तो आज हम गर्मियों की तरही के समापन तक आ गये हैं. पूरे डेढ़ माह से ये तरही मुशायरा चल रहा था. और इस कारण कि इस बार हमने सभी शायरों का व्यक्तिग परिचय जाना उनके बारे में बात की, मुशायरे की समय अवधि कुछ लम्बी हो गई. लेकिन ये भी काम ज़ुरूरी था. जो लोग हमारे साथ हैं उनके बारे में हम जानें पहचानें यही तो दायरे को फैलाने का सही तरीका है. जैसा की पहले से तय था कि शनिवार को हमें समापन करना है, तो उस अनुरूप ही काम हो रहा है. ये पूरा सप्ताह तरही के नाम रहा, और सप्ताह भर में हमने कई सारी ग़ज़लों का आनंद लिया. आज भी दो ग़जल़ों के साथ हम समापन कर रहें हैं तरही मुशायरे का.
ग्रीष्म तरही मुशायरा
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी
आइये पहले सुनते हैं आदरणीय देवी नागरानी जी से उनकी एक बहुत ही सुंदर ग़ज़ल,
देवी नागरानी जी का जन्म 11 मई 1949 को कराची (वर्तमान पाकिस्तान में) में हुआ और आप हिन्दी साहित्य जगत में एक सुपरिचित नाम हैं. आप की अब तक प्रकाशित पुस्तकों में "ग़म में भीगी खुशी" (सिंधी गज़ल संग्रह 2004), "उड़ जा पँछी" (सिंधी भजन संग्रह 2007) और "चराग़े-दिल" (हिंदी गज़ल संग्रह 2007) शामिल हैं. इसके अतिरिक्त कई कहानियाँ, गज़लें, गीत आदि राष्ट्रीय स्तर के पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं. आप वर्तमान में न्यू जर्सी (यू.एस.ए.) में एक शिक्षिका के तौर पर कार्यरत हैं.
तरही ग़ज़ल
आग जैसी तपतपाती गर्मियों के ये दुपहरी
क्या अजब तांडव रचाती गर्मियों की ये दुपहरी
अपनी लू के ही थपेड़े गोया कि खाने लगी है
पानी - पानी गिड़गिड़ाती गर्मियों की ये दुपहरी
काले चश्मे में छुपी आँखें तो उसको घूरती हैं
नज़रें तब उनसे चुराती गर्मियों की ये दुपहरी
गर्मियों की छुट्टियों में जो पहाड़ों पर गये हैं
उनको पास अपने बुलाती गर्मियों की ये दुपहरी
धूप के तेवर से उसके भी पसीने छूटते हैं
हो भले नखरे दिखाती गर्मियों की ये दुपहरी
ऐसा बरसो बादलो मेरा भी आँचल भीग जाए
अपना दुःख रो-रो सुनाती गर्मियों की ये दुपहरी
आँख की जो किरकरी उसको समझ बैठे हैं ` देवी `
आँखें क्या उनसे मिलाती गर्मियों की ये दुपहरी
धूप के तेवर से उसके भी पसीने छूटते हैं हो भले नखरे दिखाती, में स्वयं गर्मियों की दुपहरी को सुंदर तरीके से कटघरे में घेरा है देवी जी ने. और एस बरसो बादलों मेरा भी आंचल भीग जाए में गर्मियों की दुपहरी की गुहार को बहुत अच्छे तरीके से शब्द दिये हैं. अपनी लू के और गर्मियों की छुट्टियों जैसे प्रभावी शेर भी ग़ज़ल का सौंदर्य बढ़ा रहे हैं.
