गुरुवार, 30 अक्तूबर 2014

दीपावली से जुड़े हुए महापर्व छठ पर्व पे सूर्य को प्रात: का अर्घ्‍य देकर सुनते हैं दो रचनाएं। एक हजल और एक सजल ।

हजल और सजल ? ये क्‍या हो रहा है । इसल में हजल तो हजल होती है । उसके बारे में तो बताने की आवश्‍यकता नहीं है । लेकिन एक सजल भी होती है । सजल वो जो भावनाओं के, प्रेम के जल से परिपूरित होती है । और उस सजल कलश से हम उन सब अपनों को अर्घ्‍य देते हैं जिनसे हम प्रेम करते हैं नेह करते हैं । चूंकि ये रचना प्रेम के जल से परिपूरित होती है इसलिए इसे सजल कहा जाएगा। जीवन में इस जल का बहुत महत्‍व भी है और शायद आज की तारीख में बहुत आवश्‍यकता भी है । तो आज एक हजल श्री मन्‍सूर अली हाशमी जी की और एक सजल श्री राकेश खण्‍डेलवाल जी की। चूँकि भभ्‍भड़ कवि भौंचक्‍के के आने के लिए कुछ भूमिका भी तो बनानी है इसलिए हाशमी जी की हजल का होना तो बनता ही बनता है। और ये सजल जो है ये राकेश जी ने कल की पोस्‍ट में टिप्‍पणी के रूप में की थी, मैंने उसे वहां से डिलिटिया दिया और उसे यहां के लिए सुरक्षित कर लिया । हो सकता है कि डिलिटियाने के पूर्व कुछ लोगों ने उसे वहां पढ़ लिया हो। तो वही है । एक राज की बात बताऊं इस बार के मिसरे में हजल की ज़बरदस्‍त संभावना थी। मैं सोच रहा था कि कुछ और आएंगी लेकिन एक ही आई । तो आइये सुनते हैं सजल और हजल।

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अँधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं

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राकेश खंडेलवाल जी

गज़ल के शेर ये तब होंठ आ सजाते हैं
‘तिलक’ लगाये जो ‘नीरजजी’ मुस्कुराते हैं

गज़ब की सोच लिये लोकगीत की धुन पर
कई हैं झोंके जो ‘सौरभ’ से गुनगुनाते हैं

है ‘शार्दुला’ की छुअन जो नई खदानों से
तराशे खुद को कई हीरे निकले आते हैं

‘द्विजेन्द्र  द्विज’ ने कहा क्या  न जाने कानों में
के ‘नास्वां जी दिगम्बर’ जो खिलखिलाते हैं

कहा ‘मुकेश’ से कल ये ‘गिरीश’-‘पंकज’ ने
तमाम शे’र ये ‘नुस्रत’ से रब की आते हैं

हुये कलामशुदा हैं ‘भरोल’ कुछ ऐसे
‘सुबीर’ देख के फूले नहीं समाते हैं

‘शिफ़ा’ के हाथ की मेंहदी के देख कर बूटे
“सुबीर सेवा” पे ‘डिम्पल’ सँवर के आते हैं

‘सुधा’ बरसती है ‘लावण्य’ निखरा आता है
बड़ी ‘सुलभ’ता से अशआर कहे जाते हैं

हुआ है ‘दानी’ भी ‘शाहिद’ ये ‘हाशमी’ ने कहा
‘नवीन’ क्या है ये ‘सज्जन’ समझ न पाते हैं

किरण से चमके हैं ‘पंकज’ पे कण तुहिन के या
“अंधेरी रात में ये दीप झिलमिलाते हैं”
 

और ये शे'र पूरी सुबीर संवाद सेवा की ओर से राकेश खंडेलवाल जी को । इसे राकेश जी ने नहीं लिखा बल्कि भभ्‍भड़ कवि भौंचक्‍के ने लिखा है ।

खड़े ही रहते हैं ‘भभ्भड़ कवि भी भौंचक्के’ 
मधुर सा गीत जो ‘खंडेलवाल’ गाते हैं

क्‍या कोई नाम छूटा है  ? नहीं छूटा है। सब के सब आ गये हैं। क्‍या बात है पूरी की पूरी दीपावली तरही के रचनाकारों के नाम शामिल हो गए हैं । कहीं कोई भी नहीं छूटा । ये राकेश जी का ही कमाल है, वो शायद सोचते भी गीतों में ही हैं । उनके विचार भी छंदों के ही रूप में आते हैं । सुबीर संवाद सेवा के आयोजन दरअसल पारिवारिक आयोजन होते हैं। यहां हम मिलते हैं उत्‍सव मनाते हैं और आनंद लेते हैं। और ये जो सजल है ये उसी आनंद में कुछ बढ़ोतरी कर रही है ।

