शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

बासी दीपावली का अर्थ होता है कि बचे खुचे पटाखों को चलाना और बची खुची मिठाई को खाना ।

दीपावली का त्‍यौहार सकुशल और सानंद संपन्‍न हो गया । अंकित और गौतम के आने से और आनंद आ गया । दीपावली के एक दिन पहले तो दोनों का संदेश आ गया था कि आना संभव नहीं है । मुझ से अधिक निराशा परी और पंखुरी को हुई थी । किन्‍तु फिर दोनों का आने का तय हो गया । खूब आनंद किये गये । लोगों ने गिर गिर कर ( अंकित) पटाखे चलाये । तो मतलब ये कि दीपावली खूब आनंद से मनी ।

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अब कुछ दिनों तक कार्यक्रमों की व्‍यस्‍तता रहेगी । आज शहर में उत्‍तराखंड के राज्‍यपाल महामहिम श्री अज़ीज़ क़ुरैशी का नागरिक अभिनंदन है उसमें जाना है । कल शहर में एक कवि सम्‍मेलन का भी आयोजन किया जा रहा है । जिसमें श्री प्रदीप चौबे, श्री विष्‍णु सक्‍सेना, श्री शशिकांत यादव, सुश्री अना देहलवी और शायद पंकज सुबीर काव्‍य पाठ करेंगे । आप सब इस कार्यक्रम में सादर आमंत्रित हैं ।

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एक और महत्‍वपूर्ण सूचना ये है कि दिनांक 2 दिसम्‍बर को शिवना प्रकाशन एक सम्‍मान समारोह तथा मुशायरे का आयोजन सीहोर में करने जा रहा है । कार्यक्रम में सुकवि रमेश हठीला सम्‍मान तथा सुकवि मोहन राय स्‍मृति युवा पुरस्‍कार प्रदान किया जायेगा । कार्यक्रम को लेकर कुछ ही दिनों में अधिकारिक घोषणा कर दी जायेगी । यदि आप उन तारीखों में भोपाल हों तो सीहोर आने का कार्यक्रम बना रखिये ।

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घना जो अंधकार हो तो हो रहे, तो हो रहे

आज बासी दीपावली को मनाया जा रहा है राकेश खंडेलवाल जी, तिलक राज कपूर जी और कंचन सिंह चौहान के साथ । बासी दीपावली का ये क्रम आगे भी जारी रहेगा । हमारे यहां देव प्रबोधनी एकादशी तक दीपावली मनाई जाती है । ठीक उसी प्रकार जैसे रंगपंचमी तक होली तथा जन्‍माष्‍टमी तक रक्षा बंधन मनाया जाता है । कुछ और रचनाएं भी हैं जो आने वाले समय में हम पढ़ेंगे, सुनेंगे । आज सुनते हैं इन तीनों को । आज दाद देने का कार्य आप ही लोगों को करना है  ।

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कंचन सिंह चौहान

जुबान का बयान कुछ, दिलों की दास्तान कुछ
अजीब से महौल में, ये दिन और रात हो रहे,
सभी के मन को तौलता, कुटिल सा मौन बोलता,
बिना नियम बिसात पर श और मात हो रहे,

शुआ से नाउम्मीद मन, सहर की आस क्या करे ?
घना जो अंधकार है, तो हो रहे, तो हो रहे।

सुखन की राह दिल नही दिमाग पर है चल रही,
ना जाने क्यों, मुझे ये बात बार बार खल रही।
मुकाम पर खड़े सभी डरा रहे हैं इस क़दर,
मुक़ाम पाने की ललक हदस में है बदल रही।

जो माहताब शत्रु है, तो किसका आसरा करें ?
घना जो अंधकार है, तो हो रहे, तो हो रहे।

उसूल ना किसी में ना किसी में रूह रह गई,
ख़लूस की दीवार रेत रेत जैसी ढह गई।
ना जाने कैसी आँधियो से इसका सामना हुआ,
कि रंग सारे बह गये औ तूलिका ही रह गईं।

ये शर्मसार आँख कैसे दिन का सामना करे ?
घना ये  अंधकार, यूँ ही हो रहे, हाँ हो रहे।

