हौले हौले तरही आगे बढ़ रहा है । और आज जब ये पोस्ट लगा रहा हूं तब साथ में विधानसभा चुनावों के नतीजों पर भी नज़र रखा हूं । अपनी राजनैतिक पसंद नापसंद को कभी जाहिर करना मैंने ठीक नहीं समझा, इसलिये ये तो नहीं कह सकता कि नतीजे आने पर मुझे कैसा लगा रहा है किन्तु हां ये अवश्य है कि मैं भारत के मतदाता के समझदार होते जाने पर प्रसन्न हूं । प्रसन्न हूं कि वो अब कुछ सोच कर वोट देने लगा है । खैर तो आज हम तरही के क्रम को आगे बढ़ाते हैं । आज का अंक देश की सांप्रदायिक सौहार्द्र के नाम । तीन कारणों से, पहला इसलिये कि सबसे पहले तो आप सब को आभार नफीसा को पसंद करने के लिये और आभार विशेष कर इस पत्र के लिये जो मेरे लिये जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पत्र हो गया है 'लेकिन कभी कभी ब्लाग पर कुछ लोगों की संकीर्ण मानसिकता जब मन में निराशा भर देती है तो तुम जैसे लोग ही आशा का सूरज बन कर सामने आते हैं ख़ुदा से दुआ है कि इस संसार को बहुत सारे पंकज सुबीर अता करे आमीन ख़ुदा हाफ़िज़' । सांप्रदायिक सौहार्द्र की दूसरी बात आगे आज़म जी के साथ घटे एक घटनाक्रम में भी आयेगी । तीसरा अभी एक और बात कल हमारे शहर के पास स्थित एक बड़े मदरसे ( ये दारुल उलूम मदरसा अंतर्राष्ट्रीय स्तर का है ) में एक स्वास्थ्य केन्द्र तथा गौशाला का शुभारंभ किया गया । और बड़ी बात ये है कि स्वास्थ्य केन्द्र का शुभारंभ करने के लिये मदरसा के संचालकों ने किसी और को नहीं बल्कि कांची कामकोटी पीठ के शंकराचार्य श्री जयेन्द्र सरस्वती जी को बुलाया । समाचार यहां देखें । इन घटनाओं को बढ़ाया जाये ताकि देश मज़बूत हो सकते ।
ग्रीष्म तरही मुशायरा
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी
डॉ. आज़म
मेरे बहुत अच्छे मित्र और उतने ही अच्छे शायर हैं । अलीगढ़ मुस्लिम विवि से आपने यूनानी पद्धति से चिकित्सा में डिग्री हासिल की है और अभी सीहोर के शासकीय अस्पताल में पदस्थ हैं । खुले विचारों के धनी डॉ आजम बहुत डूब कर ग़ज़लें लिखतें है और इनकी ग़ज़लें उर्दू की सभी प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में छपती रहती हैं अभी देश की सबसे बड़ी उर्दू पत्रिका शायर ने उनके परिचय के साथ काफी ग़ज़लें छापी थीं । अरूज़ के जानकार हैं और जल्द ही शिवना प्रकाशन से इनकी एक विस्तृत पुस्तक ग़ज़ल के व्याकरण पर आ रही है ( लिमिटेड एडीशन) । खूब मुशायरों में शिरकत करते हैं । एक और विशेषता ये है कि ये हिंदी के भी जबरदस्त हिमायती हैं । हिंदी में भी ग़ज़लें और कविताएं खूब लिखते हैं । मंच के बेहतरीन संचालक हैं । ये जब भी संचालन के दौरान मुझे ग़ज़ल पढ़ने आमंत्रित करते हैं तो कहते हैं कि अब मैं एक जेनुइन साहित्यकार को बुला रहा हूं । इन दिनों भोपाल में मुशायरों में धूम मचाये हुए हैं । पूर्व में स्थानीय चैनल पर समाचार भी पढ़ते रहे हैं । कई सारे पुरस्कार मिल चुके हैं अभी पिछले साल का शिवना पुरस्कार इनको दिया गया था । ये जो फोटो ऊपर लगा है ये आज़म जी ने अपने फेसबुक की प्रोफाइल पर लगाया हुआ है और विशेष कर मुझसे ये कह कर लगवाया कि इसे लगा दो इसमें सर पर तिलक होने से अपने देश का पूरा प्रतिनिधित्व हो रहा है । जिस पर उनको ये मैसेज मिला उसका आज़म जी ने क्या उत्तर दिया वो भी पढ़ें । ये जो यू.डब्ल्यू.एम. ये भारत से संबंधित नहीं है, इस बाहर की संस्था को आज़म जी का जवाब हमारे देश की सांप्रदायिक एकता का बड़ा उदाहरण है ।
यू.डब्ल्यू.एम. : मोहम्मद के माथे पर तिलक नहीं होता ... लानत है ... या तो नाम बदलो या फोटो ...
