प्रीत की अल्पनाएं सजी हैं प्रिये
हिंदी और उर्दू दो समानांतर बहती हुई नदियां हैं जो बहते बहते संगम पर आकर मिल जाती हैं । और संगम के बाद केवल एक ही नदी बचती है जिसे हिन्दुस्तानी भाषा कहा जाता है । हिन्दुस्तानी भाषा जिसमें हिंदी भी है, उर्दू भी है, संस्कृत भी है, अरबी भी है, फारसी भी है, अंग्रेजी भी है और साथ में बोली के देशज शब्द भी हैं । ये हिन्दुस्तानी भाषा भी हिन्दुस्तान की ही तरह कई महान संस्कृतियों का समागम है । और ये समागम इसलिये संभव हो पाया कि दुनिया भर में केवल और केवल एक हिन्दुस्तान ही ऐसा देश है जिसने आगे बढ़कर हर सभ्यता और संस्कृति को गले लगाया । हिटलर और मुसोलिनी दुनिया के दूसरे देशों में हुए जो मरते दम तक बर्बर रहे । किन्तु हमारे यहां यदि कोई युद्ध पिपासु अशोक हुआ तो अंत समय में उसके हृदय परिवर्तन करने के लिये कोई बुद्ध यहां थे । कुछ न कुछ तो ऐसा था जो दुनिया भर के लोगों को इस तरफ खींचता रहा और आज भी खींचता है । वो कारण यही है कि ये एक ऐसा समुद्र है जिसमें हर कोई समा जाता है । सभ्यताओं, संस्कृतियों की विभिन्नताओं से पूरित ऐसा शायद ही कोई दूसरा देश होगा । हिंदी और उर्दू के बीच कई प्रकार की मत विभिन्नताएं हैं । मगर उसके बाद भी दोनों हाथ में हाथ डाल कर चल रही हैं । शब्दों के उच्चारण को लेकर, व्याकरणीय नियमों को लेकर कई बार विवाद की स्थिति बनती है लेकिन उसक बाद भी सामंजस्य बना रहता है । कुछ चीज़ें ऐसी हैं जो अभी भी सुधारी जा सकती हैं । जैसे हिंदी के बड़े कवि सम्मेलन के मंचों पर एक या दो शायरों की उपस्थिति होती ही है वो भले मुनव्वर राना साहब हों, राहत इंदौरी साहब हों यो अंजुम रहबर जी हों । किन्तु अभी भी उर्दू के बड़े मुशायरों में मंचों पर हिंदी के कवि को कोई स्थान नहीं मिलता । मुझे लगता है कि जिस खुले दिल से हिंदी आगे बढ़ी गले मिलने उस तरह की पहल करने में उर्दू को अभी भी झिझक हो रही है । जब मैंने ये बात अपने एक शायर मित्र से कही तो उन्होंने तुरंत एक मुशायरे में शामिल हिंदू नाम गिना दिये कि ये तो थे । मैंने कहा मेरे भाई तुम हिंदुओं के नाम गिना रहे हो मुझे हिंदियों के नाम चाहिये । बात भाषा की है धर्म की नहीं । रचनाकार किसी मज़हब का नहीं होता वो भाषा का होता है । यदि शायर है तो वो उर्दू का प्रतिनिधित्व कर रहा है हिन्दु या मुसलमान का नहीं । यदि कवि है तो वो हिंदी का प्रतिनिधित्व कर रहा है । कुंवर जावेद हिंदी के कवि हैं तो अशोक मिजाज़ उर्दू के शायर, अब यदि अशोक मिजाज़ किसी मुशायरे के मंच पर हैं तो ये नहीं कहा जा सकता कि वे हिंदी का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, वे यकीनन उर्दू का ही प्रतिनिधित्व कर रहे हैं । एक कड़वी बात के साथ बात को समाप्त करता हूं । मुशायरे के मंचों पर हिंदी के कवि नहीं हैं तो उसके पीछे दोषी भी शायद वही हैं क्योंकि वे आजकल कविता कहां पढ़ रहे हैं वे तो चुटकुले आदि सुना कर स्टेंड अप कॉमेडी कर रहे हैं । एक लाख रुपये लेकर एक घंटे तक एक सौ चुटकुले सुनाते हैं और लौट आते हैं । अब कहां कोई नेपाली, नीरज, बच्चन, बैरागी, ठाकुर, सुमन, हिंदी के मंच तो आज जोकरों के हाथ में हैं । कड़वी सचाई ये भी है कि उर्दू के मुशायरों को भी अब ये रोग लग गया है ।
