मंगलवार, 21 जून 2011

भभ्‍भड़ कवि भौंचक्‍के आज लेकर आ रहे हैं अपनी सात गुणा सात ग़ज़ल और ऊपर से दो शेर बोनस के, ग्रीष्‍म तरही मुशायरे का समापन करने के लिये. ग़ज़ल पढने से पहले प्रस्‍तावना अवश्‍य पढ़ें.

ग्रीष्‍म तरही मुशायरा

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और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी

ज़ुरूरी सूचना: यदि समय की कमी हो तो फिलहाल पोस्‍ट को न पढ़ें, ये पोस्‍ट थोड़ा अतिरिक्‍त समय मांगती है.  और एक बात यदि इन सातों में से एक एक शेर छांट कर कुल सात शेरों की ग़ज़ल ( मतला, मकता और गिरह मिलाकर) आपको बनानी हो तो आप कौन कौन से छांटेंगें.

यूं तो तरही मुशायरे का समापन हो चुका है लेकिन फिर भी एक ग़ज़ल और झेल ली जाये. दरअसल हुआ ये कि पिछली बार के वर्षा मंगल तरही मुशायरे में पाठशाला के एक छात्र ने कहा कि मिसरे में कठिनता ये है कि काफिया मुश्‍किल है, अधिक शेर कहे नहीं जा सकते. उस समय 'फलक पे झूम रहीं सांवली घटाएं हैं' मिसरा था जिसमें काफिया था घटाएं. छात्र का कह‍ना था कि काफिये हैं ही नहीं सो मजबूरी में क्रियाओं को ही काफिया बनाना होगा.  बात उड़ते उड़ते भभ्‍भड़ कवि भौंचक्‍के तक पहुंची और बस बात चुभ गई, सो उस मुशायरे में भभ्‍भड़ कवि ने बिना क्रियाओं के काफियों का उपयोग किये 108 शेरों की ग़जल़  कही (  उस समय तो 103 शेर थे लेकिन बाद में श्री तिलक राज जी के आदेश पर 5 शेर और बढ़ा कर उसे 108  किया गया).  इस बार सात गुणा सात अर्थात 49 शेर तथा अंत में दो समापन के शेर इस प्रकार कुल 51 शेर हैं.

pankaj pacjmadiकॉलेज के ज़माने का एक फोटो

इस बार भी यही हुआ एक छात्र ने कहा कि इस बार एक तो दुपहरी और उस पर मुसलसल ग़ज़ल इन दोनों शर्तों ने मजा बिगाड़ दिया है. एक ही विषय पर एक ही तरीके से ग़ज़ल कहना अपने बस की बात नहीं है. भभ्‍भड़ कवि का ये व्‍यक्तिगत सोचना है कि आपको किसी डॉक्‍टर ने पर्चा नहीं लिखा था कि आप शायर बनो और एक ग़ज़ल सुब्‍ह, एक दोपहर और एक शाम कहो. आप स्‍वयं बने हैं तो, ऐसा नहीं होगा, वैसा नहीं होगा, जैसी बातें करके दूसरों को और अपने को मूर्ख मत बनाओ.  छात्र का कहना था कि मैं विषय पर ग़जल़ नहीं कह सकता. मुझे लगा कि एक साहित्‍यकार यदि ये कहे कि वो विषय पर नहीं लिख सकता तो उससे बड़ी मूर्खता की कोई बात है ही नहीं.  तो भभ्‍भड़ कवि ने सात अलग अलग विषयों पर गर्मियों की दुपहरी को आधार बना कर मुसलसल ग़ज़लें कहने की कोशिश की. वस्‍ल, हिज्र, मौसम, विद्रोह, हौसला, शब्‍द चित्र और खान पान, इन सात विषयों पर सात सात शेरों वाली ग़ज़लें. सात शेर जिनमें मतला, मकता और गिरह के शेर के अलावा चार शेर हैं. ठीक बीच में गिरह का शेर है.  भभ्‍भड़ कवि को मकता लिखना पसंद नहीं है, भभ्‍भड़ कवि की सोच है कि मकता लगाना अपने गर्व का प्रदर्शन है, कि ये मैंने लिखा है. जबकि हक़ीक़त ये है कि देनहार कोइ और है  ........, लेकिन फिर भी केवल तरही मुशायरों में भभ्‍भड़ कवि मकता लिखते हैं.

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यादों के गलियारे से कुछ फोटो

इस मिसरे में तो तख़ल्‍लुस के लिये 121 होने के कारण और मुश्किल थी, सो संयुक्‍त अक्षरों का खेल हर मकते में जमाया गया है.  भभ्‍भड़ कवि ने उस समय  भी कहा था कि उस ग़ज़ल को केवल प्रयोग के तौर पर देखा जाये ( स्‍वर्गीय हठीला जी ने उसे खारिज भी किया था) और आज भी वही बात कि ये ग़ज़लें केवल प्रयोग हैं, और प्रयोग हमेशा कमज़ोर होता है ( साहित्यिक नज़रिये से). 

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यादों के गलियारे से कुछ और फोटो

ये सात ग़ज़लें भी हो सकता है कहन में बहुत कमज़ोर हों, क्‍योंकि जब भी अधिकता होती है तो गुणवत्‍ता में कमी आती ही है. मगर फिर भी ये समझाना ज़ुरूरी था कि भले ही विषय कुछ भी हो लेकिन उस विषय को कैसे आप अपने मनचाहे विषय की तरफ मोड़ सकते हैं.  एक बात और, इस बार काफी अच्‍छी ग़ज़लें मिलीं, लेकिन फिर भी हर ग़ज़ल में कम से एक या दो शेर ऐसे थे जिनमें रदीफ के साथ मिसरे का राबिता नहीं था, या था भी तो ठीक से नहीं था. भभ्‍भड़ कवि ने भी सातवें नंबर की ग़ज़ल में मकते के ठीक ऊपर के दोनों शेर इसी प्रकार से लिखे हैं जिनमें मिसरे के साथ रदीफ का राबिता ठीक नहीं हो रहा है.  देखने में दोनों शेरों में ऐसा लग रहा है कि बिल्‍कुल ठीक है लेकिन गड़बड़ तो है. कई ग़ज़लों में रदीफ की ध्‍वनि के दोहराव का दोष बना था, जैसा भभ्‍भड़ कवि ने छठे नंबर की ग़ज़ल में मतले के ठीक बाद के तथा गिरह के ठीक बाद के शेर में रखा है. ये भी नहीं होना चाहिये, यदि रदीफ ई पर समाप्‍त हो रहा है तो मिसरा ऊला ई पर समाप्‍त नहीं होना चाहिये.  एक कोशिश और ये की है कि इन 51 शेरों में कोई भी काफिया दोहराया नहीं जाये, जैसा वर्षा में किया था. इन ग़ज़लों में कहन नहीं तलाशें क्‍योंकि ये प्रयोग के लिये लिखी गई हैं. फिर भी कहीं एकाध शेर में कहन मिल जाये तो बोनस समझ कर रख लें.

