सोमवार, 15 अप्रैल 2013

नुसरत मेहदी नये मौसम, नये लम्हों की शायरा -डॉ. बशीर बद्र ( शिवना प्रकाशन की नई पुस्‍तक 'मैं भी तो हूं' ग़ज़ल संग्रह नुसरत मेहदी )

MAIN BHI TO HOON1

नुसरत मेहदी नये  मौसम, नये लम्हों की शायरा -डॉ. बशीर बद्र
( शिवना प्रकाशन की नई पुस्‍तक 'मैं भी तो हूं' ग़ज़ल संग्रह नुसरत मेहदी )
शायरी ख़ुदा की देन है । इसका भार हर कोई नहीं सह सकता । यह न शीशा तोड़ने का फ़न है, न फायलातुन रटने का । यह काम बहुत नाज़ुक  है । इसमें जिगर का ख़ून निचोड़ना पड़ता है, तब कहीं कोई शेर बनता है। ग़ज़ल के शेर रोज़ रोज़ नहीं होते-चमकती है कहीं सदियों में आँसुओं से ज़मीं, ग़ज़ल के शेर कहाँ रोज़ रोज़ होते हैं।
हर नामचीन और अमर शाइर (या शाइरात), हज़ारों साल के ग़ज़ल के सफ़र से बिना मेहसूस किए ही सीख हाासिल कर के एक नए व्यक्तित्व का सृजन करता है और यह सीख या शिक्षा उसके चेतन और अवचेतन का हिस्सा बन जाती है । साहित्य के आकाश पर कई सितारे डूबते हैं सैकड़ों उभरते हैं उनमें एक चमकदार और रौशन तारा नुसरत मेहदी हैं । बात करने से पहले उनके चंद शेर देखिए .....
महकने की इजाज़त चाहती है
हसीं चाहत भरे जज़्बों की ख़ुश्बू
फूलों की हवेली पर ख़ुश्बू से ये लिखा है
इक चाँद भी आयेगा दरवाज़ा खुला रखना
खामोशी बेज़बाँ नहीं होती
उम्र भर वह समझ  सका था क्या
किसी एहसास में डूबी हुई शब
सुलगता भीगता आँगन हुई है
मिरे शेरों मिरे नग़्मों की ख़ुश्बू
तुम्हारे नाम इन फूलों की ख़ुश्बू
कोई साया तो मिले उसमें सिमट कर सो लूँ
इतना जागी हूँ कि आँखों  में चुभन होती है
जाने कब छोड़ कर चली जाए
ज़िदंगी का न यूँ भरोसा कर
नुसरत मेहदी  के अश्आर को मैंने दो तीन बैठकों में पढ़ा । हर्फ़-हर्फ़ पढ़ा । मुझे हिंदुस्तान की तमाम ज़िक्र के योग्य शाइरात को पढ़ने और सुनने का अवसर मिला, उनका साहित्यिक मर्तबा इस बात से कम नहीं होता कि आज के सब से मनभावन, भावपूर्ण और सुंदर लहजे के अनगिनत शेर, मुद्दतों बाद नुसरत मेहदी  के कलाम में पाये। यह शेर सीधे दिल और दिमाग़ को प्रभावित करते है और पढ़ने सुनने वाला  एक अलग और नायाब लहजे और शेर के सौंदर्य के नये ग़ज़लिया स्वाद से परिचित होता है....
वहीं पर ज़िंदगी सैराब होगी
जहाँ सूखे हुए तालाब होंगे
तेज़ाबी बारिश के नक़्श नहीं मिटते
मैं अश्कों से आँगन धोती रहती हूँ
जब से गहराई  के ख़तरे भाँप लिए
बस साहिल पर पाँव भिगोती रहती हूँ
एक मुद्दत से इक सितारा-ए-शब
सुब्ह की राह तकता रहता है
तारीकियों में सारे मनाज़िर चले गए
जुग्नू सियाह रात में सच बोलता रहा
शेरों की सादगी और रचावट सादा लहजे में अहम और बड़ी बात कहने का ढंग स्त्रियोचित परिवेश के बावजूद ज़िंदगी की फुर्ती चुस्ती और कर्म की राह की मुसीबतों  से न घबराना । तेज़ाबी बारिशों, सूखे हुए तालाबों  से ज़िंदगी की प्यास बुझाना, गहराई  के खतरे को भाँपने  के बावजूद किनारे पर क़दमों के निशाँ, काली रात में जुगनुओं का सच, अंधेरी और अंतहीन रातों में  उम्मीद का चमचचमाता तारा, नुसरत मेहदी की ज़िंदगी  से मोहब्बत, सच्चाई की तरफ़दारी और नाइंसाफ़ी  से लड़ने का इशारा है। यह सीधा सपाट लेखन नहीं है कि इससे शेर का भाव आहत हो यह तो ग़मों, फ़िक्र और दुःख को बरदाश्त करने का और  विषय को बारबार दोहराने का नतीजा है जो इतना प्रभावशाली शेर काग़ज़ पर जगमगा सकें ।
