तरही के साथ साथ और भी बहुत चल रहा है जैसे कि दांत का दर्द, लू का लगना, अन्ना, बाबा, उमा, सिब्बल, नाच गाना और भी जाने क्या क्या, लेकिन उसे अपने को क्या. उन सब चीजों पर नज़र रखी जाये और समय आने पर अपनी रचनाओं में उनको प्रतिबिम्बित किया जाये. उस पर टिप्पणी करना साहित्यकार का काम नहीं है. साहित्यकार की क़लम बोलती है वो स्वयं नहीं बोलता. जो साहित्यकार स्वयं बोलते हैं उनकी क़लम नहीं बोलती. फिर भी रवीश कुमार का यहां पर लिखा गया आलेख बहुत पसंद आया और इसी बीच याद आई भोपाल के अपने अग्रज कवि श्री वीरेंद्र जैन जी की ये कविता ''ये गोल गोल, ये ढोल मोल, ना लम्बे हैं ना छोटे हैं, ये बेपेंदी के लोटे हैं. है रीढ़ नहीं, हैं दांत नहीं, इनके कोई सिद्धांत नहीं, ये ब्रह़मचर्य की दिव्य देह पर, ढीले बंधे लंगोटे हैं, ये बेपेंदी के लोटे हैं. ये ब्रह़मचर्य की दिव्य देह, ये पंक्ति अपने आप में महाकाव्य है, उफ, जब सुनता हूं रोंगटे खड़े कर देती है ये पंक्ति.
ग्रीष्म तरही मुशायरा
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी
आज तरही में हम सुनने जा रहे हैं जैसा कि मैंने पहले ही लिख दिया है मोस्ट एलीजिबल बैचलर प्रकाश अर्श से एक बहुत ही सुंदर सी ग़ज़ल.
आख़िरकार तरही लेकर हाज़िर हूँ ! मुसलसल ग़ज़ल लिखने के फैसले के प्रयोग ने वाकई गर्मी में पसीने निकाल दिए ! एक ही विषय पर लिखना बहुत आसान नहीं है ! आपके इस प्रयोग से सिखने को बहुत कुछ मिला ! थोड़ी बहुत कोशिश की है ,कि पुरानी यादों को और पुराने अनुभव को इस ग़ज़ल में समाहित करूँ.
( मां के साथ )
मैं बिहार के जिस क्षेत्र से हूँ वो अभी भी अत्यंत पिछड़ा है विकास की दृष्टि से ! गाँव के किनारे से नहर जाती है , उसके एक किनारे के चौड़े भाग पर वन -लेन वाली टूटी फूटी सड़क, अभी कुछ एक साल पहले तैयार हुई है! बिजली अभी तक नहीं है ! तो मेरे जहन में जो गाँव की परिभाषा है उसमे मेरा गाँव पूरी तरह से फिट बैठता है , डेढ़ किलोमीटर पर एक नदी भी है , बचपन में हम वहां मछली पकड़ने जाया करते थे :)! अब भी लालटेन और दिए में लोग शाम के बाद रहते हैं हलाकि तरक्की थोड़ी हो रही है और सोलर लालटेन कुछ घरों में जलने लगे हैं ! तो कुल मिलाकर ऐसे गाँव से आता हूँ मैं जो वाकई गाँव है !अच्छा लगता है पर बहुत प्यार है उससे ! हलाकि पढ़ाई लिखाई शहर में हुई मगर कुछ साल शुरुयात के गाँव में ही कटे हैं तो आत्मिक रूप से जुड़ा हुआ हूँ !
( बाजा भी बजे और घोड़ी भी हो )
गाँव से निकलने के बाद रांची शहर में रहा और वहीँ प्रारंभिक पढ़ाई हुई फिर मुज़फ्फर आना हुआ चुकी पिता जी सरकारी बैंक में थे तो उनका तबादला वहीँ हुआ और हम सपरिवार आगये ! इंटर और ग्रेजुएशन विज्ञान संकाय से लंगट सिंह कॉलेज से किया ! यह कॉलेज एतिहासिक है,यहीं अपने प्रथम राष्ट्र पति डा. राजेंद्र बाबू पढ़े भी फिर पढाये भी ! इसके बाद एम् . बी . ए करने दिल्ली आगया और फिर यहीं हूँ एक निज़ी कंपनी में सीनियर मैनेजर के पद पर कार्यरत !
( दिल तो बच्चा है जी )
मगर मन अभी भी गाँव में लगा रहता है ! नहर के बाँध पर दूर - तक दौड़ना दोस्तों के साथ और गर्मी में कपडे खोल खुद जाना नहर में , सब के सब दिल में यादें हैं और ताज़ा हैं ! ग़ज़ल लेखन की बात करूँ तो शुरुयात में बस ऐसे ही तुकबन्दियाँ करता था , बाद में गुरु देव (पंकज सुबीर ) मिले और अब उनसे ही ग़ज़ल लिखने की कला सिख रहा हूँ ! उनके मार्ग दर्शन में ही गज़लें कहता हूँ और अब ये ग़ज़ल लेखन मेरे लिए आत्मा की तरह है !
