तरही के बहाने कितनी यादों ने आकर मन के आंगन में मेला लगा लिया है । यादें मित्रों की, यादें छुट्टियों की और यादें किसी एक.........! ख़ैर आज हम तरही मुशायरे को शुरू करते हैं । प्रश्न ये उठता है कि शुरूआत कैसे हो । ज़ाहिर सी बात है कि शुरूआत तो धमाकेदार ही होनी चाहिये ताकि आगे मुशायरे का प्रवाह बन सके ।
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये ( वो) दुपहरी
ग्रीष्म तरही मुशायरा
ग्रीष्म तरही मुशायरे की शुरूआत हम कर रहे हैं श्री राकेश खंडेलवाल जी के दो गीतों के साथ । दो गीत जो उन्होंने लिखे हैं दोनों अलग अलग मिसरों पर । लेकिन उसके पहले आई जानें कि राकेश जी क्या कहते हैं अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में ।
आदरणीय भाभीजी और राकेश जी
रचना प्रक्रिया
जिंदगी की तो रफ्तार में चलते चलते कभी कभी यह ध्यान भी नहीं रहता कि हम कहाँ पर हैं, भाग दौड़ में उलझे हुए हम एक चक्र में बँधे चलते रहते हैं । चलते चलते किसी मोड़ पर सहसा ही यह आभास होता है हम कितना कुछ खो रहे हैं, भूल रहे हैं। तब ऐसे समय में लगता है कि कुछ क्षण रुक कर हम जिंदगी को उससे दूर रह कर देखें। कुछ ऐसे ही पलों में जब यह अनुभूति हुई कि कुछ पलों को समय के बहाव के साथ जिया जाये और सारी भावात्मकता को उठा कर ताक पर रख दिया जाये। काव्य के हर रस की अनुभूति को जब अपने आप ही अभिव्यक्त होना होता है तब उससे कोई छेड़-छाड़ कृत्रिमता का बोध करा सकती है जो मैंने कभी नहीं चाहा। अपने आप छन्दों में ढलती हुई भावनाओं को ही मैंने सदैव प्रवाहित होने दिया है।
गज़ल तो सभी लिखेंगे परन्तु मेरा प्रयास दोनों मिसरों को--वो दुपहरी और ये दुपहरी को- गीत की शैली में प्रस्तुत करने का है. इस प्रयास ने कितनी सफ़लता पाई- इसका निर्णय तो आप ही करेंगे.
राकेश जी लाड़ली बिटिया के साथ
परिचय
राजस्थान के एक छोटे शहर भरतपुर से चल कर आगरा और दिल्ली से होते हुए 1983 से वाशिंगटन डीसी में प्रवास । आपका परिचय आपकी कलम देती है। हिन्दी भाषा स्कूल में दसवीं कक्षा तक पढ़ी परन्तु अध्ययन की रुचि और अपनी संस्कृति को जानने की जिज्ञासा ने जब धार्मिक ग्रन्थों और साहित्यिक पुस्तकों से जोड़ दिया तो फिर यह सम्बन्ध अटूट होकर रह गया। धीरे धीरे छन्द स्वत: ही कलम से प्रवाहित होने लगे और माँ शारदा का आशीष गीत बन कर प्रस्फुटित होता रहा और अब भी प्रवाहित हो रहा है। सम्प्रति : वाशिंगटन हास्पिटल सेंटर में वरिष्ठ आपूर्ति संयोजक के पद पर कार्यरत। परिवार में पत्नी तथा एक लाड़ली बिटिया । शिवना प्रकाशन से आई आपकी पुस्तक अंधेरी रात का सूरज काफी सराही गई । यदि गीतों के सुकुमार कवि की कल्पना की जाये तो उस कल्पना पर 100 प्रतिशत खरे उतरेंगें राकेश जी । परिमल काव्य की परंपरा को पूरी निष्ठा से निर्वाह करके ग्रीष्म में श्रावणी मेघों का एहसास कराते हैं उनके गीत और छंद ।
Phone : 301-929-0508, email : rakeshkhandelwal1k@gmail.com
Add. : 14205 Punch Street, Silver Spring, MD.20906,
ब्लाग : गीत कलश, गीतकार की क़लम
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी
राह सूनी ज्यों कि हो सिन्दूर के बिन मांग कोई
एक खामोशी लगे जो आप अपने आप खोई
राख जैसे रंग वाली राह से उठते धुंआ से
लग रहे हैं आ घिरे अब दिन दहाड़े ही कुहासे
ललपाती सी लपट से बिन्दु तक सूखी जलहरी