श्री शेष धर तिवारी जी
मैं भदोही जिले के एक गाँव में एक अध्यापक की संतान के रूप में 16-07-1952 को पैदा हुआ. मिट्टी के बने कच्चे मकान में पला बढ़ा. प्रारंभिक शिक्षा भी गाँव में ही हुई. पिताजी कि साहित्यिक रूचि प्रारम्भ से ही मेरे लिए प्रेरणा का श्रोत रही और बचपन में उन्ही के संरक्षण में टूटा फूटा लिखना प्रारंभ किया. धर्मयुग में अपनी एक छोटी सी रचना को जिस दिन पहली बार छपी हुई देखा वह दिन मेरे लिए एक महान उपलब्धि का दिन था. 1972 में बी एससी करने के बाद पंतनगर के प्रोद्योगिकी संस्थान से 1977 में युनिवर्सिटी आनर के साथ मेकेनिकल इंजीनियरिंग में बी टेक किया और अपने ही कालेज में सहायक शोध अभियंता के रूप में कार्य प्रारम्भ किया. मई 1978 में स्टील अथारिटी आफ इंडिया में चुनाव हुआ जहां मैंने दिसंबर 1981 तक कार्य किया. पारिवारिक कारणों से मैंने नौकरी छोड़ दी और तब से मैं इलाहबाद में अपना ब्यापार कर रहा हूं. 1993 में मैंने स्वाध्याय से कंप्यूटर सीखना प्रारम्भ किया और 1997 में डाटाप्रो का फ्रैंचाइजी बना और 2003 तक सेंटर डाइरेक्टर रहते हुए इसका संचालन किया. इस बीच मैंने अपने तीन साफ्टवेयर बनाए. वर्तमान में मैं अपनी कंपनी त्रिवेणी मार्केटिंग प्रा. लिमिटेड का प्रबंध निदेशक हूँ और साथ ही एक सोसल नेटवर्किंग साईट दैट्स मी का भी संचालन कर रहा हूँ. पिछले 20 वर्षों से मैं समन्वय संस्था का संस्थापक सदस्य हूँ और वर्तमान में अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मलेन की उत्तर प्रदेश इकाई का सचिव हूँ. गज़लों के क्षेत्र में मैं अभी एक विद्यार्थी हूँ और किसी से भी कुछ सीखने को उत्सुक रहता हूँ. निवास – इलाहाबाद, संपर्क 09889978899, http://thatsme.in, triveni@thatsme.in
तरही ग़ज़ल
सुर्ख होठों को सुखाती गर्मियों की वो दुपहरी
आग सी ले ताप आई गर्मियों की वो दुपहरी
वो लिपे कमरे की ठंढक और सोंधी सी महक भी
बंद हो कमरे में काटी गर्मियों की वो दुपहरी
जो सुराही जल पिलाती थी हमें ठंढा, उसे भी
थी पसीने में भिंगोती गर्मियों की वो दुपहरी
ज़िंदगी की आग में तप के जो सोना हो चुका है
क्या असर उस पर दिखाती गर्मियों की वो दुपहरी
फूल टेसू के खिले लगते थे दावानल सरीखे
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी
जो सुराही जब पिलाती थी हमें ठंडा उसे भी थी पसीने में भिगोती गर्मियों की वो दुपहरी, बहुत अच्छा शब्द चित्र रचा है इस शेर में. जिंदगी की आग में तप के जो सोना हो चुका है में इंसानी हौसलों का बहुत अच्छे तरीके से अभिव्यक्ति मिली है. लिपे कमरे की सौंधी महक ने तो मानो ननिहाल की सैर करवा दी है.
तो आनंद लीजिये समापन की इन ग़जल़ों का और मिलते हैं अगले तरही मुशायरे में.
देवी नागरानी जी ने बहुत बढ़िया शेर कहे हैं. "धूप एक तेवर से उसके भी पसीने छूटते है." बहुत ही सुंदर बन पड़ा है.और फिर "पानी पानी गिडगिडाती","गर्मियों की छुट्टियों में.." ये मिसरे तो कमाल हैं.
जवाब देंहटाएंशेषधर तिवारी जी ने भी कमाल किया है. "जो सुराही जल पिलाती थी हमें ठंडा उसे भी थी पसीने में भिगोती.." बहुत ही सुंदर है और हासिले गज़ल शेर है.
दाद कबूल करें.
बहुत ही खूबसूरत ग़ज़लें कही हैं दोनों ही रचनाकारों ने।
जवाब देंहटाएंऐसा बरसो बादलों वाला शे’र तो गजब का है। इस सुंदर ग़ज़ल के लिए नागरानी जी को बहुत बहुत बधाई।
वो लिपे कमरे....
जिंदगी की आग......
जो सुराही...