शुआ से नाउम्‍मीद मन सहर की आस क्‍या करे, में मिसरे के साथ बहुत खूबसूरती के साथ गिरह लगाई गई है । एक और बड़ी बात कही है सुखन की राह दिल नहीं दिमाग पर है चल रही । सभी के मन को तौलता, कुटिल सा मौन बोलता, बहुत प्रभावशाली गीत लिखा है । कई सारी चीजों को समेटा है । जुबान का बयान कुछ दिलों की दास्‍तान कुछ । बहुत सुंदर बहुत सुंदर ।

Tilak Raj Kapoor

आदरणीय तिलक राज कपूर जी  

नदी में तेज धार हो तो हो रहे तो हो रहे
यही नसीबे प्यारर हो तो हो रहे तो हो रहे

किसी की जिंदगी में हो बहार इसके वासते 
खज़ॉं को मुझसे प्याहर हो तो हो रहे तो हो रहे।

अगर सफ़र की राह में मनाज़िल-ए-सुकूँ मिलें  
तमाम राह खार हो तो हो रहे तो हो रहे।
(मनाज़िल: मंज़िल का बहुवचन)

मुझे निंबौरियों से प्याहर है तेरे नसीब में
बहारे हरसिंगार हो तो हो रहे तो हो रहे।

तेरी नियामतों को बॉंटने की राह में खुदा
खुला हरेक द्वार हो तो हो रहे तो हो रहे।

निज़ाम को बदल न पायेगा कभी बयान भर
मगर ये धारदार हो तो हो रहे तो हो रहे।

चलो हथेलियों में धूप सूर्य की समेट लें
ख़फ़ा जो अंधकार हो तो हो रहे तो हो रहे।

चलो हथेलियों में धूप सूर्य की समेट लें, बहुत ही सुंदर मिसरा गढ़ा है । एक और मिसरा बहुत सुंदर बना है हरसिंगार हो तो हो रहे । तेरी नियामतों को बांटने की राह में अलग तरीके से कहा गया शेर है । जितनी सुंदर मूल मुशायरे की ग़ज़ल थी उतनी ही सुंदर बासी मुशायरे की ग़ज़ल है । बहुत सुंदर ।

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आदरणीय राकेश खंडेलवाल जी

ना आपकी नजर से ही नजर मिलाई है कभी
ना आपकी कोई गज़ल ही गुनगुनाई है कभी
ना आप और हम कहीं किसी भी मोड़ पर मिले
जुड़े नहीं कभी कहीं भी परिचयों के सिलसिले
तो किसलिये हैं आप आये आज मेरे द्वार पर
हजार वायदे रखे हो सामने संवार कर
जो अब चुनाव में तुम्हारी हार हो तो हो रहे
किसी को तुम से प्यार हो तो हो रहे तो हो रहे

गये जो वर्ष पैंसठों की हैं कहानियाँ यही
जमा किया हथेलियों पे आज तक है बस दही
जनाब आपको पता क्या सब्जियों का भाव है
औ'  दूध, गैस, तेल, दाल का यहाँ अभाव है
सुबह से शाम तक रही हैं बिजलियां भी लापता
गईं शहर वो रात में हमें बता के बस धता
पड़ा  है नल बिमार जो तो हो रहे तो हो रहे
तुम्हारा क्या विचार है ? जो हो रहे सो हो रहे ?

ये देश जो कथाओं में था स्वर्ण से जड़ा हुआ
यहां बिरज में बन नदी था दूध नित बहा हुआ
यहाँ पे न्यायपूर्ण शिवियों विक्रमों का राज्य था
यहां पे देवताओं को भी जन्म लेना भाग्य था
उजाड़ दीं विरासतें तुम्हारे एक स्वार्थ ने
धनुष कहो उठाया था इसीलिये क्या पार्थ ने
तो फिर से चमत्कार हो तो हो रहे तो हो रहे
तुम्हारा घर तिहाड़ हो....तो हो रहे तो हो रहे.

