tag:blogger.com,1999:blog-7637784963342720274.post385133766380817527..comments2024-03-29T19:13:12.821+05:30Comments on सुबीर संवाद सेवा: हरेक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है, तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़े गुफ़्तगू क्या है, रगों में दौड़ते फि़रने के हम नहीं क़ायल, जब आंख ही से न टपका तो.पंकज सुबीरhttp://www.blogger.com/profile/16918539411396437961noreply@blogger.comBlogger3125tag:blogger.com,1999:blog-7637784963342720274.post-66388450976335533652007-09-12T18:15:00.000+05:302007-09-12T18:15:00.000+05:30मास्साब, अभी बातें बनाते बनाते सीख रहा हूँ. जल्दी ...मास्साब, <BR/><BR/>अभी बातें बनाते बनाते सीख रहा हूँ. जल्दी ही आप मुझे अपना सबसे होनहार शिष्य पायेंगे. <BR/>इधर कुछ व्यस्त हूँ, मगर हाजिरी सतत जारी है. :)Udan Tashtarihttps://www.blogger.com/profile/06057252073193171933noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7637784963342720274.post-82789066345441665512007-09-12T11:59:00.000+05:302007-09-12T11:59:00.000+05:30राज गोपाल जी की अच्छी ग़ज़ल आपने दी है अभिनवजी हि...राज गोपाल जी की अच्छी ग़ज़ल आपने दी है अभिनवजी हिंदी के शब्दों का इस्तेमाल करके भी उतनी ही अच्छी ग़ज़ल कही जा सकती है ये हमको इस ग़ज़ल से पता चलता है । यही बात मैं अपने उन दोस्तों को भी बताता हूं जो फिजूल में ही फारसी के टोले टोले शब्द अपनी शायरी में केवल इसलिये डालते हैं ताकि उनको आलिम फाजिल समझा जाए । अरे जिसके लिये लिख रहे हो उसको तो समझ में आए और चलो उसको नहीं अपने आपको तो समझ में आए । <BR/>राज गोपाल जी की ग़ज़ल का वज़्न है <BR/>फाएलातुन फाएलातुन फाएलातुन फाएलुन <BR/>इसे सुरों में अगर पकड़ना हो तो कुछ यूं इसके सुर ताल होंगें <BR/>लाललाला-लाललाला-लाललाला-लालला<BR/>हम जब गातें हैं तो आलाप लगाते है ना बस उसी का ही खेल है । ग़ज़ल केवल ध्वनियों पर ही चलती हैं । ध्वनियां जो कानों में पड़ें और लय उत्पन्न करें । जिंदगी में लय का ही तो खेल है जिंदगी और गज़ल़ में अगर लय नहीं तो कुछ भी नहीं है । <BR/>ला(दीर्घ)ल(लघु)ला(दीर्घ)ला(दीर्घ)<BR/>फा (दीर्घ)ए(लघु)ला(दीर्घ)तुन(दीर्घ) <BR/>अब इसका उदाहरण देखें <BR/>ला(तुम) ल (न) ला (हीं) ला (जब)<BR/>तुम नहीं जब-लाललाला-फाएलातुन<BR/>आपकी दी हुई ग़ज़ल में है<BR/>कुछ न कुछ तो-फाएलातुन-लाललाला<BR/>उसके मेरे-फाएलातुन-लाललाला<BR/>दरमियां बा-फाएलातुन-लाललाला<BR/>की रहा-फाएलातुन-लालला<BR/>आप रियाज़ कीजिये ध्वनियों का गाइये कुछ न कुछ तो-फाएलातुन-लाललाला तीनों को एक के बाद एक । आपको एक साम्यता मिलेगी और ये ही है रिदम लय जो है ग़ज़ल की जान ।पंकज सुबीरhttps://www.blogger.com/profile/16918539411396437961noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7637784963342720274.post-58675578775657947572007-09-12T11:35:00.000+05:302007-09-12T11:35:00.000+05:30यस सर।"आपके वाले शे'र में मिसरा उला और मिसरा सानी ...यस सर।<BR/>"आपके वाले शे'र में मिसरा उला और मिसरा सानी परवेज़ मुशरर्फ और नवाज़ शरीफ़ हो रहे हैं । एक कह रहा है लाहौर जाना है दूसरा कह रहा है सऊदी जाओ।"<BR/>आदरणीय गुरुदेव, बहुत अच्छी तरह से आपने बात समझाई है। आपका बहुत आभार। जब मैंने यह पंक्तियाँ लिखीं थीं तब मुझे भी कुछ अखर सा रहा था। एक और बात, आपने जिस रूप में इस शेर में रंग भरा है वह भी लाजवाब है।<BR/><BR/>कोई तर्जे सुख़न का पता ही नहीं <BR/>शे'र कैसे यहां कह रहा आदमी <BR/><BR/>वाह वाह। <BR/><BR/>आज के होम वर्क के रूप में अपनी पंक्तियाँ न लिख कर "राजगोपाल सिंह" जी की एक ग़ज़ल प्रस्तुत कर रहा हूँ। इसके कुछ शेर मुझे बहुत अच्छे लगे, शायद आपको भी पसंद आएँ।<BR/><BR/>कुछ न कुछ तो उसके मेरे दरमियाँ बाक़ी रहा,<BR/>चोट तो भर ही गई लेकिन निशाँ बाक़ी रहा,<BR/><BR/>गाँव भर की धूप को हंस कर उठा लेता था वो,<BR/>कट गया पीपल अगर तो क्या वहाँ बाक़ी रहा,<BR/><BR/>आग नें बस्ती जला डाली मगर हैरत है ये,<BR/>किस तहर बस्ती के मुखिया का मकाँ बाक़ी रहा,<BR/><BR/>खुश न हो उपलवब्धियों पर ये भी तो पड़ताल कर,<BR/>नाम है, शोहरत भी है, पर तू कहाँ बाक़ी रहा।<BR/><BR/>शेष यही की बहर की समझ अभी तक बाहर ही है, बस शब्दों को उठा पटक कर लिखने का नाटक करते रहते हैं। आपने जिस प्रकार यह ब्लाग लिखना प्रारंभ किया है उससे आशा बंधी है कि अब हम भी बेबहर नहीं रहेंगे। एक बार पुनः आपका धन्यवाद।अभिनवhttps://www.blogger.com/profile/09575494150015396975noreply@blogger.com