ग्रीष्म तरही मुशायरा
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी
आज हम तरही मुशायरे में कंचन चौहान की ग़ज़ल सुनने जा रहे हैं । इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं कह सकता क्योंकि जब बात कंचन की हो तो किसी और के बोलने का स्पेस ही कहां होता है ।
कंचन सिंह चौहान
परिवार थोड़ा ज्यादा बड़ा है। शादी ब्याह में जब सब अपने अपने परिवार के ४ लोगो के साथ आशीर्वाद देने आते हैं, तब मेरे आते ही स्टेज पर अचानक भीड़ बढ़ जाती है और असल में मैं खुद भी निश्चित नही कर पाती कि किसे किसे अपने परिवार में शामिल मानूँ। फिर भी कुछ टुकड़े।
पहली तसवीर में तीनो भतीजे और दोनो भतीजियाँ। बड़े भतीजे अविनाश ने पिछली साल भईया के ना रहने के बाद से नौकरी छोड़ कर कानपुर में अपना बिज़नेस सेटल कर लिया और छोटे भतीजे अभिषेक के खुद के कालसेंटर्स हैं। बड़ी भतीजी अस्मिता ने इस साल इण्टरमीडिएट की परीक्षा दी है और छोटी भतीजी अनन्या ने हाईस्कूल की। अनन्या में कविता भी शुरू कर दी है और मुझे कंपटीशन दे रही है। तीसरा भतीजा अमोघ अभी बस शैतानी ही कर रहा है। दूसरी तसवीर में दोनो बेटे (भांजे)विपुल और विजित। विपुल ज़ी बिज़नेस में और विजित परास्नातक में लगे होने के साथ अपनी एनजीओ नवोन्मेष के प्रति समर्पित।
तीसरी फोटो में अगल बगल दोनो दीदियाँ और बीच में छोटी भाभी। दोनो दीदियाँ मेरी माँ हैं और भाभी हम तीनो की चौथी बहन। चौथी तसवीर में दोनो बेटियाँ (भांजियाँ) नेहा (बड़ी दीदी की बेटी) और सौम्या (छोटी दीदी की बेटी)। नेहा ने पर्यावरण विज्ञान में परासनातक किया तभी हमने उसे गृहस्थन बना दिया अब शोध करना चाह रही है। सौम्या इस साल इंजीनियरिंग में प्रवेश लेगी। मेरा नाम पेपर में सबसे पहले इसके हाईस्कूल में मेरिट में आने पर आया, जब उसने आदर्श में अपनी मौसी का नाम लिया।
पाँचवी फोटो में माँ और दोनो भाई। बड़े भईया पिछले साल नही रहे। छोटे भईया को मैं अपनी शक्ति मानती हूँ। और माँ तो है माँ.....!! छठी तसवीर में मेरे साथ पिंकू, अवधेश त्रिपाठी। इसका ज़िक्र नही करूँगी तो बेइमानी करूँगी। पिछले चार साल से मैं विजित और पिंकू साथ साथ रह रहे हैं। रिश्ता अलग अलग समय पर अलग अलग... कभी भाई, कभी पिता कभी मित्र....! फिलहाल वकील हैं और मुंसिफ बनना चाहता है। ११ मई को तिलक हो गई और २१ मई को उसकी शादी है। मेरे परिवार में अगला सदस्य उसकी पत्नी है।
मेरा परिचय, मेरा अस्तित्व, मान सम्मान इन्ही सोलह लोगों के कारण है। मेरे पिता जी और संदीप, वो दो शख्स जो अब इस दुनिया में नही हैं, उन्हे भी नही छोड़ा जा सकता।। मैं वो हूँ जो इन्होने बना दिया।
जन्म कानपुर में। ११ महीने की थी जब पोलियो ने गले के नीचे सारा शरीर अपनी चपेट में ले लिया। मैं अपने ऊपर बैठी मक्खी तक नही हटा सकती थी। अटैक के दो मिनट बाद से दवा चलने लगी। दोनो बड़ी बहनो ने अथक परिश्रम करके मुझे अपना काम करने के लायक बनाया और जीवन जीने का सपना दिया। बाबूजी ने अपने बेटों से ज्यादा सपने अपनी छोटी बेटी को ले कर गढ़े थे। हाईस्कूल में आते आते बाबूजी चले गये और सपने रह गये। दुख का मतलब समझ में आया और संवेदनाएं आईं। शिक्षा से नौकरी पाने तक का सफर बता कर कहानी में इमोशनल टच नही डालना चाहती। अंग्रेजी और हिंदी से परास्नातक और एसएससी से अनुवादक की परीक्षा पास की। संगीत से प्रभाकर भी किया। पहली पोस्टिंग घर से २००० किमी दूर आंध्र प्रदेश में हुई, भाषा और बोली से परे वहाँ भी प्रेम का नुसखा काम किया और वहाँ भी अपने मिल गये। फिलहाल पिछले ८ सालों से लखनऊ में। पहले ४ साल दीदी के साथ और अब अपने।
