बुधवार, 12 दिसंबर 2007

तिरे हाथों से कुछ मिरे हक़ में ज़रा न भला ही हुआ न बुरा ही हुआ, कहा तुझसे रक़ीबों ने गरचे बुरा, न भला ही हुआ न बुरा ही हुआ

आज फिर उलझाने वाली ही ग़ज़ल दी है मैंने मुखड़े में ये भी एक विचित्र सी ही बहर है जिसमें कि एक ही मिसरे में आठ रुक्‍न होते हैं जैसे कि पहले की एक गज़ल में भी थे जो कि मैंने कुछ दिनों पहले ही लगाई थी । सो आज मैं एक हिंट तो दे ही रहा हूं कि आज के मुखड़े में लगी हुई ग़ज़ल में एक मिसरे में आठ रुक्‍न हैं और कुल मिलाकर पूरे शे'र में सोलह रुक्‍न हैं ।

आज हम बात करने वाले हैं अनूप जी की ग़ज़ल पर मिले हुए होमवर्क की । काफी मिला है और मुझे खुशी है कि सब को ही जोश आ गया हे आशा है कि ये जोश बना ही रहेगा और आगे भी विद्यार्थी ऐसे ही काम करते रहेंगें । कुछ नए विद्यार्थी भी आ रहे हैं जैसे रिपुदमन पचौरी ने कहा है कि उन्‍हें अभिनव ने क्‍लास के बारे में बताया है और वे क्‍लास में आना चाहते हैं और जानना चाह रहे हैं कि क्‍या कक्षा में सीट खाली हैं । पचौरी जी ये कोई डोनेशन वाली संस्‍था नहीं हैं जहां पर सीट की समस्‍या हो यहां पर तो दिल का मामला है जिसके बारे में कहा जाता है कि फैले तो ज़माना है । स्‍वागात है आपका । अच्‍छा ये अभिनव भी खूब है खुद तो ग़ायब हो जाता है और दूसरों को पता दे जाता है कि मैं गोल हो रहा हूं माड़साब जब हाजिरी लें तो मेरी जगह पर उपस्थित श्रीमान जी  कह देना ।

चलिये आज का होमवर्क देख लिया जाए

नीरज गोस्वामी मुझे लगता है मेरी ये कोशिश बिल्कुल सही नहीं है लेकिन मैं डांट खाने को तैयार हूँ.
उंगलियाँ जब भी उठाओ ।
आप का व्यावहार देखो।
हाँ, मुझे पूरा यकीं है।
ख्वाब को साकार देखो

Ajay Kanodia अनूप जी की यह ग़ज़ल बहुत ही अच्छी है
इस ग़ज़ल के जो दो शेर आपने ने अलग ढंग से कहने का होमवर्क दिया है, उसका जवाब देने की कोशिश की है :
उंगलियाँ जब भी उठाओ ।
ख़ुद का तुम व्यवहार देखो।
२ १ २ २ २ १ २२
ख़ुद २ का (क) १ तुम २  व्यव २ हा २  र १ दे २ खो २
लेकिन 'ख़ुद' उर्दू का शब्द होने के कारण यहाँ पर सहीं नही लग रहा
ये सुद्ध हिन्दी में लिखी ग़ज़ल है , तो इसमे उर्दू का कोई प्रोग उचित नहीं होगा
उंगलियाँ जब भी उठाओ । 2122, २१२२
अपना तुम व्यवहार देखो।
अप २ ना (न) १ तुम २ व्यव २ हा २ र १ दे २ खो २
हाँ, मुझे पूरा यकीं है
स्वप्न को साकार देखो
२२ २ २ २ १ २ २
हाँ, मुझे पूरा यकीं है
ख्वाब को साकार देखो
२ १ २ २ २1 २ २
पर मुश्किल वही है , 'ख्वाब' फिर उर्दू का शब्द हो गया
हाँ, मुझे पूरा यकीं है
कल्पना साकार देखो
कल् २ प १ ना २  सा २ का २ र १ दे २ खो २
लेकिन यहाँ स्वप्न की जगह कल्पना लिखने से अनूप जी जो कहना चाह रहे है , क्या उसका अर्थ नहीं बदल जाएगा?
अजय

Devi Nangrani मेरा प्रयास
उंगलियाँ जब भी उठाओ ।
अपना खुद व्यवहार देखो।
हाँ, मुझे पूरा यकीं है
सपने वो साकार देखो या
सपने बस साकार देखो.
बस क्षितिज के पार देखो.

