ग़ज़ल से आप को अनुमान हो ही गया होगा कि आज बात हो रही है ई की मात्रा के क़ाफियों की । ई की मात्रा को सबसे ज़्यादा उपयोग किया जाता है और कई बार जानकारी के अभाव में ग़लत तरीके से इस्तेमाल किया जाता है । ई की मात्रा की विशेषता ये है कि ये अक्षर के साथ और अकेले दोनों तरीकों से उपयोग में आ जाती है ।
गुलज़ार साहब की ग़ज़ल है
शाम से आंख में नमी सी है
आज फि़र आपकी कमी सी हे
ये एक तरह का उदाहरण है जिसमें गुलज़ार साहब ने मी क़ाफिया बना लिया है । मतलब ये कि ई की मात्रा तो है पर वो म के साथ संयुक्त है नमी, कमी , थमी, जमी जैसे क़ाफिये ही यहां पर चलेंगें ।
अब एक और ग़ज़ल को देखें
सामने थे मय के प्याले तिश्नगी अच्छी लगी
रोशनी की आरज़ू में तीरगी अच्छी लगी
यहां पर गी क़ाफिया बन गया है ई की मात्रा तो है पर ग के साथ संयुक्त है अर्थात जिंदगी, दिल्लगी, ताज़गी जैसे क़ाफिये लाने होंगें।
अब बात करें कुछ ऐसी ग़ज़लों की जिनमें केवल ई की मात्रा की ही आवश्यकता है
किसी की दोस्ती का क्या भरोसा
ये दो पल की हंसी का क्या भरोसा
सफ़र पर आदमी घर से चला जो
सफ़र से वापसी का क्या भरोसा
अब यहां पर शाइर स्वतंत्र हो गया है क्योंकि उसने मतले में कोई दोहराव नही लिया है और केवल ई की मात्रा की ही बंदिश रखी है । अर्थात मतले के दोनों मिसरों में ई की मात्रा अलग अलग शब्दों पर संयुक्त होरक आ रही है । पहले दोस्ती में त के साथ संयुक्त है तो दूसरे मिसरे में हंसी में स के साथ मतलब कि शाइर अब स्वतंत्र है कुछ भी ऐसा क़ाफिया लेने को जो कि ई की मात्रा का हो । तो पहला निष्कर्ष तो यही निकलता है कि मतले के दोनों मिसरो में अगर ई की मात्रा किसी एक ही अक्षर के साथ संयुक्त होकर आ रही है तो फिर आप बंध गए हैं अब आगे आप ई की मात्रा के जो भी क़ाफिये लेंगें वो सब उसी अक्षर के साथ ई की मात्रा के होने चाहिये । अगर कमी और नमी ले लिया तो फिर अब मी आपका बंधन हो चुका है आपको इसका पूरी ग़ज़ल में निर्वाह करना होगा ।
ई की मात्रा अकेले भी आ जाती है
चांद में है कोई परी शायद
इसलिये है ये चांदनी शायद
अब इसमें केचल ई की मात्रा की ही बंदिश है
शाइर का एक शे'र देखिये जिसमें उसने केवल ई की मात्रा को ही क़ाफिया बना लिया है
खोल रक्खा है दिल का दरवाज़ा
यूं ही आ जाएगा कोई शायद
अब यहां कोई में ई की मात्रा स्वतंत्र होकर आई है । कोई के रूप में । ये बात ई की मात्रा के साथ् हो जाती है ।
एक बात जो ई की मात्रा को क़ाफिया बनाते समय ध्यान रखनी है वो ये है कि ई की मात्रा के साथ अं की बिंदी का ख़ास ध्यान रखना है । अगर आ रही है तो सब में आए और अगर नहीं है तो किसी में भी नहीं आए । कुछ लोग कमी, नमी के साथ नहीं, कहीं का प्रयोग कर लेते हैं जो बिल्कुल ग़लत है ।
जैसे ऊपर के शे'र को कुछ यूं कहा जाए
खोल रक्खा है दिल का दरवाज़ा
पर कोई आएगा नहीं शायद
तो ग़ल़त हो गया नहीं में ई के साथ अं की बिंदी संयुक्त है जो ग़ल़त है इसलिये क्योंकि आपके मतले में चांद में है कोई परी शायद, इसलिये है ये चांदनी शायद में केवल ई की मात्रा ही है अं की बिंदी नहीं है । अगर हो तो फिर सब में ही हो ।
जैसे ऊपर की ग़ज़ल का मतला अगर यूं होता
चांद है खो गया कहीं शायद
रो रही इसलिये ज़मीं शायद
तो इसमें आपने अपने आप को स्वतंत्रता दे दी है कि आप ई की मात्रा को अं की बिंदी के साथ उपयोग कर सकते हैं । पर ध्यान रखें अब यहां पर वो क़फिये नहीं आएंगें जो अं की बिंदी के बिना वाले हैं जैसे चांदनी, शायरी, कमी, नमी । तो एक बात और भी सामने आती है कि अगर आपने अं की बिंदी को मतले में ले लिया हे तो पूरी ग़ज़ल में ही लें और जो अगर मतले में नहीं लिया हे तो पूरी ग़ज़ल में कहीं भी न लें ।
