शनिवार, 29 सितंबर 2007

मुहब्‍बत की झूठी कहानी पे रोए बड़ी चोट खाई जवानी पे रोए । कभीसोचा है कि ये गाना गुनगुनाने में इतना आसान क्‍यों लगता हैं सोच कर देखें

सबसे पहले तो बात की जाए अनूप जी की अनूप जी ने आते ही पहले तो मुर्गाबने और फिर ऐसा काम किया कि माड़साब ने 'धे छड़ी-धे छड़ी' लाल कर दिया । जनाब फरमा रहे थे
दिल में हौले से समाने का मज़ा क्या जाने
प्यार में हद से गुजर जाने का मज़ा क्या जाने
अब इसमें अगर देखा जाए तो
प्‍या फा, र-ए, में-ला, हद-तुन (फाएलातुन)
से-फ, गु-ए, ज़र-ला, जा-तुन (फएलातुन)
अब आएगा असली मजा
ने-फा, का-फ, म-ए, जा-ला, क्‍या-तुन ( भोत ही गुड भैया आपने तो एक नया ही आविष्‍कार कर दिया है फाफएलातुन) छड़ी छड़ी छड़ी और सजा ये है कि उड़न तश्‍तरी को कंधे पर उठाकर स्‍कूल के पांच चक्‍कर लगाओ ।
दरअसल में एक पूरा का पूरा दीर्घ बढ़ रहा है यहां पर । और खयाल में भी कमजोरी है दिल मे हौले से समाना और प्‍यार में हद से गुजर जाना दोनों दो विपरीत बातें हैं ( लगता है कि मुझे एक ब्‍लाग और शुरू करना पड़ेगा जहां पर प्‍यार के मूलभूत तत्‍व और उसकी नीतिगत विशेषताएं बतानी पड़ेगी ) । ध्‍यान में रखें एक बात कि हुआ है समाने पर खेल अत: आप गुज़र जाने तो ले ही नहीं सकते क्‍योंकि उसमें जाने से ठीक पहले एक दीर्घ गुज़र का ज़र आ रहा है अत: बात फेल हो रही है । आपको जो काफिये लेना हें वे समाने, दिखाने, बताने जैसे ही लेने है और अगर आप जाने माने भी लेना चाहते हैं तो उसके ठीक पहले लघु होना चाहिये दीर्घ नहीं । जैसे
वादा कर कर, के न आने, का मज़ा क्‍या, जाने
अब यहां क्‍या हुआ आने के ठीक पहले आ रहा है जो कि एक लघु है इसलिये ये चल गया है । जहां जहां मैंने कामा लगाए हैं वो रुक्‍न हैं फाएलातुन-फएलातुन-फएलातुल-फालुन
आप भी ऐसा करें कि जब गज़ल लिखें तो यही कामा की पद्धति अपनाएं उससे क्‍या होगा कि आपको ख़द को ही समझ आएगा । कि मात्रा की घट बढ़ कहां पर हो रही है । एक रुक्‍न लिखें और कामा लगा दें ।
अभिनव said...
मुद्दत हुई थी सामने मुर्गा बने हुए,
स्कूल मेरे सामने फिर आके जम गया,
बहर तो ठीक है पर आपको स्‍कूल की जगह पर इसकूल लिखना होगा तो बात बनेगी । क्‍योंक‍ि आपने शुरुआत की है मुद दत से दो दीर्घ से इस और कू से वज्‍न मिल जाएगा ।
नीरज ने लिखा है
राह में गर कहीं वो जो आयें नजर,
देख के उनको नजरे चुराता हूँ मैं
जानता हूँ वो मेरा मुकद्दर नहीं,
उनको पाने की हसरत मिटाता हूँ मैं
दिल में आंसू लबों पे तबस्सुम लिए
दर्द लेके हंसी बाँट आता हूँ मैं
इसको दोनो तरह से चीर फाड़ करने काकाम छात्रों को दिया जाता है पूरा विश्‍लेष्‍ण करें कि इसमें बहर के दोष हैं ये नहीं । खयालों की कमजोरी कहां कहां पर आ रही है । (हिंट -दूसरे शे'र को जरूर देखें ) और हां हो सके तो इसका मतला बनाने का काम करें । ये एक ज़रूरी होमवर्क है सभीको कल संडे की छुट्टी में करने के बाद सोमवार के पहले कापी जमा करवानी हैं । सोमवार से हम बहरों की क्‍लासें चालू करेंगें । ये मेरा अनुरोध है कि नीरज के शे'रों को कापी में उतार कर उनका दिल से पोस्‍टमार्टम करें और फिर उनका उत्‍तर निकालें कि खयाल और बहर में कहां कमजोरी है और रुक्‍न भी निकाल के बताएं । खयाल की कमजोरी पर ज्‍यादा ध्‍यान दें वही महत्‍व पूर्ण है ।
होम वर्क क्रमांक 2
आपने फिल्‍म मुगले आजुम का गीत सुना होगा
मुहब्‍बत, की झूठी, कहानी, पे रोए
बड़ी चो, ट खाई, जवानी, पे रोए
ये ग़ज़ल के प्रारंभिक छात्रों के लिये सबसे आसान बहर है बहरे मुतकारबि मुसमन सालिम
वज्‍़न है
फऊलुन-फऊलुन-फऊलुन-फऊलुन
122-122-122-122
इस पर कसरत करें ये गाने में भी आसान बहर है । काफिया रदीफ ये ना लें मतलब कहानी पे रोए की जगह कुछ और करें
ये सबसे आसान बहर है कुछ भी कहें
मुझे गुल के हंसने पे आता है रोना
के इस तरह हंसने की खू थी किसी की
पर इस पर काम ज़रूर करें अगर कर पाए तो हम सोमवार से प्रारंभ करेंगे बहर का सफर ।

शुक्रवार, 28 सितंबर 2007

लता मंगेशकर महोत्‍सव : अठहत्‍तर वर्ष में इतनी मीठी आवाज़ ये सरस्‍वती का चमत्‍कार नहीं है तो ओर क्‍या है

लता जी की महत्ता, एक बार हमारे पड़ौसियों ने सिद्ध कर दी थी, जब उन्होंने कहा, कि लता मंगेशकर दे दो, कश्मीर ले लो परन्तु उन्हें यह नहीं पता था, कि भारत के लिये जितना काश्मीर आवश्यक है, भारतवासियों के लिए उतनी ही लता मंगेशकर आवश्यक है। लता जी जब संसद हॉल में खड़ी होकर सारे जहाँ से अच्छा गाती हैं, तो संसद हॉल स्तब्ध खड़ा होकर, इस महान्‌ गायिका के स्वर का जादू महसूस करता है। मुझे याद है, जब लता जी १४ अगस्त, १९९७ की रात्राी १२ बजे, संसद हॉल में सारे जहां से अच्छा गा रही थीं, तब देश के कोने कोने से आये सांसद और गणमान्य जन उन्हें बच्चों की सी उत्सुकता से, खड़े हो हो कर देख रहे थे। लताजी, राजीव गांधी सद्भावना पुरस्कार लेते समय जब कहती हैं, कि मैं नेहरू जी की स्मृति में ऐ मेरे वतन के लोगों की चंद पंक्तियों गाऊँगी, तो उपस्थित भद्रजन इस तरह तालियाँ पीटते हैं, मानों कोई कुबेर का खजाना मिलने वाला हो।
लता जी एक बार एक गीत की रिकडिर्ंग कर रहीं थीं, शाम की फ्लाइट से उन्हें लंदन भी जाना था, लगभग दस बार रिहर्सल के बाद, संगीतकार, रिकार्डिंस्ट सभी सन्तुष्ट थे, पर लता जी सन्तुष्ट नहीं थीं, उन्होंने कहा, इसे फायनल मत करना, मैं लन्दन से लोट कर फिर रिकर्डिंग करुंगी। सचमुच वह लंदन से लौंटीं, और गीत की पुनः रिकर्डिंग की, और पूरी तरह सन्तुष्ट होने के बाद ही गीत को फायनल किया, इसी कारण तो लता-लता है। २८ सितम्बर 07 को लता जी उम्र के ७8 वर्ष पूर्ण कर लेंगीं, कितनी ही अभिनेत्रिायाँ जिन्हें लता जी ने स्वर दिये, दौड़ से बाहर होकर घर बैठी हैं, उनकी पुत्रिायाँ फिल्मों में काम कर रही हैं, लता जी उन्हें भी स्वर दे रही हैं। हमारी तो ईश्वर से यही प्रार्थना है, कि तीसरी पीढ़ी भी जब फिल्मों में आये, तो लता जी उसे भी स्वर प्रदान करें। सचमुच हम भाग्यवान हैं, कि इतना महान्‌ कलाकार अपनी अमृतवाणाी से हमें सरोबार किये हुये है। दिल से में लता जी, गुलज+ार और ए. आर. रेहमान की त्रिावेणी ने मधुर गीत जिया जले की उत्पत्ति की है, वन्दे मातरम्‌ ९८ के गीत क्या नाम है अपना जहाँ में खड़े हैं कहाँ पर हम में लता जी की सवालिया आवाज में, जो अवसाद झलकता है, वह हम भारत वासियों को खुद पर सोचने के लिये मजबूर करता है, हालांकि लता जी के गीतों में अवसाद बहुत कम नजर आता है।
लता जी की आवाज+ इस नश्वर संसार की एक अनश्वर शैः है। राज बब्बर जब फिल्म कर्मयोद्धा बना रहे थे, तब उसमें लता जी का एक खूबसूरत गीत था, परन्तु जिस आडियो कम्पनी द्वारा कैसेट जारी किया जाना था, वहाँ एक गायिका का एकाधिकार था, अतः उस गीत को, उसकी आवाज में डब किये जाने का प्रस्ताव आया, परन्तु राज बब्बर नहीं माने, आखिर उस फिल्म का ऑडियो कैसेट तो जारी हुआ, परन्तु उसका कोई प्रचार नहीं हुआ। किसी ने जब राज बब्बर से पूछा, कि अपने निर्माता के रूप में अपनी पहली फिल्म के साथ, ऐसा क्यों होने दिया ? तो उनका जवाब था - ''जब से मैंने होश संभाना, तब से ही यह आवाज मेरे साथ हम सफ़र की तरह चल रही है, अब जब मैं निर्माता बन रहा था, मेरा सबसे बड़ा सपना यही था, कि लता जी मेरी फिल्म में गीत गायें।

लता मंगेशकर महोत्‍सव : सन्‍नाटों की गायिका लता मंगेशकर के वे गीत आपने सुने हैं क्‍या जो उन्‍होंने प्रेतात्‍माओं के लिये गाए हैं

अठहत्तर वर्ष की उम्र में भी उतने ही सधे हुए सुर और वही दिव्य आवाज यह चमत्कार नहीं तो और क्या है? सादगी की ग़ज़ल मुझे ख़बर है वो मेरा नहीं पराया था सुनकर देखिए क्या आपको कही से भी लगता है, कि यह स्वर एक अठहत्तर वर्ष की महिला का है। फिल्म लगान का अपूर्व भजन, ओ पालनहारे क्या आपको वर्षों पूर्व के कालजयी गीत अल्ला तेरो नाम की याद नही दिलाता। लता जी को मिला भारत रत्न वास्तव में हम सब संगीत रसिकों का सम्मान है, हम जो लता जी की आवाज की उंगली पकड़ कर खड़े हुए, बड़े हुए, चलना सीखा, और आज भी चल रहे है, उसी नूर की बूंद के साए में जों बकौल गुलजार साहब सदियों से बहा करती है । लता मंगेशकर और गुलजर ने मिलकर कुछ ऐसी रचनायें दी हैं, जो सुनने में किसी दूसरे संसार की लगती हैं। दरअसल गुलजार की शायरी इतनी दूरूह होती है, कि अगर उसे कोई सरल आवाज न मिले, तो वह और जटिल हो जाती है, लता मंगेशकर और किशोर कुमार ने इसलिये जब गुलजार को गुनगुनाया, तो जटिल पहेलियों सी शायरी को बिलकुल आसान बना डाला। अब तेरे बिना जिंदगी से कोई शिक़वा के अर्थ की भूलभुलैया में फसेंगे, तो गाने का मजा नहीं ले पायेंगे। फिल्म लेकिन जिसका निर्माण लता जी ने स्वयं किया था, के गीत काफी लोकप्रिय हुये थे। यारा सीली सीली बिरहा की रात का जलना एक कठिन शब्दों और गूढार्थ से भरी हुई रचना थी, परन्तु लता जी की आवाज, और हृदयनाथ मंगेशकर के २१ वीं सदी के संगीत ने, उसे अमर बना दिया।
मेरे विचार में लता जी सन्नाटों की गायिका हैं, इसलिये भटकती आत्माओं पर फिल्माये गये उनके गीत, सर्वाधिक लोकप्रिय हुये हैं। एच. एम. व्ही. ने लताजी के रूहानी गीतों के, अलग से दो कैसेट निकाले थे, जिसमें सारे गीत एक से बढ़ कर एक थे। रात के सन्नाटे की बात हो, या किसी अतृप्त आत्मा की पुकार हो, अगर लताजी की स्वर लहरी उसमें हो, तो ऐसा लगता है, सब कुछ सच है।वो भले ही कहीं दीप जले कहीं दिल हो , झूम झूम ढलती रात हो , नैना बरसे रिमझिम रिमझिम हो या बहारों की मंजिल का अदभुत गीत निगाहें क्‍यों भटकती हैं हो । फिल्म सिलसिला का वह गीत नीला आसमां सो गया सुनने में ऐसा लगता है, मानो सचमुच रात के अंधेरे में नीला आसमां, कहीं क्षितिज के उस पार सोया पड़ा है, इसी गाने के अंतरे याद की वादी में गूंजे बीते अफसाने में लता जी की आवाज ने जो गूंज, या प्रतिध्वनि पैदा की है, उसने इस गीत को, और इसकी पंक्तियों को निनाद से भर दिया था। सन्नाटो में गूंजने की क्षमता, उतनी बेहतरीन हेमन्त कुमार के अलावा, और किसी गायक या गायिका में दिखाई नहीं देती।

लता मंगेशकर महोत्‍सव - संजय जी की बात को उधार लेकर कह रहा हूं विश्‍व की सबसे सुरीली आवाज तुम जियो हजारों साल



प्रसिद्ध सितार वादक पंडित रविशंकर ने एक फिल्म में संगीत दिया था, ऋषिकेश मुखर्जी निर्देशित, १९६० में प्रदर्शित फिल्म अनुराधा, इस फिल्म में लता जी ने चार गीत गाये थे जाने कैसे सपनों में, हाय रे वो दिन क्यों ना आए, कैसे दिन बीते और साँवरे साँवरे चार विभिन्न मूड, और चार विभिन्न रागों, तिलक श्याम, जन समोहिनी, मौज खमाज और भैरवी में निबद्ध इन गीतों को सुनकर, इनमें सर्वश्रेष्ठ का चयन करना मुश्किल हो गया था। एक अद्धितीय संगीतज्ञ, और एक बेजोड़ गायिका के अद्भुत मेल से उत्पन्न ये गीत, भारतीय चित्रापट संगीत की एक अमूल्य विरासत है। लोकप्रियता की दृष्टि से हाय रे वो दिन क्यों न आए सबसे लोकप्रिय हुआ था। कैसा संयोग है, भारतीय सिने संगीत के इतिहास में लता के अभ्युदय के पश्चात्‌, जब भी कोई दुर्लभ रचना बनती है, तब लता उससे जुड़ी नजर आती है। एक वर्तमान की प्रसिद्ध संगीतकार जोड़ी का कहना है, कि जब भी कोई संगीतकार किसी खूबसूरत धुन की रचना करता है, तब उसकी सबसे पहली तमन्ना होती है, उसे लता जी ही गायें।
लता मंगेशकर की सबसे बड़ी विशेषता है, उनका आलाप, कभी आंखे बन्द कर लता जी का आलाप सुनिये, ऐसा लगता है, शरीर भारहीन होकर ऊपर उठता चला जा रहा है। फिल्म लेकिन की कालजयी रचना सुनिये जी अरज हमार के प्रारंभ का आलाप सुनिए, कितना विशुद्ध, ऐसा लगता है मानों निखालिस शहद की बूंद, कानों के रास्ते रूह में समाती चली जा रही है। फिल्म आनंद मठ के गीत वन्दे मातरम्‌ में लता जी के आलाप अद्धितीय हैं। आशा जी ने एक बार बताया था, कि लता दीदी के साथ मुझे उत्सव में एक गीत गाना था मन क्यों बहका, लता दीदी ने आलाप प्रारंभ किया, फिर मुझे गाना था, मगर मैं उस आलाप में ऐसी खोई, कि कुछ ध्यान ही नहीं रहा, क्या गाना है ?
लता मंगेशकर ने कितने गीत गाये हैं ? यह तो हमेशा से विवाद का विषय रहा है, परन्तु यह बात तो तय है, कि उन्होंने कभी स्तरहीन नहीं गाया। राजकपूर की फिल्मों की सबसे आवश्यक शर्त थी, लता मंगेशकर की आवाज, फिल्म संगम का गीत बुड्ढा मिल गया गाने के लिये लता जी राजी नहीं हो रही थीं, राज साहब केवल लता जी से ही गाना गवाना चाहते थे, काफी जद्दोजहद के बाद लता जी ने वह गीत गाया, पर विरोध स्वरूप वह फिल्म आज तक नहीं देखी। इसे भी एक संयोग ही कहा जाएगा, कि राज साहब द्वारा निर्मित सबसे बड़ी फ्लाप, या शायद उनकी एकमात्रा फ्लाप फिल्म, क्लासिक मेरा नाम जोकर में लता जी की आवाज नही थी। यह आर. के. की एकमात्रा फिल्म थी, जिसमें लता जी शामिल नहीं थीं, ऐसे ही एक संगीतकार ने जिन्हें लता जी राखी बांधती थीं, लता जी के सामने एक डिस्को गीत गाने का प्रस्ताव रखा, लता जी ने अस्वीकार कर दिया, जब लता जी उन्हें राखी बांधने गयीं, तब उन संगीतकार ने, उनसे वह गीत गाने का अनुरोध किया, और लता जी को गाना पड़ा। लता जी ने, लगभग सभी भारतीय भाषाओं में गीत गाये, तथा इस कारण उनका नाम गिनीज बुक में भी दर्ज हुआ है, उन्होंने आज तक अंग्रेजी में कोई गीत नहीं गाया। आज भी, साल में एक-आध बार ही, लता जी की आवाज किसी फिल्म में सुनने मिलती है, परन्तु जब भी मिलती है, इतनी सम्पूर्णता होती है, कि सारी कमी पूरी हो जाती है।
प्रसिद्ध तबला वादक उस्ताद जाक़िर हुसैन ने अपनी सर्वश्रेष्ठ पसंद, लता जी के एक डुयेट गीत को बताया था, जिसमें दोनों आवाजें लताजी की ही थीं, हुसैन साहब ने कहा था, कि मुख्य स्वर के पीछे चलता हुआ, लता जी का ही आलाप ऐसा लगता है, मानों सितारों में गूंज रहा हो, वह गीत था, फिल्म बहारों क सपने का क्या जानूं सनम। ''कुमार गंधर्व साहब को हमेशा शिकायत रही, कि फिल्म वालों ने लता को हमेशा, ऊँची पट्टी के गाने ही दिये, परन्तु एक गाना ऐसा भी था लता जी का, जो बहुत नीचे स्वरों में गाया गया, और बहुत खूबसूरत ढंग से गाया है, फिल्म अनुपमा का ये गीत कुछ दिल ने कहा सुपर स्टार अमिताभ बच्चन के पसंदीदा गीतों में पहले नम्बर पर है।