झूठ सच को छल रहा जो
नफरतों सा प्यार देखो.
लैला मजनू को थी हासिल
इश्क की वो मार देखो.
मतला हो सकता है क्या?
इश्क की वो मार देखो
मजनू का बस प्यार देखो.
देवी

अनूप भार्गव सुबीर जी:
काफ़ी सोचा लेकिन आसान नहीं है सिर्फ़ एक शब्द बदल देना , पूरे शेर के बारे मे ही कुछ नये सिरे से सोचा जाये तो शायद बात बने :
स्वप्न को साकार देखो
की जगह
ख्वाब को साकार देखो
से शायद मात्राएं तो ठीक हो जायें लेकिन पूरे मिसरे में वो बात नहीं आ रही है ...
--
और अब चलते चलते ’मुन्ना भाई की इश्टाइल में’
स्वयं का व्यवहार देखो
की जगह
अपुन का व्यवहार देखो
मात्रा के हिसाब से तो ठीक बैठता है लेकिन ...
चलिये कोशिश ज़ारी रखते हैं ...
जब यह गज़ल मैने ईकविता में भेजी थी तब मेरे अग्रज घनश्याम गुप्ता जी नें इस में कई खूबसूरत शेरों का इज़ाफ़ा किया था , मुझे याद नहीं आ रहे हैं । एक शेर सूझा है , पता नहीं उन के शेरों में से याद आ रहा है या मेरा ही नया शेर है , कल उन से पूछ कर बताऊँगा कि किस का है लेकिन जिस का भी है , लग ठीक रहा है :
फ़िर नई कोंपल खिली है
पृकृति का उपहार देखो ।
सादर
अनूप

Ajay Kanodia सर जी
अनूप जी की ग़ज़ल के लिए कुछ शेर बनने लगे थे, लेकिन उनकी दिशा कुछ अनूप जी की ग़ज़ल के विपरीत जा रही थी, इस लिए मैंने ज्यादा प्रयास नहीं किया
जैसे
फैला भ्रस्टाचार देखो
(आशावादी ग़ज़ल में ये मुखड़ा अच नहीं लगेगा )
मन की कलियाँ तुम खिलाओ
दोस्तों का प्यार देखो
या
मित्र जन का प्यार देखो
-अजय

कंचन सिंह चौहान
गुरू जी बहुत मगजमारी की, बहुत सिर पटका लेकिन कौई ऐसा सटीक शब्द नही मिला जिसका प्रयोग करने के बाद सही वज़न में बात पूरी हो जाये, अब मेरे पास बस एक ही चारा है कि मैं मिसरा सानी पूरा पूरा बदल दूँ.... और उसके बाद जो लाइनें बनी वो हैँ
उँगलियाँ जब भी उठाओ, आइना एक बार देखो।
हाँ मुझे पूरा यकीं है, जीत लेंगे हार देखो

