शुक्रवार, 14 सितंबर 2007

संस्‍कृत निष्‍ठ क्लिष्‍ट और विशिष्‍ट नहीं हमें चाहिये जन जन की हिन्‍दी



संस्‍कृत निष्‍ठ क्लिष्‍ट और विशिष्‍ट नहीं हमें चाहिये जन जन की हिन्‍दी
पवन जैन ( आइ पी एस) प्रबंध संचालक म प्र पुलिस हाउसिंग कार्पोरेशन
aj हिन्‍दी दिवस है, इससे बड़ी विडम्‍बना किसी भी भाषा के लिये नहीं हो सकती कि आज़ादी के 60 साल बाद भी, संविधान में राजभाषा का दर्जा होने के बाद भी, हिन्‍दी को अपनों के बीच हिन्‍दी दिवस, हिन्‍दी सप्‍ताह और हिन्‍दी पखवाड़े की अपमानजनक वेदना से होकर गुज़रना पड़ता है । अतीत से लेकर वर्तमान तक ज्ञात दुनिया के इतिहास में शायद ही किसी मुल्‍क की अपनी मातृभाषा को इतने कड़े इम्‍तेहान से गुज़रना पड़ा हो । हमने कभी नहीं सुनाओ कि चीन में चीनी दिवस, इंग्‍लैंड में अंग्रेजी दिवस, जर्मनी में जर्मन दिवस और स्‍पेन में स्‍पेनिश दिवस मनाया गया हो पर हिन्‍दुस्‍तान में हिन्‍दी दिवस बिना नागा हर साल मनता है । संविधान निर्माताओं ने भारतीय संघ की राजभाषा बनाते समय कल्‍पना तो शायद यही की होगी कि धीरे-धीरे हिन्‍दी राष्‍ट्र भाषा काका दर्जा प्राप्‍त कर लेगी , पर हकीकत यही है कि न तो हिन्‍दी राज की भाषा बन पाई और न काज की । हर साल हमें हिन्‍दी दिवस इसी नंगी सच्‍चाई से रूबरु कराता है और हिन्‍दी दिवस पर हिन्‍दी का चिंतन भी ऐसी कवायद है जिसमें बीमारी जाने बिना इलाज की कोशिशें जारी हैं ।
यूं तो दुनिया में दूसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है हिन्‍दी पर लगता है हिन्‍दुस्‍तान में हिन्‍दी की बदहाली देखकर ही विश्‍व हिन्‍दी सम्‍मेलन का आयोजन भी अब सात समंदर पार कभी मारीशस, कभी त्रिनिदाद, कभी इंग्‍लैंड कभी सूरिनाम या फिर कभी न्‍यूयार्क में इसलिये हो रहा है कि आयोजाकों के मन में यह खयाल जागा होगा कि हिन्‍दी श्‍दि परदेस में सम्‍मानित होगी तो तो देश में भी हिन्‍दी के प्रति लोगों के दिलों खोया हुआ सम्‍मान जाग उठेगा । चाहे चिकित्‍सक डॉ हरगोविंद खुराना हों या वैज्ञानिक एस चन्‍द्रशेखर, ममतामयी कदर टेरेसा हों या अर्थशास्‍त्री अमर्त्‍य सेन हों । हमने उन्‍हें तभी सम्‍मान के काबिल समझा जब नोबल पुरुस्‍कार और दूसरी तमाम विदेशी संस्‍थाओं ने उन्‍हें सम्‍मान और शोहरत दी । आज भी लक्ष्‍मी निवास मित्‍तल, स्‍वराजपाल और हिन्‍दुजा जैसे भारतवंशी उद्योगपतियों और इंद्रा नूई तथा सुनिता विलियम्‍स जैसे प्रवासी प्रतिभाओं का वंदन, भारत के छोटे-बड़े अखबारों से लेकर जन जन तक इसलिये पहुच गया है क्‍योंकि उन्‍होंने अपनी सफलता के झंडे विदेशों में गाड़े हैं।