मोहम्मद आज़म: यह हिन्दुस्तान की गंगो जमनी तहजीब को ज़ाहिर कर रहा है, मज़हब नहीं । मज़हब की तंगनज़री पर हज़ार बार लानत ....
यू.डब्ल्यू.एम. : किसी हिन्दू को नमाज़ पढ़ते देखा है ...?
मोहम्मद आज़म: मैंने नमाज़ और रोज़े रखते हुए भी देखा है इन आल सो कॉल्ड इस्लामिक एटायर एंड विथ फुल फैथ । मेरी ये तस्वीर एक हिंदी मंच के सम्मान की है ।( पिछले वर्ष शिवना प्रकाशन का शिवना पुरस्कार ) मैंने खुसूसी तौर से नहीं खिंचवायी है । ये एजाज़ बशीर बद्र और बेकल उत्साही के हाथों मुझे दिया गया । बेशतर शाइर और श्रोता मुस्लिम थे । एक लाल टीके से इतनी तकलीफ समझ से बाहर है । हम रिचुअल्स और रेलिजन को एक कब तक समझते रहेंगे । बिहार में तो मुस्लिम औरतें सिन्दूर लगाती हैं । तो क्या वोह मज़हब से खारिज हो गयीं । मज़हब का दायरा बहुत वाइड है । सब कुछ नीयत पर है । 'बुत ' और खुदा पर पुराने शाइरों ने ऐसे शेर कहें है के आज का शाइर कहदे तो क़त्ल कर देने का फतवा जारी हो जाये । क्यूंकि आज तंग नज़री और इन्तहा पसंदी बढ़ गयी है ।
( आज़म जी के इस उत्तर के बाद यू.डब्ल्यू.एम. ने अभी तक कोई जवाब नहीं दिया )
तरही ग़ज़ल
क़हर ढाती, चिलचिलाती, गर्मियों की ये दुपहरी
जानदारों पर है भारी गर्मियों की ये दुपहरी
पास कूलर है न ए.सी., गर्मियों की ये दुपहरी
ऐसी तैसी कर दे सबकी गर्मियों की ये दुपहरी
बन गया घर एक भट्टी, तप रही है सारी धरती
इस तरह है आग उगलती, गर्मियों की ये दुपहरी
कितने बदकि़स्मत झुलस कर मर गये इसकी तपिश से
इक क़यामत के है जैसी , गर्मियों की ये दुपहरी
कर दिया बाज़ार ख़ाली, हो गईं सुनसान सड़कें
आके कर्फ्यू सा लगाती, गर्मियों की ये दुपहरी
कोक पी लें, आम खा लें, लस्सी पी लें , ककड़ी खा लें
है कहां फिर भी गुज़रती, गर्मियों की ये दुपहरी
लू की लपटें, धूप तीखी, और कभी आंधी बवंडर
साथ लाए संगी साथी, गर्मियों की ये दुपहरी
प्यास की शिद्दत है ऐसी, भूक मर जाती है जिससे
रूह को भी कर दे प्यासी, गर्मियों की ये दुपहरी
नौ बजे हैं और अभी से, सख़्त गर्मी पड़ रही है
आ गई क्या सुब्ह से ही, गर्मियों की ये दुपहरी
ताल पोखर, खेत जंगल, पेड़ पौधे सब सुखा दे
हाय ऐसी, उफ है ऐसी, गर्मियों की ये दुपहरी
बच्चे बूढ़े, मर्द औरत, सब के लब पर ये सदा है
जान लेगी क्या मई की , गर्मियों की ये दुपहरी
अच्छी बारिश के लिये हैं, धूप और गर्मी ज़रूरी
फ़र्ज़ आज़म है निभाती , गर्मियों की ये दुपहरी
जान लेगी क्या मई की गर्मियों की ये दुपहरी, इस मिसरे में रदीफ पूरी रवानगी के साथ मिसरे में गुथ गया है । और आ गई क्या सुब्ह से ही गर्मियों की ये दुपहरी इसमें तो आज़म जी ने कमाल कर दिया है । इक क़यामत के है जैसी गर्मियों की ये दुपहरी । तो आनंद लीजिये आज़म जी की इस शानदार ग़ज़ल का और दाद देते रहिये ।
फिर एक अनुरोध जिन लोगों ने परिचय आदि नहीं भेजा है वे भेज दें जिन के परिचय नहीं मिलेंगे उन सभी की ग़ज़लें एक साथ दो या तीन रचनाकारों को लेकर लगाई जायेगी ।
कमाल की गज़ल कही है आज़म जी ने.. मकते और मतले समेत १२ शेर और सभी के सभी शानदार. "नौ बजे हैं और अभी से..", बच्चे बूढ़े..", "कोक पी लें..", "लू की लपटें..", "पास कूलर.." क्या खूब शेर हैं. मतला और मकता भी बहुत अच्छे लगे.