माड़साब :- हूं काफी होमवर्क आया है और अच्‍छे प्रयास किये गए हैं और काफी मेहनत की गई हैं । पर अभी भी वो शे'र निकल के नहीं आ पाए हैं जो कि सही स्‍थानापन्‍न हो सकें । खवाब को साकार देखो  कहना तो वैसे भी वज्‍़न के हिसाब से सही ही है पर एक बात जो अजय ने पकड़ी है वो ये है कि ग़ज़ल पूरी की पूरी हिंदी में है सो ख्‍वाब कहने से कहीं कुछ अटक जाएगा और प्रवाह में फर्क पड़ेगा । हालंकि एक बात जो सबसे अच्‍छी लगी है वो है कंचन की इन पंक्तियों में  उंगलियां जब भी उठाओ आइना इक बार देखो अब इसमें जो अच्‍छा है जो अनूप जी की ग़ज़ल में नहीं था वो ये है कि इसमें कविता हो गई है । जान लें कि कविता वो नहीं होती जो कि सीधे ही बात को कह देती है जैसे कि अनूप जी ने कहा  स्‍वयम् का व्‍यवहार देखो  । कविता तो वो होती है जो प्रतीकों और बिम्‍बों में बात कहती है । स्‍वयम् का व्‍यवहार देखो  कहना कविता नहीं है ये तो बातचीत हो सकती है । कविता तो वो होती है जो कहीं और की कहती है पर लगती यहीं पर आकर के है । अनूप जी क्षमा करें मैं ये बात इसलिये कह रहा हूं कि मुझे स्‍वयम् का व्‍यवहार देखो में व्‍याकरण से ज्‍यादा बात की समस्‍या लग रही थी । अगर सीधे ही कह दिया स्‍वयम् का व्‍यवहार देखो  तो हममे  और आम लोगों में फर्क क्‍या रहा जाएगा । मेरे एक मित्र हैं जो पेशे से वेल्डिंग की दुकान चलाते हैं उनको व्‍याकरण का ज्‍यादा ज्ञान नहीं है पर फिर भी काफी अच्‍छा लिखते हैं । उनकी एक ग़ज़ल मुझे जो पसंद है उसका मुखड़ा है देश का हम क्‍या हाल सुनाएं, अंधे पीसे कुत्‍ते खाएं  हालंकि रियाज साहब के इस शे'र में कुछ व्‍याकरणीय समस्‍या है पर फिर भी इसमें बात है । कंचन ने दो बातें अच्‍छी की हैं एक तो आइना इक बार देखो  कह कर प्रतीक में दूसरे शेर को अच्‍छी दिशा दी है और दूसरा जो अपनी बात में  मगजमारी  शब्‍द का प्रयोग किया है उसने आनंद ला दिया है । बहुत दिनों के बाद सुनने को मिला ये शब्‍द , सभ्‍य हो जाना भी जीवन के कैसे आनंदों से दूर कर देता है।  हां पर एक बात तो है कि बात तो पूरी हो गई है पर  आइना  शब्‍द भी उर्दू का है और हमको इसका भी पर्यायवाची ढूंढना होगा या फिर कोई भी ऐसा वाक्‍य ढूंढें जिसमें प्रतीक के माध्‍यम से पहले अपनी ओर देखने की बात कही गई हो या कि मुहावरा जैसे रियाज साहब ने अपने शे'र में किया है । अनूप जी ने स्‍वयं जो कहा है फिर नई कोंपल खिली है प्रकृति को उपहार देखो उसमें भी प्रकृति बहर से बाहर है । अजय ने हाँ, मुझे पूरा यकीं है कल्पना साकार देखो  में बात को सही ढंग से कह दिया है पर बात वही है कि कल्‍पना और स्‍वप्‍न में फर्क होता है । मगर एक बात कहूं कि कल्‍पना साकार देखो में भी बात आ गई है और वज्‍़न भी ठीक है कल्‍ 2, प 1 , ना 2, सा 2, का 2, र 1 , दे 2, खो 2 अत: अभी तक के काम में ये मान सकते हैं कि एक मिसरा अजय का और एक कंचन का लगभग सही है । ध्‍यान दें क‍ि मैंने लगभग कहा है । आज चूंकि कुछ काम नहीं है अत: आज और मेहनत कर लें कोई मुहावरा कोई बिम्‍ब कोई प्रतीक मिल रहा हो तो ले लें । देवी नागरानी जी ने एक बहुत अच्‍छा मिसरा सानी दिया है  तुम क्षितिज के पार देखो  और ये एक सुंदर शे'र हो सकता है इसके लिये एक अच्‍छा सा मिसरा उला बनाएं । और एक बात ध्‍यान दें कि अंतत: सारे शे'र हम अनूप जी को भेंट कर देंगें वे इनका जो चाहे कर सकते हैं । ये ग़ज़ल की दुनिया की पुरानी परंपरा है कि काफी लोग काम करते हैं । अभी अभी अभिनव ने एंट्री मारी है मेरा आउटलुक बता रहा है कि वहां पर एक मैसेज है अभिनव का मगर होमवर्क नया दे दिया है अनूप जी की ग़ज़ल पर नहीं है इसलिये उसको कल की क्‍लास में लिया जाएगा । चलिये एक बार और सब मेहनत कर लें दो शे'र तो कल के ही हैं औरएक मिसरा देवी नागरानी जी का है जिसपर मिसरा उला बांधना है । 

6 टिप्‍पणियां:

  1. अभी और मेहनत...? बच्चे की जान लेंगे क्या मास्साब?

