धीरे धीरे हम समापन की तरफ आ रहे हैं, हालांकि समापन का मतलब ये नहीं है कि सारी ग़जलें पूरी हो गई हैं, समापन का मतलब ये है कि आधा सफर पूरा हो गया है. और हां इस बीच याद आया कि 2007 में जब ब्लागिंग शुरू की थी तब से अब तक अपने इस ब्लाग का टेम्प्लेट कभी भी नहीं बदला, पता नहीं क्यों उस टेम्प्लेट से मोह सा हो गया था। हां उसे अभी भी सेव करके रखा है, यदि ये वाला कुछ दिनों में नहीं जमा तो अपना वही सदाबहार वापस कर लेंगे, क्योंकि परेशानी तो अभी से हो रही है इस वाले में, इसमें हिंदी के अक्षर अचानक ही अंग्रेजी में हो जाते हैं. काम करते करते कुछ और परेशानी भी आ रही है. खैर ये तो हुई आज की.
आज हम एक सुंदर बच्चे से उसकी ख़ूबसूरत ग़ज़ल सुनने जा रहे हैं. पहचान तो गये ही होंगे आप, जी हां बात हो रही है अंकित सफर की तो चलिये आज सुनते हैं अंकित से उसकी तरही ग़ज़ल.
ग्रीष्म तरही मुशायरा
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी
अंकित सफर
तरही की ग़ज़ल न जाने कैसी बन पड़ी है, मगर जैसी भी बन पाई है भेज रहा हूँ. इस बार तो, ग़ज़ल में पसीने बहाने के बाद, परिचय, रचनाशीलता और गर्मी की यादों में भी पसीना बहाना है.
परिचय लिखने का सोचते ही कुछ typed से फॉर्मेट मन में खलबली कर रहें हैं. एक तो वो वाला जिसमे तथा-कथित मुजरिमों की तरह नाम, उम्र, जन्म-स्थान, पेशा और फलाना लिखते हैं और दूसरा वाला वो जो स्कूल के निबंधों में लिखे जाना वाला स्टाइल है कि फलां की पैदाइश यहाँ इतने दिन, महीने और वर्ष में हुई, माँ-पिता का नाम और इन्होने यहाँ से अपनी आरंभिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद, उच्च शिक्षा के लिए फला जगह का रुख किया और अच्छे मार्क्स में उत्तीर्ण होने के बाद या फिर कि पढाई में ज्यादा अच्छे ना होने के कारण वगैरह-वगैरह...... और एक बिंदास वाला नाम ही काफी है, एक और आया दिमाग में वैसे ये ज्यादा अच्छा लग रहा है इसलिए इसी स्टाइल में परिचय दे रहा हूँ ,
अंकित 'सफ़र' नाम तो सुना होगा.
रचना प्रक्रिया के बारे में लिखना मतलब सीक्रेट कोड का खुलासा............ वैसे ज़ेहन आस-पास बिखरे हुए माहौल में से मिसरे चुनता है, दिल उन्हें थोडा rifine करता है और आखिरी में कलम उन्हें बुनना शुरू कर देती है.
अब तो गर्मियों की दुपहरी ऑफिस में बीतती है, मगर वो बचपन की दुपहरी का हमेशा ही बेसब्री से इंतज़ार रहता था. ननिहाल में सब भाई-बहनों का जमावड़ा लगता था और फिर तो पूछो ही मत...........लीचियों, आम के पेड़ों पे दिन-दहाड़े और रात के सन्नाटों में हमला, शाम होते ही छत या मैदान में पतंगों से पेंच लड़ना, दिन की गर्मी में छाँव में क्रिकेट, लूडो, कैरम, व्यापार वैगेरह-वैगैरेह.
तरही ग़ज़ल
जिस्म से बूंदों में रिसती गर्मियों की ये दुपहरी.
तेज़ लू की है सहेली गर्मियों की ये दुपहरी.
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शाम होते-होते सूरज की तपिश कुछ कम हुई पर,
चाँद के माथे पे झलकी गर्मियों की ये दुपहरी.
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सब्र खोती धूप में इक, भूख से लड़ते बदन के,
हौसले को आज़माती गर्मियों की ये दुपहरी.
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बर्फ के गोले लिए ठेलें पुकारे ज़ोर से जब,
दौड़ नंगे पाँव जाती गर्मियों की ये दुपहरी.
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छाँव से जब हर किसी की दोस्ती बढ़ने लगी तो,
''और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी.''
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उम्र की सीढ़ी चढ़ी जब, छूटते पीछे गए सब,
अब लगे कुछ अजनबी सी गर्मियों की ये दुपहरी.