हिंदी को लेकर आज इतनी बात इसलिये कही है कि आज एक ऐसे कवि को लिया जा रहा है जो हिंदी में ही काम करता है । छंदों पर, गीतों पर साधिकार काम करता है । हालांकि व्यस्तताओं के कारण बस यूंही कभी कभी की स्थिति बनी रहती है । फिर भी रविकांत पांडेय को एक गंभीर हिंदी कवि माना जा सकता है । तो आइये सुनते हैं रविकांत पांडेय से हिंदी ग़ज़ल ।
रविकांत पांडेय
लख तुम्हें बावरी सी हुई है प्रिये
नाचती, झूमती देहरी है प्रिये
गुनगुनायें चलो प्यार के गीत हम
प्रीत की अल्पना ये सजी है प्रिये
तुम अनाघ्रात* कलिका हृदय-कुंज की
मान्यता मन-भ्रमर की यही है प्रिये
तुम प्रणय गीत, तुम, अक्षता, पद्मिनी
राग-नदिया तुम्ही से बही है प्रिये
पार आओ करें प्रेम की नाव ले
तन की सरिता ये गहरी बड़ी है प्रिये
नाम क्या दूं तुम्हारे नवल रूप को
उलझनों में परा*, वैखरी* है प्रिये
रस की रिमझिम फुहारों में आ भींग लें
मदभरी ये मिलन-यामिनी है प्रिये
तुमको छूकर महकने लगी चांदनी
और हवा भी ठुमकने लगी है प्रिये
रवि ने परा और वेखरी का उपयोग तो किया किन्तु उसका अर्थ नहीं लिख कर भेजा ये सोच की कि उनके अर्थ सबको पता ही होंगें । किन्तु मुझे लगता है कि इनके अर्थ दिये जाने आवश्यक हैं ताकि लोग शेर का आनंद ले सकें । सृष्टि की आदि में शब्द का मूल आधार नाद को माना गया है। वही ब्रह्म के रूप में स्थापित है। परा, पश्यन्ति, मध्यमा और वैखरी ये चारों वाक् की स्थितियाँ अथवा स्वरूप हैं। वाणी चार प्रकार की होती है। नाभि में परावाणी, हृदय में पश्यंति,कंठ में मध्यमा वाणी और मुख में वैखरी वाणी निवास करती है। हम शब्दों की उत्पत्ति परावाणीमें करते हैं, लेकिन जब शब्द स्थूल रूप धारण करता है, तब मुख में स्थित वैखरी वाणी द्वारा बाहर निकलता है। इनमें परा और पश्यंतिसूक्ष्म तथा मध्यमा व वैखरी स्थूल है। अनाघ्रात शब्द का अर्थ होता है जिसको सूंघा नहीं गया हो ।
अब ग़ज़ल की बात । पार आओ करें प्रेम की नाव ले, शेर में बहुत बड़ी बात को बहुत आसानी से कह दिया गया है वही बात जिसको सदियों से भारतीय परंपरा में दोहराया जाता जा रहा है । बहुत सुंदर बात । और फिर परा और वेखरी की बात बहुत सुंदर बन पड़ा है उन शब्दों के प्रयोग से शेर । तुम अनाघ्रात कलिका हृदय कुंज की में मिसरा सानी बहुत बारीक टांके से जोड़ा गया है मान्यता शब्द तो मानो रेशम के धागे के समान दोनों मिसरों को जोड़ रहा है । रस की रिमझिम फुहारों में जिस शालीनता के साथ प्रणय की बात कही गई है वो हिंदी गीतों के स्वर्ण युग की याद दिला रही है । आनंद आनंद ।
रविकाँत जी ,,बहुत बहुत सुंदर ग़ज़ल
जवाब देंहटाएंविशेषतया
तुम अनाघात .....
तुम प्रणय गीत ..........
