सोमवार, 30 मई 2011

वो कदँब के फूल, जमुना में नहाना, वो झलंगा, छाछ-लस्सी बाँटती थी, गर्मियों की वो दुपहरी. आज तरही में सुनते हैं श्री नवीन सी चतुर्वेदी जी की एक बहुत ही सुंदर ग़ज़ल.

इस बार की तरही ग़ज़लों ने मन को खूब प्रसन्‍न कर रखा है, एक से बढ़कर एक ग़ज़लें आ रही हैं. होली की तरही में बहर और मिसरे के कारण जो फीकापन आ गया था वो अब इस बार में हट गया है. दरअसल में तरही के पीछे जो सोच होती है वो ये होती है कि नये नये विषयों पर नयी नयी बहरों पर भी क़लम को आज़माया जाये. नहीं तो होता क्‍या है आपको बहरे हजज में महारत हो गई तो आप पेले जा रहे हैं, धे ग़ज़ल, धे ग़ज़ल, एक ही बहर पर. जो बहरों के जानकार हैं वो तो समझ रहे हैं लेकिन आम श्रोता को कहां जानकारी होती है. तो इसीलिये तरही का आयोजन होता है. नहीं तो आप तो कहें कि साहब हम तो बस प्रेम की ही ग़ज़लें लिख सकते हैं ये मौसम वौसम पर लिखना अपने बस की बात नहीं है, तो साहब दरअसल में तो आप कवि हैं ही नहीं, कवि तो वो होता है जो हर विषय पर अपनी क़लम की धार को सिद्ध करके बता दे. खैर ये तो बात हुई तरही की, टेम्‍प्‍लेट को कुछ लोगों ने पसंद किया है कुछ न नहीं मगर फिर भी ऐसा लग रहा है कि लोगों को फिलहाल तो अच्‍छा लग रहा है तो अभी तो इसे बनाया रखा जायेगा फिर आगे देखते हैं.  दो दिन से एक दांत के दर्द ने जान सुखाई हुई है, आज भी बड़ी पीड़ा के बीच से पोस्‍ट लिखी जा रही है.  तो आइये आज सुनते हैं श्री नवीन सी चतुर्वेदी जी से उनकी ये जानदार शानदार ग़ज़ल.

ग्रीष्‍म तरही मुशायरा

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और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी

 

nmc image OBO नवीन सी चतुर्वेदी

पिता का नाम:- श्री छोटू भाई चतुर्वेदी
गुरु जी:- कविरत्न श्री यमुना प्रसाद चतुर्वेदी 'प्रीतम'
[गुरुजी के नाम से इस वर्ष से हम लोग सरस्वती पुत्रों का सम्मान शुरू कर रहे हैं,
जन्म स्थान:- मथुरा, जन्म तिथि:- २७ अक्तूबर, १९६८, हाल निवास:- मुंबई
शिक्षा:- वाणिज्य स्नातक, लड़कपन में ऋग्वेद की कुछ ऋचाओं के पाठ का सौभाग्य मिला,
भाषा:- मातृभाषा ब्रज भाषा के अतिरिक्त हिन्दी, अँग्रेज़ी, गुजराती और मराठी में लिखना, पढ़ना, बोलना और उर्दू का थोडा बहुत ज्ञान,
कामकाज:- सीसीटीवी, बॉयोमेट्रिक, एक्सेस कंट्रोल, पे-रोल सॉफ़्टवेयर वग़ैरह http://vensys.biz
लेखन विधा:- पद्य - छन्द, ग़ज़ल, कविता, नवगीत वग़ैरह, भूतकाल में एक स्थानिक समाचार पत्र के लिए कोलम भी लिखा था,
प्रकाशित पुस्तक - इकलौती  "ई-किताब' पिछले महीने ही प्रकाशित हुई लिंक:- http://thatsme.in/page/6377873:Page:7512
अन्य:- आकाश वाणी मथुरा और मुंबई से काव्य पाठ, कई पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन एवम् गोष्ठियों में काव्य पाठ, कुछ ऑडियो केसेट्स के लिए भी लिखा, एक केसेट के लिए गुजराती में ब्रज में होने वाली 'चौरासी कोस की ब्रज परिक्रमा' के लिए भी लिखा,

रचना प्रक्रिया
जब भी कुछ सोच कर लिखने बैठता हूँ, कुछ लिख ही नहीं पता, मेरे लिए इस प्रक्रिया को परिभाषित करना वाकई कठिन है, कहने को कुछ भी कह लूँ, परन्तु, मेरा ये प्रबल विश्वास है कि हम लिखते नहीं हैं - स्वयँ माँ शारदा हमें अपना माध्यम बनाती हैं - जिसके लिए हम सभी को उन के प्रति प्रतिदिन कृतज्ञता प्रकट करते रहना चाहिए, जय माँ शारदे,

ब्लॉग्स:- ठाले बैठे, समस्या पूर्ति, वातायन
फेसबुक प्रोफाइल:-facebook.com/navincchaturvedi
कमजोरी:- भाषाई चौधराहट को सहजता से स्वीकार नहीं कर पाता
मेरी रोजी रोटी : http;//vensys.biz

तरही ग़ज़ल

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फालसे-सैंसूत वाली, गर्मियों की वो दुपहरी,

याद में हैं दर्ज अब भी, गर्मियों की वो दुपहरी.

