शुक्रवार, 17 जून 2011

मरमरी सफ्फाक सा तन इक सरापा नूर का सा खाहिशों के पर लगाती गर्मियों की वो दुपहरी.आइये आज सुनते हैं दो ग़ज़लें डॉ अजमल हुसैन और विनोद पांडे की.

जब हम क्रिकेट खेलते थे तो कहते थे कि ये लास्‍ट सेकेंड बॉल है, मतलब ये कि इसके बाद जो बॉल आने वाली है वो लास्‍ट बॉल है. उसी प्रकार से आज जो ये बॉल है ये भी लॉस्‍ट सेकेंड बॉल है इसके बाद अर्थात कल जो पोस्‍ट लगाई जायेगी वो ग्रीष्‍म तरही मुशायरे की समापन पोस्‍ट होगी ( यदि भभ्‍भड़ कवि भौंचक्‍के जोश में नहीं आये तो ) . पूरी की पूरी गर्मियां तरही के साथ कैसे बीत गईं पता ही नहीं चला.  चलिये आज सुनते हैं दो ग़जल़ें डॉ अजमल खान और विनोद पांडे से. विनोद कुमार पांडे ने  अपनी ग़ज़ल को ग़ैर मुरद्दफ़ तरीके से लिखा है.

ग्रीष्‍म तरही मुशायरा

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और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी

आइये पहले सुनते हैं डॉ अजमल खान माहक द्वारा लिखी गई एक सुंदर सी ग़ज़ल.

डॉ. अज़मल हुसैन ख़ान 'माहक'

( चित्र उपलब्‍ध नहीं )

पिछले मुशायरों में आप सभी की हौसला अफजाई और दुआओं के लिये मैं आप सभी का शुक्रिया अदा करता हूँ. मैं पेशे से भौतिक चिकित्सक हूँ , पूर्व में शिक्षण और चिकित्सकीय दोनों तरह के कार्यों में व्यस्त रहा हूँ , वर्तमान में चिकित्सकीय कार्य पर ध्यान दे रहा हूँ . मुझे लिखने का समय कम मिल पाता है , अधिकतर मैं मरीजों का इलाज करते हुए  , या फिर कुछ काम करते हुए ही लिखता हूँ , लिखते समय मैं किसी खास चीज़ को ध्यान नहीं रखता बस तकनीकी पहलु पर ध्यान रखता हूँ कि कम से कम गलती हो मूड और विचार तो खुद बखुद आते जाते हैं . मुझे अच्छा खाना, अच्छा संगीत, अच्छे साफ़ दिल लोग और प्राकृतिक सौंदर्य आकर्षित करता है  मैं ब्लॉग्गिंग में अपने एक परम मित्र "श्री अपूर्व शुक्ल जी"  के कहने पे आया , ब्लॉग भी बनाया पर मुझसे ब्लॉग्गिंग नहीं होती बहुत मुश्किल काम है. हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, पर्सियन,  अरेबिक, और गुजराती,  इन कुछ भाषाओँ का थोडा बहुत ज्ञान है और अधिक ज्ञान अर्जित करने के लिये प्रयासरत हूँ ,  मेरी तरही ग़ज़ल "सुबीर संवाद सेवा" के लिये हमेशा तैयार रहती है परन्तु हिंदी में टाइप करने में समय लगता है और मैं पिछड़ जाता हूँ , पिछली तरही में मैं इसी कारण से शामिल नहीं हो पाया था. समय सीमा मुझे परेशान करती है. इस वार की तरही ग़ज़ल को भेजते समय मन थोडा संशय में था कि पता नहीं आप सब लोग पसंद करेंगे कि नहीं?? पर बात मुसलसल ग़ज़ल की थी, और मौक़ा भी था , मूड भी था तो मैंने लिख दी और भेज भी दी. अब बस यही कहूँगा कि- "तीरे नज़र देखेंगे ज़ख्मे जिगर देखेंगे "
लखनऊ मोबाइल 09839011912              

तरही ग़जल़

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दिल की महमाँ याद भीनी गर्मियों की वो दुपहरी
इक हसीं धड़कन सुरीली गर्मियों की वो दुपहरी

यार के रुख पर पसीना उफ़ लटें बिखरी हुई थीं
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी.

मरमरी सफ्फाक सा तन इक सरापा नूर का सा
खाहिशों के पर लगाती गर्मियों की वो दुपहरी.