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Mansoor ali Hashmi

मन्सूर अली हाशमी

ढली है उम्र,  मगर अब भी वो लजाते हैं
वो 'फेसबुक' पे भी पहने नक़ाब आते हैं।

है प्यार मैके से लेकिन वो कम ही जाते है 
बस अपनी मम्मी को जब-तब यहीं बुलाते हैं।

वो करवा चौथ को कुछ इस तरह मनाते हैं
न खाते ख़ुद है,  न हमको ही वो खिलाते हैं।

उन्हें भी लत लगी अब फेसबुक पे जाने की
सुहानी रात में हमको परे हटाते हैं  !

कभी वो 'चकड़ी' पकड़ती तो हम 'चगाते' थे
अब अपनी-अपनी पतंगें  अलग उड़ाते हैं। 

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जीवन में हर रस का अपना महत्‍व है । और हास्‍य का तो विशेष तौर पर महत्‍व है। हजल विशुद्ध हास्‍य की रचनाएं होती हैं। क्‍योंकि व्‍यंग्‍य तो सामान्‍य रूप से ग़ज़लों में ही होता है। हजल गुदगुदाती है आनंद देती है। वैसे इस हजल में एक शेर ऐसा भी है जो हजल से हट कर है । आखिरी शेर दूसरे अर्थ में देखा जाए तो मन को गहरे तक छू जाता है और पलकों की कोरों को भिगो भी देता है। वरना हँसने के लिए तो करवा चौथ और फेसबुक है ही। ग़नीमत है अभी इस प्रकार की करवा चौथ पूरे देश में नहीं हुई है। अंतिम शेर का आनंद लेने में जिन लोगों को देशज शब्‍दों के कारण दिक्‍कत  आ रही हो तो उनके लिए ये कि पतंग दो लोग मिलकर उड़ाते हैं। एक धागे चरखी ( चकड़ी और चड़खी भी कहते हैं जिसे बोली में) पकड़ता है और दूसरा पतंग उड़ाता है, धागा  छोड़ता है ( चगाता है ) । आनंद लीजिए इस शेर का और मुस्‍कुराते रहिए।

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भभ्‍भड़ कवि भौंचक्‍के इस समय सचमुच में भौंचक्‍के हैं। कुछ सूझ नहीं रहा है कि अपनी इज्‍जत ( इज्‍़ज़त नहीं इज्‍जत) कैसे बचाई जाए। खैर कुछ न कुछ तो सूरत निकलेगी ही अभी तो देव उठनी ग्‍यारस में तीन दिन हैं बीच में संडे है तो कुछ न कुछ तो होगा। तो आज की दोनों रचनाओं का आनंद लीजिए और दाद देते रहिए।

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मंगलवार, 28 अक्तूबर 2014

बासी दीपावली मनाना भी तो परंपरा है । और वैसे भी दीपावली तो देव प्रबोधनी एकादशी तक रहती है । तो आइये मनाते हैं बासी दीपावली ।

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सुबीर संवाद सेवा के तरही मुशायरों का एक रोचक पहलू ये है कि जब मिसरा दिया जाता है तब ऐसा लगता है कि उत्‍साह में कुछ कमी है । टुक टुक करके धीरे धीरे एक आध ग़जल़ आती है । यहां तक कि मुशायरा शुरू भी हो जाता है और फिर भी सीमित ग़ज़लें ही रहती हैं । फिर ग़ज़लों का प्रस्‍तुत होना और उस पर श्रोताओं की लम्‍बी लम्‍बी टिप्‍पणियां उत्‍साह बढ़ाने लगती हैं । नींद टूटने लगती है । और धड़ा धड़ ग़जल़ें आने लगती हैं । मेरे विचार में ग़ज़लों को लगाने के बाद जो श्रोताओं की टिप्‍पणियां और बहस, चर्चाएं होती हैं असल में उत्‍साह का कारण वह ही होती हैं । मुशायरों की असल रोचकता उन्‍हीं से होती हैं । जैसे पिछली पोस्‍ट पर पचास से अधिक टिपपणियां और वो भी लम्‍बी लम्‍बी । नुसरत दी ने मुझे कहा कि पंकज तुमने तो यहां अनोखा ही माहौल बना रखा है । मैंने कहा कि मैंने नहीं हम सबने बना रखा है । सुबीर संवाद सेवा मेरा नहीं है । ये सबका मंच है । हम सबका । मैं कुछ नहीं । इस बार लम्‍बे अंतराल के बाद मुशायरे का आयोजन हुआ और उसमें इतने उत्‍साह के साथ इतने लोग चले आए।