नौकरी के बाद साहित्य पढ़ने के शौक को धार दी, हिंदी से परास्नातक भी तभी किया। मदर टेरेसा के 365 qotes पर लिखी एक पुस्तक जो आंध्रा में पढ़ी उसने जिंदगी को अलग मायने दिया। और अनुभव फिल्म के गाने ने भी। "तुम बेसहारा हो तो किसी का सहारा बनो।" मुझे पता चल गया कि मुझे जिदगी में क्या करना है। और वो कर रही हूँ। ऐसा मानती हूँ कि कबिरा के ढाई अक्षर का सही अर्थ सिर्फ मैं जानती हूँ और सब बस ऐसे ही कहते हैं। जिंदगी ने बहुत से रिश्ते दिये। खुद को दुनिया का सबसे अमीर व्यक्ति मानती हूँ और सबसे खुश भी।
लिखना कब शुरू किया पता नही। असल में लिखना सीखने के पहले कविता जीवन में आ गई थी। कठोली गढ़ना भी।(माँ के अनुसार)। खेलते खेलते जो गुनगुनाती रहती हूँ, वो कविता है ये पता ना था। ६ साल की थी, जब दीदी की शादी तय थी और मैं अपने में मशगूल गुनगुना रही थी।
मत रो दीदी, मत रो, दीदी जा ससुराल
अम्मा भी छूटेंगी, बाबूजी छूटेंगे, छूटेगा सारा परिवार, दीदी जा ससुराल
सास मिलेंगी ससुर मिलेंगे,मिलेगा नया संसार, दीदी जा ससुराल।
आँखें उठाने पर देखा, सब मुझे गौर से देख रहे हैं और तब पता चला कि ये जो खेल खेल में हो रहा है, वो कुछ विशिष्ट है। और तब मुझे मात्रा ज्ञान भी नही था। फिर ९ वर्ष की उम्र में
चिंता ना करो, चिंता ना करो, तुम दौड़ोगी, तुम भागोगी,
माँ के आसू भी सूखेंगे, तुम दौड़ोगी, तुम भागोगी
ने माँ की शाबाशी और आँसू दोनो बटोरे, तो जन्मोँ के चक्कर में विश्वास करने वाली मैं मानती हूँ कि कविता मुझे कुछ पूर्व जन्म के संस्कार से मिली और कुछ इस जन्म के। जिसमें मातृ पक्ष का विशेष योगदान है।नाना जी और माँ दोनो ही यदा कदा अपनी बात छंदो में कह लेते थे। कविता लिखी कैसे जाती है ये बिलकुल नही पता, जो स्वयं को लिखवा ले वही कविता है, ये बात तब भी मानती थी और अब भी।
तरही ग़जल़
गर्मियों को याद करो तो जो बात सबसे पहले याद आती है, वो है ४ साल की उम्र में कम से कम कपड़ो में बैजंती के पत्तों से ढके शरीर का जेठ की चटक दोपहरी में लिटा दिये जाना ( पोलियो के इलाज के लिये )। उसे काटने का तरीका था, वो सपना जीना, जो दीदी बताती रहतीं, बस थोड़ी देर और बस... फिर तुम भी ना माधुरी की तरह, मुन्नी की तरह दौड़ने लगोगी... जैसे बहुत सा कुछ.....मतले के बाद वाला शेर उसी पर लिखा है। ओढ़ बैजंती के पत्ते, छूने थे जिसको शिखर उस, गुड़ छिपा आले में, मटके में मलाई की दही है, धप की आवाज़ों पे चौंके कान ले कर दौड़ती फिर, शादियाँ गुड़िया की, गुट्टे और कड़क्को खेलने पर, सर्दियों की रात भर माँगी थी हमने जो दुआएं, आह में भी लू थी, मन में भी बवंडर धूल जैसे, क्यों ना बैशाखी हवाओं पर चले आते हो तुम भी, शोर करती हर तरफ फिरती तुम्हारी याद जानाँ |
