यदि हम तंत्र की बात करते हैं तो उसमें सब शामिल होते हैं । और उन सबमें हम भी होते ही हैं । मगर हम अक्सर व्यवस्था, राजनीति, अफसरशाही इन सबको तो खूब अपनी रचनाओं में कटघरे में खड़ा करते हैं,किन्तु, अपने आप को नहीं । हम जिनको आम आदमी या मैंगो पीपल कहा जाता है । हम क्या कम दोषी हैं । हम भी दोषी हैं । हम ही तो होते हैं जो एक स्वच्छ छवि वाले उम्मीदवार और अपराधी में से अपराधी को वोट देते हैं । हम जो रेलवे की टीसी को सुविधा शुल्क लेकर बर्थ प्राप्त करते हैं । हम जो ड्रायविंग लायसेंस बनवाने के लिये इसलिये पैसे दे देते हैं क्योंकि हम यातायात के सिग्नल, नियम आदि को याद नहीं करना चाहते । हम ही होते हैं हर जगह । दीवारों पर पान थूकते हुए, अपने उत्पादों के पोस्टर चिपकाते हुए, सड़क पर पहले एक दो पेड़ लगाकर फिर चबूतरा बना कर अतिक्रमण करते हुए, सब जगह हम ही हैं । तो क्यों न अपने पर भी लिखा जाए । लोकतंत्र में लोक की कायरता से ही सारी समस्याएं पैदा होती हैं । एक क्या एक हजार अन्ना हजारे आकर आंदोलन खड़ा कर दें, कोई परिवर्तन नहीं आने वाला क्योंकि हम तो ये चाहते हैं कि दिल्ली में बैठा मंत्री भ्रष्टाचार करना बंद कर दे लेकिन हमारे जिले का परिवहन अधिकारी भ्रष्ट ही रहे क्योंकि हम तो अपनी 50 सवारियों की क्षमता वाली बस में 75 सवारियां बैठाना चाहते हैं । हम चाहते हैं कि प्रदेश का बिजली मंत्री ईमानदार हो किन्तु हमारे इलाके का बिजली विभाग का लाइनमैन भ्रष्ट हो ताकि हम उससे अपने मीटर में जब चाहे सुविधा कार्य करवा सकें । यही हमारे समयका सबसे बड़ा सच है । एक बैंक में ऑडिट के लिये आया अधिकारी अन्ना के पक्ष में धुंआधार बहस कर रहा था, उस अधिकारी की सोच थी कि अब अन्ना सब कुछ बदल डालेंगे । । कुछ देर बाद लंच हुआ और जैसी की परंपरा है बैंक की ओर से ऑडिटर को शानदार होटल में लंच के लिये ले जाना था । उठते उठते किसीने पूछा कि सर आपको तो टीए डीए सब कुछ मिलता है फिर आप अपने पैसों से खाना न खाकर बैंक के पैसों से क्यों खा रहे हैं । वे तिलमिला उठे और कुतर्क पर उतर आए । बस यही हम सबकी कहानी है ।
''ये क़ैदे बा मशक्कत जो तूने की अता है''
आज हम दो गुणी शायरों को सुनने जा रहे हैं । दोनों ही मेरे पसंदीदा शायर हैं । द्विजेन्द्र द्विज जी तो वैसे भी हमेशा से इसी मूड में शायरी करते हैं जो हमारे इस बार के तरही का मूड है । उनकी शायरी आम भाषा में बात करती है । और सौरभ शेखर की ग़ज़लों में अचानक आए बिम्ब हैरत में डाल देते हैं । द्विजेन्द्र द्विज जी जहां वर्तमान की हिन्दी ग़ज़लों का चेहरा हैं वहीं सौरभ शेखर भविष्य की हिन्दी ग़ज़लों का चेहरा है । आइये दोनों को एक साथ सुनें ।
