ते दिये। खुद को दुनिया का सबसे अमीर व्यक्ति मानती हूँ और सबसे खुश भी।

लिखना कब शुरू किया पता नही। असल में लिखना सीखने के पहले कविता जीवन में आ गई थी। कठोली गढ़ना भी।(माँ के अनुसार)। खेलते खेलते जो गुनगुनाती रहती हूँ, वो कविता है ये पता ना था। ६ साल की थी, जब दीदी की शादी तय थी और मैं अपने में मशगूल गुनगुना रही थी।

मत रो दीदी, मत रो, दीदी जा ससुराल

अम्मा भी छूटेंगी, बाबूजी छूटेंगे, छूटेगा सारा परिवार, दीदी जा ससुराल

सास मिलेंगी ससुर मिलेंगे,मिलेगा नया संसार, दीदी जा ससुराल।

आँखें उठाने पर देखा, सब मुझे गौर से देख रहे हैं और तब पता चला कि ये जो खेल खेल में हो रहा है, वो कुछ विशिष्ट है। और तब मुझे मात्रा ज्ञान भी नही था।  फिर ९ वर्ष की उम्र में

चिंता ना करो, चिंता ना करो, तुम दौड़ोगी, तुम भागोगी,

माँ के आसू भी सूखेंगे, तुम दौड़ोगी, तुम भागोगी

ने माँ की शाबाशी और आँसू दोनो बटोरे, तो जन्मोँ के चक्कर में विश्वास करने वाली मैं मानती हूँ कि कविता मुझे कुछ पूर्व जन्म के संस्कार से मिली और कुछ इस जन्म के। जिसमें मातृ पक्ष का विशेष योगदान है।नाना जी और माँ दोनो ही यदा कदा अपनी बात छंदो में कह लेते थे। कविता लिखी कैसे जाती है ये बिलकुल नही पता, जो स्वयं को लिखवा ले वही कविता है, ये बात तब भी मानती थी और अब भी।

तरही ग़जल़

Local Sahariya resident Ramhari (right) is employed in digging a pond as part of the National Rural Employment Guarantee Act (NREGA). This is a Government of India scheme that provides at least 100 days of employment for every rural household with an adult member willing to do unskilled manual work. In Gugvaara a pond is being dug as part of the scheme. This pond will provide irrigation supply for all those in the village. Application for the pond was made by the residents of Gugvaara and the scheme is being funded by the government. Labourers are paid Rs.63 (£0.73) per day. One local resident is paid the same wage to monitor the labour and a creche is provided for those workers with young children. 

Sahariya are an indiginous tribe who traditionally lived in and off the forest. Residing in the north Indian states of Rajasthan, Uttar Pradesh (UP) and parts of Madhya Pradesh (MP) including Shivpuri District, they have never been granted proper land-owning rights. As a result they have endured a fragile existence, working as agricultural day-wage labourers they have been unable to plan for the future or save for hard times. The community suffer from malnutrition, low levels of literacy and under-representation in the administration and government. The Indian Forest Ministry accuse the Sahariya of trespassing government land and many Sahariya have been forced to migrate in search of jobs. Recent migrants to Shivpuri District in MP, including the Sikh and higher caste Gujjar community, have been more adept at claiming land rights, often at the expense of the Sahariya. Since the mid-1990s however the Sahariya have been granted the lease of land from the government allowing them to sow crops including wheat, chick-peas and soya beans both for the market and their own needs. Over this period, the Sahariya have become more organised and confident at confronting local prejudice and official indifference to their plight. Drought and poor harvests between 2000 and 2004 set the community back but since then they have regrouped and, with greater confidence, challenged those that conspire to keep them in poverty. With the support of Action Aid partner CID (Campaign for Integrated Development), based in Gwalior, the Sahariya have lobbied government for land-rights, proper education provision and ration entitlements. The community have united and mobilised, forming a group called Sajag ("Sahariya Jan Gathbandhan" or "Sahariya People's Awareness Alliance") who meet regularly to discuss issues of common concern. 

Photo: Tom Pietrasik
Gugvaara, Madhya Pradesh. India
March 14th 2007

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गर्मियों को याद करो तो जो बात सबसे पहले याद आती है, वो है ४ साल की उम्र में कम से कम कपड़ो में बैजंती के पत्तों से ढके शरीर का जेठ की चटक दोपहरी में लिटा दिये जाना ( पोलियो के इलाज के लिये )। उसे काटने का तरीका था, वो सपना जीना, जो दीदी बताती रहतीं, बस थोड़ी देर और बस... फिर तुम भी ना माधुरी की तरह, मुन्नी की तरह दौड़ने लगोगी... जैसे बहुत सा कुछ.....मतले के बाद वाला शेर उसी पर लिखा है।


दोस्त सी आवाज़ देती, गर्मियों की वो दुपहरी,
और रक़ीबों सी सताती, गर्मियों की वो दुपहरी।

ओढ़ बैजंती के पत्ते, छूने थे जिसको शिखर उस,
ज़िद से करती होड़ सी थी, गर्मियों की वो दुपहरी।

गुड़ छिपा आले में, मटके में मलाई की दही है,
राज़ नानी के बताती, गर्मियों की वो दुपहरी।

धप की आवाज़ों पे चौंके कान ले कर दौड़ती फिर,
फ्रॉक में अमिया छिपाती, गर्मियों की वो दुपहरी।

शादियाँ गुड़िया की, गुट्टे और कड़क्को खेलने पर,
त्यौरियाँ माँ की चढ़ाती, गर्मियों की वो दुपहरी।

