सप्ताह के साथ समापन करना है तरही को और सारी की सारी पोस्ट शेड्यूल करके रख दी गईं हैं. किसी भी प्रकार से इस सप्ताह समापन करना है. नवीन जी ने पूछा है कि ये सात गुणा सात क्या कोई नई बहर है. तो भभ्भड़ कवि का कहना है कि नई तो हो ही नहीं सकती क्योंकि सबको बहर तो यही रखनी है, तो फिर ये सात गुणा सात क्या है, चलिये थोड़ा सा तो इंतज़ार कीजिये.
ग्रीष्म तरही मुशायरा
और सन्नाटे में डूबी गरमियों की वो दुपहरी
आज हम तरही में सुनने जा रहे हैं सुलभ जायसवाल की एक ग़जल. सुलभ ने सही मायनों में बहर पे ग़ज़ल कहना अभी पिछली दो तरही से ही शुरू किया है, लेकिन मुझे लगता है कि जल्द ही सुलभ को वो पकड़ आ गई है जिसकी ज़रूरत होती है, बाकी तो करत करत अभ्यास के.........
सुलभ जायसवाल
परिचय:
जन्म 31 अगस्त, 1983, को अररिया, बिहार में हुआ. कंप्यूटर साइंस में स्नातक एवं पेशे से सोफ्टवेयर प्रोग्रामर (सूक्ष्मतंत्र विशेषज्ञ) निजी क्षेत्र दिल्ली में कार्यरत. ब्लॉग है "सतरंगी यादों के इंद्रजाल" http://sulabhpatra.blogspot.com/ . हिंदी के अलावा ऊर्दू, भोजपुरी और नेपाली गीत पसंद. नए नए शहरों में घूमना और हर प्रदेश के इतिहास और संस्कृति को जानने समझने की इच्छा . शैक्षणिक एवं सामजिक गतिविधियों में हाथ बंटाना अच्छा लगता है. बिहार विकास में सुकृति सोसायटी के माध्यम से युवाओं के लिए तकनिकी एवं प्रबंधन प्रशिक्षण कार्य. मैं उच्च शिक्षा पाना चाहता था. ठीक से पढ़ न पाया करियर के तीन-चार साल खराब हुए. पर मैं खुश हूँ, कि मेरे पास साहित्य पठन पाठन और लेखन का सहारा था. इस दौरान कभी अपने आदर्शों और मूल्यों के साथ समझौता नहीं किया. समाज के लिए कुछ अच्छा करने का सपना है सो लगा हुआ हूँ. अररिया, पटना, पुर्णिया, कटिहार, दिल्ली बहुत संघर्ष करते हुए कंप्यूटर की पढ़ाई पूरी की पिछले चार सालों से दिल्ली में कठीन रास्तों से गुजरने के बाद अब जाकर किसी अच्छी जगह सोफ्टवेयर इंजीनियरिंग की नौकरी कर रहा हूँ.
पता: चित्रगुप्त नगर, स्टेशन रोड, अररिया (बिहार)
चलभाष: 9811146080, ईमेल: sulabh@sukriti.co.in | sulabh.jaiswal@gmail.com
तीनों भाई बहन, और मां
छोटे से शहर अररिया में 15-20 अप्रैल के बाद चढ़ने वाली गर्मी जून के पहले सप्ताह में ही भीषण बारिश की चपेट में आकर ख़त्म हो जाती है. जुलाई-अगस्त तक तो मामला बाढ़ के नजदीक पहुँच जाता है. जितने शरारत, खेलकूद, घुमक्करी हमने गर्मियों के मौसम में किये वो सारे जेहन में संजो कर रक्खे हैं. हमारे बाड़ी और पड़ोस के बाड़ी (घर के पिछे के उपवन को बाड़ी बोलते हैं) में सपेता (चीकू) के पेड़ लगे थे. जिसमे झूले डाल बरसो बरस झूले. गर्मियों में हम घर के बच्चे किरायेदार के बच्चे भैया समेत कच्चे सपेता तोड़ उन्हें जमीन में गाड़ देते तीन दिन बाद पके मीठे फल की हिस्सेदारी होती. अक्सर छोटे बड़े साइज़ के फल को लेकर मारपीट झगड़ा भी होता.