धप की आवाज़ों पे चौंके कान ले कर दौड़ती फिर, फ्रॉक में अमिया छिपाती, गर्मियों की वो दुपहरी। ये शेर बहुत ही सुंदर बन पड़ा है उस बालमन की सारी बातें शेर में उभर कर आ गईं हैं । और जहां तक प्रेम के शेरों की बात है तो कोमलतम भावनाओं को पूरी शिद्दत के साथ अभिव्यक्ति देने में कंचन को वैसे भी कमाल की दक्षता हासिल है। प्रेम में रचे पगे शेर क्यों न बैशाखी हवाओं, शोर करती हर तरफ, जैसे शेरों में कंचन ने उसी कोमल सुई से मोतियों को पिरोया है । और ये ग़ज़ल उस कंचन ने लिखी है जो बात बात पर मुझसे कहती है कि गुरूजी ग़ज़ल लिखना मेरे बस का नहीं है । अब आप ही तय करें कि ग़ज़ल लिखना कंचन के बस का है या नहीं ।
तो आनंद लीजिये इस ग़ज़ल का और देते रहिये दाद, मिलते हैं अगले अंक में एक और शायर के साथ ।
कंचन, परिवार की तस्वीरें देख कर बहुत अच्छा लगा. बहुत बढ़िया गज़ल है. "गुड़ छिपा आले में..", "धप की आवाज़ों पे चौंके.." बहुत बढ़िया शेर कहे हैं.. और "आह में भी लू थी." भी बहुत अच्छा है. "शाम को मिलने का वादा.." भी अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंगुड़ छिपा आले में मटके में मलाई की दही है,
जवाब देंहटाएंराज़ नानी की बताती ,गर्मियों की वो दुपहरी।
बहुत ख़ूब , देखा ,जाना , भोगा यथार्थ ।
परिचय का आभार, बड़ी सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंकंचन बिटिया के परिवार के सदस्यों के चित्र देखकर सुकून मिला - अरे हम सभी शामिल हैं आपके परिवार मे ...
जवाब देंहटाएंगरमीयों की दोपहरी मे यादों के कारवाँ घूमने लगे
भावपूर्ण लेखन, सच्चा और प्यारभरा ह्रदय लिए ' कंचन ' वो कुंदन है जो तपने के बाद इत्ता निखरा है ..
जीती रहो , सदा खुश रहो और इसी तरह लिखती रहो , गाती रहो
स स्नेह आशिष,
- लावण्यादी
यूँ तो हर शेर स्मृति-पटल पर छाये चित्रों से सुसज्जित है लेकिन दोस्त और रकीब का कन्ट्रास्ट, सर्दियों की रात भर मॉंगी ...... तो बेहतरीन नगीने हैं।
जवाब देंहटाएंकभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता, मगर जो नहीं है उसपर ध्यान केन्द्रित करें या जो है उसपर, यह तो हमारे हाथ में होता है। सकारात्मक जीवन का आधार निरन्तर आनंदानुभूति है जो हमेशा आपके चेहरे पर दिखाई दे, यही दुआ है।
धप की आवाज़ों पे चौंके कान ले कर दौड़ती फिर,
जवाब देंहटाएंफ्रॉक में अमिया छिपाती, गर्मियों की वो दुपहरी।
वाह वा, सानी में जो जादू है वो बयाँ करना मुश्किल है, पूरा बचपन फ्रॉक में सिमट आया है.
सर्दियों की रात भर माँगी थी हमने जो दुआएं,
उनको तासीरें दिलाती, गर्मियों की वो दुपहरी
उम्दा, बेहद उम्दा शेर. कहन ने एक नयी उंचाई छुई है.
आह में भी लू थी, मन में भी बवंडर धूल जैसे,
इश्क़ में दुगुनी तपी थी, गर्मियों की वो दुपहरी
बेजोड़, "इश्क में दुगुनी तापी थी.............", क्या शेर बाँधा है, बस पढ़ते रहने का मन कर रहा है. वाह वा
शाम को मिलने का वादा, करवटों में जोहती थी,
रात से ज्यादा सताती, गर्मियों की वो दुपहरी
बेबसी को क्या खूब शेर में पिरोया है. बहुत बढ़िया.
ओढ़ बैजंती के पत्ते, छूने थे जिसको शिखर उस,
ज़िद से करती होड़ सी थी, गर्मियों की वो दुपहरी।
ये शेर बहुत emotional कर दे रहा है, कुछ नहीं कहूँगा.
क्या जबरदस्त शेर कहें है दीदी, लाजवाब कर दिया है.
