दीपावली धीरे धीरे नज़दीक आती जा रही है । और उसके साथ ही बाज़ार में रंग भरते जा रहे हैं । बाज़ार जो ललचाता है इन्सान को कि ख़रीद ले मुझे । ले जा मुझे अपने घर । बाज़ार जो सुरसा की तरह है और आम आदमी हनुमान की तरह । इन्सान अपनी सामर्थ्य बढ़ाता है तो बाज़ार अपना मुंह और फाड़ देता है । फिर ये आम आदमी अपनी सामर्थ्य को कुछ और बढ़ाता है तो बाज़ार कुछ और मुंह फाड़ देता है । समझदार आदमी वो है जो तुरंत मच्छर के समान अपना आकार कर लेता है और बाज़ार के मुंह में घुस कर उसके कान से बाहर निकल जाता है । बाज़ार से पूरी तरह प्रभावित हुए बग़ैर निकल जाते हैं । और बाज़ार देखता रह जाता है । शायद इसी परिस्थिति के लिये अकबर इलाहाबादी ने कहा था
दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
बाज़ार से गुज़रा हूँ, ख़रीददार नहीं हूँ
( उड़ीसा की टसर सिल्क पर पट्टा पेंटिंग से बने गणेश, लक्ष्मी और सरस्वती )
आइये आज हम तरही मुशायरे को आगे बढ़ाते हैं । कल के अंक ने कुछ और गति हमारे मुशायरे को दे दी है । और यक़ीन मानिये आज भी यही होने जा रहा है । क्योंकि आज एक बार फिर आप सबके चिर परिचित तीन शायर आ रहे हैं । तीनों ही चूंकि हमारे मुशायरे के पुराने साथी हैं सो परिचय की कोई आवश्यकता नहीं है सीधे ग़ज़लें सुनी जाएं । श्री धर्मेंद्र कुमार सिंह सज्जन, श्री मुकेश कुमार तिवारी और प्रकाश अर्श से ।
श्री धर्मेंद्र कुमार सिंह सज्जन
फूल हैं आग के खिले हर सू
रौशनी की महक बहे हर सू
यूं बिछे आज आइने हर सू
आसमाँ सी जमीं दिखे हर सू
लौट कर मायके से वो आईं
दीप ख़ुशियों के जल उठे हर सू
मिट न पाये वो तम अकेले से
जो तुम्हारे तले छुपे हर सू
वो दबे पाँव आज आया है
एक आहट सी दिल सुने हर सू
दूसरों के तले उजाला कर
ये अँधेरा भी अब मिटे हर सू
नाम दीपक का हो रहा ‘सज्जन’
तन मगर तेल का जले हर सू
बाकी बातें बाद में लेकिन फिलहाल तो मुझे गिरह के शेर ने स्पीचलेस कर दिया है । और फिर वो दबे पांव आज आया है में जो अनुभूति है वो बहुत गहरी है । मतला और मकता दोनों ही प्रभावी तरीके से लिखे गये हैं मगर मकते में जो गूढ़ रहस्य गूंथ दिया है उसने मकते को बहुत जानदार बना दिया है । आइने वाला शेर भी कमाल है । मुकम्मल ग़ज़ल बधाई बधाई बधाई ।
प्रकाश अर्श
सब्ज़ दूबों पे चाँद से हर सू
क़तरे शबनम के हैं बिछे हर सू
तेरी यादों के सब हसीं मंज़र
मेरे कमरे में हैं पडे हर सू
जिस्म से आसमान तक बिखरा
लम्स तेरे लबों का ये हर सू
हमने गुल्लक में जो सहेजे थे
चल बिखेरें वो रतजगे हर सू
कितनी पाकीज़ा हो गईं आंखें
तू ही तू बस मुझे दिखे हर सू
धूप की धमकियों से क्यूँ डरना,
हैं शज़र छतरियाँ लिये हर सू
हो के शामिल अब उसकी खुश्बू में
मेरी दीवानगी फिरे हर सू
ग़म भी सज़दे मे जब हुआ शामिल
दीप खुशियों के जल उठे हर सू
तेरी यादों के सब हंसी मंज़र मेरे कमरे में हैं पड़े हर सू, हम्म तसव्वुर को बहुत अच्छी उड़ान दी गई है इस शेर में । और हमने गुल्लक में जो सहेजे थे में तो मिसरा सानी कमाल का कहा है चल बिखेरें वो रतजगे उफ । होके शामिल अब उसकी खुश्बू में , शायद बच्चे को भी पता नहीं है कि वस्ल का कैसा शेर कह दिया है उसने । मुकम्मल रोमांटिक ग़ज़ल ।