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आसमां अब हुक्म दे बस, बारिशें देहलीज़ पर हैं,
लग रही मेहमान जैसी गर्मियों की ये दुपहरी.
मुझे लग रहा है कि आखिरी शेर तो जैसे किसी नक्काशी करने वाली पतली छेनी को लेकर दिन भर की मेहनत के बाद तराशा गया है. गिरह का शेर बहुत सुंदर तरीके से सामंजस्य स्थापित कर रहा है, जो अब तक कम देखने को मिल रहा था. और हां बर्फ के गोले लिये ठेलों की पुकार का दृश्य तो जैसे आंखों के सामने ही आ गया है. और चांद के माथे से झलकने का शेर तो बहुत ही सुंदर बन पड़ा है. पूरी की पूरी ग़ज़ल बहुत ही खूबसूरत अंदाज में कही गई है.
तो सुनते रहिये ये ग़ज़ल. मिलते हैं अगले अंक में एक और शायर के साथ.
हां इस टेम्प्लेट में टिप्पणी का ऑप्शन ऊपर है पोस्ट के शीर्षक के पास.
वाह वाह.. अंकित की गज़ल आशा के अनुरूप बहुत ही खूबसूरत है. किसी एक शेर या मिसरे की तारीफ़ करना बाकी अश-आर के साथ ना-इंसाफी होगी..
जवाब देंहटाएंमतले और मकते पर तो कुर्बान जाऊं. लाजवाब हैं. वाकई छेनी से तराशे हुए. और फिर "चाँद के माथे पे झलकी.." वाह. "दौड़ नंगे पाव जाती गर्मियों की ये दुपहरी.." बहुत ही खूबसूरत.
"उम्र की सीढ़ी चढ़ी जब.." क्या बात है.
और फिर "भूख से लड़ते बदन के हौसले को आजमाती.." बेहद बेहद खूबसूरत शेर.
गज़ल हर लिहाज़ से लाजवाब है.
गर्व, खुशी और जलन एक साथ मह्सूस हो रहे हैं. :)
अंकित सफ़र जी की एक बहुत ही बेहतरीन बेहद खूबसूरत ग़ज़ल!!! बहुत मज़ा आया पढ़कर...
जवाब देंहटाएंअंकित लाजवाब है...ये बात मुझे उस से मिलने से पहले ही पता लग चुकी थी...मिल कर ये बात पुख्ता हो गयी...बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जिनके बारे में आप बिना देखे कोई धारणा बनायें और देखने के बाद वो उस पर खरे उतरें...अंकित उन दुर्लभ जाति के लोगों में से एक है.
जवाब देंहटाएंइस ग़ज़ल के शेर चौंकाने वाले हैं...बित्ता भर का लड़का है लेकिन शेर कहने में उस्तादों के कान काटता है...किस शेर को कोट करूँ किसे छोडूँ ? सभी शेर इतने खूबसूरत हैं...इतने खूबसूरत हैं...इतने खूबसूरत हैं...लफ्ज़ ख़ूबसूरती बताने में असहाय लग रहे हैं...गुलमोहर के चटख लाल फूलों की ख़ूबसूरती, गुलाब के फूलों की खुशबू, कोयल की सुरीली आवाज़, आम की मिठास क्या लफ़्ज़ों में बयाँ की जा सकती है ?इन्हें वो ही जान सकता है जिसने इनका अनुभव किया है...इस ग़ज़ल के शेर हमें उन्हीं अनुभवों से गुजरने का न्योता देते हैं..इनमें ख़ूबसूरती, खुशबू , संगीत और मिठास है...
अंकित तुम नहीं जानते तुमने क्या लिख दिया है...वाह वाह वाह...इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए मेरे खोपोली आने के बाद नवी मुंबई में एक शानदार पार्टी पक्की...
नीरज
पुनश्च :गुरुदेव आपके ब्लॉग का पहले वाला टेम्पलेट आँखों में बस गया था नया वाला बसने की प्रक्रिया में है...बहुत लाउड है...और आपकी प्रकृति से मेल नहीं खाता.
फोटो हर बार की तरह सभी ग़ज़लों पर भारी हैं.