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  2. है अँधेरा कुछ क्षणों का
    तुम क्षितिज के पार देखो


    तिरे हाथों से कुछ मिरे हक़ में ज़रा न भला ही हुआ न बुरा ही हुआ,
    १२ २२ १ २ २२ २ २ १२ १ १२ २ १२ १ १२ २ १२

    कहा तुझसे रक़ीबों ने गरचे बुरा, न भला ही हुआ न बुरा ही हुआ

    १२ २२ १२२ २ २२ १२ १ १२ २ १२ १ १२ २ १२

    १२२२ १२२२ २२१२ ११२२ १२११ २२१२



    सर जी एक शेर अब सहीदों के नाम भी १३ दिसम्बर के आगमन पर


    दे के अपनी जान तुम महफूज़ हमको कर गए
    पर वतन के रहनुमा अपनी जुबा से फिर गए
    आसमां पर जो तिरंगा शान से तुमने रखा
    रंग उसके बादलों से नीर बन कर गिर गए


    सादर
    अजय

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  3. यस सर,

    आज का होम वर्क,

    भाग - १ : अनूप जी की ग़ज़ल के दो शेर

    उँगलियाँ जब भी उठाओ,
    किस तरफ़ हैं चार देखो,

    मन में था विश्वास पूरा,
    लो सपन साकार देखो,

    भाग - २ : देवी नागरानी जी के मिसरा ऐ सानी का मिसरा ऐ ऊला
    इक नया सूरज उगेगा,
    तुम क्षितिज के पार देखो,

    भाग - ३ : आज के मुखड़े की बहर
    १२२ - २१२ - १२२ - २१२ - ११२ - ११२ - ११२ - ११२
    फऊलुन - फाएलुन - फऊलुन - फाएलुन - फएलुन - फएलुन - फएलुन - फएलुन

    तिरे हा - थों से कुछ - मिरे हक - में ज़रा - न भला - ही हुआ - न बुरा - ही हुआ,
    कहा तुझ - से रकी - बों नें गर - चे बुरा - न भला - ही हुआ - न बुरा - ही हुआ,

    भाग - ४ : आज के मुखड़े की बहर पर एक फुटकर शेर
    कुई मे - रा नहीं - कुई ते - रा नहीं - ये सही - भि नहीं - ये ग़लत - भि नहीं,
    सारी दुनि - या से कर - तो लिया - मशविरा - न भला - ही हुआ - न बुरा - ही हुआ,

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  4. गुरूजी
    आप की पुरानी पोस्ट देख रहा था लेकिन उनमें से कौनसी सीखने के लिहाज़ से पढी जायें ये बता दीजिये. बहुत उपकार होगा. यूँ तो खोजने में ही बहुत वक्त जाएगा. आप मुझे तारीख या पोस्ट का शीर्षक बता दीजिये.
    नीरज

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  5. सुबीर जी:
    मुझे भी कंचन जी का मिसरा अच्छा लगा । ’आइना इक बार देखो’ में कविता होने की बात से भी सहमत हूँ । कंचन जी , क्या ये शेर मैं आप से ले सकता हूँ ?

    अजय के मिसरे में ’कल्पना साकार देखो’ बहर में तो है लेकिन अर्थ वह नहीं आ रहा है जो मैं कहना चाहता था ।

    अभिनव ने सुझाया :

    मन में था विश्वास पूरा,
    लो सपन साकार देखो,

    इसे बदल कर इस तरह से कहें तो ?

    मन में हो विश्वास पूरा
    हर सपन साकार देखो ।

    मेरे दोस्त घनश्याम गुप्ता जी नें जब यह गज़ल पढी थी तो कई शेर जोड़े थे जिस में से एक मुझे याद आ गया :

    हाँ नहीं है ना नहीं है
    मौन अत्याचार देखो ।

    कल बैठे बैठे यूँ ही बहर और मात्राओं की प्रैक्टिस के लिये एक शेर लिखा :

    इक पुरानी सी गज़ल के
    अब नये अशआर देखो ।

    इक पु रा नी सी ग जल के
    २ १ २ २ २ १ २ २
    अब न ये अश आ र दे खो
    २ १ २ २ २ १ २ २

    ठीक है ना मास्टर जी ?

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  6. सुबीर जी,
    यह बतलाएं कि ...
    खवाब को साकार देखो = यह वज़न के हिसाब से सही क्यों है? ( क्या इस में, ’खव’ के लिए,जल्दी पढ़ने वाला फ़ामूला लगाया गया है ?)
    आइना = के स्थान पर आरसी शब्द का प्रयोग किया जा सकता है ?

    पोस्ट अभी पढ़ी है, सो .. कुछ समय दें आज की गज़ल का बहर जल्दी ही लिख कर जमा कर दूंगा।

    मंगल कामनाएं
    रिपुदमन पचौरी

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