आइये सुनते हैं ये सातों ग़ज़लें

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( परिवार 1 - तीन पीढि़यां, मां पिता, भैया भाभी और बच्‍चे  )

(1) ग़ज़ल वस्‍ल की (मिलन)
तुमको छूकर महकी महकी, गर्मियों की ये दुपहरी 
ख़ुश्‍बुओं की है रुबाई, गर्मियों की ये दुपहरी

धूप में झुलसे बदन को, तुम अगर होंठों से छू दो
बर्फ सी हो जाए ठण्‍डी, गर्मियों की ये दुपहरी

हर छुअन में इक तपिश है, हर किनारा जल रहा है
है तुम्‍हारे जिस्‍म जैसी, गर्मियों की ये दुपहरी

अब्र सा साँवल बदन उस पर मुअत्‍तर सा पसीना
''और सन्‍नाटे में डूबी, गर्मियों की ये दुपहरी''

ज़ुल्‍फ़े जाना की घनेरी छाँव में बैठे हुए हैं
हमसे मत पूछो है कैसी, गर्मियों की ये दुपहरी

है अभी बाँहों में अपनी, एक सूरज साँवला सा
देख ले तो जल मरेगी, गर्मियों की ये दुपहरी

क्‍यों न बोलें चाँद रातों से 'सुबीर' इसको हसीं हम
साथ में तुमको है लाई, गर्मियों की ये दुपहरी

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( परिवार 2- हम दो हमारी दो )

(2) ग़ज़ल हिज्र की  ( विरह )
दर्द, तनहाई, ख़मोशी, गर्मियों की ये दुपहरी
इक मुसलसल सी है चुप्‍पी, गर्मियों की ये दुपहरी

जब तलक तुम थे तो कितनी ख़ुशनुमा लगती थी लेकिन
लग रही अब कितनी सूनी, गर्मियों की ये दुपहरी

लाई थी पिछले बरस ये, साथ अब्रे मेहरबाँ को
अब के ख़ाली हाथ आई, गर्मियों की ये दुपहरी

हिज्र का मौसम, तुम्‍हारी याद, तन्‍हाई का आलम
''और सन्‍नाटे में डूबी, गर्मियों की ये दुपहरी''

रो रही है धूप आँगन में तुम्‍हारा नाम लेकर
आँसुओं से भीगी भीगी, गर्मियों की ये दुपहरी

मन की सूनी सी गली में उड़ रहे यादों के पत्‍ते
एक ठहरी सी उदासी, गर्मियों की ये दुपहरी

चल पड़ो तुम भी 'सुबीर' अब, दे नहीं सकती तुम्‍हें कुछ
बिखरी बिखरी, ख़ाली ख़ाली, गर्मियों की ये दुपहरी

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( परिवार 3 - नेह का नाता, वे लोग जिन्‍‍होंने मुझे 'मैं' बनाया.  )

(3) ग़ज़ल मौसम की
है विरहिनी उर्मिला सी, गर्मियों की ये दुपहरी
इसलिये दिन रात जलती, गर्मियों की ये दुपहरी

दे रहा इसको मुहब्‍बत से सदाएँ कब से मगरिब
फिर भी माथे पर है बैठी, गर्मियों की ये दुपहरी

नाचती फिरती है छम छम, आग की चूनर पहन कर
लाड़ली सूरज की बेटी, गर्मियों की ये दुपहरी

जाने किस कारण अचानक, हो गई कोयल भी चुप तो
''और सन्‍नाटे में डूबी, गर्मियों की ये दुपहरी''

क्‍या किया है रात भर, इसने वहाँ पश्चिम में जाकर
किसलिये इतनी उनींदी, गर्मियों की ये दुपहरी

पी गई तालाब, कूँए, बावड़ी, पोखर, नदी सब
फिर भी है प्‍यासी की प्‍यासी, गर्मियों की ये दुपहरी

जब 'सुबीर' इसके गले, हँस कर लगा इक नीम कड़वा
हो गई कड़वी से मीठी, गर्मियों की ये दुपहरी

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( परिवार 4 - मेरी शक्ति, कोई ज़ुरूरी तो नहीं कि  बेटों से आपका रक्‍त संबंध भी हो.  )

(4)  ग़ज़ल विद्रोह की
कब हुई आख़िर किसी की, गर्मियों की ये दुपहरी
खेल है केवल सियासी, गर्मियों की ये दुपहरी

मुल्‍क के राजा हैं बैठे, बर्फ के महलों में जाकर
मुल्‍क की क़िस्मत में लिक्‍खी, गर्मियों की ये दुपहरी

बारिशों का ख्‍़वाब देखा था मगर हमको मिला क्‍या
साठ बरसों से भी लम्‍बी, गर्मियों की ये दुपहरी

रो रहा है भूख से सड़कों पे नंगे पाँव बचपन
''और सन्‍नाटे में डूबी, गर्मियों की ये दुपहरी''

सब खड़े होंगे न जब तक, भींच अपनी मुट्ठियों को
तब तलक क़ायम रहेगी, गर्मियों की ये दुपहरी

ख़ुशनुमा मौसम सभी कुछ ख़ास तक महदूद हैं बस
आम इन्‍सानों को मिलती, गर्मियों की ये दुपहरी

