प्रीत की अल्पनाएं सजी हैं प्रिये
आज गुरू पूर्णिमा है । उन सबको प्रणाम जो अभी तक जीवन में किसी न किसी प्रकार से मेरे मार्गदर्शक रहे । जिन्होंने रास्ता दिखलाने का काम किया । 5 सितंबर और गुरू पूर्णिमा में बड़ा फर्क है । वही फर्क जो शिक्षक और गुरू में होता है । शिक्षक पूर्व निर्धारित पाठ्यक्रम की शिक्षा देने का काम करता है, जबकि गुरू अपने अनुभवों द्वारा बनाये गये पाठ्यक्रम का ज्ञान प्रदान करता है । शिक्षक का महत्व कम नहीं है, किन्तु गुरू के साथ उसकी तुलना नहीं की जा सकती । याद करता हूं तो कई नाम आते हैं जो गुरू के रूप में मिले और जो अपने अनुभवों के संचित जल से मेरे जीवन को सिंचित करके चले गये । मेरे जीवन के पहले गुरू मेरे शिक्षक ही थे । आज उन सबको नमन करता हूं प्रणाम करता हूं । एक उस्ताद द्वारा कही हुई बात याद आती है 'सफल व्यक्ति कभी बहुत अच्छा गुरू नहीं हो सकता, गुरू बनने के लिये जीवन में संघर्ष जुरूरी हैं क्योंकि संघर्षों से ही अनुभव जन्म लेते हैं ।'' मैं ये सोचता हूं कि गुरू और शिल्पकार में कोई अंतर नहीं होता है । गुरू भी शिल्पकार की ही तरह अनगढ़ पत्थर को प्रतिमा बनाने का काम करता हैं । मैं भी कभी यूं ही अनगढ़ पत्थर था जिसे कई कई शिल्पकारों ने गढ़ कर, तराश कर कुछ बना दिया । जितना बन पाया वो सब कुछ उन शिल्पकारों के कारण हूं और जो नहीं बन पाया वो अपनी ही ग़लतियों के कारण । उन सब शिल्पकारों को ये शेर समर्पित करता हूं ।
मुझमें जो कुछ भी बुरा है, सब है मेरा
और जो कुछ भी है अच्छा, आपका है
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
आज इस पावन अवसर पर मैंने धर्मेंद्र कुमार सिंह की ग़ज़ल को मुशायरे के लिये चुना है । इसलिये चुना है कि ये ग़ज़ल उस्तादों द्वारा कही गई उस बात को सिद्ध करती है कि ग़ज़ल में कम शेर होना चाहिये । मतले के अलावा केवल पांच शेर और पांचों अत्यंत प्रभावशाली शेर । मुसलसल ग़ज़ल के बारे में उस्तादों का कहना है कि ये छोटी होना चाहिये क्योंकि एक ही विषय का बार बार देर तक दोहराव श्रोता को थका देता है । वैसे तो उस्तादों का ये भी कहना है कि ग़ज़ल कोई भी हो उसमें शेर कम होने चाहिये । हम सब जब ग़ज़ल कहने बैठते हैं तो अक्सर 15 से 20 शेर निकाल लेते हैं । उसके बाद किसी बर्बर आलोचक की तरह अपने ही लिखे उन 15 से 20 शेरों में से 5 या 6 शेर छांटना ही मुख्य काम है । खैर आइये सुनते हैं धर्मेंद्र कुमार सिंह की ग़ज़ल ।
धर्मेन्द्र कुमार सिंह
अनछुए फूल चुनकर रची हैं प्रिये
प्रीत की अल्पनाएँ सजी हैं प्रिये
इनसे कोई ग़ज़ल मैं न कह पाऊँगा
आज के भाव बेहद निजी हैं प्रिये