और जैसा कि होता है दीपावली के बाद भी ग़जलें मिलने का सिलसिला चल रहा है, क्‍योंकि सबको पता है कि बासी दीपावली भी मनाई जाती है । और बल्कि देव उठनी ग्‍यारस तक दीपावली रहती है । पुरानी परंपराओं में शरद पूर्णिमा से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तक पूरे एक माह का त्‍यौहार होता था दीपावली । अब व्‍यस्‍तताओं ने उसे घटा कर पांच दिन का कर दिया है । खैर हमें उससे क्‍या हम तो मना ही सकते हैं ग्‍यारस तक दीपावली को । भभ्‍भड़ कवि भौंचक्‍के ने अपने लिए पूर्व से ही ग्‍यारस का दिन तय कर रखा है पदार्पण करने हेतु।

इस बार का मिसरा ईता दोष की संभावना से भरा हुआ था । विशेष कर छोटी ईता के दोष से । और एक संभावना ये भी थी कि यदि ज़रा चूके तो तीसरा रुक्‍न 1212 के स्‍थान पर 1122 हा जाएगा क्‍योंकि गुनगुनाने में दोनों की ध्‍वनि एक सी होती है। फर्क पकड़ में आता है तकतीई करने पर । और हां दूसरे रुक्‍न के भी 1122 के स्‍थान पर 1212 होने की संभावना हमेशा रहती है । इसके बाद भी सबने इन दोषों से बचा कर निर्दोष ग़ज़लें कहीं। आइये आज दो शायरों के साथ मनाते हैं बासी दीपावली । अभी और भी कुछ नाम आने को हैं । जैसे हाशमी जी की एक हजल भी बासी दीपावली के बम के रूप में कभी भी फूट सकती है । और भभ्‍भड़ कवि तो हैं ही।

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अँधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं

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mukesh tiwari

मुकेश कुमार तिवारी

ज़मीं पे ख़ुशियों के तारे बिखर से जाते हैं
अंधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं

वो लोग जिनके ही कारण है गंद फैली यहां 
वही हमेशा सफेदी से जगमगाते हैं

है ठोकरों में लिखा जब नसीब मेरा तो
सितारे क्यूँ ये भला ख़ुद को आज़माते हैं

ज़माना बदलेगा उम्मीद ज़िंदा है अब भी
भले ही पाँव नज़र क़ब्र में ये आते हैं

हम्‍म देर आयद दुरुस्‍त आयद, खूब ग़ज़ल कही है । मुकेश जी कम लिखते हैं मगर अच्‍छा लिखते हैं । मुकेश जी अपनी ग़ज़लों में आम बोलचाल के शब्‍दों को खूब लाते हैं । समसामयिक बातें करना उनकी ग़जल़ों की विशेषता है । गंद और जगमगाने के विरोधाभास को एक ही शेर में बहुत ही सुंदर तरीके से पिरोया है। ऐसा ही एक विरोधाभास से भरा हुआ शेर नसीब और ठोकरों का है। और अंत का शेर सकारात्‍मकता से भरा हुआ शेर है । मुकेश जी ने तरही की ट्रेन भागते दौड़ते अगले स्‍टेशन से पकड़ी है लेकिन फिर भी उन लोगों से बेहतर हैं जो घर में ही बैठे रहे और ट्रेन पकड़ नहीं सके। बहुत सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।

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शार्दूला नोगजा जी

मुहाने अंध गली के जो खुद को पाते हैं
तुम्हारी आँखोँ के कंदील याद आते हैं

गँवार ग्वालनें सिखलातीं प्रेम उद्धव को
बिरज में ज्ञान, सयाने भी भूल जाते हैं

सिया-सिया जो पुकारा था राम ने वन में 
अभी भी स्वर्ण वरन से हिरन लजाते हैं

कलेजा तेज़ हवाओं का मुँह को आता है
अंधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं

कोई संवारता रंगीन पातों से मौसम
यूँ जंगलात तेरे शहर मुस्कुराते हैं

है मास्टरों सी बुझाती शिकस्त बत्तियां और
यकीं के बच्चे लिहाफ़ों में फुसफुसाते हैं