बस इसी कारण छलावे में 'सुबीर' इसके फँसे सब   
पैरहन पहने थी खादी, गर्मियों की ये दुपहरी

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( परिवार 5- हम साथ साथ हैं )

(5) ग़ज़ल हौसले की
है खड़ी बन कर चुनौती, गर्मियों की ये दुपहरी
आज़माइश की कसौटी, गर्मियों की ये दुपहरी

धूप के तेवर अगर तीखे हैं तो होने दो यारों
हौसलों से पार होगी, गर्मियों की ये दुपहरी

मंजि़लों को जीतने का, जिनके सीने में जुनूं है
उनको लगती है सुहानी, गर्मियों की ये दुपहरी

इम्तेहाँ राही हैं तेरा, धूप में जलती ये राहें 
''और सन्‍नाटे में डूबी, गर्मियों की ये दुपहरी''

शान से सिर को उठा कर, कह रहा है गुलमोहर ये
देख लो मुझसे है हारी, गर्मियों की ये दुपहरी

सुख सुहानी सर्दियों सा, बीत ही जाता है आख़िर
है हक़ीक़त ज़िन्दगी की, गर्मियों की ये दुपहरी

एक चिंगारी 'सुबीर' अंदर ज़रा पैदा करो तो
देख कर उसको बुझेगी, गर्मियों की ये दुपहरी

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( परिवार 6 - दादा दादी और बच्‍चे )

(6) ग़ज़ल शब्‍द चित्रों की 
ढीट, ज़िद्दी और हठीली, गर्मियों की ये दुपहरी
फिर रही है रूठी रूठी, गर्मियों की ये दुपहरी

बूढ़ी अम्‍मा ने ज़रा टेढ़ा किया मुँह, और बोली *
आ गई फिर से निगोड़ी, गर्मियों की ये दुपहरी

पल में दौड़ेंगे ये बच्‍चे, आम के पेड़ों की जानिब
इक ज़रा लाये जो आँधी, गर्मियों की ये दुपहरी

चुप हुई शैतान टोली, डांट माँ की खा के जब तो
''और सन्‍नाटे में डूबी, गर्मियों की ये दुपहरी''

गाँव में अमराई की ठंडी घनेरी छाँव बैठी *
चैन की बंसी बजाती, गर्मियों की ये दुपहरी

बुदबुदाई पत्‍थरों को तोड़ती मज़दूर औरत
राम जाने कब ढलेगी, गर्मियों की ये दुपहरी

माँ को बड़ियाँ तोड़ते देखा 'सुबीर' इसने जो छत से
धप्‍प से आँगन में कूदी, गर्मियों की ये दुपहरी

( * इन दोनों शेरों में रदीफ की ध्‍वनि (ई) के दोहराव का दोष मिसरा उला में बन रहा है.)

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( परिवार 7- परी के साथ मंखा सरदार )

(7)  ग़ज़ल खाने पीने की
थोड़ी  मीठी, थोड़ी खट्टी, गर्मियों की ये दुपहरी
जैसे अधपक्‍की हो कैरी, गर्मियों की ये दुपहरी

याद की गलियों में जाकर, ले रही है चुपके चुपके
बर्फ के गोले की चुसकी, गर्मियों की ये दुपहरी

धूप की ये ज़र्द रंगत, चार सूँ बिखरी है ऐसे
जैसे केशर की हो रबड़ी, गर्मियों की ये दुपहरी

ले के नींबू की शिकंजी, घूमता राधे का ठेला
''और सन्‍नाटे में डूबी, गर्मियों की ये दुपहरी''

छुप के नानी की नज़र से, गट गटा गट, गट गटा गट * 
पी गई है सारी लस्‍सी, गर्मियों की ये दुपहरी

धूप का देकर के छींटा, थोड़ी कैरी, कुछ पुदीना
माँ ने सिलबट्टे पे पीसी, गर्मियों की ये दुपहरी
  *

पक गये हैं आम, इमली, खिरनियाँ, जामुन, करौंदे
है 'सुबीर' आवाज़ देती, गर्मियों की ये दुपहरी

( * राबिता की कमी वाले शेर )

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( परिवार 7-  ये वो,  जो पिछले एक साल से जीवन में चल रही कड़ी दुपहरी में छांव दे रहे हैं . गौतम और संजीता तुमको क्‍या कहूं , नि:शब्‍द हूं. )

समापन के दो शेर

महफिले तरही में गूँजे गीत, कविता, छंद, ग़ज़लें
जिनके दम पर हमने काटी, गर्मियों की ये दुपहरी

अब ख़ुदा हाफ़िज़ कहो इसको, रही रब की रज़ा तो
अगली रुत में फिर मिलेगी, गर्मियों की ये दुपहरी

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( परिवार 8 - दीदी उस कठिन समय में हर वक्‍़त यही लगा कि आप बिल्‍कुल पास हैं, साथ हैं,  क्‍या कहूं... बहनों को आभार भी तो नहीं दिया जाता )

33 टिप्‍पणियां:

  1. इस पर टिप्‍पणी नहीं टिप्‍पणा लिखना पड़ेगा। आज की पोस्‍ट की मुख्‍य उपलब्धि यह रही कि इसमें पाठ शामिल हैं। अभी मैं केवल राब्‍ता वाली ग़ज़ल देख पाया हूँ, बाकी पर सरसरी निग़ह ही घुमाई है। कल रात को तसल्‍ली से दीवान पर दीवान सजा कर बैठता हूँ।
    इस बार आपने 51 का आंकड़ा पूरा कर कहने को कुछ छोड़ा ही नहीं।
    इस खूबसूरत रदीफ़, काफि़या और बह्र पर ग़ज़ल कहना कठिन बताने वाले मित्र ने अच्‍छा मज़ाक किया और परिणाम सामने है।
    बहुत-बहुत बधाई।

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  2. इन ग़ज़लों को पढ़ कर कोई मूर्ख ही ये प्रश्न पूछेगा के लोग भभ्भड़ कवि की रचना का बेताबी से इंतज़ार क्यूँ करते हैं ? पढ़िए और जानिये के हर कोई भभ्भड़ कवि सा क्यूँ नहीं बन सकता ? इसीलिए समझदार लोग कहते हैं भभ्भड़ कवि को कोई सानी नहीं है वो अपनी तरह के अकेले कवि हैं और उन जैसा न कोई हुआ है और शायद न कोई दूसरा होगा.
    आने वाली नस्लें तुम पर फक्र करेंगी हम सफरो
    जब तुमको उनको बोलोगे तुमने भभ्भड़ को जाना है
    सब लोग जरा जोर लगा कर मेरे साथ बोलें: भभ्भड़ कवि की....जय हो...जय हो...जय हो...

