मंगलवार, 21 जून 2011

भभ्‍भड़ कवि भौंचक्‍के आज लेकर आ रहे हैं अपनी सात गुणा सात ग़ज़ल और ऊपर से दो शेर बोनस के, ग्रीष्‍म तरही मुशायरे का समापन करने के लिये. ग़ज़ल पढने से पहले प्रस्‍तावना अवश्‍य पढ़ें.

ग्रीष्‍म तरही मुशायरा

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और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी

ज़ुरूरी सूचना: यदि समय की कमी हो तो फिलहाल पोस्‍ट को न पढ़ें, ये पोस्‍ट थोड़ा अतिरिक्‍त समय मांगती है.  और एक बात यदि इन सातों में से एक एक शेर छांट कर कुल सात शेरों की ग़ज़ल ( मतला, मकता और गिरह मिलाकर) आपको बनानी हो तो आप कौन कौन से छांटेंगें.

यूं तो तरही मुशायरे का समापन हो चुका है लेकिन फिर भी एक ग़ज़ल और झेल ली जाये. दरअसल हुआ ये कि पिछली बार के वर्षा मंगल तरही मुशायरे में पाठशाला के एक छात्र ने कहा कि मिसरे में कठिनता ये है कि काफिया मुश्‍किल है, अधिक शेर कहे नहीं जा सकते. उस समय 'फलक पे झूम रहीं सांवली घटाएं हैं' मिसरा था जिसमें काफिया था घटाएं. छात्र का कह‍ना था कि काफिये हैं ही नहीं सो मजबूरी में क्रियाओं को ही काफिया बनाना होगा.  बात उड़ते उड़ते भभ्‍भड़ कवि भौंचक्‍के तक पहुंची और बस बात चुभ गई, सो उस मुशायरे में भभ्‍भड़ कवि ने बिना क्रियाओं के काफियों का उपयोग किये 108 शेरों की ग़जल़  कही (  उस समय तो 103 शेर थे लेकिन बाद में श्री तिलक राज जी के आदेश पर 5 शेर और बढ़ा कर उसे 108  किया गया).  इस बार सात गुणा सात अर्थात 49 शेर तथा अंत में दो समापन के शेर इस प्रकार कुल 51 शेर हैं.

pankaj pacjmadiकॉलेज के ज़माने का एक फोटो

इस बार भी यही हुआ एक छात्र ने कहा कि इस बार एक तो दुपहरी और उस पर मुसलसल ग़ज़ल इन दोनों शर्तों ने मजा बिगाड़ दिया है. एक ही विषय पर एक ही तरीके से ग़ज़ल कहना अपने बस की बात नहीं है. भभ्‍भड़ कवि का ये व्‍यक्तिगत सोचना है कि आपको किसी डॉक्‍टर ने पर्चा नहीं लिखा था कि आप शायर बनो और एक ग़ज़ल सुब्‍ह, एक दोपहर और एक शाम कहो. आप स्‍वयं बने हैं तो, ऐसा नहीं होगा, वैसा नहीं होगा, जैसी बातें करके दूसरों को और अपने को मूर्ख मत बनाओ.  छात्र का कहना था कि मैं विषय पर ग़जल़ नहीं कह सकता. मुझे लगा कि एक साहित्‍यकार यदि ये कहे कि वो विषय पर नहीं लिख सकता तो उससे बड़ी मूर्खता की कोई बात है ही नहीं.  तो भभ्‍भड़ कवि ने सात अलग अलग विषयों पर गर्मियों की दुपहरी को आधार बना कर मुसलसल ग़ज़लें कहने की कोशिश की. वस्‍ल, हिज्र, मौसम, विद्रोह, हौसला, शब्‍द चित्र और खान पान, इन सात विषयों पर सात सात शेरों वाली ग़ज़लें. सात शेर जिनमें मतला, मकता और गिरह के शेर के अलावा चार शेर हैं. ठीक बीच में गिरह का शेर है.  भभ्‍भड़ कवि को मकता लिखना पसंद नहीं है, भभ्‍भड़ कवि की सोच है कि मकता लगाना अपने गर्व का प्रदर्शन है, कि ये मैंने लिखा है. जबकि हक़ीक़त ये है कि देनहार कोइ और है  ........, लेकिन फिर भी केवल तरही मुशायरों में भभ्‍भड़ कवि मकता लिखते हैं.

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यादों के गलियारे से कुछ फोटो

इस मिसरे में तो तख़ल्‍लुस के लिये 121 होने के कारण और मुश्किल थी, सो संयुक्‍त अक्षरों का खेल हर मकते में जमाया गया है.  भभ्‍भड़ कवि ने उस समय  भी कहा था कि उस ग़ज़ल को केवल प्रयोग के तौर पर देखा जाये ( स्‍वर्गीय हठीला जी ने उसे खारिज भी किया था) और आज भी वही बात कि ये ग़ज़लें केवल प्रयोग हैं, और प्रयोग हमेशा कमज़ोर होता है ( साहित्यिक नज़रिये से). 

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यादों के गलियारे से कुछ और फोटो

ये सात ग़ज़लें भी हो सकता है कहन में बहुत कमज़ोर हों, क्‍योंकि जब भी अधिकता होती है तो गुणवत्‍ता में कमी आती ही है. मगर फिर भी ये समझाना ज़ुरूरी था कि भले ही विषय कुछ भी हो लेकिन उस विषय को कैसे आप अपने मनचाहे विषय की तरफ मोड़ सकते हैं.  एक बात और, इस बार काफी अच्‍छी ग़ज़लें मिलीं, लेकिन फिर भी हर ग़ज़ल में कम से एक या दो शेर ऐसे थे जिनमें रदीफ के साथ मिसरे का राबिता नहीं था, या था भी तो ठीक से नहीं था. भभ्‍भड़ कवि ने भी सातवें नंबर की ग़ज़ल में मकते के ठीक ऊपर के दोनों शेर इसी प्रकार से लिखे हैं जिनमें मिसरे के साथ रदीफ का राबिता ठीक नहीं हो रहा है.  देखने में दोनों शेरों में ऐसा लग रहा है कि बिल्‍कुल ठीक है लेकिन गड़बड़ तो है. कई ग़ज़लों में रदीफ की ध्‍वनि के दोहराव का दोष बना था, जैसा भभ्‍भड़ कवि ने छठे नंबर की ग़ज़ल में मतले के ठीक बाद के तथा गिरह के ठीक बाद के शेर में रखा है. ये भी नहीं होना चाहिये, यदि रदीफ ई पर समाप्‍त हो रहा है तो मिसरा ऊला ई पर समाप्‍त नहीं होना चाहिये.  एक कोशिश और ये की है कि इन 51 शेरों में कोई भी काफिया दोहराया नहीं जाये, जैसा वर्षा में किया था. इन ग़ज़लों में कहन नहीं तलाशें क्‍योंकि ये प्रयोग के लिये लिखी गई हैं. फिर भी कहीं एकाध शेर में कहन मिल जाये तो बोनस समझ कर रख लें.

आइये सुनते हैं ये सातों ग़ज़लें

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( परिवार 1 - तीन पीढि़यां, मां पिता, भैया भाभी और बच्‍चे  )

(1) ग़ज़ल वस्‍ल की (मिलन)
तुमको छूकर महकी महकी, गर्मियों की ये दुपहरी 
ख़ुश्‍बुओं की है रुबाई, गर्मियों की ये दुपहरी

धूप में झुलसे बदन को, तुम अगर होंठों से छू दो
बर्फ सी हो जाए ठण्‍डी, गर्मियों की ये दुपहरी

हर छुअन में इक तपिश है, हर किनारा जल रहा है
है तुम्‍हारे जिस्‍म जैसी, गर्मियों की ये दुपहरी

अब्र सा साँवल बदन उस पर मुअत्‍तर सा पसीना
''और सन्‍नाटे में डूबी, गर्मियों की ये दुपहरी''

ज़ुल्‍फ़े जाना की घनेरी छाँव में बैठे हुए हैं
हमसे मत पूछो है कैसी, गर्मियों की ये दुपहरी

है अभी बाँहों में अपनी, एक सूरज साँवला सा
देख ले तो जल मरेगी, गर्मियों की ये दुपहरी

क्‍यों न बोलें चाँद रातों से 'सुबीर' इसको हसीं हम
साथ में तुमको है लाई, गर्मियों की ये दुपहरी

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( परिवार 2- हम दो हमारी दो )

(2) ग़ज़ल हिज्र की  ( विरह )
दर्द, तनहाई, ख़मोशी, गर्मियों की ये दुपहरी
इक मुसलसल सी है चुप्‍पी, गर्मियों की ये दुपहरी

