शनिवार, 14 जुलाई 2012

ख़्वाब के नर्म एहसास देंगे बता, रात रेशम से मैंने बुनी है प्रिये, तरही मुशायरे के क्रम को आगे बढ़ाते हुए आज सुनते हैं तरही मुशायरे में शायद पहली बार आ रहीं परिधि बडोला से उनकी ग़ज़ल ।

डॉ. आज़म की पुस्‍तक 'आसान अरूज़' का विमोचन बहुत अच्‍छे तरीके से हो गया । ऐन मौके पर कार्यक्रम संचालक के बीमार पड़ जाने से मुझे ही वो जवाबदारी संभालनी पड़ी । मैं चूंकि विशुद्ध हिंदी भाषी हूं, इसलिये सामान्‍यत: उर्दू के कार्यक्रमों का संचालन करने से ज़रा परहेज़ करता हूं । बात वही है कि पिता के स्‍थानांतरण के कारण बपचन प्रदेश के अलग अलग अंचलों में गुज़रा कभी मालवा में आष्‍टा, सुसनेर और उज्‍जैन कभी बुंदेलखंड में मुरैना, मध्‍य भारत में भोपाल और सीहोर । इन सब के कारण भाषा बहुत खिचड़ी टाइप की हो गई है । बात वही है कि हमारी वर्णमाला में क़, ख़, ग़, ज़, फ़ थे ही नहीं सो बचपन की ज़ुबान ने उनका उच्‍चारण ही नहीं सीखा । तिस पर पूरा बचपन मालवा में बीता, जहां उर्दू का दूर दूर तक कोई नामो निशान ही नहीं था और आज भी नहीं है । जब बचपन में हम सुसनेर से भोपाल में आये तो हमने जीवन में पहली बार ग़दर शब्‍द सुना ( मास्‍साब ने स्‍कूल में कहा ग़दर मत करो, तो हम हैरत में डूब गये थे कि ये ग़दर क्‍या होता है ।) अन्‍यथा तो हम धूम या मस्‍ती शब्‍द का प्रयोग  करते थे । इन कारणों से उर्दू कार्यक्रमों का संचालन करने से कुछ दूरी बनाता हूं मगर जितनी दूरी बनाता हूं उतना ही करना पड़ता है । आसान अरूज़ के कार्यक्रम में एक बात और ख़ास थी वो ये कि महामहिम श्री क़ुरैशी मेरे नानाजी के साथ के राजनेता हैं । बपचन में उनका हमारे घर नानाजी के साथ आना जाना रहा है ( वे उन आठ दस राजनेताओं में हैं जिनका मैं बहुत सम्‍मान करता हूं, क्‍योंकि धर्मनिरपेक्षता की असली परिभाषा उनसे सीखी जा सकती है । ) । सो एक प्रकार का अतिरिक्‍त भय और झिझ‍क थी, झिझक इस बात की कि उनको मैं एक परिजन की तरह सम्‍मान दूंगा तो उसे शायद अन्‍यथा लिया जाये । एक और महत्‍वपूर्ण बात ये कि महामहिम स्‍वयं शाइरी के बल्कि अरूज़ के अच्‍छे जानकार हैं ।  इन सब कारणों के चलते संचालन अत्‍यंत कामचलाऊ ( बहुत कमजोर )  हुआ लेकिन कार्यक्रम अच्‍छा हो गया सो सब कसर निकल गई । इस ब्‍लाग परिवार के प्रतिनिधि के रूप में आदरणीय तिलकराज कपूर जी कार्यक्रम में उपस्थित थे  । कार्यक्रम कुछ लम्‍बा खिंच गया सो मुशायरा छोटा हो गया और केवल बाहर से आये शायरों को ही मौका मिला पढ़ने का, सो एक बार फिर मुशायरे में भी अपनी ग़ज़लें महामहिम को सुनानी पड़ीं । कुछ शेर उन्‍होंने पसंद किये ।