श्री द्विजेन्द्र द्विज जी
जब हर हसीन मंज़र आँखों से छिन गया है
ये भी कोई सफ़र है या कोई बद्दुआ है
काटी है जैसे मैंने मेरा ही हौसला है
‘यह क़ैद-ए-बामशक़्क़त जो तूने की अता है’
सारे बदन में जिसका अब जो असर दिखा है
वो जह्र तो लहू में बरसों से घुल चुका है
सच्चा ग़रीब चेहरा गुमनाम हो चुका है
धनवान का मुखौटा अख़बार में छपा है
इस तेज़ रौशनी में चुँधिया गई है आँखें
इससे बड़ा बताओ क्या और हादिसा है
दरअस्ल खाइयाँ हैं जिनपे है नाज़ हमको
कैसी बुलन्दियाँ हैं हमने जिन्हें छुआ है
मुश्किल है अब हमारा इस साज़ से बहलना
जिसे वो बजा रहे हैं वादों का झुनझुना है
किसके लिए है मुमकिन काँधों पे सर को रखना
खुद्दारियों को किसने गिरवी नहीं रखा है
अब ख़त्म हो चुका है जादू तमाम उसका
जिसे सुन रहे हो अब वो सस्ता-सा चुटकुला है
आवाज़ घुट गई है , पथरा गई हैं आँखें
यहाँ ख़ौफ़ पासबाँ है, यहाँ ज़िन्दगी ख़फ़ा है
मुझसे ही पिट रही हैं सारी मेरी दलीलें
मैं ख़ुद खड़ा हूँ जिसमें मेरा ही कटघरा है
जब इक नदी बनेंगे पलकों में क़ैद आँसू
आँखों में मेरी अब भी सपना ये तैरता है
दरअस्ल खाइयां हैं जिनपे है नाज़ हमको, जैसा कि मैंने पहले ही कहा था कि द्विजेन्द्र जी हमेशा से ही इस रंग में कमाल करते आ रहे हैं तो जा़हिर सी बात है कि इस प्रकार के प्रभावशाली शेर तो सामने आने ही थे । मुझसे ही पिट रही हैं सारी मेरी दलीलें, ये वही बात है जिसको लेकर मैंने भूमिका में चर्चा की है हम स्वयं को यदि कटघरे में नहीं खडा करेंगे तो हम किसी परिवर्तन की बात करने के योग्य भ नहीं है । द्विजेन्द्र जी के शेरों को छांट कर उन पर चर्चा करना ज़रा मुश्किल है क्योंकि हर शेर अपने आप में कहानी है । जब इक नदी बनेंगे पलकों में क़ैद आंसू क्या बात कह दी इस शेर में । आंसू जब नदी बन जाते हैं तो उस नदी के तेज़ बहाव में ही परिवर्तन आता है । सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह ।
सौरभ शेखर
हर आँख में उदासी, हर दिल बुझा-बुझा है
ये कौन रुत है यारों, मौसम ये कौन सा है
बाज़ार में ख़ुशी के सब ग़म खरीदते हैं
नुक्सान में अधिकतर, बस कुछ को फायदा है
मजबूरियां समझिए उस आदमी की साहब
सर कैसे वो उठाए, कर्जों तले दबा है
जो लोग जीतते हैं, वो मुझको भी बताएं
क्या जीतने के गुर हैं औ' कौन जीतता है
ऐ आसमान वाले कुछ सोच तो ज़मीं की
गर्मी की है न कोई, सर्दी की इंतिहा है
इन बेड़ियों से यारी कर के मैं काट लूँगा
'ये क़ैदे बामशक्कत जो तूने की अता है'
दुश्वारियां सफ़र की खुद मुझसे कह गईं हैं
'सौरभ' है अज़्म गर तो आसान रास्ता है।।
