गुरुवार, 29 जनवरी 2015

हौले हौले चलकर हम तरही के समापन की ओर आ गये हैं। समापन के ठीक पहले सुनते हैं डॉ. संजय दानी, सुमित्रा शर्मा जी, पारुल सिंह की ग़ज़लें ।

तरही का समापन होने को है। बस एक अंक और लगना है इसके बाद। जैसा कि तय किया था कि जनवरी के अंत तक समापन कर लेंगे तो उसी प्रकार से हो रहा है। चूंकि भभ्‍भड़ कव‍ि तो स्‍वतंत्र कवि हैं वे कभी भी आ सकते हैं तो वे समापन के बाद कभी भी तशरीफ का टोकरा लिये अ सकते हैं। फिलहाल तो ये कि आप सब विश्‍व पुस्‍तक मेले में सादर आमंत्रित हैं शिवना प्रकाशन के स्‍टॉल पर। अगली पोस्‍ट में आपको स्‍टॉल की पूरी जानकारी उपलब्‍ध करवाने की कोशिश की जाएगी। विश्‍व पुस्‍तक मेले के अवसर पर शिवना प्रकाशन कुछ महत्‍त्‍वपूर्ण पुस्‍तकों का प्रकाशन करने जा रहा है। आप भी उस अवसर पर उपस्थित रहेंगे तो अच्‍छा लगेगा।

Mogara - Jasmine Four

मोगरे के फूल पर थी चांदनी सोई हुई

sumitra sharma

सुमित्रा शर्मा

स्वेद -मोती की फसल सी दूब थी सोई हुई
मोगरे के फूल पर थी चांदनी सोई  हुई

ख्वाब की कब्रें वहां थीं अश्क के दरिया बहे   
देखने में आँख यूँ  हर एक थी सोई हुई  

जननि के उस दर्द को कैसे भला अल्फ़ाज़ दे
लाड़ला  जिसका लुटा औ  भीड़ थी सोई हुई

द्रोपदी का चीर खिचता ही रहा ,खिंचता  रहा   
गूँगा  बहरा ज्ञान था और नीति भी सोई हुई

कंचकों के गीत थे जब घर गली चौपाल पर
शहर के घूरे पे  इक नवजात थी सोई हुई

प्रसव क्रंदन से सिया के जब हुआ जंगल द्रवित
चैन से थी राम की नगरी तभी सोई हुई

इन अंधेरों को झटक कर उठ खड़ी होगी ज़रूर       
है तमस की क़ैद में जो  रोशनी सोई हुई

सुमित्रा जी हमारे मुशायरों में पिछले कुछ समय से आती रही हैं तथा अपनी फिक्र, अपनी सोच से श्रोताओं को प्रभावित करती रही हैं। इस बार भी उन्‍होंने अपनी ग़ज़ल के साथ लगभग दौड़ते हुए ट्रेन पकड़ी है तरही मुशायरे की। सबसे पहले बात की जाए अंतिम शेर की। उसे शेर में जाने क्‍या ऐसा है उसे खास बना रहा है। शायद उसकी बनावट में ही वो वैशिष्‍ट्य अ गया है। और ऐसा ही एक शेर बना है सिया के प्रसव और राम की नगरी का। बहुत अच्‍छा शब्‍द चित्र बना है उस शेर में। बहुत ही अच्‍छी गज़ल़ कही है सुमित्रा जी ने । वाह वाह वाह।

parul singh

पारुल सिंह

बस अना है ये उधर के सादगी सोई हुई
जाग ना जाए इधर सादादिली सोई हुई

आप के कान्धे झुका था सर हमारा, यूँ लगा
मोगरे के फूल पर थी चाँदनी सोई हुई 

छोड़ दी है राह तकनी मुद्दतें हमको हुई
जागती पर आहटों से देहरी सोई हुई

रात मैं लोरी न बेटी को सुना पायी इधर
पार सरहद जाग जाती माँ दुखी सोई हुई

नूर जो माँ बाप की आँखों का लेकर चल दिए
थे बङे हैवान उनकी रूह थी सोई हुई

जब मसलते जा रहे थे फ़ूल वो मासूम से
ऐ खुदा तेरी खुदाई क्यूं रही सोई हुई

शायराना हो गया मौसम गज़ल मैं बन गयी
वादिये दिल मे उमंग फिर से जगी, सोई हुई

वो खफ़ा हो जाए तो भी छोड़ कर जाती नहीं
साहिलों पर है समन्दर के, नदी सोई हुई

कह रहे हैं प्यार तुम से, ना, नहीं रे, है नहीं
मुस्कुराहट के तले 'हाँ', है अभी सोई हुई