मुकेश कुमार तिवारी
दीप खुशियों के जल उठे हर सू
हैं चरागों के सिलसिले हर सू
यूँ मिजाज-ए-खिजां बदल ही गया
अब बहारों को क्यूं तके हर सू
घोंसले फिर बसेंगे शाखों पर
अब नयी तान ये सजे हर सू
गीत होठों पे कुछ नये आएं
कुछ नई बात अब चले हर सू
बद्दुआ चांदनी को किसने दी
बनके शबनम जो यूं ढले हर सू
जैसे चाहोगे दुनिया बदलेगी
बात ये गूंज अब उठे हर सू
कश्तियों को किनारे मिल जायें
दिल में इक मौज ये उठे हर सू
वाह वाह वाह बहुत सुंदर ग़ज़ल कही है । चांदनी को बद्दुआ लगने और उसके शबनम बन कर बिखरने में कमाल की सोच का उपयोग किया है । घोंसलों के फिर से शाखों पर सजने और कश्तियों को किनारे मिलने में सकारात्मक सोच का बहुत प्रभावी उपयोग किया गया है । और मतले में ही गिरह को अच्छे तरीके से बांधा गया है । बधाई बधाई बधाई ।
तो आज तो आनंद ही आ गया है । तीनों शायरों ने कामल किया है । बहुत आनंद दीपाली के इन दीपकों ने कर दिया है । दाद दीजिये और देते रहिये । ये नये दौर की आवाज़ें हैं जिनको कल गूंजना है हिंदी के फ़लक पर । आइये स्वागत करें इनका तालियों से ।
धर्मेन्द्र जी,
जवाब देंहटाएंक्या बात है.. "रौशनी की महक बहे हर सू" एकदम अलग ख्याल. "यूं बिछे आज आईने हर सू" बहुत ही बढ़िया शेर है. गिरह तो बहुत ही बढ़िया बाँधी है :)
"वो दबे पाँव आज आया है/एक आहट सी दिल सुने हर सू." क्या खूब शेर है. इस खूबसूरत गज़ल के लिए दिली मुबारकबाद.
अर्श भाई: वाह! मैं तो मतले में ही अटक गया. बहुत उम्दा. "तेरी यादों के सब हसीं मंज़र..", "हमने गुल्लक में जो सहेजे थे.." वाह वाह वाह वाह. क्या बात है. गुलज़ार साहब जैसा अंदाज़!
"कितनी पाकीज़ा हो गईं आँखें/तू ही तू बस मुझे दिखे हर सू." बहुत बढ़िया शेर है. मज़े की बात है बिलकुल यही मिसरा "तू हि तू बस मुझे दिखे हर सू" मुझे भी सूझा था लेकिन इस पर अच्छी गिरह नहीं बाँध पाया इसलिए शेर नहीं कह पाया, लेकिन आपने तो कमाल कर दिया इस मिसरे के साथ.
"हो के शामिल अब उसकी खुशबू में.." एक बार फिर बहुत खूबसूरत शेर. हार्दिक मुबारकबाद.
मुकेश जी,
बहुत उम्दा अच्छी कही है आपने. बहुत बढ़िया शेर हैं."गीत होंठों पे कुछ नए आयें/कुछ नई बात अब चले हर सू." बहुत ही प्यारा शेर है. और "बद्दुआ चांदनी को दी किसने.." लाजवाब शेर. "किश्तियों को किनारे मिल जाएँ" बहुत प्यारा मिसरा है.
बहुत बहुत बधाई.
ऐसा तरही मुशायरा न कभी सुना न कभी देखा और न कभी पढ़ा...आप मानें या न मानें, देश के नाम-चीन शायर इन युवा शायरों की ग़ज़लों को पढ़ कर बगलें झाँकने पर मजबूर हो जाएँगे ...
जवाब देंहटाएंलौट कर मायके से वो आयीं
दीप खुशियों के जल उठे हर सू
क्या शेर कहा है धर्मेन्द्र जी आपने वाह...उफ्फ्फ, कमबख्त ने सालों पीछे पहुंचा दिया...
***
वो दबे पाँव आज आया है
एक आहट सी दिल सुने हर सू
सुभान अल्लाह...
