मंगलवार, 14 जून 2011

उड़ चला माज़ी की जानिब जब तख़य्युल का परिंदा जाने क्या क्या बन के आई , गर्मियों की वो दुपहरी, आइये आज सुनते हैं आदरणीया इस्‍मत ज़ैदी जी से एक बहुत ही सुंदर ग़ज़ल.

और समापन तक आते आते ये करना ही पड़ा कि अब प्रत्‍येक दिन एक नई ग़ज़ल लगाई जाये. क्‍योंकि अब यदि ऐसा नहीं किया तो आगे की ओर बढ़ना होगा. मानसून आ ही चुका है और गर्मियों की दुपहरी अब एक सप्‍ताह की और बची है ऐसे में यदि समापन अभी नहीं किया तो बरसात में गर्मियों की दुपहरी की ग़ज़ल आनंद नहीं देगी. और उस पर ये भी कि अगला सप्‍ताह कुछ व्‍यस्‍तताओं का सप्‍ताह है.  काफी सारे काम हैं उस सप्‍ताह के लिये सो अब जो भी है इस सप्‍ताह तो समापन तो करना ही होगा, ताकि उसके बाद अगले सप्‍ताह भभ्‍भड़ कवि भौंचक्‍के  अपनी  सात गुणा सात ग़ज़ल  के  साथ  समापन  कर सकें. सात गुणा सात क्‍या है ये एक रहस्‍य है. ये रहस्‍य भी जल्‍द ही खोला जायेगा. लेकिन आज तो चलिये सुनते हैं आज की तरही ग़ज़ल.

ग्रीष्‍म तरही मुशायरा

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और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी

आज हम सुनने जा रहे हैं आदरणीया इस्‍मत दीदी से उनकी एक बहुत ही ख़ूबसूरत सी ग़ज़ल. ग़ज़ल में दोनों प्रकार के बिम्‍ब हैं, ये एक सिरे पर जहां रवायती शायरी से जुड़ी है वहीं ये ग़ज़ल दूसरा सिरा प्रगतिशील लेखन का थामे है. इस प्रकार की ग़ज़ल कहना एक मुश्किल काम है जिसे इस्‍मत दीदी जैसा कोई माहिर-ए-फ़न ही कर सकता है. आइये सुनते हैं ये ग़ज़ल.

ismat zaidi didi 2 आदरणीया इस्‍मत जैदी जी

परिचय तो कुछ ख़ास है ही नहीं ,, नाम आप सभी जानते ही हैं ,जौनपुर (उ.प्र.) के एक गांव कजगांव की रहने वाली हूं   पिता : स्व. श्री अबुल हसन ज़ैदी   ,,,, माता  : स्व. श्रीमती ज़हरा ज़ैदी

कक्षा 1 से 4 तक की पढ़ाई रायपुर (छत्तीसगढ़) में हुई ,उस के आगे की शिक्षा इलाहाबाद में हुई ,, इलाहाबाद विश्विविद्यालय से शिक्षा शास्त्र में एम. ए. किया ,,विवाह  के उपरांत सतना (म.प्र.) आ गई और अब 9 वर्षों से गोवा में हूं

हिंदी और उर्दू दोनों ही भाषा में समान रुचि है ,,और दोनों ही भाषा में मेरी शायरी की उम्र सिर्फ़ 3 वर्ष की है ,, शायरी का शौक़ तो बहुत पुराना है  लेकिन लिखना 3 साल पहले ही शुरू किया

उर्दू में एक किताब भी छपी "साहिल लब ए सहरा " के नाम से

अपनी सब से अच्छी  दोस्त वंदना अवस्थी दुबे के कहने पर सन  2009 में ब्लॉग  शुरू किया

आज जैसा भी लिख पा रही हूँ उस का श्रेय मेरे उस्तादों ,परिवार से प्राप्त पूर्ण सहयोग ,दोस्तों के मुफ़ीद मशवरों  और आप सभी के द्वारा दिए गए स्नेह को जाता है ,,जिस के लिए मैं आप सभी के प्रति आभार व्यक्त करती हूँ

