तरही को लेकर एक बात तो अब ये लग ही रही हे कि हो सकता है एक दिन के अंतर के इस क्रम को अब रोज का ही करना पड़े । इसलिये क्योंकि अभी भी कई सारी ग़ज़लें प्रतीक्षा में हैं । और चूंकि अब गर्मियों के दिन कम ही शेष हैं इसलिये बरसात के पहले इस तरही को समापन भी करना है । एक दिन में एक ही शायर को लेने का जो तरीका है उससे कम से कम ये होता है कि उस शायर को पूरा अटेंशन मिलता है । खैर तो चलिये आज सुनते हैं सात समंदर पार से अपनी माटी की सौंधी महक लिये आई राजीव भरोल राज की ये ग़ज़ल सुनते हैं ।
ग्रीष्म तरही मुशायरा
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी
राजीव भरोल 'राज़'
परिचय:
अपना परिचय देने के लिए कुछ अधिक है ही नहीं. लिखने लगो तो (अमृता प्रीतम के शब्दों में..) एक रसीदी टिकट के पीछे सारा आ जाये ! मैं हिमाचल प्रदेश में पैदा हुआ और वहीँ पला बढ़ा. डैडी सरकारी कर्मचारी थे सो स्थानान्तरण होता रहता था. अत: कक्षा ५ तक स्कूल बदलते रहे और दोस्त भी. कक्षा ६ से मैं बोर्डिंग स्कूल (सैनिक स्कूल) चला गया. वहाँ पूर्व-निर्धारित दिनचर्या हुआ करती थी. किस समय खेलना है, पढ़ना है, सोना है खाना है, सब तय होता था. इसलिए गर्मियों की दोपहरों की बहुत अधिक यादें नहीं हैं. छुट्टियाँ होती थीं लेकिन घर आने पर कोई दोस्त नहीं होते थे जिन के साथ बिताए दिनों की कोई याद हो...गर्मियों कि जो यादें हैं वो बस सैनिक स्कूल में जाने से पहले की ही हैं जब कुछ समय मैं अपने गाँव में रहा.
आजकल अपने परिवार, जिसमें मेरी पत्नी, २ बेटियां और १ बेटा हैं, के साथ सैन फ्रांसिस्को के पास फ्रीमौंट नाम के शह्र में रहता हूँ. ओरेकल नाम की कंपनी में कार्यरत हूँ. पेशे से मैं एक इंजिनियर हूँ. इलेक्ट्रोनिक्स इंजिनियरिंग की डिग्री ली लेकिन अपनी इच्छा से एम्बेडिड सॉफ्टवेर का क्षेत्र चुना क्योंकी उसमें इलेक्ट्रोनिक्स और सॉफ्टवेर दोनों क्षेत्रों से जुड़ाव रहता है और मेरी दोनों में रूचि है.
गज़ल से लगाव कई सालों से है. स्कूल/कॉलेज के दिनों से ही गज़ल सुनना और पढ़ना बहुत अच्छा लगता था. दीवानगी इतनी हुआ करती थी उधार ले ले कर भी गज़ल के कैसेट खरीदे हैं. आज भी उन कैसेट्स का जखीरा मेरे ऑफिस में रखा हुआ है, हर कैसेट पर खरीदे जाने की जगह और तारीख लिखी हुई है. उन्हीं दिनों कहीं से उर्दू में लिखी गज़लों की किताबें मिलीं, उन्हें पढ़ने के लिए अपने एक दोस्त से उर्दू सीखी. हाँ खुद गज़ल कहने की कोशिश हाल ही में की है. श्री पंकज सुबीर जी के मार्गदर्शन में गज़ल कहना सीख रहा हूँ. शाष्त्रीय संगीत और ज्योतिष से भी बहुत लगाव है. चार वर्ष तक मैंने शाष्त्रीय संगीत सीखा. बाद में नौकरी के लिए बाहर निकला तो रियाज़ और गाना छूट गया. लेकिन कभी कहीं शाष्त्रीय संगीत की महफ़िल में जाने का मौका मिले तो नहीं चूकता. मेरा मानना है कि हिन्दुस्तानी शाष्त्रीय संगीत जैसा संगीत कोई नहीं. १९९४ से ज्योतिष से जुड़ा हूँ लेकिन ज्योतिष का गंभीरता से अध्ययन सन २००२ के बाद ही शुरू किया. अपनी वेबसाइट है www.astroquery.com जिस पर जब भी समय मिले लोगों के प्रश्नों के उत्तर देने की कोशिश करता हूँ. बस यूँही जीवन की गाड़ी चल रही है.