बहुत सुंदर, भारत की वर्तमान स्थिति को पूरे गीत में समेट लिया है । ये एक मुकम्‍मल ओज का गीत है जिसे मंच से खूब खूब गाया जा सकता है । ये देश जो कथाओं में था स्‍वर्ण से जड़ा हुआ । बहुत सुंदर बंद बांधा गया है । गये जो वर्ष पैंसठों की बस कहानियां यहीं में आज के आम आदमी का दर्द भर दिया गया है । बहुत सुंदर बहुत सुंदर ।

तो आंनद लीजिये इन ग़जल़ों गीतों का और दाद देते रहिये । अगले बासी दीपावली अंक में मिलते हैं कुछ और रचनाओं के साथ ।

23 टिप्‍पणियां:

  1. मुशायरा ऐसे ही चलता रहा तो दीपावली कभी बासी ही नहीं होगी। बहुत बहुत बधाई तीनों रचनाकारों को इन शानदार रचनाओं के लिए।

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  2. भले ही ये बासी दीपावली के गीत और ग़ज़ल हैं... लेकिन इसमें जो तेज और ज्वाला है वो समस्त देश और जनता को झुका सकती है.

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  3. कंचन जी आपके गीत से एक वेदना ध्वनित हो रही है जो पढ़ने वाले की संवेदना में परिवर्तित हुए बिना रह नहीं सकती। गीत कवि प्रदीप, ‘नीरज’ और हिमाद्रि तुंग की श्रेणी में ध्वनित हो रहा है। बधाई।
    राकेश जी के गीत की प्रारंभिक छ: पंक्तियों तक अनुमान लगाना कठिन है कि अगली ही पंक्ति में यू-टर्न है। ग़ज़ब, और फिर जो इस यू-टर्न से गीत ने दिशा पकड़ी तो उधेड़कर रख दिया आज क कलुषित राजनीतिक चरित्र को और तिहाड़ पहुँचा कर ही दम लिया। क्रांतिकारी गीत है यह और 12 12, 12 12 पर मार्च करता हुआ सफ़ल है जनमानस तक पहुँचने में। बधाई आदरणीय।

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  4. बासी यानि बची हुई. यानि ’ताज़ा नही’.
    इस ’बासी’ में ’उच्छिष्ट’ का भाव न हो कर ’रह जाने का’ भाव है. हमारे यहाँ आटे के मेवादार मीठे घोल का पुआ बनता है. मालपुआ नहीं, बस पुआ. यह पुआ ताज़ा उतना अच्छा नहीं लगता जितना दूसरे दिन बसिया मज़ा देता है. हम पुए अक्सर कह कर रखवा लेते हैं, दूसरे दिन खाने के लिये.
    आज दोनों रचनाओं और ग़ज़ल को पढ़ कर यही भान हो रहा है कि पंकजभाईजी ने इन्हें विशेष रूप से रखवा लिया था. मुशायरे की इनेर्शिया को इज़्ज़त देते हुइ मज़े-मज़े में पढ़ने के लिये !

    कंचनजी की रचना में अंतर्धारा की तरह व्यापी हुई अन्यमन्स्कता विचलित नहीं करती, पाठकों से सायास हामी लेती है, ’जो है सो यही है’ पर !
    मुकाम पर खड़े सभी डरा रहे हैं इस कदर
    मुकाम पाने की ललक हदस में है बदल रही.. .
    .. क्या भाव-दशा है ! अद्भुत !
    इस गीत में मुखर भंगिमाओं को चुप्पी तो वृत्तियों में आयामीय गति देने की अद्भुत शक्ति है. बहुत-बहुत धन्यवाद इस गीत के लिये.

    आदरणीय तिलकराजजी की वैचारिकता सदा से अचंभित करते हुए शेरों का कारण हुआ करती है.
    निबौरियों और हरसिंगार के प्रतीक कण्ट्रास्ट का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं.
    लेकिन मैं देर तक झूमता रहा इस शेर पर -
    चलो हथेलियों में धूप सूर्य की समेट लें
    ख़फ़ा जो अंधकार हो, तो हो रहे, तो हो रहे..
    वाह आदरणीय वाह !

    आदरणीय राकेश खण्डेलवाल जी के इस गीत में व्यवस्था से हुई टूटन को जिस तरह से उभार मिला है वह सामान्य हृदयों की भाव-दशा को बखूबी स्वर देता हुआ है. बहुत ही सुन्दर.. .
    भाव अभिव्यक्ति की आपकी शैली से हम जैसे एक सामान्य पाठक का मन मुग्ध हो जाता है और संग-संग गा उठता है.
    इस गीत के लिये सादर आभार, आदरणीय.

