सुना है ऐसे में पहले भी बुझ गए हैं चरा्ग़ दिलों की ख़ैर मनाओ बड़ी उदास है रात
ग़ज़ल को लेकर कई बातें की जातीं हैं एक सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात जो मुझे सबसे ज्यादा सुनने मिलती है वो ये है कि ग़ज़ल तो मुसलमानों की चीज़ है । बताइये साहित्य भी किसी एक क़ौम या ज़ात को हो सकता है वो तो समूची मानवता के लिये होता है । जब मेरे दोस्त मुझसे कहते हैं कि तुम कहां ये गज़ल के चक्क्र में पड़ गए तो दुख होता है मुझे । खैर चलिये आज एक महत्वपूर्ण अध्याय प्रारंभ करना है और वो है मात्राओं का । गज़ल में अगर मात्रा निकालना आ गया तो फि़र समझो काफी काम हो गया है ।
मैंने पहले भी कहा है कि ग़ज़ल में मात्राओं से मिलकर बनते हैं रुक्न रुक्न से मिलकर बनते हैं मिसरे मिसरों से मिलकर बनता है शे'र और शे'रों से मिलकर बनती है हमारी नाज़ुक सी ग़ज़ल । तो मिल मिलाकर खेल अक्षरों और शब्दों का ही है । ध्यान दें मात्रा, मात्रा से रुक्न, रुक्न से मिसरे, मिसरों से शे'र और शे'रों से ग़ज़ल । अब इसमें अगर पूर्णता लानी है तो समझ लें कि आपको उस जगह पर शुद्धत लानी होगी जहां से ग़ज़ल की शुरुअत होती है । अर्थात मात्राओं से । मात्रा लघु या दीर्घ जो भी हो उसको उसी क्रम में आना है ।
उर्दू में काव्य के व्याकरण को अरूज़ कहा जाता है जिस तरह से हिंदी में पिंगल शास्त्र है । हालंकि हिंदी के कई सारे छंदों को उर्दू में भी अलग नाम से इस्तेमाल किया जाता है । जैसे बहरे रमल और हिंदी के हरिगीतिका छंद में काफी साम्य मिलता है । हिंदी का पिंगल जो कि वास्तव में संस्कृत का पिंगल है वो दुनिया का सबसे पुराना काव्य व्याकरण माना जाता है । किंतु उसमें मात्राओं की गणना आदि की इतनी अधिक दुश्वारियां हैं कि उसके कारण काफी कठिन होता है छंद लिखना । अरबी व्याकरण जो अरूज़ के नाम से उर्दू में ग़ज़ल के लिये लिया गया वो वास्तव में यूनानी अरूज़ से काफी प्रभावित है । क्योंकि ख़लील बिन अहमद जिन्होंने अरबी अरूज़ को जन्म दिया लगभग आठवीं सदी में वे यूनानी ज़ुबानके जानकार थे ।
इसी उर्दू पिंगल को अरूज़ कहा जाता है और इसके जानने वाले को अरूज़ी कहा जाता है । हालंकि उर्दू ग़ज़ल में बारे में मैं पहले भी कह चुका हूं कि ये तो वास्तव में घ्वनियों को ही खेल है । इसलिये कई लोग जिनको अरूज़ के बारे में ज़रा भी जानकारी नहीं है वे केवल रिदम या लय पर ही ग़ज़ल लिख लेते हैं और अक्सर पूरी तरह से बहर में ही लिख्ते हैं । ऐसा इसलिये क्योंकि ग़ज़ल में तो ध्वनियां ही हैं । अगर आप ताल पकड़ पाओ तो सब हो जाएगा । फिर भी बहर का ज्ञान होना इसलिये ज़रूरी है कि कई बार छोटी छोटी मात्राएं रिदम में आ जाती हैं मगर वास्तव में वैसा होता नहीं है । कई बार हम गा कर पढ़ देते हैं और आलाप में मात्राएं पी जाते हैं । इससे भी दोष ढंक जाता है पर रहता तो है ।