सर्दियों की रात भर माँगी थी हमने जो दुआएं,
उनको तासीरें दिलाती, गर्मियों की वो दुपहरी

आह में भी लू थी, मन में भी बवंडर धूल जैसे,
इश्क़ में दुगुनी तपी थी, गर्मियों की वो दुपहरी

शाम को मिलने का वादा, करवटों में जोहती थी,
रात से ज्यादा सताती, गर्मियों की वो दुपहरी

क्यों ना बैशाखी हवाओं पर चले आते हो तुम भी,
क्‍यों ना तुमको भी सताती, गर्मियों की वो दुपहरी

शोर करती हर तरफ फिरती तुम्हारी याद जानाँ
''और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दोपहरी''

धप की आवाज़ों पे चौंके कान ले कर दौड़ती फिर, फ्रॉक में अमिया छिपाती, गर्मियों की वो दुपहरी। ये शेर बहुत ही सुंदर बन पड़ा है उस बालमन की सारी बातें शेर में उभर कर आ गईं हैं । और जहां तक प्रेम के शेरों की बात है तो कोमलतम भावनाओं को पूरी शिद्दत के साथ अभिव्‍यक्ति देने में कंचन को वैसे भी कमाल की दक्षता हासिल है। प्रेम में रचे पगे शेर क्‍यों न बैशाखी हवाओं, शोर करती हर तरफ, जैसे शेरों में कंचन ने उसी कोमल सुई से मोतियों को पिरोया है । और ये ग़ज़ल उस कंचन ने लिखी है जो बात बात पर मुझसे कहती है कि गुरूजी ग़ज़ल लिखना मेरे बस का नहीं है । अब आप ही तय करें कि ग़ज़ल लिखना कंचन के बस का है या नहीं ।

तो आनंद लीजिये इस ग़ज़ल का और देते रहिये दाद, मिलते हैं अगले अंक में एक और शायर के साथ ।

बुधवार, 18 मई 2011

शाम आँगन में खड़ी कब से, मगर छत पर अभी तक पालथी मारे है बैठी गर्मियों की ये दुपहरी, धीरे धीरे आगे बढ़ते हैं हम और आज सुनते हैं लेफ्टिनेंट कर्नल गौतम राजरिशी से तरही ग़ज़ल ।

इस बार तो गर्मियों की दुपहरी वास्‍तव में साहित्‍य के रस से सराबोर हो रही है । हमारे यहां पर कल 46 से 47 तापमान हो गया था । और उसके बीच में चलता हुआ ये तरही मुशायरा, ऐसा लग रहा है जैसे किसी नीम के पेड़ की घनेरी छांव में आकर बैठ गये हों । इस बार की ग़ज़लें इतनी अच्‍छी और सुंदर आईं हैं कि बस ऐसा लगता है कि सुनते ही रहो । अभी तो ऐसा लग नहीं रहा है कि प्रतिदिन वाला कार्यक्रम करना होगा । फिर भी देखते हैं कि क्‍या हो सकता है । अगली बार के तरही में एक परिवर्तन ये होगा कि ठीक पहली तरही ग़ज़ल के साथ ही समस्‍त रचनाकारों की सूची भी लगा दी जायेगी जिनकी ग़जल़ें आने वाली हैं ( या जिनकी अंतिम तिथि तक ग़ज़लें मिल गईं हैं ) और उस सूची में कोई परिवर्तन नहीं किया जायेगा । 

ग्रीष्‍म तरही मुशायरा

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और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी

खैर आज तो हम सुनने जा रहे हैं अब बाकायदा स्‍थापित ग़ज़लकार, लेफ्टिनेंट कर्नल गौतम राजरिशी से तरही ग़ज़ल ।

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लेफ्टिनेंट कर्नल गौतम राजरिशी

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जन्म विख्यात कवि-कहानीकार राजकमल और साहित्य-अकादमी विजेता मायानन्द मिश्र के गाँव जैसे शहर सहरसा में...सन पचहत्तर के मार्च महीने की दसवीं तारीख को| दो बेटियों के बाद दादी और चाचियों के ताने से उकतायी माँ गई थी मांगने एक बेटे को विख्यात उग्रतारा के द्वारे| राजकमल को पढ़ने और जानने वाले जानते होंगे की उनका निवास-स्थान महिषी की विख्यात उग्रतारा देवी के मंदिर के ठीक बगल में है| ...तो सबसे ये कहता फिरता हूँ कि कविता का आशीर्वाद साक्षात राजकमल से लिए पैदा हुआ था मैं तो...इतना जरूर है कि उनका तेवर मेरी रचनाएँ अभी तक ढूंढ रही हैं खुद में| बचपन बारहवी कक्षा तक गाँव में बीता|