गुरुवार, 27 सितंबर 2007

भारत रत्न लता मंगेशकर : नूर की बूंद है सदियों से बहा करती है।

आज से ५९ वर्ष पूर्व, जब देश आजादी की पहली वर्षगांठ मना रहा था, तब एक आवाज चुपचाप से अपनी मौजूदगी का एहसास करा रही थी, हालाँकि सिने संगीत में उस आवाज का पर्दापण तो आजादी के भी लगभग पाँच वर्ष पूर्व हो चुका था, परन्तु 1948 में अचानक उस आवाज ने सारे देश को चमंत्कृत करके रख दिया था, वो गीत था आएगा आने वाला, और फिल्म थी महल। परदे पर भारतीय रजत पट की वीनस मधुबाला, अतृप्त आत्मा का एक छलावा भरा किरदार निभा रही थी, और एक रूहानी आवाज अपनी गूँज से, सारे माहौल को रहस्यमय बना रही थी। कितना बड़ा वरदान है ईश्वर का हम पर, कि आज पचास से अधिक वर्षो के बाद भी वही लता मंगेशकर अपनी जादू भरी आवाज से हमें मदहोश कर रही हैं मुझे ख़बर है वो मेरा नहीं पराया था ‘सादगी’ एलबम में । लता जी को भारत रत्न सम्मान दिया जाना वास्तव में, धन्यवाद ज्ञापन है, उन लाखों करोंड़ों संगीत रसिकों की और से जिन्हें लता जी की दिव्य आवाज तथा जादुई सुरों ने परमानंद की अनुभूति करवाई है।
लगभग 78 वर्ष पूर्व - 28 सितम्बर, 1929 को, रात दस बज कर सैंतालीस मिनट पर, इन्दौर में जब पंडित दीनानाथ जी मंगेशकर के यहां कन्यारत्न की प्राप्ती हुई थी, तब न तो पंडित जी, और ना इन्दौर वासी जानते थे, कि इस शनिवार के दिन ने, उन्हें कैसी गौरवमयी उपलब्धि से जोड़ दिया है। इन्दौर की फिजा में जिस नवजात कन्या का रूदन गूंज रहा है, उसी के कंठ से निकले स्वर, एक दिन सारे भारत, बल्कि सारे विश्व की फिजा में गूंजेगें। पंडित दीनानाथ मंगेशकर, भारतीय शास्त्रीय संगीत का एक जाना पहचाना नाम थे, अतः उस कन्या के रक्त में सुरों की झंकार तो विरासत में आई थी।
लता जी ने अपने पिता से शास्त्रीय संगीत का ज्ञान प्राप्त करना प्रारंभ किया, उस उम्र में, जबकि बच्चियाँ अपने खिलौने की दुनिया में सीमित रहती हैं, पंडित जी अपने देहान्त के समय, शास्त्रीय संगीत की विरासत, और तीन बहनों एवं एक भाई का बोझ, अपनी ज्येष्ठ पुत्री के किशोर कंधो पर छोड़ गये थे। परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी, पूंजी के नाम पर बस वे सुर थे, जो पंडित जी अपनी संतानों के कंठ में छोड गये थे। आशा जी ने एक बार किसी इन्टरव्यू में कहा था, कि संघर्ष के उन दिनों में लता दीदी और मैं, पैदल ही रिकार्डिंग स्टूडियो जाया करते थे, तब गर्मी के दिनों में मुंबई की सड़कों का तारकोल पिघला हुआ होता था, अतः हमारी चप्पलों में चिपक जाया करता था, लता दीदी कहीं बैठकर अपनी, और मेरी चप्पलों से तारकोल छुड़ातीं, और फिर हम चल देते। संघर्षो से जूझने का यही वह साहस है, जिसने लता जी को यहां लाकर खड़ा कर दिया। आप आंखे बन्द कर कल्पना कीजिये, एक सीधी -साधी सी, दुबली पतली लड़की सड़क किनारे बैठी, हाथो में पत्थर लिये, अपनी और अपनी बहन की चप्पलों पर लगा तारकोल छुडा रही है, और फिर सोचिंए, आज की लता मंगेशकर के बारे में, एक संघर्ष गाथा, विजय गाथा में कैसे बदली, आप स्वयं जान जायेंगे। लताजी के लिये फिल्मों में पार्श्वगायन उस समय एक मजबूरी थी, क्योंकि सारे परिवार का बोझ उन पर था, परन्तु कौन जानता था, कि यही मजबूरी भारतीय संगीत प्रेमियों के लिये, माँ सरस्वती का सबसे बड़ा वरदान साबित होगी।
ये लता जी के उन पचास गीतों की सूची है जो मैंने छांट कर छ: साल पहले कादम्बिनी में प्रकाशित की थी । और उस पर लता जी का पत्र भी मुझे मिला था जिसमें उन्‍होंने लिखा था कि मैं आपके कार्य की प्रशंसा करती हूं कि आपने इतनी मेहनत करके ये गीत छांटे हैं ।
एकल फिल्मी
(सर्वश्रेष्ठ सामूहिक प्रभाव वाले गीत)
1हमने देखी है ...- खामोशी
2आप यूं फासलों से... - शंकर हुसैन
3दिल और उनकी ...- प्रेम पर्वत
4माई री मै कासे ... - दस्तक
5खेलो न मेरे दिल से - हकीकत
6दिल तो है...- मुकद्दर का सिकन्दर
7तू चन्दा ... - रेशमा और शेरा
8अजनबी कौन हो तुम - स्वीकार किया मैंने
9ये मुलाकात एक बहाना है - ख़ानदान
10दिखाई दिये यूं - बाजार
युगल फिल्मी
(सर्वश्रेष्ठ सामूहिक प्रभाव वाले गीत)
1तेरे बिना जिन्दगी...- आँधी
2कभी कभी मेरे ... - कभी कभी
3गुलमोहर गर ...- देवता
4सिमटी हुई ये ... - चम्बल की कसम
5मुझे छू रही हैं... -स्वयंवर
6पत्ता-पत्ता ...- एक नजर
7एक प्यार का ...- शोर
8बीती ना बिताई... -परिचय
9दिल ढूंढता है ...- मौसम
10ये कहां आ गये ...-सिलसिला
गैर फिल्मी
1चाला वाही देस - (चाला वाही देस)
2ए मेरे वतन के लोगों -
3निसदिन बरसत नैन - (निस दिन बरसत नैन हमारे)
4मैं केवल तुम्हारे लिए - (प्रेम भक्ति मुक्ति)
5सांझ भई घर आ जा रे पिया
6दर्द से मेरा दामन (सजदा)
7ठुमक चलत रामचन्द्र - (राम रतन धन पायो)
8अनगिनती हैं तेरे नाम - (अटल छत्रा सच्चा दरबार)
9आकाश के उस पार भी - (ए मेरे वतन के लोगो)
10राम का गुणगान करिए - (राम श्याम गुणगान)
सर्वकालिक महान गीत (एकल)
1अल्ला तेरो नाम...- हम दोनों
2मोरा गोरा रंग... - बंदिनी
3मोहे भूल गए...- बेजू बावरा
4रसिक बलमा...-चोरी-चोरी
5हाये रे वो दिन...-अनुराधा
6लग जा गले ...-वो कौन थी?
7ओ सजना बरखा-परख
8ये जिन्दगी उसी...-अनारकली
9आजा रे परदेसी-मधुमती
10है इसी में प्यार...-अनपढ़
सर्वकालिक महान गीत (युगल)
1दिल की गिरह ...- रात और दिन
2तुम गगन के... - सती-सावित्री
3तू गंगा की...- बेजू बावरा
4जरा सामने...-जनम जनम के फेरे
5नैन सो नैन...-झनक झनक पायल बाजे
6प्‍यार हुआ इकरार ...-श्री 420
7वो जब याद आये-पारसमणी
8दमभर जो उधर...-अवारा
9चलो दिलदार-पाकीजा
10ओ मेरे सनम...-संगम

दिल में हौले से समाने का मज़ा क्या जाने, रात आंखों में बिताने का मज़ा क्‍या जाने

अभी मेरे हाथ में एक मशहूर कवि की ग़ज़ल आई है जो उनहोंने मेरे एक मित्र के पास सुधारने के लिये भेजी थी । वो ग़ज़ल मैं यहां पर इसलिये दे रहा हूं कि जब मैंने उसको पढ़ा तो मुझे लगा कि इससे अच्‍छा तो मेरी क्‍लास केछात्र लिख रहे हैं । होंगें वो एक बड़े कवि और शाइर लेकिन मुझे नहीं लगता कि उस ग़ज़ल में कोई बात है । उस पर ये कि इतना बड़ा नाम होकर भी वे अपनी गज़ल़ में रंग नहीं भर पाए । यहां पर वो ग़ज़ल भी केवल अपने छात्रों का उत्‍साह वर्द्धन करने के लिये दे रहा हूं । ताकि आप भी जान लें दो बातें पहली ये कि बड़े नाम वाले भी जो कुछ लिखते हैं वो सुधरने से पहले कैसा होता है ( सुधरने से पहले का अर्थ, जहां पर वे अपना लिखा हुआ दुरुस्‍त करने भेजते हैं वहां से सुधरने के पहले ) । दूसरा ये कि आप तो उससे अच्‍छा ही लिख रहे हैं सो लगे रहें । उन बड़े नाम की ग़ज़लें मेरे अभिन्‍न मित्र के पास सुधरने आती हैं । मैं यहां पर किसी वादे के कारण ना तो अपने मित्र का नाम लेना चाहूंगा ना ही उन बड़े कवि का । बस इतना जान लें कि वे इतने बड़े हैं कि इनके शे'र कोट किये जाते हैं । पर कोट होने वाले शे'र सुधरने से पहले कैसे होते हैं वो भी जान लें
अपने वचनों से फि़र गया है वो
मेरी नज़रों से गिर गया है वो
पहले मतले की ही बात करें वज्‍़न की बात नहीं करें केवल ख़याल की बात करें तो कोई नई बात नहीं कही गई है । कुछ भी ऐसा नहीं है जो वाह वाह करवा दे । अगर बात कुछ ऐसी होती 'ख़ुद की नज़रों से गिर गया है वो ' तो रंग पैदा होता । मगर उसके लिये मिसरा उला को भी बदलना पड़ता ।
अब एक और शे'र देखें जिसमें हिंदी के व्‍याकरण का सीधा दोष है
मंडली मित्र की समझता है
अपने दुश्‍मन से घिर गया है वो
अब यहां पर तो उड़न तश्‍तरी जैसा रोज पिटने वाला छात्र भी एक हाथ से चड्डी संभालते हुए और कोहनी से नाक पोंछते हुए बता देगा कि 'माड़साब हम बताएं इनने ग़लत लिखा है , मंडली मित्रों की होती हेगी, मित्र की नहीं मंडली का अर्थ बहुवचन होता है । और आदमी घिरता है दुश्‍मनों से ना कि एक दुश्‍मन से ' ।
ख़ैर मैं उस पर और ज्‍़यादा बात नहीं करना चाहता क्‍योंकि वो मेरा वादा है किसी से ।
चलिये होमवर्क की बात करें
दो संटी खाकर उड़न तश्‍तरी लाइन पर आ गई और दो ( ख़याल और बहर ) में से एक चीज़ को तो पकड़ा बहर को ।
दिल में हौले से समाने का मज़ा क्या जाने
अश्क आँखों से चुराने का मजा क्या जाने
दिल में हौले से समाने का मज़ा क्या जाने
फूल बालों मे सजाने का मजा क्या जाने
दिल में हौले से समाने का मज़ा क्या जाने
ओस गालों से हटाने का मजा क्या जाने
दिल में हौले से समाने का मज़ा क्या जाने
प्यार का कर्ज चुकाने का मजा क्या जाने
माड़साब घोषित करते हैं कि सभी शे'र बहर में हैं हालंकि इनमें ख़याल की भारी कमी है ( प्‍यार का कर्ज, ये क्‍या होता है )। केवल पहला शे'र ही कुछ हद तक ठीक है हालंकि उसको भी अच्‍छा नहीं कहा जा सकता । महत्‍वपूर्ण बात ये है कि वज्‍़न निकालना छात्रों को आने लग पड़ा है । अश्‍ का मतलब दीर्घ, का मतलब लघु, आं का मतलब दीर्घ, खों का मतलब दीर्घ, फाएलातुन
फिर से गिरा हुआ दीर्घ अर्थात लघु, चु का अर्थ लघु, रा का अर्थ दीर्घ, और ने का अर्थ दीर्घ ये हो गया फएलातुन
फिर वही का मजा क्‍या जाने जिसका वज्‍़न हम पहले भी निकाल चुके है फएलातुन-फालुन
कुछ लोग जानना चाह रहे हैं कि ये दीर्घ का कैसे पता चले कि ये नेता (गिर कर लघु हो गया है) हो गया है या फिर कवि ( दीर्घ ही है ) ही है । इसका पता आलाप से चलता है अगर किसी दीर्घ के बाद आलाप लेने की गुंजाइश नहीं आ रही है और हम उसको तुरंत खत्‍म कर के आगे बढ़ रहे हैं तो इसका मतलब वो गिरा हुआ है । लंबा आलाप दीर्घ पर ही लगता है ।
कंचन सिंह चौहान ने कहा
दिल में हौले से समाने का मज़ा क्या जाने
रात आँखों में बिताने का मज़ा क्या जाने
जो हवा रोज बुझाती है दिये कितने ही
वो मिरे घर के अंधेरों की सज़क क्या जाने?
हालंकि माड़साब ने इसे अभी तक सबसे ज्‍यादा नंबर दिये हैं । मतले को क्‍योंकि दूसरा शे'र तो टाइप की गड़बड़ी से कुछ का कुछ हो गया है, मगर ये तो तय है कि रात आंखों में बिताने का मज़ा क्‍या जाने ने मिसरा उला को मुकम्‍मल कर दिया है ( गुंजाइश अभी भी है ) दूसरा शे'र कुछ ऐसे होना था
जो हवा रोज़ बुझाती है दिये कितने ही
वो कोई दीप जलाने का मज़ा क्‍या जाने
अभी अभिनव और अनूप की कापियां नहीं आईं हैं शायद उड़न तश्‍तरी की पिटाई से डर गए हैं दोनों । हां एक नई छात्रा (शायद छात्रा) की कापी भी आई है
parul k said...
मै भी कुछ हिम्मत करूं
दिल में हौले से समाने का मज़ा क्या जाने
अश्क़ पलकों मे बुझाने का मज़ा क्या जाने ।
बहर की तो समस्‍या नहीं है पर मिसरा सानी सानी नहीं हो पाया है । और प्रयास करें आ जाएगा । अभिनव और अनूप दोनों कल जब क्‍लास में आएं तो पहले बाहर मुर्गा बनें दस मिनिट तक फिर अंदर आएं । और अभिनव कल की क्‍लास में अपनी हाफ पैंट में सुतली बांध कर आया था जो उड़नतश्‍तरी ने पीछे से काट दी थी और जब अभिनव जवाब देने के लिये खड़ा हुआ था तो ::::::::: एसी घटना से बचने के लिये अभिनव सुतली की जगह बिजली का कापर वाला तार बांध कर आया करे ।
सूचना हें
1 मेरे समाचारो वाले ब्‍लाग पर कथादेश के मीडिया अंक के बारे में प्रकाशित है यदि आप वहां कुछ भेजना चाहें तो पढ़ लें ।

मंगलवार, 25 सितंबर 2007

दिल में हौले से समाने का मज़ा क्‍या जाने ये एक ग़ज़ल का मिसरा है जिसने काफी लोगों को परेशान कर रखा है कि ये पूरा कैसे हो

दिल में हौले से समाने का मज़ा क्या जाने,
प्यार का फर्ज़ निभाने का मज़ा क्या जाने,
ये ग़ज़ल मुझे अभिनव ने भेजी थी और मैंने देखा कि उसमें बात पूरी नहीं हो पा रही है । मिसरा उला कह रहा है कि ''दिल में हौले से समाने का मज़ा क्‍या जाने'' अच्‍छी बात है । और एक बढि़या सा प्रयोग हो भी रहा है । मगर मिसरा सानी में आकर ठ़ुस्‍स मतलब बात बिल्‍कुल ही खत्‍म हो गई है ।
'' प्‍यार का फर्ज निभाने का मज़ा क्‍या जाने '' । अब फर्ज तो होता है बेटे का बाप का मां का मगर प्‍यार का फर्ज नहीं होता प्‍यार तो बहुत ऊपर की शै: है
अब मैंने पहले तो उसका वज्‍़न निकाला जो निकला
फाएलातुन-फएलातुन-फएलातुन-फालुन
SISS-IISS-IISS-SS
या फिर यूं भी कहें कि
लाललाला-लललाला-लललाला-लाला
ये एक मु‍श्किल बहर है जिसका नाम है बहरे रमल मुसम्‍मन मख़बून मुसक्‍कन
अब आप इसका एक उदाहरण भी देख लें
ख़ुश्‍क पत्‍तों पे मेरा नाम यक़ीनन होगा
मैंने इक उम्र ग़ुज़ारी है शजरकारी में

