शनिवार, 7 मई 2011

सूख कर काँटा हुई है गाँव की चंचल नदी फिर, क्यूँ उसे इतना सताती गर्मियों की ये दुपहरी, तरही में आज एक सुंदर ग़ज़ल धर्मेंद्र कुमार सिंह की ।

तरही को लेकर इस बार जो  उत्‍साह लिखने वालों ने दिखाया है वो अद्भुत है । पिछली बार होली के मुशायरे में कुछ कठिन बहर और तिस पर उतने ही कठिन मिसरे ने सबसे हथियार  डलवा दिये थे । इस बार हालांकि बहर में हलकी सी उलझन है आखिरी रुक्‍न के सालिम हो जाने के कारण । मगर फिर भी उसका हल तो ये हो ही सकता है कि मिसरे में आखिर में एक दीर्घ की गुंजाइश निकाल ली जाये । खैर पिछले अंक में राकेश जी ने दो बहुत ही सुंदर गीतों के साथ शुभारंभ किया है । भारत इतना बड़ा देश है कि उत्‍तर से दक्षिण तक जाने में ही प्राकृतिक बदलाव व्‍यापक रूप से हो जाते हैं । जैसे अर्श अपनी ग़ज़ल में मई में गेहूं की फसल कटने का बिम्‍ब बांध रहा था, मैंने कहा मई में गेहूं की फसल ? वो तो फरवरी में ही कट जाती है । पता लगा कि अर्श बिहार के जिस क्षेत्र से है वहां मई में ही कटती है । खैर तो चलिये आज सुनते हैं एक और सुंदर सी ग़ज़ल तरही मुशायरे में ।

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ग्रीष्‍म तरही मुशायरा

और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी

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धर्मेन्द्र कुमार सिंह

आज हम सुन रहे हैं श्री धर्मेन्‍द्र कुमार सिंह की ग़ज़ल वे वरिष्ठ अभियन्ता के रूप में जनपद निर्माण विभाग - मुख्य बाँध एनटीपीसी लिमिटेड, बरमाना, बिलासपुर, हिमाचल प्रदेश में पदस्‍थ हैं । बांध बनाते बनाते ग़ज़लें भी उतनी ही सुंदर बांधते हैं ।

परिचय एवं रचना प्रक्रिया:

मै प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश में 22 सितंबर 1979 को जन्मा। मुझे कविताएँ पढ़ने का शौक बचपन से रहा है। मगर बचपन में मुझे लिखने वगैरह का शौक नहीं था। एकाध हास्य कविता लिखी थी कभी इंटरमीडिएट में और एक दो गीतों की पैरोडी बनाई थी कुछ मित्रों के लिए। बीटेक करने के लिए जब बनारस गया तो आदरणीय बच्चन जी  की मधुशाला पढ़ी। इसे पढ़ने के बाद न जाने कैसे लिखने का शौक जागा और ऐसा जागा कि साठ रुबाइयाँ लिख डालीं जिनको  आप sajjankimadhushala.blogsopt.com पर पढ़ सकते हैं। उसके बाद यह शौक ठंडा पड़ गया। क्या करें विज्ञान की समीकरणें जो समझनी थीं?

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धर्मेंद्र जी अपनी धर्मपत्‍नी तथा बेटे के साथ

तो इसके बाद पाँच छः साल तक यानि एनटीपीसी में नौकरी लगने तक मैंने चार या पाँच रचनाएँ ही और लिखीं। फिर विवाह हुआ और नौकरी तथा परिवार में वक्त गुजरने लगा। अचानक चार साल बाद मेरा ट्रांसफर हो गया खासियाबाड़ा, पिथौरागढ़, उत्तराखंड। वहाँ पत्नी और बच्चे तो साथ में रख नहीं सकता था सो उनको घर पर छोड़ा और काम धाम ज्यादा न होने की वजह से फिर साहित्य की तरफ ध्यान गया। सबसे आसान रास्ता था इंटरनेट जिससे पहले अनुभूति मिली फिर कविता कोश मिला। कविता कोश मिला तो पुरानी यादें ताजा हो गईं, कविताएँ पढ़ने और जोड़ने का सिलसिला चालू हुआ तो लिखने का भी सिलसिला चल निकला। उसके बाद ब्लॉग बनाया और बस धीरे धीरे कवियों से जान पहचान बढ़ी तो कविता से भी जान पहचान बढ़ने लगी। मैं तो बस सीख रहा हूँ गीत लिखना, ग़ज़ल लिखना, कविता लिखना इत्यादि। आजकल वापस वहीं पोस्टिंग हो गई है जहाँ से ट्रांसफर हुआ था। अब मैं एनटीपीसी लिमिटेड की कोलडैम परियोजना में वरिष्ठ अभियंता (बाँध) के रूप में कार्यरत हूँ। परिवार के साथ हूँ तो आजकल समय थोड़ा कम ही मिलता है फिर भी कभी कभी कुछ लिखने का मन कर ही जाता है।