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी
बिजलियों के रूठने से मौन कूलर धड़धड़ाते
सनसनी के राग पर झोंके गरम कुछ गुनगुनाते
जल नहीं है टोंटियों में,शीश से बहता निरन्तर
ढूँढ़ लेती लू,रखें कितना भले तन को छुपाकर
हो गई आकाश की रंगत बदल कर के सुनहरी
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी
प्यास लेकर अनबुझी यह घास पीली पड़ गई है
घाट तक आती नहीं, लगता नदी हर डर गई है
फ़ड़फ़ड़ाते पंख लेकर छटपटाती कल्पनायें
भट्टियों की इस जलन में होंठ पर क्या बात लायें
शब्द दें आवाज़ लेकिन भावना है आज बहरी
और सन्नाटे में डुबी गर्मियों की ये दुपहरी
2
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी
ठेल पर तरबूज की फ़ांकें कटी ठन्डी बरफ़ पर
चाट का लेकर मसाला पास ललचाते टमाटर
कुल्लड़ों में नोन के संग में हिले जामुन रसीले
कांजियों के साथ मिलता बेल शर्बत नाँद भर कर
मोड़ पर आराह के बैठी हुई अलसी मसहरी
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी
ट्यूब वेलों पर धुलीं ताजा उखाड़ी मूलियों के
साथ में पालक,फ़ली में बन्द वे दाने मटर के
फ़ूट, खरबूजा,कटारे कैठ के फ़ल गेंद जैसे
वीथियों में सोच की आने लगे रह रह मचल के
आस ले बैठी हुई दालान में आकर गिलहरी
और सन्नाटे में डूभी गर्मियों की वो दुपहरी.
आम पर अमरूद पर लगते गुलेलों के निशाने
बात अम्मा ने कही थी क्या भला, बस राम जाने
छाँह ओढ़े नीम के वे खेल कंचों के निरन्तर
सँग पतंगों के विचरते अनगढ़ी बेढब तराने
मेड़ के कांधे सटी वो ज्वार दुल्हन सी, छरहरी
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी
रसभरी गंडेरियों के ढेर दोनों में भरे वे
खिन्नियों के रसभरी के स्वाद यादों में झरे वे
चिलचिलाती धूप में चढ़ सायकिल पर घूमना वो
प्याऊ पर जा तृप्ति देने नीर से भरना घड़े वे
रोज छत पर आ कोई आवाज़ सी देती टिटहरी
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी
उफ़ क्या गीत लिखे हैं किस पंक्ति की प्रशंसा की जाये और किसकी नहीं । 'छांह ओढ़े नीम के वे खेल कंचों के निरंतर'' राकेश जी आपने मेरा बचपन कब देखा था । लेकिन सच तो ये है कि उस दौर के हम सब का अचपन ऐसा ही था । हम सब ऐसे ही थे । 'भट्टियों की इस जलन में होंठ पर क्या बात लाएं' गर्मियों का अनोखा चित्रण है गीत में । अपनी कहूं तो दूसरे गीत की पंक्तियों में ही उलझा हुआ हूं । शब्द चित्र खींचने की जो कला राकेश जी के पास है उससे कभी कभी तो रश्क सा आता है । तो आनंद लीजिये इन दोनों गीतों का ।
केवल सूचना के लिये बताना चाह रहा हूं कि इस प्रकार की एक पोस्ट को लगाने में मुझे पूरा दो घंटा लगता है, इसलिये यदि आप यहां केवल 'वाह, बहुत सुंदर, नाइस' जैसी टिप्पणी लगाने आएं हों तो क्षमा करें उससे आप टिप्पणी नहीं ही लगाएं तो बेहतर है । गीतों को पढ़ें आनंद लें और फिर टिप्पणी करें तो लेखक की और मेरी दोनों की मेहनत सफल होगी ।
आज के पोस्ट में जो परिचय तथा जो फोटो लगे हैं यदि आप उसी फार्मेट में परिचय, रचना प्रक्रिया तथा फोटो भेज दें तो अच्छा होगा । जो लोग पारिवारिक चित्र नहीं भेजना चाहें वे अपना अकेले का भी भेज सकते हैं । लेकिन दिगंबर नासवा ने ग़ज़ल और चित्र के साथ जो लिखा उससे मैं बहुत प्रभावित हुआ- ''साथ में पत्नी है ... (शादी के बाद अकेले का क्या परिचय) ...''