    नीरज

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  3. ग़ज़लों पर कमेन्ट करने की स्तिथि में अभी आने में वक्त लगेगा...कमेन्ट कर भी पाउँगा या नहीं ये फिलहाल शोध का विषय है.. कुछ शेर पढ़ कर हैरान हो गया हूँ...परेशान हूँ के उनपर क्या कहूँ? मुझे संभलने का मौका दो गुरुदेव एक आध दिनों में होश में आने पर बात करूँगा.

    नीरज

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  4. / / / / / / / / / /
    ये पिछले साल की वर्षा का असर ही था जो हम इस साल गर्मियों की दुपहरी की कामना कर रहे थे. और आज जब गर्मी अपने फलक से विदा ले रही है तो यही कहूँगा
    हम खुशकिस्मत है जो ये आकाशीय घटना जमीं पर घटते देख रहे हैं...
    फिलहाल तो ग़ज़ल को अच्छी तरह पीने के लिए सात दिन और चाहिए.
    मांग पर कवि "भभ्भर जी" को प्रस्तुत करने के लिए आचार्य जी को पुन: प्रणाम!!!

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  5. अभी ये दो शेर ले जा रहा हूँ... पहले इसे फ्रेम में जड़ दूं फिर इत्मीनान से पढूंगा...
    नाचती फिरती है छम छम, आग की चूनर पहन कर
    लाड़ली सूरज की बेटी, गर्मियों की ये दुपहरी

    बारिशों का ख्‍़वाब देखा था मगर हमको मिला क्‍या
    साठ बरसों से भी लम्‍बी, गर्मियों की ये दुपहरी

    दुबारा आऊंगा तो फिर से सोचना पडेगा. इसलिए पहले पाठ पढ़ लूँ.

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  6. सातों ग़ज़ल आपकी लेखनी की मजबूती का अहसास करा रही हैं और विषय की विविधता सबसे सबल पक्ष है मुबारका बाद , बधाई ,आभार।

    1*ज़ुल्फ़े जाना की घनेरी छांव में बैठे हुअ हैं,
    हमको मत पूछो है कैसी, गर्मियों की ये दुपहरी।

    5* शान से सर उठा कर कह रहा है गुलमोहर ये,
    देख लो मुझसे है हारी ,गर्मियों की ये दुपहरी।

    ये दोनों मिसरे मुझे बहुत अच्छे लगे या ये कहूं दोनों मिसरे लाज़वाब हैं तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।

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  7. ये तो दुपहरी की शान में कसीदा हो गया। इस पर टिप्पणी लिखूँगा तो ग़ज़ल बन जाएगी। आराम से लिखूँगा। अभी केवल अंतरिम टिप्पणी दे रहा हूँ।

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  8. पढ़ लिया सब, हो गयीं अब दूर सारी खुशफहमियां
    अब किसी से मैं नहीं बोलूँगा, मैं हूँ एक शायर

    आपकी प्रतिभा को नमन करता हूँ.

    सादर

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  9. this page says it all....why you are "guruji" of ghazal...!!!!

    i am speechless sir...no words, emotions are beyond all kinds of expression...uffffff!!!

    dandwat hoon charano me!!!

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  10. तौबा तौबा इसे तो एक बार नही कई कई बार पढना होगा
    वैसे तो टिप्पियाणे मे माहिर हूँ लेकिन यहाँ केवल टिप्पियाणा नही है दिमागी कसरत भी है। मुझे तो एक दो दिन लगेंगे । अभी तो दिमाग चकरा गया है जरा संभल ले फिर टिप्पियाती हूँ। आज तो मै भी आपकी प्रतिभा को नमन करके जा रही हूँ। शुभकामनायें।

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  11. ख़राब तबीयत के कारण रात जल्दी सो गया अतः यह पोस्ट सुबह उठ कर ही देख पाया..... लाजवाब पोस्ट है. बाकी की टिप्पणी बाद में करता हूँ. ये बस हाजिरी के लिए.

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  12. पहले तो ग़ज़ल पढ़ कर ही भौचक्का हो गया था और अभी जब कमेन्ट पढ़े तो फिर से भौचक्का रह गया कि भभ्भड जी की रचना को पढ़ कर पहले तो मैं ही भडभडा (मतलब हडबडा) जाता था मगर आज तो सब का दिमाग हिला हुआ है

    सच कहता हूँ जब भी भभ्भड जी की रचना पढता हूँ तो सोचता हूँ १ चम्मच में पूरा कटोरा की खीर के बार में गडप कर लूं

    एक होता है सोचने लायक और एक होता है सोच सोच कर सोचने लायक,

    तो सोच सोच कर सोच लूं फिर कुछ कमेन्ट लिखता हूँ

    भगवान कसम अब कोई कहेगा कि इस विषय पर नहीं लिख सकता, तो आपकी यह रचना पहले खुद फिर से पढ़ी जायेगी और फिर उसे पढवाई जायेगी

    जय हो

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  13. एक बार पढ़ना काफ़ी नहीं है इन ग़ज़लों को
    कितनी बार पढ़ना काफ़ी होगा अभी कहा नहीं जा सकता
    लिहाज़ा अभी सिर्फ़ इतना ही कि पहले शब्द तलाश कर लूं फिर आती हूँ

    जवाब देंहटाएं
  14. क्या गज़ब के शेर हैं ये, क्या गज़ब की है कहन भी|
    देख इन को है भौंचक्की, गर्मियों की ये दुपहरी|१|