मन की वंशी पे मेंहदी रची उँगलियाँ
रेशमी आग सी छेड़ती हैं प्रिये
ऐसे घबराओ मत रोग है ये नहीं
प्रेम में रतजगे कुदरती हैं प्रिये
प्यास, सिहरन, जलन, दौड़ती धड़कनें,
ये सभी प्रेम की पावती हैं प्रिये
एक दूजे का आओ पढ़ें हाल-ए-दिल
अब हमारे नयन डॉयरी हैं प्रिये
क्या कहूं नि:शब्द हूं । आप भी समझ गये होंगे कि क्यों मैंने आज के लिये इस ही ग़जल़ को चुना । पांचों शेर ज़बरदस्त । मतले में यद्यपि ईता बन रहा है किन्तु विशुद्ध हिंदी ग़ज़ल के प्रकरण में वो दोष क्षम्य है । तरही के नियमों के हिसाब से मतले में ही मिसरा ए तरह की गिरह बांधना भी ग़लत है । किन्तु ये दोनों दोष नीचे के पांच शेरों की रौशनी में क्षम्य हो रहे हैं । पहला ही शेर इतना सुंदर बन पड़ा है कि बस 'आज के भाव बेहद निजी हैं प्रिये' उफ, ये है प्रेम । ऐसे घबराओ मत रोग है ये नहीं में मिसरा सानी यूं आया है मानो कोई आषाढ़ी बादल अचकचा के बरस पड़ा हो । ( अचकचा मालवी शब्द है । ) । एक बार फिर उस्तादों द्वारा कही गई बात को कोट करना चाहूंगा 'अधिक शेरों की भीड़ में अच्छे शेर भी अपना प्रभाव नहीं दिखा पाते ' । इसकी स्थापना में एक ही बात कहना चाहूंगा कि यद्यपि ये शे'र है , जंगल के शेर नहीं, फिर भी जंगल के शेर और इसमें ये समानता होती है कि सिंह शावक संख्या में कम होते हैं । बहुत सुंदर ग़ज़ल ।
पंकज वाक़ई बहुत सुंदर ग़ज़ल का चयन किया तुम ने सभी शेर बहुत अच्छे हैं ख़ास तौर पर
जवाब देंहटाएं"इन से कोई ग़ज़ल मैं न कह पाऊंगा
आज के भाव बेहद निजी हैं प्रिये"
कुछ न कह कर भी बहुत कुछ कह रहा है ये शेर
बहुत बहुत बधाई हो धर्मेंद्र जी
बहुत बहुत शुक्रिया
हटाएंअज तो एक्लाव्य का भी प्रणाम स्वीकार हो। शत शत नमन गुरूदेव्!धर्मेन्द्र जी गज़ल तो कमाल है
जवाब देंहटाएंमन की वंशी-----
इनसे कोई गज़ल----
धर्मेन्द्र जी का हर गज़ल ही उस्तादाना होती है। उन्हें बहुत बहुत बधाई।
इतना भी मत चढ़ाइए। कितनी तो उल्टी सीधी कही हैं मैंने। बहुत बहुत शुक्रिया
हटाएंमनभावन ग़ज़ल के लिये धर्मेन्द्र जी को बहुत बहुत बधाई। (हर शे"र कामयाब नज़र आ रहा है)
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया दानी जी
हटाएंअद्भुत...विस्मयकारी...बेजोड़...ऐसे ही और शब्द ढूंढ के लाता हूँ...क्या ग़ज़ल कही है...सुभानाल्लाह...
जवाब देंहटाएंनीरज
ज़र्रानवाज़िश........ऐसे ही और शब्द ढूँढ के लाता हूँ। शुक्रिया
हटाएंबहुत सुन्दर गज़ल है पंकज जी....
जवाब देंहटाएंसांझा करने का शुक्रिया.
गुरु पर्व की अनेकों शुभकामनाएं...
आशीर्वाद चाहती हूँ....
सादर
अनु
बहुत खूबसूरत गज़ल पंकज जी....
जवाब देंहटाएंसांझा करने का शुक्रिया...