ब्‍लाग: http://ismatzaidi.blogspot.com

ismat zaidi didi

पति  श्री ज़हूरुल हसन ज़ैदी,  बिटिया  आश्ती ज़ैदी और बेटे मुशीर ज़ैदी के साथ

 तरही ग़ज़ल

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कितनी चिंताओं में डूबी गर्मियों कि वो दुपहरी

बन के पीड़ा मन पे छाई , गर्मियों की वो दुपहरी

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बौर था ,अमराइयाँ थीं ,पुरसुकूं अंगनाइयां थीं

काश वैसी ही ठहरती , गर्मियों की वो दुपहरी

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रिश्तों नातों कि वो चाहत ,कुछ नसीहत और दुआएं

इस दफ़ा बस याद लाई , गर्मियों की वो दुपहरी

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क्या समझ पाया कोई भी दर्द  मजदूरों के मन का

सर पे सूरज ,गर्म धरती , गर्मियों की वो दुपहरी

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थी मेरी साथी दुपहरी की जो चिड़िया उड़ गई वो

"और सन्नाटे में डूबी , गर्मियों की वो दुपहरी  "

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उड़ चला माज़ी की जानिब जब तख़य्युल का परिंदा

जाने क्या क्या बन के आई , गर्मियों की वो दुपहरी

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सुन के उन क़दमों की आहट , साज़ से बजने लगे थे

देर तक फिर गुनगुनाई  , गर्मियों की वो दुपहरी

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हैं 'शेफ़ा' यूँ ऐश ओ इशरत के सभी सामाँ यहाँ पर

याद आए अपनी माटी, गर्मियों की वो दुपहरी

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किस शेर की तारीफ की जाये, उड़ चला माज़ी की जानिब जब तख़य्युल का परिंदा, जाने क्‍या क्‍या बन के आई गर्मियों की वो दुपहरी, ये अद्भुत से भी ऊपर का शेर है. इसमें भी जाने क्‍या क्‍या  की तो बात ही निराली है. कुछ है जिसको डिफाइन नहीं किया जा सकता शब्‍दों से, जैसे पाकीज़ा का गीत है न, फिरते हैं हम अकेले बांहों में कोई लेले, अब ये  कोई  कौन है वो कुछ पता नहीं. ठीक वैसा ही है ये जाने क्‍या क्‍या.  गिरह का शेर भी जबरदस्‍त तरीके से बांधा गया है उस दुपहरी की चिडि़या का जवाब नहीं है. और निर्मल प्रेम का शेर सुन के उन क़दमों की आहट साज साज़ से बजने लगे थे.  या फिर प्रगतिशील धारा से जुड़ा शेर क्‍या समझ पाया कोई भी दर्द इक मजदूरनी का.

तो आनंद लीजिये इस ग़ज़ल का और मिलते हैं अगले शायर के साथ.

23 टिप्‍पणियां:

  1. पता नही इस्मत जी से कैसा करीबी रिश्ता है कि अगर कुछ दिन वो न दिखें तो याद सताने लगती है। मेरी बहुत ही प्यारी दुलारी छोटी बहिन क्या कमाल लिखती हैं कि मेरा दिल करता है अपना ब्लाग ही यहाँ से उठा लूँ। किसी एक शेर का ज़िक्र क्या करूँ इस्मत की तरह सभी शेर खूबसूरत हैं, दिल को छूते हैं। इन्हें बहुत बहुत बधाई।

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  2. 'मजदूरनी का दर्द' समझ पाना और 'दुपहरी की साथी चिड़िया' के उड़ जाने से सूना महसूस करना, सबके बस की बात नहीं. मकते में 'अपनी माटी' के प्रयोग से फिल्म-स्वदेस का वो गाना याद आ गया- 'ये जो देस है तेरा.. स्वदेस है तेरा.. तुझे है पुकारा..' (अगर आप लोगों ने अभी तक इसे नहीं सुना तो एक बार अवश्य सुनियेगा, संगीत और गायक- ए.आर.रहमान साहब, गीतकार- जावेद अख्तर साहब). सही मायनों में इन तरही ग़ज़लों ने इस चिलचिलाती गर्मी भी में खूब ठंडक पहुंचाई. सारे अश'आर बेहतरीन हैं.