    भभभ्डी, भौंचक गिरी या भड़भड़ी या फुलझड़ी है|
    शान है साहित्य वाली गर्मियों की ये दुपहरी|२|

    नाम का ये झोल क्यूँ है, ये समझ में आ न पाया|
    काश समझाती बुझाती गर्मियों की ये दुपहरी|३|

    ब्रह्म अवकाश और गणपति [108], शेर पढ़ कर यूँ लगे है|
    है वहाँ पर से ही जारी, गर्मियों की ये दुपहरी|४|

    भाई पंकज जी तुम्हारी क्या करे तारीफ कोई|
    बस यही कहते 'सु-बीरी' - गर्मियों की ये दुपहरी|५|

    काफिया, रद्दीफ, लय, अनगिन विषय, लहज़ा अनोखा|
    खूबसूरत छवि दिखाती गर्मियों की ये दुपहरी|६|

    लू, थपेड़े याद तक आते नहीं जब देखते हैं|
    बह रही कल कल नदी सी गर्मियों की ये दुपहरी|७|

    चाह को ही राह मिलती, क्या विषय और क्या तरह भी|
    बस यही पैगाम देती गर्मियों की ये दुपहरी|८|

    राबिता का रायता होगा तो होगा पर हमें तो|
    लगती है खट्टी औ मिट्ठी गर्मियों की ये दुपहरी|९|

    एक से बढ़ कर है एक तस्वीर जो तुमने दिखाईं|
    जिन से मन में मौज भरती गर्मियों की ये दुपहरी|१०|

    इस महत्कर्मी, सरस, सुंदर, अनोपम प्रस्तुती को|
    शेर ग्यारह पेश करती गर्मियों की ये दुपहरी|११|

    भाई पंकज सुबीर जी, अपने भाई की ११ शेरों की सलामी स्वीकार करें|

    जवाब देंहटाएं
  15. पहले तो वे छात्र जिन्होंने ये कहा था की मुसलसल गज़ल नहीं लिख सकते, टांगों के नीचे से कान पकड़ कर मुर्गासन में आ जाएँ. अगर मुर्गासन में नहीं आ सकते तो सीधे कान पकड़ कर क्षमासन में तो आ ही जाएँ! जिन्हें तरही मिसरा मुश्किल और इस पर गज़ल कहना और भी मुश्किल लग रहा था वे भी यही करें.. एक मिनट..मैं आसन कर के अभी आया.
    .
    .
    .
    सौ सुनार की एक लोहार की. अद्भुत ग़ज़लें हैं. निशब्द कर देती हैं.
    आपकी गजलें बहुत कम पढ़ने सुनने को मिली हैं. कुछ या तो यू ट्यूब पर या तरही मुशायरों में सुनी/पढ़ी हैं. पढ़ने/सुनने के बाद यही निष्कर्ष निकला है आपकी ग़ज़लें आज के दौर के किसी भी बड़े कहे जाने वाले शायरों के छक्के छुड़ा दें.
    सात ग़ज़लें और सभी अलग अलग विषयों पर और एक से बढ़ कर एक शेर! ऐसा करने के लिए सिर्फ शायर होना ही काफी नहीं बल्कि उसके साथ ढेरों टेलेन्ट होना भी ज़रूरी है.

    तस्वीरें सभी बहुत प्यारी हैं.. परिवार वाली तस्वीर जिसमे भैया भाभी,माँ पिता जी और बच्चे हैं,देख कर बहुत अच्छा लगा. ऊपर वो ब्लैक एंड व्हाइट वाली बहुत अच्छी है. गुरुकुल वाली अन्य तस्वीरें पहले भी देखी हैं. बहुत ज़ोरदार है. लेकिन बाजी मार ले गई है परी और पंखुडी की तसवीर!

    'राबिता की कमी'वाले शेरों में कमी क्या है समझ नहीं आया. कृपया विस्तार से बताएं.

    इन सातों गज़लों में से एक एक शेर चुन कर एक गज़ल तैयार करना लगभग असंभव है क्योंकि कोई भी शेर छोड़ने लायक नहीं है. फिर भी कोशिश की है और यह गज़ल हुई:

    है खड़ी बन कर चुनौती, गर्मियों की ये दुपहरी,
    आज़माइश की कसौटी, गर्मियों की ये दुपहरी.

    है अभी बाहों में अपनी, एक सूरज सांवला सा,
    देख ले तो जल मरेगी, गर्मियों की ये दुपहरी.

    मन की सूनी सी गली में, उड़ रहे यादों के पत्ते,
    एक ठहरी सी उदासी, गर्मियों की ये दुपहरी.

    पी गई तालाब, कूएं, बावडी, पोखर नदी सब,
    फिर भी है प्यासी की प्यासी गर्मियों की ये दुपहरी.

    मुल्क के राजा हैं बैठे वर्फ के महलों में जाकर,
    मुल्क की किस्मत में लिक्खी, गर्मियों की ये दुपहरी.

    हिज्र का मौसम, तुम्हारी याद, तन्हाई का आलम,
    'और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी'.

    धूप के तेवर अगर तीखे हैं तो होने दो यारो,
    हौसलों से पार होगी गर्मियों की ये दुपहरी.

    बुदबुदाई पत्थरों को तोडती मजदूर औरत,
    राम जाने कब ढलेगी, गर्मियों की ये दुपहरी.

    पक गए हैं आप, इमली, खिर्नियाँ, जामुन, करौंदे,
    है 'सुबीर' आवाज़ देती, गर्मियों की ये दुपहरी.

    (शेर ७ के बजाये ९ हो गए)


    भभ्भड कवि को कोटि कोटि प्रणाम!

    आखिर में एक रिक्वेस्ट, कृपया ब्लॉगर की सेटिंगज़् में 'मोबाइल' विऊ, ऑन कर दें. उससे फोन पर ब्लॉग देखने में बहुत सुविधा हो जाती है.

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  16. Bhai kalam ko aur kalamkaar ko dher sari badhayI. Page hi desktop pe save kar liya hai padhte padhte bahut kuch seekhne ko milega par samay mangati hai garmiyon ki yeh dupahri....
    Behad Umda ...!!

