प्रीत की अल्पनाएं सजी हैं प्रिये
शब्दों को लेकर जो बहस चल रही थी वो किसी मुकाम पर पहुंच गई और ये ज्ञात हुआ कि कई सारे शब्दों को लेकर किसी भी प्रकार की शुचिता का कोई पालन करना आवश्यक नहीं है । जहां पर जैसी मात्रिक आवश्यश्कता हो शब्द को उस हिसाब से तोड़ मरोड़ कर ग़ज़ल में फिट किया जा सकता है । यदि आपको 222 चाहिये तो दीवाना कह लो और यदि 122 चाहिये तो दिवाना कर लो । यदि आपको 21 चाहिये तो और कहो तथा यदि केवल 2 चाहिये तो उर कर लो । मतलब ये कि हिंदी कविता में शब्दों की शुचिता तथा शुद्धता का जैसा ध्यान रखा जाता है वैसा उर्दू ग़ज़ल में नहीं है । यहां सुविधाभोगी स्थिति है । जैसी आपकी सुविधा हो शब्द का वज़्न वैसा कर लो । यदि आपको आसमान चाहिये तो आसमान करो और कम चाहिये तो आसमां कर लो । इस मामले में उर्दू ग़ज़ल, हिंदी कविता से कमज़ोर हो जाती है । क्योंकि यहां शब्दों को मात्रिक वज्न के हिसाब से परिवर्तित किया जा सकता है । बात दफा तो ऐसे ऐसे शब्दों में मात्राओं को दीर्घ से से गिरा कर लघु कर लिया जाता है जिनमें सुनने में ही अटपटा लगता है मगर जब उस्तादों की सलाह लो तो पता चलता है कि हां ये मात्रा गिराई जा सकती है । जैसे 'कोई' एक पूरा पूरा 22 मात्रिक शब्द है जिसमें दोनों मात्राएं दीर्घ हैं । लेकिन यही शब्द जहां 11 की आवश्यकता होती है वहां 11 हो जाता है । ये सुविधाभोगी स्थिति है । यदि शब्दों के साथ ये छेड़छाड़ जायज़ है तो फिर ऐसे शब्द जिन को लेकर सबसे ज्यादा बवाल मचता है 'सुबह' तथा 'शहर' का हिंदी रूप क्यों नहीं स्वीकार किया जाता । हिंदी के पूरे पट्टे में हिंदीभाषी 'शहर' ही बोलता है 'शह्र' नहीं बोलता और उसी प्रकार 'सुबह' ही बोलता है 'सुब्ह' नहीं बोलता । तो फिर क्यों इस रूप में भी इन शब्दों को स्वीकार नहीं किया जाता है । अभी डॉ श्याम सखा श्याम का ग़ज़ल संग्रह शुक्रिया जिंदगी मिला । वो संग्रह एक नई बहस को जन्म दे रहा है । उसमें कहीं भी नुक्तों का प्रयोग नहीं किया गया है । उनका कहना है कि हिंदी वर्णमाला में कहीं भी क़, ख़, ग़, ज़, फ़ नहीं हैं, यदि नहीं हैं तो देवनागरी में लिखते समय इनका उपयोग क्यों किया जाये । ये प्रश्न भी महत्वपूर्ण है । ये सारे प्रश्न बहस की मांग करते हैं । लेकिन हमारे यहां समस्या ये है कि ये बहस अक्सर ग़लत दिशा ( सांप्रदायिक ) में मुड़ जाती है । लोग हिंदी और उर्दू की बहस को हिंदू और मुस्लमान की बहस मान कर चलने लगते हैं । आवश्यकता है सारे प्रश्नों के बिना किसी चश्मे के देखा जाये । और शुद्ध रूप से बहस की जाये ।
खैर ये तो हुई विचारों की बात । आइये आज तरही मुशायरे को कुछ और आगे बढ़ाते हैं । आज श्री राजेंद्र स्वर्णकार एक सुंदर सी ग़ज़ल लेकर आ रहे हैं । ये ग़ज़ल न केवल प्रीत के रस में पगी है बल्कि इसमें हिंदी के परिमल शब्दों का बहुत सुंदरता के साथ प्रयोग किया गया है । राजेंद्र जी पूर्व में नियमित रूप से मुशायरों में आते थे किन्तु अब बहुत दिनों बात वे मुशायरे में आये हैं ।
राजेन्द्र स्वर्णकार
धड़कनें सुरमयी-सुरमयी हैं प्रिये !