कमाल के भाव चित्रित करते हैं ,,शब्दों का सटीक, उपयुक्त और बढ़िया चयन आप की योग्यता को परिभाषित करता है ,,ख़ुश रहिये और ऐसे ही लिखते रहिये
पंकज इन ग़ज़लों को देख कर बहुत ख़ुशी हो रही है लेकिन डर भी लग रहा है कि मेरी ग़ज़ल तो कोई पढ़ेगा ही नहीं पाठकों को मीठे के बाद नीम का कड़ुवा स्वाद मिलेगा
पंकज, हिंदी-उर्दू के हवाले से तुम ने सभी कुछ कह दिया और बिल्कुल सच कहा अब कुछ कहने को रहा नहीं ,मैं तुम से हर बिंदु पर सहमत हूँ चूँकि मुशायरों में भी चुटकुले शुरू हो गए हैं तो बड़े दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि कुछ समय पश्चात कवि सम्मेलन और मुशायरे इतिहास हो कर रह जाएंगे बहरहाल इतने सुंदर आयोजन के लिये तुम और कविगण बधाई स्वीकार करें
वाह, सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंरवि की गज़ल पढ कर लगता है कि मै तो ऐसी गज़लों पर कमेन्ट करने लायक भी नही हूँ।न भाषा का इतना ग्यान न लिखने का। बस यही कह सकते3ए हूँ हर शेर लाजवाब कमाल है}। रवि कान्त जी को बधाई।
जवाब देंहटाएंलख तुम्हें बावरी--- यहाँ मुझे लख का अर्थ पता नही क्या है।
तुम प्रनव गीत
नाम क्या दूँ----
बहुत सुन्दर शेर हैं।
श्री अजीत बडनेरकर जी (शब्दों का सफर वाले ) के शब्दों में ।
हटाएंहिन्दी में एक और संख्यावाची शब्द का इस्तेमाल खूब होता है वह है लाख। यह बना है संस्कृत के लक्षम् से बना है। इसमें सौ हज़ार की संख्या का भाव है। लक्षम् बना है लक्ष् धातु से जिसमें देखना, परखना जैसे अर्थ हैं। इस लक्ष् में आंख की मूल धातु अक्ष् ही समायी हुई है। इसमें चिह्नित करना, प्रकट करना, दिखाना लक्षित करना जैसे भाव भी निहित हैं। बाद में इसमें विचार करना, मंतव्य रखना, निर्धारित करना जैसे भाव भी जुड़ते चले गए। टारगेट के लिए भी लक्ष्य शब्द बना जो एक चिह्न ही होता है। धन की देवी लक्ष्मी का नाम भी इसी धातु से उपजा है जिसमें समृद्धि का भाव है। किन्हीं संकेतों, चिह्नों के लिए लक्षण शब्द का प्रयोग भी होता है। लक्षण में पहचान के संकेतों का भाव ही है चाहे स्वभावगत हों या भौतिक। मालवी राजस्थानी में इससे लक्खण जैसा देशज शब्द भी बनता है। देखने के अर्थ में भी लख शब्द का प्रयोग होता है।
उन्हीं के ब्लाग http://shabdavali.blogspot.in/2009/05/blog-post_05.html से साभार
वरीय जनों का आशीर्वाद पाकर अभिभूत हूं। पुनः लौटता हूं रात को। लख का अर्थ तो गुरुदेव ने स्पष्ट कर ही दिया है। कुछ उदाहरण देना उचित प्रतीत हो रहा है। बाबा तुलसीदास ने मानस में "लखना" का "देखने" के अर्थ में कई बार प्रयोग किया है-
हटाएंतासु बचन अति सियहि सोहाने। दरस लागि लोचन अकुलाने॥
चली अग्र करि प्रिय सखि सोई। प्रीति पुरातन लखइ न कोई॥
काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा। सो सरूप नृपकन्याँ देखा॥
मर्कट बदन भयंकर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा तेही॥
आज गुरुदेव ने जब भाषाई संगम की बात उठाई है तो ऐसे में अमीर खुसरो की याद आना स्वाभविक है। यह भी रोचक है कि खुसरो ने अपनी प्रसिद्ध रचना "काहे को ब्याहि बिदेस" में "लखना" का प्रयोग किया है जिसका धनवान (लखपति)और देखना दोनों ही अर्थ विद्वानों द्वारा स्वीकृत है-
काहे को ब्याहे बिदेस, अरे, लखिय बाबुल मोरे,
काहे को ब्याहे बिदेस।
भैया को दियो बाबुल महले दो-महले,
हमको दियो परदेस।
अरे, लखिय बाबुल मोरे,
काहे को ब्याहे बिदेस।
प्रथम अर्थ में पुत्री अपने धनवान पिता को संबोधित कर रही है। द्वितीय अर्थ में पिता से कह रही है "देखो" आपने मेरे ही साथ ऐसा क्यों किया?