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बड़ा होकर बहुत सारा कुछ इकट्ठा बनाना चाहता था जैसे कि शेरलाक होम्स, मोहम्मद रफी, फैन्टम, सुपरमैन, यूरी गैगरीन, पेले, गावस्कर, मिथुन चक्रवर्ती, सिकंदर{वो मुकद्दर का सिकंदर वाला}, सरफिरा वैज्ञानिक,  सुभाष चंद्र बोस, भूत{सचमुच}....ऐसे ही बहुत सारा कुछ एक साथ बन जाना चाहता था| इस फेहरिश्त में शायर कहीं भी शामिल न था उस वक्त| माँ मुझे मेरे मामाओं की तरह इंजीनियर बनते देखना चाहती थी और पापा खुद की तरह डाक्टर| इसी बीच दूरदर्शन पर गोविंद निहलानी की "विजेता" देख ली| नौवीं कक्षा में था| मुझे नहीं पता, किसी एक फिल्म ने किसी एक शख्स की जिंदगी बदल दी हो| "विजेता" ने मुझे वो बना दिया जो हूँ मैं| उस फिल्म के बाद से एन डी ए में शामिल होने का ऐसा जुनून सवार हुआ कि बस....| माँ-पापा को दिखाने की खातिर आई आई टी भी निकाला, लेकिन उसे तजकर एनडीए जाना चुना|  चार साल के प्रशिक्षण के पश्चात सेना के इन्फैन्ट्री शाखा में| तेरह साल के सैन्य-काल में नौ साल तो कश्मीर में बीत गए| एक साल के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ की शांति-सेना के साथ कांगो में ...फिलहाल कश्मीर में कहीं पदस्थापित|

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गौतम और तनया ( लाड़ली पीहू) गौतम, संजीता और पीहू

फ़िराक गोरखपुरी के इस शेर को अपना ब्रह्म-वाक्य मानता हूँ "पाल ले इक रोग नादां ज़िंदगी के वास्ते, सिर्फ सेहत के सहारे ज़िंदगी कटती नहीं"...कई रोग पाल रखे हैं...पढ़ना, किताबें खरीदना, कामिक्स इकट्ठे करना{मेरे पास कुछ दुर्लभ कामिक्स हैं जिन्हें बोली लगाऊँ तो हजारों में बिके}, मेरा रायल एनफील्ड, कंप्यूटर पे गेमिंग, दौड़ना...फिर लिखना तो है ही| छुटपन में कादंबिनी की समस्या-पूर्ति में दो बार पुरुस्कार जीत कर खुद को बड़का कवि समझने लगा| भ्रम टूटा सालों बाद जब मुझे मेरे उस्ताद पंकज सुबीर से मुलाक़ात हुई| फिल वक्त मुल्क की तमाम पत्रिकाओं में चालीस से ऊपर ग़ज़ल छपने की खुशी पचा नहीं पा रहा हूँ| बदहजमी का पूरा अंदेशा है...ऊपर से तुक्का ये कि तीन कहानियाँ भी छप गई हैं बड़ी पत्रिकाओं में| समय से पहले अपने उस्ताद से कह दिया है कि पर्ची लिख दें अच्छी सी दवाई की, वर्ना ये खुशी वाली बदहजमी मेरे लेखन की ऐसी की तैसी करने वाली है| उस्ताद हैं कि पर्ची लिखने के बजाय और मुझे चने के झाड़ पे चढ़ाते रहते हैं|

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सारे गुरुकुल की लाड़ली पीहू ( एक मुकम्‍मल ग़ज़ल )

तरही ग़ज़ल

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सुबह से ही धौंस देती गर्मियों की ये दुपहरी

ढ़ीठ है कमबख़्त कितनी गर्मियों की ये दुपहरी

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धप से आ टपकी मसहरी पर फुदकती खिड़कियों से

बिस्तरे तकिये जलाती गर्मियों की ये दुपहरी

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बादलों का ताकते हैं रास्ते खामोश सूरज

और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी

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ताश के पत्ते खुले दालान पर, अब 'छुट्टियों' संग

खेलती है तीन पत्ती गर्मियों की ये दुपहरी

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लीचियों के रस में डूबी आम के छिलके बिखेरे

बेल के शरबत सी महकी गर्मियों की ये दुपहरी

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शाम आँगन में खड़ी कब से, मगर छत पर अभी तक

पालथी मारे है बैठी गर्मियों की ये दुपहरी

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चाँद के माथे से टपकेगा पसीना रात भर अब

दे गई है ऐसी धमकी गर्मियों की ये दुपहरी

मतला और उस पर मतले का मिसरा सानी जिस प्रकार से रवानगी के साथ कहा गया है वो आनंद उत्‍पन्‍न कर रहा है । मतले का मिसरा सानी एक उदाहरण है कि बड़े रदीफों को पूरी रवानगी के साथ यदि मिसरे में बांधना हो तो ऐसे बांधना होगा । इसको तहत में यदि पढ़ों तो अहा रस ही रस पैदा कर दे ये मिसरा । और एक शेर है शाम आंगन में खड़ी है, ये भी सुंदर शेर है इसमें जिस प्रकार शाम और दोपहर का रिश्‍ता दर्शाया है वो ग़ज़ब है । और आखिरी शेर तो है ही कमाल का । हर शायर अपनी लेखनी का प्रभामंडल लेकर चलता है और यदि उसके शेरों में उसका प्रभामंडल नहीं हो तो आनंद ही नहीं आता । गौतम की ये गज़ल बता रही है कि क्‍यों पिछले दो सालों में देश की हर बड़ी पत्रिका ने इस शायर की 40 से अधिक ग़ज़लें छापी हैं ।

तो लेते रहिये आनंद तरही का और देते रहिये दाद । मिलते हैं अगले अंक में एक और शायर से ।

सोमवार, 16 मई 2011

शाम होते होते थक कर सो गई पहलू में मेरे, धूप की दिन भर सताई गर्मियों की वो दुपहरी. आज तरही में सुनिये सात समंदर पार से अपनी माटी की महक लिये आई राजीव भरोल राज की ग़ज़ल