सामने कल्पनाएं खड़ी हैं प्रिये !
मुस्कुराती मदिर मन में मेंहदी मधुर
प्रीत की अल्पनाएं सजी हैं प्रिये !
कामनाएं गुलाबी-गुलाबी हुईं
वीथियां स्वप्न की सुनहरी हैं प्रिये !
नेह का रंग गहरा निखर आएगा
मन जुड़े , आत्माएं जुड़ी हैं प्रिये !
तुम निहारो हमें , हम निहारें तुम्हें
भाग्य से चंद्र-रातें मिली हैं प्रिये !
इन क्षणों को बनादें मधुर से मधुर
जन्मों की अर्चनाएं फली हैं प्रिये !
मेघ छाए , छुपा चंद्र , तारे हंसे
चंद्र-किरणें छुपी झांकती हैं प्रिये !
बिजलियों से डरो मत ; हमें स्वर्ग से
अप्सराएं मुदित देखती हैं प्रिये !
मौन निःशब्द नीरव थमा है समय
सांस और धड़कनें गा रही हैं प्रिये !
बंध क्षण-क्षण कसे जाएं भुजपाश के
प्रिय-मिलन की ये घड़ियां बड़ी हैं प्रिये !
देह चंदन महक , सांस में मोगरा
भीनी गंधें प्रणय रच रही हैं प्रिये !
भोजपत्रक हुए तन , अधर लेखनी
भावमय गीतिकाएं लिखी हैं प्रिये !
अनवरत बुझ रहीं , अनवरत बढ़ रहीं
कामनाएं बहुत बावली हैं प्रिये !
लौ प्रणय-यज्ञ की लपलपाती लगे
देह आहूतियां सौंपती हैं प्रिये !
उच्चरित-प्रस्फुटित मंत्र अधरों से कुछ
सांस से कुछ ॠचाएं पढ़ी हैं प्रिये !
रैन बीती , उषा मुस्कुराने लगी
और तृष्णाएं सिर पर चढ़ी हैं प्रिये !
मन में राजेन्द्र सम्मोहिनी-शक्तियां
इन दिनों डेरा डाले हुई हैं प्रिये !
बहुत सुंदर ग़ज़ल । प्रीत के दोनों रूपों को अभिव्यक्त करती हुई ग़ज़ल । जिसमें आत्मिक प्रेम भी है और दैहिक प्रेम भी है । 'लौ प्रणय यज्ञ की लपलपाती लगे, शेर में प्रेम की उसी दूसरी अवस्था का बहुत सुंदर चित्रण प्रतीकों के माध्यम से किया गया है । याद आ गई बचपन में किसी उस्ताद या गुरू से सुनी हुई बात कि कवि वो होता है जो प्रतीको की नींव पर काव्य का भवन बनाता है । तुम निहारो हमें हम निहारें तुम्हें में खूब शब्द चित्र बनाया गया है जो पूरी बात कह रहा है । बहुत सुंदर ग़ज़ल । आनंद लीजिये इस ग़ज़ल का ।
एक सूचना
डॉ आज़म द्वारा लिखित व्याकरण पुस्तक आसान अरूज़ प्रकाशित होकर आ गई है । इसको लेकर कुछ दुविधा थी । दरअसल प्रूफ जांच करने वाले ने अपना कमाल दिखा दिया जिसके चलते शब्दों की कुछ अशुद्धताएं चली गईं थीं ( अधिकांश नुक्तों को लेकर )। इस बात पर विचार किया जा रहा था कि क्या किया जाये । पुन:मुद्रण एक खर्चीली प्रक्रिया थी इसलिये अब यथारूप ही रखा जा रहा है । अगले संस्करण में सुधार कर लिया जायेगा । वैसे भी ये पुस्तक बहुत सीमित प्रकाशित करवाई गई है । जिन लोगों ने पुस्तक को लेकर संपर्क किया था उनसे निवेदन है कि shivna.prakashan@gmail.com पर एक बार पुन: मेल कर दें, ताकि उनको पुस्तक प्राप्ति की प्रक्रिया बताई जा सके । जिन लोगों ने पूर्व में औपचारिकताएं पूरी कर दी थीं उनको स्पीड पोस्ट से पुस्तक भेजी जा चुकी है ।
नाम से ही लगता है कि गज़ल सोने की तरह खरी होगी\ इस तरह की हिन्ब्दी सीखने के लिये मुझे तो पहले दोबारा स्कूल जाना पडेगा। हर एक शेर गज़ब का है। 'सुरमयी सुरमयी गुलाबी गुलाबी पँक्तियो ने मन मे कुछ सीखने की तृषणायें मन मे डेरा जमाने लगी हैं। स्वर्न जी को बधाई।
जवाब देंहटाएं# आदरणीया मौसीजी निर्मला कपिला जी
हटाएंप्रणाम !
