सोमवार, 6 जून 2011

थे पिता बरगद सरीखे और शीतल सी हवा माँ, तो लगा करती थी ठंडी, गर्मियों की वो दुपहरी. आइये आज तरही में सनुते हैं एक धुंआधार शाइर श्री नीरज गोस्‍वामी जी की एक शानदार ग़ज़ल.

धीरे धीरे तरही आगे बढ़ रहा है  और अब हम लगभग समापन के पास आ गये हैं. समापन के पास आने पर हम देख रहे हैं कि हालांकि गर्मियों का हाल तो वही है लेकिन कभी कभी बरसात हो जाती है तो कभी कभी ये भी हो रहा है कि दिन भर आसमान पर बादलों की छांव बनी रहती है. लगभग दस दिन का इंत़जार और है अभी भी अच्‍छी बरसात के लिये शायद. सुना है कि वहां मुम्‍बई में झूम कर बरसात हो रही है, अच्‍छा है यदि उधर झूम कर बरसात हो रही है तो कुछ न कुछ तो यहां भी आयेगा ही. और क्‍यों न आयेगा आज हम एक मुम्‍बई के ही ग़ज़लकार की तो ग़ज़ल यहां पर सुनने जो रहे हैं. ग़ज़ल को सुनकर शायद बादल भी प्रसन्‍न हो जाएं और निकल पड़ें देश भर में बरसने के लिये.

ग्रीष्‍म तरही मुशायरा

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और सन्‍नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी

आज हम सुनने जा रहे हैं एक सुविख्‍यात ग़ज़लकार और कुख्‍यात ब्‍लागर श्री नीरज गोस्‍वामी जी से उनकी एक बहुत ही सुंदर सी ग़ज़ल. नीरज जी आज एक स्‍थापित शायर हैं और बहुत अच्‍छे तरन्‍ऩुम में वे ग़ज़लें पढ़ते हैं तो आइये सुनते हैं उनसे उनकी ये तरही ग़ज़ल. ( वैसे उनका परिचय भी अपने आप में एक मुकम्‍म्‍ल ग़ज़ल ही है.)

neeraj ji8श्री नीरज गोस्‍वामी जी

परिचय :

नीरज गोस्वामी

उम्र: वही, बच्चे जिसे देख दादा , जवान बुढऊ और हम उम्र खूसट कहें

शिक्षा : जयपुर के उस प्रतिष्ठित संस्थान से इंजीनियरिंग की डिग्री जो हमें डिग्री देने के बाद प्रतिष्ठित न रहा .

व्यावहारिक ज्ञान : शून्य

उपलब्धि : जाने अनजाने लोगों से मिला प्यार

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( दादा दादी के साथ दुलारी मिष्‍टी )

स्थाई निवास : पत्नी के दिल में ( दिल के बहलाने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है)

अस्थाई निवास : जयपुर एवं खोपोली (मुंबई पुणे के मध्य खंडाला के पास )

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( दादु के दुलारे )

रुचियाँ: पठन, संगीत, सिनेमा, नाटक, क्रिकेट

मज़हब :  मज़हब है अपना हँसना हँसाना

ग़ज़ल लेखन : दिल की भड़ास निकालने का विकल्प

neeraj ji6( पूज्‍य माताजी के साथ  परिवार )

ग़ज़ल लेखन का कारण: पहला श्री पंकज सुबीर और प्राण शर्मा जी जैसे गुरुओं का सहज ही मिल जाना दूसरा दिमाग का दही करने की पुरानी आदत का फिर से उभरना

 तरही ग़ज़ल

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आम, लीची सी रसीली, गर्मियों की वो दुपहरी

और शहतूतों से मीठी, गर्मियों की वो दुपहरी

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फालसे, आलू बुखारों की तरह खट्टी-ओ-मीठी

यार की बातों सी प्यारी, गर्मियों की वो दुपहरी

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थे पिता बरगद सरीखे और शीतल सी हवा  माँ

तो लगा करती थी ठंडी, गर्मियों की वो दुपहरी

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भूलना मुमकिन नहीं है, गुलमुहर के पेड़ नीचे

साथ हमने जो गुजारी, गर्मियों की वो दुपहरी

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कूकती कोयल के स्वर से गूँजती अमराइयों में

प्यार के थे गीत गाती, गर्मियों की वो दुपहरी

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बिन तेरे उफ़! किस कदर थी जानलेवा यार लम्बी

और सन्नाटे में डूबी, गर्मियों की वो दुपहरी

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सर्दियों में भी पसीना याद कर आता है 'नीरज'