गुरु पर्व की अनेकों शुभकामनाएं...
आशीवाद चाहूंगी.
सादर
अनु
शुक्रिया
हटाएंआज के भाव बेहद निजी हैं प्रिये। सब कुछ कह दिया भाई,जिन पलों में अस्तित्व ही खो जाये उनमें घटा कहॉं याद रहता है।
जवाब देंहटाएंहम कहॉं थे, तुम कहॉं पर, याद ये किसको रहा,
एक लम्हा याद है जिसमें बहुत कुछ हो गया।
धन्यवाद, धन्यवाद
हटाएंतिलक जी ये शे'र कमाल का पढने को मिला ! .... पर की जगह 'पर' ही है या फिर 'थे' ...
हटाएंधर्मेन्द्र जी की ग़ज़ल पढ़कर जन्मा शेर है, उस समय ज्यादह सोचा नहीं; बस जड़ दिया।
हटाएंइसपर बाद में ग़ज़ल कहने का विचार आया तो अंमि रूप ये दिया है:
मैं कहॉं था, तुम कहॉं पर, याद ये मुझको नहीं
एक लम्हा याद है, जिस में बहुत कुछ घट गया।
'गया' रदीफ़ रखते हुए कहने का मूड बन रहा है।
‘घट’ को काफिया लीजिए ‘गया’ तो बड़ा कॉमन काफ़िया हो जाएगा।
हटाएंयही न है भाई, 'घट' काफि़या और 'गया' रदीफ़।
हटाएंओह मैं फिर कन्फ़्यूजिया गया था
हटाएंइस तरह की ग़ज़ल कहने लगे हैं.. . कन्फ्यूजियाना तो बहुत ही सहज परिस्थिति है, भाई !
हटाएं:-)))
हुजूर आपको तो इंडियन टीम में होना चाहिए था मौका मिलते ही चौका लगा देते हैं। :)))))))))))
हटाएंआपके गजल मुछे बहुत अच्छे लगे|
जवाब देंहटाएंजी मेल पर अपना नया अकाउंट कैसे बनाएँ
शुक्रिया
हटाएंकमाल की गज़ल कही है धर्मेद्र जी..
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत बधाई.
शुक्रिया जनाब
हटाएंईता दोष रह गया। क्या कहूँ बहुत गुस्सा आ रहा है। ऐसा लग रहा है कि परीक्षा में आता हुआ प्रश्न गलत करके चला आया। गुर्रर्रर्रर्र...............। मतले में तरही मिसरे को बाँधा जा सकता है या नहीं इसके बारें में मुझे कनफ़्यूज़न था। आज दूर हो गया। आगे से ध्यान रखूँगा।
जवाब देंहटाएंगुरु पूर्णिमा के अवसर पर आप सबको नमन क्योंकि आप सबसे मैंने कुछ न कुछ सीखा है। आगे भी सीखता रहूँगा।
सुबीर जी की ज़र्रानवाज़ी पर मुझे एक दोहा याद आ रहा है।
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट।
अंतर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट॥
कोई बात नहीं । वैसे भी छोटी ईता का दोष है । अर्थात सजी और रची में ई की मात्रा को हटाने के बाद सज और रच शब्द बच रहे हैं जो कि मुकम्मल शब्द हैं । इसलिये छोटी ईता बन रही है । मगर जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है कि हिंदी लिपि में छोटी ईता का दोष मायने नहीं रखता है, बड़ी ईता नहीं होनी चाहिये । और यहां तो ग़ज़ल ही हिंदी की है । चूंकि हिंदी में मात्रा अक्षर का हिस्सा बन जाती है उससे अलग नहीं होती उर्दू की तरह । उर्दू में मात्रा हर्फ है (खड़ा हूं आज भी 'रोटी' के चार हर्फ लिये) जबकि देवनागरी में मात्रा को अक्षर का दर्जा नहीं दिया गया है । श्री कुंवर बेचैन ने भी देवनागरी में छोटी ईता को जायज़ माना है ।