इतनी प्रशंसा ! इतना स्नेह ! इतना आशीर्वाद !
आपसे सीखना है कि छोटों का मन कैसे रखा जाता है …
:)
आपके आशीर्वचन मुझे और श्रेष्ठ सृजन के लिए प्रेरणा-पुंज का कार्य करेंगे ।
आभार !
बहुत ही प्यारी गज़ल है. राजेन्द्र जी को बहुत बहुत बधाई. सभी शेर बेहद खूबसूरत हैं.
जवाब देंहटाएं# प्रियवर राजीव भरोल जी
हटाएंआप जैसे शांत-शालीन प्रतिभावान ग़ज़लगुणी से प्रशंसा पा’कर अच्छा लग रहा है …
हार्दिक धन्यवाद !
हिंदी के परिमल शब्दों का प्रयोग कर प्रीत से पगी रचनाएँ कहने में राजेंद्र जी का कोई सानी नहीं...माँ सरस्वती के अत्यधिक लाडले इस पुत्र की कलम से रची एक और रचना से हम पाठक भाव विभोर हो रहे हैं...हर मिसरा, हर शेर प्रेम की चासनी में डूबा माधुर्य की वर्षा कर रहा है...राजेंद्र जी की प्रतिभा को नमन करता हूँ और करता रहूँगा... भोज पत्रक हुए तन...और अनवरत बुझ रहीं...वाले शेर अपने साथ लिए जा रहे हूँ...चाह तो पूरी ग़ज़ल को उठा कर चल देने की है...आनंद आ गया.
जवाब देंहटाएंनीरज
# बड़े भाईसाहब नीरज गोस्वामी जी
हटाएंआप सदैव ही मुझ पर अत्यधिक स्नेह-वर्षण करते रहते हैं …
आपके लाड-प्यार का ही नतीज़ा है सब , कि मेरे ब्लॉग पर आपके पहुंचने में विलंब होता लगने पर मैं आपको सामने बुलाने चला आता हूं … :)
आशीर्वाद अनवरत बनाए रहें …
सादर नमन !
राजेन्द्र भाई की ग़ज़ल हमेशा मोहक रही हैं। एक विशेष बात जो इनकी ग़ज़लों में देखने को मिलती है वह है वृहद् शबद-भंडार की; जिसका खुलकर उपयोग वो करते हैं। इतना विस्तृत शबद पटल स्वत: नहीं बन जाता हे, इसके लिये बहुत प्रयास चाहिये जिसमें औरों को पढ़ना विशेष रूप से आवश्यक है।
जवाब देंहटाएंबधाई इस खूबसूरत ग़ज़ल पर।
# आदरणीय तिलक राज कपूर जी भाईसाहब
हटाएंआप सराहना कर देते हैं , मुझे दायित्व और बढ़ा हुआ महसूस होने लगता है …
मेरे लिए स्थितियां यद्यपि उलट हैं … पठन-पाठन की अनुकूल स्थितियों को तरस जाता हूं ।
स्वामी विवेकानंद जी ने शायद मेरे लिए ही कहा होगा कि – “मूर्ख किताबें खरीद सकता है , ज्ञान नहीं ।” बस , जितना अवसर मिलता है कुछ भी लिखते हुए ईमानदार प्रयास अवश्य करता हूं , स्वयं को यह यह समझाते हुए कि –
आलोचक के बाण से , मत घबरा ऐ मीत !
जो मन को मीठा लगे वही है सच्चा गीत !!
