शनिवार, 15 सितंबर 2007

जला है जिस्‍म जहां दिल भी जल गया होगा, कुरेदते हो जो अब राख जुस्‍तजू क्‍या है, हरेक बात पे कहते हो तुम के तू क्‍या है तुम्‍हीं कहो के ये अंदाज़े गुफ्त

हरेक बात पे कहते हो तुम के तू क्‍या है
तुम्‍हीं कहो के ये अंदाजे गुफ्तगू क्‍या है
रगों में दौड़ते फिरने केहम नहीं कायल
जब आंख ही से न टपका तो फिर लहू क्‍या है
ग़ालिब की ये ग़ज़ल शायद ग़ज़ल को समझने का सबसे अच्‍छा उदाहरण है । मैंने पहले ही कहा है कि ग़ज़ल का मतलब होता है बातचीत करना । हालंकि इसको महबूबा के साथ बातचीत करना भी कहते हैं पर मेरे खयाल से तो इसको बातचीत करना ही कहा जाएगा ( वैसे भी आजकल महबूबा-वेहबूबा का झंझट नई पीढ़ी के पास है भी कहां ) । और इस ग़ज़ल को अगर देखा जाए तो ये सबसे अच्‍छा उदाहरण है बातचीत का कितनी आसानी के साथ ग़ालिब ने अपनी शिकायत दर्ज करवाई है 'हरेक बात पे कहते हो तुम के तू क्‍या है ' मतलब कोई है जो हर बार उनसे कह रहा है कि चला चल तू है क्‍या । दूसरा मिसरा है ' तुम्‍हीं कहो के ये अंदाज़े ग़ुफ्तगू क्‍या है ' अंदाज़े गुफ्तगू मतलब बात करने का अंदाज़ ।
बस इसी ग़ज़ल को ध्‍यान में रखकर ग़ज़ल कहें जितनी सादगी इस ग़ज़ल में है उतनी मुझे किसी और में नहीं मिलती है । इस मतले में सबसे बड़ी जो विशेषता है वो ये है कि इसमें बला की मासूमियत है, ग़ज़ब का भोलापन है और ये भोलापन, मासूमियत और सादगी ही तो ग़ज़ल की जान होती है ।
किसी ने कहा भी है
ग़ज़ल को ले चलो अब गांव के दिलकश नज़ारों में
मुसलसल फ़न का दम घुटता है इन अदबी इदारों में
तो बात वही है कि
अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए
इसी ग़ज़ल को मैं ग़ज़ल के लिये भी मानता हूं कि अब ग़ज़ल को एक नइ हवा की ज़रूरत है और वो हवा ख़ुली हवा ही होगी ।
चलो तो आज बात करते हैं की ।
ऊपर ग़ालिब जी का जो शे'र मैंने लिया है वो भी ऊ का ही उदाहरण है । तू क्‍या है में की मात्रा बन रही है क़ाफिया और क्‍या है बन गया है रद्दीफ़ । तू, जुस्‍तजू, आबरू, रफू, जैसे क़ाफिये ग़ालिब साहब ने निकाले हैं । और शे'र तो ऐसे निकाले हैं कि क्‍या कहना
वो चीज़ जिसके लिये हमको हो बहिश्‍त अजीज़
सिवाए बादाए-ग़ुलफा़मे-मुश्‍कबू क्‍या है
यहां जाने लें कि अज़ीज़ का मतलब होता हैं प्रिय और बहिश्‍त कहा जाता है स्‍वर्ग को, एक लंबा संयुक्‍त शब्‍द भी आया है बादाए-गुलफामे-मुश्‍कबू इसका अर्थ होता है ऐसी शराब जिसमें फूलों को रंग हो और कस्‍तूरी की सुगंध हो । मतलब कितनी आसानी से ग़ालिब कह रहे हैं कि स्‍वर्ग को भी अगर मैं पसंद करता हूं या वहां पर जाना चाहता हूं तो उसके पीछे केवल एक ही कारण है और वो ये कि वहां पर फूलों के रंग वाली और कस्‍तूरी की गंध वाली शराब पीने को मिलेगी वरना तो स्‍वर्ग में है ही क्‍या । अगर इस शे'र की व्‍याख्‍या की जाए तो पूरा दिन इस पर लेक्‍च्‍ार दिया जा सकता है । कितनी आसानी से स्‍वर्ग के होने और उसके लालच को शाइर ठुकरा रहा है ।
खैर आज तो का दिन है तो वापस ऊ पर ही आते हैं । ऊ के लिये भी नियम वही हैं जो ई के लिये थे । मगर एक बात जान लें कि ऊ काफिये के साथ शे'र बहुत अच्‍छे निकलते हैं और वोइसलिये कि ऊ के क़ाफिये बहुत सुंदर हैं । और अगर ध्‍वनि की बात की जाए साउंड की बात की जाए तो ऊ में नाद होता है ऊ ही आगे जाकर ओम बन जाता है । ऊ में जो नाद है वो उसको औरों से अलग कर देता है ।
ऊपर की ग़ालिब की ग़ज़ल कए तरह का उदाहरण है । चलिये अब एक और महान शाइर को दूसरे उदाहरण में देखते हैं
मिसरा कोई कोई कभू मौजूं करूं हूं मैं
किस ख़ुशसलीकगी से जिगर ख़ूं करूं हूं मैं
अब यहां पर बात कुछ बदल गई है पहले तो मैं आपको बता दूं कि ये बाबा-ए-गज़ल़ मीर तक़ी मीर साहब की ग़ज़ल है । मीर साहब जिनको पहला रोमांटिक शाइर कहा जाता है और कहा तो ये भी जाता है कि उनकी प्रेमिका कोई काल्‍पनिक सुंदरी थी ( याद करिये व्‍ही शांताराम की फिल्‍म नवरंग) ।
इस गज़ल में छात्र समझ ही गए हैं कि के साथ जो परिवर्तन हुआ है वो ये है कि के साथ अं की बिंदी संयुक्‍त हो गइ है । ये बताने की तो अब ज़रूरत नहीं होनी चाहिये कि करूं हूं मैं यहां पर रद्दीफ है और ऊं गया है क़ाफिया ।
उठता है बेदिमाग़ ही हरचन्‍द रात को
अफ़्साना कहते सैकड़ों अफ़्सूं करूं हूं मैं

