गुरुवार, 20 सितंबर 2007

वो दिन कितने अच्छे थे, जब लोग खटके से बिजली जलाते थे,सड़क पर चलते थे, नाली में गंदा पानी बहाते थे, और नल से पानी लेते थे माड़साब क्या ऐसा फिर नहीं होगा

खामोश स्कूल सड़क पर है
व्यंग्य ( पंकज सुबीर)
स्थान : एक छोटा कस्बा
काल : सन्‌ २०१०
माड़साब : एक अध्यापक
भेनजी : एक अध्यापिका
गोलू, ढोलू, टुन्नी, टिकुली, झोंपू आदि:स्कूली बच्चे

पर्दा उठता है
एक पुरूष और एक स्त्री कुछ बच्चों को लेकर आते हुए नजर आते है, पार्श्व में गीत बज रहा है ''आओ बच्चों तुम्हें दिखाऐं झाँकी हिन्दुस्तान की''।
गोलू:माड़साब आज आप हम लोगों को लेकर कहाँ जा रहे हैं? आज स्कूल में क्यों नहीं पढ़ा रहे ?
माड़साब :बेटा आज हम आपको अपने कस्बे की सैर कराऐंगे इससे आप लोगों का ज्ञान बढ़ेगा (मन ही मन कहते है - वैसे भी स्कूल में पढ़कर कौन कलेक्टर बन जाओगे) सब बच्चे भेनजी का हाथ पकड़कर चलो।
झोंपू:माड़साब ये इधर एक झाड़ी के अंदर सूखे-सूखे पेड़ क्यों खड़े है?
माड़साब :बेटा ये पार्क होता था, पुराने जमाने में बच्चे इसमें खेलने आते थे, जब हम तुम्हारी उम्र के थे तब हम झंई पे खेलने आते थे।
गोलू:(उत्साह में) माड़साब हम भी जाऐं खेलने ?
माड़साब :नहीं कोई नहीं जाएगा यह पार्क अब पुरातत्व वालों के पास है और खोज की जा रही है, के इसका मोहनजोदड़ों और हड़प्पा से क्या संबंध है?
टिकुली :भेनजी ये चलते चलते रास्ते में कुछ काले-काले निशान जमीन पर नजर आते हैं, ये काहे के हैं ?
भेनजी :बेटा ये सड़क के निशान है ?
सब बच्चे (समवेत स्वर में) : सड़क . . . ? वो क्या होती थी ?
भेनजी :पुराने जमाने में जमीन को चलने लायक बनाने के लिए उस पर पत्थर डामर वगैरह बिछाकर सड़क बनाते थे।
टुन्नी :भेनजी क्या उस पर कीचड़ नहीं होती थी ? और धूल भी नहीं उड़ती थी ?
माड़साब :नहीं बेटा उस पर ना तो कीचड़ होती थी और ना ही धूल उड़ती थी, इधर से उधर तक वो बिल्कुल एक समान होती थी।
ढोलू:तो फिर माड़साब इतनी अच्छी चीज आजकल क्यों नहीं बनाई जाती देखिए सारे शहर में धूल ही धूल उड़ती रहती है, मैं स्कूल से घर जाता हूँ, तो माँ पहले मेरा मुंह झटकार कर देखती हैं, कि मैं ही हूँ या और कोई है ?।
भेनजी :बेटा सड़क तो अब भी बनाई जाती है, पर अब की सड़कें जादू की सड़कें होती हैं।
सब बच्चे (समवेत स्वर में) : जादू की सड़कें . . . . ? भेनजी और बताओ न . . .।
भेनजी :देखो बच्चों ये सड़के जो आजकल बनाई जाती हैं इन्हें बनाने में पहले जितना खर्च नहीं होता, ना ही उतना समय लगता है, ये कागज पर बनाई जाती हैं, इसीलिये इन्हें जादू की सड़कें कहा जाता है।
टुन्नी :पर भेनजी ये कागज की सड़कें दिखाई तो देती ही नहीं हैं ?
माड़साब :बेटा जादू की चीज भी कभी दिखाई देती है, ये तो केवल दो लोगों को दिखाई देती है, बनाने वाले को और बनवाने वाले को।
टिंकुली :माड़साब ये रास्ते के किनारे-किनारे कहीं कहीं कुछ गीली-गीली सी जमीन काहे की है ?
माड़साब :बेटा ये भी पुराने जमाने में सड़क के किनारे-किनारे बनाई जाती थी, इसे नाली कहते थे इसमें गंदा पानी बहा करता था।
टिंकुली :सारा गंदा पानी बह जाता था ?