जवाब देंहटाएंआज़म जी को इस खूबसूरत गज़ल के लिये धन्यवाद.
आज़म जी की गज़ल के व्याकरण पर आने वाली किताब का इंतेज़ार रहेगा. कृप्या एक प्रति कृप्या मेरे लिए सुरक्षित ज़रूर रखें..
आज़म जी, आपको बहुत दिनों से पढ़ते आ रहा हूँ..क्या कमाल की शायरी है आपकी..आज भी उतने ही बेहतरीन शेर एक सरल ज़ुबान मे बेहतरीन ग़ज़ल जो पढ़ते ही दिल में बैठ जाए....बहुत बहुत बधाई हो इस सुंदर प्रस्तुति के लिए.
जवाब देंहटाएंडा० आजम साहब की बेहतरीन गज़ल पढकर मंत्रमुग्ध हूँ
जवाब देंहटाएंगर्मी के कहर को असाधारण तरीके से वर्णित किया है, मई और जून में घटने वाली हर एक घटना का सूक्ष्म विश्लेषण करने के उपरांत ही ऐसी गज़ल कही जा सकती है| इसके लिए आपको जितनी भी दाद दी जाए वो कम है|
जहां तक चुनावी नतीजों का प्रश्न है ये तो समय ही बताएगा की ये सरकारें कैसी हैं ..क्योंकि अभी भी इन्हें विशवास जीतना बाकी है| हाँ इतना तो तय है की जनता बदलाव की राह पर चल पडी है|
सांप्रदायिक सौहार्द की खबर सुन कर मन प्रसन्न हुआ है और आजम साहब और (UWM...इनका पूरा नाम क्या है )के बीच हुए वार्तालाप में आज़म साहब का जवाब इन तथाकथित अलमबरदारों के मुंह पर एक करारा तमाचा है|
हाथी वाली तस्वीर भी गज़ब की है ....फोटोग्राफर को हमारा सलाम|
जितना उन्नत व्यक्तित्व, उतनी उन्नत गज़ल।
जवाब देंहटाएंयादों को कष्ट दिये बिना डॉ. साहब ने 'गर्मियों की ये दुपहरी' की नब्ज़ कुछ ऐसी पकड़ी है कि गर्मी खुद-ब-खुद शेर-दर-शेर अपने राज़ परत-दर-परत खोलती चली गयी।
जवाब देंहटाएंखूबसूरत ग़ज़ल के लिये बधाई।
आज़म भाई की ग़ज़ल क्या है रंग बिरंगे शब्द चित्र है...गर्मियों का मंजर ज्यूँ का त्यूं आँखों के आगे घुमा दिया है उन्होंने...इसे कहते हैं कलम का जादू...वाह...लाजवाब ग़ज़ल कही है उन्होंने...एक भी शेर ऐसा नहीं जिस पर से पढ़ते हुए नज़र फिसल जाय...कमाल है कमाल...
जवाब देंहटाएंजहाँ तक संकीर्ण मनोवृति की बात है तो देखा ये गया है के इस वृति को राजनेता अपनी रोटी सकने को बढ़ावा देते हैं...आम इंसान में आपसी भाई चारे के ज़ज्बे को ये पनपने ही देना नहीं चाहते...इकबाल की कालजयी ग़ज़ल " मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना, हिंदी हैं हम वतन है हिन्दोस्तान हमारा" स्कूल में पढाई जाती है और वहीँ बिसरा दी जाती है...जब इन पंक्तियों को हम हमेशा ज़ेहन में नहीं रखेंगे तब तक यूँ ही बहकते रहेंगे.