रिदम पर लिखने के साथ उसको तोलना भी ज़रूरी है और ये तोल ही वज़्न कहलाती है । शे'र को बहर की तराज़ू में तौलना यानि कि उसका वज़्न करना है इसीको तक़तीई करना भी कहते हैं इसको आप सीधी भाषा में तख्ती करना भी कह सकते हैं । मतलब अपने शे'रों को बहर के तराज़ू पर एक एक कर के कसना और फिर उनमें दोष निकालना । ध्यान दें दोष दो प्रकार का होता है एक तो व्याकरण को दोष और दूसरा विचारों का दोष । व्याकरण का दोष तो अरूज के ज्ञान से चला जाता हे पर विचारों के लिये तो वही बात है करत करत अभ्यास .....।
फऊलुन-फऊलुन-फऊलुन-फऊलुन
धुँआ ही धुँआ है भरा अंजुमन में,
लगी आग कैसी हमारे चमन में,
सबूतों के ज़रिए पता लग रहा है,
वहाँ कौन शामिल था लंका दहन में,
दिलों में गुलों में नदी के पुलों में,
नहीं चैन से है कोई अब वतन में,
भला कैसे पूरा करें काम 'मुन्ना',
नहीं आ रहा है कोई भाव मन में,
अभिनव ने होमवर्क अच्छा किया है केवल दूसरे शे'र के मिसरा उला में दूसरे रुक्न में समस्या है । उसको देख कर ठीक करें ।
अभी हम काफिया की बात कर रहे थे पिछले दिनों । कल जावेद अख्तर का एक गीत सुन रहा था और जैसे ही काफिया सुना उछल पड़ा, बस ये उछल पड़ना ही तो शायर की सफलता है । श्रोता आपके साथ जब गज़ल में बहता है तो वो एक ही बात की प्रतिक्षा करता है कि देख्ों कैसे निभाया जा रह है काफिया और जैसे ही कोई अद्भुत काफियाबंदी मिलती है वो उछल पड़ता हे जैसे में उछल पड़ा ।मैं वाह वाह कर रहा था और कार में बैठे मेरे स्टूडेंट्स सोच रहे थे कि सर को इस गाने में ऐसा क्या खास मिल गया । चलिये आप भी सुनें कि क्या खास था दरअस्ल में ये आम सा खास था
दिल में मेरे है दर्दे डिस्को दर्दे डिस्को दर्दे डिस्को
वो हसीना वो नीलम परी
कर गई कैसी जादूगरी
नींद इन आंखों से छीन ली है
दिल में बैचैनियां हैं भरीं
मैं बेचारा हूं आवारा बोलो
समझाऊं मैं ये अब किस किसको
ये तो मुखड़ा था अब मैं हैरान हो गया कि डिस्को के साथ जावेद साहब क्या काफिया लगाते है ।
अंतरा आया
लम्हा लम्हा अरमानों की फरमाइश थी
लम्हा लम्हा ज़ुर्रत की आज़माइश थी ( वाह वाह)
अब्रे क़रम घिर घिर के मुझपे बरसा था
अब्रे क़रम बरसा तो तब मैं तरसा था
फिर सूना हुआ मंज़र मेरा
वो मेरा सनम दिलबर मेरा
दिल तोड़ गया, मुझे छोड़ गया
वो पिछले महीने की छब्बिस को
दिल में मेरे है दर्दे डिस्को दर्दे डिस्को दर्दे डिस्को
जावेद साहब ने जैसे ही घुमाव के साथ लिखा पिछले महीने की छब्बिस को तो अहा हा आनंद आ गया ये आनंद ही तो है जो हम तलाश करते हैं कविता में ।
खैर अनूप जी ने उड़न तशतरी को उठाने की जगह किसी भरे हुए ट्रक को उठाना ज्यादा आसान कहा है । उस पर उड़न तश्तरी को नया वाला चश्मिश फोटो डाकू जब्बर सिंह छाप क्या बात है ।