ये उसी बहर का शे'र है
अब इस पर मशक्‍कत की उड़न तश्‍तरी ने , अनूप जी ने और ख़ुद अभिनव ने भी कुछ इस प्रकार से
अभिनव said...
आपकी बात पूर्णतः सत्य है, वो पंक्ति भर्ती की ही थी। उसे परिवर्तित करने का प्रयास किया है।
सामने कुछ ना जताने का मज़ा क्या जाने,
दिल में हौले से समाने का मज़ा क्या जाने,
मगर बात कुछ जमी नहीं ''सामने कुछ न जताने का मज़ा क्‍या जाने '' से भी कुछ मज़ा नहीं आया ।
फिर कहा अनूप जी ने
अभिनव की गज़ल के मतले को अगर ऐसे लिखें तो
:दिल में हौले से समाने का मज़ा क्या जाने,
आंख चुपके से चुराने का मज़ा क्या जाने
,
बात वही रही मगर हां ये सबसे अच्‍छा प्रयास ज़रूर था ।
Udan Tashtari said...
मास्साबयह पुराने वाले होमवर्क को देखियेगा। कुछ बात जंचती दिखती है
क्या:
दिल में हौले से समाने का मज़ा क्‍या जाने
जाग के रातों को गंवाने का मज़ा क्या जाने।या
दिल में हौले से समाने का मज़ा क्‍या जाने
ख्वाब से रातों को सजाने का मज़ा क्या जाने।
दोनों ही बार उड़न तश्‍तरी बहर से बाहर उड़ गई और मास्‍साब ने दो छड़ी लगाईं हाथ पर ।
अनूप जी ने फिर प्रयास किया
अनूप भार्गव said...
सुबीर जी:आप ने ठीक कहा ,
दिल में हौले से समाने का मज़ा क्या जाने,
आंख चुपके से चुराने का मज़ा क्या जाने,
दूसरी पंक्ति अभी भी भरती की लग रही है ।
एक और प्रयास देखिये
:दिल में हौले से समाने का मज़ा क्या जाने,
आंख में खवाब सजाने का मज़ा क्या जाने ।
या
खवाब आँखो में सजाने का मज़ा क्या जाने ।
बात जम नहीं रही , फ़िर भी .....
अनूप जी की अच्‍छी बात ये हैं कि हर बार वे बहर में ही रहे हालंकि बात फिर भी वो नहीं बन पा रही है जिस पर वाह वाह किया जा सके । अब पहले तो ये जान लें कि वज्‍़न कैसे निकाला गया है ।
दिल-फा(दीर्घ), में-ए( उच्‍चारण केवल 'म' गिरकर होने से लघु), हौ-ला ( दीर्घ), ले-तुन ( दीर्घ)
से-फ़ ( से गिरकर सि हो गया है तो लघु), स- ए (लघु दोनों लघु अलग हैं इसलिये मिल कर दीर्घ नहीं हुए ) , मा- ला (दीर्घ), ने- तुन(दीर्घ)
का- फ ( लघु उच्‍चारण में गिरने से ), म- ए(लघु), ज़ा- ला (दीर्घ), क्‍या- तुन ( आधा क या में मिला तो एक दीर्घ), जा- फा (दीर्घ), ने- लुन(दीर्घ)
ये पूरा वज्‍़न हैं इसका पहला रुक्‍न है फाएलातुन मतलब आपको दीर्घ-लघु-दीर्घ-दीर्घ की बंदिश है और वैसा अनूप ने लिया भी है दिल में हौ ले । दूसरा रुक्‍न है फएलातुन मतलब लघु-लघु-दीर्घ-दीर्घ की बंदिश है ये वो दो लघु हैं जो अलग अलग होने के कारण आपस में मिल कर दीर्घ नहीं होंगें। जैसे अनूप ने कहा से स मा ने अब से उच्‍चारण में केवल सि की ध्‍वनी देता हैंऔर इस कारण लघु है और चूंकि ये समाने का अंग नहीं है इसलिये समाने के में नहीं मिलेगा और दोनों अलग रहेंगें ।
फिर अगला रुक्‍न वही है फएलातुन मतलब लघु-लघु-दीर्घ-दीर्घ और अनूप ने कहा का म ज़ा क्‍या यहां पर का गिरकर केवल की ही ध्‍वनि दे रहा है और मज़ा का उससे गठजोड़ करने को तैयार नहीं है सो दोनों अलग अलग हैं । हां आखिर में क्‍या में आधा क्‍ मिला या में और एक दीर्घ मिला । अंत में आया रुक्‍न फालुन मतलब दो दीर्घ जैसा कुछ । और अनूप ने कहा जा ने दोनों को वज्‍़न देकर पढ़ा गया सो दोनों दीर्घ ही हुए । इस तरह बनी बहरे रमल मुसम्‍मन मख़बून मुसक्‍कन
अब ये तो बात हुई व्‍याकरण की चलिये अब बात को हल करिये और दिल में हौले से समाने का मज़ा क्‍या जाने पर एक बढि़या सी गिरह लगाइये और इसका साथी मिसरा तलाश कीजिये कुछ ऐसा कि मज़ा आ जाए । सब प्रयास करें वे भी जो कंचन सिंह चौहान said...
present sir! केवल उपस्थिति दर्ज करवा कर भाग रहे हैं । उड़न तश्‍तरी के हाथ में पड़ी बेंत का असर कम हो गया होगा तो वो फिर से कोशिश करें । दर्द हो रहा हो तो हल्‍दी चूना लगवा लें पर काम कर के दिखाएं क्‍लास में खी खी करने से काम नहीं चलेगा । और हां सब लोग ये भी देखें कि उड़न तश्‍तरी की किस ग़लती पर बेंत पड़ी है शे'र में से वो ग़लती भी छांट कर बताएं ।

सोमवार, 24 सितंबर 2007

लोग करते ही रहे मिसयूज़ हम तुम क्‍या करें, जिन्‍दगी ने कर दिया रिफ्यूज हम तुम क्‍या करें, आज फिर जज्‍़बात में बहते गए दरिया बने, जिस्‍म भी कहते रहे

चीखने पर थीं कहां पाबंदियां पर चुप रहे
यूं हुकूमत ने किया है यूज़ हम तुम क्‍या करें
एक बादल की तरह फैली खुशी थी सामने
आते आते हो गई रिड्यूज हम तुम क्‍या करें
कितनी आसानी से पढ़ लेता है वो अख़बार को
वो नहीं रखता ज़हन में न्‍यूज़ हम तुम्‍ा क्‍या करें

दोस्‍तों कई बार बात चलती है टिप्‍पणियों की और वही बात आती है कि हम टिप्‍पणियां देने में इतने कंजूस क्‍यों हें । दरअस्‍ल में ये हमारी आदत है । मैं भी पहले सोचता था कि जब कोई मेरी बात सुन ही नहीं रहा है तो मैं क्‍यों चिल्‍लाऊं दरअस्‍ल में मैं सोचता था कि मेरा लिखा व्‍यर्थ ही जा रहा है पर जब मैंने साइट मीटर लगाया तो देखा कि लोग आ रहे हैं मेरे ब्‍लाग पर और अच्‍छी संख्‍या में आ रहे हैं ठीक है टिप्‍पणियां नहीं छोड्रकर जा रहे पर आ तो रहे हैं ना हो सकता है कि मेरा लिखना अभी उतना प्रभावी नहीं हो रहा हो कि उस पर कोई टिप्‍पणी की जाए ।
खैर चलिये काफिया समापन आज करना है ताकि फिर हम आगे की दिशा में बढ़ सकें
कुछ और मात्राएं जो रह गईं हैं वो ये हैं ऊ, ऊं, ए, एं, ओ, ओं,
1: अहमद फ़राज़ साहब का शे'र है
क्‍या ऐसे कम सुख़न से कोई गुफ़्तगू करे
जो मुस्‍तकिल सूकूत से दिल को लहू करे
अब तो ये आरज़ू है कि वो ज़ख्‍़म खाइये
ता जि़न्‍दगी ये दिल न कोई आरज़ू करे
अब यहां पर ऊ को ही काफिया बनाया गया है और उसके अनुसार ही शे'र निकाले जा रहे हें ।
2 : लेकिन ये भी हो सकता है कि ऊ को अं की मात्रा के साथ संयुक्‍त कर दिया गया हो उस हालत में आपको काफिये वैसे ही ढूंढने होंगें ।
हालंकि इस तरह के उदाहरण कम हैं और अगर हैं भी तो उनमें ऊं खुद ही मौजूद है
कितने पिये हैं दर्द के आंसू बताऊं क्‍या
ये दास्‍ताने ग़म भी किसी को सुनाऊं क्‍या
न्‍यू जर्सी अमेरिका में रहने वालीं बी नागरानी देवी की ये ग़ज़ल है
दीवानगी में कट गए मौसम बहार के
अब पतझरों के खौफ से दामन बचाऊं क्‍या
अब यहां पर ऊ तो है पर अं के साथ है इसलिये आपको उसको निभाना पडे़गा ही ।
3 : जब ऊ किसी एक ही अक्षर के साथ मतले में आ रहा हो
जैसे
ऊपर का मतला ही अगर ऐसा होता
ख़ुद को गवां के कौन तेरी जुस्‍तजू करे
ता-जि़न्‍दगी ये दिल न कोई आरज़ू करे
अब इसमें आप फंस गए हैं क्‍योंकि आपने ऊ को ज़ के साथ संयुक्‍त कर दिया है अब आपको काफिये ऐसे ही लेने होंगें जिनमें ज़ू हो या जू हो । मसलन आरज़ू, जुस्‍तज़ू, वुज़ू आदि
4 : दोहराव का मामला
नागरानी जी की गज़ल़ में जो बात है वो ये भी है कि वहां पर काफिया दरअस्‍ल में 'आउं' है य दोहराव का मामला है । आपने मतले में ऊं के पहले एक ख़ास अक्षर का दोहराव कर लिया है जो आ की मात्रा अब आप को उसको निभाना ही है ।
और जो कहीं आपने और ज्‍यादा कुछ कठिन कर लिया तो वो य होगा कि आपने एक अक्षर की भी बंदिश बांध ली
जैस्‍ो
कितने पिए हैं दर्द के आंसू बताऊं क्‍या
ये दास्‍ताने ग़म से किसीको सताऊं क्‍या
अब आप बुरी तरह से फंस गए हें क्‍योंकि आपने 'ताऊं' की बहुत मुश्किल बंदशि ले ली है जिसको निभाना बहुत मुश्किल हो जाएगा ।
आज बस इतना ही क्‍योंकि मुझे कहीं जाना है
अभिनव के मतले
दिल में हौले से समाने का मज़ा क्या जाने,प्यार का फर्ज़ निभाने का मज़ा क्या जाने,
को अनूप जी ने कुछ बेहतर तो कर दिया है
दिल में हौले से समाने का मज़ा क्या जाने,आंख चुपके से चुराने का मज़ा क्या जाने,
पर अभी भी भर्ती वाली बात गई नहीं । कुछ और किया जाए क्‍योंकि मिसरा उला बहुत अच्‍छा है
दिल में हौले से समाने का मज़ा क्‍या जाने

शनिवार, 22 सितंबर 2007

आईना हैरान है और आसमां रोने को है, इस तमाशगाह में अब और क्‍या होने को है, नींद के मारे किसी सपने की ख्‍़वाहिश क्‍यों करें, हर घड़ी मेहसूस होता है सहर

पाकिस्‍तान की शाइरी में इन दिनों वही बात देखने को नज़र आ रही है जो भारत में आपातकाल के दौरान नज़र आती थी । दरअस्‍ल में कविता की पहचान ही होती है कि वो उन कांच के महलों पर पत्‍थर बनकर बरस पड़े जिनके पीछे छुपे हैं समाज में फैलने वाले अंधेरे । लेकिन आज हो ये गया है क कविता केवल एस एम एस या लाफ्टर चैलेंज की फूहड़ता में उल्‍झ गई है । अब नहीं लगता कि कविता कभी चीखकर कह सकेगी
उठो समय के घर्घर रथ का नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है
मैंने ऊपर जो पंक्तियां आज शीर्षक में ली हैं वो हैं पाकिस्‍तान के शाइर जनाब इक़बाल हैदर की । एक बर फि़र पढि़ये उनको और इस बार पाकिस्‍तान के हालात को ध्‍यान में रखकर पढि़ये
ऐ हवा-ए-बेयक़ीनी गुल न कर घर के चराग़
चंद लम्‍हों को ठहर जा कुछ न कुछ होने को है
किसके नक्‍शे पा को समझें अपनी मंजि़ल का निशां
झाग्‍ा उड़ाती मौज आकर हर निशां धोने को है
काश, ये कोई सितारा या कोई जुगनू कहे
हर अंधेरा कह रहा है रोशनी होने को है

चलिये आज आपने का़फिये का समापन कर लें ताकि फिर आगे बढ़ा जा सके ।
ते बात जो काफिये से चली थी वो आज विराम लेगी और फिर हम आगे चलेंगें । जैसा कि मैंने ब्‍लाग वाणी के मैथिली जी को बताया कि मैं ग़ज़ल और फोटोशाप को एक जैसा मानता हूं जितना जानो उतना ही और रास्‍ता खुल जाता है और फिर ये लगने लगता है कि और भी कुछ बाकी रह गया है । और अभी जो कुछ हमने किया है वो तो ग़ज़ल का केवल एक प्रतिशत है 99 प्रतिशत तो आगे आना है ।
आज हम काफिये को विराम दे रहे हैं तो एक बार विस्‍तृत विश्‍लेषण कर लिया जाए । हां एक बात और कुछ छात्र जैसे अभिनव, अनूप, रोहिला, आदि काफी कक्षओं में अनुपसथित रहे हैं ।
काफिया वही है जो कि ग़ज़ल की जान है और अक्‍सर हम ग़ल़ती भी क़ाफियाबंदी में ही करते हैं । ग़लत काफिया पूरी ग़ज़ल को ख़त्‍म कर देता है । क़ाफिया दोहराना भी ठीक नहीं होता है ।
अभी तक हमने जो काफिये देखे उनके एक एक उदाहरण के साथ हम काफिया समापन करेंगें
1: सामान्‍य केवल शब्‍दों का काफिया
मंजि़ले इश्‍क़ में हस्‍ती से गुज़र जाना था
तुमको जीने की तमन्‍ना है तो मर जाना था
यहां पर केवल धर, घर, हुनर, उतर जैसे शब्‍दों के ही काफिये लाने होंगें । हां एक बात जो ध्‍यान में रख्‍ना है वो ये है कि हर शब्‍द का अंत अक्षर र के साथ हो ये बात है शब्‍दों के काफिये की ।
2: मात्रा आ का काफिया
शाम से रास्‍ता तकता होगा
चांद खिड़की में अकेला होगा

यहां पर आ की मात्रा ही काफिया है अब जो भी होगा वो आ की मात्रा का ही होगा । चेहरा, बेटा जैसे काफिये लिये जा सकते हैं ।

3: मात्रा आ मगर किसी खास अक्षर के साथ ही संयुक्‍त होकर
जाम आंखों से सरे महफिल पिलाया जाएगा
मयकशी का दोष रिंदों पर लगाया जाएगा
अब यहां पर जो अंतर है वो ये है कि आपने आ की मात्रा को मतले में य के साथ सुयुक्‍त करके लिया है अत: आपको अब इस बंदिश का पालन करना है और उठाया, गिराया, चलाया जैसे काफिये तलाश करने हैं ।
4: आ की मात्रा किसी खास अक्षर के साथ तथा पूर्व में भी कोई खास अक्षर
धुंआ इतना पसरता जा रहा है
चमन बेरंग करता जा रहा है
यहां पर त वो अक्षर है जो आ की मात्रा के साथ संयुक्‍त हो रहा है किंतु एक बात और जो हो रही है वो ये है कि पूर्व में र की आवृति हो रही है मतले में अत: आपको लेना होगा र फिर त और फिर आ की मात्रा । मसलन बिखरता, मुकरता, मरता आदि ।
5: मात्रा आ का काफिया मगर अं की बिंदी के साथ

ज़ज्‍़बों के अक्‍़स मंज़रे इम्‍कां में रह गए
बिखरे हुए गुलाब शबिस्‍तां में रह गए

यहां पर भी आ ही है पर अं के साथ संयुक्‍त होकर आ रहा है । अत: काफिये भी वैसे ही रहेंगें गिरहबां, जां, हां ज्‍ौसे काफिये तलाश करें क्‍योंकि आपको अं के साथ सुयुक्‍त करना है ।

6: मात्रा आ का काफिया अं की बिंदी के साथ्‍ा किंतु किसी एक ही अक्षर के साथ संयुक्‍त होकर
जाने अब शख्‍स वो कहां होगा
खुश ही होगा मगर जहां होगा
यहां पर है तो आ की मात्रा और वो भी अं की बिंदी के साथ ही किंतु केवल ह अक्षर के साथ ही संयुक्‍त होने की बंदिश है । मसलन यहां, वहां, जहां, कहां, आदि।
7: मात्रा ई का काफिया

जमाने से न पूछूंगा न अपने जी से पूछूंगा

मुहब्‍बत क्‍या है तेरे हाथ की मेंहदी से पूछूंगा

यहां पर केवल ई की ही बंदिश है क्‍योंक‍ि मतले में जी और दी का मिलान किया है अत: शाइर ने अपने को स्‍वतंत्र कर लिया है कुछ भी काफिया लेने के लिये मसलन नदी किसी आदि

8 : ई का काफिया पर किसी खास अक्षर की बंदिश के साथ ही
जिन्‍दगी माना हबाबी फूल सी खिलती तो है

बेवफा होते हुए भी बावफा लगती तो है

इसमें आपने ई की मात्रा को त के साथ काफिया बनाया है अत: रहती, चलती, कटती जैसे काफिये तलाश करें ।

9 : मात्रा ई का काफिया मगर दोहराव के साथ

जिन्‍दगी माना हबाबी फूल सी खिलती तो है

धूप है तो साथ मेरे छांव भी चलती तो है

यहां पर आपने मतले में दोहराव कर के अपने काफिया को लती कर लिया है अब आपको चलती, ढलती, खिलती, जैसे काफिये तलाश करने पड़ेगें ।

10: मात्रा ई अं की बिंदी के साथ

उसको मुझपे कभी यक़ीं होगा
और फिर फासला नहीं होगा
यहां पर वही ई की मात्रा है पर अं की बिंदी की बंदिश है अत: उसका ध्‍यान रखें ।
11: मात्रा ई अं के साथ तथा एक ही अक्षर की बंदिश के साथ
वो किसीका भी और कहीं होगा
पर वो मेरा कभी नहीं होगा
यहां पर सबसे मुश्किल काफियाबंदी है ह के साथ ई की मात्रा और साथ में अं की बिंदी । नहीं, कहीं, वहीं जैसे मुश्किल काफिया तलाशने होंगें ।
चलिये आज केवल आ और ई को ही लेते हैं कल ए, ओ, उ को लेकर मामला हल कर लेंगें ।
कुछ अच्‍छे शे'र कहीं पढ़े आपको भी सुना रहा हूं
जनाब मुनव्‍वर राना साहब ने लिखा है
मुख़ालिफ़ सफ़ (विरोधी पंक्ति) भी ख़ुश होती है लोहा मान लेती है
ग़ज़ल का शे'र अच्‍छा हो तो दुनिया मान लेती है
मुहब्‍बत करते जाओ बस यही सच्‍ची इबादत है
मुहब्‍बत मां को भी मक्‍का मदीना मान लेती है
अमीर-ए-शहर का रिश्‍ते में कोई कुछ नहीं लगता
ग़रीबी चांद को भी अपना मामा मान लेती है
फिर उसको मर के भी ख़ुद से जुदा होने नहीं देती
ये मिट्टी जब किसी को अपना बेटा मान लेती है

गुरुवार, 20 सितंबर 2007

वो दिन कितने अच्छे थे, जब लोग खटके से बिजली जलाते थे,सड़क पर चलते थे, नाली में गंदा पानी बहाते थे, और नल से पानी लेते थे माड़साब क्या ऐसा फिर नहीं होगा

खामोश स्कूल सड़क पर है
व्यंग्य ( पंकज सुबीर)
स्थान : एक छोटा कस्बा
काल : सन्‌ २०१०
माड़साब : एक अध्यापक
भेनजी : एक अध्यापिका
गोलू, ढोलू, टुन्नी, टिकुली, झोंपू आदि:स्कूली बच्चे