हटाएंजहां तक मतले में मिसरा ए तरह की गिरह लगाने का प्रश्न है तो उसको जायज़ नहीं माना गया है । गिरह किसी अन्य शेर में लगनी चाहिये । ताकि आपकी गिरह का सौंदर्य पता चल सके । मतले में तो आसानी होती है गिरह बांधने में ।
मत्ले के शेर में एक बार मैने भी गिरह बॉंध दी, वीनस मेरे कान पकड़ कर लटक गया। तब मुझे मालूम हुआ कि अच्छे बच्चे ऐसा नहीं करते। ये कोई पुरानी बात नहीं अभी दो महीने पुरानी है। मुझे भी नहीं पता था ये। इसीलिये मैं बार-बार कहता हूँ कि इल्म-ए-अरूज़ पूरा का पूरा हिन्दी में अनुवादित होना चाहिये। शिवना प्रकाशन के प्रयास से यह काम भी अब हो गया है और हिन्दी पुस्तक उपलबध है डॉ. आज़म की लिखी हुई।
हटाएंगिरह मत्ले के अलावा किसी और शेर में लगाने का एक और कारण मुझे समझ आया वह साझा कर रहा हूँ। गिरह में आप किसी अन्य शायर का मिस्रा प्रयोग में ला रहे हैं जो स्वाभाविक है कि तरही के अलावा आप कभी नहीं चाहेंगे कि आपका ग़ज़ल का अंश बने। इसका हल यही है कि मिस्रा-ए-तरह मत्ले से इतर शेर में हो जिससे उस शेर को बाद में छोड़कर आपकी ग़ज़ल पूरी रहे।
आप दोनों की व्याख्या के बाद ये बात पूरी तरह से स्पष्ट हो गई कि मत्ले में गिरह नहीं बाँधी जानी चाहिए। इस बार के मुशायरे में तो एक के बाद एक नई चीजें सीखने को मिल रही हैं।
हटाएंखुदा करे जोर-ए-वीनस और जियादा। :)))))))))))
गुरु पूर्णिमा पे नमन है मेरा गुरुदेव और सभी बंधुओं को बधाई और शुभकामनाएं ...
जवाब देंहटाएंधमेन्द्र जी की गज़ल के माध्यम से जो इशारों इशारों में आपने कहा है गुरुदेव उसको शिरोधार्य करने का प्रयास जरूर करेंगे सभी ...
इस कमाल की गज़ल का हर शेर प्रेम की भीनी फुहार लिए है ...
इनसे कोई गज़ल मैं न कह पाऊंगा ... जब प्रेम में डूबे हों तो गज़ल बिन कहे ही निकल आती है ...
प्यास, सिरहन, जलन ... ये तो होना ही है प्रेम में अब प्रिये ...
और आखरी शेर ... तो जैसे डायरी ही बन हया है ... वाह ... लाजवाब गज़ल है धर्मेन्द्र जी ...
बहुत बहुत शुक्रिया जनाब
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंमनभावन प्रस्तुति ।।
जवाब देंहटाएंइस प्रविष्टी की चर्चा बुधवार के चर्चा मंच पर भी होगी !
सूचनार्थ!
शुक्रिया रविकर जी
हटाएंगुरुदेव को चरण स्पर्श कर प्रणाम. आपका आशीर्वाद और प्यार यूँ ही बना रहे.
जवाब देंहटाएं------------------
धर्मेन्द्र जी ने बहुत खूब शेर निकालें हैं,
"इनसे कोई ग़ज़ल मैं न कह पाऊँगा..........." जब उला से सानी जुड़ रही है तो कमाल का शेर उभर के आ रहा है. मुबारकबाद
"ऐसे घबराओ मत रोग है ये नहीं...........", वाह वा. अंदाज़े बयां के क्या कहने.
"प्यास, सिहरन, जलन, दौड़ती धड़कनें,.........", लाजवाब शेर. ''प्रेम की पावती''. अहा.........