शरों के सेज पे जब थक के 'शार' सोती है
तेरी ग़ज़ल के कफ-ए-दस्त थपथपाते हैं

शार्दूला दी का मुशायरे में होना इस बात का प्रमाण है कि दीपावली की इस कम बैक तरही को लोगों ने कितनी आत्‍मीयता से लिया है । सबसे पहले बात गिरह के शेर की । बिल्‍कुल अलग प्रकार से गिरह बांधी है । तेज़ हवाओं का कलेजा मुंह को आने का अद्भुत है । खूब। और ऊपर के दो शेर एक राम का और एक कृष्‍ण का, दोनों में क्‍या कमाल का बिम्‍ब खींचा है। विशेषकर सिया सिया जो पुकारा था राम ने बन में की तो बात ही अलग है । खूब चित्र है।  और गंवार ग्‍वालनों से ज्ञान सीखते हुए उद्धव की तो बात ही क्‍या है सच में ब्रज में ज्ञानी भी सब भूल जाते हैं। यकीं के बच्‍चों के लिहाफों में फुसफुसाने की तो बात ही क्‍या है अहा आनंद आ ही गया। सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।

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तो आज की इन दोनों ग़जल़ों का आनंद लीजिए और दाद देते रहिये। ये बासी दीपावली है इसको भी उतने ही उमंग और उत्‍साह के साथ मनना चाहिए यदि उमंग और उत्‍साह में ज़रा भी कमी आई तो भभ्‍भड़ कवि रूठ जाएंगे और नहीं आएंगे।

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गुरुवार, 23 अक्तूबर 2014

ऐसी दीपावली जिसकी हर किसी को प्रतीक्षा होती है एक से बढ़कर एक दीपकों के प्रकाश से सजी दीपावली की ये तरही दीपमाला।

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शुभ दीपावली-शुभ दीपावली-शुभ दीपावली

लीजिए आज दीपावली भी आ गई। दीपों का ये त्‍योहार आप सबके जीवन में खुशियां लाए उजाला लाए और समृद्धि लाए। सुबीर संवाद सेवा पर आयोजनों का सिलसिला इसी प्रकार चलता रहे। हम सब लिखते रहें सिरजते रहें। विचारों को शब्‍दों का लिबास पहना कर रचनाओं में ढालते रहें। जीवन में उत्‍साह हो, उमंग हो और गति हो। क्‍योंकि प्रगति से अधिक आवश्‍यक है गति। हम अपनी गति से गतिमान रहें । हमारे जीवन में दीपमालाओं का प्रकाश हमेशा उजास भरता रहे। आप सब आने वाले वर्ष भर खुशियों में, उमंगों में, आनंद में सराबोर रहें। वो सब कुछ मिले जिसकी इच्‍छा की हो। मंगल कामनाएं, शुभकामनाएं। आनंद आनंद आनंद।

आज तो सचमुच दीपावली ही हो रही है । और इतनी उजासमय दीपावली कि हर ओर केवल प्रकाश ही प्रकाश है । दिग्‍गज रचनाकारों के शब्‍दों के दीपकों का प्रकाश आज दीपावली को प्रकाशमान कर रहा है । तो आइये उल्‍लास में डूबते हैं और चलते हैं तरही की दीपमाला की ओर। राकेश खंडेलवाल जी, सौरभ पाण्‍डेय जी, नुसरत मेहदी जी, द्विजेन्‍द्र द्विज जी, नीरज गोस्‍वामी जी, तिलकराज कपूर जी, राजीव भरोल और विनोद पाण्‍डेय के साथ आइये मनाते हैं दीपावली ।

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अँधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं

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राकेश खंडेलवाल जी

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अंधेरी रात में जब दीप  झिलमिलाते हैं

कक्ष में बैठी हुई पसरी उदासी जम कर
शून्य सा  भर गया है  आन कर निगाहों में
और निगले है  छागलों को प्यास उगती हुई
तृप्ति को बून्द नहीं है  गगन की राहों में
फ़्रेम ईजिल पे टँगा है  क्षितिज की सूना सा
रंग कूची की कोई उँगली भी न छू पाते हैं
इन सभी को नये आयाम मिला करते हैं
अंधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं

लेके अँगड़ाई नई पाँव उठे मौसम के
सांझ ने पहनी नई साड़ी नये रंगों की
फिर थिरकने लगी पायल गगन के गंगातट
चटखने लग गई है धूप नव उमंगों की
दिन की आवारगी में भटके हुये यायावर
लौट दहलीज पे आ अल्पना सजाते हैं
इक नई आभ नया रूप निखर आता है
अंधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं

पंचवटियां हुई हैं आज सुहागन  फिर से
अब ना मारीच का भ्रम जाल फ़ैल पायेगा
रेख खींचेगा नहीं कोई बंदिशों की अब
कोई न भूमिसुता को नजर लगाएगा
शक्ति का पुञ्ज पूज्य होता रहा हर युग में
बात भूली हुई ये आज फिर बताते हैं
हमें ये भूली धरोहर का ज्ञान देते हैं
अंधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं 

