रगों में दौड़ते फि़रने के हम नहीं क़ायल
जब आंख ही से न टपका तो फि़र लहू क्या है
इस शे'र को सुनकर मेरी आंख से आंसू तब भी बह बह जाते थे और आज भी ।
जला है जिस्म जहां दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है
हुआ है शह का मुसाहिब फि़रे है इतराता
वगर्ना शहर में ग़ालिब की आबरू क्या है
शे'र और ग़ज़ल को लेने की मतलब आप समझ ही गए होंगें आज शुरू कर रहे हैं हम ऊ की मात्रा को हालंकि आज शुरू कर पाऐंगे शायद नहीं क्योंकि आज कुछ बातें कल की टिप्पणियों पर करना चाहता हूं ।
कई सारी टिप्पणियां मिली हैं और उनमें से कुछ ख़ास हैं जैसे डॉ। सुभाष भदौरिया का आशिर्वाद भरा संदेशा भी प्राप्त हुआ है । मैं वास्तव में अभिभूत हूं सुभाष जी की टिप्पणी पढ़कर । इसलिये क्योंकि वो तो इस क्षेत्र के उस्ताद हैं और मैं एक अदना सा सिखाड़ी हूं । जो कुछ भी अपने उस्तादों से मिला है उसे बांट रहा हूं आशा है सुभाष जी का मार्गदर्शन भी अब मिलता रहेगा । अपने बारे में किसी का कहा हुआ एक शे'र कहना चाहता हूं
पांव दाबे हैं बुज़ुर्गों के तो फ़न आया है
सुभाष जी की टिप्पणी और कुछ दिनों पहले जनाब इशरत क़ादरी साहब द्वारा सर पर हाथ रख कर दिया गया आशिर्वाद दोनों ही मेरे लिये अविस्मरणीय हैं । विशेष कर सुभाष जी की टिप्पणी का जि़क्र मैं इस लिये कर रहाहूं कि आजकल हो ये गया है कि गुणीजन उत्साह बढ़ाने के बजाय हतोत्साहित करते हैं । मगर सुभाष जी जैसे लोग हैं तो हम नए लोगों का हौसला बढ़ता रहेगा ।
अनूप भार्गव जी ने अच्छी ग़ज़ल निकाली है फाएलातुन-फाएलातुन-फाएलुन ( SISS-SISS-SIS )पर हैं जिसे कहा जाता है बहरे रमल मुसद्दस महजूफ हालंकि फाएलातुन की जगह पर फाइलातुन भी हो सकता है क्योंकि मात्रा पर उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता ए और इ दोनों का वज़्न एक ही है ।
आप रस्ते में मुझे जो मिल गयेराह अब लगती मुझे आसान है
इक मुकम्मल सी गज़ल मैं भी लिखूँ अब तो बस दिल में यही अरमान है
आप को मैं बेवफ़ा कैसे कहूँ आपके मुझपे कई अहसान हैं
आप् तो मुझ से किनारा कर गये आप की यादें मेरी मेहमान है
बेगुनाही की नयी कीमत लगेगीशहर के मुंसिफ़ का ये फ़रमान है ।
इसमें केवल आखि़र का शे'र बहर से बाहर हो गया है
बेगुनाही की नयी क़ीमत लगेगी
वज़्न हो गया है फाएलातुन-फ़ाएलातुन-फ़ाएलातुन SISS-SISS-SISS
ये बहर आखिर में एक मात्रा दीर्घ के बढ़ जाने से बदल गई है
होना कुछ ऐसा चाहिये
बेगुनाही की नई क़ीमत है अब
शहर के मुंसिफ़ का ये फ़रमान है
आपने जो खास बात कीहै वो ये कि आपने शहर को सही जगह पर इस्तेमाल किया है बाज हिंदी के लोग शहर को लघू दीर्घ में ले लेते हैं जबकि वो उर्दू में दीर्घ लघु होता है कुछ ऐसे शह्र आपने अच्दा प्रयाग किया है उसमें । एक और बात आपने जो तीसरे शे'र में कहा है आपके मुझ पर कई अहसान हैं उसमें भी एक बात जो ठीक नहीं है वो ये कि आपका रदीफ़ है लिया है और यहां पर हैं हो गया है अर्थात बिंदी लग गई है और है का हैं हो गया है उसे ठीक नहीं कहा जाएगा । उसे आप ऐसे कह सकते हैं