जब तलक तुम थे तो कितनी ख़ुशनुमा लगती थी लेकिन
लग रही अब कितनी सूनी, गर्मियों की ये दुपहरी

लाई थी पिछले बरस ये, साथ अब्रे मेहरबाँ को
अब के ख़ाली हाथ आई, गर्मियों की ये दुपहरी

हिज्र का मौसम, तुम्‍हारी याद, तन्‍हाई का आलम
''और सन्‍नाटे में डूबी, गर्मियों की ये दुपहरी''

रो रही है धूप आँगन में तुम्‍हारा नाम लेकर
आँसुओं से भीगी भीगी, गर्मियों की ये दुपहरी

मन की सूनी सी गली में उड़ रहे यादों के पत्‍ते
एक ठहरी सी उदासी, गर्मियों की ये दुपहरी

चल पड़ो तुम भी 'सुबीर' अब, दे नहीं सकती तुम्‍हें कुछ
बिखरी बिखरी, ख़ाली ख़ाली, गर्मियों की ये दुपहरी

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( परिवार 3 - नेह का नाता, वे लोग जिन्‍‍होंने मुझे 'मैं' बनाया.  )

(3) ग़ज़ल मौसम की
है विरहिनी उर्मिला सी, गर्मियों की ये दुपहरी
इसलिये दिन रात जलती, गर्मियों की ये दुपहरी

दे रहा इसको मुहब्‍बत से सदाएँ कब से मगरिब
फिर भी माथे पर है बैठी, गर्मियों की ये दुपहरी

नाचती फिरती है छम छम, आग की चूनर पहन कर
लाड़ली सूरज की बेटी, गर्मियों की ये दुपहरी

जाने किस कारण अचानक, हो गई कोयल भी चुप तो
''और सन्‍नाटे में डूबी, गर्मियों की ये दुपहरी''

क्‍या किया है रात भर, इसने वहाँ पश्चिम में जाकर
किसलिये इतनी उनींदी, गर्मियों की ये दुपहरी

पी गई तालाब, कूँए, बावड़ी, पोखर, नदी सब
फिर भी है प्‍यासी की प्‍यासी, गर्मियों की ये दुपहरी

जब 'सुबीर' इसके गले, हँस कर लगा इक नीम कड़वा
हो गई कड़वी से मीठी, गर्मियों की ये दुपहरी

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( परिवार 4 - मेरी शक्ति, कोई ज़ुरूरी तो नहीं कि  बेटों से आपका रक्‍त संबंध भी हो.  )

(4)  ग़ज़ल विद्रोह की
कब हुई आख़िर किसी की, गर्मियों की ये दुपहरी
खेल है केवल सियासी, गर्मियों की ये दुपहरी

मुल्‍क के राजा हैं बैठे, बर्फ के महलों में जाकर
मुल्‍क की क़िस्मत में लिक्‍खी, गर्मियों की ये दुपहरी

बारिशों का ख्‍़वाब देखा था मगर हमको मिला क्‍या
साठ बरसों से भी लम्‍बी, गर्मियों की ये दुपहरी

रो रहा है भूख से सड़कों पे नंगे पाँव बचपन
''और सन्‍नाटे में डूबी, गर्मियों की ये दुपहरी''

सब खड़े होंगे न जब तक, भींच अपनी मुट्ठियों को
तब तलक क़ायम रहेगी, गर्मियों की ये दुपहरी

ख़ुशनुमा मौसम सभी कुछ ख़ास तक महदूद हैं बस
आम इन्‍सानों को मिलती, गर्मियों की ये दुपहरी

बस इसी कारण छलावे में 'सुबीर' इसके फँसे सब   
पैरहन पहने थी खादी, गर्मियों की ये दुपहरी

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( परिवार 5- हम साथ साथ हैं )

(5) ग़ज़ल हौसले की
है खड़ी बन कर चुनौती, गर्मियों की ये दुपहरी
आज़माइश की कसौटी, गर्मियों की ये दुपहरी

धूप के तेवर अगर तीखे हैं तो होने दो यारों
हौसलों से पार होगी, गर्मियों की ये दुपहरी

मंजि़लों को जीतने का, जिनके सीने में जुनूं है
उनको लगती है सुहानी, गर्मियों की ये दुपहरी

इम्तेहाँ राही हैं तेरा, धूप में जलती ये राहें 
''और सन्‍नाटे में डूबी, गर्मियों की ये दुपहरी''

शान से सिर को उठा कर, कह रहा है गुलमोहर ये
देख लो मुझसे है हारी, गर्मियों की ये दुपहरी

सुख सुहानी सर्दियों सा, बीत ही जाता है आख़िर
है हक़ीक़त ज़िन्दगी की, गर्मियों की ये दुपहरी

एक चिंगारी 'सुबीर' अंदर ज़रा पैदा करो तो
देख कर उसको बुझेगी, गर्मियों की ये दुपहरी

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( परिवार 6 - दादा दादी और बच्‍चे )

(6) ग़ज़ल शब्‍द चित्रों की 
ढीट, ज़िद्दी और हठीली, गर्मियों की ये दुपहरी
फिर रही है रूठी रूठी, गर्मियों की ये दुपहरी

बूढ़ी अम्‍मा ने ज़रा टेढ़ा किया मुँह, और बोली *
आ गई फिर से निगोड़ी, गर्मियों की ये दुपहरी

पल में दौड़ेंगे ये बच्‍चे, आम के पेड़ों की जानिब
इक ज़रा लाये जो आँधी, गर्मियों की ये दुपहरी

चुप हुई शैतान टोली, डांट माँ की खा के जब तो
''और सन्‍नाटे में डूबी, गर्मियों की ये दुपहरी''

गाँव में अमराई की ठंडी घनेरी छाँव बैठी *
चैन की बंसी बजाती, गर्मियों की ये दुपहरी

बुदबुदाई पत्‍थरों को तोड़ती मज़दूर औरत
राम जाने कब ढलेगी, गर्मियों की ये दुपहरी

माँ को बड़ियाँ तोड़ते देखा 'सुबीर' इसने जो छत से
धप्‍प से आँगन में कूदी, गर्मियों की ये दुपहरी

( * इन दोनों शेरों में रदीफ की ध्‍वनि (ई) के दोहराव का दोष मिसरा उला में बन रहा है.)

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( परिवार 7- परी के साथ मंखा सरदार )

(7)  ग़ज़ल खाने पीने की
थोड़ी  मीठी, थोड़ी खट्टी, गर्मियों की ये दुपहरी
जैसे अधपक्‍की हो कैरी, गर्मियों की ये दुपहरी

याद की गलियों में जाकर, ले रही है चुपके चुपके
बर्फ के गोले की चुसकी, गर्मियों की ये दुपहरी

धूप की ये ज़र्द रंगत, चार सूँ बिखरी है ऐसे
जैसे केशर की हो रबड़ी, गर्मियों की ये दुपहरी

ले के नींबू की शिकंजी, घूमता राधे का ठेला
''और सन्‍नाटे में डूबी, गर्मियों की ये दुपहरी''

छुप के नानी की नज़र से, गट गटा गट, गट गटा गट * 
पी गई है सारी लस्‍सी, गर्मियों की ये दुपहरी

धूप का देकर के छींटा, थोड़ी कैरी, कुछ पुदीना
माँ ने सिलबट्टे पे पीसी, गर्मियों की ये दुपहरी
  *

पक गये हैं आम, इमली, खिरनियाँ, जामुन, करौंदे
है 'सुबीर' आवाज़ देती, गर्मियों की ये दुपहरी

( * राबिता की कमी वाले शेर )

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( परिवार 7-  ये वो,  जो पिछले एक साल से जीवन में चल रही कड़ी दुपहरी में छांव दे रहे हैं . गौतम और संजीता तुमको क्‍या कहूं , नि:शब्‍द हूं. )

समापन के दो शेर

महफिले तरही में गूँजे गीत, कविता, छंद, ग़ज़लें
जिनके दम पर हमने काटी, गर्मियों की ये दुपहरी

अब ख़ुदा हाफ़िज़ कहो इसको, रही रब की रज़ा तो
अगली रुत में फिर मिलेगी, गर्मियों की ये दुपहरी

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( परिवार 8 - दीदी उस कठिन समय में हर वक्‍़त यही लगा कि आप बिल्‍कुल पास हैं, साथ हैं,  क्‍या कहूं... बहनों को आभार भी तो नहीं दिया जाता )

शनिवार, 18 जून 2011

ऐसा बरसो बादलो मेरा भी आँचल भीग जाए अपना दुःख रो-रो सुनाती गर्मियों की ये दुपहरी, आइये आज समापन में सुनते हैं देवी नागरानी जी और शेषधर तिवारी जी को.