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तिलकराज जी कार्यक्रम का समापन होते ही गायब । मैं उनको श्री ज़हीर क़ुरैशी जी से मिलवाना चाहता था जो हिंदी के आज  एक समर्थ ग़ज़लकार हैं । फिर भी समय निकाल कर डॉ विजय बहादुर सिंह जी के साथ एक फोटो तो खिंचवा ही लिया मैं ने और तिलक जी ने । संचालन करने जाते समय मैं तिलक जी को डॉ विजय बहादुर सिंह जी के हवाले सौंप गया था । खैर ।

2012-07-12-062

तो आइये अब आज तरही का क्रम आगे बढ़ाते हैं और सुनते हैं एक ऐसी रचनाकार से उनकी ग़ज़ल जो मेरे विचार में तरही में शायद पहली बार आ रही हैं । उनका नाम है परिधि बडोला ।  उनके बारे में अधिक जानकारी नहीं मिली और उनका चित्र भी जो यहां लगाया जा रहा है वो गूगल महाराज द्वारा सुझाया गया है, इसलिये हो सकता है चित्र ग़लत हो ।

paridhi badola

परिधि बडोला
आपका ब्लॉग पढ़ा, बहुत ज्ञानवर्धक और अच्छा लगा. थोडा-बहुत लिखती हूँ, उसी समझ से सुबीर संवाद सेवा पर जल्द ही आयोजित होने वाले तरही मुशायरे के लिए अपनी ग़ज़ल भेज रही हूँ. ग़ज़ल एकवचन में कही है - मिसरा "प्रीत की अल्पना जब सजी है प्रिये" पर.परिचय-
लेखन मेरे लिए अहसासों का एक संस्मरण है, जब भी थोडा बहुत वक़्त अपनी दो परियों काव्या और लव्या से बचा के समेट पाती हूँ तो उसे कागज़ पर शब्दमई रंगों में उड़ेल देती हूँ. वर्तमान में मालवीय नगर, दिल्ली में अपनी दो परियों, सास-ससुर और पति के साथ हूँ. घर की जिम्मेदारियों के साथ अपने इन प्रियजनों के साथ एक बहुत ही सुन्दर नज़्म (ज़िन्दगी) लिख और जी रही हूँ

prem

तुम हो गर साथ तो हर ख़ुशी है प्रिये.
मैंने माँगी कहाँ ज़िन्दगी है प्रिये.

ख़्वाब के नर्म एहसास देंगे बता,
रात रेशम से मैंने बुनी है प्रिये.

तुम में खो कर ही मेरा है पाना लिखा,
जैसे सागर से मिलती नदी है प्रिये.

साथ रहना सदा, आसमां हो कोई
डोर तुम से ही मेरी बँधी है प्रिये.

प्यार का रंग चढ़ कर है गहरा हुआ,
हाथ पर जब हिना ये रची है प्रिये.

हम तो किरदार हैं इस कहानी के दो,
जो न जाने कभी से लिखी है प्रिये.

बीते लम्हे उतर आये हैं रंगों में,
प्रीत की अल्पना जब सजी है प्रिये.

बहुत ही सुंदर ग़ज़ल कही है । मुझे विशेष कर इस बार के मिसरे में ये लग रहा था कि इस मिसरे पर जब नारी क़लम चलेगी तो भाव किस प्रकार के आते हैं । लेकिन परिधि जी के शेर बिल्‍कुल नारी मन को अभिव्‍यक्‍त कर रह हैं । तुम में खोकर ही मेरा है पाना लिखा शेर एक ऐसा ही शेर है जिसे पुरुष लिख ही नहीं सकता । मतला ही बहुत सुंदर बन पड़ा है, मतला वास्‍तव में ही जैसे रेशम से बुना गया है । ख्‍वाब के नर्म एहसास और रात के रेशम होने का प्रयोग बहुत सुंदर है । सुंदर ग़ज़ल ।

23 टिप्‍पणियां:

  1. कोमल एहसास से रची रचना ....
    मुबारक स्वीकारें!