ये अश’आर तो कहर ढा रहे हैं। हार्दिक बधाई शेषधर जी को इस ग़ज़ल के लिए।
@देवी नागरानी जी
जवाब देंहटाएंमैं सोच ही रहा था कि देवी नागरानी जी की ग़ज़ल लास्ट बोल होगी और सही रहा| आप की लेखनी के बारे में क्या कहना| ग़ज़ल जिस नये रास्ते पर चल पड़ी है, उसे बखूबी अपनाया है आपने भी|
गर्मियों की छुट्टियों में............... मज़ा आ गया.......... इस की मुझसे बेहतर तारीफ शायद नीरज भाई करेंगे|
काला चश्मा............ लो भाई एक और नगीना जड़ गया इस तरही में|
ऐसा बरसो बादलो............ हाए हाए हाए............ये हुई ना बात| मुंबई में तो बरखा रानी की कृपा हो ही गई है, अब देश के बाकी हिस्सों में भी होनी ही चाहिए|
नागरानी जी, 'महर्षि' जी आपकी तारीफ़ यूँ ही नहीं करते| हमारी तरफ से ढेर ढेर बधाइयाँ|
@तिवारी जी
तिवारी जी को जब से जाना है, एक अलग तरह का व्यक्तित्व हैं ये| कुछ ही लोगों को पता होगा कि मौत को मात दे चुका ये बंदा [आद. तिवारी जी] कुछ भी करने को तैयार रहता है| आप की ग़ज़ल के साथ इस तरही का समापन हुआ है| तिवारी जी को लंबे लंबे कमेंट पसंद नही हैं - फिर भी इतना तो ज़रूर कहूँगा - एक तरफ लिपे कमरे की ठंडक और दूसरी ओर टेसू-दावानल वाली मंज़र कशी देख कर दिल गार्डेन गार्डेन हो गया|
@पंकज भाई
आप को इतने सुंदर, सार्थक और यादगार आयोजन के लिए बहुत बहुत बधाई| अगली तरही की प्रतीक्षा रहेगी| साथ ही 'ग़ज़ल का सफ़र' पर भी, इस दरम्यान, कुछ हो जाए तो हम सब का कुछ भला हो|
आदरणीया देवी जी की ग़ज़ल इस तरही में आ ही गयी अंतत;
जवाब देंहटाएंपानी - पानी गिड़गिड़ाती गर्मियों की ये दुपहरी, विशेष पसंद आये.
--
शेषधर तिवारी जी को पहली बार सुना और बहुत प्रभावित किया उन्होंने.
थी पसीने में भिंगोती गर्मियों की वो दुपहरी
आखरी शेर में जिस प्रकार गिरह लगाईं है. पसंद आया ये अंदाज.
टिप्पणी बाद में दूँगा, पहले ये बताईये भभ्भड़ कवि भौंचक्के कहॉं हैं। उनके बिना तरही समाप्त नहीं मानी जायेगी।
जवाब देंहटाएंदेवी नागरानी जी तो ज्ञात सशक्त हस्ताक्षर हैं ही और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित हैं, यह ग़ज़ल उनकी ग़ज़ल क्षमता का एक और उदाहरण है जिसमें बड़ी खूबसूरती से काफि़या में विस्तारकर 'ती' पर स्थापित किया गया है।
जवाब देंहटाएंशेषधर जी की ग़ज़ल खूबसूरत तो है ही, उसमें से गर्मियों के साथ जि़ंदगी की आग के तेवर बहुत ही खूबसूरत बन पड़े हैं।
अपनी लू के ही थपेड़े ... बहुत ही संवेदनशील शेर है ... देवी जी की ग़ज़ल में अनेक मंज़र उतारे हैं इस दोपहरी के ... हर शेर निहायत खोबड़ूसट है .... और वैसे उस्तादों की ग़ज़लों आ मज़ा कुछ और ही होता है ....
जवाब देंहटाएंजिंदगी की आग में .... शेष धर जी की ये ग़ज़ल भी इसी आग में ताप कर निकली है ... बहुत कमाल के शेर बांधें हैं ... इस लाजवाब ग़ज़ल के लिए बौट बहुत बधाई ... गुरुदेव ये समापन श्रंखला भी कमाल की है ... अभी तो धमाकेदार ग़ज़ल की उत्सुकता बढ़ती जा रही है ...