वो कशिश वो ज़ोर वो उनकी निग़ाहों का सुरूर
कान में कुछ गुनगुनाती गर्मियों की वो दुपहरी.

थी तपिश अन्दर कि बाहर होश पर काबू न था, उफ़
बेखुदी ही बेखुदी थी गर्मियों की वो दुपहरी.

लिख रहे थे इक फ़साना हम लबो रुखसार पर और
कह रही थी इक कहानी गर्मियों की वो दुपहरी.

धूप से जलती ज़मी को चाह थी पानी की "माहक"
प्यास ने लब पर सजा दी गर्मियों की वो दुपहरी.

              क्‍या कहूं और क्‍या न कहूं, इस ग़ज़ल के बारे में अंकित से काफी बार बात कर चुका हूं. इस ग़ज़ल को पढ़कर जाने क्‍या हो जाता है. विशुद्ध प्रेम पर लिखी हुई एक अनोखी ग़ज़ल है, जिसका कोई भी एक शेर अलग से कोट करना संभव ही नहीं है. नक्‍़क़ाशी करके तराशी गई है ये ग़ज़ल, बड़ी ही नफ़ासत से जालीदार नक्‍़क़ाशी का एक एक फूल तराशा गया है, इसलिये ही ये ग़ज़ल मुकम्‍मल रूप से ख़ूबसूरत बन पड़ी है.

आइये अब सुनते हैं विनोद कुमार पांडे की ये ग़ैर मुरद्दफ ग़ज़ल.

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विनोद कुमार पांडेय

प्रारंभिक शिक्षादीक्षा वाराणसी से संपन्न करने के पश्चात नोएडा के एक इंजीनियरिंग कॉलेज से एम.सी.ए. करने के बाद नोएडा में ही पिछले 3 साल से एक सॉफ़्टवेयर कंपनी मे इंजीनियर के पद पर कार्य कर रहा हूँ..खुद को गैर पेशेवर कह सकता हूँ,परंतु ऐसा लगता है की शायद साहित्य की जननी काशी की धरती पर पला बढ़ा होने के नाते साहित्य और हिन्दी से एक भावनात्मक रिश्ता जुड़ा हुआ प्रतीत होता है.लिखने और पढ़ने में सक्रियता 4 साल से,पिछले,हास्य कविता और व्यंग में विशेष लेखन रूचि,अब तक 50  से ज़्यादा कविताओं और ग़ज़लों की रचनाएँ,व्यंगकार के रूप में भी किस्मत आजमाया और सफलता भी मिली,कई व्यंग दिल्ली के समाचार पत्रों में प्रकाशित भी हुए और काफ़ी पसंद किए गये एवं नोएडा और आसपास के क्षेत्रों के कई कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ,फिर भी इसे अभी लेखनी की शुरुआत कहता हूँ और उम्मीद करता हूँ की भविष्य में हिन्दी और साहित्य के लिए हमेशा समर्पित रहूँगा.लोगों का मनोरंजन करना और साथ ही साथ अपनी रचनाओं के द्वारा कुछ अच्छे सार्थक बातों का प्रवाह करना भी मेरा एक खास उद्देश्य होता है .

ब्लॉग: http://voice-vinod.blogspot.com/ , जन्म स्थान: वाराणसी( उत्तर प्रदेश), कार्यस्थल: नोएडा( उत्तर प्रदेश)

तरही ग़ज़ल

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आ गई है ग्रीष्म ऋतु तपने लगी फिर से है धरती

और सन्नाटें में डूबी, गर्मियों की ये दुपहरी

आग धरती पर उबलने,को हुआ तैयार सूरज

गर्म मौसम ने सुनाई, जिंदगी की जब कहानी

चाँद भी छिपने लगा है, देर तक आकाश में अब

रात की छोटी उमर से, है उदासी रातरानी

नहर-नदियों ने बुझाई प्यास खुद के नीर से जब

नभचरों के नैन में दिखने लगी है बेबसी सी

तन पसीने से लबालब,हैं मगर मजबूर सारे

पेट की है बात साहिब कर रहे  जो नौकरी जी

देश की हालत सुधर पाएगी कैसे सोचते हैं.

ये भी है तरकीब अच्‍छी गर्मियों को झेलने की

जैसा कि विनोद ने खुद ने ही कहा कि अभी लेखन की शुरूआत है, लेकिन शुरूआत में भी कम से कम सुकून की बात ये है कि बात बहर में की जा रही है और शेरों में प्रभाव छोड़ने का माद्दा दिखाई दे रहा है. चांद भी छिपने लगा है देर तक या फिर नहर नदियों ने बुझाई जैसे शेर निकाल कर विनोद ने भविष्‍य के लिये संभावना जगाई हैं.