तरही को लेकर एक बात तो अब ये लग ही रही हे कि हो सकता है एक दिन के अंतर के इस क्रम  को अब रोज का ही करना पड़े । इसलिये क्‍योंकि अभी भी कई सारी ग़ज़लें प्रतीक्षा में हैं । और चूंकि अब गर्मियों के दिन कम ही शेष हैं इसलिये बरसात के पहले इस तरही को समापन भी करना है । एक दिन में एक ही शायर को लेने का जो तरीका है उससे कम से कम ये होता है कि उस शायर को पूरा अटेंशन मिलता है । खैर तो चलिये आज सुनते हैं सात समंदर पार से अपनी माटी की सौंधी महक लिये आई राजीव भरोल राज की ये ग़ज़ल सुनते हैं ।

ग्रीष्‍म तरही मुशायरा

India Weather

और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी

राजीव भरोल 'राज़'

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परिचय:

अपना परिचय देने के लिए कुछ अधिक है ही नहीं. लिखने लगो तो (अमृता प्रीतम के शब्दों में..) एक रसीदी टिकट के पीछे सारा आ जाये ! मैं हिमाचल प्रदेश में पैदा हुआ और वहीँ पला बढ़ा. डैडी सरकारी कर्मचारी थे सो स्थानान्तरण होता रहता था. अत: कक्षा ५ तक स्कूल बदलते रहे और दोस्त भी. कक्षा ६ से मैं बोर्डिंग स्कूल (सैनिक स्कूल) चला गया. वहाँ पूर्व-निर्धारित दिनचर्या हुआ करती थी. किस समय खेलना है, पढ़ना है, सोना है खाना है, सब तय होता था. इसलिए गर्मियों की दोपहरों की बहुत अधिक यादें नहीं हैं. छुट्टियाँ होती थीं लेकिन घर आने पर कोई दोस्त नहीं होते थे जिन के साथ बिताए दिनों की कोई याद हो...गर्मियों कि जो यादें हैं वो बस सैनिक स्कूल में जाने से पहले की ही हैं जब कुछ समय मैं अपने गाँव में रहा.

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आजकल अपने परिवार, जिसमें मेरी पत्नी, २ बेटियां और १ बेटा हैं, के साथ सैन फ्रांसिस्को के पास फ्रीमौंट नाम के शह्र में रहता हूँ. ओरेकल नाम की कंपनी में कार्यरत हूँ. पेशे से मैं एक इंजिनियर हूँ. इलेक्ट्रोनिक्स इंजिनियरिंग की डिग्री ली लेकिन अपनी इच्छा से एम्बेडिड सॉफ्टवेर का क्षेत्र चुना क्योंकी उसमें इलेक्ट्रोनिक्स और सॉफ्टवेर दोनों क्षेत्रों से जुड़ाव रहता है और मेरी दोनों में रूचि है.

गज़ल से लगाव कई सालों से है. स्कूल/कॉलेज के दिनों से ही गज़ल सुनना और पढ़ना बहुत अच्छा लगता था. दीवानगी इतनी हुआ करती थी उधार ले ले कर भी गज़ल के कैसेट खरीदे हैं. आज भी उन कैसेट्स का जखीरा मेरे ऑफिस में रखा हुआ है, हर कैसेट पर खरीदे जाने की जगह और तारीख लिखी हुई है. उन्हीं दिनों कहीं से उर्दू में लिखी गज़लों की किताबें मिलीं, उन्हें पढ़ने के लिए अपने एक दोस्त से उर्दू सीखी. हाँ खुद गज़ल कहने की कोशिश हाल ही में की है. श्री पंकज सुबीर जी के मार्गदर्शन में गज़ल कहना सीख रहा हूँ.  शाष्त्रीय संगीत और ज्योतिष से भी बहुत लगाव है. चार वर्ष तक मैंने शाष्त्रीय संगीत सीखा. बाद में नौकरी के लिए बाहर निकला तो रियाज़ और गाना छूट गया. लेकिन कभी कहीं शाष्त्रीय संगीत की महफ़िल में जाने का मौका मिले तो नहीं चूकता. मेरा मानना है कि हिन्दुस्तानी शाष्त्रीय संगीत जैसा संगीत कोई नहीं. १९९४ से ज्योतिष से जुड़ा हूँ लेकिन ज्योतिष का गंभीरता से अध्ययन सन २००२ के बाद ही शुरू किया. अपनी वेबसाइट है www.astroquery.com जिस पर जब भी समय मिले लोगों के प्रश्नों के उत्तर देने की कोशिश करता हूँ. बस यूँही जीवन की गाड़ी चल रही है.

रचना प्रसंग:
अनुभूतियों को अभिव्यक्त कर पाना ही रचना है. आस पास हो रही घटनाओं में से ही कोई मिसरा निकल आता है, उसे गज़ल में ढालने की कोशिश करता हूँ. इससे अधिक कुछ नहीं.

पता:
41258 Roberts Ave, Fremont, CA, 94538, USA 510-565-8260, rajeev.bharol@gmail.com
ब्लॉग http://thoughs-rajeevbharol.blogspot.com, http://astrology-rajeevbharol.blogspot.com
http://www.astroquery.com

गज़ल:

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आम की खुशबू में लिपटी गर्मियों की वो दुपहरी,

गुड़, शहद,  मिसरी से मीठी, गर्मियों की वो दुपहरी.

याद हैं वो धूप में तपती हुई सुनसान गलियां.

और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी.

