रविकांत की कविताओं में ग़ज़लों में एक अलग कुछ होता है जो उन रचनाओं को भीड़ से अलग करता है । हालांकि मुझे आज भी लगता है कि रविकांत गीतों में जितना सहज होकर उभरता है उतना ग़ज़लों में नहीं । दरअसल में हर किसी की एक अपनी ही विधा होती है । एक ऐसी विधा जिसमें कि वो अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में दिखाई देता है । इसका मतलब ये नहीं है कि उस रचनाकार की दूसरी विधाएं कमजोर होती हैं । खैर आज तो रविकांत की बारी है । रविकांत और गौतम इन दोनों में एक समानता है कि दोनों ने ही प्रेम विवाह किया है, और मजे की बात ये है कि दोनों ने ही परिचय के साथ अपनी और अपनी जीवन संगिनी की युगल फोटो नहीं भेजी है, बल्कि अलग अलग भेजी हैं । होता है होता है । आइये रविकांत का परिचय जानें । हां एक विशेष बात, हो सकता है कि तरही का क्रम हर रोज़ का करना पड़े, क्योंकि ग़ज़लें काफी सारी हैं और यदि एक दिन के अंतर से लगाई गईं तो शायद बरसात ही आ जाये ।
ग्रीष्म तरही मुशायरा
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी
रविकांत पांडेय
रचना प्रक्रिया: जीवन स्वयं तिक्त-मधुर प्रसंगों के सहारे मुझसे काव्य-रचना करवा लेता है। सो कभी आनंद के अतिरेक से भावपुष्प मिलकर काव्यहार बन जाते हैं तो कभी मेरे कवि को कविता को जन्म देने के लिये प्रसव-पीड़ा की वेदना से गुजरना पड़ता है-“जब-जब अश्रु नयन में आये, मैंने तब-तब गीत लिखा”।
रविकांत और गुंजन
परिचय: बिहार राज्य के सीवान जिले में जन्म। पश्चात, कालक्रम ने सीवान से पटना, पटना से शिमला और शिमला से कानपुर पहुंचाया जहां कैंसर पर शोधरत हूं। काव्य-प्रेम विरासत में मिला और भारतीय सभ्यता-संसकृति की जड़ों को समझने के क्रम में यह प्रेम और भी पुष्पित-पल्लवित होता गया। कारण कि अधिकांश प्राचीन साहित्य- वेद, पुराण, उपनिषद, योग, दर्शन, तंत्र आदि- काव्य की भाषा में ही कहे गये हैं। इसी प्रक्रिया में एक दिन मेरे भीतर सोया कवि भी जागृत हो गया।
लाड़ली बिटिया
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ब्लाग http://jivanamrit.blogspot.com/
तरही गज़ल
पथ पे अंगारे बिछाती गर्मियों की ये दुपहरी
राहगीरों से है रूठी गर्मियों की ये दुपहरी
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तप रही धरती तवे सी, ग्रीष्म का चूल्हा जला है
और करती है रसोई गर्मियों की ये दुपहरी
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छुप-छुपाकरके बड़ों से, ताल, पोखर के किनारे
रोज बच्चों को बुलाती गर्मियों की ये दुपहरी
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आम, पीपल, इमलियों पर भूत-प्रेतों का बसेरा
ऐसे किस्से लेके आती गर्मियों की ये दुपहरी
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इक घड़े में थोड़ा पानी और प्यासा कोई कौआ
कह रही वो ही कहानी गर्मियों की ये दुपहरी
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गंध महुवे की वो मादक, वो टिकोरे आमवाले
याद फ़िर उनकी दिलाती गर्मियों की ये दुपहरी
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शायरी को चाहिये क्या? सामने तू ज़ुल्फ खोले
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी
तप रही धरती तवे से ग्रीष्म का चूल्हा जला है और करती है रसोई गर्मियों की ये दुपहरी, ये शेर बिम्ब के हिसाब से बहुत ही सुंदर बन पड़ा है । तीन विभिन्न प्रतिकों को बहुत ही सुंदर तरीके से पिरोया गया है । गंध महुवे की वो मादक, वो टिकोरे आम वाले, ये तो खैर सुंदर है ही । एक सबसे अच्छी बात ये है कि गर्मियों की ये दुपहरी लेकर भी सुंदरता के साथ अतीत की बात की है । बहुत सुंदर ग़ज़ल ।
तो चलिये आनंद लीजिये इस ग़ज़ल को । और हां यदि परिचय और चित्र भेजा नहीं है तो भेज दें ।
शायरी को चाहिये क्या? सामने तू----
जवाब देंहटाएंवाह रवीकान्त जी शायद तभी इतनी बढिया गज़लें लिखते हैं।
इक घडे मे थोडा पानी---- शायद कौये की कहानी लिखते हुये कहानी कार ने सोचा नही होगा कि रवि जी कभी इस पर शायरी भी करेंगे। लाजवाब।
सभी शेर बहुत अच्छे लगे
रविकान्त जी गुंजन और लाडली बिटिया को ढेर सारी शुभकामनायें। आपका धन्यवाद इस सितारों की पूरा परिचय करवाने के लिये।
अब तक लगती सोती सी, तप्त दुपहरी, पूरी बहरी।
जवाब देंहटाएंकितना सृजन करायेगी यह, गीष्म-दिवस संलहरी।
वाह...रवि को पढना हमेशा एक सुखद अनुभव रहा है...ये नए रचनाकार हमेशा कुछ नयी बात सामने ले कर आते हैं...इनके कहन और सोच से बहुत कुछ सीखने को मिलता है...तप रही धरती तवे सी...हासिले ग़ज़ल शेर है इस लाजवाब ग़ज़ल का. गर्मियों की ये दुपहरी आप इतनी दिलकश बना देंगे ये अनुमान नहीं था. आपके ग़ज़ल के साथ लगाये चित्र सोने पर सुहागा हैं...जय गुरुदेव...सतयुग आएगा. :-))
जवाब देंहटाएं(वैसे एक राज़ की बात बता दें, प्रेम विवाह हमने भी किया है, बरसों पहले...वो भी अंतर जातीय...जिस पर बैन हर युग में लगा रहता है )
नीरज
रवि भाई को जब भी पढता हूँ वो मुझे हमेशा एक विशिष्ट हिंदी कवि के रूप में मिलते हैं.