नाम दीपक का हो रहा 'सज्जन'
तन मगर तेल का जले हर सू
लाजवाब कर दिया...
***
तेरी यादों के सब हंसी मंज़र
मेरे कमरे में हैं पड़े हर सू
क्या कहूँ बोलती बंद हो गयी अपनी तो...बेजोड़.
हमने गुल्लक में जो सहेजे थे
चल बिखेरें वो रतजगे हर सू
ये ऐसा शेर है जिसे कहने में उम्र बीत जाती है...फिर भी नहीं हो पाता ...सीधा ऊपर से उतरा शेर है ये.
धूप की धमकियों से क्यूँ डरना
हैं शजर छतरियां लिए हर सू
खूबसूरत मंज़र कशी...तालियाँ तालियाँ तालियाँ...
हो के शामिल अब उसकी खुशबू में
मेरी दीवानगी फिरे हर सू
उफ़...जियो अर्श क्या प्यारा शेर कह डाला तुमने....वाह...वाह...वाह...वाह...वाह...
***
बद्दुआ चांदनी को किस ने दी
बन के शबनम जो यूँ ढले हर सू
क्या बात है...एक दम नया अंदाज़...जो बेहद दिलकश है.
मुकेश जी दाद कबूल करें
गुरूदेव इस बेहद कामयाबी से चल रहे मुशायरे के लिए आपको ढेरों बधाइयाँ.
नीरज
सुबीर भैया, बाज़ार पे आपकी बातें पढ़ी. मुझे "मसक समान रूप कपि धरहीं..." याद आ गया :)
जवाब देंहटाएंअपनी किताब " द रिपब्लिक" में प्लेटो ने बाज़ार और धन को मात्र एक सहूलियत माना है, जो नागरिकों को अपने उत्पाद बाँटने की सुविधा देते हैं. आगे वे कहते हैं कि अधिक बाज़ार जाने से नागरिक अपने मुख्य कार्यों को अंजाम नहीं दे पाते... " ... और आज बहुत से लोगों का मुख्य कार्य ही यही हो गया है!! Shopaholics की बाढ़ सी आ गई है.
----
आप इस बार अलग-अलग प्रांत की पेंटिंग जो लगा रहे हैं, वह अतिउत्तम!
-----
धर्मेन्द्र जी को ईकविता में पढ़ती रहती हूँ, नए मिजाज़ के बेहतरीन लेखक हैं. "वो दबे पाँव..." बहुत सुन्दर और "नाम दीपक का .. " कमाल! सच में मुकम्मल ग़ज़ल है!
अर्श जी का "हमने गुल्लक में जो..." इतना सुन्दर है कि निशब्द हूँ! "कितनी पाकीज़ा..." वाला शेर भी कमाल- प्रेम को ले के भी, अध्यात्म को ले के भी! "धूप की धमकियों ..." वाला भी बहुत प्यारा! "ग़म भी सज़दे..." वाले शेर के लिए तो उन्हें सलाम करते हुए फ़क्र हो रहा है! सच अर्श जी, बहुत ही खुशी मिली है आपकी ग़ज़ल पढ़ के. जीते रहिये बच्चे!
मुकेश जी का "कश्तियों को किनारे... " वाला शेर सुन्दर लगा! "बद्दुआ चांदनी .." वाले शेर का एकदम नया सा ख्याल अच्छा लगा!
सादर
गज़लों के साथ अलग अलग तरह की पेंटिंग्स दिवाली का नशा बढ़ा रही हैं ... ये सच है बाजार वाद का असर दीपावली पर तेज़ी से हो रहा है ...
जवाब देंहटाएंधर्मेन्द्र जी अब क्या कहूँ आपके मायके वाले शेर के बारे में ... बस यूँ समझ लो सुबह से कितनी बार पत्नी को बोल चुका हूँ ये शेर अपना बता कर .. और यूँ बिछे आज आईने हर सू ... इसको पढ़ के तो हैरान हूँ की आपकी कल्पना कहाँ तक गई होगी ...
और अपने अर्श भाई का तो सच में जवाब नहीं ... हर शेर उस्तादाना अंदाज़ में कई शेरों से तो जैसे सच में रोमांस टपक रहा है ... तेरी याद के हंसी मंज़र ... कितनी पाकीज़ा हो गई आँखें ... हो के शामिल अब उसकी खुशबू में ... उफ्फ ... कहाँ से निकाले हैं ये शेर प्रकाश जी ... इतने सालों की मुहब्बत में ये कुल नहीं खिला सके हम आज तक ...