पर्दा उठता है
एक पुरूष और एक स्त्री कुछ बच्चों को लेकर आते हुए नजर आते है, पार्श्व में गीत बज रहा है ''आओ बच्चों तुम्हें दिखाऐं झाँकी हिन्दुस्तान की''।
गोलू:माड़साब आज आप हम लोगों को लेकर कहाँ जा रहे हैं? आज स्कूल में क्यों नहीं पढ़ा रहे ?
माड़साब :बेटा आज हम आपको अपने कस्बे की सैर कराऐंगे इससे आप लोगों का ज्ञान बढ़ेगा (मन ही मन कहते है - वैसे भी स्कूल में पढ़कर कौन कलेक्टर बन जाओगे) सब बच्चे भेनजी का हाथ पकड़कर चलो।
झोंपू:माड़साब ये इधर एक झाड़ी के अंदर सूखे-सूखे पेड़ क्यों खड़े है?
माड़साब :बेटा ये पार्क होता था, पुराने जमाने में बच्चे इसमें खेलने आते थे, जब हम तुम्हारी उम्र के थे तब हम झंई पे खेलने आते थे।
गोलू:(उत्साह में) माड़साब हम भी जाऐं खेलने ?
माड़साब :नहीं कोई नहीं जाएगा यह पार्क अब पुरातत्व वालों के पास है और खोज की जा रही है, के इसका मोहनजोदड़ों और हड़प्पा से क्या संबंध है?
टिकुली :भेनजी ये चलते चलते रास्ते में कुछ काले-काले निशान जमीन पर नजर आते हैं, ये काहे के हैं ?
भेनजी :बेटा ये सड़क के निशान है ?
सब बच्चे (समवेत स्वर में) : सड़क . . . ? वो क्या होती थी ?
भेनजी :पुराने जमाने में जमीन को चलने लायक बनाने के लिए उस पर पत्थर डामर वगैरह बिछाकर सड़क बनाते थे।
टुन्नी :भेनजी क्या उस पर कीचड़ नहीं होती थी ? और धूल भी नहीं उड़ती थी ?
माड़साब :नहीं बेटा उस पर ना तो कीचड़ होती थी और ना ही धूल उड़ती थी, इधर से उधर तक वो बिल्कुल एक समान होती थी।
ढोलू:तो फिर माड़साब इतनी अच्छी चीज आजकल क्यों नहीं बनाई जाती देखिए सारे शहर में धूल ही धूल उड़ती रहती है, मैं स्कूल से घर जाता हूँ, तो माँ पहले मेरा मुंह झटकार कर देखती हैं, कि मैं ही हूँ या और कोई है ?।
भेनजी :बेटा सड़क तो अब भी बनाई जाती है, पर अब की सड़कें जादू की सड़कें होती हैं।
सब बच्चे (समवेत स्वर में) : जादू की सड़कें . . . . ? भेनजी और बताओ न . . .।
भेनजी :देखो बच्चों ये सड़के जो आजकल बनाई जाती हैं इन्हें बनाने में पहले जितना खर्च नहीं होता, ना ही उतना समय लगता है, ये कागज पर बनाई जाती हैं, इसीलिये इन्हें जादू की सड़कें कहा जाता है।
टुन्नी :पर भेनजी ये कागज की सड़कें दिखाई तो देती ही नहीं हैं ?
माड़साब :बेटा जादू की चीज भी कभी दिखाई देती है, ये तो केवल दो लोगों को दिखाई देती है, बनाने वाले को और बनवाने वाले को।
टिंकुली :माड़साब ये रास्ते के किनारे-किनारे कहीं कहीं कुछ गीली-गीली सी जमीन काहे की है ?
माड़साब :बेटा ये भी पुराने जमाने में सड़क के किनारे-किनारे बनाई जाती थी, इसे नाली कहते थे इसमें गंदा पानी बहा करता था।
टिंकुली :सारा गंदा पानी बह जाता था ?
माड़साब :हाँ . . . . . सारा . . .!
टिंकुली :फिर माड़साब उस जमाने में सूअर कहाँ तैरा करते थे? क्या उनके लिए अलग से स्वीमिंग पुल बनाते थे।
माड़साब :(कोई जवाब नहीं सूझता है) चलो-चलो बच्चो आगे चलो देर हो रही है?
झोंपू :(उत्साह से) भेनजी-भेनजी देखो ये क्या है? कांच की गोल गेंद? (सब बच्चे रूक जाते हैं)।
भेनजी :नहीं-नहीं झोंपू ये गेंद नहीं है, यह तो बल्ब है पुराने जमाने में यह बिजली से जलता था।
सब बच्चे:(समवेत स्वर में आश्चर्य से) बिजली . . . ? भेनजी-भेनजी वो क्या होती थी हमें उसकी कहानी सुनाओ ना ।
माड़साब :देखो बच्चों जैसे आजकल हम मोमबत्ती, लालटेन वगैरह जलाते हैं ना, वैसे ही पहले बिजली से उजाला होता था, एक खटका दबाते ही चारों तरफ उजाला हो जाता था।
गोलू :सच माड़साहब ! एक खटका दबाते ही उजाला हो जाता था, कितना मजा आता होगा, फिर तो ना मोमबती जलाने की चिंता, ना लालटेन का तेल खतम होने का डर।
भेनजी :हाँ बच्चों बिजली बहुत अच्छी चीज थी, हमारे स्कूल के पीछे जो काँच के कुछ डंडे पड़े हैं ना उन्हें ट्यूब लाइट कहते थे, वो भी बिजली से जलते थे।
टुन्नी :भेनजी फिर ये बिजली चली कहां गई ?
माड़साहब :बच्चों ये तो कोई भी नहीं जान पाया के वो बिजली कहाँ चली गई, पर लोग कहते हैं कि अपने आप को मुफ्त में वितरित होता देख वह नाराज हो गई, और धरती में समा गई, पर ये सब कहानियाँ हैं इनका कोई प्रमाण नहीं है।
टिंकुली :हाँ माड़साहब तभी मेरी दादी कहती हैं कि हमारे जमाने में तो रात को भी उजाला रहता था, जरूर यह सब बिजली से ही होता होगा, माड़साब अगर ये बिजली इत्ते काम की चीज थी, तो लोगों ने इसे ढूँढ़ा क्यों नहीं।
माड़साब :ढूँढ़ा था बेटा बहुत ढूँढ़ा मगर वो नहीं मिली ।
झोंपू :माड़साब वो दिन कितने अच्छे थे, जब लोग खटके से बिजली जलाते थे,सड़क पर चलते थे, नाली में गंदा पानी बहाते थे, और नल से पानी लेते थे माड़साब क्या ऐसा फिर नहीं होगा ?।
माड़साब :(ऊपर की और मुंह करके बुदबुदाते हैं) होगा बच्चों शायद ऐसा फिर होगा।
ऊपर की और देखकर चलते माड़साब एक गड्ड़े ये गिर जाते है उनके कूल्हे की हड्डी टूट जाती है, वे हाय-हाय करने लगते हैं।
भेनजी :(कुछ परेशान होते हुए) क्या माड़साब बच्चो के बीच बच्चे बनकर, अपने बचपन का सड़क वाला शहर समझ रहे हैं, ये गड्ढ़े वाला शहर है। ऊपर मुँह करके चलोगे तो ऐसा ही होगा। चलो बच्चो माड़साब को उठाओ।
बच्चे माड़साब को झटकार कर उठाते हैं और उठाकर चल देते हैं, समवेत स्वरों में गाना गाते हैं जो क्रमशः मद्धम होता जाता है। ''हम लाए हैं गड्ढे से माड़साब को निकाल के,इन गड्ढ़ो में रखना जरा कदम संभाल के . . . .।''
परदा गिरता है।

बुधवार, 19 सितंबर 2007

कभी मंदिर पे जा बैठे कभी मस्जि़द पे जा बैठे, एक हिंदू दंपति की कहानी जो रमज़ानों में हो जाते हैं पूरी तरह से मुस्लिम रखते है रोजे और पढ़ते हैं नमाज़

मंदिर मस्जिद का झगड़ा करने वाले एक बार नरोलिया दंपति से आकर मिल लें । धर्म को लेकर होने वाले हर झगड़े के पीछे कारण होता है कि हर व्यक्ति अपने धर्म को श्रेष्ठ और दूसरे के धर्म को कमतर आँकता है । लेकिन सीहोर के नरोलिया दंपति की सोच इससे कुछ अलग हटकर है ।सीहोर के गंज निवासी श्री रामप्रकाश नरोलिया तथा उनकी पत्नी श्रीमती जयश्री नरोलिया का मानना है कि सभी धर्म अपनी जगह पर श्रेष्ठ हैं । तभी तो वे पवित्र रमजान के पूरे माह में हिन्दू होने के बाद भी रोजे रखते हैं । रोजे तो वैसे कई हिन्दू रखते हैं लेकिन रामप्रकाश नरोलिया न केवल रोजे रखते हैं बल्कि इस दौरान पाँच वक्त की नमाज भी अदा करते हैं । इस दंपति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि एसा नहीं है कि रामप्रकाश से शादी होने के बाद जयश्री ने रोजे रखना प्रारंभ किया है , शादी से पहले से ही रामप्रकाश रोजे रखते थे और जयश्री भी अपने मायके में रोजे रखती थीं । रामप्रकाश तथा जयश्री रमजान के दौरान पूर्णतः मुस्लिम रीति रिवाजों का पालन करते हैं , इस दौरान उन्हें देखकर कहा भी नहीं जा सकता कि ये दंपति हिन्दू है । एक विशेष बात और यह है कि सीहोर की कोई मस्जिद एसी नहीं है जहाँ रामप्रकाश ने नमाज अदा नहीं की हो । भोपाल में लगने वाले मुस्लिमों के धार्मिक समागम इज्तिमा' के दौरान भी रामप्रकाश भोपाल में ही तीनों दिन रहकर सारी नमाज अदा करते हैं । वैसे सामान्यतः रामप्रकाश के सर पर किसी भी हिन्दू की तरह हमेशा तिलक लगा हुआ मिलेगा उन्हें बिना तिलक के नहीं देखा जा सकता । सभी धार्मिक आयोजनों में भी सक्रिय भागीदारी रहेगी , केवल रमजान के दौरान ही वो सर पर तिलक नहीं लगाते हैं । पेशे से संविदा शिक्षक रामप्रकाश की एक और विशेषता उनकी कट्टर ईमानदारी है । सीहोर के नरोलिया दंपति द्वारा दिया जा रहा संदेश यदि सभी की समझ में आ जाए तो फिर शायद मजहब के नाम पर , मंदिर मस्जिद के नाम पर होने वाले दंगे, खून खराबे सब बंद हो जाऐं । और संदेश भी कितना छोटा सा है ईश्वर अल्लाह तेरो नाम सबको सन्मति दे भगवान ''.........।

मंगलवार, 18 सितंबर 2007

तू मेरी बेबसी का हाल मुझसे पूछता क्‍या है, मेरी तक़दीर में ग़म के सिवा लिक्‍खा हुआ क्‍या है, बहुत ही ख़ौफ़ सा रहता है दिल मे ख़ुद की आहट का,..........

दो दिन से मध्‍य प्रदेश विद्युत मंडल आपके और मेरे बीच में आ रहा था और आज जब फिर से लिखने बैठा तो फिर वही हो गया । और मुझे पता नहीं कि दो लाइन का पोस्‍ट कैसे मेरे ब्‍लग पर आ गया । खैर मेरे गुरू कहते थ्‍ो कि अगर किसी काम के करने में कठिनाइयां आ रहीं हैं तो एक बात समझ लो कि ज़रूर वो अच्‍छा काम हैं क्‍योंकि आप जब अच्‍छा काम करते हैं तो ही कठिनाइयां आती हैं । बुरा काम करने में तो कोई कष्‍ट नहीं होता है । उस पर हमारा विद्युत मंडल तो वैसे भी एम (मरा) पी (पड़ा) इ ( इलेक्ट्रिसिटी ) बी ( बोर्ड) है ।

चलो आज कुछ मात्राओं की बात की जाए कि कैसे ऐसा हो जाता है कि कोई दीर्घ मात्रा लघु हो जाती है और दो लघु मात्राएं मिलकर दीर्घ हो जाती हैं । दरअसल में ग़ज़ल में असल खेल तो बस ये ही है ।

चलिये कुछ क्रमांक के हिसाब से बात करें ताकि आसानी रहे

क्रमांक 1 :- दो लघु मिलकर दीर्घ हो जाना

ये हमेशा नहीं होता है पर जहां पर उच्‍चारण में ऐसा हो रहा हो कि दो लघु एक साथ बोले जा रहे हों और दीर्घ की ध्‍वनि उत्‍पन्‍न कर रहे हों वहां पर उन दोनों को एक दीर्घ मान लिया जाता है ।

जान लें कि तुम, हम, दिल, कब, अब, जिस, कर, पर, मिल, खिल, जैसे शब्‍दों को दो लघु नहीं कहा जाता बल्कि एक दीर्घ में गिना जाएगा । जैसे 'मुझसे' में 'मुझ' जो है वो एक दीर्घ है और 'से' पुन: एक दीर्घ अत: मुझसे को दो दीर्घ में गिना जाएगा । हां उच्‍चारण के हिसाब से कभी कभी बाद का जो से है वो गिर कर एक लघु हो सकता है ।

क्रमांक 2 :- दीर्घ का उच्‍चारण में गिरकर लघु हो जाना

आपने देखा होगा कि ग़ज़ल में अक्‍सर 'मेरी' या 'तेरी' को 'मिरी', 'तिरी' लिखा जाता है ये दरअस्‍ल में उच्‍चारण के चलते होता है । बात बहुत सीधी है कि जैसी ज़रूरत हो वहां पर वैसा कर लो । चाहे तो अगर आपको ग़ज़ल में दो दीर्घ एक के बाद एक लग रहे हों तो कहिये 'मेरी' अर्थात दो दीर्घ । अगर एक लघु और एक दीर्घ की ज़रूरत हो तो कहिये 'मिरी' अर्थात एक लघु और फिर एक दीर्घ । कई बार तो एसा भी होता है कि पूरा का पूरा शब्‍द 'और' (एक दीर्घ और फिर एक लघु ) को केवल एक दीर्घ की जगह पर उपयोग करते हैं मगर उच्‍चारण करते समय उसे 'और' न कह कर 'उर' कहते हैं अगर कोई उर कह रहा है तो समझ लिया जाता है कि एक दीर्घ की जगह पर और को लगाया जा रहा है । सबसे ज्‍़यादा जो गिरते हैं वो होते हैं मैं, में, वो, तो, जो, ये इस रतह के शब्‍द इनका कुछ भरोसा नहीं होता कि कब ये दीर्घ हो जाएं और कब लघु ।एक ग़ज़ल है

तू मेरी बेबसी का हाल मुझये पूछता क्‍या है

मेरी तक़दीर में ग़म के सिवा लिक्‍खा हुआ क्‍या है

इसका वज्‍़न है

ललालाला-ललालाला-ललालाला-ललालाला

या

मुफाईलुन-मुफाईलुन-मुफाईलुन-मुफाईलुन

या

लघुदीर्घदीर्घदीर्घ-लघुदीर्घदीर्घदीर्घ-लघुदीर्घदीर्घदीर्घ-लघुदीर्घदीर्घदीर्घ

या

1222-1222-1222-1222

अब कहने को तो मैंने कह दिया कि 1222 मगर देखा जाए तो शुरूआत ही तू से हो रही है अर्थात दीर्घ सक मगर ये दीर्घ बिचारा गिर गुरा के हो गया है लघु और उच्‍चारण में इसको यूं शुरू किया जाएगा

'तु मेरी बेबसी का हाल.......

तु होने के कारण ही ये हो गया है लघु एक मज़ेदार बात देखें जो कि आपको ग़ज़ल की स्‍वतंत्रता समझने में मदद करेगी ऊपर का ही शे'र है तू मेरी बेबसी का हाल मुझसे पूछता क्‍या है, मेरी तक़दीर में ग़म के सिवा लिक्‍खा हुआ क्‍या है
अब मिसरा उला ( पहली पंक्ति) में 'मेरी' का वज्‍़न है 22 दीर्घदीर्घ क्‍योंकि वहां पर फाई है दो दीर्घ ही चाहिये । अब देखें मिसरा सानी (दूसरी पंक्ति ) इसमें मेरी से शुरूआत हो रही है और यहां पर इस मेरी का वज्‍़न हो गया है 12 लघु दीर्घ क्‍योंकि मुफा की आवशयकता है । ये गज़ल आज मैंने इस लिये ही ली है कि आपको शब्‍दों का खेल समझ में आ सके ।
ग़ज़ल को तोड़ कर पढें
तु मेरी बे -मुफाईलुन-ललालाला
बसी का हा - मुफाईलुन-ललालाला
ल मुझसे पू - मुफाईलुन-ललालाला
छता क्‍या है -मुफाईलुन-ललालाला
यहां एक और बात देखें कि 'क्‍या' को यहां पर एक दीर्घ माना जा रहा है ऐसा क्‍यो हो रहा है ये क्रमांक तीन में देखेंगें।
क्रमांक 3 :- आधे अक्षरों का पास वाले में मिल जाना
बात वही है जो ऊपर कही है कि आधा अक्षर कभी कभी अपने से पास वाले में मिल कर उसे एक ही कर देता है । जैसे क्‍या अब वैसे तो उसमें आधा क्‍ है पर उच्‍चारण करते समय इसको का पढ़ा जाता है अर्थात एक दीर्घ । ऐसा अक्‍सर होता है जैसे तुम्‍हारे में होता है तु म्‍हा रे 122 या 121 अब इसमें आधा म्‍ मिल गया हा के साथ ।
इसी में तेरी जन्‍नत है इसी में तेरी दोज़ख़ है
ज़मीं को छोड़कर आखि़र ख़ला में ढूंढता क्‍या है

अब यहां पर जन्‍नत में हो गया है जन्‍ और नत अर्थात दो दीर्घ 22
एक और मज़ेदार बात देखें मिसरा ऊला में दो बार तेरी आया है दोनो ही बार उसका वज्‍़न है 21 अर्थात मेरी या तेरी को आप 22, 12, 21 इनमें से चाहे जो भी वज्‍़न दे सकते हैं वो आप पर निर्भर है कि आपको क्‍या चाहिये । मिरी 12, मेरी 22, मेरि 21 ये स्‍वतंत्रता ही ग़ज़ल को लोकप्रिय बनाती है ।
वफा दुश्‍मन अनासिर से तिरा झगड़ा है क्‍या स्‍वामी
तू उस पर तंज करता क्‍यूं है आखिर माज़रा क्‍या है
यहां पर तिरा हो गया है ।
अब शायद कुछ वज्‍़न समझने में आपको आसानी हो हम कुछ दिन अब कफिया छोड़कर वज्‍़न पर ही चलेंगें फिर वापस काफिये पर आएंगें ।