नीरज
नीरज भाई ने अल्लामा इकबाल का जि़क्र खूब किया।
जवाब देंहटाएंएक तरही नशिस्त में शरारतन मिस्रा-ए-तरह दिया गया 'वो सभी काफि़र हैं जो बन्दे नहीं इस्लाम के'। इकबाल साहब ने इसपर गिरह कुछ यूँ लगाई कि शरारती तत्वों की बोलती बंद हो गयी। उनका शेर था:
'लाम के मानिंद हैं, गेसू मेरे घनश्याम के
वो सभी काफि़र हैं जो बंदे नहीं इस लाम के'
जो उर्दू लिपि से परिचिल नहीं हैं उनके लिये बता रहा हूँ कि उर्दू में लाम का रूप ऐसा 'ل' होता है जिसकी तुलना इकबाल साहब ने श्याम के माथे पर लटकी ज़ुल्फ़ से करते हुए कहा कि वो सभी काफि़र हैं जो बन्दे नहीं इस लाम के।
तिलक जी जहां तक मुझे पता है यह गिरह औरंगजेब की भांजी चाँद बीबी ने लगाईं थी|
जवाब देंहटाएंमाफ कीजियेगा उनका नाम ताज बीबी था और तरही मिसरा था "हैं वही काफिर नहीं मुश्ताक जो इस्लाम के"
जवाब देंहटाएं@राणा प्रताप जी
जवाब देंहटाएंभाई हमारे लिये तो ये सुनी सुनाई बाते हैं, आपको सही मानते हुए भी बात वही रहती है कि उदाहरण एक मुस्लिम ने ही कायम किया।
औरंगज़ेब की पहचान पॉंच वक्त के नमाज़ी कट्टर इस्लामिक के रूप में की जाती है, उनके समय में उनके परिवार से कोई ये कहे और उन्हें नागवार न गुजरे इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि औरंगज़ेब इस्लाम को समझते थे।
दुनिया का कोई धर्म हो मर्म एक ही है, मर्म तक जो पहुँच गया वह पचड़ों में नहीं पड़ता।
जानकारी शुद्ध करने के लिये धन्यवाद।
आज़म साहब की जिंदादिली को सलाम ... उनके जज़्बे को सलाम .... और ग़ज़ल के क्या कहने सलाम सलाम सलाम ....
जवाब देंहटाएंनौ बजे हैं और अभी से ... वाह .. क्या बात है ... सच है यहाँ दुबई में तो सुबह आठ बजे से ही पारा ४२ तक जा पंहुचा है ... ताल पोखर खेत जंगल ... वाह क्या बयान किया है गर्मियों को बस पढ़ते जाने को दिल कर रहा है ...
गुरुदेव ... अब ये मुशायरा गर्मयों के साथ साथ अपनी जवानी की तरफ कदम रख रहा है ... आप तो फोटो भी छान छान कर लाते हैं ... अपने आप ही गर्मियों का एहसास हो जाता है ...
दिगंबर भाई, आपके यहाँ सुबह आठ बजे ४२ डिग्री है? बाप रे! हमारे यहाँ तो मौसम विभाग के अनुसार, शनिवार और रविवार को अधिकतम १६ डिग्री और न्यूनतम १० डिग्री होने वाला है. मतलब मई के महीने में सर्दियों जैसा मज़ा.. .. ईश्वर की माया...
जवाब देंहटाएंआज़म साहब की ग़ज़ल का मुझे हमेशा इंतज़ार रहता है. तरही में उनसे सीखने को मिलता है.
जवाब देंहटाएंगर्मियों का सजीब चित्रण किया है. बिलकुल मुसलसाल ग़ज़ल "गर्मियों की ये दुपहरी "
सागर वाली टिप्पणी को मेरी टिप्पणी समझें. अपने भांजे के घर आया हुआ हूँ, बुंडू रांची में.
जवाब देंहटाएंआजम साब के जवाब पढ़ कर मजा आ गया| कौन थे ये महाशय जी???