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  3. इस्मत की ग़ज़ल की जितनी तारीफ की जाए कम है. पारिवारिक तस्वीर की यहाँ कोई आवश्यकता नहीं थी.

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  4. इस्मत जी की पारिवारिक तस्वीर बहुत सुंदर है. पहले भी शायद फेसबुक पर देखी है. गज़ल भी तस्वीर जैसी ही खूबसूरत है. मैं तो एक ही शेर पर अटक गया हूँ.
    "बौर था अमराइयाँ थीं, पुरसुकूं अंगनाइयाँ थीं, काश वैसी ही ठहरती गर्मियों की वो दुपहरी"

    और फिर: "उड़ चला माज़ी की जानिब जब तखय्युल का परिंदा.." इस शेर तो जितनी तारीफ़ करें कम होगी. बेहद खूबसूरत!

    "क्या समझ पाया कोई भी दर्द मजदूरों के मन का.." बहुत खूबसूरत. "सुन के उन क़दमों की आहात, साज से बजने लगे थे." आहा!
    इतनी खूबसूरत गज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई, धन्यवाद और दाद कबूल करें.

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  5. एस.एम.मासूम जी, अगर आप पहले के पोस्ट देखें तो पाएंगे कि इस तरही में शायरों का परिचय भी दिया जा रहा है और लगभग सभी शायरों की तस्वीरें परिवार सहित लगी हैं. मेरे ख्याल से परिचय के साथ पारिवारिक तस्वीरें मुशायरे के खूबसूरती चार चाँद लगा रही हैं..

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  6. इस्मत जी को सुनना मतलब संवेदनशील ह्रदय वाली उस्ताद शाईरा को सुनना हुआ.
    हर बार उनके अशआर एक अलग दुनिया रचते हैं. गर्मियों की वो दुपहरी से बहुत कुछ निकल कर सामने आया.

    देर तक फिर गुणगुनाई... विशेष पसंद आये.

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  7. इस्मत यूँ तो मेरी छोटी बहन हैं लेकिन शायरी में...बापरे...बहुत बड़ी...हम जहाँ शायरी की परिधि पर ही घूमते हुए शेर कहते हैं वहीँ वो आसानी से केंद्र में पहुँच कर शेर कहती हैं.महज़ तीन साल के छोटे से वख्फे में ऐसी शायरी करना किसी चमत्कार से कम नहीं . अगर ये कहूँ के तरही की मुझे ये सबसे ज्यादा पसंद आने वाली ग़ज़लों में से एक लगी तो गलत नहीं होगा. ऐसे अनूठे मिसरे सजाएं हैं इस ग़ज़ल में इस्मत ने के हैरत होती है. सुभान अल्लाह इस्मत तुम जैसी छोटी बहन पा कर किस भाई को अपने पर गर्व नहीं होगा?

    "बौर था अमराइयाँ थीं...", "रिश्ते नातों की वो चाहत...", "थी मेरी साथी दुपहरी..."( क्या कोई ऐसी गिरह लगाने की सोच भी सकता है? उफ्फ्फ...हद कर डाली है), "उड़ चला माजी की जानिब"... पढ़ कर सजदे में सर झुका रहा हूँ...,"उनके क़दमों की आहट...पढ़ने के बाद 'धीरे धीरे मचल ऐ दिले बेकरार, कोई आता है' गाना याद आ गया...सभी शेर हमेशा के लिए ज़ेहन में कैद हो गए हैं. किन लफ़्ज़ों में दाद दूं...बस हाथ उठा कर परवरदिगार से दुआ कर रहा हूँ के तुम हमेशा ऐसे ही लिखती रहो...खुश रहो.