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  17. पंकज वीर, आप की पोस्ट पढ़ने के लिए सुबह चार बजे उठी और पूरा दिन बार -बार पढ़ी |
    अभी तो कुछ कहने के काबिल नहीं, बस समझने की कोशिश कर रही हूँ | शायद कल तक कुछ कह पाऊं |

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  18. सब से पहले तो आपके इस परिवार के लिये बहुत बहुत शुभकामनायें कल तो कुछ कह नही सकी बस पोस्ट देख कर ही चकरा गयी। खुदा सब की नज़र से बचाये इस परिवार को। जाने कितनी बार पढी गज़ल इनमे से एक गज़ल के लिये शेर छाँटना आसान काम नही है कई बार ए3क एक शेर को पहले रखा फिर दूओसरा अच्छा लगा तो पहले को काटा इसी उधेडबुन मे मैने जो गज़ल बनाई वो इस तरह है----
    दर्द तन्हाई खमोशी गर्मिओं की ये दुपहरी
    इस मुसलसल सी है चुपी गर्मिओं की यी दुपहरी

    हर छुअन मे इक तपिश है हर किनारा जल रहा है
    है तुम्हारे जिस्म जैसी गर्मियों की ये दुपहरी।

    रो रही है धूप आँगन मे तुम्हारा नाम लेकर
    आँसूओं से भीगी भीगी गर्मियों की ये दुपहरी।

    नाचती फिर्ती है छम छम आग की चूनर लिये
    लाडली सूरज की बेटी गर्मियों की ये दुपहरी।

    मुल्क के राजा हैं बैठे बर्फ के महलों मे जा कर
    मुल्क की किस्मत मे लिखी गर्मिओं की ये दुपहरी

    सुख सुहानी गर्मिओं का बीत ही जाता है आखिर
    है हकीकत ज़िन्दगी की गर्मिओं की ये दुपहरी

    बूढी अम्मा ने जरा टेढा किया मुँह और बोली
    आ गयी फिर से निगोडी मर्मियों की ये दुपहरी

    याद की गलियों मे जाकर ले रही है चुपके चुपके
    बर्फ के गोले की चुस्की गर्मिओं की ये दुपहरी
    आपकी प्रतिभा के आगे नतमस्तक हूँ। हस्मे जिस दुपहरी पर एक शेर भी खूबसूरती से कहना मुश्किल था उसे आपने कितनी आसानी से 49 अशार कह कर कमाल कर दिया।सच है गुरू के खजाने मे कितना कुछ होता है! कुछ अरार मे आपनी जिगासाओं का निवारन भी पाया। धन्य हो प्रभु आप। एक बार फिर से बहुत बहुत बधाई शुभकामनायें\
    हाँ समापन के दोनो अशआर गर्मिओं की दुपहरी के बाद सुहानी शाम जैसी ठंदक दे गये\

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  19. आपकी गज़लों से प्रेरना ले कर चंद शेर और लिखे हैं अभी अभी गलतियाँ देखी नही_--- ये आपको ही समर्पित हैं------

    चमचमाते रंग लिये चमका तपाशूँ आस्माँ पर
    धूप की माला पिरोती गर्मिओं की ये दुपहरी

    दिल पे लिखती नाम तेरा ज़िन्दगी की धूप जब
    ज़ख्म दिल के है तपाती गर्मिओं की ये दुपहरी

    जब से छत पर काग बोले आयेगा परदेश से वो
    तब शज़र सी छाँव देती गर्मिओं की ये दुपहरी

    याचना करती सी आँखें प्यार के लम्हें बुलाती
    बिघ्न आ कर डाल जाती गर्मिओं की ये दुपहरी

    मुहब्बत के रुहानी बादलों से जम के बरसी
    यादों की बरसात लाती गर्मिओं की ये दुपहरी।

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  20. नतमस्तक हूँ गुरु देव , और गौतम भाई के साथ साथ मैं भी पूरी तरह से दंडवत के आसन में हूँ ! अभी तक नशे में हूँ ज़रा होश में आलूँ तो कहूँ कुछ ...
    मैंने कल एक बात कही थी आप से ... :) मुझे तो साकार होता नज़र आ रहा है !
    अर्श

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  21. गुरुदेव कई महारती भोंचक्के से बैठे हैं अब तक ... तो हमारे जैसों की तो क्या बिसात ... कल पूरी पोस्ट पढ़ी आज फिर से पढ़ी ... पता नहीं और कितने दिनों तक पढूंगा तब जाकर लगता है वर्तमान में आना संभव होगा ... अभी तो बस आनंद की अधिकता से होने वाली बदहवासी में हूँ ...
    इन इक्यावन शेरों के टीके को पूर्णतः आत्मसात करना ... बहुत टेडा का काम है ... और ७ शेरों को निकालना और भी टेडी खीर ...
    में तो हर शेर और हर कमेन्ट का आनद ले रहा हूँ ... संजो कर रखनी परेगी ये पोस्ट ... दूर तक काम आने वाली है ...

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  22. प्रणाम गुरु देव,
    "सुबीर संवाद सेवा" पर गर्मियों की दुपहरी को मुह चिढाते हुए सात ग़ज़लों की ज़ोरदार, असरदार, मोहक, अद्भुत ग़ज़लइया बारिश का नज़ारा सिर्फ देखने से नहीं बनता वरन उसमे भीग के आनंद लेने में जो मज़ा है उसे लफ़्ज़ों में बयां करना अगर असंभव ना भी हो तो संभवत: मुश्किल तो ज़रूर है.
    सारी फोटो लाजवाब हैं, एक विस्तृत टिप्पणी किश्तों में ही आ पायेगी क्योंकि बहुत अच्छे अच्छे शेर हैं, सातों विषयों में से "विद्रोह" के विषय वाली पूरी ग़ज़ल बेमिसाल है. आपके कहें अनुसार, सात ग़ज़लों से सात शेर जो मुझे पसंद आये वो ये हैं, वैसे शेर तो और भी अच्छे हैं वो अगली टिप्पणी में कहता हूँ, अभी वो सात ये हैं;

    है खड़ी बन कर चुनौती, गर्मियों की ये दुपहरी
    आज़माइश की कसौटी, गर्मियों की ये दुपहरी