इस मंच पर रवि भाई जी का दर्जा क्या है, और हम लोग उनका इंतज़ार क्यूँ करते हैं, ये बताने की जरुरत नहीं है.
हटाएंसभी शे'र पढने के बाद और अर्थ समझने के बाद यही कहूँगा - आनंद ही आनंद है.
पंजाबी मे लख शब्द लाख् को ही कहा जाता है जैसे लख खुशियाँ पातशाइयाँ जे सत गुरू नजर करे।
हटाएंज्क़ैसे कीसी पीर को लखदाता भी कहा जाता है। फिर भी मै एक बार स्पष्ट कर लेना चाहती थी इस लिये पूछा था धन्यवाद भाई सुबीर जी और रवि कान्त जी।
शुद्ध हिंदी के शब्दों से ग़ज़ल का रूप निखर कर आया है...बहुत अछूते से शब्द पिरोये हैं रवि ने अपनी ग़ज़ल में इसके लिए उनकी कलम का लोहा मानना पड़ेगा...रवि निसंदेह हिंदी के श्रेष्ठ रचनाकारों में से एक है...मैं उसके सुखद भविष्य की कामना करता हूँ...
जवाब देंहटाएंमुशायरों और कवि सम्मेलनों के बारे में कही आपकी बातें अक्षरश: सत्य हैं और बहुत दुखद भी. इन मंचो से अब श्रोताओं को काव्य के माधुर्य की जगह द्वि अर्थी चुटकलों का कूड़ा परोसा जा रहा है...देश के लब्द्ध प्रतिष्ठित लोकप्रिय कवि रचनाकार भी जब ऐसी फूहड़ हरकतें करते हैं तो सर शर्म से झुक जाता है...पैसे के लिए अपना तन बेचने वालों और इन मूर्धन्य रचना कारों में मुझे कुछ विशेष अंतर नहीं दिखाई देता...समय समय पर मैंने अपनी इस पीड़ा को अपने ब्लॉग पर चल रही "किताबों की दुनिया" श्रृंखला में व्यक्त भी किया है.
नीरज
वाकई एक बेहतरीन ग़ज़ल पढ़ने को मिली...बधाई रवि जी..
जवाब देंहटाएंवाह. रविकांत भाई. क्या गज़ल कही है.. लाजवाब शेर कहे हैं. बहुत बहुत बधाई.
जवाब देंहटाएंशुद्ध हिन्दी में गज़ल पढना मनभावन लगा , रवि जी को बधाई।
जवाब देंहटाएंमेरा हिन्दी ग्यान इस स्तर का नहीं है अत: ज्यादा कुछ कहना मुनासिब नहीं होगा।
रवि भाई की ग़ज़ल का इंतज़ार गुरुदेव के तरही-मिसरा जाने से ही शुरू हो गया था. क्योंकि इस बार मिसरा शुद्ध रूप से हिंदी में था और रवि भाई की पकड़ का अंदाज़ा और हर बार कुछ नए शब्दों का खूबसूरती से प्रयोग ........ दोनों ही बातें इस इंतज़ार को बड़ा रही थी, जो आज पूरा हुआ.
जवाब देंहटाएंगुरुदेव ने कुछ शब्दों के अर्थ न बताये होते तो वाकई दो शेर सर के उप्पर से गुज़र जाते. बहुत सुन्दर शेर कहे हैं.
अंकित, मैं भी यही कहना चाह राह था.
