शनिवार, 24 नवंबर 2012

आज देव प्रबोधिनी एकादशी को हम दीपावली के मुशायरे का समापन करते हैं । दो गीतों और एक ग़ज़ल के साथ ।

जैसा कि आपको पूर्व में ही सूचित किया जा चुका है कि दिनांक 2 दिसंबर को शिवना प्रकाशन के कार्यक्रम में श्री नीरज गोस्‍वामी जी को वर्ष 2012 का सुकवि रमेश हठीला सम्‍मान प्रदान किया जायेगा । कार्यक्रम में अभी तक जिनके आने की स्‍वीकृति प्राप्‍त हो चुकी है उनमें श्री तिलकराज कपूर जी, श्री मुकेश कुमार तिवारी, गौतम राजरिशी, कंचन सिंह चौहान, प्रकाश अर्श, अंकित सफर, वीनस केशरी आदि हैं । कार्यक्रम दो चरण में होगा । नीरज जी की इच्‍छा थी कि कार्यक्रम छोटे स्‍तर पर सादे तरीके से हो, सो वैसा ही किया जा रहा है । प्रथम खंड में सम्‍मान समारोह होगा तथा दूसरे खंड में मुशायरा । मुशायरे में ऊपर दिये गये नाम तथा अन्‍य जो आते हैं वे डॉ आज़म के संचालन में काव्‍य पाठ करेंगे । कार्यक्रम में मध्‍य प्रदेश उर्दू अकादमी की सचिव आदरणीया नुसरत मेहदी जी मुख्‍य अतिथि के रूप में उपस्थ्ति रहेंगीं । आप यदि आ रहे हैं तो अपने आने की स्‍वीकृति भेजने का कष्‍ट करें ।

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घना जो अंधकार हो, तो हो रहे, तो हो रहे

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आज हम दो गीतों और एक ग़ज़ल के साथ मुशायरे का समापन कर रहे हैं । दो गीत आदरणीय राकेश खंडेलवाल जी के और एक बिल्‍कुल नये शायर की ग़ज़ल । इन शायर के बारे में बहुत अधिक नहीं जानता हूं । बस ये कि इनसे पहला ही परिचय है । तो आइये देव प्रबोधिनी एकादशी पर समापन करते हैं दीपावली के तरही मुशायरे का ।

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आदरणीय राकेश खंडेलवाल जी

(1)

ये दीप दीप पर्व के जलें हैं बन चुनौतियाँ
घना जो अन्धकार है तो हो रहे तो हो रहे
किरन किरन प्रखर बनी है ज्योति की ये कैंचियाँ
न शेष अन्धकार अब कहीं रहे कहीं रहे

ये राजवंश आज का उगल रहा है नित धुंआ
किये हुये तिमिर से अनदिखी हजार संधियां
हुआ है अन्ध डूब मद में ये सकल निशा दिवस
मगध नरेश से उधार ले रखी हैं नीतियाँ
तो आज का युवा बने जो यादवों का वंशजी
तो दूर मानसी क्लेश हो रहे ये हो रहे

छलक रहीं हैं धीर की भरी हुई सुराहियाँ
ये रोग कर्क है मिलें इसे नई दवाईयाँ
उठो हे पार्थ पुत्र तुमको है समर बुला रहा
चलो कि शत्रु के मुखों पे अब उड़ें हवाईयाँ
ना सूर्य ढल सके उठाओ शस्त्र अपने हाथ में
तो गर्व जयद्रथी ये चूर हो रहे हाँ हो रहे

जो रह गये तटस्थ, वे रहेंगे खो अनन्त में
जो आहुती चढ़ाये उसका यश फ़िरे दिगन्त में
उठो कि सामने तुम्हारे निर्णयों की है घड़ी
वरण हो मंज़िलों का या विलीन हो लो पंथ में
उठो जलो कि दीप की बुला रही है वर्त्तिका
ये ज्योति कल के अन्त तक जो हो रहे तो हो रहे