भारत में ही 50 करोड़ से भी अधिक लोग हिन्‍दी बोलते, लिखते और पढ़ते हैं । हिन्‍दी सिर्फ भारत में ही नहीं भारत के बाहर भी भारतवंशियों को जो जोड़ती है । नेपाल हो या मारिश्‍ास, सूरीनाम हो या फीजी, गयाना हो या त्रिनिदाद, वियतनाम हो या जापान, कनाडा हो या अमरीका, पेरिस हो या लंदन निपट विदेश में भी ये हिन्‍दी ही है जो हिन्‍दी भाषियों को अपनेपन का ऐहसास कराती है । हिन्‍दी का जन्‍म तो इसी सरजमीं पर हुआ है , वेदों पुराणों की संस्‍कृत, बोद्ध ग्रंथों की पाली, जैन एवं सनातन परम्‍पराओं की प्राकृत एवं अपभ्रंश जैसी भाषाओं के समागम से सिर्फ हिन्‍दी ही नहीं तमिल, तेलगू, कन्‍नड़, मलयालम और असमी जैसी अनेकानेक भारतीश भाषाओं का उदगम हुआ है । और तो और उर्दू भी कभी ज़ुबाने हिन्‍दवी कहलाती थी । इन भारतीय भाषाओं का हिन्‍दी से कैसा विरोध, लेकिन हिन्‍दी की स्‍वीकार्यता थोपी गई अनिवार्यता में नहीं जरूरत एवं अपरिहार्यता में छुपी है । यदि विश्‍व की संपर्क भाषा अंग्रेजी है तो इस पर कोई विवाद नहीं हो सकता कि हिंन्‍दुस्‍तान में संपर्क, काम काज और दिलों की भाषा हिन्‍दी हो सकती है । संस्‍कृतनिष्‍ठ, विशिष्‍ट, और क्लिष्‍ट हिन्‍दी से तो विरोंध हो सकता है, दक्षिण, पूरब, या उत्‍तर पूरब के राज्‍यों के बाशिंदों का आम ज़बान की हिन्‍दी, रोजमर्रा की हिन्‍दी, बाजारों की हिन्‍दी, फिल्‍मों की हिन्‍दी, लोकगीतों की हिन्‍दी, अखबारों की हिन्‍दी का विरोध तो पाकिस्‍तान में भी नहीं है तो फिर भला हिन्‍दुस्‍तान में क्‍यों होगा ।
वैज्ञानिकता या भाषा विज्ञान की किसी कसौटी पर कसा जाए तो हिन्‍दी सौ फीसदी खरी उतरती है । जितने वर्ण हैं , उतनी ध्‍वनियां हैं, जैसी लिखी जाती हैं वैसी ही पढ़ी जाती हैं । हिन्‍दी का अपना व्‍याकरण, लिपी और शब्‍द कोश है जो इस भाषा को पूर्णता ही प्रदान नहीं करते, बल्कि विज्ञान के अध्‍ययन के लिये उपयुक्‍त भी बनाते हैं । पर विज्ञान, तकनीकी अनुसंधान, प्रबंधन, सूचना प्रोद्यौगिकी और कम्‍प्‍यूटर इंजिनियरिंग के क्षेत्रों की तो छोडि़ये ठेठ हिन्‍दी राज्‍यों के शिक्षा के मंदिरों में भी हिन्‍दी का दोयम दर्जा बढ़ता ही जा रहा है । हिन्‍दी के ह्रदय प्रदेशों में भी कुकुर मुत्‍तों की तरह पब्लिक और कान्‍वेंट स्‍कूल हर रोज खुल रहे हैं । शायद इसे मैंकाले की शिक्षा पद्धति की दूरदर्शिता कहें या बरसों की गुलामी और मानसिक दासता का परिणाम कि गोरे अंग्रेजों की विदाई के 60 साल बाद भी इस देश में ऐसे काले अंग्रेजों की फौज बढ़ती ही जा रही है जो हर स्‍वदेशी समस्‍या का विदेशी समाधान खोजती है । किसी भाषा का ज्ञान लज्‍जा की नहीं गर्व की बात है पर विरोध अंग्रेजी का नहीं अंग्रेजीयत का है । भूमण्‍डलीकरण के इस दौर में पश्‍िचिमी ज्ञान के लिये हम अपने घरों की खिड़कियों और झरोखों को ख़ुला रखें, लेकिन घर के आंगन में बह रही हिन्‍दी की पुरवाई ही आने दें तभी हिन्‍दुस्‍तान में हिन्‍दी की बयार बहेगी ।