हटाएंरवि, आज एक बात तय हो गयी कि अब पाठशाला को नये विद्यार्थियों की जरूरत है। पुराने तो अब वहॉं खड़े हैं जहॉं से ग़ालिब ने कहा था कि:
जवाब देंहटाएंहम वहॉं हैं जहॉं से खुद हमको
आप अपनी खबर नहीं आती।
ये ग़ज़ल उस स्तर पर है जहॉं कवि को पहुँचने में दशाब्दियॉं लब जाती हैं। पूर्णत: नैसर्गिक प्रवाह लिये, काव्य सरिता बह रही है हर शेर में।
यह ग़ज़ल अपने पूर्ण निखार पर एक नवयोवना की तरह आमंत्रित कर रही है शब्द संसार में और एक स्पष्ट उदाहरण है कि अच्छा काव्य कहने के लिये शब्द सामर्थ्य का कितना महत्व है।
बहुत-बहुत बधाई आपको व पाठशाला के गुरूजी को।
पंकज भाई,
जवाब देंहटाएंआपने जो व्यथा व्यक्त की, वह ही आज का सत्य है। पाठशाला स्कूल हो गयीं जो बची हैं उनमें अध्ययन औपचारिक रह गया, हमारे पारंपरिक वाद्य-यंत्रों का स्थान गिटार ने ले लिया, सांस्कृतिक कार्यक्रम रॉक-शो हो गये, कहीं मुन्नी बदनाम होकर अपनी इस उपलब्धि का ढिंढोरा पीट रही है तो उसे मुकाबले में पछाड़ने को अन्य और आगे जाने को बेताब हैं। कौन है जो गाूधलि से मंंच के सामने आकर बैठ जाये भोर तक काव्य रसास्वादन करे। ऐसे में अर्थव्यवस्था कुछ ऐसी कि पैसों की फ़सल महत्वपूर्ण हो गयी है ओर उसी में जोकरों की फ़सल लहलहा रही है जिसे यह भी स्पष्ट नहीं कि वह विदूषक है अथवा अभिनेता या कवि।
विषय कड़वा है लेकिन सहजता से स्वीकार करने के अतिरिक्त और क्या विकल्प है। हॉं निजी तौर पर जो किया जा सकता है वह करते रहें इतनी आत्मसंतुष्टि प्राप्त की जा सकती है।
अन्छुवे शब्द ... जैसे कोमल ताज़ा कली का भाव लिए नव शेर ... रवि जी की गज़ल अंकों से सीधे दिल में जाती है ... दिमाग रास्ते में नई आता ... प्रेम का भाव वैसे भी पता नहीं क्यों शुद्ध हिंदी में जैसे अपना सा लगता है ... इसलिए रवि जी के ये गज़ल भी अपनी सी लगती है ... चाहे वो ... तुम प्रणय गीत वाला शेर हो ... या फिर .. पार आओ करें प्रेम की ... या फिर ... परा वैखरी वाला शेर हो ... जियो रविकान्त जी जियो ...
जवाब देंहटाएंये मिसरा आरंभ से ही रविकांत की प्रतीक्षा करा रहा था।
जवाब देंहटाएंदो सौ प्रतिशत सहमत हूँ , ये मिसरा आरम्भ से ही रविकांत की प्रतीक्षा करा रहा था !
हटाएंबहुत खूबसूरत ग़ज़ल कही है रविकांत जी ने। अनाघ्रात शब्द का बड़ा खूबसूरत उपयोग हुआ है। इसे केवल दूसरी बार पढ़ रहा हूँ किसी रचना में। इससे पहले पढ़ा था अज्ञेय जी की कविता ‘हे महाबुद्ध’ में। दो नए शब्दों परा और वैखरी से परिचय करवाने के लिए धन्यवाद। बहुत बहुत बधाई रविकांत जी को।
जवाब देंहटाएंइस ग़ज़ल के शब्द शब्द जैसे ठोक पीट कर और बेहद सुन्दर तरीक़े से सजाया गया है ! आह क्या ग़ज़ल कही है गुरू भाई ने! मन खुश हो गया ! उपर जैसे बहन जी ने सही कहा है ,ये मिसरा आरंभ से ही रविकांत की प्रतीक्षा करा रहा था! और रविकांत ने इमानदारी से हक़ अदा की है ! कुछ शब्द वाक़ई जटील हैं मगर वो शे'र में जटीलता पैदा करने के बजाए उसकी ख़ुबसूरती बढा रहे है ! किसी एक शे'र की बात कर अन्य शे'रों से बैमानी नही करना चाहता ! दिल से बस वाह वाह निकल रहा है !