तो आज हम गर्मियों की तरही के समापन तक आ गये हैं. पूरे डेढ़ माह से  ये तरही मुशायरा चल रहा था. और इस कारण  कि इस बार हमने सभी शायरों का व्‍यक्तिग परिचय जाना उनके बारे में बात की, मुशायरे की समय अवधि कुछ लम्‍बी हो गई. लेकिन ये भी काम ज़ुरूरी था. जो लोग हमारे साथ हैं उनके बारे में हम जानें पहचानें यही तो दायरे को फैलाने का सही तरीका है. जैसा की पहले से तय था कि शनिवार को हमें समापन करना है, तो उस अनुरूप ही काम हो रहा है. ये पूरा सप्‍ताह तरही के नाम रहा, और सप्‍ताह भर में हमने कई सारी ग़ज़लों का आनंद लिया. आज भी दो ग़जल़ों के साथ हम समापन कर रहें हैं तरही मुशायरे का.

ग्रीष्‍म तरही मुशायरा

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और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी

आइये पहले सुनते हैं आदरणीय देवी नागरानी जी से उनकी एक बहुत ही सुंदर ग़ज़ल,

Devi-1 आदरणीया देवी नागरानी जी


देवी नागरानी जी का जन्‍म 11 मई 1949 को कराची (वर्तमान पाकिस्तान में) में हुआ और आप हिन्दी साहित्य जगत में एक सुपरिचित नाम हैं. आप की अब तक प्रकाशित पुस्तकों में "ग़म में भीगी खुशी" (सिंधी गज़ल संग्रह 2004), "उड़ जा पँछी" (सिंधी भजन संग्रह 2007) और "चराग़े-दिल" (हिंदी गज़ल संग्रह 2007) शामिल हैं. इसके अतिरिक्त कई कहानियाँ, गज़लें, गीत आदि राष्ट्रीय स्तर के पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं. आप वर्तमान में न्यू जर्सी (यू.एस.ए.) में एक शिक्षिका के तौर पर कार्यरत हैं.

तरही ग़ज़ल

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आग जैसी तपतपाती गर्मियों के ये दुपहरी
क्या अजब तांडव रचाती गर्मियों की ये दुपहरी
अपनी लू के ही थपेड़े गोया कि खाने लगी है
पानी - पानी गिड़गिड़ाती गर्मियों की ये दुपहरी

काले चश्मे में छुपी आँखें तो उसको घूरती हैं
नज़रें तब उनसे चुराती गर्मियों की ये दुपहरी
गर्मियों की छुट्टियों में जो पहाड़ों पर गये हैं
उनको पास अपने बुलाती गर्मियों की ये दुपहरी

धूप के तेवर से उसके भी पसीने छूटते हैं
हो भले नखरे दिखाती गर्मियों की ये दुपहरी
ऐसा बरसो बादलो मेरा भी आँचल भीग जाए
अपना दुःख रो-रो सुनाती गर्मियों की ये दुपहरी

आँख की जो किरकरी उसको समझ बैठे हैं ` देवी `
आँखें क्या उनसे मिलाती गर्मियों की ये दुपहरी

धूप के तेवर से उसके भी पसीने छूटते हैं हो भले नखरे दिखाती, में स्‍वयं गर्मियों की दुपहरी को सुंदर तरीके से कटघरे में घेरा है देवी जी ने. और एस बरसो बादलों मेरा भी आंचल भीग जाए में गर्मियों की दुपहरी की गुहार को बहुत अच्‍छे तरीके से शब्‍द दिये हैं. अपनी लू के और गर्मियों की छुट्टियों जैसे प्रभावी शेर भी ग़ज़ल का सौंदर्य बढ़ा रहे हैं.

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श्री शेष धर तिवारी जी

मैं भदोही जिले के एक गाँव में एक अध्यापक की संतान के रूप में 16-07-1952 को पैदा हुआ. मिट्टी के बने कच्चे मकान में पला बढ़ा. प्रारंभिक शिक्षा भी गाँव में ही हुई. पिताजी कि साहित्यिक रूचि प्रारम्भ से ही मेरे लिए प्रेरणा का श्रोत रही और बचपन में उन्ही के संरक्षण में टूटा फूटा लिखना प्रारंभ किया. धर्मयुग में अपनी एक छोटी सी रचना को जिस दिन पहली बार छपी हुई देखा वह दिन मेरे लिए एक महान उपलब्धि का दिन था. 1972 में बी एससी करने के बाद पंतनगर के प्रोद्योगिकी संस्थान से 1977 में युनिवर्सिटी आनर के साथ मेकेनिकल इंजीनियरिंग में बी टेक किया और अपने ही कालेज में सहायक शोध अभियंता के रूप में कार्य प्रारम्भ किया. मई 1978 में स्टील अथारिटी आफ इंडिया में चुनाव हुआ जहां मैंने दिसंबर 1981 तक कार्य किया. पारिवारिक कारणों से मैंने नौकरी छोड़ दी और तब से मैं इलाहबाद में अपना ब्यापार कर रहा हूं. 1993 में मैंने स्वाध्याय से कंप्यूटर सीखना प्रारम्भ किया और 1997 में डाटाप्रो का फ्रैंचाइजी बना और 2003 तक सेंटर डाइरेक्टर रहते हुए इसका संचालन किया. इस बीच मैंने अपने तीन साफ्टवेयर बनाए. वर्तमान में मैं अपनी कंपनी त्रिवेणी मार्केटिंग प्रा. लिमिटेड का प्रबंध निदेशक हूँ और साथ ही एक सोसल नेटवर्किंग साईट दैट्स मी का भी संचालन कर रहा हूँ.  पिछले  20 वर्षों से मैं समन्वय संस्था का संस्थापक सदस्य हूँ और वर्तमान में अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मलेन की उत्तर प्रदेश इकाई का सचिव हूँ. गज़लों के क्षेत्र में मैं अभी एक विद्यार्थी हूँ और किसी से भी कुछ सीखने को उत्सुक रहता हूँ.  निवास – इलाहाबाद, संपर्क 09889978899,  http://thatsme.in, triveni@thatsme.in

तरही ग़ज़ल

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सुर्ख होठों को सुखाती गर्मियों की वो दुपहरी

आग सी ले ताप आई गर्मियों की वो दुपहरी

वो लिपे कमरे की ठंढक और सोंधी सी महक भी

बंद हो कमरे में काटी गर्मियों की वो दुपहरी

जो सुराही जल पिलाती थी हमें ठंढा, उसे भी

थी पसीने में भिंगोती गर्मियों की वो दुपहरी

ज़िंदगी की आग में तप के जो सोना हो चुका है

क्या असर उस पर दिखाती गर्मियों की वो दुपहरी

फूल टेसू के खिले लगते थे दावानल सरीखे

और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी

जो सुराही जब पिलाती थी हमें ठंडा उसे भी थी पसीने में भिगोती गर्मियों की वो दुपहरी, बहुत अच्‍छा शब्‍द चित्र रचा है इस शेर में. जिंदगी की आग में तप के जो सोना हो चुका है में इंसानी हौसलों का बहुत अच्‍छे तरीके से अभिव्‍यक्ति मिली है. लिपे कमरे की सौंधी महक ने तो मानो ननिहाल की सैर करवा दी है.

तो आनंद लीजिये समापन की इन ग़जल़ों का और मिलते हैं अगले तरही मुशायरे में.

शुक्रवार, 17 जून 2011

मरमरी सफ्फाक सा तन इक सरापा नूर का सा खाहिशों के पर लगाती गर्मियों की वो दुपहरी.आइये आज सुनते हैं दो ग़ज़लें डॉ अजमल हुसैन और विनोद पांडे की.

जब हम क्रिकेट खेलते थे तो कहते थे कि ये लास्‍ट सेकेंड बॉल है, मतलब ये कि इसके बाद जो बॉल आने वाली है वो लास्‍ट बॉल है. उसी प्रकार से आज जो ये बॉल है ये भी लॉस्‍ट सेकेंड बॉल है इसके बाद अर्थात कल जो पोस्‍ट लगाई जायेगी वो ग्रीष्‍म तरही मुशायरे की समापन पोस्‍ट होगी ( यदि भभ्‍भड़ कवि भौंचक्‍के जोश में नहीं आये तो ) . पूरी की पूरी गर्मियां तरही के साथ कैसे बीत गईं पता ही नहीं चला.  चलिये आज सुनते हैं दो ग़जल़ें डॉ अजमल खान और विनोद पांडे से. विनोद कुमार पांडे ने  अपनी ग़ज़ल को ग़ैर मुरद्दफ़ तरीके से लिखा है.

ग्रीष्‍म तरही मुशायरा

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और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी

आइये पहले सुनते हैं डॉ अजमल खान माहक द्वारा लिखी गई एक सुंदर सी ग़ज़ल.

