शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2007

मैं आपके लेख से बिल्‍कुल असहमत हूं संजय कुमार जी और मैं विकास का समर्थन करता हूं और पूरे मन से करता हूं

संजय कुमार जी ने जब वीसाफ्ट पर लिखा कि भाषा को उगालदान मत बनाइये तो मैं कुछ उलझन में था और सोच रहा था कि संभवत: आइआइटी के छात्र अंग्रेज मिश्रित हिंदी लिख रहे होंगें तभी संजय जी ने इतनी कठोर टिप्‍पणी की है । मगर मैं जब वहां http://iitbkivaani.wordpress.com/ गया तो मुझे वहां कुछ कविताएं मिलीं जो प्रारंभिक दौर की कविताएं कहीं जा सकती हैं । पर हिंदी को लेकर कुछ भी विवादास्‍पद नहीं मिला किसी प्रथम वर्ष के छात्र ने कविता लिखी है

अमराई की छाँव सी
सपनों के गाँव सा ,
जैसे हो सीप में मोती
समंदर में नाव सा ,
कोई गीत गाना चाहता हूँ
तुमको सुनाना चाहता हूँ ,
खुशबु हो जिसमें फैली
सोंधी सी माटी की
छाँव हो जिसपर पसरी
अरहर की टाटी सी ,
ऐसे उपवन के जैसा
गीत गाना चाहता हूँ ,
निर्झर के नाद सा
वन के संवाद सा
खामोशी जिसमें गूंजे
ऐसे आह्लाद का
कोई गीत गाना चाहता हूँ
तुमको सुनाना चाहता हूँ ,
नदिया के तट पर खड़े
बूढ़े से पेड़ का
बच्चो की सी सरलता
हँसते अधेर का ,
कोई गीत गाना चाहता हूँ
तुमको सुनाना चाहता हूँ ,
वो मीठी धुप देखो
पत्तों से छानकर
ज्यों रेशमी ताना बाना
बुनता है कोई बुनकर ,
ऐसा ही बुना हुआ
कोई गीत गाना चाहता हूँ
तुमको सुनाना चाहता हूँ .
– हर्षवर्धन
प्रथम वर्ष
छात्रावास-२
मैं पूरे पूरे मन से हर्ष को दुआ देता हूं कि ईश्‍वर तुमको बहुत आगे ले जाए क्‍योंकि तुम्‍हारी उम्र में मैं तो ये भी नहीं लिख पाता था । तुमने अरहर की टाटी, जैसे प्रतीक इस्‍तेमाल कर दिल खुश कर दिया है मेरा ।
कविता तो आलोक की भी अच्‍छी है

नही मैं सरगम संध्या की
ना ही िनशा का साया हूँ ,
मैं एक सवेरा इस युग का
धरती की धुन्धिल काया पर
किरणे मधुर फैलाता हूँ ;
नहीं पिटारी जादू की
ना ही कोई माया हूँ ,
मैं एक सपेरा इस युग का
सर्पों का भी मन बहलाने
चंचल बीन बजाता हूँ ;
नहीं मैं कोई कल्पना कोरी
ना ही किसी का छाया हूँ ,
मैं एक चितेरा इस युग का
पकड़ तुलिका इन हाथों में
रंगों को बिखराता हूँ ;
नहीं फरिस्ता इस दुनिया का
ना ही कुछ कहने आया हूँ ,
मैं एक लुटेरा इस युग का
लूट तुम्हारे भावों को
कविता नया बनाता हूँ ।
– आलोक कुमार
मुझे तो इसमें उगालदाल जैसी कोई बात नहीं लगती है । मैं एक बात कहना चाहता हूं कि नए पत्‍ते जब निकलते हैं तो ज्‍यादा देखभाल मांगते है । मगर ये वो हैं जिनको हमारे झरने के बाद हमारी जगह लेना है ।
जैसे इस कविता को ही देखें