मुकेश जी आज तो आप छा गए हैं ... सीधी सादी भाषा में लाजवाब शेर ... गीत होठों पे कुछ नए आएं .... आमीन ... बद्दुआ चांदनी को किसने दी ... आपकी जुदा सोच को दर्शाता है ... और अंतिम शेर तो बहुत ही अच्छी दिशा देता है सोच को ...
गुरुदेव ... मुशायरा ने नयी ऊँचाइयों को छुवा है हर बार की तरह ... आगे आगे कौन से नए मुकाम पाक पहुंचेगा इसकी प्रतीक्षा है ... अभी तो कई दिग्गज बाकी हैं ...
सुबह-सुबह मुशायरे के नए अंक का इंतज़ार रोज के अखबार की तरह होने लगा है.और आज की तो बात ही कुछ और है .तीनों कलाम बेहद पुरअसर.
जवाब देंहटाएंधर्मेन्द्र जी का मतला जिसने पढ़ा वो शायद ही इसे भूल सकेगा.क्या गजब की imagery है.मकते की रेंज भी देखिये.ढेरों दाद कबूल हो.
भाई प्रकाश का कलाम गहरे डूब कर लिखा गया है और इसीलिए सीधे दिल तक पहुँच रहा है.उनका यह शेर :"हमने गुल्लक में जो सहेजे थे...." तो वाकई सहेज कर रखने वाला शेर है."हो के शामिल अब उसकी खुशबू में......."भी यादगार शेर है.
भाई मुकेश जी ने जिस सहजता से मतला बांधा है उसे पूरी ग़ज़ल में निभाया है. बधाई बधाई..
तीनो शायरो ने कमाल किया है…………धमाल मचा दिया है……………और अर्श जी की गज़ल तो जैसे रूह को छू गयी क्या कमाल के शेर हैं हर शेर कितनी सादगी से ज़िन्दगी से मिलवा गया…………बेहतरीन शानदार्।
जवाब देंहटाएं__ मुझे तो बचपन में देखे गए दूरदर्शन द्वारा प्रसारित सुरभि की याद आ रही है. मुझ जैसे सांस्कृतिक जिज्ञासुओं के लिए यह उपहार सरीखा है.
जवाब देंहटाएंअब वेब की दुनिया में इसका आनंद और बढ़ गया है. इस पुनीत कार्य के लिए आदरणीय श्री सुबीर जी की जितनी भी प्रशंसा की जाये कम होगी.
-- धर्मेन्द्र जी के अशआर में एक आम नागरिक की मनोदशा का प्यारा चित्रण होता है.
जवाब देंहटाएंलौटकर मायके से.... दूसरों के तले उजाला कर..... तन मगर तेल का जले.... बस दाद दे रहा हूँ... क़ुबूल कीजिये.
-- जमीन पर रहते हुए अर्श को छूने की कोशिश का क्या मतलब होता है ये अर्श भाई ने फिर से साबित किया है.
जवाब देंहटाएं"तेरी यादों के सब हसीं मंज़र...." "कितनी पाकीजा हो गयी आँखें...." "गम भी सजदे में जब हुआ शामिल..." क्या कहने...
-- श्री मुकेश तिवारी जी के ग़ज़ल में "कुछ नयी बात चले...." सीधे दिल को छू रहे हैं. "कश्तियों को किनारे मिल जाए..." आमीन !
जवाब देंहटाएंआप तीनो को बहुत बहुत बधाई!!!
श्री सज्जन जी, बधाई हो.
जवाब देंहटाएंबहुत खूब गिरह बाँधी है. वाकई कुछ कहने के लिए शब्द नहीं मिल रहे, बस बारहां पढ़े जाओ, यही लग रहा है और यही कर रहा हूँ.
वो दबे पाँव......अच्छा शेर बना है
मक्ता भी बहुत क्लास्सिक लिखा है.
बधाई स्वीकारें
श्री मुकेश जी, अच्छी गिरह बाँधी है.
गीत होंठों पे.............अच्छा शेर कहा है
बद्दुआ चांदनी को................ वाह वा
कश्तियों को किनारे मिल...........वाह वा
अच्छी ग़ज़ल बनी है.