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गर्म कर के आमियाँ, दादी बनाती थी पना जो,

उस पने से मात खाती, गर्मियों की वो दुपहरी.

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वो घड़े-कुंजे, वो खरबूजे, वो खस-टटिया महकती,

और सन्नाटे में डूबी, गर्मियों की वो दुपहरी.

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वो कदँब के फूल, जमुना में नहाना, वो झलंगा,

छाछ-लस्सी बाँटती थी, गर्मियों की वो दुपहरी.

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शाम-सुब्‍ह पार्क जाना, या बगीची को निकलना,

पर मढैया में ही बीती, गर्मियों की वो दुपहरी.

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ठीक ग्‍यारह बाद ही, आँगन का टट्टर पाट कर के,

भाई-बहनों सँग बिताई, गर्मियों की वो दुपहरी.

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गर्म हवा चलते हुए भी, वोह शीतल जल 'मुसक' का,

जानती थी फ्रिज न ए. सी., गर्मियों की वो दुपहरी.

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झिराझिरी, वातायनी उन सूत वाली कुर्तियों में,

खूब क्या थीं ठाठ वाली, गर्मियों की वो दुपहरी.

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टाट से ढक के बरफ, वो बेचता कल्लू का पुत्तर,

और उस पे चिलचिलाती, गर्मियों की वो दुपहरी.

ब्रज वासी हैं नवीन भाई तो क्‍यों न फिर यमुना  और कदंब का जिक्र आये. और वो भी इतने सुंदर तरीके से कि वो कदंब के फूल, यमुना में नहाना वो झलंगा, बहुत ही सुंदर शब्‍द चित्र खींचा गया है इस मिसरे में, अहा. झिरझिरी वातायनी उन सूत वाली कुर्तियों में और वो घड़े कुंजे वो तरबूजे, ऐसा लग रहा है कि पूरा का पूरा गर्मियों का बचपन यादों के गलियारे से निकल कर सामने आ गया है. सुंदर ग़ज़ल.

तो सुनिये और आनंद लीजिये इस सुंदर ग़ज़ल का और इंतजार कीजिये अगली तरही का.

23 टिप्‍पणियां:

  1. bahut sundar .garmiyon kee dupahri ko ek kavi man hi itnee khoobsurat bana sakta hai varna ye to bahut hi dard dene vali hoti hain kintu yahan aakar ye dupahri bhi ''thath vali ''lag rahi hain.NAVEEN C.CHARTURVEDI ji ko bahut bahut badhai.

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  2. नवीन जी की रचनाओं में एक प्रवाह होता है और जब भी पढ़ें तो लगता है कि बिना किसी विशेष प्रयत्न के कविता इनकी कलम से झरती है. इस गज़ल में भी वही दिख रहा है. बहुत ही सुंदर गज़ल कही है.
    बहुत ही सुंदर मतला बन पड़ा है. गिरह वाला शेर भी. और फिर उनसे भी खूबसूरत शेर.. "गर्म कर के आमियाँ..", "वो घड़े कुंजे..","कदम्ब के फूल..", वाह.
    ..
    "झिराझिरी, वातायनी..", "टाट से ढक के वर्फ.." बहुत खूब.
    नवीन जी को इस खूबसूरत गज़ल के लिए बधाई और धन्यवाद.

    टेम्पलेट को मेरा वोट हाँ है. जिन्हें अच्छा नहीं लगा वो शायद इसलिए होगा कि काफी समय से पुराना टेम्पलेट देखने की आदत हो गई थी..अन्यथा, ये गेट अप भी कम नहीं है.

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  3. खूबसूरत ग़ज़ल, इस श्रृखला की सभी गजलें एक से बढ़कर एक हैं...