तो मिलते हैं अगले अंक में एक और रचनाकार के साथ ।
राकेश जी के सभी गीत अद्भुत होते हैं. कहां मुझे दोनों में से एक मिसरे पर ५ शेर कहने में मुश्किल हो रही थी और कहाँ राकेश जी ने दोनों मिसरों पर इतने सुंदर गीत लिख दिए. किसी एक पंक्ति की प्रशंसा करना मुश्किल है. इन दोनों जादुई गीतों के लिए राकेश जी को बधाई. मुशायरे की शुरुआत बहुत ज़ोरदार हुई है.
जवाब देंहटाएं"राह सूनी ज्यों कि हो सिन्दूर के बिन मांग कोई" बहुत ही बढ़िया... "भट्टियों कि इस जलन में होंठ पर क्या बात लायें", कुछ कुछ ऐसा ही लगता है मुझे गर्मियों में. "आम पर अमरुद पर लगते गुलेलों के निशाने","छाँव ओढ़े नीम के वे खेल कंचों के निरंतर" बहुत ही जीवंत चित्रण. राकेश जी पर माँ सरस्वती की अपार कृपा है.
इस पोस्ट का लिंक मैं अपने सभी दोस्तों को ईमेल से भेज रहा हूँ.
शब्दों ने जो चित्र प्रस्तुत किये, वे असली से भी असली हैं।
जवाब देंहटाएंगर्मियों की दुपहरी को याद करते हुए शब्दों की अमृत वर्षा करना सिर्फ और सिर्फ भाई राकेश जी के बस की ही बात है...जिस पुत्र पर माँ सरस्वती का वरद हस्त हो वो क्या गुल खिला सकता है ये गीत उसका प्रमाण हैं. दोनों ही गीतों में कुछ पंक्तियाँ तो हतप्रभ कर देने वाली हैं जैसे
जवाब देंहटाएंसनसनी के राग पर झोंके गरम कुछ गुनगुनाते
जल नहीं है टोंटियों में शीश से बहता निरंतर (ये पंक्ति एक राजस्थानी ही लिख सकता है)
घाट तक आती नहीं लगता नदी हर डर गयी है
भट्टियों की इस जलन में होंट पर क्या बात लायें
***
कुल्लड़ों में नोन के संग में हिले जामुन रसीले
कान्जियों के साथ मिलता बेल शरबत नांद भरकर (कांजी शब्द अरसे बाद सुना और उसकी खट्टी मीठी याद ने मन बैचैन कर दिया है )
छांह ओढ़े नीम के वो खेल कंचो के निरंतर
मेड के काँधे सटी वो ज्वार दुल्हन सी, छरहरी
अद्भुत रचना है अद्भुत...जितनी बार पढो नया रंग सामने आता है और मन बरसों पीछे लौट जाता है, ऐसा भी हम भी महसूस किया करते थे, ऐसे अनूठे शब्द चित्र पढ़ कर ठगे से रह गए हैं हम तो.