रात भर ढूढाँ किये हम चाँद, तारे, आसमां
कहकशा, आंगन सजन के जा मिली सोई हुई

गलतियां भगवान भी तो कर चुके अक्सर यंहा
चल दिए बस छोड़ गौतम संगिनी सोयी हुई

सबसे पहले तो बात गिरह की की जाए। ये वो ही गिरह है जिसके बारे में नुसरत मेहदी जी ने कहा था कि पंकज ये मिसरा बहुत ही नाज़ुकी की मांग कर रहा है। सचमुच बहुत ही खूबसूरत तरीके से ये गिरह लगाई गई है। शायरना हो गया मौसम शेर भी बहुत ही सुंदर बन है उसमें जगी काफिया तो कमाल आया है। शब्‍दों का बहुत ही बेहतरीन सामंजस्‍य हुआ है उस शेर में विशेष कर उस मिसरे में। और उसके ठीक बाद की प्रेम रस में पगे हुए तीनों शेर भी वैसा ही कमाल रच रहे हैं। मुस्‍कुराहटों के तले हां है अभी सोई हुई । अलग अलग प्रकार से नकारना और एक हां। कमाल है । बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है वाह वाह वाह।

papa

डॉ. संजय दानी

मोगरे के फूल पर थी चांदनी सोई हुई,
तबले के सीने पे मानो बांसुरी सोई हुई।

जाना सच्चाई के कमरे में कठिन है सदियों से,
क्यूंकि सच के दर के आगे है बदी सोई हुई।

ये हवस का दौर है सच्ची मुहब्बत अब कहां,
ज़र के बिस्तर पर है सारी आशिक़ी सोई हुई।

आज भी हिन्दू मुसलमां की लड़ाई जारी है,
माज़ी के उस दौर से गोया सदी सोई हुई।

आज हर सर पे नई कविता का छाता है तना,
गठरी में दरवेशों के गो शायरी सोई हुई।

वृद्धा- आश्रम में है डाला मां को जब से बच्चों ने
है ग़मों के तकिये में मां की ख़ुशी सोई हुई।

अब के बच्चों में नहीं है दानी पहले सा जुनूं,
बस नशे में ,हौसलों की पालकी सोई हुई,

डॉ: संजय दानी अपने अलग तरह के शेरों को लेकर मुशायरों में आते रहे हैं। उनकी ग़ज़लों में समसामयिक व्‍यंग्‍य और सरोकारों को लेकर एक प्रकार की बेचैनी होती है। वास्‍तव में यही बेचैनी किसी भी रचना के लिए महत्‍तवपूर्ण होती है। और इस ग़ज़ल में तो दानी जी ने लगभग हर सरोकार को अपने शेरों में गूंथ लिया है। चाहे वो साम्‍प्रदायिकता हो, साहित्‍य हो, बुजुर्गों की समस्‍या हो या नशे की लत की समस्‍या हो । हर समस्‍या को उन्‍होंने अपने शेरों में ढाल कर अपनी सजगता का परिचय दिया है। बहुत सुंदर गजल वाह वाह वाह ।

तो आनंद लीजिए इन तीनों रचनाओं का और देते रहिये दाद। मिलते हैं अगले समापन अंक में 31 जनवरी को ।

12 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बहुत धन्यवाद व आभार सुबीर जी, जर्रा नवाजी के लिये ।