बहुत ही अच्छा लिखा है आपने अंकितजी।
जवाब देंहटाएं'और' शब्द के दूसरे पहलू पर आधारित तरही के मिसे की गिरह जोरदार रही अंकित भाई| पंकज भाई आखिरी शेर जो कह रहे हैं, सोलह आने सच है| बढ़िया गजल - दिल खुश हुआ अंकित भाई|
जवाब देंहटाएंब्लॉग डिजायन :-
नया डिजायन भी आकर्षक है| हो सकता है कुछ समय लगे इस के साथ एडजस्ट होने में|
अंकित की यह ग़ज़ल और इसमें 'और' का एक अलग ही रूप में प्रयोग चकरा देने वाले हैं। ग़ज़ब शेर सामने आये हैं। हर शेर मुकम्मल है, अलग नज़रिया पेश करता है।
जवाब देंहटाएंगर्मियॉं तो कट ही जायेंगी, बसेगी याद में पर
ये ग़ज़ल अंकित'सफ़र' की, गर्मियों की ये दुपहरी।
ये चिकेन का कुरता झक्कास लगरहा है , और उसी के कारण शायद तुम भी जँच रहे हो.... :) :) गर्मियों की दोपहरी में मि० कूल।
जवाब देंहटाएंग़ज़ल के विषय में क्या कहूँ, जब पहली बार सुना था, तब जो एक्सप्रेशन आये थे, वही सच्चे थे।
मतला सुंदर बाँधा है।
सब्र खोती धूप वाला शेर तुमने औरों से अलग सोचा है। अपने अनुभावों के इतर किसी भूखे शख्स के लिये....!!
बर्फ के गोले वाले शेर पर तुम पहले ही मेरी बहुत सारी दाद बटोर चुके हो।
और गिरह लगाने के अंदाज़ पर भी..
आज सुबह ही सोच रही थी कि तुम्हारी तरही कब लगेगी और ये भी कि उत्तरांचल का लड़का गर्मियों की दोपहरी की शिद्दत किस तरह महसूस कर पाता होगा।
खूब लिखा तुमने, बहुत खूब...!! शुभाशीष।
टेम्पलेट अच्छा है गुरूजी ! पर वो जो पिछला था, उसकी आदत थी, सारी गलियाँ जानी पहचानी, इससे से अपनापा नही हो पा रहा अभी? शायद कुछ दिनो में हो जाये....
जवाब देंहटाएंअंकित सफ़र बस नाम ही काफी है समंदर में लहर पैदा करने के लिए, मेरा मतलब ग़ज़ल में लहर पैदा करने के लिए.
जवाब देंहटाएंआज की ग़ज़ल में जो शेर कहे गए, काबिले तारीफ़ तो है ही. ख़ुशी भी बहुत दे गया मुझे.
मतला....
उम्र की सीढ़ी चढ़ी जब...
चाँद के माथे पे झलकी...
बारिशें दहलीज पर है... विशेष पसंद आये. आ गले लग जा भाई.
[इस टेम्पलेट में स्पेस का अच्छा इस्तेमाल हो जाता है. ये भी ख़ूबसूरत है. टेम्पलेट चाहे जैसा भी हो इसके हेडर इमेज कमाल के होते हैं. बात साज-सज्जा (कला) की हो तो कंप्यूटर पर ग्राफिक्स का मौसमी प्रदर्शन तो बस यहीं सुबीर संवाद सेवा पर ही होता है. जो इस ब्लॉग को विशिष्ट बना देते हैं ]
बहुत ही सुंदर ग़ज़ल है। ये चाँद के माथे वाला शे’र ग़ज़ल के माथे की बिंदी जैसा लग रहा है और गिरह तो कमाल की बाँधी है। बहुत बहुत बधाई हो अंकित जी को इस शानदार ग़ज़ल के लिए।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंचि. अंकित की खूबसूरत लफ़्ज़ों से बंधी , उम्दा ग़ज़ल के लिए ,
जवाब देंहटाएंबधाई और शाबाशी और ढेर सारे आशीर्वाद भी ...
आपका ब्लॉग हम लोगों के लिए , ' अपना - घर ' है
आज बाईं ओर पढने से वहीं के दरवाज़े से प्रविष्ट होने सा महसूस हुआ ..
आपने तो , गर्मियों के दिनों को , ग़ज़ल - आयोजन के द्वारा ,
बेहद खुशनुमा बना दिया है
एक से एक बढ़कर रचनाकारों से परिचय और उनकी लिखी रचनाएं पढ़ते हुए चुपके से सरकती हुई , ये रुत भी गुजर जायेगी
...शानदार शृंखला के लिए, हमारे गुणी अनुज को
हार्दिक बधाई ...
स स्नेह,
- लावण्या
2011/5/26
इस टेम्पलेट में बहुत जान है ठाकुर...
जवाब देंहटाएं"भूख से लड़ते बदन के हौसले को आजमाती"
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत शेर....
अंकित सफ़र जी की एक बेहतरीन ग़ज़ल,हार्दिक बधाई ....................
