मंगलवार, 27 जनवरी 2015

तरही मुशायरा जनवरी के बीतते बीतते अपने अंतिम दौर में आ रहा है। आइये आज तीन और रचनाकारों श्री मंसूर अली हाशमी, डॉ: त्रिमोहन तरल और सुलभ जायसवाल से सुनते हैं उनकी ग़ज़लें।

नुसरत मेहदी जी जब पिछले दिनों सीहोर आईं थीं तो उन्‍होंने इस बात पर खेद जताया कि वे इस बार तरही में अपनी ग़ज़ल नहीं भेज पाईं। उन्‍होंने कारण भी बहुत अच्‍छा बताया। उनका कहना था कि पंकज इस बार मिसरा इतना नाज़ुक और ख़ूबसूरत है कि अगर ज़रा सा भी उसके मिज़ाज को ठेस लगे तो पूरी ग़ज़ल बिखर जाए। उनका कहना था कि मिसरा बहुत ज्‍यादा नाज़ुकी मांग रहा है, इतनी की एक शब्‍द चुन चुन कर लगाया जाए। मुझे लाग कि यदि मैं उतनी नाज़ुक कह पाऊं तो ही भेजूं अन्‍यथा नहीं। जब नुसरत जी की बात पर गौर किया तो मुझे लगा कि बात सही है। मिसरा बहुत नाज़ुक तो है। और चांदनी के रेशम तार से कशीदाकारी की मांग कर रहा है। जब ये मिसरा दिमाग़ में बन रहा था तो मेरे दिमाग़ में भी ये बात नहीं थी कि ऐसा कुछ हो रहा है। खैर तो आइये आज आगे बढ़ते हैं कुछ और आगे।

मोगरे के फूल पर थी चांदनी सोई हुई  

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शिवना प्रकाशन के समारोह के कुछ फोटो जिनमें शिवना प्रकाशन तथा सुबीर संवाद सेवा के वरिष्‍ठ सदस्‍य श्री तिलकराज जी कपूर का काव्‍यपाठ तथा स्‍वागत हो रहा है।

Mansoor ali Hashmi

मंसूर अली हाश्मी

सभ्यताएं मिट रही अक़वाम* भी सोई हुईं
अस्मिताएं लुट रही मर्दानगी सोई हुई.
अक़वाम 'क़ौम' का बहुवचन

रात भर अठखेलियां कर, थक-थका कर बेख़बर
मोगरे के फूल पर थी चांदनी सोई हुई.

कीमती मोती लुटाकर, बेख़बर, अलमस्त सी
बांह में अपने पिया की मोहनी सोई हुई.

"तालिबानी हरकतों से त्राहि-त्राहि की सदा
मर गया ईमान! या कि बन्दगी सोई हुई ?

ज़ुल्म की है इन्तिहा; कि नाम पर मज़हब के आज
क़त्ल मुस्तक़बिल को कर 'हैवानगी' सोई हुई."

नीम शब में फेसबुक पर नाज़नीं की इल्तिजा*
मैं ग़ज़ल गो था इधर बेग़म मेरी सोयी हुई.
*Friendship Request

है ग़ज़ब! कासिद,प्रतिद्वंद्वी बना बैठा है अब
क्या करे तक़दीर तेरी 'हाशमी' सोई हुई