"एक दूजे का आओ पढ़ें हाल-ए-दिल...............", वाह वा. डायरी काफिये का मारक प्रयोग.
ढेरों दाद कुबुलें इस खूबसूरत ग़ज़ल के लिए.
बहुत बहुत शुक्रिया अंकित जी
हटाएंगुरु देव को दंडवत प्रणाम,
जवाब देंहटाएंआपका आशिर्वाद ऐसे ही मिलता रहे गुरुवर !
धर्मेन्द्र भाई से दिल्ली में गुरु देव आपके ही एक कार्यक्रम के दौरान मुलाकात हुई थी.. बेहद मृदुभाषी और विनम्र हैं धर्मेन्द्र भाई ! इंजीनियर हैं तो ये ज़ुरूर कह सकता हूँ कि शब्दों की इंजीनियरिंग इन्हे बख़ूबी आती है ! मन की वंशी वाले शे'र के जाल से निकल नहीं पा रहा ! बेहद ख़ुब्सूरत शे'र है ! बहुत बहुत बधाई और मुबारक़बाद धर्मेन्द्र भाई को !
अर्श
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हटाएंधन्यवाद प्रकाश जी
हटाएंबहुत ही प्यारी ग़ज़ल कही है धर्मेन्द्र
जवाब देंहटाएंशुक्रिया मुकेश जी
हटाएंआज के महत्त्वपूर्ण दिवस पर सादर अभिनन्दन.
जवाब देंहटाएंआदरणीय पंकजभाईजी, ’अचकचाना’ शब्द हमारी तरफ़ भी खूब प्रचलित है. भोजपुरी में ’अचकचाना’ और ’चिहाँना’ अभिव्यक्तियों को आवश्यक भाव दे जाते हैं.
***************
भाई धर्मेन्द्र जी की आँखों से बहती आत्मविश्वस्ति और चेहरे से अनवरत सरसती मोहक हँसी आपके व्यक्तित्व का अन्योन्याश्रय हिस्सा हैं. आपकी कविताएँ हों, छंदबद्ध रचनाएँ हों, गद्यात्मक अभिव्यक्तियाँ हों या फिर ग़ज़लें हों, ऊपर से भले निर्लिप्त सी प्रतीत होती हैं, शाब्दिकता कौतुक भरी हो, उनकी अंतर्धारा सदा ही उद्वेगमयी रहती हैं. उनमें हूँकारता हुआ आलोड़न होता है जिसका भान उन पंक्तियों में बार-बार डूबने से ही हो पाता है.
प्रस्तुत ग़ज़ल भी अपवाद नहीं है. प्रत्येक शेर अनुभवजन्य है. भावपगा है. अनुभव जीये हुए पलों का भावुक समुच्चय हुआ करता है. इस हिसाब से अभिव्यक्तियाँ जितनी दीखती हैं उससे अधिक अलोत हुआ करती हैं, एक भाग सतह के ऊपर, नौ भाग सतह की नीचे ! उसी नौ भाग नीचे को इंगित करने के लिये आदरणीय भाई पंकजजी को सादर साधुवाद !!
भाई धर्मेन्द्र जी को प्रस्तुत अभिनव ग़ज़ल के लिये हार्दिक बधाई व शुभकामनाएँ.
--सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)
बहुत बहुत धन्यवाद सौरभ जी, आपकी टिप्पणियों से बहुत हौसला मिलता है।
हटाएंकह रही है गज़ल हमसे धर्मेन्द्र की
जवाब देंहटाएंआईना देख कर अब बगल झांकिये
आज हमको बताने लगी ये गज़ल
कल्पना गीत में इस कदर ढालिये
आपके एक गीत पर ऐसी सैकड़ों ग़ज़लें कुर्बान करनी पड़ेंगी। आप एक पंक्ति में जितने बिम्ब और रूपक ले आते हैं उतने तो इस पूरी ग़ज़ल में भी नहीं होंगे। पसंद करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंबहुत सुन्दर , बधाई ..