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  2. बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल है। हर शे’र तारीफ़ के काबिल है मगर कुछ शे’र ऐसे हैं जो एकदम से चौंका देते हैं। बहुत बहुत बधाई परिधि जी को।

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  3. बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल !
    ख़ास तौर पर मतला बहुत सुंदर है
    पूरी ग़ज़ल ही बहुत soft और समर्पित भावों के साथ लिखी गई है
    जो इस ग़ज़ल के सौंदर्य को बढ़ा रहे हैं

    परिधि जी बधाई हो !

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  4. इंतज़ार था कि समाचार मिले आसान अरूज़ के विमाचन का. महामहिम कुरैशी जी के बारे में जानने को मिला.
    और तिलक जी भी दृष्टिगोचर हुए.
    -
    परिधि बडोला जी को मैं भी पहली बार सुन रहा हूँ. कोमल और हृदयस्पर्शी ग़ज़ल के लिए परिधि जी आपको बहुत बहुत बधाई!
    उम्मीद हैं अब आप नियमित आयेंगी. ख्वाब के नर्म अहसास.... हम तो किरदार हैं इस कहानी के दो... गिरह भी क्या खूब बंधा है. बहुत सुन्दर !!

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  5. वाह!कोमल भाव सुन्दर शब्द चयन से और निखर कर आये हैं! वाह!

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  6. गड़बड़ हो गयी। अवकाश होने के बावज़ूद (कितनी सहजता से हम इस शब्‍द का खुलकर उपयोग करते हैं बा वज़ूद) आज सुब्‍ह से कछ पुस्‍तकों में ऐसा उलझा कि इस ओर ध्‍यान ही नहीं गया कि आज पोस्‍ट लग सकती है।
    बहरहाल यानि ब-हर-हाल विमोचन कार्यक्रम के बाद हुआ ये कि मुशायरे में पढ़ने के इरादे से बैठे आगे की तीन पंक्तियॉं के स्‍थानीय शायर कार्यक्रम समाप्‍त होते ही मंच की ओर बढ़ लिये महामहिम से मिलने के लिये और मैनें देखा कि इस प्रक्रिया में अच्‍छा ख़ासा समय लगना है तो क्‍यूँ न एक छोटा सा काम निबटा लूँ, इस इरादे से बाहर निकला तो ग़लती से मैं जिस प्रसाधन में घुसने लगा वह चित्र संकेत से समझ आया कि यह तो स्त्रियों के लिये है, पुरुषों के लिये प्रसाधन तलाशते आगे बढ़ा तो गेट तक पहुँच गया। अब मन है, कुछ करने को तैयार हो जाये तो पीछे हटना नहीं चाहता सो सारे तर्क सिमट गये इसी उत्‍तर में कि भाई अब बाहर आ ही गये हो, घर को ही बढ़ लो। बस मन की बात मान ली।
    और ये किसी हास्‍य-व्‍यंग्‍य का अंश नहीं, मेरे साथ झाटी वास्‍तविकता है।
    जल्‍दबाजी़ में बधाईयॉं देनी रह गयीं, जो अब क्षमायाचना सहित अर्पित हैं।

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  7. परिधि जी,
    ग़ज़ल आपने खूबसूरत कही। मत्‍ले की भावना ही सुखद् परिवार का आधार होती है।
    ख्‍वाब के नर्म ... में जादुई प्रभाव है।
    सागर और नदिया की बात तो ऐसी है कि:
    सागर तो हर पल नदिया से कहता है
    जैसी भी हो बॉंहों में आ जाओ तुम।
    इस ब्‍लॉंग पर अपका स्‍वागत है।

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  8. वाह.. परिधि जी को पहली बार बढ़ रहा हूँ लेकिन ज़ाहिर है की वो एक मंझी हुई गज़लकार हैं. बहुत ही खूबसूरत गज़ल कही है. बहुत बढ़िया शेर. मतला तो बहुत ही पसंद आया. बहुत बहुत बधाई.