सबसे पहले तो गिरह के शेर की बात बहुत सुंदर तरीके से गिरह लगाई गई है । बेडि़यों से यारी करके कैद को काटने की जो बात कही है वो बहुत प्रभावशाली होकर सामने आई है । बाज़ार में खुशी के सब ग़म खरीदते हैं, ये शेर भी आज के बाज़ारवाद पर बहुत सटीक ढंग से अपनी बात कहता है । सचमुच हम सब यही तो कर रहे हैं । कुछ का फायदा और बाकियों का नुकसान। मगर सब को ये ही लग रहा है कि वे सब ही फायदे में हैं । बाजारवाद पर लिखा गया अनोखा शेर । मतला भी बहुत कुछ कह रहा है । हम सबकी कहानी कह रहा है । हम सब यही तो जानना चाहता हैं कि ये कौन सी रुत हम सबके जीवन में आ गई है । बहुत सुंदर ग़ज़ल खूब वाह वाह वाह ।
दोनों ही शायरों ने आज समां बांध दिया है । तो मन से दीजिये दोनों को दाद ।
मैं प्रतिक्रयावादी हूँ इसलिए शायद बुद्धिजीवी या लेखक हूँ, मैं संवेदनशील हूँ इसलिए शायद कवि हूँ। मैं मानवीय सरोकारों के प्रति सचेत हूँ शायद इसलिए एक स्वस्थ नागरिक हूँ... (आज की भूमिका की प्रतिक्रया में)... इस मंच से जुड़े बहुत से लेखक इसलिए भी आनंदित होते हैं कि वे ग़ज़ल के साथ साथ निरंतर वर्तमान पर भी संवाद करते हैं क्यूंकि वे स्वस्थ लोकतंत्र की स्थापना में अपनी जिम्मेदारी समझते है.
जवाब देंहटाएंआज की ग़ज़ल पर लौटता हूँ, पहले इत्मीनान से सुन लूं, क्यों की दोनों ही गज़लकार मेरे लिए प्रेरणादायी है.
हटाएंश्री द्विजेन्द्र द्विज जी, क्यों हम सबके बीच आदरणीय और बड़े भाई का दर्जा पाते है. ये तो पहले से ही स्पष्ट रहा है.
आज की ग़ज़ल अन्दर तक धंसती जा रही है।
मतला,,, वो जहर तो लहू में,,, अखबार और चैनल्स तो मुखौटो से भरे हैं।
"इस तेज रौशनी में चुंधिया गयी है आँखे; इससे बड़ा बताओ क्या और हादिसा है." ये गागर में सागर है, एक तस्वीर में सारे दृश्य, समस्त वर्तमान।
"दरअस्ल खाइयां हैं जिनपे हैं नाज़ हमको ...." आइना दिखालाते हैं ये शे'र। कुछ याद आ गया " गुजरना चाहते हो तो गुजर जाओ नज़र बचाकर, मैं आइना हूँ अपनी जिम्मेदारी तो निभाऊंगा ही।"
"मुश्किल है हमारा इस साज़ से बहलना ..." ये आवाम और तमाम वोटरों का दर्द है.
"किसके लिए है मुमकिन ..." मजबूरियों की इन्तेहा है.
"मुझसे ही पिट रही है सारी मेरी दलीलें...." बहुत खूब कहा है आप ने . वाह सर जी वाह।
"जब इक नदी बनेंगे पलकों में कैद आंसू ..." ये सपने मैं अपने साथ ले जा रहा हूँ।।
सुलभ भाई साहब
हटाएंग़ज़ल की विस्तृत समीक्षा और
स्नेह के लिए आभारी हूँ
सुलभ भाई साहब
हटाएंग़ज़ल की विस्तृत समीक्षा और
स्नेह के लिए आभारी हूँ
दोंनों शायर अपने चड़ते रंग पे है ..बहुत खुबसूरत और सटीक !
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत मुबारक कबूलें !
शुभकामनायें!
काटी है जैसे मैंने मेरा ही हौसला है ..
जवाब देंहटाएंसारे बदन मैं जिसका अब असर जो दिखा है ...