डॉ. अज़मल हुसैन ख़ान 'माहक'

( चित्र उपलब्‍ध नहीं )

पिछले मुशायरों में आप सभी की हौसला अफजाई और दुआओं के लिये मैं आप सभी का शुक्रिया अदा करता हूँ. मैं पेशे से भौतिक चिकित्सक हूँ , पूर्व में शिक्षण और चिकित्सकीय दोनों तरह के कार्यों में व्यस्त रहा हूँ , वर्तमान में चिकित्सकीय कार्य पर ध्यान दे रहा हूँ . मुझे लिखने का समय कम मिल पाता है , अधिकतर मैं मरीजों का इलाज करते हुए  , या फिर कुछ काम करते हुए ही लिखता हूँ , लिखते समय मैं किसी खास चीज़ को ध्यान नहीं रखता बस तकनीकी पहलु पर ध्यान रखता हूँ कि कम से कम गलती हो मूड और विचार तो खुद बखुद आते जाते हैं . मुझे अच्छा खाना, अच्छा संगीत, अच्छे साफ़ दिल लोग और प्राकृतिक सौंदर्य आकर्षित करता है  मैं ब्लॉग्गिंग में अपने एक परम मित्र "श्री अपूर्व शुक्ल जी"  के कहने पे आया , ब्लॉग भी बनाया पर मुझसे ब्लॉग्गिंग नहीं होती बहुत मुश्किल काम है. हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, पर्सियन,  अरेबिक, और गुजराती,  इन कुछ भाषाओँ का थोडा बहुत ज्ञान है और अधिक ज्ञान अर्जित करने के लिये प्रयासरत हूँ ,  मेरी तरही ग़ज़ल "सुबीर संवाद सेवा" के लिये हमेशा तैयार रहती है परन्तु हिंदी में टाइप करने में समय लगता है और मैं पिछड़ जाता हूँ , पिछली तरही में मैं इसी कारण से शामिल नहीं हो पाया था. समय सीमा मुझे परेशान करती है. इस वार की तरही ग़ज़ल को भेजते समय मन थोडा संशय में था कि पता नहीं आप सब लोग पसंद करेंगे कि नहीं?? पर बात मुसलसल ग़ज़ल की थी, और मौक़ा भी था , मूड भी था तो मैंने लिख दी और भेज भी दी. अब बस यही कहूँगा कि- "तीरे नज़र देखेंगे ज़ख्मे जिगर देखेंगे "
लखनऊ मोबाइल 09839011912              

तरही ग़जल़

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दिल की महमाँ याद भीनी गर्मियों की वो दुपहरी
इक हसीं धड़कन सुरीली गर्मियों की वो दुपहरी

यार के रुख पर पसीना उफ़ लटें बिखरी हुई थीं
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी.

मरमरी सफ्फाक सा तन इक सरापा नूर का सा
खाहिशों के पर लगाती गर्मियों की वो दुपहरी.

वो कशिश वो ज़ोर वो उनकी निग़ाहों का सुरूर
कान में कुछ गुनगुनाती गर्मियों की वो दुपहरी.

थी तपिश अन्दर कि बाहर होश पर काबू न था, उफ़
बेखुदी ही बेखुदी थी गर्मियों की वो दुपहरी.

लिख रहे थे इक फ़साना हम लबो रुखसार पर और
कह रही थी इक कहानी गर्मियों की वो दुपहरी.

धूप से जलती ज़मी को चाह थी पानी की "माहक"
प्यास ने लब पर सजा दी गर्मियों की वो दुपहरी.

              क्‍या कहूं और क्‍या न कहूं, इस ग़ज़ल के बारे में अंकित से काफी बार बात कर चुका हूं. इस ग़ज़ल को पढ़कर जाने क्‍या हो जाता है. विशुद्ध प्रेम पर लिखी हुई एक अनोखी ग़ज़ल है, जिसका कोई भी एक शेर अलग से कोट करना संभव ही नहीं है. नक्‍़क़ाशी करके तराशी गई है ये ग़ज़ल, बड़ी ही नफ़ासत से जालीदार नक्‍़क़ाशी का एक एक फूल तराशा गया है, इसलिये ही ये ग़ज़ल मुकम्‍मल रूप से ख़ूबसूरत बन पड़ी है.

आइये अब सुनते हैं विनोद कुमार पांडे की ये ग़ैर मुरद्दफ ग़ज़ल.

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विनोद कुमार पांडेय

प्रारंभिक शिक्षादीक्षा वाराणसी से संपन्न करने के पश्चात नोएडा के एक इंजीनियरिंग कॉलेज से एम.सी.ए. करने के बाद नोएडा में ही पिछले 3 साल से एक सॉफ़्टवेयर कंपनी मे इंजीनियर के पद पर कार्य कर रहा हूँ..खुद को गैर पेशेवर कह सकता हूँ,परंतु ऐसा लगता है की शायद साहित्य की जननी काशी की धरती पर पला बढ़ा होने के नाते साहित्य और हिन्दी से एक भावनात्मक रिश्ता जुड़ा हुआ प्रतीत होता है.लिखने और पढ़ने में सक्रियता 4 साल से,पिछले,हास्य कविता और व्यंग में विशेष लेखन रूचि,अब तक 50  से ज़्यादा कविताओं और ग़ज़लों की रचनाएँ,व्यंगकार के रूप में भी किस्मत आजमाया और सफलता भी मिली,कई व्यंग दिल्ली के समाचार पत्रों में प्रकाशित भी हुए और काफ़ी पसंद किए गये एवं नोएडा और आसपास के क्षेत्रों के कई कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ,फिर भी इसे अभी लेखनी की शुरुआत कहता हूँ और उम्मीद करता हूँ की भविष्य में हिन्दी और साहित्य के लिए हमेशा समर्पित रहूँगा.लोगों का मनोरंजन करना और साथ ही साथ अपनी रचनाओं के द्वारा कुछ अच्छे सार्थक बातों का प्रवाह करना भी मेरा एक खास उद्देश्य होता है .

ब्लॉग: http://voice-vinod.blogspot.com/ , जन्म स्थान: वाराणसी( उत्तर प्रदेश), कार्यस्थल: नोएडा( उत्तर प्रदेश)

तरही ग़ज़ल

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आ गई है ग्रीष्म ऋतु तपने लगी फिर से है धरती

और सन्नाटें में डूबी, गर्मियों की ये दुपहरी

आग धरती पर उबलने,को हुआ तैयार सूरज

गर्म मौसम ने सुनाई, जिंदगी की जब कहानी

चाँद भी छिपने लगा है, देर तक आकाश में अब

रात की छोटी उमर से, है उदासी रातरानी

नहर-नदियों ने बुझाई प्यास खुद के नीर से जब

नभचरों के नैन में दिखने लगी है बेबसी सी

तन पसीने से लबालब,हैं मगर मजबूर सारे

पेट की है बात साहिब कर रहे  जो नौकरी जी

देश की हालत सुधर पाएगी कैसे सोचते हैं.

ये भी है तरकीब अच्‍छी गर्मियों को झेलने की

जैसा कि विनोद ने खुद ने ही कहा कि अभी लेखन की शुरूआत है, लेकिन शुरूआत में भी कम से कम सुकून की बात ये है कि बात बहर में की जा रही है और शेरों में प्रभाव छोड़ने का माद्दा दिखाई दे रहा है. चांद भी छिपने लगा है देर तक या फिर नहर नदियों ने बुझाई जैसे शेर निकाल कर विनोद ने भविष्‍य के लिये संभावना जगाई हैं.

तो आनंद लीजिये दोनों ग़जल़ों का और इंतजा़र कीजिये कल की समापन किश्‍त का. 

 

 

गुरुवार, 16 जून 2011

बरामदे की चौखट के कोने में पाईन स्ट्रा के तिनके - तिनके बीन कर सुनहरी चिड़ियों के बनाए घोंसले, आइये आज सुनते हैं सुधा ओम ढींगरा जी से एक सुंदर सी कविता.