जवाब देंहटाएंबात भले ग़ज़ल की है, लेकिन उनका अंदाज उन्हें सब से अलग खड़ा कर देता है.
छुप-छुपाकरके बड़ों से, ताल, पोखर के किनारे...
आम, पीपल, इमलियों पर भूत-प्रेतों का बसेरा, ऐसे किस्से लेके आती गर्मियों की ये दुपहरी.
बहुत करीब से दर्शान कराया है उन दिनों को आज इस गर्मी में.
बहुत खूबसूरत गज़ल है.. प्रतीकों का बहुत सुंदर प्रयोग किया है. "आम, पीपल, इमलियों पर भूत-प्रेतों का बसेरा..", "तप रही धरती..", "छुपछुपाकर के बड़ों से.." और "गंध महुए की.." शेर खास तौर पर पसंद आये.
जवाब देंहटाएंआम, पीपल, इमलियों पर भूत-प्रेतों का बसेरा
जवाब देंहटाएंमुझे याद आ गई उन दिनों की जब मैं बच्चों को भूतों के किस्से सुनाकर डराया करता था।
गंध महुवे की वो मादक--
क्या बात है। महुवे बीनना याद दिला दिया आपने।
(मुझे क्यूँ नहीं सूझा?)
बहुत सुंदर ग़ज़ल कही है रविकांत जी ने। बहुत बहुत बधाई।
वाह वाह ... मुझे तो अंतिम शेर बहुत पसंद आया ... शायरी को चाहिए क्या .... सच में वो हों और तपती हुई दोपहरी ... गली सुनसान हो ... घर वाले भी सोए हों ... तो बात ही क्या ... कोई लौटा दे मेरे बीते हुवे दिन .... रवि जी ने आज कमाल ही कर दिया ... गर्मियों को भी बहार बना दिया ... गुरुदेव अब ये मुशायरा रोज़ हो जाए ... यही मेरा दिल कह रहा है ...
जवाब देंहटाएंवैसे नीरज जी के खुलासे के बाद एक बात मैं भी बता दूं ... भले ही प्रेम विहाव नही किया .. पर पहले दिन से आज तक ऐसे दिन बिताते हैं की प्रेम की नैया में सवार हो कर रोमांस कर रहे हों ...
जवाब देंहटाएंraahgeeron se hai roothi garmion ki ye dupahri.
जवाब देंहटाएंkhoob likha hai. har sher apne aap mein ek gatha kah raha hai.
daad ke saath
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (12-5-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
इस तपती दुपहरी में ये मतला अपनी पूरी कहानी कह रहा है !और दूसरे शे'र में जो बिम्ब साधा है उसके क्या कहने ... तीसरे शे'र ने जैसे बचपन सामने ला खडा किया है ......... पूरी ग़ज़ल कमाल की बनी है ! बहुत बधाई .. हाँ भवानी बिटिया रानी को बहुत सारा प्यार ..
जवाब देंहटाएंअर्श
"तप रही धरती तवे सी, ग्रीष्म का चूल्हा जला है
जवाब देंहटाएंऔर करती है रसोई गर्मियों की ये दुपहरी"
वाह वा, रवि भाई...................क्या बात कही है, उम्दा बेहद उम्दा.
"छुप-छुपाकरके बड़ों से, ताल, पोखर के....................", "आम, पीपल, इमलियों पर भूत-प्रेतों का...................", हर किसी के आस-पास से ये मंज़र उठा के आपने बहुत अच्छे से शेरों में पिरो दिया है.
"गंध महुवे की वो मादक, वो टिकोरे आमवाले
याद फ़िर उनकी दिलाती गर्मियों की ये दुपहरी"
मिसरा-ए-उला तो कतई...जानलेवा है.
मज़ा आ गया रवि भाई. बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है. ढेरों बधाइयाँ और छुटकी, को खूब सारा प्यार.