जवाब देंहटाएंग़ज़ल के सारे बिम्ब एकदम अपने आस-पास से उठा कर जिस खूबसूरती से आजम साब ने शेरों में पिरोया है, वो लाजवाब है|
राजीव की टिप्पणी जैसी ही कुछ कुछ मेरी टिप्पणी भी...हम ही मई में सर्दियों का आनंद ले रहे हैं|
गंग जमुनवी संस्कृति के पैरोकार भाई आजम जी की गजल न सिर्फ पुरअसर है बल्कि इस ग्रीष्म ऋतु विशेषांक की शोभा भी बढ़ा रही है| बहुत बहुत मुबारकबाद|
जवाब देंहटाएंबहुत ही खूबसूरत अशआर कहें हैं आज़र साहब ने। क़हर ढ़ाती, चिलचिलाती से शुरू करके फ़र्ज़ निभाती तक सभी शे’र बेहतरीन हैं। मेरे विचार में तरही के मिसरे वाला शे’र छूट गया है पोस्ट लगाते वक्त। आदरणीय सुबीर जी से अनुरोध है कि वो शे’र भी डाल दें ताकि उसका भी आनंद हम सभी ले सकें और इतने बड़े शायर द्वारा तरही की गिरह बाँधने के तरीकों से कुछ सीख सकें।
जवाब देंहटाएंअच्छी बारिश के लिये हैं, धूप और गर्मी ज़रूरी
जवाब देंहटाएंफ़र्ज़ आज़म है निभाती , गर्मियों की ये दुपहरी
waah waah waah
zindabad gazal
आज़म जी ने ' गर्मियों की दुपहरी' का पूरा postmortem कर के रख दिया अपने खूबसूरत अशआरों से...
जवाब देंहटाएंपढ रहि हूँ लेकिन दायेंहाथ से किसी तकलीफ की वजह् से आज कल कुछ लिख नही पा रहि बाये हाथ से मुश्किल से लिख रही हू इस लिये इसी से काम चलायें ।आजम जी को शुभ का.।
जवाब देंहटाएंआज़म साहब की बेहतरीन ग़ज़ल,बहुत खूबसूरत शेर हैं बहुत बहुत बधाई...........
जवाब देंहटाएंहर शेर अपना अलग अंदाज़ लिये बखूबी बयान कर रहा है आजम साहब के अनुभवी नजरिये को.किसी भी एक शेर का चयन करना नामुमकिन है.
जवाब देंहटाएंप्रभावशाली गज़ल.
जैसे आज़म जी से पूछा गया कि किसी हिंदू को देखा है नमाज़ पढ़ते वैसे ही किसी दरगाह पर जाने पर या मौला, मौला जैसे गीत हेलो ट्यून पर लगाने पर इधर भी पूछा जाता है, किसी मुस्लिम को देखा है मंदिर जाते और नाम गिनाने पड़ते हैं हाँ भाई देखा है और खूब देखा है.....
जवाब देंहटाएंखैर ऐसा लगता है कि अब बस ये सियासी लोग अँगुलियों पर ही रह गये हैं और वो भी खतम ही होने वाले हैं। हम सब इतने मैच्योर हो गये हैं कि समझ सकें इनके मंसूबे।
जैसे आज़म जी से पूछा गया कि किसी हिंदू को देखा है नमाज़ पढ़ते वैसे ही किसी दरगाह पर जाने पर या मौला, मौला जैसे गीत हेलो ट्यून पर लगाने पर इधर भी पूछा जाता है, किसी मुस्लिम को देखा है मंदिर जाते और नाम गिनाने पड़ते हैं हाँ भाई देखा है और खूब देखा है.....
जवाब देंहटाएंखैर ऐसा लगता है कि अब बस ये सियासी लोग अँगुलियों पर ही रह गये हैं और वो भी खतम ही होने वाले हैं। हम सब इतने मैच्योर हो गये हैं कि समझ सकें इनके मंसूबे।
अच्छी बरिश के लिये है धूप और गर्मी ज़रूरी,
जवाब देंहटाएंफ़र्ज़ आज़म है निभाती , गर्मियों की ये दुपहरी।
बहतरीन शे"र , आज़म साहब को मुबारकबाद।
आज़म साहब के जवाब ने उन जनाब की बोलती ही बंद कर दी. अब वो कुछ बोलने लायक बचे ही नहीं या शायद कुछ अक्ल आ गयी हो.
जवाब देंहटाएंग़ज़ल का हर शेर, गर्मी के हर बिम्ब को बहुत अच्छे से पिरो रहा है, ये शेर तो खूब बने हैं, वाकई क्या मंज़र उतारा है,
"नौ बजे हैं और अभी से, सख़्त गर्मी पड़ रही है
आ गई क्या सुब्ह से ही, गर्मियों की ये दुपहरी"
मिसरा-ए-सनी में 'ऐसी' लफ्ज़ को दो बार इतने अच्छे से पिरोया है कि शेर की सुन्दरता बहुत बढ़ गयी है, वाह वा
"ताल पोखर, खेत जंगल, पेड़ पौधे सब सुखा दे
हाय ऐसी, उफ है ऐसी, गर्मियों की ये दुपहरी"