राकेश जी के गीतों में शब्‍द मोती माणिक की तरह जड़े होते हैं । और उन पर जब विचारों का प्रकाश पड़ता है तो दसों दिशाओं में झिलमिल सी होने लगती है । दीपावली के दिन राकेश जी का गीत पढ़ना इससे अच्‍छा संयोग और क्‍या होगा। पंचवटियों के सुहागन होने का बिम्‍ब और उस पर मारीच का भ्रम जाल, वाह क्‍या प्रयोग किया है । उसी प्रकार सांझ द्वारा पहनी हुई नए रंगों की साड़ी का प्रतीक भी खूब है । दिन की आवारगी के भटके हुए यायावरों द्वारा दहलीज पर आकर अल्‍पना सजाना, कमाल है। बहुत ही सुंदर गीत । बहुत सुंदर, वाह वाह वाह।

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Saurabh

सौरभ पाण्‍डेय जी

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अनेक भाव हृदय में उकेर जाते हैं ।
अँधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं ॥

किसी उदास की पीड़ा सजल हृदय में ले
निशा निराश हुई, चुप वृथा पड़ी सी थी
तथा निग़ाह कहीं दूर व्योम में उलझी
किसी करीब के होने की आस जीती थी

मगर रुकी है कहाँ ज़िन्दग़ी किसी पल भी
इसी विचार को समवेत स्वर में गाते हैं--
अँधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं !!

उतावली कोई अल्हड़ झिंझोर दे मणियाँ
कभी लगे कि झरे पारिजात अदबद कर
रसालकुंज अघाया, हुआ मताया-सा
कुमारियों की नरम देह झुक गयी लद कर

शकुंतला है इन्हीं वृक्ष, वन-लताओं में 
पुलक-पुकार से दुष्यंत फिर बुलाते हैं !
अँधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं !!

धरा के अंग पे सुन्दर लगें ये आभूषण
कभी सुहाग के कुंकुम बने निखरते हैं
महावरों की लकीरों-से रच गये, या फिर- 
सुहाग-रंग छुए अंग बन-सँवरते हैं

लगे धरा ये सिहरती हुई नयी दुल्हन
’अटल रहे तेरा अहिवात..’ बोल भाते हैं !
अँधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं !!

सौरभ जी की गीतों में मैं अक्‍सर तलाशता हूं कि कहां कोई बोली का, लोक का शब्‍द आया है। ये शब्‍द एक मीठी सी ध्‍वनि कानों में घोल देते हैं । जैसे कि पारिजात का 'अदबद' कर गिरना। अब ये 'अदबद' क्‍या है, इसकी व्‍याख्‍या नहीं हो सकती । ये लोक का शब्‍द है । हमारे लोक के शब्‍द विलुप्‍त हो रहे हैं, उन्‍हें बचाने हेतु सौरभ जी का साधुवाद। रसालकुंज का अघाना... उफ क्‍या बिम्‍ब है । अहा आनंद ही आ गया । कुंकुम, महावर के साथ 'सुहाग रंग छुए अंग' आहा क्‍या कह दिया है । पंक्ति दिल में उतरती चली गई है । अटल रहे तेरा अहिवात का प्रयोग धरा के संदर्भ में खूब है । सुंदर गीत । वाह वाह वाह।

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नुसरत मेहदी जी

नुसरत दी अमेरिका का दो माह का बहुत व्‍यस्‍त दौरा पूरा करके लौटी हैं। और सफर में ही ट्रेन से मुझे मैसेज किया कि पंकज तरही में मैं भी आऊंगी। और कल ही रात को उनकी ये ग़ज़ल मुझे मोबाइल पर मिली । सचमुच इस प्रकार की आत्‍मीयता को देख कर लग रहा है कि सुबीर संवाद सेवा को इतने दिनों से कम सक्रिय रख कर मैंने कितना कुछ खोया ।

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यक़ीन उनको बज़ाहिर तो हम दिखाते हैं
पर उनकी वादा खिलाफी से डर भी जाते हैं

ये सोचकर कि तग़ाफ़ुल तो उन की फ़ितरत है
हम अपने दिल को बड़ी देर तक मनाते हैं

अना कहाँ है मोहब्बत में ये भी होता है
ख़फा भी होतें हैं और ख़ुद ही मान जातें हैं

चमकने लगते हैं कुछ और ख्वाब आँखों में
अँधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं

मैं बदगुमाँ नहीं तुमसे मगर ये जग वाले
ये बदगुमानी के क़िस्से बहुत सुनाते हैं

उसे तो लौट ही आना था और वो लौट आया
कि दिन ढले तो परिंदे भी लौट आते हैं

थकन से चूर मुसाफिर ज़रा ख़्याल रहे
तेरे सफर में मिरे रतजगे भी आते हैं

ग़ज़ल के बारे में क्‍या कहूं । गिरह का शेर ही क्‍या खूब बांधा गया है । मिसरा उला में 'और' शब्‍द क्‍या कमाल आया है। और मतला तो उफ उफ है । दोनों स्थितियों को दो मिसरों में कमाल कमाल बांधा है । मगर जिस शेर में रंग-ए-नुसरत मेहदी है वो है अ‍ाखिर का शेर । इस शेर को सुन कर लक्ष्‍मण और उर्मिला की याद आ गई । यकीनन ये शेर उर्मिला की ओर से राम के साथ वनवास को गए लक्ष्‍मण के लिए ही है । तेरे सफर में मेरे रतजगे भी आते हैं । वाह कमाल किया है । उसे तो लौट ही आना था और वो लौट आया, मिसरे में कितनी नफासत से बुनाई की गई है कि जोड़ नज़र ही न आए। किसी के लौट आने को दिन ढले लोटे परिंदों से तुलना करना खूब । सुंदर ग़ज़ल अति सुंदर ग़ज़ल। वाह वाह वाह।

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द्विजेन्द्र ‘द्विज’ जी

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क़दम-क़दम पे उजाले ग़ज़ल सुनाते हैं
‘अँधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं’

चिराग़  रौशनी  का गीत गुनगुनाते हैं
नई उमंग के मौसम पलट के आते हैं

तिमिर के पाँव उजालों से थरथरा उठ्ठें
हम इस मुराद से दीपावली मनाते हैं

महक जब उठता है उल्लास दिल के आँगन में
हमारे हौसलों के फूल मुस्कुराते हैं

पटाख़े दिल में उमंगों के कम नहीं यारो !
फिर आप आग से बारूद क्यों जलाते हैं ?

अँधेरे बैर के दिल से निकालिए साहब
दीए जलाने का दस्तूर क्यों निभाते हैं ?

जिगर के टुकड़ों को परदेस भेज कर यारो !
बताओ हम कोई दीपावली मनाते है?

अब इन्तज़ार में आँखें भी आसमान हुईं
सितारे आस के हर वक़्त टिमटिमाते हैं

हवाई हौसलों की आसमाँ छुए यारो !
दुआ हम आज ये अपने लबों पे लाते हैं

है घर न घर में कोई मुन्तज़र कहीं जिनका
‘द्विज’ उनके दिल में दिए आग-ही लगाते हैं ।

पटाखे दिल में उमंगों के कम नहीं यारों, अहा क्‍या बात कही है द्विज जी, मज़ा आ गया। सच कहा दिल में इतनी उमंगें हैं तो बारूद की ज़रूरत ही क्‍या है । इन्‍तज़ार में आंखों का आसमान हो जाना, खूब कहा है । अँधेरे बैर के दिल से निकालिए साहब में मिसरा सानी कमाल का रचा गया है। दस्‍तूर शब्‍द को खूब पिरोया गया है मिसरे में । वाह। और मेरे मन का शेर जिगर के टुकड़ों को परदेस भेज कर यारों, बताओ हम कोई दीपावली मनाते हैं, उदास कर गया अंदर तक ये शेर। सच कहा जब अपने बच्‍चे साथ हों तभी तो दीपावली होती है । दोनों मतले भी बहुत ही सुंदर और सकारात्‍मक सोच से भरे हुए हैं । बहुत ही उम्‍दा ग़ज़ल। अति सुंदर। वाह वाह वाह।

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नीरज गोस्‍वामी जी

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दुबक के ग़म मेरे जाने किधर को जाते हैं
अँधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं

हज़ार बार कहा यूँ न देखिये मुझको
हज़ार बार मगर, देख कर सताते हैं

उदासियों से मुहब्बत किया नहीं करते
हुआ हुआ सो हुआ भूल, खिलखिलाते हैं   

हमें पता है कि मौका मिला तो काटेगा
हमीं ये दूध मगर सांप को पिलाते हैं

कमाल लोग वो लगते हैं मुझ को दुनिया में 
जो बात बात पे बस कहकहे लगाते हैं

जहाँ बदलने की कोशिश ही की नहीं हमने
बदल के खुद ही जमाने को हम दिखाते हैं
  

बहुत करीब हैं दिल के मेरे सभी दुश्मन
निपटना दोस्तों से वो मुझे सिखाते हैं

गिला करूँ मैं किसी बात पर अगर उनसे
तो वो पलट के  मुझे आईना दिखाते हैं
  

रहो करीब तो कड़ुवाहटें पनपती हैं
मिठास रिश्तों की कुछ फासले बढ़ाते हैं

नहीं पसंद जिन्हें फूल वो सही हैं, मगर
गलत हैं वो जो सदा खार ही उगाते हैं
     

ये बादशाह दिए रोंद कर अंधेरों को
गुलाम मान के, अपने तले दबाते हैं   

बहुत कठिन है जहां में सभी को खुश रखना
कि लोग रब पे भी तो उँगलियाँ उठाते हैं
   

जिसे अंधेरों से बेहद लगाव हो 'नीरज'
चराग सामने उसके नहीं जलाते हैं 

हज़ार बार कहा यूँ न देखिये हमको, क्‍या मासूम शेर है। रंगे नीरज से रँगा हुआ शेर। मिसरा सानी की मासूमियत पर तो कुर्बान। दीपकों के लिए बादशाह का प्रयोग और अंधेरे के लिए गुलाम का बिम्‍ब बहुत ही खूब बना है उसे शेर में । ये पूरी ग़ज़ल रंग-ए-नीरज से सराबोर ग़ज़ल है । जिसमें क़दम क़दम पर आपको सकारात्‍मक सोच मिलेगी और मिलेगा जीवन का आनंद। जैसे एक मिसरा उदासियों से मुहब्‍बत नहीं किया करते, क्‍या खूब कहा है। हुआ, हुआ सो हुआ। सब भूल कर खिलखिलाना ही तो नीरज गोस्‍वामी की ग़ज़लों की विशेषता है। जहां बदलने की कोशिश के बदले अपने आप को ही बदलना, खूब कहा है । बहुत ही सुंदर ग़ज़ल, वाह वाह वाह।

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Tilak Raj Kapoor

तिलक राज कपूर जी

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जरा ठहरिये दिया घर में भी जलाते हैं
अभी सियाह अंधेरे में कुछ अहाते हैं।

दियों की रीत है जलते हैं मुस्कुराते हैं
जहॉं भी स्नेह मिले ये तिमिर भगाते हैं।

लहू में दौड़ रही हैं नसीहतें मां की
सियाह काम हमेशा मुझे डराते हैं।

जहां की खैर मना के मनाइये अपनी
बड़े बुजुर्ग हमारे यही सिखाते हैं।

हर एक रात सवेरे की आस दिखती है
अंधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं।

हवा में बढ़ने लगी है सड़ॉंध नफ़रत की
चलो कि पौध मुहब्बत की हम लगाते हैं।

तुम्हीं कहो कि सितारों से क्या मुहब्बत जो
हदों से दूर, बहुत दूर जगमगाते हैं।

और तीन मत्ले के शेर विशेष तौर पर जवान, किसान और मेहनतकश के लिये 

ढकी है बर्फ़ से सरहद जिसे बचाते हैं
वतन की ओर उठी ऑंख हम झुकाते हैं।

किसान खेत में अपना लहू जलाते हैं
उसी के दम पे हरे खेत लहलहाते हैं।

लिये बदन में थकन जो शयन को जाते हैं
जनाब नींद की गोली कहॉं वो खाते हैं।

लहू में दौड़ रही है नसीहतें मां की, बहुत ही सुंदर तरीके से और सलीके से बात को कहा गया है इस शेर में । मां की नसीहतों से बुराई से लड़ने की प्रेरणा, वाह । मतला बहुत गंभीर इशारा कर रहा है । घर में दीपक जलाने के पहले उन अँधेरों को मिटाने का भी प्रयास हो जो घर के बाहर हैं। तीन विशेष रूप से बनाए गए मतले बहुत अच्‍छे बने हैं । विशेषकर जवान वाले मतले में मिसरा सानी खूब अच्‍छा है। किसान के लहू से खेतों में हरियाली होने की बात और सोच दोनों को सलाम। सच में यदि किसान खेतों में अपना लहू न बहाए तो ये हरियाली हो ही नहीं। और नफरत की सड़ांध को हटाने की लिए पौधे लगाने की भावना सुदंर है । बहुत ही सुंदर ग़ज़ल। वाह वाह वाह।

deepawali (4)

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राजीव भरोल

deepawali (9)

उसे उसी की ये कड़वी दवा पिलाते हैं,
चल आईने को ज़रा आइना दिखाते हैं.

गुज़र तो जाते हैं बादल ग़मों के भी लेकिन,
हसीन चेहरों पे आज़ार छोड़ जाते हैं.

खुद अपने ज़र्फ़ पे क्यों इस कदर भरोसा है,
कभी ये सोचा की खुद को भी आजमाते हैं?