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  9. दिल से आयोजित कार्यक्रम का दिल से तब्सिरा. पंकजभाईजी, आपने जिस सहज लहजे में कार्यक्रम के विषय में साझा किया है वह मनभावन लगा. आपकी प्रस्तुतियों में सुर की लचक, पद्य का लालित्य और गद्य की कथ्यात्मकता है. देखिये, आपको सस्वर कब सुन पाते हैं.
    आयोजन में तिलकराज भाई साहब सदेह उपस्थित थे. वाह !
    *****************
    परिधि बडोला जी का इस परिवार में स्वागत है. और प्रस्तुत ग़ज़ल के विषय में क्या कहूँ ! प्रत्येक शेर कोमल है.
    रात को रेशम से बुनना हृदय के तंतुओं को झंकृत कर गया.
    तुझ में खो कर ही मेरा है पाना लिखा / जैसे सागर से मिलती नदी है प्रिये... .
    इस शास्वत भाव के लिये परिधिजी हार्दिक बधाइयाँ.
    साथ रहन सदा, आसमां हो कोई / डोर तुमसे ही मेरी बंधी है प्रिये.. .
    इस शेर में ’आसमां’ के शाब्दिक और भावुक दोनों विस्तारों ने मन मोह लिया है. बहुत खूब !
    प्यार क रंग.. .. हथेलियों पर हिना के गहराते रंग की लोकोक्ति को बहुत ही सुन्दर ढंग से पिरोया गया है.
    परिधिजी की कहन ससंदर्भ किन्तु कोमल प्रस्तुतियों की आश्वस्ति है. आपको बहुत-बहुत शुभकामनाएँ और बधाइयाँ.
    *****************
    पंकजभाईजी, इस बार की ग़ज़ल के साथ का चस्पां चित्र विगत कई-कई-कई स्मृतियों के अनायास कुलबुलाने का कारण बना है.
    ’गुनाहों का देवता’ का वह शब्द-दृश्य याद होगा न.. सुधा के पाँवों को हथेलियों में ले चंदर युगल-कपोत की तरह दुलराता है. कुछ देर, मैं यों ही उस ’इलाहाबादी’ को याद करता रहा.. चुपचाप..

    --सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)

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  10. अगर एतराज़ न हो तो कार्यक्रम में आपने जो ग़ज़ल पढ़ी थीं उन्‍हें ब्‍लॉग पाठकों के हितार्थ अगली पोस्‍ट में ले लें। उतना आनंद तो सभी को मिल जाये (प्रत्‍यक्ष सुनना और बात होता है, फिर भी)।

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  11. उत्‍तराखण्‍ड के महामहिम राज्‍यपाल अज़ीज़ कुर्रेशी साहब के लिये आपका यह कहना सटीक लगा कि उनका नाम तो हर दिल अज़ीज़ कुर्रेशी होना चाहिये।
    वर्ष 1998 में तत्‍कालीन उप मुख्‍य मंत्री श्री सुभाष यादव के निवास पर उनसे एक छोटी सी मुलाकात हुई थी जब संभावित उम्‍मीदवारों की सूची को पहली बार कम्‍प्‍यूटर की मदद से अंतिम रूप दिया जा रहा था। उस छोटी सी मुलाकात में ही उनकी सादग़ी, सहजता और विनम्रता ने दिल जीत लिया था।
    विजय बहादुर सिंह जी से मिलना एक सौभाग्‍य रहा, उनका नाम तो सुनता रहता था लेकिन घर और ऑफिस से बाहर कम निकलता हूँ तो मिलने की स्थिति अब तक नहीं बनी थी।
    ज़हीर कुर्रेशी जी की ग़ज़लें तो काफ़ी समय से पढ़ रहा हूँ, उन्‍हें प्रत्‍यक्ष देखने और सुनने का अवसर भी मिल गया। हिन्‍दी पर उनका प्रभावी नियंत्रण देखकर दंग रह गया। ऐसे ही व्‍यक्ति धारणाओं को तोड़ते हैं।

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  12. आयोजन कैसा रहा होगा इसकी कल्पना कर सकते हैं हम तो ... और कल्पना और सच पास पास ही रहे हैं ... सफल रहा कार्यक्रम इसकी बहुत बहुत बधाई ...
    परिधि की गज़ल बहुत ही कोमल प्रेम के धागों से सजी है ... प्रेम, समर्पण और दिल को छू के गुज़र जाता है हर शेर ...
    मतला इतना खूबसूरत है की प्रेम की पींग बढ़ने लगती है ... फिर तुम में खो कर ही मेरा है पाना लिखा ... तो जैसे समर्पण की नई ऊँचाइयों को छू रहा है ... हम तो किरदार हैं इस कहानी के दो ... बहुत ही खूबसूरत शेर है इस गज़ल का ...
    ये मुशायरा अब फलक पे विचरण कर रहा है ... पता नहीं कहां रुकने वाला है ...