जब इस तरही को मोबाइल पर सुना था पहली बार, एक-दो शेर को छोड कर प्रभावित नहीं हुआ था उतना मैं| लेकिन आज सुबह से दो बार पढ़ चुका हूँ, दोनों बार ही जादू सा किया है लगभग सारे शेरों ने|...सोच रहा हूँ कि कहीं इसमें बच्चे की इस तस्वीर वाली मस्त खिलखिलाहाट का भी टोना तो शामिल नहीं :-)
जवाब देंहटाएंगिरह सबसे जबरदस्त है| "और" शब्द का एकदम अनूठे इस्तेमाल ने चौंका ही दिया है और यही तो शेर की खासियत होनी चाइए| पूरी तरही के भीड़ मेन, मेरे ख्याल से इस शेर की बुनावट सबसे अलग रहने वाली है| बहुत अच्छे जोशी साब...जितनी तारीफ करूँ, कम है|
चाँद के माथे वाला और उम्र की सीढ़ी चढ़ी वाला और फिर आसमा अब हुक्म दे वाला...तीनों के तीनों ही गजब बने हैं| बहुत खूब!! छा गए और तुम्हारा ये छाना बहुत भा रहा है|
परिचय का मस्त अंदाज़ भी खूब है| लेकिन तनिक और सुनने की तमन्ना थी तुम्हारे बारे में...
गुरूदेव, वो पुराना टेम्पलेट विगत चार सालों से ऐसा बैठा हुआ है मन में की ये जम ही नहीं रहा आँखों को|
बर्फ़ के गोले लिये ठेलें पुकारें ज़ोर से जब,
जवाब देंहटाएंदौड़ नंगे पांव जाती गर्मियों की ये दुपहरी।
लाज़वाब शे'र, ख़ूबसूरत गज़ल बधाई।
ब्लॉग का टेम्पलेट अच्छा लग रहा है.. दो कॉलम बाईं ओर अच्छे लग रहे हैं. अन्यथा काफी नीचे तक स्क्रोल करना पड़ता था. हाँ बैनर में 'सुबीर संवाद सेवा' को भी बाईं ओर रखें तो और भी अच्छा लगेगा.
जवाब देंहटाएंउम्र की सीडी चड़ी जब ...
जवाब देंहटाएंअंकित साहब इतनी छोटी उम्र में पके बालों वाले भी इतने सधे हुवे शेर नही कह सकते ... ये उपर वाला शेर और अंतिम शेर तो सच में क्या बताऊं ... दार्शिक मोड़ दे दिया है आपने गर्मियों की इस दोपहरी को .... ग़ज़ल बहुत ही लाजवाब है ... बार बार पढ़ने को जी चाहता है ... जिंदाबाद ... अंकित जी ... जिंदाबाद ...
ब्लॉग का टेम्पलेट मुझे तो अच्छा लग रहा है ...
जवाब देंहटाएंआप सभी को, शुक्रिया, इस हौसलाफजाई के लिए.
जवाब देंहटाएं@ राजीव भरोल जी, आप मत जलिए, जलने का काम हम पे छोड़ दीजिये. आप की कही ग़ज़लों का आजकल कोई जवाब नहीं है.
@ नीरज जी, जल्द ही आता हूँ पार्टी लेने, पिछली भी काफी बची हुई हैं.
@ कंचन दी, ये चिकन का कुरता किसी ख़ास ने दिया है, इसलिए मैं खासमखास बन गया हूँ.
@ बहुत बहुत शुक्रिया राजरिशी जी (हा हा हा), अभी ग़ज़ल ही परिचय है.
गुरुदेव, ब्लॉग का रंग-रूप अच्छा लग रहा है.
गुरु जी प्रणाम,
जवाब देंहटाएंअंकित भाई की ग़ज़ल का फ्लेवर हमेशा सबसे जुदा होता है
मुझे तो लगता है अफीम आदि का हल्का मिश्रण भी इसमें जरूर होता होगा :)
जब पढ़ो तब नशा हो जाता है, फिर बार बार पढ़े बिना मन भी नहीं लगता
हम्म... अंकित भाई, अब तो आपको अपना सीक्रेट बताना ही पड़ेगा
आपकी ग़ज़ल के इनग्रीडेंस की लिस्ट का खुलासा तो विकीलीक्स के भी औकात के बाहर की बात है
एक बार फिर से जिंदाबाद ग़ज़ल
बहुत बहुत बहुत बधाई
गुरुदेव अब टेम्पलेट फिर से अपना सा लग रहा है
आनन्द आया....
जवाब देंहटाएंपढ़ तो ले रहे हैं मगर टिप्पणी न कर पाने की मजबूरी आप समझ सकते हैं मास्स्साब...आप स्थितियों से वाखिब हैं अतः क्षमाप्रार्थी. अन्यथा न ले. आनन्द हम ले ही रहे हैं जो उद्देश्य है.