ताल पोखर के किनारे.....बेहतरीन.. पंकजजी ने सही लिखा है रविकान्त के गीतों के बारे में जो अपना नयापन लिये खुश्बू बिखेरते हैं. यह गज़ल भी उन्होंने अपने अलग अंदाज़ में कही है. शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंरविकांत जी, गुरु जी ने एकदम सही लिखा है आपकी गज़लें हमेशा एकदम अलग सी होती है..अब देखिये ना
जवाब देंहटाएंतवा चूल्हा और रसोई..कमाल की सोच है...प्यासा कौवा ..आम पीपल..ताल पोखर...महुवा..टिकोरा .सब कुछ तो भर दिया है..मज़ा गया
ख़ूबसूरत गज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई|
बिटिया रानी को भी ढेर सा प्यार|
राणा भाई आपने तो मेरे मुंह की बात छीन ली ........
जवाब देंहटाएंमैं खुद अपने कमेन्ट में यही लिखने वाला था की -
राहगीरों
धरती
तवे
ग्रीष्म का चूल्हा
रसोई गर्मियों की
ताल, पोखर
आम, पीपल, इमलियों
घड़े,प्यासा कौआ
महुवे
टिकोरे आमवाले
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी
...सब कुछ तो भर दिया है
आम, इमलिया ,पीपल, टिकोरे ,
जवाब देंहटाएंमहुवे की खुशबू , घड़े का पानी
फूले गुलमोहर, पलाश ...
चिलचिलाती गर्मी की दुपहरियां भी कितनी खूबसूरत हो गयी कविता में ...
आ गयी याद तपती लू में टिकोरे और फालसे के पेड़ों के नीचे चहलकदमी करती यादें !
मेरे ख्याल में रवि की ये गिरह पूरे मुशायरे की सबसे अलग-सी, सबसे अनूठी गिरह रहने वाली है| बहुत ही खूबसूरत ॥ लाजवाब| गुंजन पक्का से इतरा रही होगी इस शेर को रवि से सुनने के बाद.... :-)
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छे रवि| दिल खुश कर दिया तुमने| उस दिन जब मोबाइला पे मेरे घटिया सी तरही को सुनने की जिद कर रहे थे तुम, अच्छा किया जो नहीं सुनाया तुम्हें| अपने इस खूबसूरत तरही के बाद मेरे वाली पे तो तुम ठठा के हँसते ही|
...और गुरूदेव, तसवीरों के लिए सैल्यूट आपको| कहाँ से किस खजाने से निकाल रहे हैं आप ये तस्वीरें...उफ़्फ़! बब्बन गुरूजी का कमाल तो नहीं ये? सब की सब तस्वीरें अपने आप में मुकम्मल मुसलसल ग़ज़लें हैं|
'शायरी को चाहिए क्या ? सामने तू ज़ुल्फ़ खोले
जवाब देंहटाएंऔर सन्नाटे में डूबी , गर्मियों की ये दुपहरी '
.................बेहतरीन शेर ......उम्दा ग़ज़ल
रवि भाई 'गर्मियों की ये / वो दुपहरी' वाली रद्दीफ का बहुत ही खूबसूरती से अनुपालन किया है आपने.........
जवाब देंहटाएंदेशज भावों का सफल शब्दांकन.............
चूल्हा और तवा वाले बिम्बों का बेहद सुंदर प्रयोग.............
उड़ी मार कर ताल तलैया में नहाना वापस बचपन में खींच ले जाने में सक्षम.............
आम के टिकोरे..........यार मुँह में पानी आ गया.............
भूत वाली कहानी..............हूहुहुहू याद आ गया वो बड़े भाई बहनों द्वारा डरा कर सुलाना..............
सामने तू जुल्फ खोले.............मित्र यहाँ तुम थोड़ा शरमा गये| ये ग़ज़ब का और बड़ा ही धाँसू भाव पक्ष है| किसी दूसरी ग़ज़ल में इसे ज़रूर ही खेल कर कहना| बोले तो गुजरातियों में इसे 'बपौरिए' के नाम से जाना जाता है|
इतनी सुंदर ग़ज़ल के लिए बधाई देना सचमुच कम लग रहा है...................और पंकज भाई आप तो अपने चित्रों के माध्यम से धमाकों पर धमाके किए जा रहे हैं भाई.................
नज़र न लग जाये रवि को, ग़ज़ल दमदार कही है, गर्मी का खूब वर्णन किया है।
जवाब देंहटाएंनीरज भाई ने कहा कि प्रेम विवाह उन्होंने भी किया था, अरे भाई शायर कुछ भी कर सकता है। हो सकता है आप उस समय शायरी न करते रहे हों लेकिन:
किसी की ज़ुल्फ़ में अटका वो बन गया शायर
सरल सी राह पे भटका वो बन गया शायर।
सरल सी बात है, क्यूँ न घुमा फिरा के कहूँ,
इसी सवाल पे अटका, वो बन गया शायर।
आपकी ग़ज़ल में ग्रामीण परिवेश का चित्रण बेमिसाल है। ऐसा प्रतीत होता है ये अनुभव जन्य अशआर हैं , बधाई।
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