    हर छुअन में इक तपिश है, हर किनारा जल रहा है
    है तुम्‍हारे जिस्‍म जैसी, गर्मियों की ये दुपहरी

    मन की सूनी सी गली में उड़ रहे यादों के पत्‍ते
    एक ठहरी सी उदासी, गर्मियों की ये दुपहरी

    नाचती फिरती है छम छम, आग की चूनर पहन कर
    लाड़ली सूरज की बेटी, गर्मियों की ये दुपहरी

    रो रहा है भूख से सड़कों पे नंगे पाँव बचपन
    ''और सन्‍नाटे में डूबी, गर्मियों की ये दुपहरी''

    बारिशों का ख्‍़वाब देखा था मगर हमको मिला क्‍या
    साठ बरसों से भी लम्‍बी, गर्मियों की ये दुपहरी

    माँ को बड़ियाँ तोड़ते देखा 'सुबीर' इसने जो छत से
    धप्‍प से आँगन में कूदी, गर्मियों की ये दुपहरी.

    आखिरी में बस यही कहूँगा, जय हो गुरुदेव

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  23. सात शे’र छाँटना तो सात समंदर पार करने जैसा काम हो गया। फिर भी सात छाँट ही दिये। मगर मैं तो कहूँगा कि सारे मतलों को एक के बाद एक, फिर सारे शे’र फिर मकते रखकर इसे गर्मियों की दुपहरी का एक कसीदा बना दिया जाय।
    चित्रों में एक बात ध्यान देने योग्य है कि जैसे जैसे ग़ज़ल खोपड़ी में घुसती जाती है बाल निकलते जाते हैं, तो सारे छात्र यह बलिदान देने को तैयार रहें।

    सात शे’रों की ग़ज़ल इस प्रकार है।

    है खड़ी बन कर चुनौती, गर्मियों की ये दुपहरी,
    आज़माइश की कसौटी, गर्मियों की ये दुपहरी

    हर छुअन में इक तपिश है,हर किनारा जल रहा है
    है तुम्‍हारे जिस्‍म जैसी,गर्मियों की ये दुपहरी

    नाचती फिरती है छम छम, आग की चूनर पहन कर
    लाड़ली सूरज की बेटी, गर्मियों की ये दुपहरी

    मुल्क के राजा हैं बैठे वर्फ के महलों में जाकर,
    मुल्क की किस्मत में लिक्खी, गर्मियों की ये दुपहरी

    हिज्र का मौसम, तुम्हारी याद, तन्हाई का आलम,
    'और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी'

    बुदबुदाई पत्थरों को तोडती मजदूर औरत,
    राम जाने कब ढलेगी, गर्मियों की ये दुपहरी

    माँ को बड़ियाँ तोड़ते देखा 'सुबीर' इसने जो छत से
    धप्‍प से आँगन में कूदी, गर्मियों की ये दुपहरी

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  24. रचना का सतरंगी इन्द्रधनुष में दिखी प्रेमपगी पारिवारिक पृष्ठभूमि, सृजन का इससे उपयुक्त वातावरण और क्या हो भला।

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  25. पंकज भाई ने राबित: पर दो उदाहरण के शेर दिये थे जिसपर राजीव ने अधिक जानना चाहा है।
    छुप के नानी की नज़र से, गट गटा गट, गटगटागट *
    पी गई है सारी लस्‍सी, गर्मियों की ये दुपहरी

    धूप का देकर के छींटा, थोड़ी कैरी, कुछ पुदीना
    माँ ने सिलबट्टे पे पीसी, गर्मियों की ये दुपहरी *

    राबित: जैसा कि सभी जानते हैं उर्दू शब्‍द है और उसका अर्थ है सम्‍बन्‍ध। एक पूर्ण कविता होने के कारण शेर में कुछ भी स्‍वतंत्र नहीं होता, सब कुछ परस्‍पर सम्‍बन्‍ध आधारित होता है। अब छुप के नानी वाले शेर में सोचने की बात यह है कि क्‍या गर्मियों की दुपहरी सारी लस्‍सी पी गई ऐसा कहना ठीक होगा। मेरा मानना है कि यह आंशिक रूप से ठीक भी है अगर इसे प्रतीकात्‍मक रूप में देखा जाये कि गर्मियों में रखी हुई लस्‍सी का पानी गर्मी पी जाती है। वहीं दूसरे शेर में जरूर राबित: का दोष स्‍पष्‍ट रूप से सामने आ रहा है जिसमें गर्मियों की दुपहरी का सम्‍बन्‍ध पहली पंक्ति और दूसरी पंक्ति के आरंभिक अंश से स्‍थापित नहीं हो रहा है। ऐसा लग रहा कि डेढ़ पंक्ति एक वाक्‍य है और रदीफ़ एक असम्‍बद्ध सा टुकड़ा। थोड़ा गहरा सोचने वाले इसे भी एक उम्‍दा शेर कह सकते हैं अगर इसे इस रूप में देखें कि नानी का यह फार्मूला गर्मियों की दुपहरी के बारह बजा देता है और इस प्रकार एक खूबसूरत बिम्‍ब बनता है इस फार्मूले से गर्मियों की दुपहरी पीसने का। मुझे लगता है कि पंकज भाई के तसव्‍वुर में जब यह शेर आया तब यही भाव रहा होगा लेकिन जो लोग शेर में अस्‍पष्‍टता दोष तलाशते हैं उनको ध्‍यान में रखते हुए इसे राबित: का उदाहरण कहा है।

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  26. मेरी राय में:-
    बड़ी रद्दीफ की मुसलसल गज़लों में समीक्षकों से अपेक्षा रखी जाती है कि वे गहरे उतर कर अर्थों को तलाशें|