कल रात चंद्रग्रहण की रात थी. लेकिन वही हुआ जो दो साल पहले पूर्ण सूर्यग्रहण के समय हुआ था, पूरी रात चांद बादलों से घिरा रहा, बूंदें बरसती रहीं और चंद्रग्रहण को देखने की आस मन में ही रह गई. कितने दिनों से इस चंद्रग्रहण की प्रतीक्षा थी, लेकिन कुछ नहीं देख पाया. चलिये ये तो सब नियति नटी के खेल हैं, उसमें हम आप क्‍या कर सकते हैं, लेकिन इसी बीच ये हो गया है कि बरसात ने दस्‍तक दे दी है, कल भी दिन भर रह रह कर पानी बरसता रहा और रात को भी यही हाल रहा. गर्मियों का मौसम विदा ले रहा है, 15 जून को मध्‍यप्रदेश में सामान्‍यत: मानसून की दस्‍तक का समय माना जाता है और इस बार ऐसा लग रहा है कि मानसून समय पर दस्‍तक दे रहा है. तरही की सारी पोस्‍टें अब शेड्यूल कर दी गई हैं, आज की पोस्‍ट के बाद केवल चार ग़ज़लें और, तथा उसके बाद यदि रब की रज़ा रही तो सोमवार या मंगलवार को भभ्‍भड़ कवि भौंचक्‍के अपनी सात गुणा सात ग़ज़ल के साथ तरही का विधिवत समापन करेंगें.

ग्रीष्‍म तरही मुशायरा

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और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी

इस बार की तरही की सबसे बड़ी विशेषता रही है इसकी विविधता, हर विधा में कविताएं इस बार की तरही में आईं और पसंद की गईं. आइये आज सुनते हैं डॉ सुधा ओम ढींगरा जी से उनकी एक छंदमुक्‍त कविता.

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डॉ. सुधा ओम ढींगरा जी

पंजाब के जालंधर शहर में जन्मी डा. सुधा ढींगरा हिन्दी और पंजाबी की सम्मानित लेखिका हैं। वर्तमान में वे अमेरिका में रहकर हिन्दी के प्रचार-प्रसार हेतु कार्यरत हैं।
प्रकाशित साहित्य-- कौन सी ज़मीन अपनी ( कथा संग्रह), धूप से रूठी चांदनी ( काव्‍य संग्रह) मेरा दावा है (काव्य संग्रह-अमेरिका के कवियों का संपादन ) ,तलाश पहचान की (काव्य संग्रह ) ,परिक्रमा (पंजाबी से अनुवादित हिन्दी उपन्यास), वसूली (कथा- संग्रह हिन्दी एवं पंजाबी ), सफर यादों का (काव्य संग्रह हिन्दी एवं पंजाबी ), माँ ने कहा था (काव्य सी .डी ), पैरां दे पड़ाह , (पंजाबी में काव्य संग्रह ), संदली बूआ (पंजाबी में संस्मरण ), १२ प्रवासी संग्रहों में कविताएँ, कहानियाँ प्रकाशित।

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डॉ ओम ढींगरा एवं डॉ सुधा ढींगरा

विशेष--विभौम एंटर प्राईसिस की अध्यक्ष, हिन्दी चेतना (उत्तरी अमेरिका की त्रैमासिक पत्रिका) की सह- संपादक। हिन्दी विकास मंडल (नार्थ कैरोलाइना) के न्यास मंडल में हैं। अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति (अमेरिका) के कवि सम्मेलनों की राष्ट्रीय संयोजक हैं। इंडिया आर्ट्स ग्रुप की स्थापना कर, अमेरिका में हिन्दी के बहुत से नाटकों का मंचन किया है। अनगिनत कवि सम्मेलनों का सफल संयोजन एवं संचालन किया है। रेडियो सबरंग ( डेनमार्क ) की संयोजक।

dr sudha dhingra 5कौन सी ज़मीन अपनी का विमोचन, कहानी पाठ

पुरस्कार- सम्मान--  अमेरिका में हिन्दी के प्रचार -प्रसार एवं सामाजिक कार्यों के लिए वाशिंगटन डी.सी में तत्कालीन राजदूत श्री नरेश चंदर द्वारा सम्मानित।  चतुर्थ प्रवासी हिन्दी उत्सव 2006 में ''अक्षरम प्रवासी मीडिया सम्मान.''  हैरिटेज सोसाइटी नार्थ कैरोलाईना (अमेरिका ) द्वारा ''सर्वोतम कवियत्री 2006' से सम्मानित ,  ट्राईएंगल इंडियन कम्युनिटी, नार्थ - कैरोलाईना (अमेरिका ) द्वारा 2003 नागरिक अभिनन्दन ''. हिन्दी विकास मंडल , नार्थ -कैरोलाईना( अमेरिका ), हिंदू- सोसईटी , नार्थ कैरोलाईना( अमेरिका ), अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति (अमेरिका) द्वारा हिन्दी के प्रचार -प्रसार एवं सामाजिक कार्यों के लिए कई बार सम्मानित।

पत्रकारिता : संवाददाता -प्रवासी टाइम्स (यू.के.), स्तंभ लेखिका - शेरे-ए-पंजाब (पंजाबी), विदेशी प्रतिनिधी - पंजाब केसरी, जगवाणी, हिन्द समाचार

ब्‍लाग http://hindi-chetna.blogspot.com, http://www.vibhom.com, http://shabdsudha.blogspot.com/ 

तरही कविता

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चिलचिलाती धूप से
तपती सड़कें,
सूरज का बढ़ता गुस्सा औ'
तापमान का चढ़ता पारा
बेचैन होते पशु -पक्षी
तड़पती प्रकृति व
पसीने से भीगे
चिपचिपाते,
बदन.
उमस ,
घुटन से भरी हवा,
आलिंगनबद्ध होते
गर्मी और
मेरा शहर.

ऐसे में
बच्चों द्वारा
दूर -दराज़
नीड़ बना लेने के बाद,
एकान्त,
शांत,
बेरौनक,
उदास
सूना मेरा घर.
घर के
बरामदे की चौखट के कोने में
पाईन स्ट्रा के तिनके - तिनके बीन कर
सुनहरी चिड़ियों द्वारा बनाए घोंसले से
भूख, प्यास से व्याकुल
बिलखते
उनके बच्चों का शोर,
तोड़ रहा 
अलसाए मन का मौन,
और सन्नाटे में डूबी, गर्मियों की ये दुपहरी.

डॉ विजय बहादुर सिंह जी से एक बार नई कविता पर काफी लम्‍बी बहस हुई थी,  और अंत में उनके इस विचार से सहमत हुआ था कि नई छंदमुक्‍त कविता में यदि प्रवाह है, संवेदना है, मन के अंदर पैठने की क्षमता है तो वह भी कविता है. सुधा जी की ये कविता ऊपर बताये सभी मानदंडों पर बिल्‍कुल खरी उतरती है. एक अनूठा शब्‍द चित्र  है ये कविता, और उस पर वो खंड जहां पर बच्‍चों के चले जाने के बाद सूने घर का चित्रण है वो खंड तो झुरझुरी पैदा करता है. सूनेपन का मौन गीत बन कर ये कविता मन के अंदर गहरे में पैठती जाती है. सचमुच वो घर जहां बच्‍चों का उल्‍लास चहल पहल रहता था वहां का सूनापन कितना सालता है. शांत, उदास और बेरौनक, तीन शब्‍दों में मानो सुधा जी ने उस अकेलेपन का शोकगीत रच दिया है. सुंदर कविता.

तो आनंद लीजिये इस कविता का और मिलते हैं अगले अंक में अगले शायर के साथ.


बुधवार, 15 जून 2011

भोर दातुन दूध-रोटी, शाम शरबत, रात गपशप और खर्राटे में डूबी, गर्मियों की वो दोपहरी, आइये आज सुनते हैं सुलभ जायसवाल की ग़जल़.

सप्‍ताह के साथ समापन करना है तरही को और सारी की सारी पोस्‍ट शेड्यूल करके रख दी गईं हैं. किसी भी प्रकार से इस सप्‍ताह समापन करना है. नवीन जी ने पूछा है कि ये सात गुणा सात क्‍या कोई नई बहर है. तो भभ्‍भड़ कवि का कहना है कि नई तो हो ही नहीं सकती क्‍योंकि सबको बहर तो यही रखनी है, तो फिर ये सात गुणा सात क्‍या है, चलिये थोड़ा सा तो इंतज़ार कीजिये. 

ग्रीष्‍म तरही मुशायरा

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और सन्‍नाटे में डूबी गरमियों की वो दुपहरी

आज हम तरही में सुनने जा रहे हैं सुलभ जायसवाल की एक ग़जल. सुलभ ने सही मायनों में बहर पे ग़ज़ल कहना अभी पिछली दो तरही से ही शुरू किया है, लेकिन मुझे लगता है कि जल्‍द ही सुलभ को वो पकड़ आ गई है जिसकी ज़रूरत होती है, बाकी तो करत करत अभ्‍यास के.........