गाँव के बरगद की ठंडी छाँव की गोदी में मुझको,

थपकियाँ दे कर सुलाती गर्मियों की वो दुपहरी,

चिलचिलाती धूप थी और सायबाँ कोई नहीं था,

पूछिए मत कैसे गुज़री गर्मियों की वो दुपहरी.

वो हवा से उड़ रहे पत्तों की सरगोशी थी या फिर,

नींद में कुछ कह रही थी गर्मियों की वो दुपहरी?

मैंने इतना ही कहा, मुझको नहीं भाता ये मौसम,

बस इसी पे रूठ बैठी गर्मियों की वो दुपहरी.

शाम होते होते थक कर सो गई पहलू में मेरे,

धूप की दिन भर सताई गर्मियों की वो दुपहरी.

आज की ग़ज़ल ने तो भ्रमित कर दिया है कि कौन सा शेर लूं और कौन सा छोड़ूं । फिर भी मुझे लगता है , गाँव के बरगद की ठंडी छाँव की गोदी में मुझको, थपकियाँ दे कर सुलाती गर्मियों की वो दुपहरी, ये शेर कुछ ख़ास ही बन गया है । और  चिलचिलाती धूप वाला शेर भी खूब कहा गया है । राजीव के बारे में मुझे सबसे बड़ी हैरत तो ये होती है कि केवल एक साल में इतनी परिपक्‍वता और तिस पर ये कि कहन से लेकर बहर तक कहीं कोई लचक नहीं । खूब ।

तो आनंद लीजिये ग़ज़ल का और देते रहिये दाद । मिलते हैं अगले अंक में ।

शनिवार, 14 मई 2011

नौ बजे हैं और अभी से, सख्‍़त गर्मी पड़ रही है आ गई क्‍या सुब्‍ह से ही, गर्मियों की ये दुपहरी, चलिये आज सुनते हैं डॉ. आज़म जी से उनकी तरही ग़जल़ ।

हौले हौले तरही आगे बढ़ रहा है । और आज जब ये पोस्‍ट लगा रहा हूं तब साथ में विधानसभा चुनावों के नतीजों पर भी नज़र रखा हूं । अपनी राजनैतिक पसंद नापसंद को कभी जाहिर करना मैंने ठीक नहीं समझा, इसलिये ये तो नहीं कह सकता  कि नतीजे आने पर मुझे कैसा लगा रहा है किन्‍तु हां ये अवश्‍य है कि मैं भारत के मतदाता के समझदार होते जाने पर प्रसन्‍न हूं । प्रसन्‍न हूं कि वो अब कुछ सोच कर वोट देने लगा है । खैर तो आज हम तरही के क्रम को आगे बढ़ाते हैं । आज का अंक देश की सांप्रदायिक सौहार्द्र के नाम । तीन कारणों से, पहला इसलिये कि सबसे पहले तो आप सब को आभार नफीसा  को पसंद करने के लिये और आभार विशेष कर  इस पत्र के लिये जो मेरे लिये जीवन का सबसे महत्‍वपूर्ण पत्र हो गया है 'लेकिन कभी कभी ब्‍लाग पर कुछ लोगों की संकीर्ण मानसिकता जब मन में निराशा भर देती  है तो तुम जैसे लोग ही आशा का सूरज बन कर सामने आते हैं  ख़ुदा से दुआ है कि इस संसार को बहुत सारे पंकज सुबीर अता करे आमीन ख़ुदा हाफ़िज़' । सांप्रदायिक सौहार्द्र की  दूसरी बात आगे आज़म जी के साथ घटे ए‍क घटनाक्रम में भी आयेगी । तीसरा  अभी एक और बात कल हमारे शहर के पास स्थित एक बड़े मदरसे ( ये दारुल उलूम मदरसा अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर का है ) में एक स्‍वास्‍थ्‍य केन्‍द्र तथा गौशाला का शुभारंभ किया गया । और बड़ी बात ये है कि स्‍वास्‍थ्‍य केन्‍द्र का शुभारंभ करने के लिये मदरसा के संचालकों ने किसी और को नहीं बल्कि कांची कामकोटी पीठ के शंकराचार्य श्री जयेन्‍द्र सरस्‍वती जी को बुलाया । समाचार यहां देखें । इन घटनाओं को बढ़ाया जाये ताकि देश मज़बूत हो सकते ।

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ग्रीष्‍म तरही मुशायरा

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और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी

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डॉ. आज़म

मेरे बहुत अच्‍छे मित्र और उतने ही अच्‍छे शायर हैं । अलीगढ़ मुस्‍लिम विवि से आपने यूनानी पद्धति से चिकित्‍सा में डिग्री हासिल की है और अभी सीहोर के शासकीय अस्‍पताल में पदस्‍थ हैं । खुले विचारों के धनी डॉ आजम बहुत डूब कर ग़ज़लें लिखतें है और इनकी ग़ज़लें उर्दू की सभी प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में छपती रहती हैं अभी देश की सबसे बड़ी उर्दू पत्रिका शायर ने उनके परिचय के साथ काफी ग़ज़लें छापी थीं । अरूज़ के जानकार हैं और जल्‍द ही शिवना प्रकाशन से इनकी एक विस्‍तृत पुस्‍तक ग़ज़ल के व्‍याकरण पर आ रही है ( लिमिटेड एडीशन) ।  खूब मुशायरों में शिरकत करते हैं । एक और विशेषता ये है कि ये हिंदी के भी जबरदस्‍त हिमायती हैं । हिंदी में भी ग़ज़लें और कविताएं खूब लिखते हैं । मंच के बेहतरीन संचालक हैं । ये जब भी संचालन के दौरान मुझे ग़ज़ल पढ़ने आमंत्रित करते हैं तो कहते हैं कि अब मैं एक जेनुइन साहित्‍यकार  को बुला रहा हूं । इन दिनों भोपाल में मुशायरों में धूम मचाये हुए हैं । पूर्व में स्‍थानीय चैनल पर समाचार भी पढ़ते रहे हैं । कई सारे पुरस्‍कार मिल चुके हैं अभी पिछले साल का शिवना पुरस्‍कार इनको दिया गया था । ये जो फोटो ऊपर लगा है ये आज़म जी ने अपने फेसबुक की प्रोफाइल  पर लगाया हुआ है और विशेष कर मुझसे ये कह कर लगवाया कि इसे लगा दो इसमें सर पर तिलक होने से अपने देश का पूरा प्रतिनिधित्‍व हो रहा है । जिस पर उनको ये मैसेज मिला उसका आज़म जी ने क्‍या उत्‍तर दिया वो भी पढ़ें । ये जो यू.डब्‍ल्‍यू.एम. ये भारत से संबंधित नहीं है, इस बाहर की संस्‍था को आज़म जी का जवाब हमारे देश की सांप्रदायिक एकता का बड़ा उदाहरण है ।

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यू.डब्‍ल्‍यू.एम. : मोहम्मद के माथे पर तिलक नहीं होता ... लानत है ... या तो नाम बदलो या फोटो ...

मोहम्मद आज़म: यह हिन्दुस्तान की गंगो जमनी तहजीब को ज़ाहिर कर रहा है, मज़हब नहीं । मज़हब की तंगनज़री पर हज़ार बार लानत ....

यू.डब्‍ल्‍यू.एम. : किसी हिन्दू को नमाज़ पढ़ते देखा है ...?

मोहम्मद आज़म: मैंने नमाज़ और रोज़े रखते हुए भी देखा है इन आल सो कॉल्‍ड इस्लामिक एटायर एंड विथ फुल फैथ । मेरी ये तस्वीर एक हिंदी मंच के सम्मान की है ।( पिछले वर्ष शिवना प्रकाशन का शिवना पुरस्‍कार ) मैंने खुसूसी तौर से नहीं खिंचवायी है । ये एजाज़ बशीर बद्र और बेकल उत्साही के हाथों मुझे दिया गया । बेशतर शाइर  और श्रोता  मुस्लिम थे । एक लाल टीके से इतनी तकलीफ समझ से बाहर है ।  हम रिचुअल्स और रेलिजन को एक कब तक समझते रहेंगे । बिहार में तो मुस्लिम औरतें सिन्दूर लगाती हैं । तो क्या वोह मज़हब से खारिज हो गयीं । मज़हब का दायरा  बहुत वाइड  है । सब कुछ नीयत पर है । 'बुत ' और खुदा पर पुराने शाइरों ने  ऐसे शेर कहें है के आज का शाइर  कहदे तो क़त्ल कर देने का फतवा जारी हो जाये । क्यूंकि आज तंग नज़री और इन्तहा पसंदी बढ़ गयी है ।

( आज़म जी के इस उत्‍तर के बाद यू.डब्‍ल्‍यू.एम. ने अभी तक कोई जवाब नहीं दिया )

तरही ग़ज़ल

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क़हर ढाती, चिलचिलाती, गर्मियों की ये दुपहरी
जानदारों पर है भारी गर्मियों की ये दुपहरी

पास कूलर है न ए.सी., गर्मियों की ये दुपहरी
ऐसी तैसी कर दे सबकी गर्मियों की ये दुपहरी

बन गया घर एक भट्टी, तप रही है सारी धरती
इस तरह है आग उगलती, गर्मियों की ये दुपहरी

कितने बदकि़स्‍मत झुलस कर मर गये इसकी तपिश से
इक क़यामत के है जैसी , गर्मियों की ये दुपहरी
 

कर दिया बाज़ार ख़ाली, हो गईं सुनसान सड़कें 
आके कर्फ्यू सा लगाती, गर्मियों की ये दुपहरी 

कोक पी लें, आम खा लें, लस्‍सी पी लें , ककड़ी खा लें
है कहां फिर भी गुज़रती, गर्मियों की ये दुपहरी 

लू की लपटें, धूप तीखी, और कभी आंधी बवंडर
साथ लाए संगी साथी, गर्मियों की ये दुपहरी 

प्‍यास की शिद्दत है ऐसी, भूक मर जाती है जिससे
रूह को भी कर दे प्‍यासी, गर्मियों की ये दुपहरी
 

नौ बजे हैं और अभी से, सख्‍़त गर्मी पड़ रही है
आ गई क्‍या सुब्‍ह से ही, गर्मियों की ये दुपहरी 

ताल पोखर, खेत जंगल, पेड़ पौधे सब सुखा दे
हाय ऐसी, उफ है ऐसी, गर्मियों की ये दुपहरी
  

बच्‍चे बूढ़े, मर्द औरत, सब के लब पर ये सदा है
जान लेगी क्‍या मई की , गर्मियों की ये दुपहरी 

अच्‍छी बारिश के लिये हैं, धूप और गर्मी ज़रूरी
फ़र्ज़ आज़म है निभाती , गर्मियों की ये दुपहरी     