बिना आत्म-मुग्धावस्था में प्रवेश किए हुए सृजन के पल आनंद देते हैं तो , पाठक के लिए भी मां सरस्वती के प्रसाद की व्यवस्था संभव है …
आप जैसा गूढ़ ज्ञानी तो मैं हूं नहीं …
आप-से , आप जैसे अन्य गुणियों से चुपचाप स्वतः सीखता रहता हूं निरंतर …
सादर …
आभारी हूँ आपकी भावनाओं के प्रति, हम सभी यहॉं परस्पर एक-दूसरे के माध्यम से सीख ही रहे हैं। किसी को कुछ अच्छा लगा, ये उसकी कद्रदानी।
हटाएंहम सभी अपना बयां हैं
,
खुल गये, सब पर अयां हैं।
वो जिन्हें, अच्छा लगा कुछ,
मेह्रबां हैं, कद्रदां हैं।
राजेंद्र जी के बिना हिंदी ग़ज़ल की सभा में सूनापन रह जाता, ये आयोजन पूर्णता को नहीं पहुंच पाता ,,अति सुंदर शब्दावलि का प्रयोग कर के एक उच्च कोटि की ग़ज़ल प्रदान की है राजेंद्र जी ने
जवाब देंहटाएं"नेह का रंग........
"मौन नि:शब्द............
"बिजलियों से डरो मत ......
वाह वाह !! क्या बात है !!
सच तो ये है कि ग़ज़ल में जिस सुंदर भाषा का प्रयोग किया गया है मेरे पास उतने सुंदर शब्द ही नहीं हैं कि मैं ग़ज़ल की प्रशंसा कर सकूँ
केवल यही कह सकती हूँ कि नि:शब्द हूँ ,,बधाई हो राजेंद्र जी
**************************
अब बात आती है क़, फ़, ज़, ग़, ख़ जैसे अक्षरों की ,,ये सही है कि हिंदी भाषा में ये अक्षर नहीं हैं और इसलिये फूल को फ़ूल लिखना ग़लत है फिर को फ़िर लिखना ग़लत है लेकिन यदि हम उर्दू के शब्दों का प्रयोग हिंदी की ग़ज़ल में करेंगे तो वहाँ नुक़्तों का न लगाया जाना ग़लत है ,,श्याम सखा जी मुझ से ज्ञान के क्षेत्र में बहुत बड़े हैं उन से क्षमा मांगते हुए ये बात कहना चाहूंगी कि या तो ज़िंदगी के स्थान पर जीवन का प्रयोग हो परंतु यदि ज़िंदगी का प्रयोग हुआ है तो नुक़्ता लगना ज़रूरी है क्योंकि ये शब्द उर्दू का है ,,हर भाषा की अपनी पहचान ,अपने उसूल और अपना सौंदर्य होता है और हम तदानुसार चलें तो भाषा के साथ न्याय होता है
लेकिन ये मेरे निजी विचार हैं यदि किसी को कष्ट हो तो मैं क्षमाप्रार्थी हूँ विशेषत: श्याम सखा जी से
मैं आपकी बात से शतप्रतिशत सहमत हूँ...भाषा का सम्मान होना ही चाहिए...या तो हम हिंदी की ग़ज़ल में उर्दू शब्दों का प्रयोग करें नहीं और अगर करें तो उन्हें उचित ढंग से करें...
हटाएंनीरज जी आपने बात अधूरी कही है उसको मैं पूरा करना चाहता हूं । यदि हिंदी की ग़ज़ल में उर्दू का शब्द आ रहा है तो उसे उसकी शुचिता के हिसाब से उचित ढंग से प्रयोग करना चाहिये । इसी प्रकार यदि उर्दू ग़ज़ल में कोई हिंदी का शब्द आ रहा है तो उसे भी उसकी शुचिता के हिसाब से उचित ढंग से प्रयोग करना चाहिये । लेकिन ग़लती दोनों ही पक्ष से हो रही है । इधर हिंदी के लोग शहर को शह्र लिखते हैं तो उर्दू के लोग ब्राह्मण को बिरहमन लिखते हैं ।
हटाएंइस्मत दीदी ने बहस को सही तरीके से मोड़ा है । तथा बहुत ठीक प्रकार से बात कही है । बहसों से ही ज्ञान के नये सूत्र मिलते हैं । किसी को भी बहस को व्यक्तिगत नहीं लेना चाहिये क्योंकि बहस विचारों पर होती है व्यक्ति पर नहीं । दीदी आप एक स्वस्थ बहस में एक महत्वपूर्ण वक्ता के रूप में हिस्सा ले रही हैं इसलिये क्षमाप्रार्थी होने की कोई आवश्यकता नहीं है ।
मेरी टिप्पणी मेरे भाषा के अल्प ज्ञान को सार्वजनिक करती है...गुरुदेव आप ठीक कह रहे हैं...आपने सलीके से बात कही है...ये सही के ब्राह्मण को बिरहमन कहना और शहर की तकती 21 करना तर्क संगत नहीं है...