एक बात राकेश जी से हँसते हुए पूछनी थी राजस्थान में मूली, मटर के दाने, अमरुद और पतंगे हमने गर्मियों में नहीं देखीं तो फिर आपने उनका जिक्र गर्मियों की दुपहरी में क्यूँ किया ?
तरही की ये बम्पर शुरुआत है. बल्कि सच तो ये है इस से बेहतर शुरुआत हो ही नहीं सकती थी. इस अद्भुत तरही मुशायरे की कामयाबी के लिए अग्रिम शुभकामनाएं.
नीरज
"गर्मियों की वो दुपहरी" रद्दीफ के साथ मुसलसल ग़ज़ल पर आयोजित इस तरही मुशायरे के श्री गणेश पर सभी को हार्दिक शुभ कामनाएँ|
जवाब देंहटाएंश्री राकेश खंडेलवाल जी के गीत मिट्टी की सौंधी सुगंध बिखेर रहे हैं| जिन छोटी छोटी पर दिल के बेहद करीब बातों को उन्होने अपने गीतों में पिरोया है, वाकई काबिलेतारीफ है|
ढूँढ लेती लू.............
दिन दहाड़े ही कुहासे...........
घाट तक आती नहीं.............
चाट का ले कर मसाला............
दाने मटर के
कटारे, कैठ
और न जाने क्या क्या......वाह राकेश जी, मथुरा पहुचने से पहले ही भरतपुर / आगरा वाली गर्मियों के दर्शन करा दिए आपने तो| जय हो|
आदरणीय राकेश जी से मेरा परिचय ई-कविता समूह के माध्यम से हुआ था, राकेश जी के तीन-चार गीत पढ़कर ही मैं इनका प्रशंसक हो गया। राकेश जी बिम्ब सम्राट और गीत सम्राट हैं। इन्हें बिम्ब और रवानगी ढूँढनी नहीं पड़ती हमारी तरह, वो अपने आप चलकर इनके पास आते हैं। गीत की पंक्तियाँ यहाँ कोट करूँगा तो सारी ही करनी पड़ेगीं। राकेश जी को हार्दिक बधाई इस गीत के लिए।
जवाब देंहटाएंइसे कहते हैं धमाकेदार शुरुआत ... वो मुखड़ा ही क्या ... वो गीत ही क्या जो आपको जबरन खैंच कर आपकी बीती हुई दुनिया में ना ले जाए ... आम, गुलेल, कंचे, अमरूद, कांजी, तरबूज जामुन, फूट, गंदेरी ..... उफ्फ .... मुझे तो ये गाना याद आ गया ... कोई लौटा दे मेरे बीते हुवे दिन ....
जवाब देंहटाएंराकेश जी की कलम का जादू सिर पे चॅड कर बोल रहा है आज ... गर्मियों की दोपहरी में भी इतना मोहक .... मन में उतार जाने वाला गीत है ये ....
गुरुदेव ... आपकी मेहनत गुरुकुल के विधयार्थीयों को हर पोस्ट में कुछ ना कुछ सीखने का मौका देती है .... इस गीत की संवेदना ... और प्रयोग किए गये शब्द ... सोच को नयी दिशा देते हैं .... बहुत ही लाजवाब है आगाज़ ...
वाह,
जवाब देंहटाएंकहाँ तो एक एक मिसरे के लिए जूझना पड़ा है और राकेश जी की ये दो गीत तो ऐसा लगता है निर्मल नदी की रवानी,,कल कल बहता जल
कहाँ तो एक एक मिसरे को कच्चा तोड़ कर रसायनिक छिडकाव के द्वारा पकाया जाना और राकेश जी के गीत की एक एक पंक्ति पेड़ के,, पक कर झूमते फल
रसभरी गंडेरियों के ढेर दोनों में भरे वे
खिन्नियों के रसभरी के स्वाद यादों में झरे वे
चिलचिलाती धूप में चढ़ सायकिल पर घूमना वो
प्याऊ पर जा तृप्ति देने नीर से भरना घड़े वे
रोज छत पर आ कोई आवाज़ सी देती टिटहरी
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी
कितना सटीक कितना मारक, हर किसी को अपनी लगाने वाली...