कहते हैं कि हर रचनाकार अपने मूल स्‍वर में ही सबसे मुखर होता है। जैसे कि हाशमी साहब का मूल स्‍वर व्‍यंग्‍य है हास्‍य है तो उनके जो शेर इसका पुट लिए होते हैं वे अधिक प्रभावशाली होते हैं। इस ग़ज़ल में नीम शब में फेसबुक पर नाज़नीं की इल्तिजा ने वो कमाल किया है कि बस । इतनी नफ़ासत के साथ हास्‍य का दृश्‍य रचना बहुत मुश्किल काम होता है और उसे बहुत खूबी के साथ मिसरे में हाशमी जी ने निभाया है। मतले में भी एक दूसरे प्रकार का प्रभाव पैदा किया गया है। सभ्‍यताएं मिटने की ओर कवि ने बहुत कठोरता से इशारा किया है । जो है उसे बचाना कवि का सबसे पहला दायित्‍व होता है। ण्‍क के बाद एक दो शेरों में पेशावर की पीड़ा तो कवि ने तालिबानी और जुल्‍म की है इन्तिहा में अभिव्‍यक्‍त किया है । और बिना क्षमा किये किया है। कवि को क्षमा नहीं करना चाहिए क्‍योंकि जब कवि क्षमा करने लगते हैं तो सभ्‍यताएं और समाज दोनों समाप्‍त हो जाते हैं। बहुत ही उम्‍दा ग़ज़ल, वाह वाह वाह।

trimohan taral

डॉ. त्रिमोहन तरल

मोगरे की ड़ाल पर थी चाँदनी सोई हुई
लग रहा था जैसे कोई सुंदरी सोई हुई

वक़्त का दरिया लबालब पर सदी के होंठ पर
ये समझ आता नहीं क्यों तश्नगी सोई हुई 

हो रहे हैं हादिसों पर हादिसे इस दौर में
तीरगी जागी हुई है रौशनी सोई हुई

छेड़ मत, आवाज़ मत दे, इस तरह जग जाएगी
सरहदों के पास में जो दुश्मनी सोई हुई

राजधानी के महल में जश्न में मशगूल है
मुफ़लिसों की बस्तियों में ज़िन्दगी सोई हुई

इश्क़ कोई लग गया उस शख़्स को जो रात में 
जागता है तब कि जब सारी गली सोई हुई 

अब सितार-ए-ज़िन्दगी को इस तरह छेड़ो 'तरल'
जाग जाए प्यार की जो रागिनी सोई हुई
 

हो रहे हैं हादिसों पर हादिसे इस दौर में शेर में मिसरा सानी में तीरगी के जागे होने और रौशनी के सोने का प्रयोग बहुत प्रभावशाली है। सचमुच हमारे समय की सबसे बड़ी व्‍यथा यही है कि तीरगी पूरी शिद्दत से जागी हुई है और रौशनी जाने कहां सो रही है। इश्‍क़ कोई लग गया उस शख्‍़स को जो रात में शेर में जागता है तब कि जब सारी गली सोई हुई में बहुत सुंदर दृश्‍य बना है। यह दृश्‍य इमेजिन हो रहा है। राजधानी के महल तो जश्‍न में मश्‍गूल हैं में मिसरा सानी कन्‍ट्रास्‍ट का बिम्‍ब लेकर आया है और मुफ़लिसों की बस्तियों में जि़दगी के सोए होने की पीड़ा रच रहा है। मकते के शेर में सितार ए जिंदगी को छेड़ने की बात खूब कही है और उसके साथ प्‍यार की रौशनी की बात भी खूब है। बहुत ही सुंदर ग़ज़ल । वाह वाह वाह।