तो आज के पाठ में जो बातें सामने आती हैं वो ये कि ई की मात्रा प्रमुख रूप से तीन तरीकों से उपयोग में आती है
1 जब वो मतले के दोनों मिसरों में किसी एक ही खा़स अक्षर के साथ संयुक्त हो रही हो तो फिर पुरी ग़ज़ल में उसी खास अक्षर के साथ चलेगी । उदाहरण कमी, नमी, थमी, आदमी, ।
2 जब वो मतले के दोनों मिसरों में अलग अलग अक्षरों के साथ संयुक्त हो रही हो तो फिर पूरी ग़ज़ल में अलग अलग अक्षरों के साथ ही आएगी । उदाहरण आदमी, चांदनी, शायरी ।
3 जब वो मतले में अं की बिंदी के साथ संयुक्त हो तो पूरी ग़ज़ल में अं की बिंदी को निभाना पड़ेगा । जैसे कहीं, नहीं, यहीं, ज़मीं । अब इसमें भी अगर आपने मतले में नहीं और कहीं को क़ाफिया कर लिय तो तो आप और भी ज़्यादा फंस गए अब तो दो दो को निभाना है । ई की मात्रा को अं की बिंदी और ह अक्षर के साथ ही संयुक्त करना है ये थोड़ा और मुश्किल होगा । इसीलिये मतले में मैंने ऊपर
चांद है खो गया कहीं शायद
इसलिये रो रही ज़मीं शायद
कहा ज़मीं कहने से ह की बाध्यता ख़त्म हो गई अगर दूसरे मिसरे में कहा जाता
चांद है खो गया कहीं शायद
इसलिये चांदनी नहीं शायद
तो उलझन हो जाती ।
मुनव्वर राना साहब की ग़ज़ल के साथ समाप्त करना चाहता हूं
सियासी आदमी की शक्ल तो प्यारी निकलती है
मगर जब गुफ्तगू करता है चिनगारी निकलती है
मुहब्बत को ज़बरदस्ती तो लादा जा नहीं सकता
कहीं खिड़की से मेरी जान अलमारी निकलती है
दोस्तों मैं पहले ही कह चुका हूं कि मैं केवल एक छात्र ही हूं ग़ज़ल की पाठशाला का । कुछ ई मेल मुझे मिले हैं जिनमें आपत्ति दर्ज कराई गयी हैं कि मैं इस फ़न को इस तरह से सार्वजनिक कैसे कर सकता हूं । मगर दोस्तों मैं तो केवल ये जानता हूं कि फ़न पर सबका हक है कुछ लोग नहीं चाहते कि सब अच्छी ग़ज़ल कह सकें क्योंकि उससे उनकी दूकानदारी टूट जाती है । खैर आज का लेक्चर वैसे ही लंबा हो गया है । जै राम जी की ।
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अनूप भार्गव said...
जवाब देंहटाएंमास्साब ! आप के प्रश्नो के उत्तर देनें के कोशिश की है, परिणाम से अवगत करायें :
1 अगर मतले में निखरता और बिखरता की क़ाफियाबंदी है तो आगे के शेरों के लिये क्या क़ाफिये होंगे।
>> सिहरता, उतरता , बिसरता
>> ठिठुरता शायद चल जाये
2 अगर मतले में चलता और गलता की क़ाफिया बंदी है तो क़ाफिये क्या होगें ।
>> पलता, ढलता, जलता, टलता
3 अगर टूटा और फूटा की काफियाबंदी है तो आगे के शेरों के लिये क़फिये क्या होंगें ।
>> छूटा, बूटा, लूटा, कूटा, खूँटा
4 हो सके तो एक एक शेर भी बनाने का प्रयास करें
>> अभिनव की गज़ल में एक शेर जोड़ने का प्रयास, काफ़िया तो ठीक है लेकिन वज़्न शायद नहीं :
आप रस्ते में मुझे जो मिल गये
राह अब लगती मुझे आसान है ।
और चलते चलते ..
इक मुकम्मल सी गज़ल मैं भी लिखूँ
अब तो बस दिल में यही अरमान है ।
अनूप आपने दूसरे और तीसरे में तो ठीक निकाले हैं पर पहले में ग़ल़त हैं वहां निखरता और बिखरता है इसलिये अखरता आएएगा क्योंकि खरता की बंदिश है । शे'र दोनों ब्लिकुल टीक हैं पर ये अभिनव की बहर पर नहीं हैं इनकी तो अपनी ही बहर है और सबसेअच्छा ये है कि आपके दोनों ही शे'र फाएलातुन-फाएलातुन-फाएलुन ( SISS-SISS-SIS )पर हैं जिसे कहा जाता है बहरे रमल मुसद्दस महजूफ
आपको बहुत बहुत बधाई । दिल खुश कर दिया ।
हाजिरी लगा लिजिये. आ गया हूँ-ध्यान से सबक पढ़ लिया है, याद कर लिया है. आज कोई होम वर्क नहीं???