ग़ज़ल को लेकर कई बातें की जातीं हैं एक सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात जो मुझे सबसे ज्यादा सुनने मिलती है वो ये है कि ग़ज़ल तो मुसलमानों की चीज़ है । बताइये साहित्य भी किसी एक क़ौम या ज़ात को हो सकता है वो तो समूची मानवता के लिये होता है । जब मेरे दोस्त मुझसे कहते हैं कि तुम कहां ये गज़ल के चक्क्र में पड़ गए तो दुख होता है मुझे । खैर चलिये आज एक महत्वपूर्ण अध्याय प्रारंभ करना है और वो है मात्राओं का । गज़ल में अगर मात्रा निकालना आ गया तो फि़र समझो काफी काम हो गया है ।
मैंने पहले भी कहा है कि ग़ज़ल में मात्राओं से मिलकर बनते हैं रुक्न रुक्न से मिलकर बनते हैं मिसरे मिसरों से मिलकर बनता है शे'र और शे'रों से मिलकर बनती है हमारी नाज़ुक सी ग़ज़ल । तो मिल मिलाकर खेल अक्षरों और शब्दों का ही है । ध्यान दें मात्रा, मात्रा से रुक्न, रुक्न से मिसरे, मिसरों से शे'र और शे'रों से ग़ज़ल । अब इसमें अगर पूर्णता लानी है तो समझ लें कि आपको उस जगह पर शुद्धत लानी होगी जहां से ग़ज़ल की शुरुअत होती है । अर्थात मात्राओं से । मात्रा लघु या दीर्घ जो भी हो उसको उसी क्रम में आना है ।
उर्दू में काव्य के व्याकरण को अरूज़ कहा जाता है जिस तरह से हिंदी में पिंगल शास्त्र है । हालंकि हिंदी के कई सारे छंदों को उर्दू में भी अलग नाम से इस्तेमाल किया जाता है । जैसे बहरे रमल और हिंदी के हरिगीतिका छंद में काफी साम्य मिलता है । हिंदी का पिंगल जो कि वास्तव में संस्कृत का पिंगल है वो दुनिया का सबसे पुराना काव्य व्याकरण माना जाता है । किंतु उसमें मात्राओं की गणना आदि की इतनी अधिक दुश्वारियां हैं कि उसके कारण काफी कठिन होता है छंद लिखना । अरबी व्याकरण जो अरूज़ के नाम से उर्दू में ग़ज़ल के लिये लिया गया वो वास्तव में यूनानी अरूज़ से काफी प्रभावित है । क्योंकि ख़लील बिन अहमद जिन्होंने अरबी अरूज़ को जन्म दिया लगभग आठवीं सदी में वे यूनानी ज़ुबानके जानकार थे ।
इसी उर्दू पिंगल को अरूज़ कहा जाता है और इसके जानने वाले को अरूज़ी कहा जाता है । हालंकि उर्दू ग़ज़ल में बारे में मैं पहले भी कह चुका हूं कि ये तो वास्तव में घ्वनियों को ही खेल है । इसलिये कई लोग जिनको अरूज़ के बारे में ज़रा भी जानकारी नहीं है वे केवल रिदम या लय पर ही ग़ज़ल लिख लेते हैं और अक्सर पूरी तरह से बहर में ही लिख्ते हैं । ऐसा इसलिये क्योंकि ग़ज़ल में तो ध्वनियां ही हैं । अगर आप ताल पकड़ पाओ तो सब हो जाएगा । फिर भी बहर का ज्ञान होना इसलिये ज़रूरी है कि कई बार छोटी छोटी मात्राएं रिदम में आ जाती हैं मगर वास्तव में वैसा होता नहीं है । कई बार हम गा कर पढ़ देते हैं और आलाप में मात्राएं पी जाते हैं । इससे भी दोष ढंक जाता है पर रहता तो है ।