चलभाष: 09418004272

ई-मेल: dkspoet@gmail.com, dkspoet@rediffmail.com, dkspoet@yahoo.com , dksingh05@ntpc.co.in

ब्लॉग: www.dkspoet.in

प्रकाशन: अभी तक तो केवल बेबसाइटों पर ही गीत, कविताएँ, ग़ज़लें इत्यादि प्रकाशित हुई हैं।

ग़ज़ल

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धूप से कर छाँव छलनी गर्मियों की ये दुपहरी

हर शजर को क़ैद करती गर्मियों की ये दुपहरी

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हर तरफ अब शोर इतना मन सहम कर चुप हुआ है

''और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी''

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जल रही भू चल रही लू सूर्य मनमानी करे अब

देख डर से काँप जाती गर्मियों की ये दुपहरी

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सूख कर काँटा हुई है गाँव की चंचल नदी फिर

क्यूँ उसे इतना सताती गर्मियों की ये दुपहरी

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आम का इक पेड़ अब भी राह मेरी देखता है

याद मुझको है दिलाती गर्मियों की ये दुपहरी

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है सड़क पर जल, लगे तो, आँख पर विश्वास मत कर

बुद्धि सर्वोपरि सिखाती गर्मियों की ये दुपहरी

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जल रहा तन, मन तड़पता, बोझ सा जीवन हुआ है

नर्क का ट्रेलर दिखाती गर्मियों की ये दुपहरी


हूं बहुत अच्‍छे प्रयोग किये गये हैं ग़ज़ल में । आम का इक पेड़ अब भी रा‍ह मेरी देखता है, उफ मुझे भी अपने उस छोटे से शहर के मकान के पास खड़े उस एक आम के पेड़ की याद आ गई । जल रही भू, चल रही लू काव्‍य का बहुत ही सुंदर प्रयोग है, हिंदी के प्रयोगों को ग़ज़ल में किया जाये तो इस संगम से सुंदरता और बढ़  जाती है । है सड़क पर जल लगे तो आंख पर विश्‍वास मत कर, मृग मरीचिका के बिम्‍ब को बहुत ही अच्‍छे तरीके से बांधा गया है । पूरी ग़ज़ल बहुत ही सुंदर है ।

तो चलिये आनंद लीजिये आज की इस सुंदर ग़ज़ल का और दाद दीजिये । तथा प्रतीक्षा कीजिये अगले अंक का और एक और रचनाकार का  ।

32 टिप्‍पणियां:

  1. आम का इक पेड़ अब भी राह मेरी देखता है
    याद मुझ को है दिलाती गर्मियों की ये दुपहरी

    बहुत सुन्दर ,,शायद सभी पाठकों को अपने अतीत के कुछ पल याद आ ही जाएँगे
    पंकज जी , राकेश जी के गीतों और आज की ग़ज़ल के लिए आप को और कवियों को बधाई

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  2. धर्मेन्द्र जी ग़ज़ल पढ़ कर आनंद आया. उनकी रचना से उनके उज्जवल भविष्य की कल्पना की जा सकती है. धर्मेन्द्र जी युवा है इसलिए नए प्रयोग करने से हिचकते नहीं हैं. जल रही भू चल रही लू...है सड़क पर जल...और...नरक का ट्रेलर...वाले मिसरे इस बात का सबूत हैं . मैंने ये ग़ज़ल पढ़ ली है सिर्फ इसके प्रमाण स्वरुप कमेन्ट कर रहा हूँ क्यूँ के अभी मुझे मुंबई के लिए निकलना है अगर जल्द आया तो इस कमेन्ट को विस्तार दूंगा वर्ना इस कम लिखे को ही अधिक मानें.