    --सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)

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  5. तिलक जी की खूबसूरत ग़ज़ल हो या आ. राकेश जी का अद्भुत गीत या फिर कंचन दी का एक और बेमिसाल गीत.......... सभी के सब कमाल हैं.

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  6. सौरभ जी बहुत-बहुत धन्‍यवाद।
    शेर को उसका कद्रदां मिल गया, शेर का जन्‍मना सफ़ल हुआ।
    हम अक्‍सर जो नहीं है उसके पीछे भागते हुए, उसका आनंद खो देते हैं जो हमें मिला है।

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  7. बासी खाने को लेकर तरह तरह की धारणायें हैं। मुझे जबसे याद है, पहले मॉं से और अब पत्‍नी से मेरा स्‍थाई अनुरोध रहता है कि दाल इतनी बनाना कि सुबह नाश्‍ते में मिल जाये, विशेषकर रात की रखी चने की दाल का तो हमारे यहॉं हर कोई दीवाना है।
    इस बासी तरही की ताज़ी प्रस्‍तुति के लिये पंकज भाई विशेष धन्‍यवाद के पात्र हैं। आने वाली किश्‍तों की भी आतुरता से प्रतीक्षा रहेगी।

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    1. मेरी पसंदीदा बासी सामग्रियां, मैंथी के परांठै, आलू के भजिये, घी लगी बाटियां, साबूदाने की खिचड़ी, खीर, रसखीर ।

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    2. उस हिसाब से तो ये फेहरिश्त लम्बी हो जायेगी, पंकजभाईजी. सत्तू के पराठे (मकुनी) अगर किन्हीं ने बसिया खाये हों तो हाँ कहे. :-))

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    3. जी सौरभ जी मेरे विचार में इस सूची में सब अपना अपना योगदान देकर सूची को अपडेट करने में मदद कर सकते हैं ।

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    4. ये आईडिया अच्छा है! कम से कम साहित्यकार तो ईमानदारी से कुबूल कर सकते हैं!

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    5. मैं बसिऔरा की अपनी सूची मेल के ज़रिये आपके पास पोस्ट कर रहा हूँ. कभी समवेत सूची रिलीज हो तो काम आये. .. :-)))

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    6. अब तक जिन महानुभावों ने अपनी बासी खाने की अघोषित संपत्ति घोषित नहीं की है, उनसे अनुरोध है कि कृपया शेर दंड से बचने के लिए तत्काल कार्यवाही करें!

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  8. मटर का निमोना और चावल के आँटे के फरे....

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  9. निबोलियां भी छू कलम जो हरसिंगार कर रहे
    गज़ल के शेर जिनपे अपनी जां निसार कर रहे
    खड़े हैं जिनके द्वार आ रदीफ़ काफ़िये सभी
    कहेंगे सीधी साधी क्या गज़ल बतायें वे कभी
    जो शब्द कंचनी हुआ वो गीत आप बन गया
    छुआ जो भाव बस वही गुरूर करता तन गया
    परांठे मेथी आलू के, मटर की हों कचौड़ियां
    औ संग आम का अचार हो रहे तो हो रहे

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    1. हुजूर, क्‍या बात है आपकी कलम तो सरपट टिप्‍पणी गीत रच दिया। स्‍वागत है।

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    2. आपकी बात ही निराली है माननीय

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  10. बहुत ही सुन्दर रचनायें..दीवाली की शुभकामनायें..

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  11. बेपनाह सौंदर्य है इस पर्व का और साथ में महफिल "ग़ज़ल"॥ तिलक राज जी, राकेश जी ने सच में मेथी के पराठे और संग में आचार का जाइका कुछ इस तरह भरा है कि अब लग रहा है कुछ दावत हो जाए.... पर शर्त है साथ में सुबीर भी हों और नीरज और हम सभी...
    आपके आहार शेर का जाइका लिया, बहुत ही अद्भुत रचनात्मक ऊर्जा!! कंचन जीमुकाम पर खड़े.....शेर के लिए आपको दाद कबूल हो

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  12. जाने ये हिस्सा कैसे छूटा रह गया था देखने से....दीवाली पर किसी किसी के गिर गिर कर पटाखे चलाने वाला दृश्य याद करके फिर से ठहाके निकल रहे हैं|

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