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सुलभ जायसवाल

है घना कोहरा यहाँ औ’ रोशनी सोयी हुई
देखता हूँ मुंह पलट कर ज़िन्दगी सोयी हुई

क्या कहें किस से कहें तकदीर की यह चाल है
सोम मंगल बुध शनीचर हर घड़ी सोयी हुई

इस बड़े से आसमाँ में चाँद जगमग साथ है
सुस्त से तारों की आंखें, अधखुली सोई हुई

मंदिरों में शांति अब ढूंढे नहीं मिलती कहीं 
ढोल बाजे की टशन है, बंदगी सोयी हुई

देख कर वो दृश्‍य आगे चल दिए चुपचाप हम  
मोगरे के फूल पर थी चाँदनी सोयी हुई

क्‍या कहें किससे कहें में एक प्रयोग बहुत सुंदर बना है, सोम मंगल बुध शनीचर, बहुत ही अच्‍छे तरीके से इनको मिसरे में गूंथा गया है। मतले में भी सुबह के होने का दृश्‍य बनाया है । है घना कोहरा यहां औ रौशनी सोई हुई। वास्‍तव में रात का अंधेरा उतना परेशान नहीं करता जिनता सुब्‍ह का करता है। रात तो होती ही अंधेरे के लिए है लेकिन सुब्‍ह का काम तो रौशनी को लाना होता है। ऐसे में जब सुब्‍ह में कोहरे के चलते अंधेरा हो जाता है तो वह बहुत कष्‍ट देता है। बहुत ही सुंदर तरीके से मतले को रचा है। देखता हूं मुंह पलट कर जिन्‍दगी सोई हुई। वाह  वाह वाह खूब गज़ल़ है।

तो आप भी आनंद लीजिए इन तीनों रचनाकारों की शानदार ग़ज़लों का दाद देते रहिये, मिलते हैं अगले अंक में कुछ और रचनाकारों के साथ।

31 टिप्‍पणियां:

  1. वाह, आदरणीय मंसूर अली हाश्मी साहब..वाह क्या अशआर हुए हैं। इस शेर ने तो कमाल कर दिया ....नीम शब में फेसबुक पर नाज़नीं की इल्तिजा*
    मैं ग़ज़ल गो था इधर बेग़म मेरी सोयी हुई.....वाह वाह..!! हकीकत बयान की है। पहले तीनों शे'र भी लाजवाब हैं।

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    1. शुक्रिया, दिनेश कुमार जी .

      अब कहाँ आवारगी ए शब का हम लेते मज़ा
      भर रहे खर्राटे हम औ' 'चांदनी' सोई हुई !

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  2. तीनों शायरों ने बहुत सुंदर शेर कहे हैं. मंसूर जी का फेसबुक वाला शेर, तरल जी का इश्क वाला और सुलभ का मतला ख़ास तौर पर पसंद आये...बधाई.

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    1. धन्यवाद, राजीव भरोल जी.

      फेसबुक ही से अभी तो चल रहा है पत्राचार
      ख़ुद बने संदेशवाहक, कासिदी सोई हुई.

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  3. एक -से-एक रचनाएँ पढ़ने को मिली. सभी को बधाई. दुःख है कि इस बार मैं शामिल न हो पाया

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  4. हास्य और व्यंग्य ये बड़ी आसानी से किसी का भी ध्यान आकर्षित कर लेते हैं इसलिए हास्य और व्यंग्य में डुबोकर कही गई गंभीर बात बहुत दूर तक और बहुत देर असर करती है। लेकिन हास्य और गंभीरता दो बिल्कुल विपरीत ध्रुव हैं। अगर इनका मिलन सध जाय तो और क्या चाहिए। मंसूर साहब के शे’र मुझे इस मिलन की तरफ़ बढ़ते हुए लगते हैं। बहुत बहुत बधाई उन्हें इन अश’आर के लिए।

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    1. धन्यवाद धर्मेंद्र जी.
      चांदनी का मोगरे तक का सफर ऑसां न था
      बन के सौतन पहले ही से ओंस थी सोई हुई !

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  5. डॉ. त्रिमोहन साहब ने बहुत सुंदर अश’आर कहे हैं। "राजधानी के महल..", "इश्क़ कोई..." जैसे खूबसूरत अश’आर के लिए बहुत बहुत बधाई।