किसके लिए है मुमकिन कांधो पे सर को रखना
बहुत अच्छे शेर लगे
जो लोग जीतते है वो मुझको भी बताए .. बढ़िया
दोनों गजलो में तरही मिसरे वाले शेर लाजवाब है शायरों को बहुत बधाई।
पारुल सिंह जी
हटाएंआभार
क्या कहूँ? द्विज जी जैसे शायर की शायरी पे क्या कहूँ? वो मेरे उस्तादों में से एक हैं, उनकी ऊँगली पकड़ कर शेर कहना सीखा है अब भी सीख रहा हूँ।उनकी शायरी का विस्तार असीम है। जितने अच्छे इंसान हैं उतनी ही अच्छी शायरी करते हैं। सम -सामयिक विषयों पर उनकी कलम की धार देखते ही बनती है। देश और इसमें होने वाली गतिविधियों से वो कभी उद्वेलित होते हैं कभी पीड़ित।इंसान के गिरते आचरण पर अपनी चिंता व्यक्त करते हैं। उनकी शायरी हमारे समाज का आइना होती है। "काटी है जैसे मैंने,,," जैसी गिरह लगाना उन जैसे कद्दावर शायर के बस की ही बात है। एक एक शेर लाजवाब है , नतमस्तक हूँ उनकी बेमिसाल शायरी के समक्ष।
जवाब देंहटाएंभाई सौरभ अपनी ग़ज़लों से चौंकाते आये हैं। मुझे उनकी शायरी बहुत पसंद है, हालाँकि उन्हें बहुत नहीं पढ़ा पर जितना पढ़ा है उतने ने ही मुझे उनका फैन बना दिया है। "बाज़ार में ख़ुशी के ग़म,,,,वाह, गर्मी की है,,,और दुश्वारियां वाले शेर तो बेमिसाल हैं ही गिरह का शेर सबसे अलग और बेजोड़ है। कितनी भी तारीफ़ करूँ मन ही नहीं भर रहा।
आनंद आ गया गुरुदेव इन बा-कमाल शायरों को पढ़ कर। अपना तो दिन बन गया।
नीरज
मुझसे ही पिट रही हैं सारी मेरी दलीलें
जवाब देंहटाएंमैं खुद खड़ा हूँ जिसमें मेरा हि कटघरा है...नमन आपको और सुबीर साहब को जिनकी बदौलत ये ग़ज़ल हम तक पहुँची॥
गुरुदेव, आपकी भूमिका इतनी असरदार और सटीक है के बार बार लगातार पढ़ रहा हूँ। कित्ती सच्ची बातें कहीं हैं आपने। बातें जिन्हें हम जानते तो हैं लेकिन उनके लिए कुछ करते नहीं। हम अपने स्वार्थ के बंदी हैं।
जवाब देंहटाएंहालिया दिनों में बड़ी तेजी से किसी शख्स ने अपना मुरीद बनाया है वो हैं "श्री सौरभ शेखर"
जवाब देंहटाएं"बाज़ार" में से कितनी आसानी से ख़ुशी और ग़म को, दूध और पानी की तरह अलग कर दिया आपने। बहुत खूब वाह !!
"जो लोग जीतते हैं ..." ये मुझे रहस्मयी लग रहा है. दिमागी लड़ाइयों से दूर हमें वो ही पसंद आते हैं जो दिल से जीतने का जिगरा रखते हैं ... ग्लोबल वार्मिंग की भी खबर ली है आपने बातों बातों में। और मतला तो बस वो क्या कहते हैं "सुभान अल्लाह " एक आशा और उम्मीद भी है गिरह में, कि जब मुक्ति होगी सो होगी फिलवक्त तो सहजता से यारी कर लें ... हाँ भाई बिलकुल सफ़र को यादगार जो बनाना है तो क्यूँ न उत्साह से वक़्त काटा जाए, याराना निभाया जाये. बहुत सुन्दर।
द्विज जी का मैं फैन हूँ. उनका गज़ल संग्रह 'जन गण मन' कई बार पढ़ चुका हूँ. द्विज जी उस्ताद शायर हैं उनकी गज़लें जमीन से जुडी हुई होती हैं. इस गज़ल में भी द्विज जी ने हालात का सही चित्रण किया है. बहुत ही खूबसूरत गज़ल कही है. सभी शेर गजब के.