जान लेगी क्‍या मई की गर्मियों की ये दुपहरी, इस मिसरे में रदीफ पूरी रवानगी के साथ मिसरे में गुथ गया है । और आ गई क्‍या सुब्‍ह से ही गर्मियों की ये दुपहरी इसमें तो आज़म जी ने कमाल कर दिया है । इक क़यामत के है जैसी गर्मियों की ये दुपहरी । तो आनंद लीजिये आज़म जी की इस शानदार ग़ज़ल का और दाद देते रहिये ।

फिर एक अनुरोध जिन लोगों ने परिचय आदि नहीं भेजा है वे भेज दें जिन के परिचय नहीं मिलेंगे उन सभी की ग़ज़लें एक साथ दो या तीन रचनाकारों  को लेकर लगाई जायेगी ।

बुधवार, 11 मई 2011

गंध महुवे की वो मादक, वो टिकोरे आमवाले याद फ़िर उनकी दिलाती गर्मियों की ये दुपहरी, आज ग्रीष्‍म तरही मुशायरे में सुनिये रविकांत की एक बहुत सुंदर ग़ज़ल ।

रविकांत की कविताओं में ग़ज़लों में एक अलग कुछ होता है जो उन रचनाओं को भीड़ से अलग करता है । हालांकि मुझे आज भी लगता है कि रविकांत गीतों में जितना सहज होकर उभरता है उतना ग़ज़लों में नहीं । दरअसल में हर किसी की एक अपनी ही विधा होती है । एक ऐसी विधा जिसमें कि वो अपने सर्वश्रेष्‍ठ रूप में दिखाई देता है । इसका मतलब ये नहीं है कि उस रचनाकार की दूसरी विधाएं कमजोर होती हैं । खैर आज तो रविकांत की बारी है । रविकांत और गौतम इन दोनों में एक समानता है कि दोनों ने ही प्रेम विवाह किया है, और मजे की बात ये है कि दोनों ने ही परिचय के साथ अपनी और अपनी जीवन संगिनी की युगल फोटो नहीं भेजी है, बल्कि अलग अलग भेजी हैं । होता है होता है । आइये रविकांत का परिचय जानें । हां एक विशेष बात, हो सकता है कि तरही का क्रम हर रोज़ का करना पड़े, क्‍योंकि ग़ज़लें काफी सारी हैं और यदि एक दिन के अंतर से लगाई गईं तो शायद बरसात ही आ जाये ।

ग्रीष्‍म तरही मुशायरा

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और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी

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रविकांत पांडेय

रचना प्रक्रिया: जीवन स्वयं तिक्त-मधुर प्रसंगों के सहारे मुझसे काव्य-रचना करवा लेता है। सो कभी आनंद के अतिरेक से भावपुष्प मिलकर काव्यहार बन जाते हैं तो कभी मेरे कवि को कविता को जन्म देने के लिये प्रसव-पीड़ा की वेदना से गुजरना पड़ता है-“जब-जब अश्रु नयन में आये, मैंने तब-तब गीत लिखा”।

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रविकांत और गुंजन  

परिचय: बिहार राज्य के सीवान जिले में जन्म। पश्चात, कालक्रम ने सीवान से पटना, पटना से शिमला और शिमला से कानपुर पहुंचाया जहां कैंसर पर शोधरत हूं। काव्य-प्रेम विरासत में मिला और भारतीय सभ्यता-संसकृति की जड़ों को समझने के क्रम में यह प्रेम और भी पुष्पित-पल्लवित होता गया। कारण कि अधिकांश प्राचीन साहित्य- वेद, पुराण, उपनिषद, योग, दर्शन, तंत्र आदि- काव्य की भाषा में ही कहे गये हैं। इसी प्रक्रिया में एक दिन मेरे भीतर सोया कवि भी जागृत हो गया।

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लाड़ली बिटिया

संपर्क- e-mail: laconicravi@gmail.com मोबाइल नंबर: 09889245656

ब्‍लाग http://jivanamrit.blogspot.com/

तरही गज़ल

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पथ पे अंगारे बिछाती गर्मियों की ये दुपहरी

राहगीरों से है रूठी गर्मियों की ये दुपहरी

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तप रही धरती तवे सी, ग्रीष्म का चूल्हा जला है

और करती है रसोई गर्मियों की ये दुपहरी

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छुप-छुपाकरके बड़ों से, ताल, पोखर के किनारे

रोज बच्चों को बुलाती गर्मियों की ये दुपहरी

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आम, पीपल, इमलियों पर भूत-प्रेतों का बसेरा

ऐसे किस्से लेके आती गर्मियों की ये दुपहरी

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इक घड़े में थोड़ा पानी और प्यासा कोई कौआ

कह रही वो ही कहानी गर्मियों की ये दुपहरी

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गंध महुवे की वो मादक, वो टिकोरे आमवाले

याद फ़िर उनकी दिलाती गर्मियों की ये दुपहरी

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शायरी को चाहिये क्या? सामने तू ज़ुल्फ खोले

और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी

तप रही धरती तवे से ग्रीष्‍म का चूल्‍हा जला है और करती है रसोई गर्मियों की ये दुपहरी, ये शेर बिम्‍ब के हिसाब से बहुत ही सुंदर बन पड़ा है । तीन विभिन्‍न प्रतिकों को बहुत ही सुंदर तरीके से पिरोया गया है । गंध महुवे की वो मादक, वो टिकोरे आम वाले, ये तो खैर सुंदर है ही । एक सबसे अच्‍छी बात ये है कि गर्मियों की ये दुपहरी लेकर भी सुंदरता के साथ अतीत की बात की है । बहुत सुंदर ग़ज़ल ।