तन जलाती चिलचिलाती, गर्मियों की वो दुपहरी

कूकती कोयल के स्‍वर में गूंजती अमराइयों में प्‍यार के थे गीत गाती गर्मियों की वो दुपहरी, आज सुब्‍ह ही जब मैं से निकला तो घर के बाहर लगे आम के पेड़ पर एक कोयल कुहुक रही थी और आज ही नीरज जी का ये शेर सुनने को मिला.  अहा क्‍या चित्रण है सचमुच वो दुपहरी प्‍यार के ही गीत गाती थी, उस दोपहरी की याद के साथ और कई यादें ताजा़ कर दीं नीरज जी ने.  गिरह का शेर भी एक मुश्किल तागे में सफलता से गूंथ दिया है इस प्रकार कि गिरह ( गांठ) कहीं नहीं दिखाई दे रही है.  लम्‍बी और सन्‍नाटे में डूबी के बीच बारीक गिरह है, गुलमुहर के पेड़ की तो बात ही क्‍या है, हर प्रेमी के जीवन में गुलमोहर के पेड़ का अपना महत्‍व होता है ( राजकपूर की प्रेमरोग देखिये ), और नीरज जी तो नीरज जी ही हैं.  मां और पिता पर लिखा गया शेर तो इबादत का शेर है, उस शेर के लिये क्‍या कहूं.

तो सुनते रहिये आज की ये जानदार शानदार ग़ज़ल और इंतज़ार कीजिये अगले शाइर का.

21 टिप्‍पणियां:

  1. bahut hi sunder chitron ke saath maata pitaa ko samman deti hui garmiyon ki dophari per likhi bahut achchi najm.padhker anand aa gaya.badhaai sweekaren.



    please visit my blog .thanks

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  2. aऔर आज फिर से लिखने के काब्विल हुयी तो गर्मियों की ये दुपहरी मुझे भी बहुत ठंडी लगी और उपर से नीरज जी की इतनी खूबसूरत गज़ल --- वाह ---
    थे पिता बरगद सरीखे-----
    बिन तेरे उफ-----
    सभी शेर लाजवाब हैं\ नीरज जी को बधाई बिटिया को प्यार तस्वीरें भी खूबसूरत हैं। इस बार एक नया अनुभव हुया है जिस के बारे मे सोचा नही था कि गर्मियाँ भी इतनी खूबसूरत होती हैं और जब इनमे से कुछ बातों को पडःाती हूँ तब याद आता है कि सच मे बचपन खूबसूरत होता है जो जीवन की केवल खूबसूरती ही महसूस करता है। बेशक म्क़ैने पिछली सभी गज़लें पढी थी मगर कमेन्ट नही दे पाई थी। इस बार के मुशायरे मे तो कमाक्ल की गज़लें रही। आपकी मेहनत अय्र लगन से ही सब इतना कुछ कह पाये। शुभकामनायें।

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  3. अद्भुत, कमाल, लाजवाब!
    बहुत ही खूबसूरत गज़ल है. नीरज जी की सभी ग़ज़लों में जो खूबसूरती दिखाई देती है वही इसमें भी है.खूबसूरत मतला है. गिरह का शेर वाकई बड़ी ही कारीगरी से बुना गया है. "थे पिता बरगद सरीखे और शीतल सी हवा माँ.." यह शेर तो कई बार पढ़ चुका हूँ. हर बार पढ़ कर फिर से पढ़ने का मन करता है.
    "भूलना मुमकिन नहीं है गुलमुहर के पेड़ नीचे, साथ हमने जो गुजारी गर्मियों की वो दुपहरी" वाह!
    "कूकती कोयल के स्वरसे, गूंजती अमराइयों में..", "फालसे आलूबुखारों की तरह.." लाजवाब शेर हैं.. और फिर अंत में इतना जोरदार मकता की क्या कहें.
    नीरज जी दिली दाद कबूल करें. वाकई बहुत ही खूबसूरत गज़ल है.

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  4. बेहतरीन गज़ल ,खासकर 6वां शेर जिसमें गिरह विराजमान है काबिले-तारीफ़ है।

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  5. ये तरही जब से चालू हुई है, सब कुछ आज़मा लिया, दिल की जलन है कि जा ही नहीं रही। हर बार सोचता हूँ कि अगली बार शायद कुछ राहत मिले मगर राहत मिलने के बजाय हर आने वाली ग़ज़ल कुछ बिगाड़ ही रही है मामला।
    इस बार तो हद ही हो गयी है।
    भाई, कहॉं-कहॉं से तलाश कर लाये हैं ये शेर। किसी एक का संदर्भ लाना अन्‍य के साथ अन्‍याय होगा।
    सभी शेर एक से बढ़कर एक हैं। आपको दिली बधाई, हमारा क्‍या है एक एन्‍टेसिड और सही।

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  6. अरे वाह! बेहतरीन... नीरज जी की ग़ज़ल का हर इक शे'अर दाद के काबिल...

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  7. "एक सुविख्यात ग़ज़लकार और ...." गुरुदेव शायद टंकण में त्रुटी हो गयी है..."सुविख्यात" शब्द को सही कर लें...पढ़ कर संकोच से जमीन में गढ़ा जा रहा हूँ...