हटाएंभाषा की शुचिता को लेकर इसी ब्लॉग पर पूर्व में चर्चा हुइ र्है ओर इसपर तार्किक रूप से देखा जाये तो जब आप किसी भाषा से शब्द ले रहे हैं तो इसे ससम्मान लें उसे अपने घर में आया अवॉंछित मेहमान न मानते हुए सम्मानीय अतिथि मानना चाहिये, यह केवल कर्तव्य ही नहीं नैतिक दायित्व भी हो जाता है प्रयोगकर्ता का। जिसे आप स्वये अपने घर में अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिये लाये उसे अवॉंछित आगंतुक मानकर अपने नियम नहीं थोप सकते। वहीं सोच में यह खुलापन भी चाहिये कि आमंत्रित शब्दों को यथासंभव उसी भाषा के व्याकरण से नियंत्रित करें जिससे वह शब्द आया है।
हटाएंक्या आप 'राज़' को नुकता हटाकर 'राज' लिख सकते हैं; नहीं, 'हिन्दी में नुकता का प्रयोग हम नहीं करेंगे'; मत कीजिये, फिर आपको ऐसे शब्द भी प्रयोग में नहीं लाने चाहियें जिनमे नुकता हो; और अगर ऐसा करना ही है तो हिन्दी के शबदकोष अंश बनायें और फिर जिस रूप में शब्दकोश में लें उसे सार्वजनिक मान्यता दें।
इस मामले में ढफलमुल होना तर्कसंगत नहीं है।
इस मामले में "ढफलमुल" होना तर्क संगत नहीं है
हटाएंमैं क्या तिलक जी त्वाडा जवाब नहीं...जियो.
गन्दी हैंडराईटिंग वाले बच्चे की हैंडराईटिंग उन्हें तो समझ आ ही जाती है जो उसे निंरतर पढ़ते रहते हैं।
हटाएंटाईपिंग की जल्दबाजी में कभी कभी शिफ़्ट दबने से रह जाता है और ढुलमुल ढफलमुल टाईप हो जाता है।
आप सहमत हैं, एक वोट और मिला इस्मत आपा को।
किसी भाषा और अन्य भाषा से लिये गये शब्द में सास-बहू या ननद-भौजाई का रिश्ता होना स्वाभाविक है लेकिन ये रिश्ता स्वस्थ मानसिकता वाला होना चाहिये जिससे आने वाले शब्द को अपने मायके की याद न आये।
एक बात और, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी के लिये मान्य लिपि देवनागरी में नुक्ता प्रावधानित किया गया है।
हटाएं# आदरणीया आपा इस्मत ज़ैदी जी
हटाएंप्रणाम !
बहन छोटे भाई की ता’रीफ़ करदे तो लगता है बहुत बड़ा ख़ज़ाना मिल गया । न इस स्नेह के लिए आभार की अभिव्यक्ति संभव है … न ही ‘ऑनलाइन शाबासी’ के लिए
:)
स्नेह-आशीर्वाद हमेशा बनाए रहें …
( फिर आता हूं… )
राजेंद्र जी का मैं बहुत बड़ा प्रशंसक हूँ, उनकी रचनाओं में सुंदर शब्द चयन के साथ साथ भावनाओं का भी बहुत ही प्रबल प्रवाह होता हैं..प्रेम की सार्थकता को व्यक्त करती एक भावपूर्ण ग़ज़ल...काफ़ी दिनों के बाद राजेंद्र जी को पढ़ना बहुत सुखद रहा..राजेंद्र जी को हार्दिक बधाई.
जवाब देंहटाएंपंकज जी बहुत ही अच्छा मुशायरा चल रहा है..एक से बढ़कर एक सार्थक ग़ज़ल पढ़ने को मिल रही है..आपके प्रयास से यह सब संभव हो पा रहा है..हम जैसे नये ग़ज़ल लिखने वाले के लिए एक पाठशाला प्रदान करने के लिए आपका जितना आभार व्यक्त करें कम है..प्रणाम स्वीकार हो....(विनोद पांडेय)
# बंधुवर विनोद कुमार पांडेय जी
हटाएंआपका निस्वार्थ-निश्छल स्नेह अभिभूत कर रहा है …
रचनाकार के लिए इससे बड़ा पुरस्कार कुछ नहीं हो सकता …
हृदय से आभारी हूं ।
मुशायरा विस्तार होता हुआ, सुखद शब्द अनुभूतियों से हम गुजरते हुए आज राजेन्द्र स्वर्णकार जी की मधुर ग़ज़ल पर हम आकर ठहर गए.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर शेरों से दर्शन हुए. प्रीत की अनेक अल्पनाएं रची हैं.