रिदम पर लिखने के साथ उसको तोलना भी ज़रूरी है और ये तोल ही वज़्न कहलाती है । शे'र को बहर की तराज़ू में तौलना यानि कि उसका वज़्न करना है इसीको तक़तीई करना भी कहते हैं इसको आप सीधी भाषा में तख्ती करना भी कह सकते हैं । मतलब अपने शे'रों को बहर के तराज़ू पर एक एक कर के कसना और फिर उनमें दोष निकालना । ध्यान दें दोष दो प्रकार का होता है एक तो व्याकरण को दोष और दूसरा विचारों का दोष । व्याकरण का दोष तो अरूज के ज्ञान से चला जाता हे पर विचारों के लिये तो वही बात है करत करत अभ्यास .....।
फऊलुन-फऊलुन-फऊलुन-फऊलुन
धुँआ ही धुँआ है भरा अंजुमन में,
लगी आग कैसी हमारे चमन में,
सबूतों के ज़रिए पता लग रहा है,
वहाँ कौन शामिल था लंका दहन में,
दिलों में गुलों में नदी के पुलों में,
नहीं चैन से है कोई अब वतन में,
भला कैसे पूरा करें काम 'मुन्ना',
नहीं आ रहा है कोई भाव मन में,
अभिनव ने होमवर्क अच्छा किया है केवल दूसरे शे'र के मिसरा उला में दूसरे रुक्न में समस्या है । उसको देख कर ठीक करें ।
अभी हम काफिया की बात कर रहे थे पिछले दिनों । कल जावेद अख्तर का एक गीत सुन रहा था और जैसे ही काफिया सुना उछल पड़ा, बस ये उछल पड़ना ही तो शायर की सफलता है । श्रोता आपके साथ जब गज़ल में बहता है तो वो एक ही बात की प्रतिक्षा करता है कि देख्ों कैसे निभाया जा रह है काफिया और जैसे ही कोई अद्भुत काफियाबंदी मिलती है वो उछल पड़ता हे जैसे में उछल पड़ा ।मैं वाह वाह कर रहा था और कार में बैठे मेरे स्टूडेंट्स सोच रहे थे कि सर को इस गाने में ऐसा क्या खास मिल गया । चलिये आप भी सुनें कि क्या खास था दरअस्ल में ये आम सा खास था
दिल में मेरे है दर्दे डिस्को दर्दे डिस्को दर्दे डिस्को
वो हसीना वो नीलम परी
कर गई कैसी जादूगरी
नींद इन आंखों से छीन ली है
दिल में बैचैनियां हैं भरीं
मैं बेचारा हूं आवारा बोलो
समझाऊं मैं ये अब किस किसको
ये तो मुखड़ा था अब मैं हैरान हो गया कि डिस्को के साथ जावेद साहब क्या काफिया लगाते है ।
अंतरा आया
लम्हा लम्हा अरमानों की फरमाइश थी
लम्हा लम्हा ज़ुर्रत की आज़माइश थी ( वाह वाह)
अब्रे क़रम घिर घिर के मुझपे बरसा था
अब्रे क़रम बरसा तो तब मैं तरसा था
फिर सूना हुआ मंज़र मेरा
वो मेरा सनम दिलबर मेरा
दिल तोड़ गया, मुझे छोड़ गया
वो पिछले महीने की छब्बिस को
दिल में मेरे है दर्दे डिस्को दर्दे डिस्को दर्दे डिस्को
जावेद साहब ने जैसे ही घुमाव के साथ लिखा पिछले महीने की छब्बिस को तो अहा हा आनंद आ गया ये आनंद ही तो है जो हम तलाश करते हैं कविता में ।
खैर अनूप जी ने उड़न तशतरी को उठाने की जगह किसी भरे हुए ट्रक को उठाना ज्यादा आसान कहा है । उस पर उड़न तश्तरी को नया वाला चश्मिश फोटो डाकू जब्बर सिंह छाप क्या बात है ।
यस सर,