    गुरुदेव आज इस्मत ने इस तरही मुशायरे को अपने कलाम से बुलंदी पर पहुंचा दिया है. बधाई हो.

    नीरज

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  8. एस.एम.मासूम जी शायद पहली दफा इस ग़ज़ल-गाँव में आयें हैं.
    आगे भी आते रहिये आपको और भी आनंद आएगा.

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  9. इस्मत जी के हर शेर में कुछ बात है। कितनी चिंताओ... वाला शेर हो या बौर था... वाला शे’र हो। हर शेर में एक खास बात है। इस शानदार ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई। मासूम साहब को शायद पता नहीं हो कि इस बार ग़ज़लों के साथ साथ सबका परिचय भी लगाया जा रहा है।

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  10. इस्मत जी की ग़ज़ल का आनंद बार बार पढ़ के बढ़ता जा रहा है ... सभी शेरों की संवेदनशीलता देखते ही बनती है ... किसी एक शेर को लेकर कुछ कहना दूसरे शेर की तौहीन लगेगी ...
    गुरुदेव ... समापन आगाज़ से ज़्यादा लाजवाब होता जा रहा है ... कविवर भोंचक्के की सात गुना सात वाली ग़ज़ल का इंतेज़ार है ...

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  11. क्या बात है!! यहां तो मेरा नाम भी चमक रहा है! शुक्रिया इस्मत.इतना मान दे देती हो न, कि मैं तो झुकती चली जाती हूं.
    इस्मत की ग़ज़लें पाकीज़गी का अहसास कराती है. सीधे दिल में उतरता चला जाता है हर एक शे’र. समय, समाज और इंसानी जज़्बातों की उन्हें गहरी समझ है, शायद इसीलिये उनके अश’आर सामयिक चिन्तन-प्रधान होते हैं. भाषा पर तो उनकी मजबूत पकड़ है ही.
    इस ग़ज़ल के वैसे तो सभी शे’र बहुत सुन्दर हैं, लेकिन इस शेर के क्या कहने-
    "उड़ चला माज़ी की जानिब जब तखय्युल का परिंदा,
    जाने क्या-क्या बन के आई, गर्मियों की वो दुपहरी"
    बहुत सुन्दर. पारिवारिक तस्वीर ने चार चांद लगा दिये हैं. इस नयी व्यवस्था के लिये पंकज जी बधाई के पात्र हैं, क्योंकि पारिवारिक सहयोग के बिना कुछ भी संभव नहीं.

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  12. हर शेर एक दूसरे से बढ़कर, एक यादगार ग़ज़ल, मुबारक हो.

    ----देवेंद्र गौतम

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  13. वाकई तरही समापन की ओर जा रही हो, ऐसा रत्ती भर भी नहीं लग रहा| बल्कि इस बार का संचालंन ज़्यादा प्रभावशाली है| इस का मतलब ये कतई नहीं कि पहले का संचालन अच्छा नहीं था - हाँ इस बार पंकज भाई ने अपने अंदर के संचालक को ज़्यादा एक्टिव किया है|

    आदरणीया इस्मत जी को पढ़ना एक सुखद अनुभव होता है - फिर वो उन की अपनी पोस्ट हो या अन्य मित्रों की पोस्ट पर उन के कमेंट्स| वो अपनी ग़ज़ल की तरह ही अपने कमेंट्स में भी बड़े चुपके से 'तत्व' वाली बात कह जाती हैं|

    मौजूदा ग़ज़ल में 'जाने क्या क्या बन के आई गर्मियों की वो दुपहरी' को पढ़ के लगा जैसे इस्मत जी ने इस तरही की सारी ग़ज़लों की समीक्षा बस एक मिसरे में ही कर दी है| मजदूरों का या यूँ कहें हाशिए पर के व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करते मिसरे इस तरही की दूसरी विशेषता रही|

    थी मेरी साथी - और - काश वैसी ही ठहरती............ हाँ काश ऐसा हो पाता - चलो भाग चलें बचपन की ओर