वो एक शख्स जो हम सब को भूल बैठा है,
मैं सोचता हूँ उसे हम भी भूल जाते हैं
.

अगर किसी को कोई वास्ता नहीं मुझसे,
तो मेरी ओर ये पत्थर कहाँ से आते हैं.

तुम्हारी यादों की बगिया में है नमी इतनी,
टहलने निकलें तो पल भर में भीग जाते हैं.

तेरी चुनर के सितारों की याद आती है,
"अँधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं".

अब इस कदर भी तो भोले नहीं हो तुम 'राजीव',
तुम्हें भी सारे इशारे समझ तो आते हैं

तुम्‍हारी यादों की बगिया में है नमी इतनी में जिस प्रकार से मिसरा सानी को रचा है वो कमाल है । टहलने निकलें तो पल भर में भीग जाते हैं । क्‍या खूब, याद रह जाने वाला शेर। वो एक शख्‍स जो हम सब को भूल बैठा है में भी मिसरा सानी चौंकाता हुआ आता है । भुलाने वाले को भूल जाना, क्‍या बात है । कमाल। गिरह का शेर भी कमाल का बना है, सचमुच बहुत सुंदर गिरह। चुनर के सितारों को दीपकों के झिलमिलाने से जोड़ देना। बहुत खूब। मकते की मासूमियत लुभाने वाली है। राजीव ने एक कठिन काम किया है, कठिन काम होता है मिसरा सानी ज्‍यादा अच्‍छे रच लेना। और राजीव ने मिसरा सानी सारे खूब कहे हैं। मकते में भी यही बात है । बहुत सुंदर ग़ज़ल। वाह वाह वाह।

deepawali (4)

vinod

विनोद पाण्डेय

deepawali (9)

चलो के मिल  के ये दीपावली मनाते है
ख़ुशी के रंग से तन-मन-सपन सजाते हैं

मचल रहा है गगन देख रूप धरती का
दीये हम अपने घर आँगन में जब जलाते हैं

नयी उम्‍मीद नया जोश मन में भरता है
अँधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं ।

ख़ुशी की रोशनी और प्रीति की ध्वनि उपजे
चलो दुःखो के पटाखे सभी बजाते हैं

रखो ये बात सदा याद, प्यार में हो गर
हँसाने वाले ही एक दिन यहाँ रुलाते है

वो क्यों डरेंगे भला डूबने से दरिया में
नहीं जो छोड़ किनारा कभी भी जाते हैं

बहुत जो बोलते हैं बात आजमाने की
नहीं कभी वो मुसीबत में काम आते हैं

विनोद पाण्‍डेय की ग़ज़ल भी तरही में दौड़ते भागते शामिल हुई है अंतिम समय पर । लेकिन बात वही है कि इस जज्‍़बे को सलाम जिसके चलते सुबीर संवाद सेवा के इस आयोजन को सार्थक बनाने सब एक एक कर आ गए । हँसाने वाले ही एक दिन यहां रुलाते हैं शेर में प्रेम की मुकम्‍मल परिभाषा गढ़ दी गई है । सचमुच निसे हम प्रेम करते हैं जिन के प्रेम में आनंदित होते हैं वही दुखी कर देते हैं । किनारा छोड़ कर नहीं जाने वालों पर बहुत सुंदर कटाक्ष किया गया है । बोलने वाले मुसीबत में काम नहीं आते हैं ये शेर में अच्‍छा बना है । गिरह का शेर सुंदर तरीके सक गढ़ा है । बहुत ही सुंदर ग़ज़ल। वाह वाह वाह ।

deepawali (4)

वाह वाह वाह आज तो कमाल हो ही गया है । क्‍या सुंदर दीपमाला है । एक से एक दीप । और गीतों ग़ज़लों की लडिय़ां इस प्रकार जगमगा रही हैं कि हर तरफ उजाला हो रहा है । सुबीर संवाद सेवा का सन्‍नाटा भी क्‍या खूब टूटा है । ऐसा लग ही नहीं रहा कि यहां पर अभी कल तक शांति थी। जिस उत्‍साह से आप सब अपनी रचनाएं लेकर आए उसने मन को अंदर तक छू लिया है । मन बहुत भीगा हुआ सा है । सो भीगे मन से एक घोषणा 'मेरे करण अर्जुन आएंगे' ..... उफ क्षमा करें 'भभ्‍भड़ कवि भौंचक्‍के आएंगे, जल्‍द ही अपनी तरही ग़ज़ल लेकर आएंगे' ।

शुभ हो दीपावली का ये पर्व । आप सब के लिए मंगलमय हो ये त्‍योहार। शुभ दीपावली।

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