बहुत ही सुंदर ग़ज़ल है,
जवाब देंहटाएंदोस्त सी आवाज़ देती.. से शुरू करके कंचन जी ने जो समाँ बाँधा है वह आखिरी शे’र पढ़ने के बाद भी खत्म नहीं होता लगता है कि शे’र ऐसे ही चलते रहें और हम पढ़ते रहें। कंजन जी के बारे में जानना अच्छा लगा। उन्हें बधाई इस सुंदर ग़ज़ल के लिए।
कंचन की लेखनी की क्या प्रशंशा करूँ...जैसा संवेदनशील उसका दिल है वैसी ही उसकी शायरी...कहीं कोई दुराव छिपाव नहीं सहज निश्छल पावन शायरी...ऐसी शायरी जिसमें मंदिर में जलते लोबान की खुशबू आती है...जिसमें चिड़ियों की चहचाहट भी है तो कोयल की कूक भी...बचपन की शरारतें हैं तो जवानी की आँख मिचौली भी...इन्द्रधनुषी रंगीन शायरी है कंचन की ,हर रंग दिखाई देता है...माँ सरस्वती की लाडली बिटिया है कंचन तभी तो :
जवाब देंहटाएंओढ़ बैजंती के पत्ते...
फरक में अमियाँ छुपाती...
शादियाँ गुडिया की...
आह में भी लू थी...
क्यूँ ना बैसाखी हवाओं...
जैसे अनमोल मिसरे उसकी शायरी में फूलों की तरह अपने आप खिल जाते हैं...वाह कंचन वाह...
आज तुम्हारे और पूरे परिवार के बारे में जान कर बहुत अच्छा लगा...इस परिवार के अलावा भी तो तुम्हारा एक परिवार है जिसमें तुम्हें प्यार करने वालों की कोई कमी नहीं है...ये हैं तुम्हारे ब्लॉग परिवार के सदस्य...इस परिवार के सदस्य स्थूल रूप में न सही लेकिन आभासी रूप में हमेशा तुम्हारे साथ रहते हैं और तुम्हारी सलामती की दुआ करते हैं...
खुश रहो और यूँ ही लिखती रहो...
नीरज
बहुत कुछ कहना चाहती हून पर कह नही पाउन्गी\ बस आशीर्वाद्\
जवाब देंहटाएंकंचन जी को पहले भी पढ़ा है - यहाँ पर और उन के ब्लॉग पर भी| मेरा मानना है कि वो ग़ज़ल / कविता लिखती नहीं हैं, बल्कि जीती हैं| वो जो अनुभव करती हैं, बस यूँ का त्यूं उँडेल देती हैं - किसी भी एक प्रारूप में - और सज़ा देती हैं सीधी सादी भाषा में बतियाते शब्दों के साथ| शायद यही सही परिभाषा होनी चाहिए साहित्य सृजन की| मुझे याद है, हर बार पंकज सुबीर जी ने यही कहा है कि दिमाग़ से नहीं दिल से लिखो - तभी आप अपना सर्वोत्तम दे पाएँगे| कंचन जी इस कसौटी पर खरी उतरती हैं|
जवाब देंहटाएंयह आयोजन तो हमें हिन्दुस्तान की सैर करा रहा है| गर्मियों को अक्सर तकलीफ़ों के साथ जोड़ कर देखा गया है, पर यहाँ तो तस्वीर कुछ और ही बन रही है| मुझे तो उस दिन की प्रतीक्षा रहेगी जब पंकज भाई सारी ग़ज़लों को एकत्र कर, एक पी. डी. एफ. फाइल के द्वारा ई-किताब की शक्ल दे कर हम सभी के साथ शेयर करेंगे|
इस ग़ज़ल में कंचन जी ने प्रादेशिक आभासों को जीवंत करते हुए, शब्दकारी का एक बेहतरीन नमूना पेश किया है [छुटकी इस 'शब्दकारी' का सुबूत मत माँगना]|
आला, गुड, कडक्को जैसे कई सारे शब्द इस ग़ज़ल के वैशिष्ट्य में चार चाँद लगा रहे हैं| और खास कर अपने सफ़र के आख़िरी हिस्से में ग़ज़ल हमें झकझोर भी देती है|
कंचन बहन आप की इस ग़ज़ल के लिए आप को होल्सेल में बधाइयाँ|
मतला ही बहुत खुबसूरत है और रिश्तों की बात को बयान कर रहा है ! मगर और की जगह कुछ और चाहता था !
जवाब देंहटाएंबैजंती पत्तों में छिपी वो जोश और शिखर को छूने की ललक बखूबी दिख रही है !
गुड छिपा वाला शे'र तो एक सम्पूर्ण कहानी की तरह है !