तरही ग़ज़ल
दादी अम्मा की तरह थी, गर्मियों की वो दुपहरी !
झूठी-मूटी डांट जैसी गर्मियों की वो दुपहरी !
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आम इमली फूल तितली बर्फ के गोले रंगीले
इनमें ही छुप कर मिली थी गर्मियों की वो दुपहरी
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चांदनी सा दूर तक फैला हुआ महुआ पडा था ,
जिसके नश्शे में थी डूबी गर्मियों की वो दुपहरी
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आम के पेड़ों ने जाने क्या मधुर संगीत छेड़ा ,
तान पर जिसके थी नाची गर्मियों की वो दुपहरी !
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थक गई जब चलते चलते, अलविदा वो कह गई तब ,
बन गई है अब तो माज़ी गर्मियों की वो दुपहरी !
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सोंच कर भी काँप जाऊं ,आग सी बहती हवा थी ,
जिसमें तिल तिल जल रही थी गर्मियों की वो दुपहरी !
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रात भी ख़ामोश थी , कोने में दुबकी कसमसाती ,
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी !
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शाम आँचल,रात काजल, सुब्ह उसका था तबस्सुम ,
नाक में नथ सी चमकती गर्मियों की वो दुपहरी !
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दो ही चीज़ें मैं संजोये जा रहा हूँ ज़िंदगी में ,
गर्मियों की ये दुपहरी , गर्मियों की वो दुपहरी !
चांदनी सा दूर तक फैला हुआ महुआ पड़ा था, ग़ज़ब का कन्ट्रास का मिसरा है. गर्मियों की दोपहर में चांदनी की कल्पना करना और वो भी महुए की सफेदी के साथ. दो ही चीजें मैं संजोए जा रहा हूं में भी बहुत अच्छा प्रयोग है मिसरा सानी में. थक गई जब चलते चलते में भी जानदार तरीके से मिसरे को बांधा गया है. गिरह भी नये ही तरीके से बांधी है जो आनंद दे रही है.
तो आनंद लीजिये इस ग़ज़ल का और मिलते हैं अगले शायर के साथ अगले अंक में.
बहुत ही खूबसूरत. कुछ शेर तो बेहद बेहद खूबसूरत हैं..
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर मतला. फिर "आम इमली फूल तितली वर्फ के गोले रंगीले, इनमे ही छुप कर मिली थी." बहुत प्यारा शेर है. उससे अगले शेर में चांदनी और दुपहरी को एक साथ एक ही शेर में बहुत की सुंदर तरीके से प्रयोग किया है. "आम के पेड़ों ने जाने क्या मधुर संगीत छेड़ा.." वाह!.
और "बन गई है अब तो माज़ी.."क्या मिसरा है. एकदम सादगी से कहा गया असरदार शेर.
"जिसमे तिल तिल जल रही थी गर्मियों की वो दुपहरी" बहुत ही गहरा ख्याल. "शाम का आंचल..नाक में नाथ सी चमकती.." बहुत ही नाज़ुक और खूबसूरत शेर.
मकता तो बहुत ही भाया..ये दुपहरी और वो दुपहरी बहुत सुंदर लग लग रहा है.
अर्श भाई को इतनी प्यारी गज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई और धन्यवाद. ढेरों ढेरों दाद!
प्रकाश अर्श भाई को खूबसूरत ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई|
जवाब देंहटाएंतरही जैसे जैसे आगे बढ़ रही है, और ज़्यादा मज़ेदार होती जा रही है| पर साथ ही एक बात और भी जोड़ना चाहूँगा, जो कि पंकज जी भी समय समय पर कहते रहते हैं - टिप्पणियों को ले कर उत्साह कुछ कम ही है| खैर ......................
हुम्म मोस्ट एलिजिबल बैचलर भैया तभी तो इतनी सुन्दर गज़लें लिख पाता है\ खुद ही बाजा बजाने लगा इसे कहो कि सारी उम्र बाजा ही बजना है इतनी जल्दी काहे की?। इसकी गज़लों पर कुछ कहूँ मेरे पास शब्द नही। पूरी गज़ल लाजवाब है। आपका तराशा हुया हीरा है। बधाई आपको ही दूँगी।
जवाब देंहटाएंहे भारत देश की कुँवारी कन्याओं लानत है तुम पर, एक इतना हसीन, गज़ब का गायक, लाजवाब और कमाऊ शायर अभी तक कुंवारा भटक रहा है. हमारा ज़माना होता और अगर इतने सारे गुण होते किसी लड़के में तो कसम से दस किलोमीटर तक लम्बी लड़कियों की लाइन, शादी के लिए लग जाती. आपस में युद्ध होता सो अलग. उस ज़माने में हुनर की कद्र हुआ करती थी. आज हीरा अकेला है और कोयले पर बोलियाँ लग रहीं हैं. धिक्कार है.