शानदार आगाज हुआ है
गुरु जी आपने जिन शब्दों से पोस्ट की शुरुआत की है एक बार फिर से यह शेर गुनगुनाने लगा -
रोज पुरानी यादें हमसे मिलने आती है,
शान ढले इस सूने घर में मेला लगता है|- कैसर साहब
राकेश जी का जवाब नहीं।
जवाब देंहटाएं---------
समीरलाल की उड़नतश्तरी।
अंधविश्वास की शिकार महिलाऍं।
तरही की इतनी धमाकेदार शुरुआत. राकेश जी के गीतों के भाव, शब्द कुछ कहने के लिए ही नहीं छोड़ रहे हैं. अगर कुछ कहना भी चाहें तो सिर्फ अद्भुत और लाजवाब ही निकलेगा.
जवाब देंहटाएंइतना सुन्दर और सजीव चित्रण है कि पढने पर आँखों के सामने खुदबखुद एक तस्वीर बनती जा रही है,
"प्यास लेकर अनबुझी यह घास पीली पड़ गई है
घाट तक आती नहीं, लगता नदी हर डर गई है"
"वो दुपहरी" वाला गीत तो सचमुच गज़ब ढा रहा है. हर शब्द, हर एक पंक्ति एक अलग और अनूठे अंदाज़ में कही गयी हैं,
"आम पर अमरूद पर लगते गुलेलों के निशाने", .अद्भुत ................वाह वा
"मेड़ के कांधे सटी वो ज्वार दुल्हन सी, छरहरी", कुछ भी कहूं तो कम ही होगा
जब कभी भी बचपन की सुनहरी यादों में लौटने का मन करेगा और खासकर वो बीती हुई गर्मियों की दुपहरी में तो इस गीत की तरफ बरबस ही खिंचा आऊंगा. एक अजब सा जादू है इसमें, जिसे शब्दों में बयाँ करना बहुत मुश्किल है मगर बार-बार पढ़ के यादों के समंदर में गोते लगा के उसका एहसास होता है.
गर्मिआँ भी इतना आनन्द देती हैं ये तो आज ही जाना मुझे कभी गर्मियाँ अच्छी नही लगी या शायद हर चीज़ मे सौन्दर्य ढूँढ्ने से ही मिलता है राकेश जी ने भावों के जिस उत्कर्ष मे गीत लिखे हैं उन के लिये मैं तो कम से कम निशब्द हूँ मुझे समझ नही आ रहा कि किस किस पँक्ति की तारीफ करूँ। कम से कम इतनी ऊँचाई पर सोचना और उन्हें शब्द देना ये कमाल राकेश जी ने कर दिखाया है। बधाई उन्हे। आपकी मेहनत व्यर्थ नही जाती बहुत कुछ बाँट कर जाती है सोच को नयुए आयाम देती है। शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंराकेश जी ....मेरे प्रिय गीतकार.... और आप कह रहे हैं कि इनके गीत के विषय में विस्तृत टिप्पणी दूँ ? क्या ऐसा है मेरे वश में ?
जवाब देंहटाएंराख जैसे रंग वाली राह से उठते धुँआ से
जल नही है टोटियों में शीश से बहता निरंतर
प्यास लेकर अनबुझी ये घास पीली पड़ गई है
घाट तक आती नही, लगता नदी हर डर गई है।
इन पंक्तियों पर कोई क्या कहे ?
बात अम्मा ने कही थी क्या भला बस रामजाने
बचपन की बात हो और अम्मा की झिड़की ना याद आये ? संभव है क्या ?