सागर की अपनी विशिष्टता है
वह अनंत है, अगाध है, अथाह है
जिसमें होता असीम उर्जा का अविरत प्रवाह है .
लेकिन मैं उस नन्ही छोटी लहर को
जीवन के अधिक समीप पाता हूँ ,
वह नन्ही लहर ,जो दूर किसी छोर से जन्म पाती है
और उसी पल से नन्हें संघर्ष की कथा शुरू हो जाती है
संघर्ष यही है ‘अस्तित्व का संघर्ष ‘
सागर की प्रचंड शक्तियाँ जैसे उसके दमन को प्रतिबद्ध है.
किन्तु उस नन्ही की शांत प्रतिबद्धता न होती शब्दबद्ध है .
वह निःशक्त, जीवन की उस दौड़ मैं सबसे पीछे ,
फिर भी भारी हुई , उत्साह से, उमंग से ,
वह पहुँचेगी देर ही सही, किनारे तक .
इसी श्रम से वह बढती गयी ,
कभी ओझल हुई, कभी प्रकट हुई ,
आह! वह नन्ही लहर ,
किन क्रूर हाथों ने लिखा था उसका भाग्य
किन्तु प्रचंडता का वह दौड़ पार कर अंततः
उसने किनारे का पहला सुखद स्पर्श पाया
सब चिंताओं को पीछे छोड़ सफ़ेद फेन के साथ
मेरे पैरों को धोया
और बालू के कणों को मेरे शरीर पर संचित कर
स्नेह का एक नया संबंध भी जोडा ,
निश्चिंत, निष्क्रिय;
मुझसे जीवन का मूक संवाद कर रही थी
विश्राम के उन पहले क्षणों में वह
किन्तु विधि के विधान में विश्राम शब्द अपरिभाषित है .
और क्रूर लहरों की एक श्रंखला ने अपने घोष से
भयावह कम्पन्न किया
और अंत के उन क्षणों में उसने फिर संघर्ष करने का
आश्वासन दिया ,
और अंत के उन कठिन क्षणों में
जल्द मिलने का स्वर किया ,
और बालू के उस ऋण से मुक्त होने के लिए मैं
आज भी इन्तजार कर रहा हूँ.
नीरज शारदा
प्रथम वर्ष
छात्रावास-३
इसमें भी बात वही है कि टटकापन है क्‍योंकि अभी विचारों में भारीपन नहीं है पर चितेरापन तो है ना हमको शून्‍य होने से बचाएंगीं ये आवाजें । जान लें कि उर्दू के साथ भी यही हुआ इतनी क्लिष्‍ट और पंरपरावादी हो गई कि आज आम आदमी ही उससे कट गया और शाइर भी हिंदी में लिखने लगे ।
संजय जी आपने ये आईआईटी वाले भी कविता करने के लिए हिन्दी को चुनते हैं इससे भाषा की कोई सेवा नहीं हो रही है। इससे तो अच्छा यह है कि वे भूल ही जाएं कि हिन्दी भी कोई भाषा होती है. वे अपना साहित्य भी अंग्रेजी में ही लिखें. जिस भाषा में वे लिख-पढ़ रहे हैं उसी भाषा में साहित्य भी लिखें तो वे ज्यादा अच्छे तरीके से अंग्रेजी की सेवा कर सकेंगे. ऐसी हिन्दी सेवा से तो हिन्दी को छोड़ देना हिन्दी पर ज्यादा उपकार होगा.
क्‍यों लिखा मैं नहीं जानता ऐसी हिंदी से आपका क्‍या तात्‍पर्य है । क्‍या आपने ब्‍लागों की हिंदी नहीं देखी ये तो उससे लाख गुना अच्‍छी है ।
आपने ये जो लिखा है क्यों नहीं आईआईटी वाले यह अभियान चलाते कि हम अपनी पढ़ाई लिखाई सब कुछ हिन्दी में करेंगे। ये भी मेरी समझ से परे है जो संभव नहीं है वो कैसे होगा । मैं कठोर बातें केवल इसलिये लिख रहा हूं कि मैं नहीं चाहता कि इन बच्‍चों का उत्‍साह कम हो कविता में जिस तरह की हिंदी ये लिख रहे हैं वह उत्‍तम है कहीं से कम नहीं है । और फिर आप ये क्‍यों भूल जाते हैं कि साहित्‍य ही किसी को भाषा से जोड़ता है । क्षमा करें अगर कुछ बुरा लगा हो और आइआइटी के छात्रों मैं आपको एक बड़ा भाई होने के नाते आशिर्वाद देता हूं और यही कहता हूं कि आप ने जो प्रयास किया है वह मुझे छू गया है ।
आपकी उम्र में मैंने जो कविता लिखी थी वो क्‍या थी जानते हैं
एक पेड़ बेचारा पेड़
बारिश में भीगता पेड़
गर्मी में सूखता पेड़