वाह वा, गुरुदेव
जवाब देंहटाएंबाजारवाद से निबटने का उपाय बहुत अच्छे से बता दिया, शुरूआती पंक्तियों ने आपकी कहानी "सदी का महानायक", की याद दिला दी, जो इसी बाजारवाद का एक चेहरा दिखाती है. उस पे अकबर इलाहाबादी का शेर..........उफ्फ्फ
उड़ीसा की टसर सिल्क पर पट्टा पेंटिंग से बने गणेश, लक्ष्मी और सरस्वती की तस्वीरें कमाल हैं. भारतीय कला के विभिन्न रूप हर तरही में निखर रहे हैं.
अर्श भाई, पार्टी दे दो, बहुत खूब ग़ज़ल कही है.
जवाब देंहटाएंहर शेर बहुत कारीगरी से बुना है, हम्म......लम्बी रेस के घोड़े हो.
क्या खूब मतला कहा है, थोडा जटिल लगा जब समझा तो आनंद आ गया.
तेरी यादों के सब हसीं मंज़र...........अहा, वाह वा
हमने गुल्लक में जो सहेजे थे.......... अच्छा शेर है
कितनी पाकीज़ा हो गईं आंखें...........वाह वा
धूप की धमकियों से क्यूँ डरना...................... जिंदाबाद जिंदाबाद, खतरू शेर
गिरह भी खूब बाँधी है.
हासिल-ए-ग़ज़ल शेर
हो के शामिल अब उसकी खुश्बू में
मेरी दीवानगी फिरे हर सू
आज का दिन हसीं हो गया, आपकी ग़ज़ल अर्श छु रही है.
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंगुरूवर,
जवाब देंहटाएंसज्जन जी कभी न्यूक्लीयर साईंस तो कभी कैमेस्ट्री की बातें करते है आज सुन्दर सी गज़ल .....कमाल है :-
"मिट न पाये वो तम अकेले से
जो तुम्हारे तले छुपे हर सू "
संदेश देता हुए शे’र है।
प्रकाश "अर्श" वैसे ही अपने ऊम्दा अश’आरों के लिए जाने जाते हैं एक बेहतरीन गज़ल पढ़ने को मिली......अब गुनगुनायेंगे भी।
इस गज़ल के कई शे’र दिअल के बहुत करीब से लगे मसलन गुल्लक में सहेजे..., जिस्म से आसमान तक..., सब्ज दूबों पे चाँद...क्या कोमल भाव है नर्म दूब की छुअन सा....
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
रसिक श्रोताओं अगर आपको स्व. कुंदन लाल सहगल साहब की आवाज़ में "दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ...." जिसका जिक्र गुरुदेव ने इस पोस्ट के शुरू में किया है, सुनना है तो यहाँ क्लिक करें और आनंद लें:-
जवाब देंहटाएंhttp://ww.smashits.com/k-l-saigal-ghazals/duniya-men-hoon/song-68580.html
आज के ये शेर विशेष पसंद आये:
जवाब देंहटाएंश्री धर्मेंद्र कुमार सिंह सज्जन
फूल हैं आग के खिले हर सू
रौशनी की महक बहे हर सू
वो दबे पाँव आज आया है
एक आहट सी दिल सुने हर सू
दूसरों के तले उजाला कर
ये अँधेरा भी अब मिटे हर सू
नाम दीपक का हो रहा ‘सज्जन’
तन मगर तेल का जले हर सू
प्रकाश अर्श
सब्ज़ दूबों पे चाँद से हर सू
क़तरे शबनम के हैं बिछे हर सू
तेरी यादों के सब हसीं मंज़र
मेरे कमरे में हैं पडे हर सू
जिस्म से आसमान तक बिखरा
लम्स तेरे लबों का ये हर सू
हमने गुल्लक में जो सहेजे थे
चल बिखेरें वो रतजगे हर सू
कितनी पाकीज़ा हो गईं आंखें
तू ही तू बस मुझे दिखे हर सू
धूप की धमकियों से क्यूँ डरना,
हैं शज़र छतरियाँ लिये हर सू
हो के शामिल अब उसकी खुश्बू में
मेरी दीवानगी फिरे हर सू
ग़म भी सज़दे मे जब हुआ शामिल
दीप खुशियों के जल उठे हर सू
मुकेश कुमार तिवारी
दीप खुशियों के जल उठे हर सू
हैं चरागों के सिलसिले हर सू
घोंसले फिर बसेंगे शाखों पर
अब नयी तान ये सजे हर सू
गीत होठों पे कुछ नये आएं
कुछ नई बात अब चले हर सू
जैसे चाहोगे दुनिया बदलेगी
बात ये गूंज अब उठे हर सू
कश्तियों को किनारे मिल जायें
दिल में इक मौज ये उठे हर सू
यूं बिछे आज आइने हर सू
जवाब देंहटाएंआसमां से जमीं दिखे हर सू
---धमेंद्र सज्जन
कितनी पाकीज़ा हो गयी हैं आँखे
तू ही तू बस मुझे दिखे हर सू
---प्रकाश अर्श
कश्तियों को किनारे मिल जायें
दिल में इक मौज ये उठे हर सू
---मुकेश तिवारी
तीनों शायरों के ये उपरोक्त शेर मुझे वजनी और काबले गौर लगे !