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  6. अभी तो लग रहा था जैसे मुशायरा जवान हो रहा है इतनी जल्दी अंतिम दौर में आ जायगा सोचा नहीं ...खैर कुछ नए के लिए पुरानी चीज का अंत कभी कभी जरूरी होता है ...
    आज के तीनों गज़लकार अपने अपने रंग बिखेर रहे हैं ...
    आदरणीय मंसूर जी की लेखनी का तो जवाब ही नहीं ... हास्य और व्यंग के बिना तो उनकी ग़ज़ल अधूरी होती है ... नीम शब् में फेसबुक पर ... इस शेर की नाजुकी और हास्य का पुट देर तक नशा दे रहा है ... गिरह का शेर भी बहुत लाजवाब है ...
    त्रिमोहन जी नें भी कमाल किया है ... मतले में गिरह को बाखूबी लगाया है ... छेड़ मत आवाज मत दे ... बहुत ही दूर तक जाने वाला शेर है ...
    सुलभ जी ने भी पांच शेरों में ही धमाका कर दिया ...मतले का शेर आज के युग की दास्तान कह रहा है ... और गिरह का शेर भी बहुत सादगी से बुना है ... बहुत बधाई सुलभ जी को ...

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    1. शुक्रिया दिगम्बर नासवा जी, नीम शब के मज़े के बाद सुबह-सुबह क्या हुवा वह भी जान लें :-

      'चैट' की साईट खुली ही रह गई थी भूलवश
      भोर में 'बेलन' चली; अब आशिक़ी सोई हुई.

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  7. मैं तो सुलभ जी की गिरह से दंग रह गया और मुझे आश्चर्य हुआ कि सुबीर की पारखी नज़रों से कैसे ये शानदार गिरह छूट गई। ये आज की नौजवान पीढ़ी की बड़ी खूबसूरत सोच है कि मोगरे के फूल पर सोई हुई चाँदनी को देखकर चुपचाप आगे बढ़ जाया जाय। दो प्यार करने वालों को डिस्टर्ब न किया जाय। हम सब तो भाँति भाँति से इस मिलन को आँकने की कोशिस में ही लगे हुए हैं और एक नौजवान इस मिलन का मूल्य पहचान कर किसी भी प्रकार से डिस्टर्ब करने या कोई राय कायम करने की बजाय चुपचाप निकल जाना चाहता है। मैं नमन करता हूँ सुलभ जी की इस सोच को। सुलभ जी ने मुझे केदारनाथ अग्रवाल की वो कविता याद दिला दी

    आज नदी बिल्कुल उदास थी
    उसके तन पर बादल का वस्त्र पड़ा था
    मैंने उसको नहीं जगाया
    दबे पाँव घर वापस आया

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  8. कहते हैं गजल में अगर एक शेर भी हो जाए, जो याद रह जाए तो शायर की कामयाबी है। जनाब मंसूर अली हाशमी साहब का एक शेर ऐसा लगा-
    जुल्म की है इंतिहा कि नाम पर मजहब के आज
    कत्ल मुस्तकबिल को कर हैवानगी सोई हुई।
    मुआफी के साथ एक अर्ज हाशमी साहब से। हालांकि मैं खुद अभी तालिबे-इल्म हूं, और सीखने की भूख और रफ्तार को कभी धीमा करना भी नहीं चाहता। लेकिन शायद पंकज जी मेरी बात से इत्तेफाक करेंगे कि गजल के पहले ही मिसरे में एक ऐसा दोष है, जिसके लिए आप जैसे अनुभवी शायरों को गुजायंश नहीं लेनी चाहिए। सभ्यताएं मिट रहीं अवकाम भी सोई हुर्इं इसमें रदीफ को तो जमा यानी बहुवचन किया ही नहीं जा सकता। अवकाम की जगह हर कौम करके इस दोष से बचा जा सकता था।

    डा. त्रिमोहन तरल साहब के सभी शेर अच्छे लगे,
    ये शेर खास तौर पर-
    राजधानी के महल तो जश्न में मशगूल हैं
    मुफलिसों की बस्तियों में जिंदगी सोई हुई।

    सुलभ जायसवाल जी को बहुत दिनों के बाद पढ़ने का मौका मिला है। उनका एक शेर बहुत अच्छा हुआ है-
    क्या कहें किससे कहें तकदीर की यह चाल है
    सोम मंगल बुध शनिचर हर घड़ी सोई हुई।
    सुलभ जी, एक जगह चूक आपसे भी हो गई,
    सुस्त से तारों की आंखें अधखुली सोई हुई
    आंखें बहुवचन हैं, जिसमें रदीफ खुद बखुद सोई हुर्इं मांग रही है।

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    1. शुक्रिया, शाहिद साहब, आप ने दुरस्त फरमाया, जमा की रदीफ ग़लत प्रयुक्त हो गई है, इंगित कर आप ने रहनुमाई की है, अपने तईं तो मैंने दुरस्त कर लिया है; ब्लाग साईट पर पंकज जी को यह इख्तियार हासिल है.