आदरणीया देवीनगरानी जी की-
जवाब देंहटाएंऐसा बरसो बदलों मेरा भी आंचल भीग़ जाये,
अपना दुख रो-रो सुनाती गर्मियों की ये दुपहरी।
तिवारी जी की
ज़िन्दगी की आग में तप के जो सोना हो चुका है,
क्या असर उस पर दिखाती गर्मियों की वो दुपहरी।
बहुत ही ख़ूबसूरत लगे। आप दोनों को मुबारकबाद।
अपनी लू के ही थपेड़े गोया कि खाने लगी है
जवाब देंहटाएंपानी - पानी गिड़गिड़ाती गर्मियों की ये दुपहरी
ऐसा बरसो बादलो मेरा भी आँचल भीग जाए
अपना दुःख रो-रो सुनाती गर्मियों की ये दुपहरी
आँख की जो किरकरी उसको समझ बैठे हैं ` देवी `
आँखें क्या उनसे मिलाती गर्मियों की ये दुपहरी
वाह वाह वाह,,, इन तीन शेरो के तो क्या कहने सुबह से बार बार पढ़ रहा हूँ
तरही मुशायरे का ऐसा पुनीत समापन हो रहा है कि, वाह मन प्रसन्न हो गया
चित्रों ने तो पहले अंक से अब तक बंधे रखा है
गुरुदेव आपकी प्रस्तुति की जितनी तारीफ करू कम है
तिवारी जी को पहली बार तरही मुशायरे में पढ़ रहा हूँ
जवाब देंहटाएंसबसे पहले तो बहुत बहुत स्वागत एवं अभिनन्दन
आपकी गज़ल पढ़ कर तो यही लगता है कि अब तक आप हम सभी से क्यों रूठे हुए थे जो तरही में अपनी ग़ज़ल नहीं भेजते थे
हर एक शेर पसंद आया
मेरे लिए यह शेर हासिले गज़ल शेर है, बहुत उम्दा शेर कहा है,
ज़िंदगी की आग में तप के जो सोना हो चुका है
क्या असर उस पर दिखाती गर्मियों की वो दुपहरी
आशा करता हूँ तरही आयोजन में नियमित गज़ल पढ़ने को मिलेगी
आभार
अब और इंतज़ार नहीं होता ....>>>> 7x7
जवाब देंहटाएंमेरा पहला कमेन्ट कहाँ गया ? :(
जवाब देंहटाएंअपनी लू के ही थपेड़े गोया कि खाने लगी है
जवाब देंहटाएंपानी - पानी गिड़गिड़ाती गर्मियों की ये दुपहरी
ऐसा बरसो बादलो मेरा भी आँचल भीग जाए
अपना दुःख रो-रो सुनाती गर्मियों की ये दुपहरी
आँख की जो किरकरी उसको समझ बैठे हैं ` देवी `
आँखें क्या उनसे मिलाती गर्मियों की ये दुपहरी
वाह वाह वाह,,, इन तीन शेरो के तो क्या कहने सुबह से बार बार पढ़ रहा हूँ
तरही मुशायरे का ऐसा पुनीत समापन हो रहा है कि, वाह मन प्रसन्न हो गया
चित्रों ने तो पहले अंक से अब तक बंधे रखा है
गुरुदेव आपकी प्रस्तुति की जितनी तारीफ करू कम है
सुबीर जी, शानदार रही आप की "गर्मियों की दुपहरी" . इस कामयाब सफ़र के लिए बहुत-बहुत बधाई और धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंराकेश जी खंडेलवाल के गीतों से शुरू हुआ सफ़र देवी नागरानी और शेषधर तिवारी तक बहुत ख़ूबी से तय हुआ.
डाँ. आज़म, राविकांत, गौतम राजरिशी, दिगंबर नास्वा, अंकित, तिलक राज, कंचन सिंह चव्हान ,गिरीश पंकज, लावण्याजी, राणा प्रताप सिंह, नीरज गोस्वामी, निर्मला कपिलाजी , वीनस केशरी,इस्मत जैदी, सुलभ जायसवाल, डाँ. सुधा ढींगरा, विनोद कुमार, डाँ. माहक , देवी नागरानी और शेषधर जी ने 'गर्मियों की दुपहरी' को 'सन्नाटे ' में से निकाल कर भाँति-भाँति के आकर्षक रंगों से सुशोभित कर एक यादगार बना दिया है. आपकी अथक कोशिशो के लिए एक बार पुन: धन्यवाद. आपकी साहित्य साधना को सलाम.
दो लाईन सुनाने की इजाज़त चाहूँगा!
मुंबई के एक बेडरूम वाले फ्लैट की दास्तान :-
"सासजी मंदिर बहाने, छोड़ जाती जब अकेले,
ए सखी, ज़ालिम बड़ी थी गर्मियों की वो दुपहरी."
-mansoor ali hashmi
http://aatm-manthan.com
देवी जी कमाल कर दिया --
जवाब देंहटाएंऐसे बरसो बदलो मेरा भी आँचल भीग़ जाए
अपनी लू के थपेड़े गोया कि खाने लगी है .....
और शेष धर तिवारी जी --
जिंदगी की आग में तप के जो सोना हो चुका
जो सुराही जल पिलाती थी हमें...इसमें क्या उड़ान भरी है
बधाई ..देवी जी और शेषधर तिवारी जी दोनों को बधाई..