    प्रेमरस.कॉम

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  4. गर्म करके आमियां दादी बनाती थी पना जो,
    उस पने से मात खाती ,गर्मियों की वो दुपहरी।

    बेहतरीन शे'र , ख़ूबसूरत ग़ज़ल। बधाई नवीन भाई को।

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  5. बहुत खूबसूरत ग़ज़ल है।
    गर्म कर के आमियाँ..... (भाई हम तो पना खुद ही बनाते थे और सब को पिलाते थे, मगर अमियाँ गर्म कर के नहीं गर्म राख में भून कर, क्या याद दिला दी आपने, भूने हुए आम का गूदा, पुदीना, काला नमक, भुना हुआ जीरा और बर्फ़ डाली बस मजा आ जाता था पना पीने में) बधाई हो इस शे’र के लिए।
    कदंब के फूल और जमुना तो भाई किस्मत वालों को ही नसीब होती है।
    "मानुष हौं तो वही रसखान" की याद दिला दी आपने।
    बहुत अच्छी ग़ज़ल है नवीन भाई, हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए।

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  6. वाह भाई वाह।
    क्‍या खूबसूरत दृश्‍य लेकर आये हैं आप। बहुत कुछ तो नया है मेरे लिये।
    पंकज भाई मानें न मानें, अगली गर्मियों में ए. एच. व्‍हीलर के हर स्‍टॉल पर हाथों-हाथ बिकने वाला संग्रह तैयार हो रहा है।
    इक नया आयाम 'तरही' के सृजन का चल रहा है
    बस यही विश्‍वास भरती, गर्मियों की मस्‍त तरही।

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  7. गर्मियों को जिस शिद्दत से इस बार याद किया जा रहा है वो अद्भुत है...नवीन भाई ने कुछ ऐसे मंज़र खींचे हैं जो आज के युवाओं के लिए अजूबे हैं...जैसे खस की टाट पट्टियाँ, मशक का जल, सूत वाली कुर्तियाँ, टाट से ढकी बरफ...वाह..वाह...एक झटके में उम्र के तीस साल कम कर दिए नवीन भाई ने...कमाल किया है कमाल...हर शेर गर्मियों की दुपहरी की सुनहरी यादों को समेटे हुए है किसी एक शेर की तारीफ़ करना बाकियों के साथ नाइंसाफी होगी...नवीन भाई इस ग़ज़ल के भरपूर दाद स्वीकारें

    नीरज

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  8. नवीन जी की रचनाओं के बारे में पहली बात यह कह सकता हूँ. वे प्रवाहमय कहते हैं. ऐसा लगता है जैसे कोई झरना उतर कर बस बहता ही जा रहा है.
    यहाँ उनदिनों को याद करते हुए गर्मियों के जो भी चित्र खींचे गए है लाजवाब है. बाते है तो जानी पहचानी पर मेरे लिए कुछ शब्द नए हैं.
    पर मढैया में ही बीती... मुझे वो सूखे घास का ढेर याद आ गया जिस पर चढ़ लुका छिपा फिसला करते थे. गायों को खिलाने के लिए घर में रखी जाती थी.
    टाट से ढक के बरफ... ये तो बहुत वजनदार है. बहुत सुन्दर! तरही जिंदाबाद!!

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  9. नल की टोंटी में चौंच गढ़ा के पानी पीने वाले कौए का चित्र - यार पंकज भाई, कहाँ कहाँ से छाँट के लाते हो ऐसे दुर्लभ चित्रों को| तिलक भाई के सुझाव के अनुसार उस प्रस्तावित पुस्तक में ये सारे चित्र भी होने ही चाहिए| ब्लॉग के नये फ़ॉर्मेट के बारे में लगता है कुछ और परिवर्तनों के साथ यह पहले से कहीं बेहतर साबित होगा| एक और अच्छी बात, अब, यहाँ राइट क्लिक का विकल्प उपलब्ध करा दिया गया है|

    इस तरही में गर्मियों पर मुसलसल ग़ज़ल कहनी थी, वो भी बीती या वर्तमान यादों के साथ, और खास कर दुपहरी के रद्दीफ के साथ| गर्मियों के ठाठ जब स्मृतियों से निकल निकल कर सामने आ रहे थे, तो उसी में एक दृश्य आया "कल्लू के पुत्तर का"| हमारे साथ ही पढ़ता था, पर गर्मियों की छुट्टियाँ उस के लिए खुशी का सबब नहीं थीं| भरी दुपहरी में गली के नुक्कड़ पर सर पर छतरी ताने वो बर्फ बेचता था| और वहीं से पैदा हुआ इस ग़ज़ल का आख़िरी शेर| आप सभी ने पसंद किया, मजदूरी वसूल हुई|

    धर्मेन्द्र भाई का "अमिया वाला पना" बहुत जोरदार रहा, फिर से मुँह में पानी आ गया|

    शालिनी जी, राजीव भाई, संजय दानी जी, धर्मेद्र भाई, तिलक राज कपूर जी, नीरज भाई और सुलभ भाई आप सभी ने जो उत्साह वर्धन किया है, उस के लिए मैं आप सभी का अभारी हूँ|

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  10. ठेठ मथुरा के अंदाज़ की लाजवाब ग़ज़ल .... नवीन भाई ने सच में नवीन शब्दों का समावेश किया है ...
    वो कदंब के फूल, जमुना में नहाना .... इसका आनंद बस महसूस ही किया जा सकता है ...
    टाट से ढक के बरफ ... वाह नवीन भाई ... कौन से ज़माने की यादें ताज़ा कर दी आपने .... जिंदाबाद ... जिंदाबाद ...
    गुरुदेव ... ये मुशायरा तो नई नई उँचाहियाँ छू रहा है ... .

