आज से रोहिणी का तपना भी प्रारंभ हो गया है जिसको कि नौतपा कहा जाता है । इस बार तो ये नौतपा और भी ज्यादा एक दिन बढ़ कर आया है मतलब दस दिन का है । कहते हैं कि नौतपे में जितनी तपन होती है उतनी ही बरसात की अच्छी संभावना होती हैं । 25 मई से दस दिन तक नौतपे के दस दिन हैं । सूरज अपनी पूरी शक्ति लगाकर कर पृथ्वी को जलाने का प्रयास करता है । और इसी के परिणाम से सागर से मेघों की टोली निकल पड़ती है सूरज की चुनौती का समाना करने, जलती, तपती धरती को राहत प्रदान करने । खैर चलिये हम चलते हैं आज की तरही ग़ज़लों की तरफ । आज एक साथ दो शायर हैं । इसलिये क्योंकि दोनों का ही परिचय आदि प्राप्त नहीं हुआ है सो एक साथ दोनों को ही लगाया जा रहा है । एक बात और, टिपपणियां करने में कुछ समस्या आ रही है लेकिन बेनामी टिप्पणियों में नहीं आ रही है । यदि आपको भी टीप लगाने में समस्या आये तो टिप्पणी बाक्स में जहां ''इस रूप में टिप्पणी करें'' लिखा है वहां ''नाम / url'' का आप्शन चुन कर अपना नाम लगा दें उससे आपके नाम से टिप्पणी प्रकाशित हो जायेगी । और आपकी टिप्पणी बेनामी न होकर आपके ही नाम से हो जायेगी ।
ग्रीष्म तरही मुशायरा
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी
संजय दानी
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी,
याद नानी की दिलाती, गर्मियों की ये दुपहरी।
सूनी गलियां सूने मेढों के मुनासिब दायरे में,
इश्क़ को परवां चढाती , गर्मियों की ये दुपहरी।
खेतों के मज़दूर हम, सूरज भी हमसे ख़ौफ़ खाता,
देख हमको मुंह छिपाती, गर्मियों की ये दुपहरी।
सुनती जब शहनाई की आवाज़ शादी वाले घर में,
बेरहम सी मुस्कुराती ,गर्मियों की ये दुपहरी।
शाम की महफ़िल सजे जब गांव के चौपाल में तो,
साथ सबके गुनगुनाती, गर्मियों की ये दुपहरी।
उठती जब तलवार सावन की,गगन के सर पे,जाने
किस वतन को भाग जाती , गर्मियों की ये दुपहरी।
आम की बगिया में झपकी लेता जब ,जाने कहां से
नर्म झोंके ले के आती , गर्मियों की ये दुपहरी।
मुश्किलों से डरने वाले ज़िन्दा इन्सानों को दानी,
पाठ, हिम्मत का पढाती ,गर्मियों की ये दुपहरी
हूं काफी अच्छे शेर निकाले हैं संजय जी ने । खेतों के मजदूर हम सूरज भी हमसे खौफ खाता, देख हमको मुंह छिपाती गर्मियों की ये दुपहरी, बहुत अच्छे भाव से बांधा है शेर को । मकता भी बहुत सुंदर बन पड़ा है हौसलों से भरा हुआ । सूनी गलियां सूनी मेढ़ों के मुनासिब दायरे में, इश्क को परवान चढ़ाने का शब्द चित्र सुंदर है ।
निर्मल सिद्धू
ना सुनहरी ना रुपहली गर्मियों की ये दोपहरी
ये तो चुभती ये तो दुखती गर्मियों की ये दोपहरी
दूर तक ख़ामोशियां हैं जिस्म सबका है पिघलता
जान सबकी टांग देती गर्मियों की ये दोपहरी
आंख मुश्किल से लगे है सांस मुश्किल से चले है
सबके दिल को है जलाती गर्मियों की ये दोपहरी
सर्द क़ुल्फ़ी का निग़लना सर्द लहरों में वो तरना
दिल में ठंडक डाल जाती गर्मियों की ये दोपहरी
वो भले ही भूल जायें हम उन्हें ना भूल पाते
याद उनकी लेके आती गर्मियों की ये दोपहरी
साथ निर्मल के यही बस तेरी यादों का पिटारा
''और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये दोपहरी''
वो भले ही भूल जाएं हम उन्हें ना भूल पाते याद उनकी ले के आती गर्मियों की ये दुपहरी, अच्छा शेर बन पड़ा है । स्मृतियों के गलियारे में भटकता हुआ सा । और लगभग ऐसी ही तासीर लिये मकता भी सुंदर बना है जिसमें सुंदरता के साथ गिरह बांधी है । साथ निर्मल के यही बस तेरी यादों का पिटारा, हम सब के पास यही तो होता है किसी न किसी याद का पिटारा ।
तो सुनते रहिये दोनों ग़ज़लों को और दाद देते रहिये । मिलते हैं अगले अंक में ।
दोनो ही प्रस्तुतियाँ बड़ी ही सुन्दर।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर अश’आर कहे हैं दोनों ही शायरों ने। संजय दानी जी को और निर्मल सिद्धू जी को बहुत बहुत बधाई इन बेहतरीन ग़ज़लों के लिए।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर ग़ज़लें हैं.. संजय जी ने तरही मिसरे को मिसरा-ए-उला बना कर चौंका दिया. "खेत के मजदूर हम." और मकता खास तौर पर पसंद आये.