    नीरज

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  3. धर्मेन्द्र जी की प्रतिभा को उनकी शायरी ने चार चाँद लगा दिये। इतनी सुन्दर गज़ल की कल्पनऔर कुछ पुरानी यादों को शब्दों मे कोई भी बान्ध सकता है लेकिन गज़ल मे बान्धने का हुनर शायद धर्मेन्द्र जी को ही आता है---
    आम का इक पेड----
    सूख कर काँटा हुयी--- वाह क्या शेर हैं और मतला तो है ही लाजवाब। धर्मेन्द्र जी को बहुत बहुत शुभकामनायें।अपने तरही के माध्यम से जो इन प्रतिभाओं से परिचय करवाया है उसके लिये आप बधाई के पात्र हैं। शुभकामनायें।

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  4. जिन लोगों ने इस प्रकार का परिचय तथा रचना प्रक्रिया नहीं भेजी है उनसे अनुरोध है कि भेजने का कष्‍ट करें । साथ ही यदि अपने फोटो भी ठीक समझें तो भेजें ।

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  5. जाते जाते एक बात जो पहले कहना भूल गाया था...गुरुदेव आपने जो गिलहरी और कव्वे के चित्र लगायें हैं वो किसी भी बेहतरीन ग़ज़ल से कम नहीं हैं...गर्मियों की दुपहरी का इतना सजीव चित्रण और कहाँ मिलेगा...कमाल किये हैं आप...मैं उनकी कितनी भी प्रशंशा करूँ मन नहीं भरेगा. क्या नज़र पायी है आपने...वाह...
    नीरज

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  6. धर्मेन्द्र जी की गज़ल बहुत बढ़िया लगी. "जल रही भू, चल रही लू..", "सूख कर काँटा हुई..", "आम का इक पेड़ अब भी..","है सड़क पर जल.." शेर तो लाजवाब हैं. "सूख कर काँटा हुई.." वाला शेर हासिले गज़ल शेर है.
    धर्मेन्द्र जी जो बहुत बहुत बधाई.

    कौवे और गिलहरी की तस्वीरें गर्मियों की दुपहरी में पड़ने वाली धूप की मार और उससे त्रस्त सभी जीव जंतुओं की हालत बयां कर रही हैं. गर्मियों में मैं अक्सर उस कौए जैसी हरकत किया करता था. गर्मियों में मुझे आमों और तरबूज के सिवा कुछ नहीं भाता..

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  7. यह ग़ज़ल शब्‍द-शिल्‍प का उदाहरण है। प्रतीकों और बिम्‍बों का दृश्‍य से शब्‍द-सामंजस्‍य कुछ ऐसा कि बेसाख्‍त: वाह वाह निकल पड़े।
    एक और इंजीनियर ग़ज़लगोई में नाम स्‍थापित करने चल पड़ा है।

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  8. आम का इक पेड़ अब भी राह मेरी देखता है ...
    वाह धर्मेन्द्र जी इस एक शेर के बाद .... मुझे तो बहुत ही देर लगी अगले शेर तक पहुँचने में ... मन कहीं खो गया बीते दिनों में ... अपना घर ... अपना आँगन ... .... स्कूल के वो दिन .... और गुरुदेव ... मिसरे के अनुसार ब्लॉग पर तो फोटो भी गर्मियों की याद ताज़ा करा रहा हैं ... ये मुशायरा अब रफ़्तार पकड़ रहा

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  9. जल रही भू और

    सूख कर काँटा हुई शेर विशेष लगा।

    गर्मियों के ही मौसम का मिला पारिवारिक चित्र भी उत्तम। धर्मेंद्र जी से परिचय मिलना सुखद था।

    और जो बात नीरज जी को दूसरी टिप्पणी में कहनी पड़ी, वो भी महत्वपूर्ण ही थी। दोनो चित्र...कैसे खोजे होंगे , ये सोच रही हूँ...!!!

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  10. धर्मेन्द्र जी की गज़ल विषय और कथ्य को सार्थकता से प्रतुत करने में समर्थ हुई है.बधाई आपको, आपके हर शब्द चयन और बनी चासनी के लिए.

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  11. vishisht badhai....Dharmendra ji, vakai bahut khoob sher nikale hain aapne...sadhuwaad..