बहुत सुंदर गीत है । एक एक पंक्ति स्‍वयं को गा लेने के लिये आमंत्रित कर रही है । विशेष कर अंतिम बंद तो मानो एक ललकार की तरह आ रहा है । अब राकेश जी के गीतों पर क्‍या लिखा जाये । मगध, जयद्रथ जैसे प्रतीकों का सुंदर प्रयोग है । आनंद ।

(2)

घना जो अन्धकार हो तो हो रहे तो हो रहे
अठन्नियां तो देखने को भी नहीं मिली कहीं
चवन्नियां सुबीर की कथाओं में खिली नहीं
हजार का जो नोट था वो एक पल में तुड गया
हमारा होश सब्जियों के भाव देख उड़ गया
प्रतिनिधी अकाउंटों  का देश आज स्विस हुआ
हों वान्टिड  या जेल में ये स्वप्न एक विश हुआ
दो रोटियों के जोड़ में हमें मुगालते रहे
चिकन की टाँग तोड़ के थे वो डकारते रहे
हमें जो बस अचार हो तो हो रहे तो हो रहे
घना जो अन्धकार हो तो हो रहे तो हो रहे

ये खेल राजा रानियों का रात दिन चला किया
हमें था सब्जबाग एक दूर से छला किया
पलट के पांव आ गये हैं फ़िर सड़क के मोड़ पर
गये थे पांच साल हमको जिस जगह पे छोड़ कर
ये डोरियां कभी कोई है  खींचता कभी कोई
मगर जो शै नसीब की है आज तक रही सोई
अंधेरा रात भर का है बताया जा रहा हमें
नहीं किसी के रोकने से रुक सका है ये समय
जो आज लख उधार हो, तो हो रहे तो हो रहे
घना जो अन्धकार हो तो हो रहे तो हो रहे

भला हो ये सुबीर जी का क्या तरही बनाई है
औ तुर्रा उसपे बोलते हैं लो दिवाली आई है
लगाओ फोटो खील के, बताशे स्वप्न में चखो
गणेश लक्ष्मी चीन के हैं सामने सजा रखो
दिलासे तुमने पाये हैं दिलासे सबको बाँटिये
उगा के बातचीत की फ़सल को रोज काटिये
लगाओ आस एक दिन उतर के कृष्ण आयेगा
या रामराज्य कल सुबह के संग चला आयेगा
तुम्हें जो एतबार हो, तो हो रहे तो हो रहे
घना जो अन्धकार हो तो हो रहे तो हो रहे

लगाओ आस एक दिन उतर के कृष्‍ण आयेगा या रामराज्‍य कल सुबह के संग चला आयेगा । बहुत सुंदर व्‍यंग्‍य किया है इस पूरे गीत में । विविध रंगों और भावों को साधना किसी गुणी साहित्‍यकार के ही बस की बात है । आनंद परमानंद ।

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अरुन शर्मा "अनंत"

ये हमारे मुशायरे में पहली बार आ रहे हैं । इनके बारे में बहुत जानकारी मुझे नहीं है बस इतना कि गुडगाँव में रहते हैं और एक इन्वेस्टमेंट कंपनी में मार्केटिंग प्रबंधक के रूप में कार्यरत हैं। इन्‍होंने एक ग़ज़ल भेजी मुशायरे के लिये और इस ब्‍लाग पर युवाओं को प्रोत्‍साहन देने की जो परंपरा है उसके चलते ग़ज़ल को शामिल किया जा रहा  है । 

नज़र में रात पार हो तो हो रहे, तो हो रहे,
नसीबा चूर यार हो तो हो रहे, तो हो रहे,

बजी है धुन गिटार की, लगा है मन को रोग फिर,
जो टूटा प्रेम तार हो तो हो रहे, तो हो रहे,

सबेरे-शाम-रात-दिन है, याद तेरी साथ बस
यही अगर जो प्यार हो तो हो रहे, तो हो रहे,

नहीं हुआ है दर्द कम, दवा भी ली दुआ भी की,
ये ज़ख्म बार-बार हो तो हो रहे, तो हो रहे,