जवाब देंहटाएंनिर्मल जी की गज़ल में "आँख मुश्किल से लगे है..", "वो भले ही भूल जाएँ.." और मकता बहुत पसंद आये.
बहुत बहुत धन्यवाद.
अरे वाह! दोनों ही बेहतरीन... एक से बढ़कर एक
जवाब देंहटाएंवाह क्या ग़ज़लें हैं, बहुत खूब| भाई संजय दानी जी और भाई निर्मल सिद्धू जी को बहुत बहुत बधाई|
जवाब देंहटाएंनिर्मल भाई ने तरही को एक अलग तरह का टच दिया है| इस तरही में अलग तरह का शेर लगा ये:-
वो भले ही भूल जाए, हम उन्हें ना भूल पाते|
याद उन की ले के आतीं गर्मियों की ये दुपहरी||
खेतों के मजदूर हम..............
जवाब देंहटाएंगाँव के चौपाल की महफ़िल.............
मुश्किलों से डरने वाले..........
संजय भाई के ये शेर मनमोहक लगे| बधाई|
परीक्षण के लिये की गई टिप्पणी
जवाब देंहटाएंtesting
जवाब देंहटाएं@ संजय दानी जी,
जवाब देंहटाएंसूनी गलियां सूने मेढों के मुनासिब...................वाह वा
खेतों के मज़दूर हम, सूरज भी हमसे .....................क्या खूब कहा है
अच्छे शेर कहें हैं.
@ सिद्धू जी,
वो भले ही भूल जायें हम उन्हें ना..............सुनहरी यादों हमेशा साथ रहती हैं और हर वक़्त याद आती हैं.
गुरु जी, शाम होते-होते ब्लॉग का रंग भी बदल गया है, लग रहा है नौतपा से बचने के लिए आपने ब्लॉग को हलके रंगे से सजा दिया है. अच्छा लग रहा है.
संजय दानी साहब ने खूब कहा कि 'खेत के मज़दूर हैं हम, सूर्य हमसे ख़ौफ़ खाता' मार्चिंग सांग 'कंधों से मिलते हैं कंधे, कदमों से कदम मिलते हैं' वाली चुनौती है।
जवाब देंहटाएंसिद्धू साहब का गर्मियाना बयां 'ऑंख मुश्किल से लगे है....' और गर्मियों में उनकी यादें लेकर आना और फिर एक बार यादों से साथ निभाते हुए गर्म्रियों का सन्नाटा बिताना। वाह भई वाह।
तिलक राज कपूर
अब तो बेनामी ही नहीं नामी टिप्पणियॉं भी जा रही हैं।
जवाब देंहटाएंपिछली टिप्प्णी में 'नामी' शुद्ध मज़ाक है, वस्तुत: अब टिप्पणी सही काम कर रही हैं।
जवाब देंहटाएंवाह एक से बढ़ कर एक ... संजय जी और निर्मल जी ने बहुत ही लाजवाब शेर कह के गर्मियों की धूप को और बढ़ा दिया है ...
जवाब देंहटाएंदानी साहब के शेर
जवाब देंहटाएंसूनी गलिया, सूने मेढों.............
खेतों के मज़दूर हम......
उठाती जब तलवार......वाह क्या बात है
बहुत पसंद आये|
निर्मल साहब आपके ये शेर
जान सबकी टांग देती....
दिल में ठंडक डाल जाती.....
और गिरह का शेर
बहुत पसंद आया|
दोनों शायरों को बधाई|
बहुत ही सुन्दर,शानदार और उम्दा प्रस्तुती!
जवाब देंहटाएंदोनों ग़ज़लकारों ने तालियाँ बजाने पर मजबूर कर दिया...इन निहायत खूबसूरत ग़ज़लों के लिए दिल से ढेरों दाद निकल रही है...
जवाब देंहटाएंनीरज
सुबीर जी का अभार व सभी साहित्य प्रेमियों को हौसला प्रदान करने के लिये तहे-दिल शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंदानी साब का "शाम की महफिल सजे.. " वाला और निर्मल जी का "वो भले ही भूल जाये.." वाले शेर बहुत पसंद आए| एकदम अलग से...
जवाब देंहटाएंदोनों साहेबान अपना परिचय भी जो भेज देते साथ मे तो कितना अच्छा रहता....
बहुत बढ़िया....
जवाब देंहटाएंपढ़ तो ले रहे हैं मगर टिप्पणी न कर पाने की मजबूरी आप समझ सकते हैं मास्स्साब...आप स्थितियों से वाखिब हैं अतः क्षमाप्रार्थी. अन्यथा न ले. आनन्द हम ले ही रहे हैं जो उद्देश्य है.