आपको मैं बेवफ़ा कैसे कहूं
आपका मुझ पर कोई एहसान है
ज़रा सा बदलने से ही सब ठीक हो जाता है । ध्यान दें मैं पहले ही बता चुका हूं कि ये अं की बिंदी बड़ी बदमाश होती है कहीं भी घुसकर सोलह सौ के हज़ार कर देती है इसलिये इसका खा़स ध्यान रखा जाए विशेषकर रदीफ और क़ाफि़या में । अगर है तो सबमें हो नहीं हो तो किसी में भी नहीं हो ।
आपको दुष्यंत के
एक गुडि़या की कई कठपुतलियों में जान है
और शायर ये तमाशा देख कर हैरान है
हालंकि आपमें और उसमें एक रुक्न का फ़र्क है एक पूरा फाएलातुन वहां पर बढ़ा हुआ है ।
दिनेश जी ने एक लिंक भेजा थ समीक्षा केलिये आज नये शायर ज्ञानदत्त जी ने अपनी गजल पेश की है. http://hgdp.blogspot.com/2007/09/blog-post_11.htmlइसकी काव्यशास्त्र की दृष्टि से समीक्षा कीजिये ना
पर वहां जो कुछ मिला उसकी समीक्षा नहीं हो सकती क्योंकि वो जो कुछ था उसके लिये हमारे मालवा में कहावत है
न काय में न काय में
न गधे में न गाय में
सो वहां कुछ नहीं कर पाया
अभिनव ने भी कुछ लिखने का प्रयास किया है । और मैं सबसे ज़्यादा जो चाहता हूं कि प्रयास ही हो हम हिन्दुस्तानी प्रयास करना ही तो भूल गए हैं ।
आज के पाठ की बात बढ़िया रही,काफिया बन के इतरा रहा खूब 'ई',शर्म के मारे ही छिप गया है रदीफ,शेर कैसे यहाँ कह रहा आदमी। वज़्न तो वही है फ़ाएलुन-फ़ाएलुन-फ़ाएलुन-फ़ाएलुन केवल दूसरे शे'र में मिसरा ऊला में दिक़्कत है जाने लें कि रदीफ़ शब्द का वज़्न है लघु-दीर्घ-लघु जो आपकी इस बहर में आ ही नहीं सकता । हां कहीं संयुक्त कर के चलाया जा सकता है पर वो भी मज़ा नहीं देगा भर्ती का लगेगा । आप उस शे'र को कुछ यूं कर सकते हैं
कोई तर्जे सुख़न का पता ही नहीं
शे'र कैसे यहां कह रहा आदमी
इससे आपकी बात भी पूरी हो रही है क्योंकि मिसरा सानी में सवाल है शे'र कैसे यहां कह रहा आदमी अब इस सवाल को लेकर ऊपर के मिसरा उला में कोई तो जस्टिफिकेशन होना ही चाहिये ध्यान दें तुकें मिलाना ही ग़ज़ल नहीं है । बल्कि बात मिलाना भी ज़रूरी है । ऊपर की लाइन जो कुछ भी कहे नीचे की लाइन उसको पूरा करे । आपके वाले शे'र में मिसरा उला और मिसरा सानी परवेज़ मुशरर्फ और नवाज़ शरीफ़ हो रहे हैं । एक कह रहा है लाहौर जाना है दूसरा कह रहा है सऊदी जाओ ।
उड़न तश्तरी बातें ही बना रही है कर के कुछ नहीं बता रही है उस पर बार बार ये कि नंबर दो नंबर दो । फि़र भी मास्साब को उम्मीद है कि कभी न कभी तो कुछ होगा ही ।
तो आज तो टिप्पणियों में ही सारा वक़्त हो गया ऊ की बात कल होगी । ये जो आज की कक्षा है इसको डिस्कश्ान कक्षा कहते हैं । जहां पर समस्याओं पर विचार किया जात है । और उनका परिणाम निकालने की कोशिश होती है । तो अब जै राम जी की
यस सर।