      हटाएं
  9. सार्थक प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (28-01-2015) को गणतंत्र दिवस पर मोदी की छाप, चर्चा मंच 1872 पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  10. डाॅ. त्रिमोहन तरल:
    ============
    तरल जी ने बड़ी सरलता से ज़िंदगी के सितार का तार छेड़ा है, अच्छे अशआर निकाले है.

    सुलभ जायसवाल :
    ============
    "देख कर वो द्रश्य आगे चल दिये चुपचाप हम
    मोगरे के फूल पर थी चांदनी सोई हुई. "
    सुंदर अभिव्यक्ति. सुलभ जी सु़ंदरता निहारने में संकोच कर गये ! सज्जन धर्मेन्द्र जी का इसको भलमनसाहट से जोड़ना भला लगा.

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  11. मंसूर अली हाश्‍मी साहब, डॉ त्रिमोहन तरल और सुलभ जायसवाल की तीन ग़ज़लें, जैसे तरही-गंगा बहते-बहते त्रिवेणी संगम पर पहुँच गयी हो। बहुत खूबसूरत ग़ज़ल आई हैं।
    नुसरत जी ने बात तो ठीक कही कि तरही मिसरा आमंत्रित करता है एक-एक शेर नफ़ासत से पिरोने के लिये लेकिन अभिव्‍यक्ति स्‍वतंत्रता की दृष्टि से काव्‍य के सभी रसों की अनुमति तरही मिसरे में मौज़ूद है और नुसरत जी की तरही की भी प्रतीक्षा है।

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  12. तीनों ग़ज़लों में चॉंदनी अलग अलग भाव में सोई हुई है।
    हाश्‍मी साहब की चॉंदनी आघुनिक संस्‍कृति की चॉंदनी है जो किसी मेट्रो सिटी में विकेन्‍द्रीकृत ईकाई में है, सास से दूर; वरना सास ऐसे कैसे सोने देती।
    सुलभ की चॉंदनी सार्वजनिक उद्यानों में पाई जाने वाली स्थिति है और त्रिमोहन जी की चॉंदनी अभिसार

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    1. शुक्रिया तिलक राज कपूर जी, आपने 'चांदनी' को 'श्री देवी' के रूप में ख़ूब पहचाना !

      हटाएं
  13. अपूर्ण पोस्‍ट हो गयी:
    अभिसारिका।

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  14. रात भर अठखेलिया कर थक थका कर ...... वाह वाह क्या बात हैं चाँदनी रातों में राज ही चाँदनी का होता है मुंडेर के इस पार से उस पार , बगीचे के इस छोर से उस छोर ..अठखेलियां ही तो हैं चाँदनी की वाह वाह हाशमी जी बाकमाल शेर .. बधाई बहुत बहुत .
    बांह में अपने ...... बहुत ही अलग सा नाजुक सा शेर है ...बहुत सुन्दर
    उसके बाद के दोनों शेर रूह तक को झंकझोरने वाले हैं ...कुछ कहना मुश्किल है
    नीम शब् के लिए बहुत सी मुस्कराहट...
    तरल जी का शेर ...."छेड़ मत,आवाज मत दे ..." बहुत बोलता हुआ शेर है और दुश्मनी के सोते ही रहने की तरकीबे क्या खूब .बेहद उम्दा शेर
    बहुत सही "इश्क कोई लग गया ..." कोई भी किस्म का हो लग जाये तो इश्क़ की पहली शर्त नींद की गैर मौजूदगी को बा खूबी बयाँ करता शेर
    अब सितारे जिंदगी को ..." नरम और नाजुक शेर है तरही के मिसरे सा बहुत खूब गज़ल तरल जी को बहुत बधाई.
    क्या कहे किस से कहे ".... मंदिरों में शांति अब ..." .....देख कर हम ...." हर शेर सुलभ जी के अंदाज को बयाँ कर रहा है
    सुलभ जी को जब भी पढ़ा है पाया है उन के शेर बहुत ही सहज भाव में बिला हो हल्ले के गहरी बाते कह आगे निकल जाते हैं और इस बार तो अपने एक शेर में उन्होंने ये कुबूल भी कर लिया बहुत ही सुन्दर गज़ल
    मंदिरों कि शांति वाला शेर क्या खूब है सच है कानफोडू भक्ति ही रह गयी अब शांति देने वाले मंदिर के बरामदों में .
    बहुत सुन्दर गज़ल सुलभ जी शुभकामनायें .