जवाब देंहटाएंगुरुदेव आपने जो उपर कटु सत्य कही है उसको कहने के लिये जिस हिम्मत की ज़ुरुरत होती है वो तो लोग लेकर ही पैदा होते हैं ! :) वर्ना स्व्यं के लाभ के लिये लोग ये हिम्मत करने की ज़ुर्र्त नहीं करते ! न जाने कितने अपनों के माथे पर बल पड गये होंगे ! एक बार फिर से रविकांत को बहुत बहुत बधाई !
अर्श
बहुत सुन्दर ग़ज़ल है रवि जी. इससे पहले राजेन्द्र स्वर्णकार जी की भी बहुत सुन्दर ग़ज़ल आई थी, लेकिन मेरा कमेंट शायद स्पैम में चला गया :(
जवाब देंहटाएंआदरणीया वंदना अवस्थी दुबे जी
हटाएंमेरी ग़ज़ल को यहां याद करने के लिए आभारी हूं …
लेकिन , मेरा एक कमेंट तो कम हो ही गया न :(
स्नेहाशीष बनाए रहें …
सादर
राजेन्द्र स्वर्णकार
पंकजभाईजी को आज के पोस्ट की भूमिका लिये हृदय से साधुवाद.
जवाब देंहटाएंसत्य है, सम्मिलन तथा स्वीकार्यता की उदार प्रक्रिया एकांगी नहीं होनी चाहिये.
रचनाकार किसी मज़हब का नहीं होता वो भाषा का होता है. आपके इस वाक्य के लिये आपके प्रति आभार.
भाषायी श्रेष्ठता का उथलापन हो अथवा भाषा के संदर्भ में अंधानुकरण की मानसिक दासता दोनों ही त्याज्य हैं. शब्द और शिल्प के प्रति भाव तथा स्वीकार्यता एक बात है. यह स्तुत्य है. किन्तु, किसी विधा को सांगोपांग जानने के क्रम में भाषा विशेष के वर्ण-विन्यास से खिलवाड़ एकदम से दूसरी बात है. अपनी सीमाओं को समझना और तदनुरूप स्वीकारना अपने सामर्थ्य को बढ़ाना होता है. यह तथ्य किसी व्यक्तित्व-विकास के परिप्रेक्ष्य में जितना सही है उतना ही किसी भाषायी समृद्धि का ’सत्व’ है.
आज के तथाकथित प्रतिष्ठित रचनाकारों की रचनाधर्मिता पर आपकी सोच से शत्-प्रतिशत् सहमत हूँ. मसखरी कविसम्मेलनों की जिस तरह से पर्याय होती जा रही है कि वस्तुतः दुख होता है. हास्य कविसम्मेलन के नाम पर कोरी चुटकुलेबाज़ी को जाने कबतक झेलना होगा.
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भाई रविकांतजी को सापेक्ष सुनना हो अथवा उन्हें पढ़ना मेरे लिये दोनों ही तोषकारी अनुभव रहे हैं.
आपकी प्रस्तुत ग़ज़ल के लिये इतना ही कहूँगा कि मान्य शब्दों का संतुलित व सटीक प्रयोग भाषायी संस्कार का द्योतक है. संशय नहीं, आपका रचनाकर्म गहन है. अपनी रचनाओं और ग़ज़लों के माध्यम से वैचारिकता को पुनर्प्रतिस्थापित करने का आपका सुप्रयास आजकी भूमिका में उद्धृत पंकजभाईजी की हिन्दी कवियों की दशा पर हुई चिंता के निराकरण हेतु हुआ सद्प्रयास सदृश है. रवि भाई, आपको आपके रचनाकर्म के प्रति मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ.