जन्मों की अर्चनाएं.... भावमय गीतिकाएं... बहुत खूब !!
# भाई सुलभ जी
हटाएंहृदय से धन्यवाद !
स्नेह-सद्भाव सदैव बना रहे …
सर्वप्रथम, पंकजभाईजी को उनकी स्पष्ट एवं सटीक टिप्पणी के लिये सादर नमस्कार.
जवाब देंहटाएंजिस दृढ़ विश्वास के साथ आपने अपने तथ्यों को प्रस्तुत किया है उन पर सभी को न केवल ध्यान देने की आवश्यकता है, बल्कि इन तथ्यों को अपने रचना-कर्म में साहस के साथ प्रयुक्त करने की भी आवश्यकता है. ग़ज़ल की उच्च विधा के मानकों को सम्पूर्ण सम्मान देते हुए हिन्दी भाषा में स्वीकार्य, प्रचलित तथा अक्षरी एवं वाक्य संबन्धी विन्यासों की महत्ता को प्रतिष्ठित करना बहुत-बहुत जरूरी है. इस अभियोजन से जहाँ भाषागत अतुकांत हठ समाप्त होगा, शब्दों की अनावश्यक दुरूहता भी ठिकाने लगेगी.
गंग-जमुनी संस्कृति सर्वसमाहिता, सामञ्जस्यता तथा स्वीकार्यता की परिचायक है, न कि असहज शुचिता के प्रति अनावश्यक आग्रह की.
आपकी टिप्पणी का समापन आपकी संयत दृष्टि तथा नीर-क्षीर करते मनस का प्रमाण है. पंकजभाईजी, आपको पुनः सादर प्रणाम.
************
अभिन्न राजेन्द्र भाई की प्रस्तुति पर तनिक चकित नहीं हूँ. आपकी अद्भुत काव्य-मेधा, गहन दृष्टि और आपके संवेदनशील हृदय का मैं पहले से ही कायल रहा हूँ.
आपने प्रस्तुत ग़ज़ल में जिस तरह से मुलायम शब्दों का टाँका है, वह मौज़ूं मुशायरे की मांग को संतुष्ट कर रहा है.
आपकी ग़ज़ल प्रारम्भ हो कर जैसे प्रवहमान होती चली गयी है. पंक्तियों में आपके इंगित कहीं परस्पर निष्ठा को संपुष्ट करते दीख रहे हैं, तो कुछ पंक्तियाँ आध्यात्मिकता के सर्वोन्नत कोष की अनुभूतियों को जीती हुई प्रतीत हो रही हैं. कहीं प्रेम के उद्दात् भाव मानों स्वतंत्र हुए प्रतीत हो रहे हैं, तो किन्हीं पंक्तियों में अनुभवजन्य संतृप्त भाव जैसे ’देही’ की अनायास पिघलती हुई चाँदी को रुपायित कर रहे हैं.. !
किस बंद विशेष को मान दूँ, किस अलहदे शे’र की विशेष चर्चा करूँ !
भोजपत्रक हुए तन, अधर लेखिनी.. .. वाह !
निर्द्वंद्व सम्मिलन का इससे सटीक वर्णन कदाचित संभव नहीं था.
माँ शारदे के इस मनस पुत्र को मेरा सादर नमन.
-- सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)
# आदरणीय सौरभ भाई जी
हटाएंप्रणाम !
सोच रहा हूं , आप जैसा पांडित्य न जाने कितनी साधना के पश्चात् मिलता होगा …
आप जितना कह लेते हैं मेरे लिए उतना सोचना भी दिवास्वप्न समान है …
:)
गुणी कैसे अपने अनुजों को प्रोत्साहित कर’ मान बढ़ाते हैं … आपसे मिल कर हमेशा , हर कहीं यही सीखने को मिलता है …
मेरा सादर नमन स्वीकार करें !
शब्द की सार्थक बहस का बहुत ही संयत समापन किया है आपने ... बहुत कुछ जानने और समझने कों मिला है इस चर्चा के माध्यम से ...