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  2. एक बहुत कामयाब और खूबसूरत तरही का अंत भी उसी अंदाज़ से हो रहा है जिस अंदाज़ से इसकी शुरुआत हुई थी। आज के तीन प्रतिभाशाली शायरों में से दो को मैं व्यक्तिगत रूप से थोड़ा सा जानता हूँ। उनसे मिल चुका हूँ और उनकी ग़ज़ल यात्रा का चश्मदीद गवाह भी रहा हूँ इसलिए डर रहा हूँ कि मेरी कही बात कहीं अतिश्योक्ति पूर्ण न लगने लगे।

    सुमित्रा जी तरही में शायद दूसरी या तीसरी बार आई हैं , मूलतः एक कवयित्री हैं लेकिन उनमें ग़ज़ल सीखने की जबरदस्त ललक है और परिणाम आपके सामने है। इतनी जल्दी उन्होंने ग़ज़ल कहना सीख लिया कि उनकी प्रतिभा पर रश्क होता है। "दूब पर पड़ी ओस की तुलना मोगरे और चांदनी करना अद्भुत है , जननी के दर्द को उन्होंने कितने अच्छे से बयां किया है, द्रौपदी और लव कुश के जन्म के समय सीता के क्रदन की बात अपने शेरों में ढालना उनके अलग सोच की पैरवी करती है। तमस की कैद से रौशनी के जागने का बिम्ब कमाल है। आप और आपकी लेखनी को प्रणाम करता हूँ सुमित्रा जी।

    पारुल जी भी सुमित्रा जी की तरह मूल रूप से कवयित्री हैं और अपनी छोटी छोटी किन्तु संवेदनशील कविताओं के माध्यम से अपने पाठकों के दिल के तारों को झंकृत करने में पारंगत हैं। वो भी ग़ज़ल कहना अभी सीख ही रही हैं। प्रेम उनकी कविताओं का मूल स्वर रहा है और यही कारण है कि इस ग़ज़ल में रूमानियत से लबरेज़ उनके शेर बहुत असरदार ढंग से कहे गए हैं। तरही मिसरे पर लगायी उनकी गिरह इस बात का प्रमाण है, इसके अलावा भी उन्होंने बिलकुल अलग ढंग से और बहुत नाज़ुक अंदाज़ में शेर गढ़े हैं। देहरी के सोये हुए होने की बात हो ,दिल की वादी में उमंग के जागने, समंदर के साहिल पर नदी के सोयी होने या फिर मुस्कराहट के तले 'हां '( ये शेर तो ऐसा है जिसकी तारीफ़ लफ़्ज़ों में नहीं की जा सकती) का जिक्र हो पारुल जी ने अपनी विलक्षण प्रतिभा का लोहा मनवा है। इस खूबसूरत ग़ज़ल के लिए तहे दिल से दाद कबूल करें और यूँ ही लिखती रहें -आमीन।

    तबले के सीने पर बांसुरी की कल्पना ही अपने आप में अनूठी है और ये अनूठा पन दानी साहब की विशेषता रही है। "जर के बिस्तर पे --" आज भी हिन्दू --"., वृद्धाश्रम में ---"., अब के बच्चों में ---" जैसे शेर सामाजिक सरोकार से परिपूर्ण हैं जो दानी जी का अपना एक विशेष अंदाज़ है। उनका गठरी में दरवेशों के गो शायरी सोयी हुई मिसरा बहुत पसंद आया। दानी जी मेरी दिली दाद कबूलें।

    नीरज

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  3. एक बार फिर बेहतरीन ग़ज़लें ...!! वाह वाह वाह ....!! पढ़ कर मजा आ गया। पारुल सिंह जी की ग़ज़ल अद्वितीय हुई है। हर एक शे'र लासानी बन पड़ा है। गिरह के बारे में कुछ कहना मेरे लिए संभव नहीं। शायद सबसे सुंदर गिरह है यह, मेरी समझ में। ऐसी रचना हम पाठकों तक पहुंचाने का शुक्रिया आदरणीय।