जवाब देंहटाएंसौरभ जी की गज़ल भी कमाल है. बहुत ही प्यारा मतला और खूबसूरत गिरह. फिर "मजबूरियाँ समझिए..","बाजार में खुशी के..", "दुश्वारियां..." बहुत बढ़िया शेर हैं. बहुत ही अच्छी गज़ल. बहुत बहुत बधाई.
किसी कारण से फायर फाक्स में टिप्पणी नहीं दे पा रहा हूँ!
जवाब देंहटाएंएक बार फिर से इस भूमिका को आत्मसात करने का प्रयास कर रहा हूं ... अपने अंदर झाँकने का प्रयास क्योंकि मैं भी खुद को इन्ही लोगों में से एक पाता हूं अपने आप को ... खुद में बदलाव कब आएगा ये तो पता नहीं पर याद रखने का प्रयास निरंतर हो ऐसा सोचता हं ... तभी शायद बदलाव भी आ सके ...
जवाब देंहटाएंद्विज जी उस्तादों के उस्ताद हैं ... उनकी गज़ल पे कोई टिप्पणी करना सूरज को दिया दिखाने जैसा है ... खयालों के विस्तृत आकाश से नायाब शेर निकलते हैं उनकी कलम से ... हम जैसे या तो उसका अनद ले सकते हैं या कुछ न कुछ सीख सकते हैं ... इस गज़ल ने इस मुशायरे को सड़क से हाइवे पर ला खड़ा किया है ...
जवाब देंहटाएंसड़क से हाइवे पर ला खड़ा किया है..... वाह दिगंबर भाई वाह क्या मिसाल दी है दिल खुश हो गया, इसके बाद कहने को कुछ बचा ही नहीं। हम जैसे तो जी उनके सामने पिछड़े से किसी गाँव की पगडंडियों जैसे हैं।
हटाएंसौरभ जी ने सभी शेर कमाल के कहे हैं ...
जवाब देंहटाएंबाज़ार में सभी के ... बहुत ही सामयिक शेर है ... आज के बाजारवाद को रेखांकित करता
जो लोग जीतते हैं ... आज की व्यवस्था पे करार चोट करता है ये शेर ...
इन बेड़ियों से यारी ... जीवन में समझोता करना ही पड़ता है खुशी से करो या दुखी रह के ... खुशी से जीने की कला है ये शेर ...
पूरी गज़ल लाजवाब है सौरभ जी की ...
रूह तक आनंद आ गया इन अशआर को पढकर
जवाब देंहटाएंअब आपकी ग़ज़ल के बारे में क्या कहूं आ. द्विज भाई साहब। सारी ग़ज़ल बहुत अच्छी। रोशनी वाला शे'र मेरे साथ है जो कह रहा है, मुझे रोशनी की सज़ा न दे। मैं चूंकि आपकी शायरी के पीछे के परिदृश्य का एक हिस्सा हूं इसलिए जानता हूं कि आपकी ग़ज़ल में जो संवेदना है वह अनुभूत है। इधर सौरभ शेखर भाई साहब की ग़ज़लें मुझे अपना बना रही हैं। आप दोनों को हार्दिक बधाई।
जवाब देंहटाएंद्विजेन्द्र द्विज जी की रगों में शायरी का फ़न जीता है। शेर-ओ-शायरी को जितना मैने समझा उसके अनूसार मैं एक अच्छा शेर उसको मानता रहा हूँ जो शब्दार्थ में भी पूर्ण हो और भावार्थ में उतरने को आमंत्रित करे। इसी बात को लेकर द्विज जी के शेर चलते हैं। चार मत्ले के शेर लिये यह ग़ज़ल भी इसकी तस्दीक करती है।
जवाब देंहटाएं‘किसके लिये है मुमकिन.......’ पर यही कहूँगा कि व्यवस्था कितनी भी चरमराई हुई हो, कुछ लोग इतनी मज़बूत रीढ़ रखते हैं कि सर कॉंधे पे रहे। व्यवस्था का भार तो सही अर्थों में यही लोग उठाते हैं।
‘मुझसे ही पिट रही हैं ....’ निंरतर आत्मानिरीक्षण ही सतत् बदलाव ला सकता है।
सौरभ शेखर जी ने मतले में जो प्रश्न खड़ा किया शायद वह हर प्रबुद्ध नागरिक का प्रश्न है।
‘मजबूरियॉं समझिये, उस आदमी की साहब
कैसे उठाये सर, जो कर्जे़ तले दबा है’
भी लगभग हर देशवासी की व्य्था-कथा है।
कुल मिला कर दोनों ग़ज़ल प्रभावकारी हैं।
//हम चाहते हैं कि प्रदेश का बिजली मंत्री इमानदार हो किन्तु हमारे इलाके का बिजली विभाग का लाइनमैन भ्रष्ट हो..//
जवाब देंहटाएंऔर, हमारी सोच, हमारी मानसिकता, अव्यावहारिकता सबकुछ किसी सुगठित मणिभ की तरह सामने स्पष्ट है !