जवाब देंहटाएंराजेन्द्र जी की प्रेम में पगी गज़ल का रसास्वादन कर रहा हूँ और अभिभूत हूँ उनके चमत्कारी शब्द भण्डार का ... हिंदी के अनगिनत शब्दों का प्रयोग वि जितनी सुंदरता से करते हैं अपनी गज़लों में उसका कोई सानी नहीं है ... हर शेर लाजवाब है इस गज़ल का ... नेह का रंग गहरा निखर आयगा ... या फिर तुम मिहारो हमें हम निहारें तुम्हें .... जबरदस्त उड़ान हैं कल्पना के ...
मुशायरा प्रेम की नदिया से होते होते प्रेम के सागर की तरफ उन्मुक्त हो रहा है ...
# दिगम्बर नासवा जी
हटाएंबहुत बहुत धन्यवाद ! आभार !!
आप बराबर नज़र रखते हैं , इस कारण ठीकठाक हो जाता है … वरना हम किस क़ाबिल हैं ?
:)
आपका बड़प्पन वरेण्य है …
आभार !
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएं--
इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (01-07-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
# आदरणीय शास्त्री जी
हटाएंबहुत बहुत आभार !
सादर …
इस कवि-गोष्टी में जानकारी का भण्डार !
जवाब देंहटाएंआभार!
राजेन्द्र जी बधाई स्वीकारें!
# आदरणीय चाचाश्री
हटाएंआपका आशीर्वाद स्वीकार है !
प्रणाम !
राजेंद्र भाई को पढना एक अनुभव-लोक से भी गुजरना होता. है. मैं इनसे मिल चुका हूँ इनको निकट से देखा है इसलिए मैं दावे के साथ कहता हूँ के वे बंद कमरे में, वातानुकूलित कक्ष में बैठ कर सृजन करने वाले कवि नहीं है. वे जीवन को ईमानदारी से जीते है. कविता को भी यानी छंद को. आज जब छंद की ह्त्या करने की कोशिश हो रही है, राजेंद्र स्वर्णकार जैसे लोग उसे बचाने की कोशिश कर रहे है. पंकज सुबीर भाई, आप का योगदान भी कम नहीं हैं. हम आधुनिक बनें, कौन रोकता है, मगर छंद साथ रहे, तो क्या बिगड़ जायेगा? 'सुबीर संवाद सेवा'' का काम मुझे अच्छा लगता है यहाँ परम्परा और अधिंक दृष्टि का समन्वय दीखता है. और हाँ, ये आयोजन कब हो गया, पता ही नहीं चला, वरना मैं भी कोशिश करता.
जवाब देंहटाएं# आदरणीय गिरीश पंकज जी
हटाएंनमस्ते ! रचना पसंद करने के लिए आभार !
आप-हम एक ही रास्ते के मुसाफ़िर हैं ।
1999 के उतरार्द्ध में मैं काव्य के क्षेत्र में सक्रिय हुआ इस निश्चय के साथ कि छंद का माहौल बनाना है …
आज इधर-उधर लोग याद करते हैं तो कुछ संतुष्टि होती है । आपने देखा ही था कि योगेन्द्र अरुण जी और उद्’भ्रांत जी ने भी छंद के प्रति मेरे समर्पण और कार्य के लिए पीठ थपथपाई थी …
पुनः आभार !
कल्पना की उड़ान को तरही की डोर में बाँधे हुये भाषा के विस्तृत आकाश की सीमाओं में नियंत्रण के साथ उड़ान देने को जिस प्रवाह से प्रस्तुत किया है राजेन्द्रजी ने, वह सुरुचिपूर्ण है.किंचित शब्दों के भिन्न उच्चारणों का सही प्रयोग करने के लिये उन्हें विशेष बधाई.
जवाब देंहटाएं# आदरणीय राकेश खंडेलवाल जी
हटाएंसादर प्रणाम !
आप जैसे छंद के विराट हस्ताक्षर द्वारा किसी रचना पर दृष्टि डाल लेना ही रचनाकार के लिए परम सौभाग्य की बात है …
आप द्वारा प्रदत्त बधाई बहुत बड़ा पुरस्कार है …
सादर वंदन !!
बेहद खूबसूरत गज़ल......
जवाब देंहटाएंसाथ ही टिप्पणियाँ भी मन में उतार लेने योग्य.......
गुणीजनों का लिखा पढ़ कर अभिभूत हूँ.....
राजेंद्र जी को बधाई.
शुक्रिया तहे दिल से...