धर्मेंद्र जी का ये शेर
जवाब देंहटाएंनाम का दीपक का हो रहा सज्जन
तन मगर तेल का जले हर सू
क्या बात है, वो शेर याद आ गया
एक धागे का साथ देने को,
मोम का रोम रोम जलता है।
और हमारे अनुज.....
तेरी यादों के सब हँसीं मंजर,
मेरे कमरे में हैं पड़े हर सू...... :) :) :) :)
फिर
कितनी पाक़ीज़ा हो गईं आँखें,
तू ही तू, बस मुझे दिखे हर सू
इस तरह के शेर मुझे यूँ भी पसंद ही हैं।
ग़म भी खुशीयों में जब हुआ शामिल,
दीप खुशियों के जल उठे हर सू।
तुम जियो और तुम्हारी लेखनी जिये..... खूब खूब आशीष
मुकेश तिवारी जी का शेर
बद्दुआ चाँदनी को किसने दी,
बन के शबनम जो यूँ ढले हर सू.....
बाजारवाद के लिए तो बार बार "सदी का महानायक..." कहानी याद आती है, एक बार फी से पढूंगा आज
जवाब देंहटाएंटसर सिल्क की महीन और कारीगरी तो लाजवाब है
दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
बाज़ार से गुज़रा हूँ, ख़रीददार नहीं हूँ
इस शेर में तो न जाने कितने शेर छुपे हुए है
लाजवाब शेर है
श्री धर्मेंद्र कुमार सिंह सज्जन
जवाब देंहटाएंलौट कर मायके से वो आईं
दीप ख़ुशियों के जल उठे हर सू
वाह वा,, क्या लाजवाब गिरह बांधी है दिल खुश हो गया
वो दबे पाँव आज आया है
एक आहट सी दिल सुने हर सू
बहुत खूब
नाम दीपक का हो रहा ‘सज्जन’
तन मगर तेल का जले हर सू
लाजवाब मक्ता
बहुत प्यारी ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई
मुकेश कुमार तिवारी जी,
जवाब देंहटाएंदीप खुशियों के जल उठे हर सू
हैं चरागों के सिलसिले हर सू
सुन्दर मतले से शुरुआत हुई है
घोंसले फिर बसेंगे शाखों पर
अब नयी तान ये सजे हर सू
अचानक हरिवंश राय बच्चन जी की किताब "नीद का निर्माण फिर फिर " की याद हो आई, बढ़िया शेर है
जैसे चाहोगे दुनिया बदलेगी
बात ये गूंज अब उठे हर सू
आशावादिता से लबालब भरपूर शेर कहा है मुकेश जी बहुत खूब
कश्तियों को किनारे मिल जायें
दिल में इक मौज ये उठे हर सू
वाह वाह वाह
प्रकाश अर्श
जवाब देंहटाएंतेरी यादों के सब हसीं मंज़र
मेरे कमरे में हैं पडे हर सू
हमने गुल्लक में जो सहेजे थे
चल बिखेरें वो रतजगे हर सू
कितनी पाकीज़ा हो गईं आंखें
तू ही तू बस मुझे दिखे हर सू
हो के शामिल अब उसकी खुश्बू में
मेरी दीवानगी फिरे हर सू
ग़म भी सज़दे मे जब हुआ शामिल
दीप खुशियों के जल उठे हर सू
स्पीचलेस, मेरे पास वो शब्द ही नहीं हैं जिनसे इन शेअर् की तारीफ़ कर सकूं
जब मुझे कोई शेर बहुत पसंद आता है तो एक ही शब्द कहता हूँ
"जिंदाबाद" मगर आज आपकी ग़ज़ल के लिए वो भी कम लग रहा है
इस रदीफ़ के साथ मुहब्बत के शेर, वो भी इस मेयार के आपकी उम्र का कोई युवा शायर लिख रहा है तो इसके लिए केवल एक काम ही बचता है कि ..