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  13. एक बारगी फोटो और ग़ज़ल दोनो को देख कर तो लगा कि कोई नवोढ़ा है और शायद नव्या और लव्या के बावजूद भावनाएं नवल ही हैं परिधि जी की।

    बहुत सुंदर भाव बिना किसी लाग लपेट के, बिना किसी ग्लैमराईजेशन के।

    मतला ही एक नारी के मन की मध्यम मगर असरदार गूँज है।

    खो कर ही पाने की बात, आसमाँ से डोर बँधना... ये सब एक पवित्र नारी मन ही लिख सकता है।

    यदि आप बिना किसी ग़ज़ल शिक्षा के इतना अच्छा लिख रही हैं, तो निश्चित ही आप में काव्य के गुण प्राकृत हैं।

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  14. गुरू जी चित्र भी की कलात्माकता भी अति प्रशंसनीय है....

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  15. अच्छी रपट लगाई है आपने।
    ग़ज़ल तो उम्दा है ही।

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  16. बहुत खुबसूरत ग़ज़ल...परिधि जी को बधाई !!

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  17. तुम को खोकर ही मेरा पाना लिखा ,जैसे सागर से मिलती नदी है प्रिये।

    मनभावन शे"र, सुन्दर ग़ज़ल्।

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  18. नर्म से एहसासों से और कोमल हाथों से लिखी गयी शानदार गज़ल।मै भी कल भूल गयी थी। मेल खोली तो पहली मेल मे ही हुन्डई वालों की वेब साइट पर एक शिकायत दर्ज करवाते ही समय निकल गया। परिधी जी ने तो कमाल कर दिया। जितनी सुन्दर वो आप हैं उतनी ही सुन्दर उनकी गज़ल। उन्हें बहुत बहुत बधा पुस्तक विमोचन की भी बहुत बहुत बधाईयाँ।

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  19. परिधि जी को पहली बार पढने का मौका मिला...एक बेहतरीन ग़ज़ल कार बनने के सारे गुण उनमें दिखाई दिए... हर शेर मोतियों सा ग़ज़ल की माला में जड़ा है...मेरी हार्दिक बधाई .

    महरून से कुरते में खूब ही जंच रहे हैं गुरुदेव...चश्म-ऐ बद-दूर...और तिलक जी विजय जी के साथ काफी अकड़े बैठे हैं...
    ज़हीर कुरैशी जी से अगर तिलक जी मिल लेते तो उनका जीवन धन्य हो जाता...लेकिन हत भाग्य...चलिए फिर सही.

    नीरज

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  20. आज़म साब की पुस्‍तक 'आसान अरूज़' के शानदार विमोचन के लिए बधाइयाँ.

    परिधि जी ने बहुत खूब शेर कहे हैं, मतले का सानी जब उला से जुड़ रहा है तो एक अलग ही दुनिया में पहुंचा दे रहा है.
    सभी शेर पसंद आये, गिरह भी बहुत उम्दा बाँधी है. एक बेहद उम्दा ग़ज़ल कहने के लिए आपको बहुत बहुत बधाइयाँ और आशा हैं की आगे भी आपकी उपस्थिति यहाँ दर्ज़ होती रहेगी.

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  21. परिधि जी का मुशायरे में स्वागत है.अपनी ग़ज़ल में वे सरल शब्दों में गहरे भावों को अभिव्यक्त करने में सफल रही हैं.एक अच्छी प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकार हो.'आसान अरुज' के विमोचन के मोबाइल अपलोड पहले भी देखे थे.गुरुदेव के साथ-साथ सभी को इसकी हार्दिक बधाई.

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