हरचन्‍द का अर्थ है हालांकि और अफ़्सूं कहा जाता है जादू को । आज कुछ मुश्किल गज़ल़ इसलिये उठाई है कि सबसे अच्‍छा उदाहरण ये ही है ।
तो बात वही ई की मात्रा वाली ही है कि अगर आपने क़ाफिये में ऊ पर अं की बिंदी भी लगा दी है तो जान लें कि ये अं की बिंदी अब आपकी ब्‍याहता हो गई आपको अब इसे हर हाल में निभाना ही है कष्‍ट दे तो भी । और अगर अं की बिंदी नहीं ली है तो फिर कहीं नहीं लेना है
जैसे ऊपर मीर साहब ये भी कह सकते थे
अफ़्साना कहते सैकड़ों जादू करूं हूं मैं
जादू और अफ़्सूं का वज्‍़न समान ही है पर अं की बिंदी के कारण्‍ा जादू के पर्यायवाची अफ़्सूं को लाना पड़ा ।
मीर साहब की एक ग़ज़ल को यूं ही उदाहरण के लिये कह रहा हूं ऊ उसमें नहीं है पर भोलापन और मासूमियत ग़ज़ब की है ।
पूरी की पूरी ग़ज़ल आज के एसएमएस वालों के काम आ सकती है
क्‍या लड़के दिल्‍ली के हैं अय्यार और नटखट
दिल ले हैं यूं कि हरगि़ज होती नहीं है आहट
हम आशिकों के मरते क्‍या देर कुछ लगे है
चुट जिन ने दिल पे खाई वो हो गया है चटपट
दिल है जिधर को ऊधर कुछ आग सी लगी थी
उस पहलू हम जो लेटे जल जल गई है करवट
अब यहां देखें और बात करें उन लोगों से जो ग़ज़ल को बिलावजह ही मोटे मोटे शब्‍द डालकर दुश्‍वार बनाते हैं और कहते हैं कि जो पहली बार में ही समझ में आ जाए वो ग़ज़ल नहीं होती ।
चलिये वापस ऊ पर ही चलते हैं ये हमारी मात्राओं में आता है और इसीलिये इसको क़ाफिया बनाया जा सकता है ।
मास्‍साब की एक ग़ज़ल है
एक ठहरे शहर में अब कुछ शुरू क्‍या कीजिये
जम गया है धमनियों तक का लहू क्‍या कीजिये
मरमरी हाथों से उसने छू लिया चेहरा मेरा
बाद इसके और कुछ अब जुस्‍तजू क्‍या कीजिये
वक्‍़ते रुख़सत कह रहे हैं आज कुछ भी मांग लो
और मैं हैरत में हूं कि आरज़ू क्‍या कीजिये
झांकती ग़ुरबत हो जब चेहरे से ख़ुद ही तो भला
चादरों की और कमीजों की रफ़ू क्‍या कीजिये
'आप' से कहने लगे थे 'तुम' मुझे बेटे मेरे
'तुम' से वो कहने लगे हैं अब तो 'तू' क्‍या कीजिये
हालंकि ये मेरी बहुत पसंदीदा ग़ज़ल नहीं है फिर भी यहां इसलिये दे रहा हूं कि इसमें भी ऊ ही है ।
कल रविवार की छ़ट्टी है और होमवर्क में और ऊं का क़ाफिया है आज़माइश करें । और कुछ शे'र ज़रूर निकालें । काफी मेल मिल रही हैं काफी फोन भी आ रहें हैं यक़ीन जानिये कि मैं नहीं जानता था कि इतने लोग हैं जो ग़ज़ल से मुहब्‍बत करते हैं । मेल का जवाब देने में ही मुझे अब एक घंटा लग रहा है । अच्‍छा भी लग रहा है ब्‍लाग वाणी से मैथिल जी का फोन आया है और उनका कहना है कि इस ब्‍लाग को केवल ग़ज़ल के लिये ही समर्पित कर दो । मैं वैसा करने का प्रयास कर रहा हूं और अपने समाचारो को अलग ब्‍लाग बना दिया है । यहां पर केवल ग़ज़ल की ही बात करूंगा । उड़न तश्‍तरी ने एक बड़ी ही दिलजली टाइप की ग़ज़ल भेजी है ( फोटो से तो नहीं लगता ऐसे हैं ) आप उसे पिछले पोस्‍ट की टिप्‍पणी में पढ़ सकते हैं । उसमें प्रेमिका के भाईयों के हाथ्‍ा पांव तुड़वाने के लिये किराये के ग़ुंडे लाने की बात कही है । खैर आज ऊ है और आप हैं मैं फिर कह रहा हूं कि सबसे सुंदर का़फिया है इस पर अच्‍छे शे'र निकालने का प्रयास करें । जैरामजी की