.. हैड्स आफ टू यूं
दूसरों के तले उजाला कर
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब धर्मेंद्र जी !!
धूप की धम्कियों से क्या डरना
वैसे तो पूरी ग़ज़ल अच्छी है लेकिन ये शेर ज़्यादा आकर्षित करता है
वाह !!
गीत होंठों पे कुछ नज़र आएं
बहुत बढ़िया मुकेश जी !!
ये हैं ग़ज़लें...
जवाब देंहटाएंएक से बढ़कर एक...
अरसे बाद ऑन लाइन मुशायरे में इस तरह की स्तरीय ग़ज़लें पढ़ीं हैं...
प्रकाश अर्श जी ने तो कहर ढा दिया हैं..
बिलकुल साँचे में ढली ग़ज़ल कही है..
उस्तादाना...
धर्मेन्द्र भाई आप की कविताओं को, छंदों को ग़ज़लों को पढ़ता रहा हूँ, और उन का प्रशंसक भी हूँ| एक और खुबसूरत ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाइयाँ| आसमां वाले शेर की कल्पना बेहद रोचक है| वो दबे पाँव, दूसरों के तले, वाले शेर भी ध्यानाकर्षण करते हैं| 'राजा कौ तेल जरै, मसालची कौ जी" वाली कहावत को आख़िरी शेर में उतारने की शानदार कोशिश|
जवाब देंहटाएंसुबीर जी के एक और शिष्य प्रकाश सिंह अर्श, 'वस्ल' वाले शेर पर सैंकड़ों शेर क़ुर्बान| ग़ज़ल का हर शेर अपनी रूमानियत खुद बयाँ कर रहा है| इस ग़ज़ल की तारीफ़ के लिए अल्फाज़ कम पड़ रहे हैं| आप अपने उस्ताद का नाम रोशन कर रहे हैं प्रकाश भाई| दिक्क़त ये आ रही है कि किस शेर को कोट करूँ, और सब को कट पेस्ट करना तो शायर की मेहनत के साथ मज़ाक साबित होगा| लिहाजा पूरी की पूरी ग़ज़ल के लिए दिल से मुबारक़बाद|
कुछ नयी बात अब चले हर सू - क्या बात है मुकेश भाई| 'घोंसले फिर बसेंगे शाखों पर' के अलावा 'बद्दुआ चान्दनी को किसने दी" वाला शेर भी दिमाग़ की घंटी बजा गया| बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर ग़ज़ल के लिए|
यूं बिछे आज आइने हर सू
जवाब देंहटाएंआसमाँ सी जमीं दिखे हर सू
वाह क्या कहने धर्मेंद्र कुमार जी? बहुत खूब !
प्रकाश अर्श
जिस्म से आसमान तक बिखरा
लम्स तेरे लबों का ये हर सू
सोच की उड़ान हदों की सरहदें ढूँढ रही है!!! वाह!
मुकेश कुमार तिवारी का यह शेर
यूँ मिजाज-ए-खिजां बदल ही गया
अब बहारों को क्यूं तके हर सू
दीपावली की शुभकामनाओं के साथ
देवी नागरानी
हर तरही के साथ ये जे अजब-गजब की पेंटिंग लगा रहे हैं आप, क्या कहें ...अद्भुत |
जवाब देंहटाएंधर्मेन्द्र जी की तरही खूब भाई| मायके वाला शेर तो सचमुच बेमिसाल है| ...और मकता भी एकदम हट के |
अर्श के शेर तो पहले ही फोन पर सुन चुका था| एक बार फिर से जबरदस्त लुत्फ आया| बहुत ही सुंदर बिम्ब बांधे हैं शाहज़ादे ने | इश्क़ मे डूबा हुआ शायर ....हाय रे , लबो के लम्स को जिस्म से आसमान तक बिखरे होने की बात...उफ़्फ़! जीयो!
मुकेश जी तो खैर लिखते ही लाजवाब हैं, जितने सुंदर मुक्त छंद में उतना ही छंद बद्ध भी...वाह, क्या बात है| छानदानी के बददुआ वाली बात फिर उसका शबनम में ढलने की सोच ...तालियाँ तालियाँ!!!!