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सुलभ जायसवाल

परिचय:
जन्म 31 अगस्त, 1983, को अररिया, बिहार में हुआ. कंप्यूटर साइंस में स्नातक एवं पेशे से सोफ्टवेयर प्रोग्रामर (सूक्ष्मतंत्र विशेषज्ञ) निजी क्षेत्र दिल्ली में कार्यरत. ब्लॉग है "सतरंगी यादों के इंद्रजाल" http://sulabhpatra.blogspot.com/ . हिंदी के अलावा ऊर्दू, भोजपुरी और नेपाली गीत पसंद.  नए नए शहरों में घूमना और हर प्रदेश के इतिहास और संस्कृति को जानने समझने की इच्छा . शैक्षणिक एवं सामजिक गतिविधियों में हाथ बंटाना अच्छा लगता है. बिहार विकास में सुकृति सोसायटी के माध्यम से युवाओं के लिए तकनिकी एवं प्रबंधन प्रशिक्षण कार्य.  मैं उच्च शिक्षा पाना चाहता था. ठीक से पढ़ न पाया करियर के तीन-चार साल खराब हुए. पर मैं खुश हूँ, कि मेरे पास साहित्य पठन पाठन और लेखन का सहारा था.  इस दौरान कभी अपने आदर्शों और मूल्यों के साथ समझौता नहीं किया.  समाज के लिए कुछ अच्छा करने का सपना है सो लगा हुआ हूँ. अररिया, पटना, पुर्णिया, कटिहार, दिल्ली बहुत संघर्ष करते हुए कंप्यूटर की पढ़ाई पूरी की पिछले चार सालों से दिल्ली में कठीन रास्तों से गुजरने के बाद अब जाकर किसी अच्छी जगह सोफ्टवेयर इंजीनियरिंग की नौकरी कर रहा हूँ.
पता: चित्रगुप्त नगर, स्टेशन रोड, अररिया (बिहार)
चलभाष: 9811146080, ईमेल: sulabh@sukriti.co.in | sulabh.jaiswal@gmail.com


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तीनों भाई बहन, और मां

छोटे से शहर अररिया में 15-20 अप्रैल के बाद चढ़ने वाली गर्मी जून के पहले सप्ताह में ही भीषण बारिश की चपेट में आकर ख़त्म हो जाती है. जुलाई-अगस्त तक तो मामला बाढ़ के नजदीक पहुँच जाता है. जितने शरारत, खेलकूद, घुमक्करी हमने गर्मियों के मौसम में किये वो सारे जेहन में संजो कर रक्खे हैं. हमारे बाड़ी और पड़ोस के बाड़ी (घर के पिछे के उपवन को बाड़ी बोलते हैं) में सपेता (चीकू) के पेड़ लगे थे. जिसमे झूले डाल बरसो बरस झूले. गर्मियों में हम घर के बच्चे किरायेदार के बच्चे भैया समेत कच्चे सपेता तोड़ उन्हें जमीन में गाड़ देते तीन दिन बाद पके मीठे फल की हिस्सेदारी होती. अक्सर छोटे बड़े साइज़ के फल को लेकर मारपीट झगड़ा भी होता.

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ननिहाल में

,रचना प्रक्रिया
कविताएं तुकबंदी तो तेरह चौदह की आयु में लिखना शुरू किया, लेकिन जब टेलीविजन और लोकल मंचों पर वरिष्ठ हास्य कवियों, शायरों को सुना तो मैं बहुत प्रभावित हुआ. क्रिकेट, कबड्डी, शतरंज, कैरम सब छूटता गया और इंटरमीडियट विज्ञान के साथ साथ लेखन शुरू हो गया. आलेख, निबंध, व्यंग्य, हास्य, गीत, शायरी, पैरोडी लिक्खा तो बहुत कुछ. परन्तु इधर समझ में आया कि दुरुस्त शेर और ग़ज़ल कहना कितनी बड़ी कला है. मैं जब गंभीर हो कर बैठता हूँ, मुझसे कुछ लिखा नहीं जाता. राह चलते किसी के विचारों के समर्थन अथवा विरोध में, अकेलेपन के भाव में या सामूहिक उल्लास में मेरी लेखनी स्वतः चल पड़ती है. चाहे जिस विधा में हो मैं अपनी अपनी कृति से प्रेम करता हूँ. मेरी रचना मुझे जीने का आधार देती है. अपनी जिम्मेदारियों पर खडा उतरने को प्रेरित करती है. ग़ज़ल कहने के मामले में मैं अभी कच्चा हूँ मगर मैं बहुत खुश हूँ कि मुझे आज यहाँ तरही मुशायरे में दिल की बात कहने का मौका मिला.

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गांव जो अब भी याद आता है

तरही ग़ज़ल

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टीन की छप्पर जलाती गर्मियों की वो दुपहरी
ताल झरने सब सुखाती गर्मियों की वो दुपहरी
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आम लीची बेर बरगद संग आवारा लड़कपन
"और सन्नाटे में डूबी, गर्मियों की वो दोपहरी"

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भोर दातुन दूध-रोटी, शाम शरबत, रात गपशप
और खर्राटे में डूबी, गर्मियों की वो दोपहरी


गाँव के‍सरिया औ'  टीकम याद आते हैं अभी भी*
भूत डायन, बैलगाड़ी, गर्मियों की वो दोपहरी


स्‍वेद भीगा जिस्‍म था पर काम तो फिर भी था करना
मील जैसे वात-भट्टी, गर्मियों की वो दुपहरी
(मील=फैक्ट्री)

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छोटकी सी एक बकरी, ढूंढती फिरती थी मां को 
और उसका दुख बढ़ाती ,  गर्मियों की वो दुपहरी

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पूछ मत हाले जिगर, जाऊं कहाँ तुझ बिन, करूँ क्या 
है तसव्‍वुर में भटकती, गर्मियों की वो दुपहरी

(केसरीया, टीकम - मुजफ्फरपुर, मोतिहारी जिले में दादा दादी का गाँव हैं)

सुलभ को ध्‍यान में रख कर कहा जाये तो बहुत बेहतर शेर कहे हैं इस बार सुलभ ने. हर बार तरही में केवल उपस्थिति दर्ज करवाने के लिये सुलभ का आगमन होता था लेकिन इस बार गिरह का शेर ही चौंकाने वाले तरीके से बांध कर सुलभ ने बात दिया है कि अब केवल उपस्थिति नहीं दर्ज होगी बल्कि अब अपने होने का एहसास भी दिलाया जायेगा. एक शेर आनंद का कह दिया है सुलभ ने विशेषकर मिसरा सानी और खर्राटों में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी. इसमें मिसरा उला के साथ कमाल का तादात्‍म्‍य स्‍थापित किया है.

तो आनंद लीजिये ग़ज़ल का और इंतज़ार कीजिये अगली ग़ज़ल का.

मंगलवार, 14 जून 2011

उड़ चला माज़ी की जानिब जब तख़य्युल का परिंदा जाने क्या क्या बन के आई , गर्मियों की वो दुपहरी, आइये आज सुनते हैं आदरणीया इस्‍मत ज़ैदी जी से एक बहुत ही सुंदर ग़ज़ल.

और समापन तक आते आते ये करना ही पड़ा कि अब प्रत्‍येक दिन एक नई ग़ज़ल लगाई जाये. क्‍योंकि अब यदि ऐसा नहीं किया तो आगे की ओर बढ़ना होगा. मानसून आ ही चुका है और गर्मियों की दुपहरी अब एक सप्‍ताह की और बची है ऐसे में यदि समापन अभी नहीं किया तो बरसात में गर्मियों की दुपहरी की ग़ज़ल आनंद नहीं देगी. और उस पर ये भी कि अगला सप्‍ताह कुछ व्‍यस्‍तताओं का सप्‍ताह है.  काफी सारे काम हैं उस सप्‍ताह के लिये सो अब जो भी है इस सप्‍ताह तो समापन तो करना ही होगा, ताकि उसके बाद अगले सप्‍ताह भभ्‍भड़ कवि भौंचक्‍के  अपनी  सात गुणा सात ग़ज़ल  के  साथ  समापन  कर सकें. सात गुणा सात क्‍या है ये एक रहस्‍य है. ये रहस्‍य भी जल्‍द ही खोला जायेगा. लेकिन आज तो चलिये सुनते हैं आज की तरही ग़ज़ल.