ननिहाल में
,रचना प्रक्रिया
कविताएं तुकबंदी तो तेरह चौदह की आयु में लिखना शुरू किया, लेकिन जब टेलीविजन और लोकल मंचों पर वरिष्ठ हास्य कवियों, शायरों को सुना तो मैं बहुत प्रभावित हुआ. क्रिकेट, कबड्डी, शतरंज, कैरम सब छूटता गया और इंटरमीडियट विज्ञान के साथ साथ लेखन शुरू हो गया. आलेख, निबंध, व्यंग्य, हास्य, गीत, शायरी, पैरोडी लिक्खा तो बहुत कुछ. परन्तु इधर समझ में आया कि दुरुस्त शेर और ग़ज़ल कहना कितनी बड़ी कला है. मैं जब गंभीर हो कर बैठता हूँ, मुझसे कुछ लिखा नहीं जाता. राह चलते किसी के विचारों के समर्थन अथवा विरोध में, अकेलेपन के भाव में या सामूहिक उल्लास में मेरी लेखनी स्वतः चल पड़ती है. चाहे जिस विधा में हो मैं अपनी अपनी कृति से प्रेम करता हूँ. मेरी रचना मुझे जीने का आधार देती है. अपनी जिम्मेदारियों पर खडा उतरने को प्रेरित करती है. ग़ज़ल कहने के मामले में मैं अभी कच्चा हूँ मगर मैं बहुत खुश हूँ कि मुझे आज यहाँ तरही मुशायरे में दिल की बात कहने का मौका मिला.
गांव जो अब भी याद आता है
तरही ग़ज़ल
टीन की छप्पर जलाती गर्मियों की वो दुपहरी
ताल झरने सब सुखाती गर्मियों की वो दुपहरी
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आम लीची बेर बरगद संग आवारा लड़कपन
"और सन्नाटे में डूबी, गर्मियों की वो दोपहरी"
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भोर दातुन दूध-रोटी, शाम शरबत, रात गपशप
और खर्राटे में डूबी, गर्मियों की वो दोपहरी
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गाँव केसरिया औ' टीकम याद आते हैं अभी भी*
भूत डायन, बैलगाड़ी, गर्मियों की वो दोपहरी
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स्वेद भीगा जिस्म था पर काम तो फिर भी था करना
मील जैसे वात-भट्टी, गर्मियों की वो दुपहरी
(मील=फैक्ट्री)
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छोटकी सी एक बकरी, ढूंढती फिरती थी मां को
और उसका दुख बढ़ाती , गर्मियों की वो दुपहरी
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पूछ मत हाले जिगर, जाऊं कहाँ तुझ बिन, करूँ क्या
है तसव्वुर में भटकती, गर्मियों की वो दुपहरी
(केसरीया, टीकम - मुजफ्फरपुर, मोतिहारी जिले में दादा दादी का गाँव हैं)
सुलभ को ध्यान में रख कर कहा जाये तो बहुत बेहतर शेर कहे हैं इस बार सुलभ ने. हर बार तरही में केवल उपस्थिति दर्ज करवाने के लिये सुलभ का आगमन होता था लेकिन इस बार गिरह का शेर ही चौंकाने वाले तरीके से बांध कर सुलभ ने बात दिया है कि अब केवल उपस्थिति नहीं दर्ज होगी बल्कि अब अपने होने का एहसास भी दिलाया जायेगा. एक शेर आनंद का कह दिया है सुलभ ने विशेषकर मिसरा सानी और खर्राटों में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी. इसमें मिसरा उला के साथ कमाल का तादात्म्य स्थापित किया है.
तो आनंद लीजिये ग़ज़ल का और इंतज़ार कीजिये अगली ग़ज़ल का.