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  4. द्रोपदी का चीर खिंचता ही रहा, खिंचता रहा ...... स्तब्ध कर देने वाला शेर, आपकी सांसे रोक देने वाला शेर और अगले मिसरे में तो जैसे पूरी सभा सामने देख पा रहे हों | ख़ूब शेर |कंचको के गीत और
    प्रसव क्रंदन अलग अलग वक्तों की बात हैं माना पर क्या कुछ बदला हैं? गुजरे दिनों से आज तक के हालात को बयां करते ये शेर सोचने को मजबूर कर रहे हैं |
    अंधेरों को झटक कर उठ खड़ी होने की बात बिजली सी कोंधती हुई दिमाग को झनझना देती है साथ ही एक निराले जोश से भर देती हैं | बहुत ही कामयाब गज़ल सुमित्रा जी बहुत बहुत शुभकामनाएं |
    डॉ संजय दानी जी की गज़ल का मतला क्या कमाल बिम्ब दे रहा है सोच कि सोच से परे हैं |
    तबले के सीने पे मानो बांसुरी सोयी हुई वाह वाह |
    सच के कमरे के आगे बदी का सोना ही वो कारण है जिससे सच मर जाता है सच होते हुए भी | और माज़ी के दौर से नदी का सोना .......कितनी मजबूरियों से भरा शेर |बहुत अच्छा| ऐसे में माँ का तकिया गमो वाला ही बन जायेगा सच ही तो हैं |
    बहुत कामयाब और सरोकारों वाली अर्थपूर्ण गज़ल | डॉ संजय दानी जी को बहुत बहुत बधाई |

    कुछ कहे को गज़ल कहकर इस बहुत बहुत प्रतिभाशाली लोगों के मंच पर स्थान देने का ही बहुत बहुत शुक्रिया पंकज जी | आपने जो खखूबसूरत बाते गज़ल के लिए कही उनका धन्यवाद देने के लिए तो शब्द ही नहीं मेरे पास | बहुत शुक्रिया |

    दिनेश जी बहुत बहुत शुक्रिया | हमने बहुत सुन्दर सुन्दर गिरहें पढ़ी हैं यंहा बेशक | इसे पसंद करने का शुक्रिया |
    नीरज सर आपके कहे सभी शब्द मेरे लिए बहुत मायने रखते हैं और बहुत ज्यादा खास हैं क्यूंकि आप मेरी कमियां जानते हैं | इस हौसलाअफजाई से कुछ और अच्छा कहने की कोशिश करुँगी | शुक्रिया |

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  5. Sumitra ji ne train pakdee mujh se chhoot gaye .mobile se bloging mushkil hai hajaaronbahane hai kya kya bataoon. Teeno gazalon par kychh kahne kaa hak gavaa chuki hoon. Fir aatee hoon hak jataane. Teeno ko itnii sundar gazlon ke liye badhai. Sorry bhai ati hoon manane.book fare kab hai?

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  6. इस बार तरही में आने वाली सभी गज़लें अपनी अलग छटा बिखेर गईं. एक से दूसरी गज़ल की यात्रा में विचारों का मंथन और सन्तुलन प्रभावी रहा है. पहली बार पढ़े शायरों से लेकर मँजे हुये शायरों की गज़लों तक सभी ने प्रभावित किया. आप के इस भव्य आयोजन के लिये आपके अशेष धन्यवाद.

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  7. पारुल सिंह जी:
    ==========
    # छोड़ दी है राह तकनी मुद्दतें हमको हुई
    जागती पर आहटों से देहरी सोई हुई

    कितनी शिद्दत है! क्या तड़प है! और 'देहरी' का चरित्र तो जीवन्त हो उठा है.

    "इंतिज़ारे यार में है कितनी शिद्दत क्या तड़प
    बन गई वो ख़ुद ही 'देहरी' जागती सोई हुई "

    # शायराना हो गया मौसम ग़ज़ल मैं बन गयी
    वादिये दिल में उमंग फिर से जागी, सोई हुई

    " ग़ज़ल से ग़ज़ल सुनना...... दिलचस्प और खूबसूरत हादसा! "

    # कह रहे हैं प्यार तुम से, ना, नही रे, है नही
    मुसकुराहट के तले 'हाँ', है अभी सोई हुई

    ........ रूमानियत ग़ज़ल की जान होती है... इस तकाज़े को ख़ूबसूरती से निभाया है.
    गिरह का शेर भी ख़ूब बन पड़ा है.
    शानदार पेशकश, बधाई.