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  27. पंकज भाई ठहरे गुरूजी, शिष्‍यों के सामने ग़ज़ल पूर्ण अनुशासन से प्रस्‍तुत हो इसका ध्‍यान रखते हुए मुझे लगता है दूसरी ग़ज़ल से एक बेहतरीन मत्‍ले का शेर का अवसर होते हुए भी ईता दोष को ध्‍यान में रखते हुए दो अलग अलग शेर में जो मिसरे उन्‍होंने लिये हैं उन्‍हें मैं मत्‍ले के शेर में एक साथ रख रहा हूँ बावज़ूद इसके कि इसमें छोटी ईता का दोष कुछ अनुशासनप्रिय मित्र बता सकते हैं।
    छोटी ईता एक दोष के रूप आज की हिन्‍दी शायरी में नकार दी गयी है। डॉ. कुँअर बेचैन जैसे स्‍थापित हस्‍ताक्षर इसे महत्‍व नहीं देते हैं।

    मैनें बहुत कोशिश की कि सात शेर में ग़ज़ल समेट सकूँ लेकिन कुछ शेर ऐसे हैं जिन्‍हें छोड़ने की इच्‍छा नहीं हो रही है और मेरी नज़र में ग़ज़ल का रूप कुछ ऐसा बनता है।
    मत्‍ले का शेर दूसरी ग़ज़ल से जिसे दो अलग अलग अश'आर से उठाया है:

    दर्द, तनहाई, ख़मोशी, गर्मियों की ये दुपहरी
    एक ठहरी सी उदासी, गर्मियों की ये दुपहरी

    पहली ग़ज़ल से:

    ज़ुल्‍फ़े जाना की घनेरी छाँव में बैठे हुए हैं
    हमसे मत पूछो है कैसी, गर्मियों की ये दुपहरी

    ज़ुल्‍फ़े जाना में बेफि़क्री का आलम गर्मियों की दुपहरी जो कंट्रास्‍ट पैदा कर रहा है वो अद्भुत है।

    तीसरी ग़ज़ल से दो शेर

    दे रहा इसको मुहब्‍बत से सदाएँ कब से मगरिब
    फिर भी माथे पर है बैठी, गर्मियों की ये दुपहरी

    पी गई तालाब, कूँए, बावड़ी, पोखर, नदी सब
    फिर भी है प्‍यासी की प्‍यासी, गर्मियों की ये दुपहरी

    चौथी ग़ज़ल से दो शेर:
    मुल्‍क के राजा हैं बैठे, बर्फ के महलों में जाकर
    मुल्‍क की क़िस्मत में लिक्‍खी, गर्मियों की ये दुपहरी

    रो रहा है भूख से सड़कों पे नंगे पाँव बचपन
    ''और सन्‍नाटे में डूबी, गर्मियों की ये दुपहरी''

    बहुत खूबसूरत स्थिति है दोनों शेर में जो ग़ज़ल के मिज़ाज़ को अलग ही तेवर दे रहा है।

    पॉंचवी ग़ज़ल से:

    मंजि़लों को जीतने का, जिनके सीने में जुनूं है
    उनको लगती है सुहानी, गर्मियों की ये दुपहरी
    इम्तेहाँ राही हैं तेरा, धूप में जलतीये राहें
    ''औरसन्‍नाटे में डूबी, गर्मियोंकी ये दुपहरी''
    शान से सिर को उठा कर, कह रहा है गुलमोहर ये
    देख लो मुझसे है हारी, गर्मियों की ये दुपहरी
    एक चिंगारी 'सुबीर' अंदर ज़रापैदा करो तो
    देख कर उसको बुझेगी, गर्मियों की ये दुपहरी

    पॉंचवी ग़ज़ल के तेवर ही कुछ ऐसे हैं कि कम करना मुश्किल हो रहा है।

    छठवीं ग़ज़ल से:
    बुदबुदाई पत्‍थरों को तोड़ती मज़दूर औरत
    राम जाने कब ढलेगी, गर्मियों की ये दुपहरी

    बहुत खूबसूरत चित्र बना है, 'वह तोड़ती पत्‍थर' जैसा।

    सातवीं ग़ज़ल से:
    पक गये हैं आम, इमली, खिरनियाँ,जामुन,करौंदे
    है 'सुबीर' आवाज़ देती,गर्मियों की ये दुपहरी

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  28. विस्‍तृत बातें गोरखपुर से लौट कर की जाएंगीं, लेकिन हैरत की बात ये है कि तिलक जी आपने कैसे पकड़ लिया कि मैंने पहले मतला खमोशी और उदासी वाला ही लिखा था लेकिन बाद में उसमें इता देख कर उसे चुप्‍पी कर लिया । हालांकि उदासी के सौंदर्य की तुलना चुप्‍पी से नहीं हो पाई । मतला कमजोर तो हुआ लेकिन दोष के साथ जाना मुझे ठीक नहीं लग रहा था ।

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  29. चर्चा और साथ साथ कितना कुछ जानने का मौका ... बार बार तो आना पढ़ेगा इस पोस्ट पर ...

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  30. दर्द, तनहाई, ख़मोशी, गर्मियों की ये दुपहरी
    की निरंतरता में मुझै तो उदासी ही श्रेष्‍ठ लग रहा था और मुझे पूरा विश्‍वास है कि ईता के अनुशासन ने आपको रोका न होता तो आप देसरे मिसरे में उदासी की बात किये बिना नहीं रह पाते।

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  31. गर्मियों की ये दुपहरी या वो दुपहरी एक ऐसा रदीफ़ है जिसमें आह, वाह, राह, चाह, दाह, डाह, निबाह वगैरह-वगैरह बहुत से भाव लाये जा सकते हैं, और ऐसे में एक नायाब स्थिति मिल रही है कहन के दायरे को जिसमें एक अच्‍छा शायर डेढ़ मिसरा रदीफ़ से अलग रखते हुए भी रदीफ़ को उस स्थिति से जोड़ते भाव के रूप में शेर का अंश बना सकता है। एक उदाहरण:
    था मुझे मालूम मेरी हर सदा को लौटना है,
    फिर भला कैसे बुलाती, गर्मियों की ये दुपहरी।
    अब इसमें रदीफ़ असम्‍बद्ध लग रहा है लेकिन इसमें आह का भाव छुपा है जैसे कह रहा हो 'आह, गर्मियों की ये दुपहरी'।

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  32. ग़ज़ल के गुलशन में ऐसे मोहक फूल खिलाने के लिए बधाई।

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