जवाब देंहटाएंदूसरे शेर का मिसरा उला तो हमें ठीक लगा। बल्कि पहले और दूसरे शेर के मिसरा सानी के तीसरे रुक्म में बहर की ग़लती दिख रही है। बताइएगा गुरुवर कि जो विभाजन हमनें किया है वह उचित है क्या।
मतलाः धुँआ ही धुँआ है भरा अंजुमन में, लगी आग कैसी हमारे चमन में,
पहला शेरः सबूतों के ज़रिए पता लग रहा है, वहाँ कौन शामिल था लंका दहन में,
व हाँ कौ - १ २ २
न शा मिल - १ २ २
था लं का - २ १ २ (यहाँ गड़बड़ है।)
द हन में, - १ २ २
दूसरा शेरः दिलों में गुलों में नदी के पुलों में, नहीं चैन से है कोई अब वतन में,
(मिसरा उला)
दिलों में
गु लों में - १ २ २ (दूसरा रुक्न, यह तो ठीक लग रहा है।)
नदी के
पुलों में,
(मिसरा सानी)
न हीं चै - १ २ २
न से है - १ २ २
को ई अब - २ २ २ (यहाँ भी गड़बड़ है।)
व तन में, - १ २ २
मक्ताः भला कैसे पूरा करें काम 'मुन्ना', नहीं आ रहा है कोई भाव मन में,
नहीं आप ग़लत हैं आप ये बार बार भूल जा रहे हैं कि मैंने दीर्घ के गिर कर लघु हो जाने की बात कही है
जवाब देंहटाएंधुं आ ही 122
धुं आ है 122
भ रा अन् 122
जु मन में 122
वहां कौन शामिल था लंका दहन में
व हां कौ 122
न शा मिल 122
था (गिरा हुआ दीर्घ) लन् का 122
द हन में 122
दिलों में गुलों में नदी के पुलों में
दि लों में 122
गु लों में 122
न दी के 122
पु लों में 122
नहीं चैन से है कोई अब वतन में
याद रखें कोई अक्सर गिर कर कुई हो जाता है
न हीं चै 122
न से है 122
कु ई अब 122
व तन में 122
सबूतों के जरिए पता लग रहा है
स बू तों 122
के ज रि 111
ए प ता 112
लग र हा है 2122
यहो दोष है जरिये को जर्ये करें तो चल जाएगा मगर वो ठीक नहीं होगा
आपकी बात समझ में आई है गुरुदेव। बहुत धन्यवाद। मेरा प्रयास होगा कि अगली जो भी ग़ज़ल लिखूँ वह सभी कसौटियों पर खरी उतरे।
जवाब देंहटाएंआपसे जो ज्ञान प्राप्त हो रहा है वह अद्भुत है तथा उससे यह जानने में बड़ी मदद मिल रही है कि ज्यादातर लोग यूँ ही ग़लत सलत शेर लिख कर अपने आप को बड़ा तीस मार खाँ समझ रहे हैं (हम भी उन्हीं में से एक थे)। कहीं एक शेर सुना था, अब उसका अर्थ भी कुछ कुछ समझ में आना शुरू हुआ है। वो शेर नीचे लिख रहा हूँ, ये ध्यान नही है कि किसका है,
हमसे पूछो किस तरह हमने गलाई ज़िन्दगी,
लोग कहते हैं ग़ज़ल लिखना बहुत आसान है।
Is blog kaa ek ek Post Sahej kar Rakhne layak hai.
जवाब देंहटाएंअपने आंसु छुपाना भी हम सीख गए
जवाब देंहटाएंबरसा पानी तो जा के हम भीग गए
गुरूजी आप ये बताइए की इसमें बहर सही है क्या? वजन मेरे हिसाब से है इसका
२२२२ २२२२ , २२१२
अब आप बताइए कुछ जगह गिरा कर शब्दों का बजन किया है, मतला अगर सही हो तो आगे कोशिश करू?
और गुरूजी केसे इन् सब बातो को ध्यान में रख कर लिखा जाए? अब तक मेरे जो मन में आता था था लिखता था पर अब तो इतना ध्यान रख क करना थोडा मुश्किल लग रहा है . कुछ सलाह दीजिये आप .