जवाब देंहटाएंतरही ग़ज़ल की बात कहाँ से शुरू करूँ ? कौनसा शेर कोट करूँ. इस ज़ालिम शायर ने कुछ कहने लायक छोड़ा ही नहीं. मेरे पास जो लफ्ज़ हैं वो बिचारे इस लायक नहीं हैं के ग़ज़ल पढ़ कर उठे ज़ज्बातों को बयाँ कर सकें. तारीफ़ की कोशिश करता हूँ लेकिन कामयाबी हासिल नहीं होगी ये पक्का है.
सबसे पहले दादी अम्मा के साथ झूठी मूठी डांट वाली बात जो कही है वो मुझे पचास साल पीछे ले गयी. मेरी दादी...बल्कि सभी की दादियाँ...इस तरह डांटती थी के प्यार से उनके गले लगने को दिल करता था...दूसरे शेर में आम इमली और बर्फ के गोलों के साथ फूल तितली की बात सटीक नहीं बैठती, यहाँ मियां आप गच्चा खा गए...खैर...चांदनी सा दूर फैला वाले शेर पर जो गुरूजी ने कहा है उसके बाद कुछ कहना सूरज को चिराग दिखने जैसी बात होगी, आम के पेड़, थक गयी जब चलते चलते, आग सी बहती हवा, जैसे अद्भुत शेर गर्मी के मुख्तलिफ रंग ख़ूबसूरती से दर्शाते हैं..."रात भी खामोश..." में गिरह लगाने पर शायर की पीठ ठोकने को हाथ मचलने लगते हैं...शाम आँचल रात काजल वाले शेर पर ठिठकना पड़ता है और शायर की नज़र उतारने को दिल करता है.
वाह अर्श मियां वाह...आनंद आ गया. परमानन्द तब आएगा जब तुम्हारी ज़िन्दगी के मिसरा-ऐ ऊला में कहीं से मिसरा-ऐ सानी आ जुड़ेगा. उस दिन और उस मुकम्मल शेर का हम सबको इंतज़ार है.
नीरज
मनभावन ग़ज़ल्।
जवाब देंहटाएंरात भी ख़ामोश थी,कोने में दुबकी कसमसाती,
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी।
अर्श भाई ये मोस्ट वांटेड का टैग जल्द ही हटा दो..........
जवाब देंहटाएंमतला अच्छा है, और इस शेर पे क्या कहूं......."चांदनी सा दूर तक फैला हुआ................", जबरदस्त
"थक गई जब चलते चलते, अलविदा ..................", अच्छा बना है
"शाम आँचल,रात काजल, सुब्ह उसका था तबस्सुम ,....................", उफ्फ्फ्फ़, क्या शेर बाँधा है. मज़ा आ गया. क्या कहूं भाईजान, जान ले ली इस शेर ने. हासिल-ए-ग़ज़ल शेर. और शेर तो अब फीके लग रहे हैं.
"दो ही चीज़ें मैं संजोये जा रहा हूँ ज़िंदगी में ................", वाह वा, दोनों ही दुपहरी को क्या खूब पिरोया है, मगर फिर भी कहूँगा कि वो शेर तो क्या खूब लिखा है.
ढेरों दाद कुबूल करो.
आम ईमली फूल तितली ... अर्श जी ने अपने गाँव की यादें लिखते लिखते हर किसी को अतीत के किसी न किसी ठिकाने पे ले जा कर खड़ा कर दिया ... अपने लाजवाब शेरों में दोपहर के ऐसे लम्हों को उतारा है अर्श जी ने की क्या कहूँ ... चाहे ... उनका शेर .. आम के पेड़ों ने जाने ... या फिर ... शाम आँचल रात काजल .... वो वक्त ज़रूर याद आया होगा जब किसी का इंतेज़ार दोपहरी में भी सॅकून देता था ...
जवाब देंहटाएंप्रकाश जी से जब जब मिला हूँ उनकी सोंयता और सादगी प्रभावित करती है ... बहुत बहुत शुभकामनाएँ है प्रकाश जी को ... और गुरुदेव को बधाई ऐसे होनहार शिष्यों की ग़ज़ल पर ...