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  11. जा बात ते तो मथुरा की बगीचिन कौ माहौल याद आय गयो!
    भौतइ सुन्दर भाबन ते भरई भई बातें कह डरीं आपनें!

    वाह!

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  12. गजल पढी चित्र देखे। फिर मटके देख कर मुझे अपने गुना में मटकों में बिकने वाली कुल्फी याद आई । चित्र को बडा करके देखा अरे यह तो जलजीरा होना चाहिये क्यों कि गिलास नीबू सभी कुछ तो रखा है ।

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  13. वो कदँब के फूल, जमुना में नहाना, वो झलंगा,
    छाछ-लस्सी बाँटती थी, गर्मियों की वो दुपहरी.

    वाह वाह वाह

    झलंगा एकदम नया शब्द लगा, डिक्शनरी में खोजने पर भी नहीं मिला, नवीन जी गज़ल लिखते समय प्रतीक तो गढते ही हैं, नए शब्द भी गढते हैं

    इस मंज़रकशी को सलाम

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  14. Navneen ji Daadi ke haath se mila hui har cheez thandak ki baaiz hoti hai. Garmi ki dhajiyaan udaane ke safal prayas ke liye meri dili badhayi v shubhkamnayein

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  15. फॉर्मेट अब और भी सुंदर लग रहा है|

    दिगंबर नासवा भाई, प्रवीण भाई, केथीलियों भाई, बृजमोहन श्रीवास्तव भाई और देवी नागरानी जी - आप सभी का उत्साह वर्धन के लिए बहुत बहुत शुक्रिया

    केथेलिओ भाई, आप के द्वारा ब्रजभाषा की टिप्पणी पढ़ना सुखद अनुभव है

    वीनस की टिप्पणी मेल पर पढ़ी, उस बाबत -

    झलंगा शब्द :-

    झलंगा शब्द आप को "शब्द-कोष" में नहीं मिलेगा मित्र, क्योंकि ये बहुत पुराना परन्तु आंचलिक शब्द है| और शब्द कोष में सभी आंचलिक शब्द नहीं मिला करते|

    मिर्च, सौंफ, काला नमक, अजवायन, हींग, लोंग वगैरह को मिला कर घौंट कर - मुसक या घड़े के ठंडे पानी में फ़िल्टर कर के जो ठंडाई टाइप [ये न ठंडाई है न जलजीरा] तैयार होता हैं, उसे मथुरा के चौबे लोग झलंगा कहते हैं| संभव है, अन्य स्थानों पर इसे किसी और नाम से जाना जाता हो|

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  16. "गर्म हवा चलते हुए भी, वोह शीतल जल 'मुसक' का........................." वाह वा नवीन जी
    "झिराझिरी, वातायनी उन सूत वाली...............", बहुत खूब चित्र खींचा है लफ़्ज़ों के जरिये.
    आंचलिक शब्दों में सजी ग़ज़ल, एक अलग ही आनंद दे रही है.

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  17. naveen bhai ko khoobsoorat gazal ke liye bahut bahut badhai........

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  18. नवीन जी को नेट पर पढ़ते रहता हूँ| छंदों पर उनका नियंत्रण काबिले-तारीफ है| आज परिचय में और जान गया उन्हें|

    इस बार के मुशायरे में तो सचमुच एक-से-एक ग़ज़लें आ रही हैं| मेरे ख्याल से इस मंच का ये अभी तक का ये सबसे शानदार मुशायरा रहा है अशआर की खूबसूरती देखें तो| नवीन जी के शेरों ने उसे और ऊँचाइयाँ दी हैं| बधाई!

    कौए वाली तस्वीर तो गजब की है गुरूदेव| अद्भुत!!! सेव कर रहा हूँ प्रिंट स्क्रीन करके| :-)

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  19. अंकित भाई, डा. अजमल भाई, एवं गौतम भाई आप सभी का बहुत बहुत शुक्रिया|

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  20. आनन्द आया....


    पढ़ तो ले रहे हैं मगर टिप्पणी न कर पाने की मजबूरी आप समझ सकते हैं मास्स्साब...आप स्थितियों से वाखिब हैं अतः क्षमाप्रार्थी. अन्यथा न ले. आनन्द हम ले ही रहे हैं जो उद्देश्य है.

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  21. उत्साह वर्धन के लिए बहुत बहुत शुक्रिया समीर भाई

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