तो चलिये आनंद लीजिये इस ग़ज़ल को । और हां यदि परिचय और चित्र भेजा नहीं है तो भेज दें ।

सोमवार, 9 मई 2011

ढोर बर्तन और सब घर, खेत, मन टुकड़े हुए थे और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी आइये आज सुनते हैं प्रकाश पाखी की ये संवेदना से भरी हुई ग़ज़ल ।

ये ग़ज़ल जब पढ़ी तो एकबारगी मन भीग सा गया । संवेदना से भरी हुई ग़ज़ल । बहुत ही मार्मिक चित्रण है उस पूरे परिदृश्‍य का जिसे बंटवारा कहते हैं । ये बंटवारा जब भी होता है तो जाने कितने ज़ख्‍़म छोड़ जाता है । फिर वो 1947 का बंटवारा हो या कि एक घर का । हर बंटवारे में एक मां का कलेजा बंट जाता है, हर बंटवारे में एक पिता के बाज़ू बंट जाते हैं । और पीछे रह जाती है एक चुप्‍पी एक उदासी । उस उदासी की स्‍वरों को बहुत ही अच्‍छे तरीके से अपनी गज़ल़ में पिरो दिया है प्रकाश पाखी ने । तो आइये सुनते हैं ये ग़ज़ल ।

ग्रीष्‍म तरही मुशायरा

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और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी

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प्रकाश पाखी

मूलत: थार के रेगिस्तान के बाड़मेर जिले का रहने वाला हूँ...लिखने से ज्यादा पढने का शौक है...रचनात्मक लेखन के नाम पर कुछ कविताएँ ही लिखी है जो आज तक कही प्रकाशित नहीं हुई है..बरसो पहले शैलेश लोढ़ा के साथ काव्य पाठ के लिए आकश वाणी में अपनी प्रस्तुति दी थी...उसके बाद शैलेश लोढ़ा ने कविता करना छोड़ दिया?? उसके बाद मेरी रचनात्मक सृजनात्मकता ध्रुवीय भालू की तरह से शीत निद्रा में चली गयी ....जो आपके अथक प्रयासों से अब जाकर जगी है...इस तरह से सही मायने में मौलिक ,अप्रकाशित और अप्रसारित रहा हूँ...

सरकारी सेवाओं में नौकरी के प्रयासों में सात नौकरियां करने के बाद २००१ से राजस्थान राज्य सेवा में राज्य परिवहन सेवा में चयनित हुआ हूँ.तब से इसी नौकरी में हूँ अभी आदिवासी बहुल डूंगरपुर जिले में पदस्थापित हूँ.कुछ व्यस्तता और कुछ नेट की सुविधा नहीं होने से ब्लोगजगत में केवल आपके ब्लॉग से जुड़ा हूँ.अपना ब्लॉग्गिंग का काम ठप पड़ा है.

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प्रकाश पाखी अपनी धर्मपत्नी नितीश के साथ । उनका छोटा बेटा ध्रुव । बड़ा बेटा देवेय और ध्रुव ।

हमारा एक संयुक्त परिवार था..और पिछली गर्मियों में हम भाइयों के बटवारे माताजी पिताजी के सामने हुए थे उसकी चुभन ही तरही में लिख पाया हूँ.मैंने काफी प्रयास किया कि बचपन और गर्मियों से जुडी यादों को तरही का विषय बनाऊ पर सफल नहीं हुआ और कुछ उससे हट कर भावों में आ ही नहीं पाया था. अंतिम तारीख से पहले अपने लिखे को वापस पढ़कर यह सोचा कि भाव जैसे है ठीक है,और जीवन की एक परिस्थिति को बयां करते है जो कमोबेश हर एक के जीवन में कभी न कभी आती है.सो वही लिखकर भेज रहा हूँ.

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बात बंटवारे की लाई गर्मियों की वो दुपहरी

शूल सी दिल में चुभी थी गर्मियों की वो दुपहरी

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रूठकर भौजी चली, इस घर उसे रहना नहीं है

और अम्‍मा संग रोई, गर्मियों की वो दुपहरी

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कांप कुछ बापू रहे थे, माँ का आँचल भीगता था

अपना क्या था, कह रही थी, गर्मियों की वो दुपहरी

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आज तुम जो कर रहे हो, कल तुम्हारे साथ होगा

करनी भरनी सीख देती गर्मियों की वो दुपहरी

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ढोर बर्तन और सब घर, खेत, मन टुकड़े हुए थे

''और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी''

कांप कुछ बापू रहे थे मां का आंचल भीगता था, बंटवारे का सजीव चित्रण कर दिया है इस मिसरे में । दर्द और पीड़ा की ग़ज़ल है ये । उस तकलीफ़ की ग़ज़ल है जो मां और पिता को होती है, तब जब उनके बेटे एक दूसरे के प्रति मन में विद्वेष लिये अलग होते हैं । ढोर बर्तन और सब घर खेत मन टुकड़े हुए थे, इस मिसरे में बाकी सब के साथ मन को जिस प्रकार गूंथा है वो प्रयोग छू गया है ।

अभी भी कई लोगों का परिचय तथा फोटो प्राप्‍त नहीं हैं ।  जल्‍दी जल्‍दी भेजें ताकि समय पर काम हो सके । कुछ लोगों ने आधारशिला में प्रकाशित कहानी 'नफीसा' पढ़ने की इच्‍छा जताई थी सो वो कहानी ब्‍लाग के साइड रोल पर है वहां से उसे पढ़ सकते हैं ।

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