जवाब देंहटाएं"आपके वाले शे'र में मिसरा उला और मिसरा सानी परवेज़ मुशरर्फ और नवाज़ शरीफ़ हो रहे हैं । एक कह रहा है लाहौर जाना है दूसरा कह रहा है सऊदी जाओ।"
आदरणीय गुरुदेव, बहुत अच्छी तरह से आपने बात समझाई है। आपका बहुत आभार। जब मैंने यह पंक्तियाँ लिखीं थीं तब मुझे भी कुछ अखर सा रहा था। एक और बात, आपने जिस रूप में इस शेर में रंग भरा है वह भी लाजवाब है।
कोई तर्जे सुख़न का पता ही नहीं
शे'र कैसे यहां कह रहा आदमी
वाह वाह।
आज के होम वर्क के रूप में अपनी पंक्तियाँ न लिख कर "राजगोपाल सिंह" जी की एक ग़ज़ल प्रस्तुत कर रहा हूँ। इसके कुछ शेर मुझे बहुत अच्छे लगे, शायद आपको भी पसंद आएँ।
कुछ न कुछ तो उसके मेरे दरमियाँ बाक़ी रहा,
चोट तो भर ही गई लेकिन निशाँ बाक़ी रहा,
गाँव भर की धूप को हंस कर उठा लेता था वो,
कट गया पीपल अगर तो क्या वहाँ बाक़ी रहा,
आग नें बस्ती जला डाली मगर हैरत है ये,
किस तहर बस्ती के मुखिया का मकाँ बाक़ी रहा,
खुश न हो उपलवब्धियों पर ये भी तो पड़ताल कर,
नाम है, शोहरत भी है, पर तू कहाँ बाक़ी रहा।
शेष यही की बहर की समझ अभी तक बाहर ही है, बस शब्दों को उठा पटक कर लिखने का नाटक करते रहते हैं। आपने जिस प्रकार यह ब्लाग लिखना प्रारंभ किया है उससे आशा बंधी है कि अब हम भी बेबहर नहीं रहेंगे। एक बार पुनः आपका धन्यवाद।
राज गोपाल जी की अच्छी ग़ज़ल आपने दी है अभिनवजी हिंदी के शब्दों का इस्तेमाल करके भी उतनी ही अच्छी ग़ज़ल कही जा सकती है ये हमको इस ग़ज़ल से पता चलता है । यही बात मैं अपने उन दोस्तों को भी बताता हूं जो फिजूल में ही फारसी के टोले टोले शब्द अपनी शायरी में केवल इसलिये डालते हैं ताकि उनको आलिम फाजिल समझा जाए । अरे जिसके लिये लिख रहे हो उसको तो समझ में आए और चलो उसको नहीं अपने आपको तो समझ में आए ।
जवाब देंहटाएंराज गोपाल जी की ग़ज़ल का वज़्न है
फाएलातुन फाएलातुन फाएलातुन फाएलुन
इसे सुरों में अगर पकड़ना हो तो कुछ यूं इसके सुर ताल होंगें
लाललाला-लाललाला-लाललाला-लालला
हम जब गातें हैं तो आलाप लगाते है ना बस उसी का ही खेल है । ग़ज़ल केवल ध्वनियों पर ही चलती हैं । ध्वनियां जो कानों में पड़ें और लय उत्पन्न करें । जिंदगी में लय का ही तो खेल है जिंदगी और गज़ल़ में अगर लय नहीं तो कुछ भी नहीं है ।
ला(दीर्घ)ल(लघु)ला(दीर्घ)ला(दीर्घ)
फा (दीर्घ)ए(लघु)ला(दीर्घ)तुन(दीर्घ)
अब इसका उदाहरण देखें
ला(तुम) ल (न) ला (हीं) ला (जब)
तुम नहीं जब-लाललाला-फाएलातुन
आपकी दी हुई ग़ज़ल में है
कुछ न कुछ तो-फाएलातुन-लाललाला
उसके मेरे-फाएलातुन-लाललाला
दरमियां बा-फाएलातुन-लाललाला
की रहा-फाएलातुन-लालला
आप रियाज़ कीजिये ध्वनियों का गाइये कुछ न कुछ तो-फाएलातुन-लाललाला तीनों को एक के बाद एक । आपको एक साम्यता मिलेगी और ये ही है रिदम लय जो है ग़ज़ल की जान ।
मास्साब,
जवाब देंहटाएंअभी बातें बनाते बनाते सीख रहा हूँ. जल्दी ही आप मुझे अपना सबसे होनहार शिष्य पायेंगे.
इधर कुछ व्यस्त हूँ, मगर हाजिरी सतत जारी है. :)