ग्रीष्‍म तरही मुशायरा

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और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी

आज हम सुनने जा रहे हैं आदरणीया इस्‍मत दीदी से उनकी एक बहुत ही ख़ूबसूरत सी ग़ज़ल. ग़ज़ल में दोनों प्रकार के बिम्‍ब हैं, ये एक सिरे पर जहां रवायती शायरी से जुड़ी है वहीं ये ग़ज़ल दूसरा सिरा प्रगतिशील लेखन का थामे है. इस प्रकार की ग़ज़ल कहना एक मुश्किल काम है जिसे इस्‍मत दीदी जैसा कोई माहिर-ए-फ़न ही कर सकता है. आइये सुनते हैं ये ग़ज़ल.

ismat zaidi didi 2 आदरणीया इस्‍मत जैदी जी

परिचय तो कुछ ख़ास है ही नहीं ,, नाम आप सभी जानते ही हैं ,जौनपुर (उ.प्र.) के एक गांव कजगांव की रहने वाली हूं   पिता : स्व. श्री अबुल हसन ज़ैदी   ,,,, माता  : स्व. श्रीमती ज़हरा ज़ैदी

कक्षा 1 से 4 तक की पढ़ाई रायपुर (छत्तीसगढ़) में हुई ,उस के आगे की शिक्षा इलाहाबाद में हुई ,, इलाहाबाद विश्विविद्यालय से शिक्षा शास्त्र में एम. ए. किया ,,विवाह  के उपरांत सतना (म.प्र.) आ गई और अब 9 वर्षों से गोवा में हूं

हिंदी और उर्दू दोनों ही भाषा में समान रुचि है ,,और दोनों ही भाषा में मेरी शायरी की उम्र सिर्फ़ 3 वर्ष की है ,, शायरी का शौक़ तो बहुत पुराना है  लेकिन लिखना 3 साल पहले ही शुरू किया

उर्दू में एक किताब भी छपी "साहिल लब ए सहरा " के नाम से

अपनी सब से अच्छी  दोस्त वंदना अवस्थी दुबे के कहने पर सन  2009 में ब्लॉग  शुरू किया

आज जैसा भी लिख पा रही हूँ उस का श्रेय मेरे उस्तादों ,परिवार से प्राप्त पूर्ण सहयोग ,दोस्तों के मुफ़ीद मशवरों  और आप सभी के द्वारा दिए गए स्नेह को जाता है ,,जिस के लिए मैं आप सभी के प्रति आभार व्यक्त करती हूँ

ब्‍लाग: http://ismatzaidi.blogspot.com

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पति  श्री ज़हूरुल हसन ज़ैदी,  बिटिया  आश्ती ज़ैदी और बेटे मुशीर ज़ैदी के साथ

 तरही ग़ज़ल

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कितनी चिंताओं में डूबी गर्मियों कि वो दुपहरी

बन के पीड़ा मन पे छाई , गर्मियों की वो दुपहरी

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बौर था ,अमराइयाँ थीं ,पुरसुकूं अंगनाइयां थीं

काश वैसी ही ठहरती , गर्मियों की वो दुपहरी

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रिश्तों नातों कि वो चाहत ,कुछ नसीहत और दुआएं

इस दफ़ा बस याद लाई , गर्मियों की वो दुपहरी

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क्या समझ पाया कोई भी दर्द  मजदूरों के मन का

सर पे सूरज ,गर्म धरती , गर्मियों की वो दुपहरी

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थी मेरी साथी दुपहरी की जो चिड़िया उड़ गई वो

"और सन्नाटे में डूबी , गर्मियों की वो दुपहरी  "

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उड़ चला माज़ी की जानिब जब तख़य्युल का परिंदा

जाने क्या क्या बन के आई , गर्मियों की वो दुपहरी

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सुन के उन क़दमों की आहट , साज़ से बजने लगे थे

देर तक फिर गुनगुनाई  , गर्मियों की वो दुपहरी

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हैं 'शेफ़ा' यूँ ऐश ओ इशरत के सभी सामाँ यहाँ पर

याद आए अपनी माटी, गर्मियों की वो दुपहरी

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किस शेर की तारीफ की जाये, उड़ चला माज़ी की जानिब जब तख़य्युल का परिंदा, जाने क्‍या क्‍या बन के आई गर्मियों की वो दुपहरी, ये अद्भुत से भी ऊपर का शेर है. इसमें भी जाने क्‍या क्‍या  की तो बात ही निराली है. कुछ है जिसको डिफाइन नहीं किया जा सकता शब्‍दों से, जैसे पाकीज़ा का गीत है न, फिरते हैं हम अकेले बांहों में कोई लेले, अब ये  कोई  कौन है वो कुछ पता नहीं. ठीक वैसा ही है ये जाने क्‍या क्‍या.  गिरह का शेर भी जबरदस्‍त तरीके से बांधा गया है उस दुपहरी की चिडि़या का जवाब नहीं है. और निर्मल प्रेम का शेर सुन के उन क़दमों की आहट साज साज़ से बजने लगे थे.  या फिर प्रगतिशील धारा से जुड़ा शेर क्‍या समझ पाया कोई भी दर्द इक मजदूरनी का.

तो आनंद लीजिये इस ग़ज़ल का और मिलते हैं अगले शायर के साथ.

सोमवार, 13 जून 2011

फिर पसीना पोंछ कर छोटू ने ठेले को धकेला, हो गई फिर, पानी-पानी गर्मियों की ये दुपहरी | आइये समापन के इस सप्‍ताह में सुनते हैं वीनस केशरी की एक ग़ज़ल।

कल सीहोर में हल्‍की फुल्‍की बरसात हुई. इस प्रकार जैसे कोई अहसान किया जा रहा हो. तपिश कुछ और बढ़ गई है उस बरसात के बाद से. उमस भी बढ़ी हुई है. खैर ये तो है कि मानसून की दस्‍तक हो चुकी है. इसी बीच आने वाली 15 जून को एक और खगोलीय घटना होने वाली है पूर्ण चंद्रग्रहण की. रात को तांबे का चंद्रमा देखना हो तो जागना तो पड़ेगा. आपको पता है न कि मैं आकाश का दीवाना हूं. वहां होने वाली हर घटना को देखना अच्‍छा लगता है.  लेकिन अफसोस कि 15 जून को यदि बादल हुए तो कुछ भी नज़र नहीं आयेगा. दो साल पहले पूर्ण सूर्यग्रहण के समय भी यही हो गया था. केवल पंद्रह दिन के अंतर से पहले सूर्य ग्रहण और फिर चंद्र ग्रहण अपने आप में अनोखी बात है. और ये चंद्र ग्रहण तो वैसे भी खास है. तो ये तो हुई चंद्र ग्रहण की बात, आइये आज सुनते हैं समापन सप्‍ताह की पहली ग़ज़ल.

ग्रीष्‍म तरही मुशायरा

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और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी

आज तरही में हम सुनने जा रहे हैं इलाहाबाद के वीनस केशरी की एक सुंदर सी ग़ज़ल, इसके बाद बस कुछ और शाइर बाकी हैं और सब कुछ ठीक रहा तो भभ्‍भड़ कव‍ि भौंचक्‍के इस तरही का समापन कर सकते हैं. 

 वीनस केशरी 

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मेरा जन्म 1 मार्च 1985 दिन शुक्रवार को एक माध्यमवर्गीय वैश्य (केसरवानी {केशरी}) परिवार में हुआ | पता नहीं यह शुक्रवार का असर था या हमारे व्यावसायिक प्रकाशन "वीनस एंड कंपनी" का असर था की मेरा नाम रखा गया "वीनस", बचपन से आज तक इस नाम ने कई गुल खिलाए हैं वीनस को विनय भी पढ़ा गया और विनास भी, बहुत लोग तो इसे मेरा नाम मानने से ही इन्कार कर देते हैं और असली नाम बताने को कहते हैं तब परिचय पत्र काम आता है,पहले स्कूल की कॉपी दिखाई जाती थी. दिक्कत यह भी है की मैं इंग्लिश में अपना नाम venus लिखता हूँ जो वेनुस और वेणुस होता है खैर नाम कथा फिर कभी ...हाँ एक बात जरूर कहूँगा की जब मैं "सुबीर संवाद सेवा" में आया तो बहुत दिन तक गुरु जी को भी मेरे नाम पर शंका थी और वो तब तक बनी रही जब मैं पहली बार उनसे साक्षात मिल नहीं लिया :)

venus kesari1 फोटो : (वर्ष 1987) मम्मी जी श्रीमती अरुणा केशरी, दीदी डा. खुशबू केशरी, मैं वीनस केशरी