क्या आग़ाज़ है गुरू जी। बार बार पढ़ने वाला.....
bahut khubsurat shuruaat ke liye badhaai
जवाब देंहटाएंगुरु देव प्रणाम,
जवाब देंहटाएंगर्मी की तरही की शुरुआत गीत सम्राट राकेश जी के इन दोनों गीतों से बिखरती चांदनी से अहा क्या बात है ! गुरु देव मैं तो यही कहूँगा की राकेश जी से आपने ये दोनों कालजई गीत लिखवा लिए इसी तरही के बहाने ! दूसरे
गीत को पढ़कर कोई भी अपनी पुरानी यादों में ना खो जाए इसमें कोई शक नहीं !
आगाज़ ये है तो अंजाम क्या होगा ! राकेश जी को प्रणाम और बधाई देना चाहूँगा हम सभी के बिच एक कालजई रचना देने के लिए !
आस ले बैठी हुई दालान में आकर गिलहरी ... इस लाइन पे अभी तक गुम हूँ... धन्य हैं राकेश जी.
अर्श
इस तरही मुशायरे के आयोजन के लिये एक बार फिर पंकजजी का धन्यवाद. उनका आग्रह
जवाब देंहटाएंस्वयं ही कलम को प्रेरित करता है समय से कुछ लिख कर भेजा जाये. इस बार भी यही हुआ
पंकजजी का आयोजन ही आदेश की तरह होता है इसलिये मैने भी इधर उधर से शब्द
उठा संजोये और उनके पास भेज दिये. आप सभी को पसन्द आये तो इसके धन्यवाद के पात्र भी
पंकजजी हैं
नीरज भाई--आपका राजस्थान जयपुर और उसके पश्चिम में रहा तो मेरा पूर्व में भरतपुर और
निकटवर्ती मथुरा और आगरा से प्रभावित.म भरतपुर में अनाह फ़ार्म ९ चार किमी दूर ) जाकर
बहुत मूली,पालक, गाजर और मटर उखाड़ और तोड़ कर खाये हैं. राजघराने के निवास क्षेत्र में स्थित
गोलबाग में आम,इमली,अमरूद,शहतूत के साथ कुछ फ़ालसे के पेड़ भी थे.. अई के महीने में
पतंगें भी वहीं उड़ती थीं ( मुझे कभी उड़ाना नहीं आया--आपने उडाईं क्या ? ) और गर्मी के साथ
भरतपुर की खस तो विश्व प्रसिद्ध रही है न. मेरे बचपन में उस खस का इत्र एक सौ साठ रुपये तोला
हुआ करता था.
अब आपने कुछ और याद दिला दीं हैं
केवड़े में डूब लच्छे लौकियों के खांड वाले
रस भरे शहतूत ले वे तोटई रंगत निराले
फालसे की गिठलियों का दांत में वो किरकिराना
भाई नीरज ! आपने कुछ और पन्ने खोल डाले
साथ कानों में लगी वो इत्र की छोटी फ़ुरेरी
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी.
सादर
राकेश
इस तरही मुशायरे के आयोजन के लिये एक बार फिर पंकजजी का धन्यवाद. उनका आग्रह
जवाब देंहटाएंस्वयं ही कलम को प्रेरित करता है समय से कुछ लिख कर भेजा जाये. इस बार भी यही हुआ
पंकजजी का आयोजन ही आदेश की तरह होता है इसलिये मैने भी इधर उधर से शब्द
उठा संजोये और उनके पास भेज दिये. आप सभी को पसन्द आये तो इसके धन्यवाद के पात्र भी
पंकजजी हैं
नीरज भाई--आपका राजस्थान जयपुर और उसके पश्चिम में रहा तो मेरा पूर्व में भरतपुर और
निकटवर्ती मथुरा और आगरा से प्रभावित.म भरतपुर में अनाह फ़ार्म ९ चार किमी दूर ) जाकर
बहुत मूली,पालक, गाजर और मटर उखाड़ और तोड़ कर खाये हैं. राजघराने के निवास क्षेत्र में स्थित
गोलबाग में आम,इमली,अमरूद,शहतूत के साथ कुछ फ़ालसे के पेड़ भी थे.. अई के महीने में
पतंगें भी वहीं उड़ती थीं ( मुझे कभी उड़ाना नहीं आया--आपने उडाईं क्या ? ) और गर्मी के साथ
भरतपुर की खस तो विश्व प्रसिद्ध रही है न. मेरे बचपन में उस खस का इत्र एक सौ साठ रुपये तोला
हुआ करता था.