रचना प्रसंग:अनुभूतियों को अभिव्यक्त कर पाना ही रचना है. आस पास हो रही घटनाओं में से ही कोई मिसरा निकल आता है, उसे गज़ल में ढालने की कोशिश करता हूँ. इससे अधिक कुछ नहीं.
पता:
41258 Roberts Ave, Fremont, CA, 94538, USA 510-565-8260, rajeev.bharol@gmail.com
ब्लॉग http://thoughs-rajeevbharol.blogspot.com, http://astrology-rajeevbharol.blogspot.com
http://www.astroquery.com
गज़ल:
आम की खुशबू में लिपटी गर्मियों की वो दुपहरी,
गुड़, शहद, मिसरी से मीठी, गर्मियों की वो दुपहरी.
याद हैं वो धूप में तपती हुई सुनसान गलियां.
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी.
गाँव के बरगद की ठंडी छाँव की गोदी में मुझको,
थपकियाँ दे कर सुलाती गर्मियों की वो दुपहरी,
चिलचिलाती धूप थी और सायबाँ कोई नहीं था,
पूछिए मत कैसे गुज़री गर्मियों की वो दुपहरी.
वो हवा से उड़ रहे पत्तों की सरगोशी थी या फिर,
नींद में कुछ कह रही थी गर्मियों की वो दुपहरी?
मैंने इतना ही कहा, मुझको नहीं भाता ये मौसम,
बस इसी पे रूठ बैठी गर्मियों की वो दुपहरी.
शाम होते होते थक कर सो गई पहलू में मेरे,
धूप की दिन भर सताई गर्मियों की वो दुपहरी.
आज की ग़ज़ल ने तो भ्रमित कर दिया है कि कौन सा शेर लूं और कौन सा छोड़ूं । फिर भी मुझे लगता है , गाँव के बरगद की ठंडी छाँव की गोदी में मुझको, थपकियाँ दे कर सुलाती गर्मियों की वो दुपहरी, ये शेर कुछ ख़ास ही बन गया है । और चिलचिलाती धूप वाला शेर भी खूब कहा गया है । राजीव के बारे में मुझे सबसे बड़ी हैरत तो ये होती है कि केवल एक साल में इतनी परिपक्वता और तिस पर ये कि कहन से लेकर बहर तक कहीं कोई लचक नहीं । खूब ।
तो आनंद लीजिये ग़ज़ल का और देते रहिये दाद । मिलते हैं अगले अंक में ।
राजीव जी की इस ख़ूबसूरत गज़ल के लिए ढेरों मुबारकबाद
जवाब देंहटाएंगाँव के बरगद की ठंडी छाँव की गोदी में मुझको
थपकियाँ दे कर सुलाती गर्मियों की वो दुपहरी,
इस शेर पर तो कुर्बान जाऊं
मैंने इतना ही कहा, मुझको नहीं भाता ये मौसम,
बस इसी पे रूठ बैठी गर्मियों की वो दुपहरी.
ये शेर भी बड़ी नज़ाकतों से पाला गया है
मेरी तरफ से खूब सारी दाद कबूलिये|
आपके परिवार का चित्र देख मन प्रसन्न हो गया। हँसते परिवार, हिन्दी से लगाव, सृजनशीलता, बस और क्या चाहिये?
जवाब देंहटाएंghazal toh khair theek hi hai. magar sunndar-pyare-dulare bachcho vala parivaar dekh ka samajh men aa rahaa hai ki itani pyare-pyare sher kaise avatarit hote hain..badhai...