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल है। इस बार की तरही तो हर तरह से शानदार है। महुआ वाले शे’र ने तो गजब कर दिया। भाई जलन होती है कि मुझे ये सब क्यों नहीं सूझा। इतनी खूबसूरत ग़ज़ल लिखेंगे तो एक दिन साक्षात ग़ज़ल भी मिल ही जाएगी। इस ग़ज़ल के लिए बधाई और उस ग़ज़ल के लिए शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंनीरज भाई, ग़लती बच्चे की ही है। शादी के पहले क्यूँ ज़ाहिर किया कि शायर है। शायर से तो ब्याहता बीबी भी तंग रहती है, कोई शादी क्या करेगी। गुरुमंत्र दे रहा हूँ कुछ दिनों के लिये शायरी को तलाक दे दे शादी हो जायेगी। (मैं तो इसलिये कह रहा हूँ कि कुछ दिनों तक तो एक भारी कम्पीटीटर कम हो)।
जवाब देंहटाएंनये नये काफि़यों का बड़ा खूबसूरत उपयोग किया है।
भाई खूबसूरत ग़ज़ल है, शायर जितनी ही हसीन।
बधाई।
अर्श भाई को जितना जाना था आज और थोडा जान कर ख़ुशी मिली. माँ से मिलाया, सभी फोटो जानदार और शानदार हैं. करीब होने का अहसास गहराया.
जवाब देंहटाएंग़ज़ल की शुरुवात दादी अम्मा से लेते हुए, आम इमली फूल तितली पूरा गाँव-उपवन घुमा दिया.
चांदनी और दुपहरी का प्रयोग बिलकुल अलग और ख़ास ध्यान खींच रहा है.
बन गयी है अब तो माज़ी... में पता नहीं एक दर्द सा महसूस रहा है जो हमने खोया है अब गाँव जाकर भी वो नहीं मिलता. ये सब समय की अबूझ लीला है.
शाम आँचल, रात काजल, सुबह उसका था तबस्सुम... में जिस प्रकार प्रतिकात्मक चित्रण हुआ है ये अर्श भाई का अपना अंदाजे बयाँ है. ख़ूबसूरत ग़ज़ल.
आम के पेड़ों ने जाने क्या मधुर संगीत छेड़ा --
जवाब देंहटाएंदादी अम्माँ की तरह थी -झूठी- मूठी डांट जैसी --
वाह अर्श भाई -कमाल कर दिया -बधाई
आभार परिचय का, सुन्दर गज़ल।
जवाब देंहटाएंअर्श जी दाद कबूलिये..बहुत ही सुंदर शेर हमें बचपन की वादियों की सैर करने में सक्षम है.
जवाब देंहटाएंदादी अम्माँ की तरह थी........
पेड़, इमली, तितली उफ़! यह बचपन फिर याद की वादी में ले जा रहा है
देवी नागरानी
कमाल की बातें कमाल का अंदा! वाह! गर्मी की गर्मी और गर्मी का अंदाज़-ए-बयाँ! वाह!
जवाब देंहटाएंचार चार शेरों पर गुरू जी की दाद ??? अरे गुरू जी कहाँ इसे इतना भाव दे रहे हैं ? अब तो तैयार रहिये बैंगनी लड़कियों और नारंगी हुस्न सुनने को।
जवाब देंहटाएंठीक है कि महुए वाला शेर भूल से बहुत ही ज्यादा अच्छा बन गया है, मगर इतना भी क्या चढ़ाना इसे कि ये सीधे महवे की फुनगी पर जा बैठे और उतरे ही ना।
आम के पेड़ की मधुर तान पर नाच.... अद्भुत कल्पना कर ली लड़के ने। लेकिन ठीक है, इस बात की बड़ाई कर दें तो नाचने ही नही लगेगा। अभी तो बस बाजा ही बजा रहा है।
शाम आँचल, रात काजल ये शेर भी बहुत खूबसूरत है, मगर बात तो तब बने जब जितनी सुंदरता से दोपहरी का बयान हुआ है, उतनी ही सुंदर भौजाई ढूँढ़ के लाये मेरे लिये.. शाम आँचल, रात काजल वाली.....!!
माँ के साथ फोटो बहुत प्यारी हैं।
GOD BLESS YOU
बहुत खूब, गजल और प्रस्तुति दोनों सुंदर।
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बाबूजी, न लो इतने मज़े...
चलते-चलते बात कहे वह खरी-खरी।
आप सभी का प्यार और आशीर्वाद सर आँखों पर ! इतनी मुहब्बत जब मिलती है तो और से और बेहतर लिखने की प्रेरणा बरबस आ जाती है ! ये सब गुरु देव के आशीर्वाद और उनके मार्गदर्शन का ही प्रतिफल है ! सारा श्रेय गुरु जी को जाता है ! वेसे चार शे'र पसंद करने पर कुछ लोग अपनी ख़ुशी छिपा नहीं पा रहे ! :)
जवाब देंहटाएंप्रकाश ने तो बचपन याद दिला दिया....वाह!!! क्या खूब गज़ल कही है. बधाई.
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