चांद कश्‍ती की तरह रात समंदर की तरह

दो दिन से मध्‍य प्रदेश विद्युत मंडल आपके और मेरे बीच में आ रहा था और आज जब फिर से लिखने बैठा तो फिर वही हो गया । और मुझे पता नहीं कि दो लाइन का पोस्‍ट कैसे मेरे ब्‍लग पर आ गया । खैर मेरे गुरू कहते थ्‍ो कि अगर किसी काम के करने में कठिनाइयां आ रहीं हैं तो एक बात समझ लो कि ज़रूर वो अच्‍छा काम हैं क्‍योंकि आप जब अच्‍छा काम करते हैं तो ही कठिनाइयां आती हैं । बुरा काम करने में तो कोई कष्‍ट नहीं होता है । उस पर हमारा विद्युत मंडल तो वैसे भी एम (मरा) पी (पड़ा) इ ( इलेक्ट्रिसिटी ) बी ( बोर्ड) है । चलो आज कुछ मात्राओं की बात की जाए कि कैसे ऐसा हो जाता है कि कोई दीर्घ मात्रा लघु हो जाती है और दो लघु मात्राएं मिलकर दीर्घ हो जाती हैं । दरअसल में ग़ज़ल में असल खेल तो बस ये ही है । चलिये कुछ क्रमांक के हिसाब से बात करें ताकि आसानी रहे क्रमांक 1 :- दो लघु मिलकर दीर्घ हो जाना ये हमेशा नहीं होता है पर जहां पर उच्‍चारण में ऐसा हो रहा हो कि दो लघु एक साथ बोले जा रहे हों और दीर्घ की ध्‍वनि उत्‍पन्‍न कर रहे हों वहां पर उन दोनों को एक दीर्घ मान लिया जाता है । जान लें कि तुम, हम, दिल, कब, अब, जिस, कर, पर, मिल, खिल, जैसे शब्‍दों को दो लघु नहीं कहा जाता बल्कि एक दीर्घ में गिना जाएगा । जैसे 'मुझसे' में 'मुझ' जो है वो एक दीर्घ है और 'से' पुन: एक दीर्घ अत: मुझसे को दो दीर्घ में गिना जाएगा । हां उच्‍चारण के हिसाब से कभी कभी बाद का जो से है वो गिर कर एक लघु हो सकता है । क्रमांक 2 :- दीर्घ का उच्‍चारण में गिरकर लघु हो जाना आपने देखा होगा कि ग़ज़ल में अक्‍सर 'मेरी' या 'तेरी' को 'मिरी', 'तिरी' लिखा जाता है ये दरअस्‍ल में उच्‍चारण के चलते होता है । बात बहुत सीधी है कि जैसी ज़रूरत हो वहां पर वैसा कर लो । चाहे तो अगर आपको ग़ज़ल में दो दीर्घ एक के बाद एक लग रहे हों तो कहिये 'मेरी' अर्थात दो दीर्घ । अगर एक लघु और एक दीर्घ की ज़रूरत हो तो कहिये 'मिरी' अर्थात एक लघु और फिर एक दीर्घ । कई बार तो एसा भी होता है कि पूरा का पूरा शब्‍द 'और' (एक दीर्घ और फिर एक लघु ) को केवल एक दीर्घ की जगह पर उपयोग करते हैं मगर उच्‍चारण करते समय उसे 'और' न कह कर 'उर' कहते हैं अगर कोई उर कह रहा है तो समझ लिया जाता है कि एक दीर्घ की जगह पर और को लगाया जा रहा है । सबसे ज्‍़यादा जो गिरते हैं वो होते हैं मैं, में, वो, तो, जो, ये इस रतह के शब्‍द इनका कुछ भरोसा नहीं होता कि कब ये दीर्घ हो जाएं और कब लघु ।एक ग़ज़ल है तू मेरी बेबसी का हाल मुझये पूछता क्‍या है मेरी तक़दीर में ग़म के सिवा लिक्‍खा हुआ क्‍या है इसका वज्‍़न है ललालाला-ललालाला-ललालाला-ललालाला या मुफाईलुन-मुफाईलुन-मुफाईलुन-मुफाईलुन या लघुदीर्घदीर्घदीर्घ-लघुदीर्घदीर्घदीर्घ-लघुदीर्घदीर्घदीर्घ-लघुदीर्घदीर्घदीर्घ या 1222-1222-1222-1222 अब कहने को तो मैंने कह दिया कि 1222 मगर देखा जाए तो शुरूआत ही तू से हो रही है अर्थात दीर्घ सक मगर ये दीर्घ बिचारा गिर गुरा के हो गया है लघु और उच्‍चारण में इसको यूं शुरू किया जाएगा 'तु मेरी बेबसी का हाल....... तु होने के कारण ही ये हो गया है लघु एक मज़ेदार बात देखें जो कि आपको ग़ज़ल की स्‍वतंत्रता समझने में मदद करेगी ऊपर का ही शे'र है तू मेरी बेबसी का हाल मुझसे पूछता क्‍या है, मेरी तक़दीर में ग़म के सिवा लिक्‍खा हुआ क्‍या है अब मिसरा उला ( पहली पंक्ति) में 'मेरी' का वज्‍़न है 22 दीर्घदीर्घ क्‍योंकि वहां पर फाई है दो दीर्घ ही चाहिये । अब देखें मिसरा सानी (दूसरी पंक्ति ) इसमें मेरी से शुरूआत हो रही है और यहां पर इस मेरी का वज्‍़न हो गया है 12 लघु दीर्घ क्‍योंकि मुफा की आवशयकता है । ये गज़ल आज मैंने इस लिये ही ली है कि आपको शब्‍दों का खेल समझ में आ सके । ग़ज़ल को तोड़ कर पढें तु मेरी बे -मुफाईलुन-ललालाला बसी का हा - मुफाईलुन-ललालाला ल मुझसे पू - मुफाईलुन-ललालाला छता क्‍या है -मुफाईलुन-ललालाला यहां एक और बात देखें कि 'क्‍या' को यहां पर एक दीर्घ माना जा रहा है ऐसा क्‍यो हो रहा है ये क्रमांक तीन में देखेंगें। क्रमांक 3 :- आधे अक्षरों का पास वाले में मिल जाना बात वही है जो ऊपर कही है कि आधा अक्षर कभी कभी अपने से पास वाले में मिल कर उसे एक ही कर देता है । जैसे क्‍या अब वैसे तो उसमें आधा क्‍ है पर उच्‍चारण करते समय इसको का पढ़ा जाता है अर्थात एक दीर्घ । ऐसा अक्‍सर होता है जैसे तुम्‍हारे में होता है तु म्‍हा रे 122 या 121 अब इसमें आधा म्‍ मिल गया हा के साथ । इसी में तेरी जन्‍नत है इसी में तेरी दोज़ख़ है ज़मीं को छोड़कर आखि़र ख़ला में ढूंढता क्‍या है अब यहां पर जन्‍नत में हो गया है जन्‍ और नत अर्थात दो दीर्घ 22 एक और मज़ेदार बात देखें मिसरा ऊला में दो बार तेरी आया है दोनो ही बार उसका वज्‍़न है 21 अर्थात मेरी या तेरी को आप 22, 12, 21 इनमें से चाहे जो भी वज्‍़न दे सकते हैं वो आप पर निर्भर है कि आपको क्‍या चाहिये । मिरी 12, मेरी 22, मेरि 21 ये स्‍वतंत्रता ही ग़ज़ल को लोकप्रिय बनाती है । वफा दुश्‍मन अनासिर से तिरा झगड़ा है क्‍या स्‍वामी तू उस पर तंज करता क्‍यूं है आखिर माज़रा क्‍या है यहां पर तिरा हो गया है । अब शायद कुछ वज्‍़न समझने में आपको आसानी हो हम कुछ दिन अब कफिया छोड़कर वज्‍़न पर ही चलेंगें फिर वापस काफिये पर आएंगें ।

शनिवार, 15 सितंबर 2007

जला है जिस्‍म जहां दिल भी जल गया होगा, कुरेदते हो जो अब राख जुस्‍तजू क्‍या है, हरेक बात पे कहते हो तुम के तू क्‍या है तुम्‍हीं कहो के ये अंदाज़े गुफ्त

हरेक बात पे कहते हो तुम के तू क्‍या है
तुम्‍हीं कहो के ये अंदाजे गुफ्तगू क्‍या है
रगों में दौड़ते फिरने केहम नहीं कायल
जब आंख ही से न टपका तो फिर लहू क्‍या है
ग़ालिब की ये ग़ज़ल शायद ग़ज़ल को समझने का सबसे अच्‍छा उदाहरण है । मैंने पहले ही कहा है कि ग़ज़ल का मतलब होता है बातचीत करना । हालंकि इसको महबूबा के साथ बातचीत करना भी कहते हैं पर मेरे खयाल से तो इसको बातचीत करना ही कहा जाएगा ( वैसे भी आजकल महबूबा-वेहबूबा का झंझट नई पीढ़ी के पास है भी कहां ) । और इस ग़ज़ल को अगर देखा जाए तो ये सबसे अच्‍छा उदाहरण है बातचीत का कितनी आसानी के साथ ग़ालिब ने अपनी शिकायत दर्ज करवाई है 'हरेक बात पे कहते हो तुम के तू क्‍या है ' मतलब कोई है जो हर बार उनसे कह रहा है कि चला चल तू है क्‍या । दूसरा मिसरा है ' तुम्‍हीं कहो के ये अंदाज़े ग़ुफ्तगू क्‍या है ' अंदाज़े गुफ्तगू मतलब बात करने का अंदाज़ ।
बस इसी ग़ज़ल को ध्‍यान में रखकर ग़ज़ल कहें जितनी सादगी इस ग़ज़ल में है उतनी मुझे किसी और में नहीं मिलती है । इस मतले में सबसे बड़ी जो विशेषता है वो ये है कि इसमें बला की मासूमियत है, ग़ज़ब का भोलापन है और ये भोलापन, मासूमियत और सादगी ही तो ग़ज़ल की जान होती है ।
किसी ने कहा भी है
ग़ज़ल को ले चलो अब गांव के दिलकश नज़ारों में
मुसलसल फ़न का दम घुटता है इन अदबी इदारों में
तो बात वही है कि
अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए
इसी ग़ज़ल को मैं ग़ज़ल के लिये भी मानता हूं कि अब ग़ज़ल को एक नइ हवा की ज़रूरत है और वो हवा ख़ुली हवा ही होगी ।
चलो तो आज बात करते हैं की ।
ऊपर ग़ालिब जी का जो शे'र मैंने लिया है वो भी ऊ का ही उदाहरण है । तू क्‍या है में की मात्रा बन रही है क़ाफिया और क्‍या है बन गया है रद्दीफ़ । तू, जुस्‍तजू, आबरू, रफू, जैसे क़ाफिये ग़ालिब साहब ने निकाले हैं । और शे'र तो ऐसे निकाले हैं कि क्‍या कहना
वो चीज़ जिसके लिये हमको हो बहिश्‍त अजीज़
सिवाए बादाए-ग़ुलफा़मे-मुश्‍कबू क्‍या है
यहां जाने लें कि अज़ीज़ का मतलब होता हैं प्रिय और बहिश्‍त कहा जाता है स्‍वर्ग को, एक लंबा संयुक्‍त शब्‍द भी आया है बादाए-गुलफामे-मुश्‍कबू इसका अर्थ होता है ऐसी शराब जिसमें फूलों को रंग हो और कस्‍तूरी की सुगंध हो । मतलब कितनी आसानी से ग़ालिब कह रहे हैं कि स्‍वर्ग को भी अगर मैं पसंद करता हूं या वहां पर जाना चाहता हूं तो उसके पीछे केवल एक ही कारण है और वो ये कि वहां पर फूलों के रंग वाली और कस्‍तूरी की गंध वाली शराब पीने को मिलेगी वरना तो स्‍वर्ग में है ही क्‍या । अगर इस शे'र की व्‍याख्‍या की जाए तो पूरा दिन इस पर लेक्‍च्‍ार दिया जा सकता है । कितनी आसानी से स्‍वर्ग के होने और उसके लालच को शाइर ठुकरा रहा है ।
खैर आज तो का दिन है तो वापस ऊ पर ही आते हैं । ऊ के लिये भी नियम वही हैं जो ई के लिये थे । मगर एक बात जान लें कि ऊ काफिये के साथ शे'र बहुत अच्‍छे निकलते हैं और वोइसलिये कि ऊ के क़ाफिये बहुत सुंदर हैं । और अगर ध्‍वनि की बात की जाए साउंड की बात की जाए तो ऊ में नाद होता है ऊ ही आगे जाकर ओम बन जाता है । ऊ में जो नाद है वो उसको औरों से अलग कर देता है ।
ऊपर की ग़ालिब की ग़ज़ल कए तरह का उदाहरण है । चलिये अब एक और महान शाइर को दूसरे उदाहरण में देखते हैं
मिसरा कोई कोई कभू मौजूं करूं हूं मैं
किस ख़ुशसलीकगी से जिगर ख़ूं करूं हूं मैं
अब यहां पर बात कुछ बदल गई है पहले तो मैं आपको बता दूं कि ये बाबा-ए-गज़ल़ मीर तक़ी मीर साहब की ग़ज़ल है । मीर साहब जिनको पहला रोमांटिक शाइर कहा जाता है और कहा तो ये भी जाता है कि उनकी प्रेमिका कोई काल्‍पनिक सुंदरी थी ( याद करिये व्‍ही शांताराम की फिल्‍म नवरंग) ।
इस गज़ल में छात्र समझ ही गए हैं कि के साथ जो परिवर्तन हुआ है वो ये है कि के साथ अं की बिंदी संयुक्‍त हो गइ है । ये बताने की तो अब ज़रूरत नहीं होनी चाहिये कि करूं हूं मैं यहां पर रद्दीफ है और ऊं गया है क़ाफिया ।
उठता है बेदिमाग़ ही हरचन्‍द रात को
अफ़्साना कहते सैकड़ों अफ़्सूं करूं हूं मैं

हरचन्‍द का अर्थ है हालांकि और अफ़्सूं कहा जाता है जादू को । आज कुछ मुश्किल गज़ल़ इसलिये उठाई है कि सबसे अच्‍छा उदाहरण ये ही है ।
तो बात वही ई की मात्रा वाली ही है कि अगर आपने क़ाफिये में ऊ पर अं की बिंदी भी लगा दी है तो जान लें कि ये अं की बिंदी अब आपकी ब्‍याहता हो गई आपको अब इसे हर हाल में निभाना ही है कष्‍ट दे तो भी । और अगर अं की बिंदी नहीं ली है तो फिर कहीं नहीं लेना है
जैसे ऊपर मीर साहब ये भी कह सकते थे
अफ़्साना कहते सैकड़ों जादू करूं हूं मैं
जादू और अफ़्सूं का वज्‍़न समान ही है पर अं की बिंदी के कारण्‍ा जादू के पर्यायवाची अफ़्सूं को लाना पड़ा ।
मीर साहब की एक ग़ज़ल को यूं ही उदाहरण के लिये कह रहा हूं ऊ उसमें नहीं है पर भोलापन और मासूमियत ग़ज़ब की है ।
पूरी की पूरी ग़ज़ल आज के एसएमएस वालों के काम आ सकती है
क्‍या लड़के दिल्‍ली के हैं अय्यार और नटखट
दिल ले हैं यूं कि हरगि़ज होती नहीं है आहट
हम आशिकों के मरते क्‍या देर कुछ लगे है
चुट जिन ने दिल पे खाई वो हो गया है चटपट
दिल है जिधर को ऊधर कुछ आग सी लगी थी
उस पहलू हम जो लेटे जल जल गई है करवट
अब यहां देखें और बात करें उन लोगों से जो ग़ज़ल को बिलावजह ही मोटे मोटे शब्‍द डालकर दुश्‍वार बनाते हैं और कहते हैं कि जो पहली बार में ही समझ में आ जाए वो ग़ज़ल नहीं होती ।
चलिये वापस ऊ पर ही चलते हैं ये हमारी मात्राओं में आता है और इसीलिये इसको क़ाफिया बनाया जा सकता है ।
मास्‍साब की एक ग़ज़ल है
एक ठहरे शहर में अब कुछ शुरू क्‍या कीजिये
जम गया है धमनियों तक का लहू क्‍या कीजिये
मरमरी हाथों से उसने छू लिया चेहरा मेरा
बाद इसके और कुछ अब जुस्‍तजू क्‍या कीजिये
वक्‍़ते रुख़सत कह रहे हैं आज कुछ भी मांग लो
और मैं हैरत में हूं कि आरज़ू क्‍या कीजिये
झांकती ग़ुरबत हो जब चेहरे से ख़ुद ही तो भला
चादरों की और कमीजों की रफ़ू क्‍या कीजिये
'आप' से कहने लगे थे 'तुम' मुझे बेटे मेरे
'तुम' से वो कहने लगे हैं अब तो 'तू' क्‍या कीजिये
हालंकि ये मेरी बहुत पसंदीदा ग़ज़ल नहीं है फिर भी यहां इसलिये दे रहा हूं कि इसमें भी ऊ ही है ।
कल रविवार की छ़ट्टी है और होमवर्क में और ऊं का क़ाफिया है आज़माइश करें । और कुछ शे'र ज़रूर निकालें । काफी मेल मिल रही हैं काफी फोन भी आ रहें हैं यक़ीन जानिये कि मैं नहीं जानता था कि इतने लोग हैं जो ग़ज़ल से मुहब्‍बत करते हैं । मेल का जवाब देने में ही मुझे अब एक घंटा लग रहा है । अच्‍छा भी लग रहा है ब्‍लाग वाणी से मैथिल जी का फोन आया है और उनका कहना है कि इस ब्‍लाग को केवल ग़ज़ल के लिये ही समर्पित कर दो । मैं वैसा करने का प्रयास कर रहा हूं और अपने समाचारो को अलग ब्‍लाग बना दिया है । यहां पर केवल ग़ज़ल की ही बात करूंगा । उड़न तश्‍तरी ने एक बड़ी ही दिलजली टाइप की ग़ज़ल भेजी है ( फोटो से तो नहीं लगता ऐसे हैं ) आप उसे पिछले पोस्‍ट की टिप्‍पणी में पढ़ सकते हैं । उसमें प्रेमिका के भाईयों के हाथ्‍ा पांव तुड़वाने के लिये किराये के ग़ुंडे लाने की बात कही है । खैर आज ऊ है और आप हैं मैं फिर कह रहा हूं कि सबसे सुंदर का़फिया है इस पर अच्‍छे शे'र निकालने का प्रयास करें । जैरामजी की