अब आपने कुछ और याद दिला दीं हैं
केवड़े में डूब लच्छे लौकियों के खांड वाले
रस भरे शहतूत ले वे तोटई रंगत निराले
फालसे की गिठलियों का दांत में वो किरकिराना
भाई नीरज ! आपने कुछ और पन्ने खोल डाले
साथ कानों में लगी वो इत्र की छोटी फ़ुरेरी
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी.
सादर
राकेश
फालसे की गिठलियों का दांत में वो किरकिराना
जवाब देंहटाएंवाह वाह वाह अदभुद शब्द संयोजन
चार दिन बाहर रहकर लौटने पर पहला काम यही स्वाभाविक था और देखता हूँ कि दो खूबसूरत गीत स्वागत कर रहे हैं। आनंद आ गया।
जवाब देंहटाएंईमानदारी से कहूँ राकेश जी तो आपके ये दो गीत हर किसी को स्वयं की भावनायें और यादें प्रस्तुत करते लगेंगे और दिल के करीब लगेंगे।
गीत विधा का खुलकर उपयोग किया है आपने ये दुपहरी और वो पुहरी के लिये।
बधाई।
तरही मुशायरे का शुभारंभ इससे बेहतर तो और कुछ हो ही नहीं सकता था| दोनों गीतों को तनिक जल्दबाज़ी में पढ़ तो मैं पहले ही गया था...आज, अभी देर से,फुरसत से पढ़ा...राकेश जी ने तामाम बिंबों को यूं सहेज लिया है की जैसे छोटे बच्चे अपने बिखरे कंचों को...कुछ भी तो नहीं छूटा...
जवाब देंहटाएंदोनों मिसरों पे अलग अलग लिखने का सोचना भी अपने-आप में बहुत बड़ी बात थी...लेकिन ये तो हमसब के प्यारे गीतकार राकेश जी हैं, शब्दों के मसीहा से शब्दों का कोई काम असंभव कैसे हो सकता है|
काफ़ियों के लिए विशेष तौर पर राकेश जी को नमन...खासकर "जलहरी" के लिए |
जवाब देंहटाएंआदरणीय राकेश जी के मधुर और संवेदनशील गीतों से एक विशेष वातावरण का निर्माण हुआ है.
जवाब देंहटाएंतरही का आगाज़ जोरदार है. मेरे ख्याल से ये हम सब के लिए एक यादगार तोहफा होगा.
हर पंक्ति पूरी जीवंतता से गर्मियों की दुपहरी का अहसास कराती रहीं..पूरी शिद्दत के साथ. आनन्द आया गीतों को पढ़कर.
जवाब देंहटाएंभाई श्री राकेश जी सिध्ध - हस्त कवि हैं जिन के पास शब्द भण्डार , अभिव्यक्ति , साधना व भावुक कवि ह्रदय भी है और उन्होंने ये गर्मियों की दोपहरी + वो दोपहरी दोनों को रखते हुए बेहद सजीव कवितायेँ दीं हैं जिन्हें पढ़ते ही भारतीय ग्रामीण अंचल, शैशव, पारिवारिक तथा सामाजिक परिवेश जीवंत हो उठा ..मा सरस्वती के प्रिय पुत्र की लेखनी सदा इसी तरह चलती रहे ये दुआ करते हुए , आप सभी को ,
जवाब देंहटाएंस स्नेह सादर नमस्कार -
- लावण्या
शब्द दे आवाज़ लेकिन भावना है आज बहरी,
जवाब देंहटाएंऔर सन्नाटे में डुबी गर्मियों की ये दुपहरी।
बेहतरीन ख़यालात।