जला है दिल "अनंत" का, कुछ इस तरह से दोस्तों,
जलन ये जोरदार हो तो हो रहे, तो हो रहे,

युवाओं की ग़ज़लों में नये शब्‍द आ रहे हैं जो अच्‍छे लगते हैं । जैसे इसमें गिटार आया है । युवा अपने साथ अपनी शब्‍दावली लेकर आते हैं । अरुन पहली बार आये हैं । पहला प्रयास अच्‍छा है । आगे और निखरेंगे ऐसी कामना है ।

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तो मित्रों आज दीपावली का मुशायरा विधिवत समाप्‍त हो रहा है । आनंद लीजिये आज की रचनाओं का और दाद दीजिये । अगले मुशायरे की घोषणा जल्‍द ही की जायेगी । 2 दिसंबर के कार्यक्रम की विस्‍तार से जानकारी भी अगली पोस्‍ट में ।

14 टिप्‍पणियां:

  1. राकेश जी के गीतों के बारे में जो लिखा जाय कम है। मैंने जब इनका पहला गीत पढ़ा था तभी से इन्हें गीत सम्राट कहता आ रहा हूँ।

    अनंत जी का प्रथम प्रयास उम्मीद जगाता है। उन्हें भविष्य के लिए ढेरों शुभकामनाएँ।

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  2. समापन में भभ्‍भड़ कवि की अपेक्षा थी, मगर उन्‍होने शायद स्‍वयं को तरही से दूर रखना उचित समझा।
    आदरणीय भाई राकेश जी का गीत विधा पर नियंत्रण तो लाजवाब है। पहला गीत 'तो हो रहे, तो हो रहे' को पूरी तीव्रता से ध्‍वनित कर रहा है और दूसरा गीत एक अलग ही शैली का परिचायक है जो आस पास से बहुत कुछ समेटता हुआ अंत में करारी चोट करता है।

    अनंत जी से पहला परिचय है जो इनकी रचनाओं के इंद्रधनुष के साथ धीरे-धीरे प्रगाढ़ होने की पूरी संभावना दिख रही है। ग़ज़ल युवापीढ़ी का बयान है।

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  3. आदरणीय श्री सुबीर सर के चरणों में मेरा विनम्र प्रणाम, उन्होंने मेरी रचना को शामिल किया मुझे के नयी किस्म की ख़ुशी मिली है. जिसे मैं शब्दों में चाह कर भी बयां नहीं कर सकता हूँ, सभी पाठकों को बताना चाहूँगा कि मेरी इस ग़ज़ल में काफी त्रुटियाँ थीं जिन्हें श्री सुबीर सर नें ठीक करके यहाँ पेश किया है, मैं अभी नया हूँ इस क्षेत्र में और अभी सीख रहा हूँ, अब और मेहनत करूँगा ताकि यहाँ शामिल होने का सौभाग्य बार-2 पा सकूँ. आदरणीय राकेश खंडेलवाल सर ने जो कमाल दिखाया है अपने गीत में वो तो लाजवाब है, सर आपको हार्दिक बधाई और अनेक-2 धन्यवाद यह रचना श्री सुबीर सर के द्वारा हम तक पहुँचाने हेतु.

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  4. अभी अभी बिहार से लौटा हूँ, कार्यक्रम में अपनी उपस्थिति को सुनिश्चित करने के लिए अभी एक दो दिन और लेना पड़ेगा मुझे।
    ये मुशायरा गीत के लिए विशेष जाना जायेगा, ख़ास तौर से आदरणीय श्री खंडेलवाल जी की बेमिसाल प्रस्तुति के लिए।
    नए शायर अनंत जी ने अच्छे रंग जमाये हैं, ऐसा लग रहा है मोहब्बत का गम सीधे सादे तरीके से ग़ज़ल में उतर आया है।

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  5. तिलक जी ने सही कहा है .... बिना भभ्भड कवि के बिना इस तरही का समापन नहीं होना चाहिए।।।।

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  6. तिलक जी ने सही कहा है .... बिना भभ्भड कवि के इस तरही का समापन नहीं होना चाहिए।।।।

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  7. यानि स्मृतियों के पन्नों में एक और अध्याय जोड़ता हुआ दीपावली के उपलक्ष्य में आयोजित मुशायरा आज विधिवत समाप्त हुआ.