शुक्रवार, 14 सितंबर 2007

संस्‍कृत निष्‍ठ क्लिष्‍ट और विशिष्‍ट नहीं हमें चाहिये जन जन की हिन्‍दी



संस्‍कृत निष्‍ठ क्लिष्‍ट और विशिष्‍ट नहीं हमें चाहिये जन जन की हिन्‍दी
पवन जैन ( आइ पी एस) प्रबंध संचालक म प्र पुलिस हाउसिंग कार्पोरेशन
aj हिन्‍दी दिवस है, इससे बड़ी विडम्‍बना किसी भी भाषा के लिये नहीं हो सकती कि आज़ादी के 60 साल बाद भी, संविधान में राजभाषा का दर्जा होने के बाद भी, हिन्‍दी को अपनों के बीच हिन्‍दी दिवस, हिन्‍दी सप्‍ताह और हिन्‍दी पखवाड़े की अपमानजनक वेदना से होकर गुज़रना पड़ता है । अतीत से लेकर वर्तमान तक ज्ञात दुनिया के इतिहास में शायद ही किसी मुल्‍क की अपनी मातृभाषा को इतने कड़े इम्‍तेहान से गुज़रना पड़ा हो । हमने कभी नहीं सुनाओ कि चीन में चीनी दिवस, इंग्‍लैंड में अंग्रेजी दिवस, जर्मनी में जर्मन दिवस और स्‍पेन में स्‍पेनिश दिवस मनाया गया हो पर हिन्‍दुस्‍तान में हिन्‍दी दिवस बिना नागा हर साल मनता है । संविधान निर्माताओं ने भारतीय संघ की राजभाषा बनाते समय कल्‍पना तो शायद यही की होगी कि धीरे-धीरे हिन्‍दी राष्‍ट्र भाषा काका दर्जा प्राप्‍त कर लेगी , पर हकीकत यही है कि न तो हिन्‍दी राज की भाषा बन पाई और न काज की । हर साल हमें हिन्‍दी दिवस इसी नंगी सच्‍चाई से रूबरु कराता है और हिन्‍दी दिवस पर हिन्‍दी का चिंतन भी ऐसी कवायद है जिसमें बीमारी जाने बिना इलाज की कोशिशें जारी हैं ।
यूं तो दुनिया में दूसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है हिन्‍दी पर लगता है हिन्‍दुस्‍तान में हिन्‍दी की बदहाली देखकर ही विश्‍व हिन्‍दी सम्‍मेलन का आयोजन भी अब सात समंदर पार कभी मारीशस, कभी त्रिनिदाद, कभी इंग्‍लैंड कभी सूरिनाम या फिर कभी न्‍यूयार्क में इसलिये हो रहा है कि आयोजाकों के मन में यह खयाल जागा होगा कि हिन्‍दी श्‍दि परदेस में सम्‍मानित होगी तो तो देश में भी हिन्‍दी के प्रति लोगों के दिलों खोया हुआ सम्‍मान जाग उठेगा । चाहे चिकित्‍सक डॉ हरगोविंद खुराना हों या वैज्ञानिक एस चन्‍द्रशेखर, ममतामयी कदर टेरेसा हों या अर्थशास्‍त्री अमर्त्‍य सेन हों । हमने उन्‍हें तभी सम्‍मान के काबिल समझा जब नोबल पुरुस्‍कार और दूसरी तमाम विदेशी संस्‍थाओं ने उन्‍हें सम्‍मान और शोहरत दी । आज भी लक्ष्‍मी निवास मित्‍तल, स्‍वराजपाल और हिन्‍दुजा जैसे भारतवंशी उद्योगपतियों और इंद्रा नूई तथा सुनिता विलियम्‍स जैसे प्रवासी प्रतिभाओं का वंदन, भारत के छोटे-बड़े अखबारों से लेकर जन जन तक इसलिये पहुच गया है क्‍योंकि उन्‍होंने अपनी सफलता के झंडे विदेशों में गाड़े हैं।
भारत में ही 50 करोड़ से भी अधिक लोग हिन्‍दी बोलते, लिखते और पढ़ते हैं । हिन्‍दी सिर्फ भारत में ही नहीं भारत के बाहर भी भारतवंशियों को जो जोड़ती है । नेपाल हो या मारिश्‍ास, सूरीनाम हो या फीजी, गयाना हो या त्रिनिदाद, वियतनाम हो या जापान, कनाडा हो या अमरीका, पेरिस हो या लंदन निपट विदेश में भी ये हिन्‍दी ही है जो हिन्‍दी भाषियों को अपनेपन का ऐहसास कराती है । हिन्‍दी का जन्‍म तो इसी सरजमीं पर हुआ है , वेदों पुराणों की संस्‍कृत, बोद्ध ग्रंथों की पाली, जैन एवं सनातन परम्‍पराओं की प्राकृत एवं अपभ्रंश जैसी भाषाओं के समागम से सिर्फ हिन्‍दी ही नहीं तमिल, तेलगू, कन्‍नड़, मलयालम और असमी जैसी अनेकानेक भारतीश भाषाओं का उदगम हुआ है । और तो और उर्दू भी कभी ज़ुबाने हिन्‍दवी कहलाती थी । इन भारतीय भाषाओं का हिन्‍दी से कैसा विरोध, लेकिन हिन्‍दी की स्‍वीकार्यता थोपी गई अनिवार्यता में नहीं जरूरत एवं अपरिहार्यता में छुपी है । यदि विश्‍व की संपर्क भाषा अंग्रेजी है तो इस पर कोई विवाद नहीं हो सकता कि हिंन्‍दुस्‍तान में संपर्क, काम काज और दिलों की भाषा हिन्‍दी हो सकती है । संस्‍कृतनिष्‍ठ, विशिष्‍ट, और क्लिष्‍ट हिन्‍दी से तो विरोंध हो सकता है, दक्षिण, पूरब, या उत्‍तर पूरब के राज्‍यों के बाशिंदों का आम ज़बान की हिन्‍दी, रोजमर्रा की हिन्‍दी, बाजारों की हिन्‍दी, फिल्‍मों की हिन्‍दी, लोकगीतों की हिन्‍दी, अखबारों की हिन्‍दी का विरोध तो पाकिस्‍तान में भी नहीं है तो फिर भला हिन्‍दुस्‍तान में क्‍यों होगा ।
वैज्ञानिकता या भाषा विज्ञान की किसी कसौटी पर कसा जाए तो हिन्‍दी सौ फीसदी खरी उतरती है । जितने वर्ण हैं , उतनी ध्‍वनियां हैं, जैसी लिखी जाती हैं वैसी ही पढ़ी जाती हैं । हिन्‍दी का अपना व्‍याकरण, लिपी और शब्‍द कोश है जो इस भाषा को पूर्णता ही प्रदान नहीं करते, बल्कि विज्ञान के अध्‍ययन के लिये उपयुक्‍त भी बनाते हैं । पर विज्ञान, तकनीकी अनुसंधान, प्रबंधन, सूचना प्रोद्यौगिकी और कम्‍प्‍यूटर इंजिनियरिंग के क्षेत्रों की तो छोडि़ये ठेठ हिन्‍दी राज्‍यों के शिक्षा के मंदिरों में भी हिन्‍दी का दोयम दर्जा बढ़ता ही जा रहा है । हिन्‍दी के ह्रदय प्रदेशों में भी कुकुर मुत्‍तों की तरह पब्लिक और कान्‍वेंट स्‍कूल हर रोज खुल रहे हैं । शायद इसे मैंकाले की शिक्षा पद्धति की दूरदर्शिता कहें या बरसों की गुलामी और मानसिक दासता का परिणाम कि गोरे अंग्रेजों की विदाई के 60 साल बाद भी इस देश में ऐसे काले अंग्रेजों की फौज बढ़ती ही जा रही है जो हर स्‍वदेशी समस्‍या का विदेशी समाधान खोजती है । किसी भाषा का ज्ञान लज्‍जा की नहीं गर्व की बात है पर विरोध अंग्रेजी का नहीं अंग्रेजीयत का है । भूमण्‍डलीकरण के इस दौर में पश्‍िचिमी ज्ञान के लिये हम अपने घरों की खिड़कियों और झरोखों को ख़ुला रखें, लेकिन घर के आंगन में बह रही हिन्‍दी की पुरवाई ही आने दें तभी हिन्‍दुस्‍तान में हिन्‍दी की बयार बहेगी ।
यदि युवा पीढ़ी को हिन्‍दी के प्रति आकृष्‍ट करना है तो हिन्‍दी को समकालीन एवं समसामयिक परिदृष्‍य के साथ तालमेंल करना होगा क्लिष्‍ट एवं विशिष्‍ट शब्‍दों के प्रयोग से बचना होगा दूसरी तमाम भाषाओं तथा लोक भाषाओं के साथ हिन्‍दी बोली में प्रचलित शब्‍दों को उसी रूप में समाहित करना होगा, अनुवाद की प्रक्रिया का प्रमाणीकरण कर उसे सरल और सार्थक बनाना होगा, शिक्षा में आधुनिक तकनीकी के समस्‍त पहुलू चाहे वे दृष्‍य हो या श्रव्‍य , या एनिमेटेड, उसमें हिन्‍दी के अधिकाधिक प्रयोग की संभावनाएं तलाशनी होंगी । इस दौर में कम्‍प्‍यूटर ही नहीं हाथ में समा जाने वाले पाम टाप मोबाइल तथा अनेकानेक ई उपकरणों में ऐसी हिन्‍दी के साफ्टवेयरों के प्रचलन एवं सर्च इंजनों के निर्माध की आवश्‍यकता है जो विज्ञान एवं तकनीक विष्‍ाय को न सिर्फ आसान बनाते हैं वरन् तथ्‍यों एवं आंकड़ों का सहज प्रवाह भी सुनिश्चित करते हैं ।
हिन्‍दी को वैश्विक भाषा बनाकर पूरे विश्‍व में फैलाना निश्‍चय ही हर भारतीय के लिये गौरव की बात है लेकिन उसे सबसे पहले अपनी जड़ों को मजबूत करना होगा । उदाहरण के लिये यूं तो योग पूरे विश्‍व में फैला लेकिन भारत में योग आंदोलन के रूप में सामने तब आया जब बाबा रामदेव एवं उनके साथियों ने चिकित्‍सा के स्‍वदेशी ज्ञान एवं आयुर्वेद की भारतीय पद्धतियों का सरलीकरण कर न केवल उसे निरोगीकरण और योग से जोड़ा वरन् टीवी चैनलों और के माध्‍यम से करोड़ों दिलों में भारतीय योग की अलख जगा दी । आज हिन्‍दी को भी ऐसे हिन्‍दी सेवी साहित्‍य कारों, पत्रकारों, फिल्‍मकारों, विद्वानों, वैज्ञानिको और अनुवादकों की आवश्‍यकता है जो हिन्‍दी को सरलीकृत कर उसे आम आदमी की जुबान बना दें और हिन्‍दी को पुस्‍तक से उस तक (जन-जन) पहुंचा दें । न तो हिन्‍दी पराधीन है और नही उसे गैरों के रहमो करम की आवश्‍यकता है । उसे तो अपने 50 करोड़ हिन्‍दी भाषी बेटे-बेटियों ये स्‍वाभिामान का इतना सा प्रणाम लेना है कि उनकी भाषा तिरस्‍कार की नहीं सम्‍मान की हकदार है और जिस दिन ये हाथ हिन्‍दी का तिलक करने उठेंगें तो संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ तो क्‍या पूरे विश्‍व में हिन्‍दी की पताका फहराएगी । दैनिक जागरण से साभार

गुरुवार, 13 सितंबर 2007

उड़न तश्‍तरी ने क्‍या ख़ूब ग़ज़ल कही है, दिल ख़ुश कर दिया है ' धर्म का ले नाम चलती है यहां पर जो हवा, पेड़ उसमें एक मैं जड़ से उखड़ता रह गया ' वाह वाह

उड़न तश्‍तरी के बारे में अब मुझे ऐसा लगने लगा है कि ये जितने बाहर दिखाई देते हैं उससे कहीं ज्‍़यादा अंदर हैं और ये अचानक ही कुछ कुछ कर के चौंका देते हैं । अब जैसे मेरे डांटने पर इन्‍होंने एक ग़ज़ल लिख दी है, अब इसको वैसा ही कहेंगें कि कोई बदमाश बच्‍चा कुछ कम न कर रहा हो और डांटने पर अचानक उठे और ताजमहल बनाकर ले आए कि लो ये बना लिया है मैंने ।
शब्द मोती से पिरोकर, गीत गढ़ता रह गया। पी मिलन की आस में, लेकिन बिछुड़ता रह गया.शेर उसने जो लिखे, दिल को थामें हाथ में काम सारे छोड़ कर, मैं उनको पढ़ता रह गया. धर्म का ले नाम चलती है यहाँ पर जो हवा पेड़ उसमें एक मैं, जड़ से उखड़ता रह गया. फैल करके सो सकूँ मैं, वो जगह हासिल नहीं ठंड का बस नाम लेकर, मैं सिकुड़ता रह गया. घूमता फिरता फिरा पर कुछ हुआ हासिल नहीं प्यार पाने को समीरा, बस तड़पता रह गया.
हालंकि अभी भी कुछ समस्‍याएं हैं जैसे बिछ़ुड़ता रह गया कहना कुछ खल रहा है क्‍योंकि वाक्‍य में बिछ़ड़ता का प्रयोग सही नहीं है साफ लग रहा है कि भर्ती का शब्‍द है । मगर एक बात जो अच्‍छी है वो ये है कि पूरी की पूरी ग़ज़ल एक जगह को छोडंकर बहर में है । वो एक जगह है शे'र उसने जो लिखे दिल को थामे हाथ में में बीच में एक दीर्घ की कमी हो रही है इसलिये बहर बाहर हो रहा है हां अगर उसमें एक थे लगा दें तो बात बन जाएगी शे'र उसने जो लिखे थे दिल को थामे हाथ में
में बात बन गई । मगर बात फिर भी वही है कि पहला मिसरा भर्ती का लग रहा है उसमें कुछ सुधार की गुंजाइश है ।
कुछ उदाहरण देता हूं कि कैसे सुधार होगा
शे'र उसने जो लिखे थे बेवफाई पर मिरी
या
शे'र उसने जो लिखे थे खून में उंगली डुबा
या
शे'र उसने जो लिखे अश्‍कों में काजल घोलकर
या
शे'र दीवारों पे उसने खून से थे जो लिखे
ये कुछ उदाहरण हैं कि किस तरह से मिसरा उला और मिसरा सानी में मिलान होना चाहिये आपका पहला मिसरा दूसरे को जस्टिफाई नहीं कर रहा है ।
हां एक जगह पर घूमता फिरता फिरा में भी कुछ खल रहा है फिरता फिरा दो बार फिर आना अच्‍छा नहीं है । इसको या तो ढूंड़ता फिरता रहा करें या घूमता फिरता रहा करें ।

मज़े की बात ये है कि माससाब ने कल जिस बहर को जि़क्र किया था फाएलातुन-फाएलातुन-फाएलातुन-फाएलुन ये पूरी ग़ज़ल उसी बहर पर है ।
ग़ज़ल तो अभिनव ने भी निकाली है जो नीचे है
फाएलातुन फाएलातुन फाएलातुन फाएलुन,मैंने तेरे को सुना है अब तू मेरे को भी सुन,नौकरी करती हुई महिला नें खुश होकर कहा,चार स्वेटर बुनती हूँ मैं तीन स्वेटर तू भी बुन,बोले तो अब अपुन भी लिक्खेगा बुमाबुम ग़जल,तू समझ के बोल वा वा क्या रे मामू सिर न धुन
ग़ज़ल तो ये भी पूरी ही बहर में है केवल एक मिसरा बाहर गया है बोले तो अब अपुन भी लिक्‍खेगा बुमाबुम ग़ज़ल इसमें काफी दोष हैं उसको ऐसे कर लें तो बात बन जाएगी
अब तो लिक्‍खेगा अपुन भी ख़ूब बूमाबुम ग़ज़ल
इन्‍होंने कुछ प्रश्‍न भी किये हैं
एक प्रश्न है, जैसे यदि दूसरे शेर को देखें तो इसमें, "होकर कहा," और "तू भी बुन," में भी क्या कुछ मात्राओं को मिलाने की कोशिश होनी चाहिए। और क्या मात्रा जोड़ने का जो तरीका नीचे दिया है २ - दीर्घ और १ - लघु, क्या ये सही है। उस हिसाब से तो ये शेर बहर के बिलकुल बाहर हो गया। आपका क्या विचार है।नौकरी करती हुई महिला नें खुश होकर कहा,२१२ ११२ १२ ११२ २ ११ २११ १२चार स्वेटर बुनती हूँ मैं तीन स्वेटर तू भी बुन,२१ १२११ ११२ २ २ २१ १२११ २ २ ११
और कुद ऐसे ही सवाल उठाए हैं अनूप भार्गव जी ने भी
१। जब लघु और दीर्घ का ही अन्तर करना है तो दीर्घ के लिये इतने सारे 'फ़ा', 'ला', 'तुन','लुन' आदि का और लघु के लिये 'ए' या 'इ' का प्रयोग क्यों ? आप का ला ल ला ला वाला ही अच्छा और सरल है । २. क्या सभी दीर्घ और सभी लघु एक समान होते हैं या उन में भी अन्तर होता है ?३. जब दो लघु एक साथ हों तो क्या वह हमेशा 'दीर्घ' बन जाते हैं ?४. आधे अक्षर का वज़्न कैसे गिना जायेगा जैसे बस्ती , सस्ता, आदि में ?५. राजगोपाल जी की गज़ल में मुझे मात्रा गिनते समय कुछ गलतियां लग रही हैं , ज़रूर मेरी ही अज्ञानता है गिनने में लेकिन आप पुष्टी करें । जैसे गाँव भर की धूप को हंस कर उठा लेता था वो,इस में २१२२-२१२२-२१२२-२१२ कैसे हुए ?गाँव भर की- धूप को हंस- कर उठा ले-ता था वो,२१२२-२१२२-२१२२-२२२ हुए ना ?
ये सारे सवाल बहर को लेकर हैं मैं हालंकि अभी बहर की बात करना नहीं चाहता था पर कल से मैंने कर दी है सो आज इन सवालों के जवाब पर केवल कुछ के
नौकरी करती हुई महिला ने ख़ुश होकर कहा
इसका वज्‍़न यूं होगा
नौ-दीर्घ, क-लघु, री-दीर्घ, कर-लघुलघु-दीर्घ मतलब फाएलातुन
ती-दीर्घ, हु-लघु, ई-दीर्घ, महि-लघुलघु-दीर्घ मतलब फाएलातुन
ला-दीर्घ, ने-( यहां पर ने उच्‍चारण में गिरने के कारण लघु है) लघु, ख़ुश-लघुलघु-दीर्घ, हो-दीर्घ मतलब वही फाएलातुन
कर-लघुलघु-दीर्घ, क-लघु, हा-दीर्घ मतलब फाएलुन
अब बात अनूप जी को भी समझ में आ गई होगी कि उस ग़ज़ल में ता था वो ये तीन मात्राएं जो दिखने में दीर्घ हैं इनमें था को मैंने लघु क्‍यों माना है । दरअसल में ग़ज़ल ध्‍वनियों को खेल है पढ़ते समय जैसा उच्‍चारण होना है वैसा ही मात्रा गणन होगा
अब यहां पढ़ते समय था को गिरा दिया जाता है और कुछ ऐसा पढ़ा जात है
ता थ वो मतलब था को पढ़ते समय केवल की ही ध्‍वनि निकलती है उसलिये उसे लघु माना जाता है मैंने पहले ही कहा था कि ग़ज़ल में काफी स्‍वतंत्रता है ये केवल ध्‍वनि पर चलती है इसीलिये कहीं कहा जाता है दीवार मतलब दीर्घ-दीर्घ-लघु और कही यही बेचारी दीवार हो जाती है दिवार ।
इसलिये ही कहता हूं की अगर आपके अंदर रिदम है तो गज़ल़ को पहले अपनी रिदम पर बैठा कर देखो अगर वो फिट आ रही है तो मतलब सब ठीक है ।
आधा अक्षर अपने उच्‍चारण के हिसाब से संयुक्‍त हो जाता है जैसे तुम्‍हारे में तु अकेला है पर आधा म्‍ मिल गया हे हा और उसका उच्‍चारण अब म्‍हा है मतलब दीर्घ । आपने जो सस्‍ता के बारे में पूछा है तो बता दूं यहां है सस्‍ ता छोटा स बड़े स में मिल कर एक दीर्घ हो गया है । आप अपने आप ही उच्‍चारण से पकड़ सकते हैं कि कौन सा आधा किस में मिल रहा है ।
खैर मैं चाहता हूं कि ज़ल्‍दी से अपनी कक्षा फिर से चालू कर दूं बेचारा इंतेज़ार कर रहा है ।

बुधवार, 12 सितंबर 2007

जिंदगी में लय का ही तो खेल है जिंदगी और गज़ल़ में अगर लय नहीं तो कुछ भी नहीं है

राज गोपाल जी की अच्‍छी ग़ज़ल आपने दी है अभिनवजी हिंदी के शब्‍दों का इस्‍तेमाल करके भी उतनी ही अच्‍छी ग़ज़ल कही जा सकती है ये हमको इस ग़ज़ल से पता चलता है । यही बात मैं अपने उन दोस्‍तों को भी बताता हूं जो फिजूल में ही फारसी के टोले टोले शब्‍द अपनी शायरी में केवल इसलिये डालते हैं ताकि उनको आलिम फाजिल समझा जाए । अरे जिसके लिये लिख रहे हो उसको तो समझ में आए और चलो उसको नहीं अपने आपको तो समझ में आए । राज गोपाल जी की ग़ज़ल का वज्‍़न है
फाएलातुन फाएलातुन फाएलातुन फाएलुन
इसे सुरों में अगर पकड़ना हो तो कुछ यूं इसके सुर ताल होंगें
लाललाला-लाललाला-लाललाला-लालला
हम जब गातें हैं तो आलाप लगाते है ना बस उसी का ही खेल है । ग़ज़ल केवल ध्‍वनियों पर ही चलती हैं । ध्‍वनियां जो कानों में पड़ें और लय उत्‍पन्‍न करें । जिंदगी में लय का ही तो खेल है जिंदगी और गज़ल़ में अगर लय नहीं तो कुछ भी नहीं है ।
ला(दीर्घ)ल(लघु)ला(दीर्घ)ला(दीर्घ)
फा(दीर्घ)ए(लघु)ला(दीर्घ)तुन(दीर्घ
)
अब इसका उदाहरण देखें
ला(तुम), ल (न), ला (हीं), ला (जब),

तुम नहीं जब-लाललाला-फाएलातुन
आपकी दी हुई ग़ज़ल में है
कुछ न कुछ तो-फाएलातुन-लाललाला
उसके मेरे-फाएलातुन-लाललाला,
दरमियां बा-फाएलातुन-लाललाला
की रहा-फाएलुन-लालला

रियाज़ कीजिये ध्‍वनियों का गाइये
कुछ न कुछ तो-
फाएलातुन-
लाललाला

तीनों को एक के बाद एक । आपको एक साम्‍यता मिलेगी और ये ही है रिदम लय जो है ग़ज़ल की जान ।

हरेक बात पे कहते हो तुम कि तू क्‍या है, तुम्‍हीं कहो कि ये अंदाज़े गुफ़्तगू क्‍या है, रगों में दौड़ते फि़रने के हम नहीं क़ायल, जब आंख ही से न टपका तो.