नुसरत मेहदी के शेरी रवैया और शेरों को दाद देने के लिए रवायती प्रशंसा और सार्थकता का ढंग अपनाना ज़्यादती होगी। वह हमारे दौर की शाइरात में विशिष्ट ढंग की शाइरा हैं। पुरानी किसी महान शाइरा से उनकी तुलना या प्रतिस्पर्धा करना उचित नहीं। समय सब को अपने स्वर एवं चिंतन का राज़दार बनाता है। उनकी शाइरी आज के दौर में ज़िंदगी की सच्चाइयों का उद्गार है। साहित्य में न पुराना निम्न स्तरीय है न नया उच्च स्तरीय। पुराना हुस्न, भूत काल की यादगार है। आज का हुस्न वर्तमान की ज़िंदगी का करिश्मा और भविष्य  के प्रभावशाली दृष्टिकोण का इंद्रधनुषीय सपना है ।  उसके समझने के लिए वर्तमान के साहित्यिक पटल और दृश्य व परिदृश्य पर दृष्टि करनी होगी ओर इसके साथ ही क्लासिकी शाइराना रवैये पर ध्यान देना तथा अध्ययन, गहरा अध्ययन, शेरी ढाँचों को ऊष्मा, हरारत और जीवन से भरपूर कर सकता है। नुसरत बहुत चुपके से इस क्रिया से गुज़री हैं और ऐसे ताज़ा दम शेर लिखने लगी हैं जो नग़्मगी से भरपूर हैं मगर प्राचीन इशारों, उपमाओं, भंगिमाओं, तौर तरीकों से दामन झटकने के बावजूद शहरी अर्थपूर्णता के क़ाबिल हैं। यह उनकी कामयाबी है। कुछ और शेर देखें .....
इस शह्र के पेड़ों में साया नहीं मिलता
बस धूप रही मेरे हालात से वाबस्ता
अपनी बेचहरगी को देखा कर
रोज़ एक आइना न तोड़ा कर
आबे हयात पीके कई लोग मर गये
हम ज़ह्र पी के ज़िंदा हैं सुक़रात की तरह
सिर्फ अजदाद की तहज़ीब के धागे होंगे
ओढ़नी पर कोई गोटा न किनारी होगी
रेत पर जगमगा उठे तारे
आस्माँ टूट कर गिरा था क्या
सलीबो दार से उतरी तो जिस्मों जाँ से मिली
मैं एक लम्हे में सदियों की दास्ताँ से मिली 
आम बोल चाल की भाषा में शाहरा ने नई इमेजरी पेश की है। शहर के पेड़ों में साया न मिलना, धूप और माहौल की सख़्ती का सुंदर चित्रण, आभाहीन चेहरा होने पर आईना तोड़ना और आसमान टूट कर गिरने में ग़म की शिद्दत और आँसुओं  का सितारों की  तरह चमकना। क्रास और सूली से उतरने पर सदियों निर्दयता, सितम, अन्याय और हमारे समाज की चक्की में पिसती आम जनता आदि ऐसी शेरी उपमाएँ हैं, चित्रण है जिसमें स्त्रियोचित अभिव्यक्ति  में एक अजीब प्रकार की मोहब्बत और ममता  के भावों को भर दिया है जो नाराज़ तो है मगर तबाही का तलबगार नहीं। जो अप्रियता दर्शाती तो हो मगर अच्छाई के लिए प्रयत्नशील है क्योंकि उसके आँगन  में नये मौसम और नए क्षणों की सुगंध उड़ कर आ रही है ।
नुसरत मेहदी को सुन्दर और यादगार शेर कहने के लिए मुबारकबाद तो कहना ही है लेकिन अल्लाह पाक की इस देन को भी दिल से मानता हूँ उसकी यह कृपा  है, और उससे दुआ करता हूँ कि अच्छे दिल की, बेहतरीन सोच और कर्म की, ख़ूबसूरत विचारों की शाइरी को वैश्विक पैमाने पर प्रसिद्धि प्रदान करे । आमीन

                        -डॉ. बशीर बद्र

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