वाक् जगत के परा, पश्यन्ति, मध्यमा और वैखरी स्तर पर पंकजभाईजी की संक्षिप्त टिप्पणी पर मेरा इतना ही निवेदन है कि भोजपुरी भाषा में प्रयुक्त शब्द बयखरा (बैखरा) का अर्थ शोरगुल, हल्लागुल्ला और उधम मचाने से सम्बद्ध है. उसका मूल यह ’वैखरी’ ही है. एक वाक्य संदर्भ में ले रहा हूँ --उहवाँ का बैखरा भइल बा, ए भाई? अर्थात्, ’वहाँ क्या शोरगुल मचा है, ऐ भाई?’
रवि भाई को पुनः हार्दिक बधाइयाँ.
--सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)
आ. सौरभ जी एक भोजपुर निवासी होने के नाते मुझे जो पता है... बैखरा का मतलब बेचैनी से है !काहे बैखराईल बाडअ.. क्यूँ बेचैन हो ! शोर गुल के लिये हाला गुदाल इस्तेमाल किया जाता है !
हटाएंअर्श
हो सकता है, अर्श भाई आप अपनी जगह ठीक हों. किन्तु, मैंने जो वाक्य दिया है वह मेरा नहीं है.
हटाएंआपने जिस तर्ज़ पर अपनी बात कही है, उसमें ’वैखरी’ के विस्तार हम समझें. ’हाला या गुदाल’ पर्याय हैं. किन्तु, ’बैखरा’ में शाब्दिकता को अधिक महत्त्व है. अक्सर किशोरों-बच्चों की चिल्लपों को हमारी ओर इस तरह से इंगित करते हैं.
धन्यवाद.
एक और सटीक शब्द है -- गादहि या गादह. यथा, ओह घरे मारि गादहि (गादह) भइल बा. याने, उस घर में खूब हंगामा मचा हुआ है.
हटाएं:-))
आज के आपाधापी दौर में यह मंच क्या और कितना महत्व रखता है, ये बात भूमिकाओं से स्पष्ट है.
जवाब देंहटाएंशब्दों के साधक भाषा संस्कृति सरोकार से जुड़े होते हैं.
जवाब देंहटाएं♥
रविकांत पांडेय जी
नमस्कार !
तुमको छूकर महकने लगी चांदनी
और हवा भी ठुमकने लगी है प्रिये
प्यारा शे'र …
पूरी ग़ज़ल अच्छी है …
शुभकामनाओं सहित…
-राजेन्द्र स्वर्णकार
जब जब भी रवि को पढ़ा और सुना है, यस सत्यापित हो गया कि कावय का स्वर्ण युग कहीं विलुप्त नहीं हुआ.कोमल भावनाओं को अछूते शब्दों के गहने पहनाना रवि के लेखन की विशेषता रही है. यह रचना भी रवि के काव्य कौशल को प्रमाणित करती है.
जवाब देंहटाएंजहाँ तक कवि सम्मेलनों और मुशायरों के बीच की दूरी का प्रश्न है, संभवत: वहाँ के आयोजकों को कुछ यहाँ के परिवेश से सीखना चाहिये. हमारे यहाँ होने वाले सम्मेलन और मुशायरों में भाषा का व्यवधान नहीं होता. कई बार हिन्दी, गुजराती, पंजाबी और उर्दू के सम्मिलित कार्यक्रम होते रहे हैं. अभी भी १४ जुलाई को वाशिंगटन मेट्रो क्षेत्र में अल्लेगढ़ एलम्नाई एसोशियशन और ग्लोबल आर्गेनाईजेशन ओफ़ पीपुल्स आफ़ इंडियन ओरिजिन के तत्वावधान में सामूहिक मुशायरा और कवि सम्मेलन का आयोजन है.ऐसे आयोजन वर्ष में तीन या चार होते रहते हैं.
कोमल भावनाओं से सजी रविकांत भाई की ग़ज़ल पढ़ कर आनंद आ गया.उनकी यह ग़ज़ल निश्चय ही तरही को नया आयाम दे रही है. बधाई स्वीकार करें. गुरुदेव इस बार भूमिकाओं में जिस विस्तार से प्रासंगिक प्रश्नों पर चर्चा कर रहे हैं,उससे भी इस तरही का महत्व बहुगुणित हो गया है.
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