जवाब देंहटाएंराजीव में एक गंभीर शायर मौज़ूद है और उसे कुछ कहने के लिये जि़द्दोज़हद में नहीं पड़ना होता है, एक स्वत: प्रेरित सुगम प्रवाह जो निरंतर गतिमान है।
जवाब देंहटाएंग़ज़ल को जानने की जो गंभीर ललक राजीव में है वही शायर को अंदर से खींच कर लाती है और खुलकर व्यक्त होने की प्रेरणा देती है।
शब्द शिल्प की बारीकियों का ध्यान रखते हुए इस तरही का निर्वाह आसान नहीं है, लेकिन अब तक बड़ी खूबसूरत प्रस्तुति सामने आयी हैं, और अभी तो पाठशाला के पुराने शिष्य भी आने शेष हैं।
मत्ले का शेर और उसके बाद के दोनों शेर विशेष रूप से अच्छे लगे।
इतनी सहजता से कही राजीव जी की ग़ज़ल पढ़ कर ये अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं के आने वाले वक्त में वो किस पाए के शायर होने वाले हैं. गर्मियों की दुपहरी का मंज़र बला की ख़ूबसूरती से उन्होंने खींचा है. मैं गुरुदेव की इस बात से शतप्रतिशत सहमत हूँ के किसी एक शेर को अलग से कोट करना बाकी के शेरों के साथ नाइंसाफी होगी. अब आप रोज एक शायर को पेश करने वाले हैं जानकार ख़ुशी हुई याने पूरी गर्मियां शायरी का अनमोल खज़ाना खुलता रहेगा...हुर्रे...
जवाब देंहटाएंअंत में आपके चित्र....उफ्फ्फ...अगर अलग से उन्हें एक जगह पेश कर दें तो गर्मियों का दुपहरी का दीवान बन जायेगा.
नीरज
भाई वाह, हर शे’र लाजवाब है। क्या गिरह बाँधी है तरही की। बधाई हो। गाँव के बरगद वाला शे’र तो दिल चीरकर निकल गया। शाम होते होते वाले शे’र ने गजब ढा दिया। बहुत बहुत बधाई हो राजीव भरोल जी को।
जवाब देंहटाएंगाँव के बरगद के नीचे ... क्या बात है राजीव जी ... गर्मियों की दोपहरी की ज़्यादा यादें नही है फिर भी जैसे शेर बोल रहे हैं आपके ...
जवाब देंहटाएंछिचीलाती धूप थी ... इतना लाजवाब तो कोई इस धूप को भोग कर ही लिख सकता है ... बहुत ही कमाल के शेर निकाले हैं आपने ... और वैसे भी गुरुदेव से कई बार आपकी ग़ज़लों की तारीफ सुनी है ... आपकी ग़ज़ल विधा पे पकड़ आपकी लगन की जिंदा मिसाल है .... बहुत बहुत शुभकामनाएँ ...
राजीव भाई तुम तो छुपे रुस्तम निकले यार| ज्योतिष्, शास्त्रीय संगीत सभी कुछ| चलो अब किसी की कुंडली मिलवानी होगी अंतरराष्ट्रीय ज्योतिष् से, तो अपना एक मित्र मौजूद है| इलेक्ट्रॉनिक्स और सॉफ्टवेर इंजिनियर तो आप हैं ही पहले से|
जवाब देंहटाएंधूप में तपती सुनसान गलियाँ ........ क्या बात है यार , हिन्दुस्तान उतर के आ रहा है इस ब्लॉग पर
बरगद की गोदी........ओहोहोहो| ये तो भाई टाइगर पटौदी के सिक्सर टाइप का शेर है|
बहुत खूब यार बहुत ही खूब| चौका दिया तुमने तो| दिमाग़ की बजाय दिल से लिखी गई इस ग़ज़ल की जितनी तारीफ की जाए, कम ही होगी|
पंकज भाई के चित्रों के बारे में मैं नीरज भाई से सहमत हूँ|
ह्म्म्म , पिछले कुछ दिनों में राजीव जी ने चौंकाया है अपनी ग़ज़लों से और उसके कहन से ! बहुत ही कम समय में जिस तरह की ये ग़ज़ल कह रहे हैं आश्चर्यचकित कर रहे हैं ! तरही में भी ऐसा ही देखने को मिल रहा है ! वाकई सारे ही शे'र कमाल के हैं मगर जो गिरह इन्होने लगे है वो मुझे ख़ास पसंद है !
जवाब देंहटाएंगाँव के बरगद की ठंडी छाँव की गोदी में मुझको
जवाब देंहटाएंथपकियाँ दे कर सुलाती गर्मियों की वो दुपहरी
वाह! बहुत ही खूब शेर हैं राजीव जी की ग़ज़ल में!
एक एक शेर पूरी ईमानदारी से बिना किसी वनावट के कहा गया है. राजीव के लेखन में उत्तरोत्तर निखार आ रहा है.
जवाब देंहटाएंशाम होते होते थक कर.......
वि हवा में उड़ रहे...........
खूबसूरत.
मैंने इतना ही कहा, मुझको नहीं भाता ये मौसम,
जवाब देंहटाएंबस इसी पे रूठ बैठी गर्मियों की वो दुपहरी.