    सुन के उन क़दमों की आहट............. ओह, बात कहने का क्या खूब अंदाज़ है दीदी

    इस्मत जी आप के ब्लॉग को मैने अपने ब्लॉग की वॉल पर शेयर कर लिया है| अब जैसे ही आप पोस्ट किया करेंगी, मुझे पता चल जाया करेगा| इस खूबसूरत ग़ज़ल के लिए आप को बहुत बहुत बधाई|

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  14. इस्मत बहन, बहुत खूब --
    क्या समझ पाया कोई भी दर्द मज़दूरों के मन का
    वाह ! वाह ..बहुत -बहुत बधाई |

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  15. एक एक शेर नगीने की तरह बड़ी शिद्दत से तराशा हुआ। उड़ चला में तो पूरा माज़ी ही जिंदा हो गया और उसपर मेरे अपने मिज़ाज़ को भाता हुआ शेर 'क्‍या समझ पाया ...' तो बोनस बनकर मिला। इस बार की तरही, खुदा नज़्रे-बद से बचाये कमाल जा रही है। इतनी बेहतर ग़ज़लें पहले किसी तरही में एक साथ देखने को नहीं मिलीं।

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  16. बौर था , अमराइयां थीं, पुरसुकूं अंगनाइयां थीं,
    काश वैसी ही ठहरती गर्मियों की वो दुपहरी।

    उम्दा शे'र , बेहतरीन ग़ज़ल। आदरणीया इस्मत ज़ैदी जी को मुबारकबाद।

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  17. आप सभी का बहुत बहुत शुक्रिया
    मेरी एक अदना सी कोशिश को आप सब ने जिस तरह ,जिन शब्दों में सराहा और सम्मान दिया उस के लिये हृदय से आभारी हूं ,,
    फ़न ए शायरी में तो यहां सभी मुझ से बड़े हैं ,,लेकिन जो लोग मुझ से उम्र में भी बड़े हैं उन का स्नेह और जो मुझ से छोटे हैं उन के द्वारा दिया गया सम्मान मुझे अभिभूत कर गया ,,
    पंकज जी मेरी ग़ज़ल को भी यहां शामिल करने के लिये बहुत बहुत शुक्रिया

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  18. उड़ चला माज़ी की जानिब..
    बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति। सारी की सारी ग़ज़ल ख़ूबसूरत शेरों से सुसज्जित है। बहुत बहुत बधाई हो।

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  19. आदर्श पारिवारिक चित्र, बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति।

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  20. हर एक शेर खूबसूरत नग के जैसा और पूरी ग़ज़ल दिलकश दिलफरेब और लाजवाब जड़ाऊ हार के जैसी है

    बहुत बहुत बहुत अच्छा लगा पढ़ कर

    हार्दिक बधाई

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  21. शायरी इसे कहते हैं !
    ग़ज़ल हो तो ऐसी हो !
    ' माहीरे ए फन ' आपने सही कहा,
    हे गुणी अनुज ...
    इस्मत जी ,
    आप ने लिखना शुरू किया
    वह खुदा का करम है और साफ़ पाक दिल से उठी आवाज़
    दूसरों के दिलों को
    हमेशा सुकून देती रही है
    जैसे आप की ग़ज़ल ने किया है ..
    आपके परिवार के सभी को मेरे
    सादर , स - स्नेह नमस्ते
    - लावण्या

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  22. उड़ चला माज़ी की जानिब जब तखय्युल का परिंदा,
    जाने क्या-क्या बन के आई, गर्मियों की वो दुपहरी"
    इस्मत जी ,
    हर शेर में आपकी सोच की उड़ान हमें अपने साथ ले उडती है..सुंदर सांचे में ढले शब्द एक तत्व को उभार कर सामने ले आते हैं और सोच ठिठक कर सोचती है....!!!
    आपसे और आपके परिवार से मिलकर कुशी हुई
    शुभकामनाओं सहित

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