तो आनंद लीजिये दोनों ग़जल़ों का और इंतजा़र कीजिये कल की समापन किश्‍त का. 

 

 

20 टिप्‍पणियां:

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  2. एक होता है शायराना मिज़ाज़ और एक होता है साहिराना मिज़ाज़ जो कुछ यूँ होता है:
    संगेमरमर सा तराशा हुआ शफ़्फ़ाक बदन
    देखने वाले तुझे ताजमहल कहते हैं।
    अजमल जी को पहले भी पढ़ा है, उम्‍दा अश'आर कहते हैं। आज उनकी एक और उम्‍दा ग़ज़ल पढ़ने को मिली।
    साथ में विनोद जी की ग़ज़ल, पहली बाल पर छक्‍का। ग्रीष्‍म ऋतु जैसे कठिन शब्‍द समूह को ग़ज़ल में पिरो ले जाना आयान काम नहीं। तरही से हटकर भी पूरी तरह से तरही सी, उम्‍दा शब्‍द चयन और संयोजन।

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  3. सेकंड लास्ट बॉल ऐसी है तो लास्ट वाली कैसी होगी| विनोद भाई के प्रयास की प्रशंसा करनी होगी| कई सारे मिसरे कह रहे हैं कि बहुत कुछ है इनके पास, हमारे साथ बांटने के लिए|

    अजमल भाई की गजल के क्या कहने -
    हसीन और सुरीली धड़कन से शुरू हुई इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल में मरमरी शफ़फाक............ वाले शेर ने जैसे चार चाँद लगा दिये हैं| तरही की गिरह वाला शेर भी मस्त मस्त लगा|

    दोनों रचनाकारों को बहुत बहुत बधाई|

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  4. दोनों ही गज़ले अच्छी है.अजमल जी की गज़ल वाकई अद्भुत है. विनोद जी ने भी गैर मुरद्दफ़ गज़ल में कमाल किया है. अज़मल जी और विनोद जी दोनों को ढेरों दाद.

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  5. डाक्टर अजमल हुसैन जी के बारे मे जान कर बहुत अच्छा लगा। अगर उनके किसी एक शेर को कोट करूँ तो पूरी गज़ल के साथ नांइन्साफी होगी। इस लाजवाब गज़ल के लिये उन्हें बधाई। विनोद जी आजकल ब्लागजगत मे कम दिखाई देते हैं शायद गज़ल के सफर मे व्यस्त हैं। ुनकी गज़ल भी बहुत अच्छी लगी।उन्हें ह्भी बधाई। धन्यवाद आपका भी वाकई इस मुशायरे ने खूब रंग जमाया।

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  6. अज़मल हुसैन साहब की--
    लिख रहे थे इक फ़साना हम लबो रुखसार पर,
    कह रही थी कहानी गर्मियों की वो दुपहरी।
    बहुत ख़ूब लगी।

    पान्डेय जी का मतला बहुत अच्छ लगा ।
    आप दोनों को बधाई।

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  7. डॉ. अज़मल हुसैन ख़ान 'माहक' को बहुत बहुत बधाई इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए.
    गुरु जी जब भी इस बीच बात हुई तो अजमल साहब का ज़िक्र ज़रूर आया, गुरु जी कहते कि एक बहुत ही उम्दा ग़ज़ल लगेगी आखिरी में, हर शेर जैसे किसी हुनरमंद इंसान ने बड़े करीने से तराशा है. तब से उनकी तरही ग़ज़ल का इंतज़ार था और आज जाके ये इंतज़ार जाके पूरा हुआ.

    "दिल की महमाँ याद भीनी.................", मतला बहुत खूबसूरती से गढ़ा है, वाह वा.

    "मरमरी सफ्फाक सा तन इक सरापा नूर का सा ..............", शायरी एक नए आयाम पे जाती हुई.

    "वो कशिश वो ज़ोर वो उनकी निग़ाहों का सुरूर ...............", वाह वा

    "धूप से जलती ज़मी को चाह थी पानी की "माहक"
    प्यास ने लब पर सजा दी गर्मियों की वो दुपहरी."
    वाह वा
    पूरी ग़ज़ल ही बेमिसाल बनी है. ढेरों बधाइयाँ माहक साब को.