इस मंच को बरक़रार रखने का श्रेय मैं सुबीर जी को देती हूँ जो मन पसंद मिसरों को तरही के तौर पर यहाँ स्थापित कर देते है. इस गर्मोयों की दुपहरी ने तो वाकई में पसीने से तर -ब-तर कर दिया. क्या ज़िक्र करें इन दुश्वारियों का.? बस नैया पार पहुंची है आखिर...!!
जवाब देंहटाएंएक मिसरे के पीछे इतने मारामारी वो भी इन गर्मियों की दुपहरी में!! इस परिवार के सभी मित्रों को मेरी शुभकामनाएं
वीनस जी की और तिलक राज जी का बात का मैं भरपूर समर्थन करता हूँ ७x७ वाली ग़ज़ल के बिना तरही समाप्त नहीं मानी जाएगी और हम रोज यहाँ आकर आकर तब तक टिप्पणी करते रहेंगें, जब तक कि हमारी उँगली से लहू ना निकलने लग जाय।
जवाब देंहटाएंमैं सर्व प्रथम पंकज सुबीर जी को धन्यवाद देता हूँ कि इस मंच पर मुझे स्थान दिया. मैंने महसूस किया कि माननीया देवी नागरानी जी की गज़ल के साथ पोस्ट होने मात्र से मेरी गज़ल का वज़न कुछ बढ़ सा गया. वीनस जी को विशेष धन्यवाद क्योंकि यदि उन्होंने पूंछ मरोड़ी नहीं होती तो मैं तो बैठा जुगाली ही करता रहता.
जवाब देंहटाएंआप सभी गुणीजनो का मैं आभार व्यक्त करता हूँ. स्नेह बनाए रखें एवं मार्गदर्शन करते रहें.
सज्जन भैया, उंगली बचा के रखिये. अभी तो यह आगाज़ है.....आपको तो अभी बहुत लंबा सफ़र तय करना है.
7x7 का मुझे भी बेसब्री से इंतज़ार है.
भ(7) गुना(x) भ(7) = भौचक्के(77) अभी तक मंच पर नहीं पहुंचे. हम इन्तजार में बेहाल हो रहे हैं.
जवाब देंहटाएंदीदी देव नागरानी जी का जिक्र आते ही एक ममता मयी बड़ी बहन का चेहरा ज़ेहन में आता है...मुंबई में उनके साथ बिठाये पल जीवन के सबसे खूबसूरत पलों में शुमार होते हैं. उनका अपनापन प्यार और स्नेह भुलाये नहीं भूलता. वो जितना अच्छा कहती हैं उतनी ही अच्छी तरह से तरन्नुम में सुनाती भी हैं . उन्हें तरन्नुम में रूबरू बैठकर सुनना एक ऐसा अनुभव है जिसे शब्दों में बयाँ नहीं किया जा सकता.
जवाब देंहटाएंपानी पानी गिड़ गिडाती...काले चश्में में छुपी....अपना दुःख रो रो सुनाती...और..आँख की जो किरकिरी...जैसे मिसरे सिर्फ और सिर्फ देवी दीदी ही कह सकती हैं...तरही की इस से बेहतरीन समापन की कल्पना भी नहीं की जा सकती.
शेष धर तिवारी जी की ग़ज़ल ताज़े हवा के झोंके जैसी है... इन्हें पहले कभी पढने का मौका नहीं मिला लेकिन अब ये अब तय कर लिया है के इन्हें अब, जब जहाँ पढने का मौका मिला उसे छोड़ा नहीं जाएगा. इनकी ग़ज़ल पढ़ कौन कहेगा के ग़ज़ल के विद्यार्थी हैं ? ये तो उस्ताद हैं. वो लिपे कमरे की ठंडक...जो सुराही जल पिलाती...फूल टेसू के खिले...जैसे शेर कोई उस्ताद ही कह सकता है. उम्मीद है इनकी और भी ग़ज़लें शीघ्र ही पढने को मिलेंगी.
अंत में आपको कोटिश बधाई क्यूँ की आपके प्रयासों से इस बार जैसी गर्मियां यादगार बन गयी हैं. गर्मी के अनेकों रंगों से सजी धजी ग़ज़लों और ग़ज़लों से मेल खाते अद्भुत चित्रों ने जो समां बंधा है वो अकल्पनीय और अद्भुत था. इस से बेहतर गर्मियों की सौगात भला क्या होगी.
नीरज
बिना ७x७ के हम नहीं उठेंगे मुशायरे से। चाहे जो हो जाय।
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