बहुत खूब !
आजकी ग़ज़लें उन दो शायरों की हैं जिन्हें हम ’उन्होंने एक खास शैली विकसित कर ली है’ के साथ जानते-पढ़ते हैं.
भाई द्विजेन्द्र जी की ग़ज़लों को मैं जब भी पढ़ता हूँ, जहाँ भी पढ़ता हूँ, मन देर तक उक्त ग़ज़ल के वातावरण में होता है.
अभीकी ग़ज़ल के सारे अश’आर झिंझोरते हुए हैं. हर शेर जैसे हामी लेता हुआ है. मतले और गिरह के शेर अपनी जगह, जो अश’आर विशेष रूप से विशिष्ट लगे, वे हैं -
सारे बदन में जिसका.. .
दरअस्ल खाइयाँ हैं जिनपे है नाज़.. .
अब खत्म हो चुका है.. .
मुझसे ही पिट रही हैं.. .
बहुत कुछ समझने के लिए है, बहुत कुछ जानने के लिए है. बहुत-बहुत बधाई, भाईजी.
भाई सौरभ शेखर की ग़ज़ल का अंदाज़ बतियाता हुआ अंदाज़ लगा है हमें. यही तो ग़ज़लों का गुणधर्म भी है. इस लिहाज से सौरभ शेखर भाई से हम खूब सुनते हैं. और वे खूब सुनाते हैं.
आज की ग़ज़ल का मतला सबके दिलों के कहे की नुमाइन्दग़ी करता है. ये कहाँ आगये हम.. कहने के जैसा !!
और खूब-खूब बधाई गिरह लगाने के लिए. कितनी आसानी से कहा हुआ शेर ! वाह-वाह !
बाज़ार में खुशी के.. .
मजबूरियाँ समझिये.. .
जो लोग जीतते हैं .. . . यह शेर तो गोया सौरभ शेखर भाई के माहौल से उपजा शेर है ! ... :-))
बहुत-बहुत बधाई व शुभकामनाएँ भाई.
द्विज जी की तो हर ग़ज़ल शानदार होती है। ये भी अपवाद नहीं है। बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है और ऊपर से सुबीर जी की टिप्पणी तो सोने पर सुहागा है।
जवाब देंहटाएंसारे बदन में जिसका...
दर’अस्ल खाइयाँ हैं...
अब खत्म हो चुका है...
मुझसे ही पिट रही हैं...
बहुत ही खूबसूरत शे’र हैं। मत्ला और गिरह तो लाजवाब है ही। बहुत बहुत बधाई द्विज जी को।
सौरभ शेखर तो ग़ज़ल की दुनिया में तेजी से उभरता हुआ नाम है। शानदार ग़ज़लों से सबको अपना मुरीद बना रहे हैं सौरभ जी। शानदार ग़ज़ल कही है उन्होंने। गिरह भी बेहतरीन है। बहुत बहुत बधाई उन्हें इन शानदार अश’आर के लिए।
आप की ये खूबसूरत रचना शुकरवार यानी 8 मार्च की नई पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही है...