    विनोद जी की इन दो शेरों की बात ही कुछ अलग है,
    "चाँद भी छिपने लगा है, देर तक आकाश .......", उम्दा
    "नहर-नदियों ने बुझाई प्यास खुद के नीर से जब
    नभचरों के नैन में दिखने लगी है बेबसी सी" वाह वा

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  8. bahut sunder shabdon ke saath likhi shaandaar gajal.badhaai sweekaren.

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  9. दोनों ही ग़ज़लें बहुत अच्छी लगीं। अज़मल जी और विनोद जी को हार्दिक बधाई।

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  10. माहक़ साहब की ग़ज़ल को सुबह से कितनी ही बार पे चुकी हूँ।

    बार बार पढ़ा और लोगों को सजेस्ट किया पढ़ने को। हर शेर का अपना खुमार है। इसके बाद और कुछ कहा नही जा सकता और पढ़ा नही जा सकता.....!!

    ये बात सिर्फ टिप्पणी देने के लिये नही लिखी गयी, इस बात की सनद रहे।

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  11. मुझे ग़ज़ल के मुहावरे की समझ नहीं, पर घर में माहौल गज़लों का रहता था. इस लिए अच्छी ग़ज़ल का भरपूर आंनद उठाती हूँ.माहक साहब की ग़ज़ल आज अपने साथ बहा ले गई. एक अरसे बाद प्रेमाभिव्यक्ति की नज़ाकत, नफ़ासत और खूबसूरती पढ़ने को मिली.सच में आज मेरा दिन बना दिया. बधाई सिर्फ माहक साहब को ही नहीं बल्कि पंकज भाई को भी जिन्होंने इस ग़ज़ल को पढ़वाया.
    उन्होंने तरही सजाई तभी यह ग़ज़ल आई.

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  12. विनोद कुमार पांडये की ग़ज़ल भी बहुत अच्छी है ..बधाई .

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  13. विनोद कुमार पाण्डेय जी में एक अच्छी बात यह है कि बड़ी विनम्रता से कमियाँ स्वीकार करते हैं और अपनी लेखनी के प्रति जागरूक है। कभी इन्हें अहंकारी हो गुस्सा करते नहीं देखा। मुझे इनमें अपार संभावनाएँ दिखाई देती है।

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  14. अजमल हुसैन जी के व्यक्तित्व की तारीफ़ करूँ या उनके ग़ज़ल की. कुछ कह नहीं पा रहा हूँ.
    एक ही शब्द है "बेमिसाल"

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  15. विनोद जी की रचनाएं संवेदनशील और जागरूक करने वाली होती है.
    गर्मियों के मौसम को अच्छी तरह निभाया है आज यहाँ.

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  16. डॉक्टर अजमल साहब की एक एक शेर कमाल की है| मैं बहुत खुदकिस्मत समझता हूँ कि आज इतने बड़े शायर के साथ मेरी ग़ज़ल भी प्रस्तुत है| अजमल जी के हर शेर पर वाह निकलता है | गर्मी के मौसम की इतने खूबसूरत तरीके से पेश किया आपने| अच्छा लगा अजमल जी को बहुत बहुत बधाई|

    अब रही मेरी बारी मैने तो बस आप सभी से मिलें प्रेम से अभिभूत हूँ| जैसा की मैने पहले ही परिचय में लिखा है कि अभी ग़ज़ल लिखना सीख रहा हूँ बस यही सही है|

    इस ग़ज़ल को निखारने में पंकज जी का बहुत हाथ है| उनके प्यार और आशीर्वाद का कृतज्ञ हूँ| उन्होने अपनी मेहनत और लगन से तरही मुशायरे को जिस मुकाम पर ले आएँ है उसके लिए हम सब उनके आभारी है|

    गर्मी की इस शानदार मुशायरे के लिए पंकज जी को बहुत बहुत बधाई और मेरी ओर से सादर प्रणाम

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  17. अजमल साहब की प्रेम में डूबी बेहतरीन ग़ज़ल पढ़ने के बाद मूड कुछ बदलने लगा है इस तपती हुई गर्मी में भी .... जबरदस्त शेर हैं सभी इस ग़ज़ल के ...
    विनोद जी ने भी बहुत लाजवाब शेर कहे हैं .... उनके व्यंग के तो वैसे भी कायल हैं हम ... बहू बहुत बधाई विनोद जी को ...

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