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर जो आपने सुधार बताया था, कर लिया गया है. उसे नज़्म कह दिया है. आभार यहाँ कर रहा हूँ भी-फिर वहाँ भी करुँगा. कुछ नम्बर मिलेंगे क्या सुधार करने के-पिछली बार १० दिये थे आपने शेर सुधारने के.
आज नये शायर ज्ञानदत्त जी ने अपनी गजल पेश की है. http://hgdp.blogspot.com/2007/09/blog-post_11.html
जवाब देंहटाएंइसकी काव्यशास्त्र की दृष्टि से समीक्षा कीजिये ना
दफ्तरों में समय मारते आदमी
जवाब देंहटाएंचाय उदर में सतत डालते आदमी
अच्छे और बुरे को झेलते आदमी
बेवजह जिन्दगी खेलते आदमी
गांव में आदमी शहर में आदमी
इधर भी आदमी, उधर भी आदमी
निरीह, भावुक, मगन जा रहे आदमी
मन में आशा लगन ला रहे आदमी
खीझ, गुस्सा, कुढ़न हर कदम आदमी
अड़ रहे आदमी, बढ़ रहे आदमी
हों रती या यती, हैं मगर आदमी
यूंही करते गुजर और बसर आदमी
आप मानो न मानो उन्हें आदमी
वे तो जैसे हैं, तैसे बने आदमी
दिनेश जी ये ग़ज़ल नहीं है और न ही ये दोहे में आ रही है ये क्या है मैं भी नहीं जानता इसलिये समी क्षा नहीं कर सकता ।
मास्टरजी सादर अभिवादन
जवाब देंहटाएंग़ज़ल के शिल्प एवं बहरों का आप का ज्ञान सराहनीय है. फिलहाल मुझे ऐसा लग रहा है.आपने अनूपजी की ग़ज़ल में जो बहरे रमल मुसद्स महज़ूफ बतायी है सही है.
जिसके अरकान है-
फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन.
जैसे -
दिल के अरमां आँसुओं में बह गये
हम वफ़ा करके भी तन्हा रह गये.
आप एक बेहतर काम कर रहे हैं, लोगों पर ध्यान मत दें.नेट पर कोई है जिससे ग़ज़ल के शिल्प पर बात की जा सकती है.आप के लेख का इंतज़ार रहता है.
विनीत
ड़.सुभाष भदौरिया अहमदाबाद.
यस सर,
जवाब देंहटाएंआज के पाठ की बात बढ़िया रही,
काफिया बन के इतरा रहा खूब 'ई',
शर्म के मारे ही छिप गया है रदीफ,
शेर कैसे यहाँ कह रहा आदमी।
सुबीर जी:
जवाब देंहटाएंआप को शेर पसन्द आये, जान कर खुशी हुई, धन्यवाद ।
मुझे बहर का बिल्कुल भी ज्ञान नही है, संयोग से ही दोनो शेर एक बहर में बन गये ।
आपने हौसला बढाया है तो चन्द शेर और जोड़ने की कोशिश कर रहा हूँ :
आप को मैं बेवफ़ा कैसे कहूँ
आपके मुझपे कई अहसान हैं
आप तो मुझ से किनारा कर गये
आप की यादें मेरी मेहमान है
बेगुनाही की नयी कीमत लगेगी
शहर के मुंसिफ़ का ये फ़रमान है ।
(दुष्यन्त कुमार को पढा है, याद नही आ रहा लेकिन उनके किसी शेर का असर है, इस पर)
-जब भी आप उचित समझें तो ज़रा खुलासा करें कि मेरे दो पहले शेर : फाएलातुन-फाएलातुन-फाएलुन ( SISS-SISS-SIS )में कैसे हुए ?
-क्या ज़रूरी है कि हर गज़ल पूर्व निधारित बहरों में से ही किसी पर हो ?
-सुभाष जी को यहां देख कर अच्छा लगा । आशा है कि वह भी इस यज्ञ में अपना रचनात्मक सहयोग देंगे ।
सादर
सुबीर जी, मैं एक नया छात्र हूँ आपकी कक्षा में, उम्मीद है आप दाख़िले से मना नहीं करेंगे। बहुत ही नेक काम कर रहे हैं आप हम एकलव्यों को राह दिखा कर।
जवाब देंहटाएंजब ई की मात्रा की बात चली है तो मेरा निवेदन है कि आप मेरी एक ग़ज़ल (जो ई के काफ़िये पर है) पर अपनी राय दें:
http://ibtedaa.blogspot.com/2007/04/blog-post_24.html
आख़िरी शेर में बहर शायद ग़लत हो गया है, पर मैं दूसरा कुछ सोच नहीं पाया। अगर आप थोड़ी मदद करें तो बड़ी मेहरबानी होगी।