सुन्दर परिचय, सुन्दर अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंसुलभ ने वाकई बहुत बढ़िया गज़ल कही है. मतला बहुत सुन्दर है. गिरह वाला शेर बहुत प्यारा लगा. "खर्राटे में डूबी" वाले मिसरे ने चौंका दिया. शेर बहुत सुंदर बना है. "भूत डायन बैलगाड़ी.." बहुत उम्दा."काम तो फिर भी था करना" वाह. बहुत ही सुंदर मकते के साथ गज़ल का अंत... दाद कबूल करें.
जवाब देंहटाएंएक बात कहना तो भूल ही गया. अब मुझे कोई गधा कहेगा तो मैं बुरा नहीं मानूंगा, क्योंकि गधे वाली तस्वीर को देख कर पता चलता है गधे भी अक्ल से काम लेते हैं!
जवाब देंहटाएंभूत डायन ----- सुलभ ने तो मेरे मन की बात कह दी मुझे भी ऐसी ही लगती है गर्मियों की दुपहरी।बस एक ही आकर्शण होता है गर्म्मिओं की दुपहरी का वो भी बचपन मे छुट्टियों मे दादके नानके जाना। सुलभ ने वो याद दिला दिया।
जवाब देंहटाएंभोर दातुन ----
छोटकी सी बकरी----
बहुत अच्छे लगे ये शेर। बधाई सुलभ को।
सुलभ एक होनहार बच्चा है ये मुझे मालूम था लेकिन वो इतना होनहार है ये मुझे नहीं पता था...वो इस तरही में कुछ ऐसे शब्द ले आया है जो पहले नहीं आये थे...हमारे बचपन की यादों को और विस्तार मिला है उसकी इस तरही ग़ज़ल से...शाबाश सुलभ...आज सामने होते तो पीठ थपथपाता...कोई बात नहीं जब सामने होंगें तभी थपथपाऊंगा...भोर दातुन दूध रोटी...वाला मिसरा मिश्री की मिठास लिए हुए है...गिरह लगाने का अंदाज़ भी बस उफ्फ्फ यूं माँ...टाइप का है... ग़ज़ल में भूत डायन बैलगाड़ी, छोटकी सी एक बकरी जैसे गैर रिवायती ठेठ देशज लफ्ज़ इतनी कारीगरी से पिरोना आसान नहीं होता लेकिन आपने कर दिखाया है और बहुत खूब कर दिखाया है...इसके लिए ढेरों दाद भिजवा रहे हैं आपको...वसूल कर रसीद भेज देना...
जवाब देंहटाएंनीरज
पुनश्च: गुरुदेव मेरा एक नितांत गोपनीय ट्रिक फोटोग्राफी वाला चित्र आपने बिना मेरी इज़ाज़त के इस पोस्ट में छाप दिया है आप पर मान हानि का दावा ठोकने का विचार कर रहा हूँ...अब आपने छाप दिया तो छाप दिया लेकिन असली दुःख की बात है के इस फोटो में लोग मेरी असलियत नहीं पहचान पा रहे और मुझे वो समझ रहे हैं जो मैं हूँ नहीं :-)) आप ही बताएं धूप से बचने के लिए पाइप में खड़े होने का विचार मेरे आलावा किसी और के दिमाग में आ सकता है?
नीरज
देशज शब्दों के प्रयोग ने इस ग़ज़ल को वाकई अलग बना दिया है। कई मिसरे बरबस बाँध लेते हैं। इस ग़ज़ल के लिए सुलभ जी को बहुत बहुत बधाई।
जवाब देंहटाएंbahut sunder gajal desi shabdon ka upyog karane se aek alag hi tarah ki ban padi hai.bahut badhaai aapko.
जवाब देंहटाएंplease visit my blog.thanks.
एक ही बार मिलना हुवा सुलभ जी से ... पर उनका सहज और हँसमुख व्यक्तित्व प्रभाव छोड़ता है .. आस पास बिखरे हुवे शब्दों को उठा कर बहुत ही लाजवाब ग़ज़ल की बंदिश की है सुलभ जी ने ... जितनी भी दाद दी जाय कम है ... भोर दातुन .. दूध रोटी .... ये शेर बहुत ही लाजावाब है ... जे हो सुलभ जी ....