कहा ही क्यों हुज़ूर.... ????? :) :)
मेरे अनुसार सबसे सु्ंदर शेर है ये इस ग़ज़ल का।
संगीत और ज्योतिष में रुचि ??? कुछ आदतें मिलती जुलती हैं अपनी... ये जानकर अच्छा लगा। :)
शाम होते होते थक कर सो गई पहलू में मेरे,
जवाब देंहटाएंधूप की दिन भर सतायी गर्मियों की वो दुपहरी।
वैसे तो सारे मिसरे ख़ूबसूरत हैम पर मुझे मक़्ता सबसे अच्छा लगा , राजीव जी को ढेरों बधाई।
राजीव जी की ख़ूबसूरत गज़ल के लिए मेरी तरफ से बहुत बहुत मुबारकबाद....................
जवाब देंहटाएंrajiv ji ke kya kahane. badhai.
जवाब देंहटाएंराजीव, बहुत सुंदर तरही! बहुत ही सुंदर...खास कर "मैंने इतना ही कहा..." वाले शेर पे तो जितनी दाद दूँ,कम होगी!
जवाब देंहटाएंपरिचय जानकर बड़ा अच्छा लगा| सैनिक स्कूल वाली बात तो मालूम थी... समझ सकता हूँ , कैसे बीतेंगे होंगे :-)
गुरु जी प्रणाम,
जवाब देंहटाएंइस बार का मुशायरा जानलेवा होता जा रहा है
राजीव जी की जितनी तारीफ़ करून कम होगी खा खूब शेर कहें हैं
वाह वा .. करते दिल नहीं भर रहा है
हम्म...
कभी कभी रश्क भी होता है कभी कभी घोर जलन भी
राजीव भाई बहुत बहुत बधाई, आपने एक बार फिर से खुद को कामयाब साबित किया
कल जब पढ़ा था, तो कुछ शेर विशेष अंदाज में कुछ चित्र खींच रहे थे. राजीव जी ये ग़ज़ल लग रहा है मानो आपने अपने आप से बातें करते हुए कह डाली. उस्तादों वाली बात है.
जवाब देंहटाएंबहुत खूब कही !!
सभी टिप्पणीकर्ताओं को तहे दिल से धन्यवाद करता हूँ.कमियां भी बताते तो और भी अच्छा होता. आपको शेर अच्छे लगे, अच्छा लगा मगर श्रेय सारा गुरूजी को जाता है.
जवाब देंहटाएंजैसे राहत इंदोरी साहब का शेर है:
"मेरे कारोबार में सबने बड़ी इम्दाद की
दाद लोगों की, गला अपना, ग़ज़ल उस्ताद की"
मैं तो राजीव जी का खतरनाक प्रशंशक बन गया हूँ, उफ्फ्फ....क्या शेर निकालते हैं.
जवाब देंहटाएंमतला क्या खूब कहा है, उस पे सानी.........क़यामत ढा रही है.........."गुड़, शहद, मिसरी से मीठी, गर्मियों की वो दुपहरी"
गाँव के बरगद की ठंडी छाँव की गोदी में मुझको,
थपकियाँ दे कर सुलाती गर्मियों की वो दुपहरी,
वाह वा, क्या खूब मंज़रकशीं की है.
मैंने इतना ही कहा, मुझको नहीं भाता ये मौसम,
बस इसी पे रूठ बैठी गर्मियों की वो दुपहरी.
एक अजब सी मासूमियत है इस शेर में, मज़ा आ गया राजीव जी.
शाम होते होते थक कर सो गई पहलू में मेरे,
धूप की दिन भर सताई गर्मियों की वो दुपहरी.
अहा.........वाह राजीव जी, ढेरों दाद क़ुबूल करें.
मैं राजीव को १९९० से जानता हूँ लेकिन १९९४ के बाद और करीब से. ग़ज़ल के शौक का एक उदहारण सुनिए. राजीव हम से छुप कर एक बार बहके हुए थे और कहा की दुआ करिए की मेरी थोड़ी उम्र मेहँदी हसन को लग जाये जिससे हम उनसे मिल सकें. बहुत बूढ़े हैं. शौक अभी तक जारी है . नौकरी, परिवार के साथ ग़ज़ल के शौक को जिंदा रखना एक मिसाल है. सभी शेर माशा अल्लाह ख़ूबसूरत हैं.
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