यदि युवा पीढ़ी को हिन्‍दी के प्रति आकृष्‍ट करना है तो हिन्‍दी को समकालीन एवं समसामयिक परिदृष्‍य के साथ तालमेंल करना होगा क्लिष्‍ट एवं विशिष्‍ट शब्‍दों के प्रयोग से बचना होगा दूसरी तमाम भाषाओं तथा लोक भाषाओं के साथ हिन्‍दी बोली में प्रचलित शब्‍दों को उसी रूप में समाहित करना होगा, अनुवाद की प्रक्रिया का प्रमाणीकरण कर उसे सरल और सार्थक बनाना होगा, शिक्षा में आधुनिक तकनीकी के समस्‍त पहुलू चाहे वे दृष्‍य हो या श्रव्‍य , या एनिमेटेड, उसमें हिन्‍दी के अधिकाधिक प्रयोग की संभावनाएं तलाशनी होंगी । इस दौर में कम्‍प्‍यूटर ही नहीं हाथ में समा जाने वाले पाम टाप मोबाइल तथा अनेकानेक ई उपकरणों में ऐसी हिन्‍दी के साफ्टवेयरों के प्रचलन एवं सर्च इंजनों के निर्माध की आवश्‍यकता है जो विज्ञान एवं तकनीक विष्‍ाय को न सिर्फ आसान बनाते हैं वरन् तथ्‍यों एवं आंकड़ों का सहज प्रवाह भी सुनिश्चित करते हैं ।
हिन्‍दी को वैश्विक भाषा बनाकर पूरे विश्‍व में फैलाना निश्‍चय ही हर भारतीय के लिये गौरव की बात है लेकिन उसे सबसे पहले अपनी जड़ों को मजबूत करना होगा । उदाहरण के लिये यूं तो योग पूरे विश्‍व में फैला लेकिन भारत में योग आंदोलन के रूप में सामने तब आया जब बाबा रामदेव एवं उनके साथियों ने चिकित्‍सा के स्‍वदेशी ज्ञान एवं आयुर्वेद की भारतीय पद्धतियों का सरलीकरण कर न केवल उसे निरोगीकरण और योग से जोड़ा वरन् टीवी चैनलों और के माध्‍यम से करोड़ों दिलों में भारतीय योग की अलख जगा दी । आज हिन्‍दी को भी ऐसे हिन्‍दी सेवी साहित्‍य कारों, पत्रकारों, फिल्‍मकारों, विद्वानों, वैज्ञानिको और अनुवादकों की आवश्‍यकता है जो हिन्‍दी को सरलीकृत कर उसे आम आदमी की जुबान बना दें और हिन्‍दी को पुस्‍तक से उस तक (जन-जन) पहुंचा दें । न तो हिन्‍दी पराधीन है और नही उसे गैरों के रहमो करम की आवश्‍यकता है । उसे तो अपने 50 करोड़ हिन्‍दी भाषी बेटे-बेटियों ये स्‍वाभिामान का इतना सा प्रणाम लेना है कि उनकी भाषा तिरस्‍कार की नहीं सम्‍मान की हकदार है और जिस दिन ये हाथ हिन्‍दी का तिलक करने उठेंगें तो संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ तो क्‍या पूरे विश्‍व में हिन्‍दी की पताका फहराएगी । दैनिक जागरण से साभार

2 टिप्‍पणियां:

  1. सच कहा है पवन जी ने हिन्‍दुस्‍तान में हिंदी दिवस मनाना वास्‍तव में हिंदी का अपमान ही है । हम अपनी ही भाषा को एक दिन देकर बाकी दिनों में गुलामी की भाषा बोलते है और ये केवल इसलिये क्‍योंकि नेहरू जी नहीं चाहते थे कि हिंदी को भारत की भाषा बनने का मौका मिले । वे स्‍वयं अंग्रेजी के भक्‍त थ्‍ो और अंग्रेजी को ही राष्‍ट्रभाषा बनाना चाहते थे । उनके ही इशारे पर दक्षिण में हिंदी विरोधी आंदोलन चला था जब हिंदी को राष्‍ट्रभाषा बनाने का काम चल रहा था ।

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  2. सच कह रहे हैं. अच्छा लगा पवन जी के विचार पढ़कर.

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