3 टिप्‍पणियां:

  1. मास्साब

    अभी बहर का आईडिया तो है नहीं. वो तो आप ट्यूशन देने घर आये थे और दुखी हो कर कल लौटे तब आपने देख ही लिया. बस कोशिश करते रहते हैं.

    एक बार आप बहर सिखाने लगेंगे तब भूल कम होगी. तब तक इतने दुखी न हों जैसा आपने ट्यूशन में कहा.

    अभी आपने बहर सिखाई ही कहाँ है जो दुखी हो गये उतनी पुरानी कोशिश पर. अब मुस्कराईये और बिना बहर की जानकारी के यह दो पेशकश देखिये ऊ के काफिये पर, पता नहीं कैसी कोशिश है.

    गलत भी है तो सिवाय दुखी होने के,सही वाली भी बताईये. मैने कोशिश बस की है:



    तुझ बिन जिन्दगी में कोई भी आरजू कैसी
    उजड़े चमन से जो आये वो हो खुशबू कैसी

    सोचता तुझे नहीं, मगर तू आ ही जाती है
    तेरा जिक्र न हो जिसमें वो हो गुफ्तगू कैसी.

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  2. सुबीर जी:

    कुछ दिन पहले एक मुक्तक लिखा था जिसमें 'ऊ' का काफ़िया बैठता है । 'होमवर्क' की जगह ये दिया जा सकता है ?

    गुनगुनी सी हवा है बहूँ ना बहूँ
    गैर की वेदना है सहूँ ना सहूँ
    मुस्कुराते हुए गीत और छन्द में
    अनमनी सी व्यथा है कहूँ ना कहूँ ?

    सादर

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  3. सर जी
    सव
    मेरे भी कुछ शेर्र इस श्रंखला में


    तस्वीर तेरी जिगर में मैं उतारूं कैसे
    जुबाँ बंद है मेरी तुझको मैं पुकारूं कैसे

    हल्का सा एहसास दुनिया ने दिया है मुझको
    इसको अपनी मोहब्बत से मैं सवारूं कैसे

    इक मिसाल बन गया हूँ मैं दिलों में सबके
    उसको अपने ही हाथों से मैं बिगाडूं कैसे


    आभार
    अजय

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