ग़ालिब की ये ग़ज़ल वो ग़ज़ल है जिसने मुझे 18 साल की उम्र में ही ग़ज़ल से जोड़ दिया । तब ये तो समझ में नहीं आता था कि उर्दू के मोटे मोटे शब्‍दों के मायने क्‍या हैं पर फि़र भी कुछ ऐसा था जो अंदर तक जाकर छू जाता था । सुना भी था जगजीत सिंह जी द्वारा गुलज़ार साहब द्वारा बनाए गए सीरियल मिर्ज़ा ग़ालिब में । उसका दो कैसेटों का सेट किसी ने मुझे उपहार में दिया था मुझे नहीं पता था कि ये उपहार मेरी जि़दगी ही बदल देगा ।
रगों में दौड़ते फि़रने के हम नहीं क़ायल
जब आंख ही से न टपका तो फि़र लहू क्‍या है
इस शे'र को सुनकर मेरी आंख से आंसू तब भी बह बह जाते थे और आज भी ।
जला है जिस्‍म जहां दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्‍तजू क्‍या है


हुआ है शह का मुसाहिब फि़रे है इतराता

वगर्ना शहर में ग़ालिब की आबरू क्‍या है
शे'र और ग़ज़ल को लेने की मतलब आप समझ ही गए होंगें आज शुरू कर रहे हैं हम ऊ की मात्रा को हालंकि आज शुरू कर पाऐंगे शायद नहीं क्‍योंकि आज कुछ बातें कल की टिप्‍पणियों पर करना चाहता हूं ।
कई सारी टिप्‍पणियां मिली हैं और उनमें से कुछ ख़ास हैं जैसे डॉ। सुभाष भदौरिया का आशिर्वाद भरा संदेशा भी प्राप्‍त हुआ है । मैं वास्‍तव में अभिभूत हूं सुभाष जी की टिप्‍पणी पढ़कर । इसलिये क्‍योंकि वो तो इस क्षेत्र के उस्‍ताद हैं और मैं एक अदना सा सिखाड़ी हूं । जो कुछ भी अपने उस्‍तादों से मिला है उसे बांट रहा हूं आशा है सुभाष जी का मार्गदर्शन भी अब मिलता रहेगा । अपने बारे में किसी का कहा हुआ एक शे'र कहना चाहता हूं

ख़ुद से चलकर कहां ये तर्जे़ सुख़न आया है
पांव दाबे हैं बुज़ुर्गों के तो फ़न आया है
सुभाष जी की टिप्‍पणी और कुछ दिनों पहले जनाब इशरत क़ादरी साहब द्वारा सर पर हाथ रख कर दिया गया आशिर्वाद दोनों ही मेरे लिये अविस्‍म‍रणीय हैं । विशेष कर सुभाष जी की टिप्‍पणी का जि़क्र मैं इस लिये कर रहाहूं कि आजकल हो ये गया है कि गुणीजन उत्‍साह बढ़ाने के बजाय हतोत्‍साहित करते हैं । मगर सुभाष जी जैसे लोग हैं तो हम नए लोगों का हौसला बढ़ता रहेगा ।
अनूप भार्गव जी ने अच्‍छी ग़ज़ल निकाली है फाएलातुन-फाएलातुन-फाएलुन ( SISS-SISS-SIS )पर हैं जिसे कहा जाता है बहरे रमल मुसद्दस महजूफ हालंकि फाएलातुन की जगह पर फाइलातुन भी हो सकता है क्‍योंकि मात्रा पर उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता ए और इ दोनों का वज्‍़न एक ही है ।
आप रस्ते में मुझे जो मिल गयेराह अब लगती मुझे आसान है
इक मुकम्मल सी गज़ल मैं भी लिखूँ अब तो बस दिल में यही अरमान है
आप को मैं बेवफ़ा कैसे कहूँ आपके मुझपे कई अहसान हैं
आप् तो मुझ से किनारा कर गये आप की यादें मेरी मेहमान है
बेगुनाही की नयी कीमत लगेगीशहर के मुंसिफ़ का ये फ़रमान है ।

इसमें केवल आखि़र का शे'र बहर से बाहर हो गया है
बेगुनाही की नयी क़ीमत लगेगी
वज्‍़न हो गया है फाएलातुन-फ़ाएलातुन-फ़ाएलातुन SISS-SISS-SISS
ये बहर आखिर में एक मात्रा दीर्घ के बढ़ जाने से बदल गई है
होना कुछ ऐसा चाहिये
बेगुनाही की नई क़ीमत है अब
शहर के मुंसिफ़ का ये फ़रमान है
आपने जो खास बात कीहै वो ये कि आपने शहर को सही जगह पर इस्‍तेमाल किया है बाज हिंदी के लोग शहर को लघू दीर्घ में ले लेते हैं जबकि वो उर्दू में दीर्घ लघु होता है कुछ ऐसे शह्र आपने अच्‍दा प्रयाग किया है उसमें । एक और बात आपने जो तीसरे शे'र में कहा है आपके मुझ पर कई अहसान हैं उसमें भी एक बात जो ठीक नहीं है वो ये कि आपका रदीफ़ है लिया है और यहां पर हैं हो गया है अर्थात बिंदी लग गई है और है का हैं हो गया है उसे ठीक नहीं कहा जाएगा । उसे आप ऐसे कह सकते हैं
आपको मैं बेवफ़ा कैसे कहूं
आपका मुझ पर कोई एहसान है
ज़रा सा बदलने से ही सब ठीक हो जाता है । ध्‍यान दें मैं पहले ही बता चुका हूं कि ये अं की बिंदी बड़ी बदमाश होती है कहीं भी घुसकर सोलह सौ के हज़ार कर देती है इसलिये इसका खा़स ध्‍यान रखा जाए विशेषकर रदीफ और क़ाफि़या में । अगर है तो सबमें हो नहीं हो तो किसी में भी नहीं हो ।
आपको दुष्‍यंत के
एक गुडि़या की कई कठपुतलियों में जान है
और शायर ये तमाशा देख कर हैरान है
हालंकि आपमें और उसमें एक रुक्‍न का फ़र्क है एक पूरा फाएलातुन वहां पर बढ़ा हुआ है ।
दिनेश जी ने एक लिंक भेजा थ समीक्षा केलिये आज नये शायर ज्ञानदत्त जी ने अपनी गजल पेश की है. http://hgdp.blogspot.com/2007/09/blog-post_11.htmlइसकी काव्यशास्त्र की दृष्टि से समीक्षा कीजिये ना
पर वहां जो कुछ मिला उसकी समीक्षा नहीं हो सकती क्‍योंकि वो जो कुछ था उसके लिये हमारे मालवा में कहावत है
न काय में न काय में
न गधे में न गाय में
सो वहां कुछ नहीं कर पाया
अभिनव ने भी कुछ लिखने का प्रयास किया है । और मैं सबसे ज्‍़यादा जो चाहता हूं कि प्रयास ही हो हम हिन्‍दुस्‍तानी प्रयास करना ही तो भूल गए हैं ।
आज के पाठ की बात बढ़िया रही,काफिया बन के इतरा रहा खूब 'ई',शर्म के मारे ही छिप गया है रदीफ,शेर कैसे यहाँ कह रहा आदमी। वज्‍़न तो वही है फ़ाएलुन-फ़ाएलुन-फ़ाएलुन-फ़ाएलुन केवल दूसरे शे'र में मिसरा ऊला में दिक्‍़कत है जाने लें कि रदीफ़ शब्‍द का वज्‍़न है लघु-दीर्घ-लघु जो आपकी इस बहर में आ ही नहीं सकता । हां कहीं संयुक्‍त कर के चलाया जा सकता है पर वो भी मज़ा नहीं देगा भर्ती का लगेगा । आप उस शे'र को कुछ यूं कर सकते हैं

कोई तर्जे सुख़न का पता ही नहीं

शे'र कैसे यहां कह रहा आदमी

इससे आपकी बात भी पूरी हो रही है क्‍योंक‍ि मिसरा सानी में सवाल है शे'र कैसे यहां कह रहा आदमी अब इस सवाल को लेकर ऊपर के मिसरा उला में कोई तो जस्टिफिकेशन होना ही चाहिये ध्‍यान दें तुकें मिलाना ही ग़ज़ल नहीं है । बल्कि बात मिलाना भी ज़रूरी है । ऊपर की लाइन जो कुछ भी कहे नीचे की लाइन उसको पूरा करे । आपके वाले शे'र में मिसरा उला और मिसरा सानी परवेज़ मुशरर्फ और नवाज़ शरीफ़ हो रहे हैं । एक कह रहा है लाहौर जाना है दूसरा कह रहा है सऊदी जाओ ।
उड़न तश्‍तरी बातें ही बना रही है कर के कुछ नहीं बता रही है उस पर बार बार ये कि नंबर दो नंबर दो । फि़र भी मास्‍साब को उम्‍मीद है कि कभी न कभी तो कुछ होगा ही ।
तो आज तो टिप्‍पणियों में ही सारा वक्‍़त हो गया ऊ की बात कल होगी । ये जो आज की कक्षा है इसको डिस्‍कश्‍ान कक्षा कहते हैं । जहां पर समस्‍याओं पर विचार किया जात है । और उनका परिणाम निकालने की कोशिश होती है । तो अब जै राम जी की

सोमवार, 10 सितंबर 2007

डायरी के बीच में रक्‍खा हुआ था इक गुलाब, जब भी खोला वर्क उसका ताज़गी अच्‍छी लगी, कह गए थे जाते जाते आएंगे फि़र ख्‍वाब में , प्‍यार में उनकी नफ़ासत स

ग़ज़ल से आप को अनुमान हो ही गया होगा कि आज बात हो रही है की मात्रा के क़ाफियों की । ई की मात्रा को सबसे ज्‍़यादा उपयोग किया जाता है और कई बार जानकारी के अभाव में ग़लत तरीके से इस्‍तेमाल किया जाता है । ई की मात्रा की विशेषता ये है कि ये अक्षर के साथ और अकेले दोनों तरीकों से उपयोग में आ जाती है ।
गुलज़ार साहब की ग़ज़ल है
शाम से आंख में नमी सी है
आज फि़र आपकी कमी सी हे
ये एक तरह का उदाहरण है जिसमें गुलज़ार साहब ने मी क़ाफिया बना लिया है । मतलब ये कि की मात्रा तो है पर वो के साथ संयुक्‍त है नमी, कमी , थमी, जमी जैसे क़ाफिये ही यहां पर चलेंगें ।
अब एक और ग़ज़ल को देखें
सामने थे मय के प्‍याले तिश्‍नगी अच्‍छी लगी
रोशनी की आरज़ू में तीरगी अच्‍छी लगी
यहां पर गी क़ाफिया बन गया है ई की मात्रा तो है पर ग के साथ संयुक्‍त है अर्थात जिंदगी, दिल्‍लगी, ताज़गी जैसे क़ाफिये लाने होंगें।
अब बात करें कुछ ऐसी ग़ज़लों की जिनमें केवल ई की मात्रा की ही आवश्‍यकता है
किसी की दोस्‍ती का क्‍या भरोसा
ये दो पल की हंसी का क्‍या भरोसा
सफ़र पर आदमी घर से चला जो
सफ़र से वापसी का क्‍या भरोसा
अब यहां पर शाइर स्‍वतंत्र हो गया है क्‍योंकि उसने मतले में कोई दोहराव नही लिया है और केवल ई की मात्रा की ही बंदिश रखी है । अर्थात मतले के दोनों मिसरों में ई की मात्रा अलग अलग शब्‍दों पर संयुक्‍त होरक आ रही है । पहले दोस्‍ती में के साथ संयुक्‍त है तो दूसरे मिसरे में हंसी में के साथ मतलब कि शाइर अब स्‍वतंत्र है कुछ भी ऐसा क़ाफिया लेने को जो कि ई की मात्रा का हो । तो पहला निष्‍कर्ष तो यही निकलता है कि मतले के दोनों मिसरो में अगर ई की मात्रा किसी एक ही अक्षर के साथ संयुक्‍त होकर आ रही है तो फिर आप बंध गए हैं अब आगे आप ई की मात्रा के जो भी क़ाफिये लेंगें वो सब उसी अक्षर के साथ ई की मात्रा के होने चाहिये । अगर कमी और नमी ले लिया तो फिर अब मी आपका बंधन हो चुका है आपको इसका पूरी ग़ज़ल में निर्वाह करना होगा ।
ई की मात्रा अकेले भी आ जाती है
चांद में है कोई परी शायद
इसलिये है ये चांदनी शायद
अब इसमें केचल ई की मात्रा की ही बंदिश है
शाइर का एक शे'र देखिये जिसमें उसने केवल ई की मात्रा को ही क़ाफिया बना लिया है
खोल रक्‍खा है दिल का दरवाज़ा
यूं ही आ जाएगा कोई शायद
अब यहां कोई में ई की मात्रा स्‍वतंत्र होकर आई है । कोई के रूप में । ये बात ई की मात्रा के साथ् हो जाती है ।
एक बात जो ई की मात्रा को क़ाफिया बनाते समय ध्‍यान रखनी है वो ये है कि ई की मात्रा के साथ अं की बिंदी का ख़ास ध्‍यान रखना है । अगर आ रही है तो सब में आए और अगर नहीं है तो किसी में भी नहीं आए । कुछ लोग कमी, नमी के साथ नहीं, कहीं का प्रयोग कर लेते हैं जो बिल्‍कुल ग़लत है ।
जैसे ऊपर के शे'र को कुछ यूं कहा जाए
खोल रक्‍खा है दिल का दरवाज़ा
पर कोई आएगा नहीं शायद
तो ग़ल़त हो गया नहीं में के साथ अं की बिंदी संयुक्‍त है जो ग़ल़त है इसलिये क्‍योंकि आपके मतले में चांद में है कोई परी शायद, इसलिये है ये चांदनी शायद में केवल ई की मात्रा ही है अं की बिंदी नहीं है । अगर हो तो फिर सब में ही हो ।
जैसे ऊपर की ग़ज़ल का मतला अगर यूं होता
चांद है खो गया कहीं शायद
रो रही इसलिये ज़मीं शायद
तो इसमें आपने अपने आप को स्‍वतंत्रता दे दी है कि आप ई की मात्रा को अं की बिंदी के साथ उपयोग कर सकते हैं । पर ध्‍यान रखें अब यहां पर वो क़फिये नहीं आएंगें जो अं की बिंदी के बिना वाले हैं जैसे चांदनी, शायरी, कमी, नमी । तो एक बात और भी सामने आती है कि अगर आपने अं की बिंदी को मतले में ले लिया हे तो पूरी ग़ज़ल में ही लें और जो अगर मतले में नहीं लिया हे तो पूरी ग़ज़ल में कहीं भी न लें ।
तो आज के पाठ में जो बातें सामने आती हैं वो ये कि ई की मात्रा प्रमुख रूप से तीन तरीकों से उपयोग में आती है
1 जब वो मतले के दोनों मिसरों में किसी एक ही खा़स अक्षर के साथ संयुक्‍त हो रही हो तो फिर पुरी ग़ज़ल में उसी खास अक्षर के साथ चलेगी । उदाहरण कमी, नमी, थमी, आदमी, ।
2 जब वो मतले के दोनों मिसरों में अलग अलग अक्षरों के साथ संयुक्‍त हो रही हो तो फिर पूरी ग़ज़ल में अलग अलग अक्षरों के साथ ही आएगी । उदाहरण आदमी, चांदनी, शायरी ।
3 जब वो मतले में अं की बिंदी के साथ संयुक्‍त हो तो पूरी ग़ज़ल में अं की बिंदी को निभाना पड़ेगा । जैसे कहीं, नहीं, यहीं, ज़मीं । अब इसमें भी अगर आपने मतले में नहीं और कहीं को क़ाफिया कर लिय तो तो आप और भी ज्‍़यादा फंस गए अब तो दो दो को निभाना है । ई की मात्रा को अं की बिंदी और ह अक्षर के साथ ही संयुक्‍त करना है ये थोड़ा और मुश्किल होगा । इसीलिये मतले में मैंने ऊपर
चांद है खो गया कहीं शायद
इसलिये रो रही ज़मीं शायद
कहा ज़मीं कहने से ह की बाध्‍यता ख़त्‍म हो गई अगर दूसरे मिसरे में कहा जाता
चांद है खो गया कहीं शायद
इसलिये चांदनी नहीं शायद
तो उलझन हो जाती ।
मुनव्‍वर राना साहब की ग़ज़ल के साथ समाप्‍त करना चाहता हूं
सियासी आदमी की शक्‍ल तो प्‍यारी निकलती है
मगर जब गुफ्तगू करता है चिनगारी निकलती है
मुहब्‍बत को ज़बरदस्‍ती तो लादा जा नहीं सकता
कहीं खिड़की से मेरी जान अलमारी निकलती है
दोस्‍तों मैं पहले ही कह चुका हूं कि मैं केवल एक छात्र ही हूं ग़ज़ल की पाठशाला का । कुछ ई मेल मुझे मिले हैं जिनमें आपत्ति दर्ज कराई गयी हैं कि मैं इस फ़न को इस तरह से सार्वजनिक कैसे कर सकता हूं । मगर दोस्‍तों मैं तो केवल ये जानता हूं कि फ़न पर सबका हक है कुछ लोग नहीं चाहते कि सब अच्‍छी ग़ज़ल कह सकें क्‍योंकि उससे उनकी दूकानदारी टूट जाती है । खैर आज का लेक्‍चर वैसे ही लंबा हो गया है । जै राम जी की ।