और फिर ये धप की आवाज़ों वाला शे'र बचपन की पूरी ज़िंदगी को बयान करता हुआ ... बेहद खुबसूरत शे'र है !
माँ की त्योरियां उफ्फ्फ ये शे'र ....
गर्मियों की दुपहरी का इश्क में तपना .. क्या कमाल का शे'र बना है !
शाम को मिलना बेहद रूमानियत शे'र ...
क्यूँ न बैशाखी ... इस शे'र की तड़प ... अपने आप में रूह को छू लेने वाली बात है !
गिरह भी खूब लगाई गई है .... कुल मिलाकर ग़ज़ल खुबसूरत बन पड़ी है ... ग़ज़ल की ख़ास बात जो मुझे लेगी की रिश्तों की बातों को देशज शब्दों से जैसे जोड़ा गया है वो महसूस करने वाली है ! जैसे शब्द जोहना ... जोहना शब्द में जो तड़प है उसके लिए कुछ भी कह पाना आसान नहीं है !
शुक्रिया इतनी खुबसूरत ग़ज़ल के लिए...
अर्श
इस ग़ज़ल को को सबसे पहले सुनने का, और सुनते ही घोलट जाने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ था| हमारे मैथिली में किसी अविश्वसनीय चीज या बात को देखने या सुनने के बाद उत्पन्न हुई हर्ष-मिश्रित प्रतिकृया को अक्सर हम घोलटना जैसा कुछ कह कर व्यक्त कर लेते हैं| ...तो यही कुछ हुआ मेरे संग| हमने ढिढोरा पीट दिया गुरूकुल में ग़ज़ल की खूबसूरती का और अपने घोलटने का|बहना को भरोसा नहीं हुआ हमारी बातों पे| शायद ये टिप्पणियाँ {वैसे गुरूजी अलग से पहले ही शाबासी दे चुके हैं} मदद करे...लेकिन, अब तक उसे पता चल ही चुका है इस बाबत|
जवाब देंहटाएंकिन्तु यहाँ इस मंच पे एक बार फिर से इस ग़ज़ल से रूबरू होना...हाय! जिन शेरों की तारीफ करनी थी, बहुत कर चुका हूँ| सच तो ये है की बड़ा गर्व महसूस होता है ये जीवट लड़की जब भी कुछ अच्छा करती है...और सच ये भी है कि ये गर्व महसूस करने वाली बात तो साथ लगी ही रहती है कि इसकी जीवटता को कुछ न कुछ अच्छा करते रहने की आदत हो चुकी है|
जिस विस्तृत परिवार का ब्योरा ऊपर दिया गया है, खुद भी कब इस परिवार में शामिल हो गया पता ही नहीं चला|
may God bless you sis with all His choicest blessings and happiness....aameen!!!
कंचन जी को इतनी खुबसूरत ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई.......
जवाब देंहटाएंकंचन जी के बारे में जान कर बहुत अच्छा लगा.
बिलकुल बात जब कंचन दी की हो तो किसी भी रिश्ते को पुरखुलूसी से महसूसने और जिन्दादिली से निभाने की बात होती है. आज यहाँ परिवार से मिलकर बहुत अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंपिंकू जी को विशेष शुभकामनाएं ! हम भी आपकी परिधि में हैं मेरे लिए सम्मान की बात है.
ये ग़ज़ल मानो एक पूरे जीवनकाल का कोमल वर्णन है.
दोस्त सी आवाज़ देती और रकीबों सी सताती... एक जबरदस्त मतला है इस तरही का.
गुड छिपा आले में, फ्राक में अमिया छिपाती, माँ की त्योरियां... ओह सब कुछ तो सामने से गुजरा है. और अब ये ग़ज़ल में मोती सामान चमक रहे हैं.
शोर करती हर तरफ फिरती तुम्हारी याद जाना... और इस पर जो गिरह लगी है, मैं नतमस्तक हूँ. कमाल है. बेमिसाल शायरी है.
बहुत कोमल सी नाज़ुक सी ग़ज़ल ... तपाती धूप में भी कोमलता का एहसास हो रहा है ... कंचक जी की बहादुरी, आत्मविश्वास और ललक ने मन मोह लिया है ... उनकी ग़ज़ल का हर शेर उनके बचपन का दस्तावेज़ बन के उभरा है ... पुर परिवार के चित्र देख कर बहुत अच्छा लगा ... इतने बड़े परिवार की लाडली कंचन इतना अच्छा कैसे लिखती है ये अब पता चला ... और शेर तो ऐसे हैं जैसे बाँध लिया हो .... बार बार पढ़ने को मन करता है ...
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