    नीरज

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  8. क्या बात है ... हमें तो नीरज के स्थाई निवास के बारे में जान कर अच्छा लगा ...
    बाकी इन शेरों के बारे में तो कुछ भी कहना सूरज को दिया दिखाना होगा ... हर शेर से अगाल रंग की खुश्बू आ रही है ... चाहे ... थे पिता बरगद सरीखे हो या .. भूलना मुमकिन नही है ... नीरज जी का अपना अलग अंदाज़ है जो उनकी सभी ग़ज़लों में सॉफ नज़र आता है ... मतला, गिरह और सभी कुछ इतना कमाल का है की बस बार बार पढ़ते जाने को दिल कर रहा है ...
    नीरज जी को बहुत बहुत बधाई इस लाजवाब ग़ज़ल के लिए ... बिटिया बहुत ही प्यारी है ... नीरज जी के परिवार को देख कर बहुत अच्छा लगा ...

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  9. क्या शानदार ग़ज़ल कही है नीरज जी ने। हर एक शे’र शानदार है। किस किस की तारीफ़ करूँ और परिचय तो स्वयं में एक ग़ज़ल ही है। नीरज जी को हार्दिक बधाई

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  10. राणा प्रताप सिंह की ग़ज़ल के शे'र
    'पुरसकूँ है गर मिले तो छाँव का बस एक टुकड़ा'
    के बाद नीरज भाई की ग़ज़ल का शे 'र --
    'थे पिता बरगद सरीखे और शीतल सी हवा माँ ...
    'कूकती कोयल के स्वर से, गूँजती अमराइयों में.....
    कमाल कर दिया भाई...
    बधाई |

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  11. खूब जम के बरसे हैं अबके हमारे नीरज जी.

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  12. कूकती कोयल के स्वर से गूंजती अमराइयों में ... सभी गुनगुनाने योग्य हैं.

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  13. "थे पिता बरगद सरीखे.........."

    "थे पिता बरगद सरीखे.........."
    इस शेर ने तो रुला ही दिया!
    बहुत ही प्यारी ग़ज़ल

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  14. नीरज भाई शनिवार को आप के दफ़्तर में जब मैंने आप से कहा तो आप मान नहीं रहे थे, अब तो मान गए होंगे भाई...........

    उम्मीद से कहीं बेहतर, कहीं ज़ियादा पुरअसर ग़ज़ल पेश की है श्रीमान जी आपने|

    आम-लीची और शहतूत के साथ जिस ग़ज़ल की शुरुआत हो उस की मिठास के क्या कहने| तिलक भाई साब आप के अलावा एक और भी मरीज है यहाँ.................

    दोस्ती का बेजोड़ प्रतीक - फालसे आलू बुखारे वाला शेर| इसे लोग याद रखेंगे|

    गर्मी में ठंडक का बेहतरीन उपाय भी सुझा दिया है आप के "बरगद" वाले शेर ने

    गुलमुहर के पेड़ के नीच गर्मियों की दुपहरी - राज़ की बात आप भी बता रहे हैं सर जी

    तरही के मिसरे की शानदार गिरह बंधाई के लिए विशेष दाद कुबूल करें नीरज भाई

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  15. गज़ल पढ़कर बहुत अच्छा लगा, परिचय पढ़कर और भी अच्छा।

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  16. Gazal padhkar laga mera bachpan laut aaya. pedh ke tale baithkar, chanv tale imli khana, kacche aam par namak....!! chalo usko nahin chidakte. Har sher ki nageenedari ke liye daad kabooliye Neeraj. Ab agla padav Khapoli mein hoga.

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  17. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  18. हमारे अज़ीम तरीम शायर , श्री नीरज भाई के स्वभाव की एक खूबी ये है कि वे स्वयं को सीरीयसली नहीं लेते
    [ but we know how well he writes ,
    he is very humble ]
    पर हम उनकी ग़ज़ल की दाद देते हुए भरपूर प्रशंशा करेंगें ..चाहें वे खुद के लिए कुछ भी क्यूं न लिखें ...आपने जो अपने श्रध्धेय माता , पिता
    को याद करते हुए , ग्रीष्म ऋतू को , भावभीनी अंजलि अर्पण की है और भारतीय परिवेश से सजीव बिम्बों को समेटा है इस रचना के लिए उहें बधाई और बड़ी होने के नाते आशिष भी के इसी तरह लिखते रहें
    स स्नेह,
    - लावण्या

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  19. "फालसे, आलू बुखारों की तरह खट्टी-ओ-मीठी................", "भूलना मुमकिन नहीं है, गुलमुहर के......................", यादों के गलियारे में झांकते ये शेर बहुत खूब बने हैं. "कूकती कोयल के स्वर से गूँजती अमराइयों.......................", प्रकृति चित्रण बहुत अच्छे से शेर में उतारा है. वाह वा नीरज जी.

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  20. थे पिता बरगद सरीखे और शीतल सी हवा माँ.......आह!! एक पंक्ति ने ही मंच जीत लिया जी...बहुत खूब...नीरज भाई की कलम...सलाम!!!

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