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    1. शुक्रिया पारुल जी, 'चांदनी' के चरित्र के मद्देनज़र आपकी दाद भी क़ाबिले दाद है.

      हटाएं
  15. सुबीर संवाद सेवा के सभी सदस्यों-मित्रों को हौसला अफ्ज़ाई के लिए तहे-दिल से शुक्रिया। सज्जन धर्मेन्द्र जी, नासवा साहब, राजीव भरोलजी, हाशमी साहब, शाहिद साहब, तिलक राज कपूर जी, और खास तौर से पारुल जी को जिन्होंने बड़ी तफ़्सील के साथ कई अशआर पर अपना नजरिया पेश किया। बहुत-बहुत शुक्रिया दोस्तों।

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  16. सभी मित्रों से एक बात और कहना चाहता हूँ। दरअस्ल मेरी ग़ज़ल में दो तब्दीलियां हो गईं हैं जो शायद मेरी ही typing errors हैं मेल करते समय की। मतले के बाद चौथे शेर का पहला मिसरा यों है ''राजधानी के महल में जश्न में मशगूल है" और मूल ग़ज़ल का मक्ता इस प्रकार है :
    अब सितार-ए-ज़िन्दगी को इस तरह छेड़ो 'तरल'
    जाग जाए प्यार की जो रागिनी सोई हुई

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    1. आपके दोनों टाइपो एरर दुरुस्‍त करवा दिये गये हैं तरल जी।

      हटाएं
  17. क्या कहा जाये ...शब्द कहाँ से लाये जाएं...भई बड़ी मुश्किल में डाल दिया पंकज जी ने। एक से एक क़लाम है। एक से एक क़लम के जादुगरों को पेश किया है आपने। आपका धन्यवाद।
    तीनों कलमकार सिद्ध हस्त है आप तीनो के अश्आर खुद बी खुद बोलते हैं।
    हम तो मुतमईन हो गए। बेहद शुक्रिया आप सभी का की इतने खूबसूरत क़लाम हम सीखने वालों को दिए।
    ग़ज़ल नज़ाकत चाहती है ये सर्वभौमिक है,जबकि व्यंग्य का मूल लहज़ा तल्ख़ या तीखा माना गया है। परंतु व्यंग्य को नज़ाकत में लपेट कर प्रस्तुत करना एक दुरूह काम है। और बेशक़ मंसूर साहब को ये ये सिफ़त अता है। कमाल.......ढेरों दाद आपके इस फन के नाम
    सादर
    पूजा

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    1. शुक्रिया पूजा भाटिया जी.