पंकजजी की भूमिका समाँ सा बाँध देती हैं. प्रतिदिन अलग-अलग तरह और तासीर की चित्रकारी एक अभिनव प्रयोग है जो पंकजजी की कलाप्रियता को उजागर कर रही है.
जवाब देंहटाएंधर्मेन्द्रजी को सुनता रहा हूँ. आज फिर मुग्ध हुआ हूँ.
फूल हैं आग के खिले हर सू
रौशनी की महक बहे हर सू
वाह-वाह ! क्या सोच, क्या अंदाज़ ! आतिशबाज़ी की चकाचौंध, दीवटों की नरम रौशनी और ये दिलकश नज़ारा ! बहुत खूबसूरत मतला है खुदही मोहक महक बिखेरता हुआ.. ओह्ह !! इस मतले पर ढेरों-ढेरों बधाइयाँ.
पूरी ग़ज़ल खूबसूरत बन पड़ी है पर मुझे जो शे’र विशेषरूप से पसंद आये -
लौट कर मायके से वो आईं
दीप खुशियों के जल उठे हर सू
वो दबे पाँव आज आया है
एक आहट सी दिल सुने हर सू
दूसरों के तले उजाला कर
ये अँधेरा भी अब मिटे हर सू
और मतले पर कुछ कहना नहीं, चुपचाप गुनना बेहतर. धर्मेन्द्रजी एक कामयाब कोशिश के लिये पुनश्च बधाइयाँ.
प्रकाश अर्शजी की पूरी ग़ज़ल गहरी सोच, आम व्यावहारिकता और रोज़ की ज़िन्दग़ी भरी रुमानियत से लबरेज़ है. दिल के करीब हैं सभी अश’आर. मतले में शब की रुमानियत खुल के निखर आयी है. बहुत अच्छे. आपके जिन अश’आर ने विशेष रूप से प्रभावित किया -
तेरी यादों के... हैं पड़े हर सू
जिस्म से आसमान... लबों का ये हर सू
हमने गुल्लक में... रतजगे हर सू
कितनी पाक़ीज़ा... दिखे हर सू
होके शामिल... फिरे हर सू
मक्ता - ग़म भी सजदे.., उठे हर सू
अरे, सारे शे’र सूचीबद्ध हो गये क्या ! अर्शभाई, आपको अनेकानेक बधाइयाँ. मुग्ध हूँ.
भाई मुकेशजी की ग़ज़ल सीधी ज़ुबान का एक उम्दा नमूना है. ऐसे अश’आर देर तक सात्विक पिनक देते हैं.
जो अश’आर विशेष पसंद आये हैं -
यूँ मिजाज-ए-खिजां... तके हर सू
घोंसले फिर... सजे हर सू
बद्दुआ चाँदनी... ढले हर सू
कश्तियों को किनारे... उठे हर सू
तीनों शायरों को मेरा सादर अभिनन्दन.
--सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)
राजीव भरोल जी, नीरज गोस्वामी जी,शार्दूला जी, दिगंबर नासवा जी, सौरभ जी, वंदना जी, सुलभ जी, अंकित जी, मुकेश जी, तिलक राज जी, अश्विनी जी, कंचन जी, वीनस जी, इस्मत जी, चैन सिंह जी, नवीन भाई, देवी नागरानी जी, गौतम जी और सौरभ पांडेय जी, अश’आर आपको पसंद आए लिखना सार्थक हुआ। इस ज़र्रानवाजिश का बहुत बहुत शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंगजब की गजल कही है अर्श जी ने।
जवाब देंहटाएंसब्ज़ दूबों से.... जो समाँ बाँधा है वो तेरी यादों..., जिस्म से.... होता हुआ हमने गुल्लक में.... पर पूरी तरह जवान हुआ है और हर शे’र पर और ऊपर चढ़ता हुआ मकते पर जो उँचाई प्राप्त की है, इसके लिए बहुत बहुत बधाई अर्श जी को।
मुकेश जी की ग़ज़ल ने तो दिल लूट लिया।
जवाब देंहटाएंबद्दुआ चाँदनी.... में जो कल्पना है वो लाजवाब है।
बहुत बहुत बधाई उन्हें इस ग़ज़ल के लिए
आपके जगमगाते इस ब्लॉग में
जवाब देंहटाएंदीपक से शेर टिमटिमाते हर सूँ .....