२००८ के मार्च में लैपटाप लेना मेरे जीवन की बड़ी घटना तब बनी जब नेट से जुडा और हिंद युग्म  ब्लॉग पर गज़ल की कक्षा में पंकज सुबीर जी को गज़ल की कक्षा चलाते देखा, मैं हैरान रह गया की गज़ल का भी कोई विज्ञान होता है ,,,,, फिर कुछ दिन बाद वहाँ कक्षा बंद हो गई तो बड़े नाटकीय तरीके से सुबीर संवाद सेवा को खोजा,,, वो दिन है और आज का दिन है... जो कुछ जाना सब कुछ गुरु जी का बताया हुआ है,,,  जो कुछ सीखा सब गुरु जी के सिखाया हुआ है  जानने और सीखने की प्रक्रिया सतत ज़ारी है

venus kesari (1)1 फोटो : (वर्ष 1987)  मैं वीनस केशरी उम्र : २ वर्ष 

परिवार में पापा जी श्री राज बहादुर केशरी, मम्मी जी श्रीमती अरुणा केशरी, दीदी डा. खुशबू केशरी, मैं वीनस केशरी, छोटा भाई आकाश केशरी और छोटी बहन कोमल केशरी हम 6 जन हैं नेट पर आने के बाद एक परिवार यहाँ भी बन गया जो बढ़ता जा रहा है, यहाँ ऐसे लोग मिले जिनसे नाता किसी भी रिश्ते से बढ़ कर है. चित्रकारी , थर्माकोल माडल बनाना अब शौक के साथ साथ व्यवसाय के अंग भी हो गए हैं इसलिए इनके लिए पर्याप्त समय मिल जाता है ग़ज़ल के लिए समय निकाल लेता हूँ 

 तरही ग़ज़ल

pankhuri and sunny

भोर से ही आ धमकती गर्मियों की ये दुपहरी |
बेहया मेहमां के जैसी गर्मियों की ये दुपहरी |

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कोई मुझको भी सिखा दे, आम के पेड़ों पे चढना,

तोडनी है अब मुझे भी गर्मियों की ये दुपहरी |

खिन्नियों का इक शज़र क्यों अब भी मेरा मुन्तजिर है,
क्यों सदा देती है अब भी गर्मियों की ये दुपहरी |

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वो भी अब वातानुकूलन यंत्र पर मोहित हुए हैं,  

कल जिन्हें अच्छी लगे थी गर्मियों की ये दुपहरी |

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फिर पसीना पोंछ कर छोटू ने ठेले को धकेला,

हो गई फिर, पानी-पानी गर्मियों की ये दुपहरी | 

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आदमी ने किस कदर धरती को लूटा, देख कर अब,

हो रही है लाल-पीली गर्मियों की ये दुपहरी | 

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क्यों धडकते शह्र की जिंदादिली से तिलमिला कर, 

और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी |

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कूलरों के घास की सौंधी सी खूशबू के भरोसे,

हमने भी क्या खूब सोची गर्मियों की ये दुपहरी |

फिर पसीना पोंछ कर छोटू ने ठेले को धकेला, हो गई फिर पानी पानी गर्मियों की ये दुपहरी, बहुत बढि़या तरीके से इंसान के हौसले और प्रकृति के बीच की ज़ोर आज़माइश को चित्रित किया है.  खिन्नियों का इक शज़र क्‍यों अब भी मेरा मुन्‍तजि़र है, ये शेर भी सुंदर बन पड़ा है. मुन्‍तजि़र शब्‍द इस मिसरे में बूटे की तरह टंका हुआ है. कोई मुझको भी सिखा दे आम के पेड़ों पे चढ़ना ये शेर भी सुंदर बना है.

तो आनंद लीजिये इस ग़ज़ल का और मिलते हैं अगले अंक में एक और शाइर के साथ.

शनिवार, 11 जून 2011

बेअसर पंखे सी घूमें पंक्तियाँ मन में अधूरी और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी, आइये आज सुनते हैं शार्दुला दीदी का एक सुंदर गीत और छुटकी अनन्‍या की एक ग़ज़ल.

जैसा कि मैंने कहा था कि अब तरही समापन पर आ रही है अगले सप्‍ताह हम इसका समापन कर देंगें. इस बार की तरही में एक बात ये अच्‍छी हुई है कि लगभग सभीके परिचय आदि आ गये हैं, उससे ये होगा कि यदि इस पूरे तरही मुशायरे को एक पीडीएफ या फिर एक छोटी सी पुस्‍तक के रूप में लाने की सोची जाये तो वो एक अच्‍छा विचार हो सकता है. अगले सप्‍ताह जब हम समापन की और होंगें तब तक शायद देश भर में मानसून की दस्‍तक हो चुकी होगी और गर्मियों का भी समापन हो रहा होगा. इस बार तरही के चक्‍क्‍र में गर्मियां कैसे बीत गईं पता ही नहीं चला. पता ही नहीं चला कि जून भी आधा बीत गया है. आइये आज सुनते हैं दो सुंदर रचनाएं एक गीत और एक ग़जल़.

ग्रीष्‍म तरही मुशायरा 
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और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी

 

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शार्दुला नोगजा दीदी

सबसे पहले हम सुनते हैं एक बहुत ही सुंदर सा गीत शार्दुला दीदी द्वारा भेजा हुआ, इन दिनों वे काफी व्‍यस्‍त हैं किसी प्रोजेक्‍ट में लेकिन उसके बाद भी उन्‍होंने ये गीत लिख भेजा है तरही के लिये. आइये सुनते हैं ये गीत.

गीत

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बेअसर पंखे सी घूमें पंक्तियाँ मन में अधूरी

और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी

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कौन जाने भाव मन का गीत में कब जा ढलेगा,

बावला सा दौड़ता ये वक्त कब मद्दम चलेगा,

था समय उजली शमीजें पहन कर आती थी गरमी,

जामुनी आँखों में रसमय स्‍वप्‍न की भीगी सी नरमी,

आज हेल्मेट , स्वेद धारे कर्म की काया सुनहरी ,

रेडियोएक्टिव कण उठाती गर्मियों की ये दुपहरी.

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बेअसर पंखे सी घूमें पंक्तियाँ मन में अधूरी

और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी

एक ही बंद है गीत में लेकिन कमाल का है, बंद की पहली चार पंक्तियां तो मानो चांदनी को धूप के पानी में घोल कर चंदन की कलम से लिखी गईं हैं. अतीत की सुंदरता को तलाशना ही कविता की एक बड़ी विशेषता होती है और चारों पंक्तियों में वो सुंदरता अपने चरम पर है. जामुनी आंखों में रसमय स्‍वप्‍न की भीगी सी नरमी, उफ क्‍या पंक्ति है, जामुनी आंखों और रसमय स्‍वप्‍न की भीगी सी नरमी की क्‍या कहें. काश गीत में एक दो बंद और होते.

 

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अनन्या सिंह ( हिमांशी )

अनन्‍या सिंह 'हिमांशी' हमारे मुशायरे में दूसरी बार आ रही है, इससे पहले ये दीपावली के मुशायरे में एक बार आ चुकी है. बच्‍ची ने अभी दसवीं बोर्ड की परीक्षा ही पास की है और बहुत अच्‍छे नंबरों से पास की है.  हिमांशी ने भी हालांकि दुपहरी को ही काफिया बना कर गैर मुरद्दफ ग़ज़ल कही है, लेकिन उसकी उम्र को देखा जाये तो बहुत ही प्रभावशाली ग़ज़ल कही है ( कह सकते हैं कि कविता का भविष्‍य बहुत अच्‍छा है ), हिमांशी के पास होने की खुशी में धमाकेदार पार्टी देने की बात उसकी  कंचन बुआ ने की तो थी लेकिन कंचन की याददाश्‍त कमजोर है क्‍या करें. आइये सुनते हैं  हिमांशी की ग़ज़ल.

तरही ग़ज़ल

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उफ हमारी जान ले लें, सूनी सँकरी गलियाँ शहरी,

और सन्नाटे में डूबी, गर्मियों की ये दुपहरी।

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मन को भाये, बारिशों की रिमझिमाती सी फुहारें,

और कँपती सर्दियों में सूर्य की किरणें सुनहरी।

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शाम हो आई है, फिर भी ठौर को उड़ते परिंदे,

सूर्य जो डूबा है, तो क्या ? जिंदगी ये कब है ठहरी।

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बिन खता के जिसने हमको बेवफा ठहरा दिया है,

उनसे पूछो कब करी थी, पिछली यारी कोई गहरी।

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जो नज़र नीची किये, लिपटी हया की चादरों में

उस नई दुल्हन को लागे शांत, कोमल ये दुपहरी।

शाम हो आई है फिर भी ठौर को उड़ते परिंदे, सूर्य जो डूबा है तो क्‍या जिंदगी ये कब है ठहरी, बहुत बड़ी बात कह गई है छोटी सी गुडि़या. एक और बात खास ये है कि मतले में ही जो गिरह बांधी है वो बहुत ही स्‍पष्‍ट तरीके से बांधी है दोनों मिसरों में गिरह कहीं दिख नहीं रही है. मन को भाये में गरमी से ज्‍यादा बाकी की दोनों ऋतुओं को पसंद करने का शेर भी सुंदर है.

तो सुनते रहिये दोनों रचनाओं को और इंतज़ार कीजिये अगले सप्‍ताह समापन का.

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