जवाब देंहटाएंवाह सुलभ भाई,
जवाब देंहटाएंउम्दा शेर कहें,
आपकी तरही ग़ज़ल अन्य तरही ग़ज़लों से बहुत हट कर है, कुछ शेर तो बहुत बहुत बहुत पसंद आये
दिली दाद कबूल करें
जिंदाबाद
लो भाई टीन छप्पर, खर्राटे, भूत, डायन और बैलगाड़ी जैसे शब्दों का शुमार भी हो गया|
जवाब देंहटाएं'मील' और 'छोटकी' जैसे शब्द प्रयोग ध्यानाकर्षित करते हैं| वात भट्टी के जरिए आपने मिल मजदूरों की पीड़ा को स्वर देने का प्रयास किया है|
गर्मियों की छुट्टियाँ और दादा-दादी का गाँव भाई किसे याद नहीं आएगा| सुलभ भाई ज़मीन से जुड़ी इस ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई|
गधे भी अक़्लमंद होते हैं भाई, यक़ीन न हो तो "पंकज सुबीर जी के द्वारा - इस पोस्ट के साथ लगाए गये - पाइप के अंदर खड़े हुए - गधे के चित्र को" देख लो :)))))))))))
भोर दातुन दूध रोटी, शाम शरबत, रात गपशप
जवाब देंहटाएंऔर खर्राटे में डूबी वो गर्मियों की वो दुपहरी।
सुन्दर ग़ज़ल सुलभ जी को बधाई।
बेहतरीन ग़ज़ल। आत्मीय परिचय ...
जवाब देंहटाएं@पंकज भाई
जवाब देंहटाएंमज़ाक तो नहीं कर रहे? कोई ग़ल्ती तो नहीं हो गयी ग़ज़ल चिपकाने में? वगैरह-वगैरह बहुत से सवाल पूछ सकता हूँ ये ग़ज़ल पढ़कर; मगर नहीं पूछूँगा। मुझे पूरा विश्वास है कि सब कुछ ठीक ठाक है और यह अविश्वसनीय सी घटना तो घट चुकी है। लेकिन ऐसा कहना भी ग़लत ही होगा क्यूँकि:
लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।
नन्ही चींटी जब दाना लेकर चलती है
चढ़ती दीवारों पर सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रग़ों में साहस भरता है
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।
आखिर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।
डुबकियॉं सिन्धु में गोताखोर लगाता है
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मुट्ठी खाली उसकी हर बार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।
असफलता एक चुनौती है इसे स्वीकार करो
क्या कमी रह गयी, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम संघर्ष का मैदान छोड़कर मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जयकार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।
हरिवंश राय बच्चन
बहुत बहुत बधाई सुलभ को।
सुलभ बहुत खूब..बधाई |
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
जवाब देंहटाएंकृपया पधारें
चर्चा मंच{16-6-2011}
aankhon me aansoon bhare aapke is ghazal ne...bus yaad aate wo beete pal aur yaad aati dopahri....!Bahot behtar likha hai Sulabh ji......aapke har ek pankti ne bus yaadon ke samander me dubki lagaayi hai...!
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूबसूरत गज़ल...
जवाब देंहटाएंभाई श्री सुलभ जी की बढ़िया ग़ज़ल पढ़कर प्रसन्नता हुई -
जवाब देंहटाएंसाथ मे गाँव के चित्र,
सपेता [ चीकू का नाम जो पहली दफे सुना :) ]
सभी अच्छे लगे ...
मा जी को सादर प्रणाम
सादर , स - स्नेह
- लावण्या
इस कदर मुश्किल बहर को कर दिया तुमने 'सुलभ',
जवाब देंहटाएंकितना शीतल जल पिलाती गर्मियों की ये दुपहरी.
http://aatm-manthan.com
सरल व्यक्तित्व का परिचय पाना बड़ा ही सुखद लगा...बड़ी प्रेरणा मिलती है इन व्यक्तित्वों की सुन...
जवाब देंहटाएंग़ज़ल तो लाजवाब बन पडी है...सभी के सभी शेर मन मोह लेने वाले हैं...