जवाब देंहटाएंआप भी इस हलचल में आकर इस की शोभा पढ़ाएं।
भूलना मत
htp://www.nayi-purani-halchal.blogspot.com
इस संदर्भ में आप के सुझावों का स्वागत है।
सूचनार्थ।
हम सब का 'मैं' है जिस दिन 'हम' हो जायेगा, उस दिन से समस्याएँ धीरे-धीरे कर के बगलें झाँकने लगेंगी। यूँ तो हर एक बदलाव की शुरुआत खुद से करना बहुत कष्ट दायक होता है जब कि हम भी ढल चुके होते हैं उसी में, लेकिन उस साँचे को तोड़ कर एक लहर बनना ही वो है जो हम सब बनना चाहते हैं मगर हम बन नहीं पाते।
जवाब देंहटाएंद्विज जी ने खूबसूरत ग़ज़ल कही है और खासतौर पर उनका कहा का ये शेर बेहद पसंद आया,
दरअस्ल खाइयाँ हैं जिनपे है नाज़ हमको
कैसी बुलन्दियाँ हैं हमने जिन्हें छुआ है
सौरभ भाई मतला बहुत खूब कहा है, और "बाज़ार में ...........", वाला शेर भी बहुत उम्दा हुआ है।
उपर की भूमिका हम सब का अस्ल का चेहरा है!ख़ैर ....
जवाब देंहटाएंबडे भाई द्विज जी कि ग़ज़लों के बारे में कुछ भी कहा नहीं जा सकता ! क़माल की ग़ज़ल है यह ! हर शे'र बारीक़ है मह्फ़ूज़ रखने लायक़ है हर शे'र ! वाह वाह ... एक निहायत ही क़ामयाब ग़ज़ल है !बहुत बधाई !
सौरभ ने जो गिरह लगाई है वो क़माल की है ! सौरभ ने इधर बहुत ही अच्छी ग़ज़ल लिखें हैं! एक वाकया ये कि सौरभ आज कल चर्चे में है और यह इस बात की ज़मानत है कि वह अच्छी ग़ज़ल लिख रहा है ! इस तरही में भी एक बहुत अच्छी ग़ज़ल के लिये ! सौरभ को बहुत बधाई !
श्री द्विजेन्द्र द्विज जी:
जवाब देंहटाएं------------------
मूल्यों के गिरावट ही की बात उभर कर आ रही है, द्विजेन्द्र जी के अश'आर में . आज की ज़िंदगी की हक़ीक़त बयान करती ग़ज़ल .शब्द 'चुटकुला' इन्होने अनोखे सन्दर्भ में प्रयोग किया है:
अब ख़त्म हो चुका है जादू तमाम उसका
जिसे सुन रहे हो अब वो सस्ता-सा चुटकुला है
मुझे भी 'जनतंत्र' के सन्दर्भ में यह शब्द प्रयोग करने की प्रेरणा मिली . द्विज् जी को धन्यवाद देते हुए पेश कर रहा हूँ:
अपना लिखा हुआ है, हम खुद ही पढ़ रहे है,
जनतंत्र अबतो संता-बनता का चुटकुला है !
सौरभ शेखर:
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इन बेड़ियों से यारी कर के मैं काट लूँगा
'ये क़ैदे बामशक्कत जो तूने की अता है'
हमारे समझौतावादी चरित्र की बहुत अच्छी मिसाल पेश करता है सौरभ शिखरजी का यह शेर.
Meri tippani shayad spam me chali gai.
जवाब देंहटाएंआज के पोस्ट की भूमिका भी संग्रहणीय है। पंकज सुबीर सर का ह्रदय से अभिनन्दन कि वे अपने अति व्यस्त रचनात्मक समय में से हमारी ग़ज़लों के लिए भी वक्त निकाल रहे हैं।द्विज सर की पूरी ग़ज़ल बहुत उम्दा हुई है। दिली दाद हाज़िर है! मेरी ग़ज़ल पर की गई टिप्पणियों और उत्साह वर्धन के लिए सभी भाइयों और अग्रजों का अनुग्रही हूँ।
जवाब देंहटाएंbahut hi sundar
जवाब देंहटाएं