माड़साब :हाँ . . . . . सारा . . .!
टिंकुली :फिर माड़साब उस जमाने में सूअर कहाँ तैरा करते थे? क्या उनके लिए अलग से स्वीमिंग पुल बनाते थे।
माड़साब :(कोई जवाब नहीं सूझता है) चलो-चलो बच्चो आगे चलो देर हो रही है?
झोंपू :(उत्साह से) भेनजी-भेनजी देखो ये क्या है? कांच की गोल गेंद? (सब बच्चे रूक जाते हैं)।
भेनजी :नहीं-नहीं झोंपू ये गेंद नहीं है, यह तो बल्ब है पुराने जमाने में यह बिजली से जलता था।
सब बच्चे:(समवेत स्वर में आश्चर्य से) बिजली . . . ? भेनजी-भेनजी वो क्या होती थी हमें उसकी कहानी सुनाओ ना ।
माड़साब :देखो बच्चों जैसे आजकल हम मोमबत्ती, लालटेन वगैरह जलाते हैं ना, वैसे ही पहले बिजली से उजाला होता था, एक खटका दबाते ही चारों तरफ उजाला हो जाता था।
गोलू :सच माड़साहब ! एक खटका दबाते ही उजाला हो जाता था, कितना मजा आता होगा, फिर तो ना मोमबती जलाने की चिंता, ना लालटेन का तेल खतम होने का डर।
भेनजी :हाँ बच्चों बिजली बहुत अच्छी चीज थी, हमारे स्कूल के पीछे जो काँच के कुछ डंडे पड़े हैं ना उन्हें ट्यूब लाइट कहते थे, वो भी बिजली से जलते थे।
टुन्नी :भेनजी फिर ये बिजली चली कहां गई ?
माड़साहब :बच्चों ये तो कोई भी नहीं जान पाया के वो बिजली कहाँ चली गई, पर लोग कहते हैं कि अपने आप को मुफ्त में वितरित होता देख वह नाराज हो गई, और धरती में समा गई, पर ये सब कहानियाँ हैं इनका कोई प्रमाण नहीं है।
टिंकुली :हाँ माड़साहब तभी मेरी दादी कहती हैं कि हमारे जमाने में तो रात को भी उजाला रहता था, जरूर यह सब बिजली से ही होता होगा, माड़साब अगर ये बिजली इत्ते काम की चीज थी, तो लोगों ने इसे ढूँढ़ा क्यों नहीं।
माड़साब :ढूँढ़ा था बेटा बहुत ढूँढ़ा मगर वो नहीं मिली ।
झोंपू :माड़साब वो दिन कितने अच्छे थे, जब लोग खटके से बिजली जलाते थे,सड़क पर चलते थे, नाली में गंदा पानी बहाते थे, और नल से पानी लेते थे माड़साब क्या ऐसा फिर नहीं होगा ?।
माड़साब :(ऊपर की और मुंह करके बुदबुदाते हैं) होगा बच्चों शायद ऐसा फिर होगा।
ऊपर की और देखकर चलते माड़साब एक गड्ड़े ये गिर जाते है उनके कूल्हे की हड्डी टूट जाती है, वे हाय-हाय करने लगते हैं।
भेनजी :(कुछ परेशान होते हुए) क्या माड़साब बच्चो के बीच बच्चे बनकर, अपने बचपन का सड़क वाला शहर समझ रहे हैं, ये गड्ढ़े वाला शहर है। ऊपर मुँह करके चलोगे तो ऐसा ही होगा। चलो बच्चो माड़साब को उठाओ।
बच्चे माड़साब को झटकार कर उठाते हैं और उठाकर चल देते हैं, समवेत स्वरों में गाना गाते हैं जो क्रमशः मद्धम होता जाता है। ''हम लाए हैं गड्ढे से माड़साब को निकाल के,इन गड्ढ़ो में रखना जरा कदम संभाल के . . . .।''
परदा गिरता है।

2 टिप्‍पणियां:

  1. वाह मास्साब! हँसी हँसी में कितना गंभीर सत्य लिख दिया, हम सब को विचार करना होगा इस बिंदु पर

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  2. कम से कम मध्य प्रदेश में तो सड़कों और बिजली, पानी की बदतर होती हालत देखकर तो यह २०१० का आंकलन यथार्थ सा लगता है.

    -बहुत करारा व्यंग्य साधा है. बधाई मास्साब!!

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