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंप्रेमजनित अभिव्यक्ति का स्तर ऊपर बढ़ा दिया कविता ने..
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएंइस मुशायरे की सभी ग़ज़लें एक से बढ़कर एक हैं। यह बेहद खूबसूरत लगी... धर्मेंद्र जी को और पढ़ने की इच्छा जाग गई है..
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया
हटाएंधर्मेन्द्र जी की अपनी एक ख़ास शैली है,जो मुझे अच्छी लगती है. इस ग़ज़ल में भी उनकी सोच और कहन का यह अनूठापन हर शेर में जाहिर है. इस बेहद सुन्दर रचना के लिए ढेरों मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं.
जवाब देंहटाएंकोटिशः धन्यवाद सौरभ जी
हटाएंअनछुए फूल चुन कर रची है प्रिये !
जवाब देंहटाएंक्या बात है धर्मेंद्र जी ! क्या खूबसूरत मतला !
इनसे कोई ग़ज़ल मैं न कह पाऊँगा,
आज के भाव बेहद निजी है प्रिये।
अहा क्या नयी सी बात इस लिखी है इस बार की जमीन पर... शायद ही किसी ने इस तरह सोचा होगा।
और अब इस संयोग श्रृंगार पर भाई की जो भाव प्रवण लेखनी चली है, उस पर बहन को मुस्कुरा कर खूब कह कर आगे चल देना चाहिये।
बस इतना जान लीजिये कि बार बार पढ़ी जायेगी और कई दिन तक पढ़ी जायेगी।
हर शेर प्रशंसा के लिये शब्दों का अकाल पैदा कर दे रहा है।
पता नहीं था कंचन दी को ग़ज़ल इतना पसंद आएगी वरना दो चार शे’र और कह देता। बहुत बहुत शुक्रिया दी
हटाएंमेरे भाई ! सुंदर चीजें अधिकांशतः संक्षिप्तता और लघुता में ही स्थान लेती हैं। जितनी है, उतनी ही नही संभाली जा रही। कुछ अब हम लोगों के लिये भी छोड़िये... :) :)
हटाएंशिक्षक व गुरु को आपने जिस तरह परिभाषित किया-उस प्राप्त ग्यान के लिये
जवाब देंहटाएंसादर आभार,अन्यथा हम जैसे अनिभिग्य अपूर्ण ही रह जाते.
सही कहा,गुरु बनने के लिये,जीवन में संघर्ष जरूरी है----गुरु शिल्पकार भी है.
आपके द्वारा चुनी व प्रस्तुत,श्री धर्मेंद्र जी की ’गज़ले’ं सटीक रहीं—
’ऐसे घबराओ मत रोग है नहीं
प्रेम में रतजगे कुदरती हैं प्रिये, वाह!!!
बहुत बहुत शुक्रिया
हटाएंगुरु पूर्णिमा के मौके पर ज्यादा कुछ कहना मुश्किल है मेरे लिए. गुरुदेव को प्रणाम!!!
जवाब देंहटाएं--
अब तो हर बार तरही में इन्तजार रहता है कि धर्मेन्द्र जी क्या ख़ास लायेंगे. और आज जो कुछ मिला वो सुन्दर मोती के सामान हैं.
एक दूजे का आओ पढ़ें हाल-ए-दिल... बहुत खूब कही धर्मेन्द्र जी आपने.
आपसे मुलाक़ात के पल तारो ताजा हो गए फिर से.
बहुत बहुत शुक्रिया सुलभ जी
हटाएं
जवाब देंहटाएं♥
धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी
नमस्कार !
आहाऽऽह ! इतना बेहतरीन !!
… बधाई !
हार्दिक शुभकामनाएं !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
हृदय से धन्यवाद राजेन्द्र जी, स्नेह बनाए रखिए
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