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  8. मुझे याद नहीं आ रहा कि सुमित्रा जी की ग़ज़ल पहले पढ़ चूका हूँ या नहीं पर आज पढ़कर बहुत ही अच्छा लगा । द्रोपदी और सीता का चित्रण ग़ज़ल में बहुत ही खूबसूरत बन पड़ा है । हार्दिक बधाई ।

    पारुल जी ,कई सामायिक मुद्दों को बड़ी ही सरलता से शेर में बयां कर गई ,यहीं एक ग़ज़लकार की श्रेष्ठता है । सभी शेर कमाल के हैं पर अंतिम शेर जिसमें गौतम की बात हुई बेहद शानदार लगा ।
    साधुवाद,बहुत बहुत बधाई व् शुभकामनायें ।

    संजय जी ,क्या खूब शेर कही अपने ।सदी के सोने का वर्णन,बहुत खूबसूरत बन पड़ा है । ऊपर से वृद्धा आश्रम वाला शेर भी लाजवाब । सारे शेर कमाल के हैं । बधाई ।

    पंकज जी , शानदार मुशायरा के लिए एक बार फिर से बधाई । प्रणाम ।

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  9. मुशायरा अपने अंतिम दौर में है और कमाल ये है की कदम कदम पर कमाल के मंज़र उकेरे जा रहे हैं।सुमित्रा जी की ख़ालिस ग़ज़ल,पारुल जी की प्रीत से सराबोर नज़ाकत भरी ग़ज़ल। और डॉ.दानी कि वास्तविक्ता की बैचेनी से रूबरू करवाती ग़ज़ल कैसे कैसे दृश्य् बना रही है। तीनो ग़ज़लकारों को ढेरों दाद।
    तालियों की गड़गड़ाहट के साथ......दाद क़ुबूल फरमाएं...
    सादर
    पूजा

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  10. मोहतरमा सुमित्रा शर्मा साहिबा की रचना शायद पहली बार पढ़ने का मौका मिला है। बहुत अच्छी गजल में द्रोपदी वाला शेर बहुत ही उम्दा है। बधाई

    मोहतरमा पारुल सिंह साहिबा की गिरह वाकई मिसरे की नाजुकी को न सिर्फ बरकरार रखे हुए है, बल्कि उसे और बढ़ा रही है।
    वो खफा हो जाए तो भी छोड़कर जाती नहीं
    साहिलों पर है समंदर के नदी सोई हुई..
    इस शेर की जितनी भी तारीफ की जाए कम है। मैं तो इसे हासिल गजल शेर मानता हूं। इतनी उम्दा गजल के लिए मुबारकबाद ।

    संजय दानी जी की गजल के सभी शेर अच्छे हैं, बधाई।

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  11. इतनी जल्दी मुशायरा अपने अंजाम तक आ जायेगा सोचा न था ... खैर हर नई शुरुआत किसी के अंत के बाद ही होती है ...
    इतिहास की वीथियों से शेरों के पात्र ढूंढ कर लाजवाब गज़ल गूंथी है सुमित्रा जी ने .... अंतिम शेर तो बहुत ही कमाल है ... रौशनी को रोक के रखना आसान नहीं होता ...बधाई इस ग़ज़ल की ...
    पारुल जी ने कमाल ही कर दिया ... गिरह का शेर इतनी सादगी से बाँधा है की आगे जाने का मन नहीं कर रहा ... सुभान अल्ला ... इसके अलावा भी सभी शेर वाह वाह अपने आप ही निकाल देते हैं मुंह से ... पूरी गज़ल तारीफे के काबिल ... बहुत बधाई ...
    संजय जी ने भी एक से बढ़ के एक शेर निकाले हैं ... बहुत ही संवेदनशील शेर हैं ग़ज़ल के आज के हालात का जायजा लेते हुए ... बधाई उनको भी ...

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  12. दोनों शायरा और दानी जी ने कमाल की ग़ज़लें कही हैं। बहुत बहुत बधाई तीनों को

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