8 टिप्‍पणियां:

  1. युवको को प्रोत्साहन की जरूरत है. इनका उत्साह बना रहा तो अगली पीढ़ी हिन्दी में भी पढ़ लेगी.

    भाषा वही जीवित रहेगी जो हर परिस्थिति के अनुकूल होगी. भारी भरकम साहित्यिक भी और उगलदानमय भी.

    आओ हिन्दी में उगलें.

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  2. बिल्कुल सही . मै भी आपसे सहमत हूं.
    मैने आई आई टी बम्बई के छात्रों की कविता तथा वाणी के बारे में अभी अनीता जी के ब्लौग से जाना.
    1976 में मैं भी आईआईटी बम्बई का छात्र रहा हूं. तब हम हिन्दी की एक पत्रिका भी निकालते थे, जिसका नाम होता था 'अक्ष'.


    बाद मे दिल्ली में इसी नाम से एक साहित्यिक व सांस्कृतिक संस्था शुरू की. ( उस पर एक रपट मेरे ब्लौग पर है)
    http://bhaarateeyam.blogspot.com
    http://brijgokulam.blogspot.com

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  3. निश्चित ही विकास एवं उनके साथियों का सामूहिक प्रयास वाणी सराहनीय है और उनका उत्साहवर्धन किया जाना चाहिये. आपने बिल्कुल सही लिखा है.

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  4. बहुत अच्छा लगा…आपका लेख!! दरसल रचतात्मकता की परख का सबसे सुगम माधयम काव्य ही होता है…प्रोत्साहन के लिये धन्यवाद !!

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  5. एक पुराने आई.आई.टी’ian के नाते यह बात कुछ ज़्यादा ही खली । सही कहा है आपनें । साहित्य और रचनात्मकता किसी एक प्रकार के कौलेज़ की बपौती नहीं है । तकनीकी शिक्षा और हिन्दी से प्रेम में विरोधाभास नहीं है ।

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  6. आपके प्रोत्साहन के लिए किस तरह से आपका आभार व्यक्त करूँ, समझ नहीं पाता. इसी तरह कृपादृष्टि बनाये रखें.

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  7. भाई हिन्दी में लिखने का हक सभी को है, इस पर कोई कैसे आपति जता सकता है? फिर उपरोक्त ब्लॉग पर अच्छी खासी कविताएँ हैं, कई अन्य ब्लॉगों पर इससे कई बुरी कविताएँ हैं, फिर ऐसा ऐतराज क्यों?

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  8. सुबीर जी आपका लेख पढ़कर मन को बहुत तसल्ली हुई....अप ये न सोचे की आई ई टी में केवल वही छात्र होते है जिन्हें केवल अंग्रेजी आती है मैं आपको बता दूं की यहाँ ऐसे कई सारे छात्र है जो बहुत ही अच्छी कवितायेँ लिख्ते है ...आई आई टी अपने बौद्धिक स्तर और रचनात्मकता के जाना जाता है चाहे क्षेत्र कोई भी हो....वाणी पर कतु टिपण्णी सुनने के बाद मन को अच्छा तो नहीं लगा लेकिन आप का लेख पढ़कर लगा की आप हमारे साथ है...
    आशा है की आप वाणी से जुडे रहेंगे धन्यवाद...

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