शनिवार, 8 सितंबर 2007

किसी ने ख़त मुझे लिक्‍खा नहीं है कि चिट्ठी डाकिया देता नहीं है, तुम्‍हारी याद आती भीड़ में क्‍यों, सिसकने का जहां मौका नहीं है

दो दिन की छुट्टी के बाद आज फिर मास्‍साब हाजिर हैं दरअसल में दो दिन से हमारे इलाके में एन उसी वक्‍़त बिजली गुम हो जाती थी जो वक्‍़त क्‍लास का होता है इसलिय दो दिन की क्‍लास गुम हो गई । हम ने जहां से छोड़ा था वो की मात्रा का क़ाफिया चल रहा था । उस पर अनूप जी ने एक प्रश्‍न उठायाहै कि क्‍या केवल की मात्रा के क़ाफिये वाली ग़ज़लें लोकप्रिय होती हैं या फि़र शब्‍द वाले क़ाफिये की उन्‍होंने कहा है कि ज्‍़यादातर ग़ज़लें जो बड़े शायरों की हैं वो शब्‍दों के क़ाफिये की हैं जैसे करता, डरता, भरता आदि । मैं आपको बताना चाहता हूं अनूप जी कि ग़ज़ल में लोकप्रिय होने के लिये जो चीज़ सबसे ज़रूरी है वो है सादगी और मासूमियत । और अतनी ही सादगी और मासूमियत से जब आप व्‍यंग्‍य भी कसते हैं तो लोग क़ुर्बान हो हो जाते हैं । जिसपे चोट करनी हो उस पर हो भी जाए और किसी को पता भी नहीं लगे इसे मुहावरे की भाषा में कहते हैं मारो कहीं, लगे वहीं । जैसे आप की ही बात को काटने के लिये मैं ग़ालिब की एक बहुत ही चर्चित ग़ज़ल का उदाहरण देना चाहता हूं

दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्‍या है
आखि़र इस दर्द की दवा क्‍या है

अब इसमें तो ग़ालिब साहब ने की मात्रा को ही क़ाफिया बनाया है दवा, हुआ, वफ़ा, माज़रा जैसे शब्‍दों में की मात्रा क़ाफिया बन रही है । अब इस ग़ज़ल की लोकप्रियता के बारे में कुछ भी कहना तो सूरज को चराग़ दिखाने के समान होगा । इसमें जो बात है वो है मासूमियत,
हम हैं मुश्‍ताक़ और वो बेज़ार
या इलाही ये माज़रा क्‍या है
शायर कितनी मासूमियत से अपनी बात ऊपर वाले के सामने रख रहा है । तो बात क़‍ाफिये की कभी नहीं होती बात तो कहन की होती है । हां काफि़या सही मिलाना ज़रूरी है वैसा नहीं जैसा कि उड़नतश्‍तरी ने बनाया है दम का काफिया मिलाया है वज़न के साथ्‍ा, नाक कटा के रख दी मास्‍साब की । मासूमियत के साथ अपनी बात को कह देना ही ग़ज़ल का ख़ास लक्षण है । मशहूर शायर शेरी भोपाली एक बार सीहोर आए थे रेडियो पर मेरे दुश्‍मन तू मेरी दोस्‍ती को तरसे, मुझे ग़म देने वाले तू ख़ुशी को तरसे गीत सुन कर बोले ज़रूर किसी कसाई ने लिखा है ये गीत, अरे मुहब्‍बत भी कभी बद्दुआ देती है, वो तो ये कहती है कि भले ही हम बरबाद हो जाएं पर तू ख़ुश रहे । तो बात वही है कि आप अपना कहन सुधारें और वो ऐसा बनाएं कि हर किसी के दिल में उतर जाए । गज़ल़ कोई भी बात को खुल कर भी नहीं कहती इसीलिये उसे व्‍यवस्‍था के खि़लाफ हथियार बना कर अच्‍छे प्रयोग होते हैं । हमारे यहां भी आपात काल के दौरान दुष्‍यंत ने वैसे ही प्रयोग किये थे जिनको मारो कहीं, लगे वहीं कहा ज सकता है ।
एक गुडि़या की कई कठपुतलियों में जान है
और शायर ये तमाशा देखकर हैरान है

अब सब को पता था कि कौन है गुडि़या और कौन हैं ये कठपुतलियां पर कोई कुछ नहीं कर सकता था क्‍योंकि समझने वाले समझ गए हैं ना समझे वो अनाड़ी है जेसा कुछ था ।
हम आज को पूरा करते हैं । एक बात सीधी सी याद रखिये कि जो कुछ भी मतले में दोहरा लिया जात है वो फिर क़फिये का हिस्‍सा न रह कर रद्दीफ हो जाता है ।
जैसे
इतना क्‍यूं तू मिमियाता है
तू तो आदम का बच्‍चा है
अब इसमेंकी मात्रा ही क़ाफिया बन रही है क्‍योंक‍ि मतला ये ही कह रहा है
मगर इसी को अगर यूं कहा जाता कि
इतना क्‍यूं रे तू सच्‍चा है
तू भी आदम का बच्‍चा है
तो बाद बदल गई।
तो ये है असल में बात कि आपका मतला ही ग़ज़ल का भविष्‍य तय करता है ।
कल छुट्टी है अत: कुछ समस्‍याएं दे रहा हूं इनकी पूर्ती करनी है ।
1 अगर मतले में निखरता और बिखरता की क़ाफियाबंदी है तो आगे के शेरों के लिये क्‍या क़ाफिये होंगे।
2 अगर मतले में चलता और गलता की क़ाफिया बंदी है तो क़ाफिये क्‍या होगें ।
3 अगर टूटा और फूटा की काफियाबंदी है तो आगे के शेरों के लिये क़फिये क्‍या होंगें ।
4 हो सके तो एक एक शेर भी बनाने का प्रयास करें

ग़ल़त शेर कहने के कारण उड़नतश्‍तरी के दस अंक वापस ले लिय जा रहे हैं ।

बुधवार, 5 सितंबर 2007

वक्‍त की गोद से हर लम्‍हा चुराया जाए, इक नई तर्ज़ से दुनिया को बसाया जाए

विद्यार्थियों की सक्रियता धीरे धीरे बढ़ती ही जा रही है अच्‍छी बात है जि़दा छात्र मिल जाना किसी भी शिक्षक के लिये सबसे बड़ी बात होती है । और मुझे इन दिनों की क्‍लासों के दौरान लगा कि भले ही मेरे छात्रों की संख्‍या कम है किंतु जितने हैं वे पूरी ऊर्जा से भरे हैं और यही बात मेरे लिये बहुत है ।
अनूप जी ने आज बहुत अच्‍छा प्रश्‍न क्‍लास में उठाया है जिसके लिये उनको शिक्षक दिवस के अवसर पर मास्‍साब की और से मिलते हैं पूरे 20 नंबर । उन्‍होंने कल के क़ाफिया आ की मात्रा को लेकर जो प्रश्‍न उठाया है वो वास्‍तव में मेरे दिमाग़ में भी कल था पर मैंने उसको जान बूछकर इसलिये छोड़ा था कि मैं चाहता था कि उस बाबत प्रश्‍न छात्रों की ओर से आए सो आ गया ।
अनूप भार्गव जी के ही दूसरे प्रश्‍न के जवाब में जो वज्‍़न से संबं‍धित है अभी इतना ही कहना चाहूंगा '' सितारों के आगे जहां और भी हैं, अभी इश्‍क़ के इम्तिहां और भी हैं '' अभी से वज्‍़न की बात न करें जब हम वज़न निकालना शुरू करेंगे तब तो सिलसिला शायद महीनों तक चलेगा क्‍योंकि वही तो ख़ास बात है । अभी ता केवल बुनियाद ही डाली जा रही है अत: आगे भागने का प्रयास न करें मैं कम्‍प्‍यूटर पढ़ाने में भी बहुत बेरहम हूं यदि कोई मेरा छात्र विषय से आगे की जानकारी लेने का प्रयास करता है तो मैं नहीं देता हूं क्‍योंकि वो तो सब आगे आना ही है अभी तो आज की ही बात की जाए । तो आज बात करते हैं उसी कल के की मात्रा वाले क़ाफिये की कल बात आधी ही रह गई थी आज हम उसी से आगे शुरू करते हैं ।
अनूप ने प्रश्‍न उठाया है कि क्‍या आ की मात्रा वाला कोई भी क़ाफिया उठाया जा सकता है तो पहले तो हम ये जान लें कि कोई भी नहीं बल्कि सही वज़न का और सही तरीके का क़ाफिया ही उठाया जाए । और उसमें में मतले में आपने क्‍या क़ाफियाबंदी की है वो भी देखा जाएगा । अभी मैं बज्‍़न की बात इसलिये न‍हीं करूंगा क्‍योंकि उसमें अभी आप उलझ जाऐंगें, अभी बहुत से छात्रों को यही समझने में परेशानी हो रही है । एक अच्‍छा शिक्षक वो होता है जो अपनी कक्षा के सबसे कमज़ोर छात्र को ध्‍यान में रखकर पढ़ाता है न कि सबसे तेज़ छात्र को ध्‍यान में रख्कर।
पहले बात मतले की की जाए पहले ही बता चुका हुं कि मतला ग़ज़ल का पहला शे'र होता है और ये ही तय करता हैं कि ग़ज़ल का क़ाफिया क्‍या होगा । इसलिये मतले को लिखते समय बहुत ध्‍यान रखा जाए कहीं कोई ऐसा क़ाफिया फंस गया जिसकी तुकें ज्‍़यादा नहीं हैं तो बाद में परेशानी होगी और फि़ज़ूल में भर्ती के क़ाफि़ये भरने पडेंगें । साहित्‍य में भर्ती के का मतलब होता है असहज शब्‍दों या विचारों का आ जाना । मेरे गुरू डॉ विजय बहादुर सिंह कहते हैं कि कविता तो ताश के पत्‍तों के महल की तरह होना चाहिये जिसमें हर शब्‍द का महत्‍व हो अगर कोई भी शब्‍द हटाया जाए तो पूरा महल ही गिर पड़े, अगर कोई शब्‍द ऐसा है जो प्रभाव नहीं छोड़ रहा ते इसका मतलब वो भर्ती का शब्‍द है ।
खैर तो बात क़ाफिये की चल रही थी । भर्ती के क़ाफिये की मेरे एक मित्र ने अपनी ग़ज़ल में क़ाफिया मेले और रद्दीफ में का प्रयोग कर लिया हालत ये हो गई की उनको करेले में, केले में जैसी तुकें मिलानी पड़ीं और पूरी ग़ज़ल का कचरा हो गया ।
तो बात मतले की अगर आपने मतले में शे'र कुछ यूं कहा कि
इतना क्‍यूं तू मिमियाता है
तू तो आदम का बच्‍चा है

तो बात साफ हो गई कि आप की मात्रा को क़ाफिया और है रद्दीफ बना कर ग़ज़ल कह रहे हैं और अब आप को आ की ही मात्रा को क़ाफिया देने की स्‍वतंत्रता हैं ।
मगर यदि आपने ऐसा कुछ मतला कहा जो मप्र उर्दू अकादमी के संयुक्‍त सचिव जनाब इक़बाल मसूद साहब अपने मतले में कह रहे हैं
अंगड़ाइयां लेता है, आंखें कभी मलता है
आता है मेरी जानिब, या नींद में चलता है
अब यहां भी मात्रा तो आ की ही क़ाफिया है पर जो अंतर यहां पर आ गया है वो ये है कि आपने क़ाफिये में एक दोहराव लिया है और वो है लता अर्थात अब मतले के हिसाब से आपका क़ाफिया लता है और रद्दीफ़ है । अब आप आगे जो शे'र कहेंगें वो लता क़ाफिया लेकर ही चलेंगें आ की मात्रा नहीं चलने की अब । इसे मतले का कानून कहा जाता है ।
जैसे मसूद साहब ने बहुत सुंदर शे'र निकाला है जिसका मैं दीवाना हूं
कच्‍ची है गली उसकी, बारिश में न जा ए दिल
इस उम्र में जो फिसले, मुश्किल से संभलता है

मतलब बात वही है अब आप फंस गए हैं क्‍योंकि आपने ही मतले में मलता है और चलता है कह कर स्‍वीकार कर लिया था कि क़ाफिया लता है अब आपको ये ही लेकर चलना चाहिये ।

मसूद साहब का एक और ख़ूबसूरत शे'र देखें

हर शाम धनक टूटे, अंगों से महक फूटे

हर ख्‍़वाब से पहले वो, पोशाक बदलता है

तो बात ये है कि आपका मतला तय करता है कि ग़ज़ल में आगे क्‍या होना है ।

एक और उदाहरण कुछ अलग तरह का देखें उर्दू अदब की आला शख्‍़सीयत जनाब मुज़फ्फर हनफ़ी साहब का मतला है

छत ने आईना चमकाना छोड़ दिया है

खिड़की ने भी हाथ हिलाना छोड़ दिया है

अब यहां पर क़ाफिया हो गया है आना जो कि संधि विच्‍छेद करने पर चमक:आना-चमकाना और हिल:आना-हिलाना है यहां पर भी की मात्रा तो हैं पर क़ाफिया तो मतले के हिसाब से आना है और अब आपको उसका ही निर्वाहन करना है । जैसा हनफी साहब ने किया है

चांद सितारे ऊपर से झांका करते थे

पागल ने इक और विराना छोड़ दिया है

अब आपको ये ही करना है । आज इतना ही गल हम की मात्रा को लेकर और भी बातें करेंगें । आज शिक्षक दिवस है और इस शिक्षक की और से अपने छात्रों को नुसरत मेहदी जी का ये शे'र समर्पित है

वक्‍़त की गोद से हर लम्‍हा चुराया जाए
इक नई तर्ज से दुनिया को बसाया जाए
मेरी भी ये ही ख्‍़वाहिश है कि आप सब दुनिया को नई तर्ज से बसाने का प्रयास करें ।
आपका शिक्षक पंकज सुबीर

मंगलवार, 4 सितंबर 2007

उड़न तश्‍तरी ने मशायरे के फोटो देखन चाहे थे सो हाजिर हैं


मित्रों उड़न तश्‍तरी से आवाज़ आई थी कि मुशायरे के फोटो और आडियो होने चाहिये आडियो तो खैर अभी नही मिल पाया है पर फिर भी फोटो उपलब्‍ध करवा रहूं हूं । इसमें मास्‍साब माइक पर खड़े हैं और संचालन कर रहे हैं

नज़र फेर कर चल रही हैं हवाएं सुना है के ख़ुश्बू से रिश्ता हुआ है

हिंदी और उर्दू ये केवल सोचने वालों की बात है वरना तो जो भी साहित्य की रचना करता है वो रचना करते समय कतई नहीं सोचता कि वो उर्दू में लिख रहा है या कि हिंदी में उसके लिये तो रचना ही महत्वपूर्ण होती है । देश के वरिष्ठ शायर श्री इशरत क़ादरी ने उक्त उद्गार ब्ल्यू बर्ड स्कूल तथा उर्दू अकादमी द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित मुशायरे के अध्यक्ष के रूप में बोलते हूए व्यक्त किये । कार्यक्रम में उर्दू अकादमी की सचिव नुसरत मेहदी मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित थीं ।
सर्वप्रथम अतिथियों ने मां सरस्वती का पूजन कर शुभारंभ्ा किया उसके बाद नन्ही गायिका शिरोनी पालीवाल ने सरस्वती वंदना तथा ऐ मेरे वतन के लोगों प्रस्तुत कर लोगों को भाव विभोर कर दिया । ब्ल्यू बर्ड स्कूल की ओर से चेयरमेन वसंत दासवानी, वंदना दासवानी तथा कार्यक्रम के सूत्रधार डॉ कैलाश गुरू स्वामी ने अतिथियों को बैज लगाकर तथा पुष्माला से स्वागत किया । उसके पश्चात सीहोर की साहित्यिक संस्था अंजुमन सूफियाए उर्दू अदब की ओर से नुसरत मेहदी को उनकी साहित्यिक उपलब्धियों के लिये सम्मानित किया गया । संस्था के अध्यक्ष श्री अफ़ज़ाल पठान, हनीफ़ भाई तथा सदस्यों ने शाल, श्रीफ़ल, स्मृति चिन्ह तथा सम्मान पत्र भेंट कर सुश्री मेहदी को सम्मानित किया । संस्था ने सभी पधारे हुए अतिथि शायरों का पुष्पहार पहना कर स्वागत किया । मुशायरे का संचालन सीहोर के ही युवा शायर तथा कवि पंकज सुबीर ने किया तथा मुशायरे में सर्व श्री इशरत क़ादरी, नुसरत मेहदी, डॉ कैलाश गुरू स्वामी, उर्दू अकादमी के संयुक्त सचिव इक़बाल मसूद, नसीर परवाज़, रहबर जौनपुरी, अली अब्बास उम्मीद, फ़ारुख़ अंजुम, राना ज़ैबा, फ़रमान जियाई, ताज उद्दीन ताज, बद्र वास्ती, जलाल मैकश, अरमान अकबराबादी, आरिफ़ अली आरिफ़, पंकज सुबीर तथा रशीद सेदा ने ग़ज़लों की प्रस्तुतियों से श्रोताओं का मंत्रमुग्ध कर दिया । उर्दू अकादमी की सचिव नुसरत मेहदी द्वारा हिंदी के सम्मान में पढ़े गए छंद '' निज गरिमा अभिमान है हिंदी, देश की आन बान है हिंदी, पश्चिमी सभ्यता की आंधी में इक सुरक्षित मकान है हिंदी, और तारीफ़ क्या करूं इसकी मेरी उर्दू की शान है हिंदी'' को श्रोताओं ने ख़ूब सराहा । ग्वालियर से पधारीं कवियित्री ज़ेबा राना ने '' ये बात उसके मिलने के पहले की बात है , जब घर के काम काज में लगता था मन मेरा'' को सुमधुर तरन्नुम में प्रस्तुत कर समां बांध दिया । फ़ारुख़ अंजुम ने विशेष शैली में '' नज़र फ़ेर कर चल रही हैं हवाएं, सुना है कि ख़ुश्बू से रिश्ता हुआ है '' ग़ज़ल पढ़ी । रहबर जौनपुरी ने अपनी सुप्रसिद्ध नज़्म ''गंगा'' को अपनी बुलंद आवाज़ में पढ़कर ख़ूब दाद बटोरी । अंत में देश के वरिष्ठ उर्दू साहित्यकार श्री इशरत क़ादरी ने अपने अध्यक्षीय भाषण्ा में सीहोर के साथ अपने रिश्तों का जि़क्र किया और सीहोर की साहित्ियक चेतना की जम कर तारीफ़ की उन्होंने कहा कि सीहोर में साहित्य को लेकर जो माहौल है वो कम जगहों पर ही देखने को मिलता है । श्री क़ादरी ने कहा कि साहित्यकार को उर्दू और हिंदी की सीमाओं में नहीं बांधना चाहिये वो तो केवल साहित्यकार होता है । उन्होंने अपनी कुछ ग़ज़लों का पाठ भी किया । अंत में आभार श्री बसंत दासवानी ने व्यक्त किया । देर रात तक चले इस मुशायरे में बड़ी संख्या में शहर के काव्य प्रेमी श्रोता उपस्थित थ्ो ।

पंकज सुबीर

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