      मोगरे के फूल पर 'पंकज' सुला कर चल दिये
      कल्पना में खोए हम, थी 'चांदनी' सोई हुई
      शाइरों ने थाम ली अपनी कलम लिखने लगे
      छोड़ अपनी रागिनी या मालिनी सोई हुई

      हटाएं
  18. अपनी लेट लतीफी से मैं खुद परेशान हूँ ये जन्म जात रोग है जो आसानी से पीछा नहीं छोड़ता वरना साहब हाश्मी साहब की ग़ज़ल पोस्ट हुई हो और मैं न आऊँ हो ही नहीं सकता। 'मंसूर अली हाश्मी ' ऐसा नाम है जिसे पढ़ते ही चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। जो इंसान दूसरों के चेहरों पे मुस्कान ले आये वो मेरी नज़र में किसी फ़रिश्ते से कम नहीं होता।
    मंसूर भाई न केवल अपनी ग़ज़ल से बल्कि दूसरों की ग़ज़लों पर दी गयी अपनी टिप्पणियों से भी दिल मोह लेते हैं। मेरे जैसे शायर की ग़ज़ल पे दी गयी उनकी टिप्पणी पूरी ग़ज़ल पर भारी पड़ जाती है। "रात भर अटखेलियां कर ---" ऐसा शेर है जिसे कितने ही अलग अंदाज़ से सोच कर उसका आनंद लिया जा सकता है , "तालिबानी हरकतों से --" कमाल का शेर हुआ है अहा हा मंसूर भाई आपकी कलम को सलाम। "हैवानगी सोयी हुई --" हमारी सोच को झकझोर कर जगाता शेर है। और एक शेर जिसने सबको अपना दीवाना बना दिया " नीम शब में --" खालिस मंसूर भाई का शेर है जिस पर उनकी और केवल उनकी छाप दिखाई पड़ती है। मंसूर भाई कसम से आप और आपकी शायरी लाजवाब है।

    डा तरल साहब की ग़ज़ल क्या खूब हुई है "तीरगी जागी हुई---" जैसा शेर उसे बार बार पढ़ने का न्योता दे रहा है , राजधानी और मुफलिसों की बस्ती का बहुत कमाल कंट्रास्ट पेश किया है। ज़िन्दगी के सितार वाला शेर लाजवाब है।

    सुलभ आजकल बहुत कम पढ़ने में आ रहा है लेकिन भाई ने क्या शानदार ग़ज़ल कही है। सकारात्मक ऊर्जा से भरे इस नौजवान शायर ने मुझे हमेशा प्रभावित किया है ,सोम मंगल शनिचर जैसा शेर उनकी सोच का प्रतिनिधित्व करता है इसी तरह तरही के मिसरे पर जो गिरह उन्होंने लगाई है वो सबसे जुदा और अद्भुत है। सुलभ तुम्हारे सारे शेर दाद के अधिकारी हैं - जियो भाई।

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    1. शुक्रिया नीरज जी, ज़र्रा नवाज़ी है आपकी
      वरना ग़ज़ल की ज़मीन कोई मस्ख़रापन क़बूल कर सकती है कया ?
      यह तो पंकज जी का बड़प्पन है जो उनकी महफिल में नाचीज़ को जगह मिल जाती है.
      (नीम शब की मश्क से कुछहो गया सो हो गया!
      श्रेय उसका भी है जो, पहलू में थी सोई हुई !!)
      =======================
      "मोगरा 'नीरज' का उस पे चांदनी 'पंकज' की थी
      शबनमी शे'रो ने उसको बख़्श दी पाकीज़गी
      'निस्फ आबादी' की शिरकत ने बढ़ाई रौशनी
      महफिल-ए- शेरो सुख़न की ख़ूब ही ज़ीनत बढ़ी
      नींद उड़ा कर शाइरे मजनूं की देखो चैन से
      मोगरे के फूल पर है चांदनी सोई हुई. "

      हटाएं
  19. हाशमी साहब का चिर परिचित अन्दाज़ इस बार भी नये गुल खिला रहा है.

    सुलभ की गज़लों में लगातार गहराई बढ़ रही है. सोच के विशाल दाये में अच्छे शेर कहना बखूबी निभाया है.

    तरल साहब को पहली बार पढ़ा.

    सभी को बधाई

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