    आदरणीय राकेश खण्डेलवालजी के गीतों के कथ्य अद्भुत संप्रेषणीय़ता के साथ हृदय-तल में शब्द-प्रति-शब्द बैठते चले जाते हैं. आज के दोनों गीत भी इस तथ्य से अलग नहीं हैं. बिम्बों का सुन्दर व्यावहारिक प्रयोग और पंक्तियों में उच्च सनातनी इंगित ! वाह-वाह ! आपकी प्रस्तुतियों में भारती के प्राण विशिष्ट आयामों के साथ मुखरित हुए दिखे. आदरणीय, मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ.

    आज जिस युवा ग़ज़लकार को मंच पर स्थान मिला है उसकी प्रस्तुति के साथ-साथ उसकी साफ़गोई भी मुग्ध कर गयी. अनुज अरुण शर्मा ’अनंत’ को हार्दिक शुभकामनाएँ.

    एक बात और, सबकुछ यथानुरूप और नियत रहा तो आदरणीय नीरज भाईजी के ’सम्मान समारोह’ के तुमुल नाद में इस नाचीज़ की तूती-तालियाँ भी अपने सुर मिलाती दिखेंगी.

    सादर

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  8. एक और सफल मुशायरे का समापन.... वाह !

    राकेश जी के लेखनी की विविधता तो हर हमेशा हैरान करती है|

    अरुण शर्मा का स्वागत है इस पन्ने पर....संभावना जगाता है ये पहला प्रयास !

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  9. दोनो गजलें सुंदर ।
    घना है अंधकार जो तो होर हे तो हो रहे ।
    वाह ।

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  10. अरे ओ भभ्भड़ वा कहाँ है रे तू,,,तेरे चाहने वाले दर दर भटक रहे हैं,,,बहुत ना इंसाफी है ठाकुर,,,हम तो कब से राह तक रहे थे,,,आखरी मौके पर गच्चा दिया रे,,,
    अब राकेश जी के गीतों की क्या मिसाल दूं,,,एक से बढ़ कर एक,,,अद्भुत,,,कौनसा रस है जिस पर उनकी कलम नहीं चलती और अपना कमाल नहीं दिखाती,,,इस तरही का जवाब नहीं।
    अरुण जी का प्रयास बहुत अच्छा है,,,लम्बी रेस के घोड़े हैं,,,देखते आने वाए समय में क्या धमाल मचाते हैं।

    नीरज

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  11. आदरणीय तिलकजी,सौरभजी,नीरजजी, गौतम,धर्मेन्द्र, अरुण, सुलभ, आशाजी, प्रवीण तथा अन्य सभी मित्रों के स्नेह का आभारी हूँ. पंकजजी द्वारा प्रदत्त यह पंक्ति कुछ ऐसी ही थी कि पहले दिन ही कलम मचल पड़ी और पंकजजी को तुरन्त ही लिख कर यह रचनायें भेज दी थीं. कई बार चाह कर भी सीमित समय के कारण सभी रचनाओं पर प्रतिक्रिया दे पाना सम्भव नहीं होता परन्तु कोई भी रच्घना बिना ध्यान पूर्वक पढ़े नहीं रहती. अरुण की यह गज़ल बता रही है

    हाँ क्षितिज के पार कुछ संभावनायें और भी हैं.

    सादर

    राकेश

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  12. दो रोटियों के जोड में हमें मुगालते रहे

    चिकन की टाँग तोड के वो डकारते रहे

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    बजी है धुन गिटार की, लगा हो मन को रोग फिर

    जो टूटा प्रेम तार हो तो हो रहे, तो हो रहे

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