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  12. क्या कहूँ आदरणीय सुबीर के प्यार और आप लोगों की टिप्पणियों से अभिभूत हूँ। आदरणीय इस्मत जैदी जी, नीरज गोस्वामी जी, निर्मला कपिला जी, राजीव भरोल जी, तिलक राज कपूर जी, दिगम्बर नासवा जी, कंचन सिंह चौहान जी, शेषधर तिवारी जी, योगेन्द्र मौदगिल जी एवं प्रवीण पांडेय जी आप सबका दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ इस प्यार और हौसला अफ़जाई के लिए।

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  13. आम का इक पेड़ अब भी राह मेरी देखता है
    याद मुझ को है दिलाती गर्मियों की ये दुपहरी
    और
    सूख कर कांटा हुई है गांव की चंचल नदी
    क्यों इसे इतना सताती गर्मियों की ये दुपहरी.
    बहुत सुन्दर हैं.

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  14. सूख कर काँटा हुई है गाँव की चंचल नदी फिर
    क्यूँ उसे इतना सताती गर्मियों की ये दुपहरी

    आम का इक पेड़ अब भी राह मेरी देखता है
    याद मुझको है दिलाती गर्मियों की ये दुपहरी

    वाह वाह गर्मियों की दुपहरी का सचित्र वर्णन के जैसे अशआर के लिए ढेरों दाद कबूल फरमाएं

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  15. आदरणीय वंदना जी और वीनस जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद

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  16. धर्मेन्द्र जी, आपने बहुत खूबसूरत ग़ज़ल पढ़ी साथ ही आपने बारे में पढ़ कर अच्छा लगा| इतने व्यस्त समय और ज़िम्मेदारी भरी पद का निर्वाह करते हुए भी आप साहित्य साधना में इतना सक्रिय है आपको मेरा प्रणाम है..

    गर्मी की दुपहरी का वर्णन करते हुए एक से बढ़ कर एक ग़ज़ल पढ़ी आपने.. शानदार..बधाई

    इस मुशायरे के इतने बढ़िया आयोजन के लिए पंकज जी को बधाई..

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  17. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  18. धर्मेन्द्र जी की कवितायें याहू के ई-कविता ग्रुप में जब-तब पढ़ते रहता हूँ| ...और फिर यहाँ इस मंच पर उनकी तरही जलवे तो दिखते ही रहते हैं|

    बहुत अच्छे मिसरे बांधे हैं उनहोंने ...खास कर आम के पेड़ की वो राह देखने वाली बात और फिर नदी के सूख कर कांटा हो जाने वाले मिसरों ने मन मोह लिया |

    वो परिचय भेजने का आदेश ऐसा लग रहा है, गुरूदेव, जो मुझसे मुखातिब है :-).... हा! हा! सर आँखों पर!!!!

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  19. कोई भी बात जब नये अंदाज़ में कही जाती है तो अपना प्रभाव अवश्य छोड़ती है-विधा चाहे कोई भी हो. धर्मेन्द्रजी की गज़क सबसे खूबसूरत बिम्ब मुझे लगा- नर्क का ट्रेलर दिखाती-० एक नये प्रयोग के लिये धम्र्मेन्द्रजी और इस प्रयोग को हम सभी तक पहुँचाने के लिये पंकजजी को हार्दिक धन्यवाद

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  20. कबूतर और गिलहरी इन दोनों के पानी पीने का अंदाज़ ख़ास है ! धर्मेन्द्र जी की इस मुसलसल ग़ज़ल के लिए बधाई ! बहुत ज्यादा तो नहीं पढ़ा उनको मगर आम वाले शे'र ने बखूबी उनका परिचय कराया ! खुबसूरत ग़ज़ल के लिए इनको ढेरो बधाई !

    अर्श

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  21. आदरणीय राकेश खंडेलवाल जी, विनोद कुमार पांडेय जी, गौतम राजरिशी जी एवं अर्श जी आप सबका दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ, इस उत्साहवर्धन के लिए।
    आज राकेश जी के सुंदर गीतों का एक राज पता चल गया जो निम्नवत है।
    "कोई भी बात जब नये अंदाज़ में कही जाती है तो अपना प्रभाव अवश्य छोड़ती है"
    गिलहरी का चित्र देखकर तो मुझे अपनी याद आ रही है कि आजकल की तपती हुई मुक्तछंद कविता के दौर में मैं ग़ज़ल का पानी पीने का प्रयास कर रहा हूँ और कौए का चित्र देखकर लगा कि आदरणीय सुबीर जी चाहते हैं कि उनके सभी शिष्य एक दिन उड़ना सीख जाएँ और पानी पीने के साथ पूरी मर्जी से नहाना धोना भी सीख जाएँ ग़ज़ल में।
    अब और क्या लिखूँ पहले ही ज्यादा लिख गया हूँ।

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  22. धर्मेन्द्र जी, सच कहता हूँ आप इस गर्मी में छा गए. गजल के हर इक शेर ख़ास हैं - सूख कर काँटा हुई है गाँव की चंचल नदी फिर..... इस पर सैकड़ों दाद.
    अब आपको नियमित पढना होगा.
    और हमारे आचार्य जी ने प्रस्तुतीकरण में जो नयापन लाया है, बस आनंद में डूब उतर रहा हूँ. सभे चित्र सीधे दिल पे असर कर गए और मुझ जैसा कच्चा शायर भी पूरे रंग में आ गया.
    तरही जिंदाबाद.

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  23. धर्मेन्द्र जी, वाह मज़ा आ गया,
    बहुत अच्छे शेर कहें हैं,
    "सूख कर काँटा हुई है गाँव की चंचल नदी............" उम्दा शेर
    "आम का इक पेड़ अब भी राह मेरी देखता...................", वाह वा
    कई सारी यादें भीग गई हैं.

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  24. सुलभ जी और अंकित जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद

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  25. धर्मेन्द्र भईया फिर से आपकी कलम ने कमाल किया है| इतने ख़ूबसूरत ख़ूबसूरत प्रयोग किये हैं की बेसाख्ता वाह निकल जाता है

    धूप से कर छांव छलनी...वाह
    जल रही भू चल रही लू...अद्भुत
    सूख कर काँटा ....लाजवाब
    आम का एक पेड़......बहुत खूब(कही ये कंपनी बाग वाला तो नहीं है)
    बुद्धि सर्वोपरि....बेहतरीन
    और नर्क का ट्रेलर .....वाह वाह

    करोडो दाद कबूलिये|

    गुरु जी कौवा और गिलहरी ...काश ये तस्वीर पहले दिख गई होती तो एक दो शेर और बन जाते| बेहतरीन चयन|

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  26. बहुत बहुत शुक्रिया राणा भाई, इस प्यार के लिए। मैंने अपनी पहली टूटी फूटी ग़ज़ल आपकी तरही के लिए ही लिखी थी। यह आप सबका प्यार ही है जो लिखवा रहा है।

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  27. जल रही भू - चल रही लू
    है सड़क - पर, जल लगे
    नर्क का ट्रेलर दिखाती

    वाह वाह वाह
    धर्मेन्द्र भाई, हमारे इंजीनियर दोस्त, दिल खुश कर दिया बन्धु| सुबीर जी के ब्लॉग के इस गरमी विशेषांक में आप ने चार चाँद लगा दिए हैं| ग़ज़ल में 'ट्रेलर' शब्द का अभिनव प्रयोग स्वागत योग्य है|

    तरही मुशायरे को जीवंत करती मनमोहक छवियों के लिए पंकज सुबीर जी की तारीफ करनी ही होगी|

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  28. पंकज सुबीर भाई मेरा एक सुझाव है :-

    ग्रीष्म विशेषांक रूपी इस तरही में प्रकाशित ग़ज़लों को एकत्र कर के, पी. डी. एफ. फ़ॉर्मेट में एक ई-बुक मुहैया कराई जानी चाहिए|

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  29. आदरणीय नवीन जी, इस हौसला अफ़जाई का तहे दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ और पीडीएफ़ वाली बात का भरपूर समर्थन करता हूँ।

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  30. सूख कर कांटा हुई गांव की चंचल नदी फिर,
    क्यूं उसे इतनी सताती , गर्मियों की ये दुपहरी , बेहतरीन ( एक नामुराद सलाह " इतना" की जगह "इतनी"आनी चाहिये थी।)

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  31. बहुत बहुत शुक्रिय संजय दानी जी। ‘इतना’ तो ‘सताना’ की विशेषता बता रहा है। इसलिए मेरे विचार में इतना ही होना चाहिए। ‘सताना’ गर्मियों की दुपहरी के लिए प्रयुक्त हुआ है इसलिए सताती हो गया है। बाकी गुणी जनों से अनुरोध है वो इस पर और प्रकाश डालें।

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