अनु
# सम्मान्य अनु जी
हटाएंहृदय से आभारी हूं …
सादर
राजेन्द्र भाई को सर्वप्रथम एक बेहतरीन ग़ज़ल के लिये बधाई,(रैन कटि उषा मुस्कुराने लगी, और त्रिषनायें वाली पंक्ति का कोई ज़वाब नहीं)। दुसरे मिसरे में ---मुस्कुराती मदिर ( क्रिपया "मदिर" का अर्थ बताने का कष्ट करें)
जवाब देंहटाएं# सम्माननीय डॉ.संजय दानी जी
हटाएंआपकी उत्साह बढ़ाने वाली टिप्पणी के लिए शुक्रिया ! आभार !!
वैसे तो मदिर के सामान्य अर्थों नशीला / मादक / मदभरा / मदकारक / मस्त करनेवाला को लेते हुए ही मदिर शब्द का उपयोग किया था ।
स्मृति में रचनाकार : पद्मश्री नीरज जी का लिखा किशोर दा का गाया फिल्मी गीत - “इतना मदिर इतना मधुर तेरा मेरा प्यार , लेना होगा जनम हमें कई कई बार” अवश्य था ।
##
वैसे मदिर के प्रयोग के कुछ अन्य उदाहरण देखें -
1
प्रिये ! आई शरद लो वर !
मदिर मंथर चल मलय से...
रचनाकार : कालिदास (ऋतुसंहार ) अनुवादक : रांगेय राघव
2
लो प्रिये! मुक श्री मनोरम देखते जो तृप्त होकर
देखते करुबक मदिर नव मंजरी का रूप क्षण भर
रचनाकार : कालिदास (ऋतुसंहार ) अनुवादक : रांगेय राघव
3
मदिर नयन की, फूल वदन की
प्रेमी को ही चिर पहचान !
रचनाकार : सुमित्रानंदन पंत
4
मदिर अधरों वाली सुकुमार
सुरा ही मेरी प्रिया उदार !
रचनाकार : सुमित्रानंदन पंत
5
महादेवी जी वर्मा ने भी लिखा है
मदिर मदिर मेरे दीपक जल …
लेकिन , यहां मदिर के उपरोक्त अर्थों के साथ सामंजस्य मैं नहीं पकड़ पा रहा हूं ।
अस्तु !
पुनः आभार …
कुछ शब्द बोलते हैं उनमें से ही एक है -मदिर- यह शब्द सवत: मदिरा का आभास देता है। सामान्यतय: इसका प्रयोग देखते ही नशा होने की स्थिति में होता है वेसे ही जैसे मादक शब्द का उपयोग सामान्य है।
हटाएंये जो हल्का हल्का सुरूर है वाली स्थिति है जो हाथ में सजी मेंहदी कर रही है।
----प्रत्येक पंक्ति ...स्वर्णमयी है...किसी एक के बारे में कुछ कहा ही नहीं जा सकता .....
जवाब देंहटाएं---प्रीति-रस में है भीगी गज़ल यह सखे !
कह रही हो गज़ल खुद गज़ल यह सखे !
सुरमयी-सुरमयी होगई मन-मदिर,
मुस्कुराकर गज़ल कह रही है सखे!
# आदरणीय डॉ.श्याम गुप्ता जी
हटाएंसादर नमन !
आपकी जवाबी पंक्तियां भी कम कमाल की नहीं !
:)
यहां इस तरही मुशायरे में आपकी रचना भी पढ़ने का सौभाग्य मिलेगा न ?
पुनः आभार !
मुझे ख़ुशी है पंकज कि सभी गुणीजन जो ज्ञान के सागर भी कहे जाएं तो अतिश्योक्ति न होगी ,वही बात कह रहे हैं जो मेरे जैसी अल्पज्ञानी ने कही
जवाब देंहटाएंमैं तुम से १००% सहमत हूँ कि ब्राह्मण को बिरहमन कहना या प्रमोद को परमोद उच्चारित करना भी उतना ही ग़लत है जितना ग़ज़ल को गजल कहना ,,
इस विषय पर अपने विचारों से अवगत कराने के लिये आप सभी का धन्यवाद
'अल्पज्ञानी' ये शब्द यदि आप अपने लिये इस्तेमाल करेंगी दीदी तो हम जैसे अपने लिये कौन सा शब्द लायेंगे । हमारे लिये तो बड़ी मुश्किल हो जायेगी कि अब हम अपने लिये कौन सा शब्द उपयोग करें । शायद फिर हम को तो अपने लिये मूढ़मति ही उपयोग करना होगा । बहुत अच्छी बातें सामने आईं हैं । मैं हर भाषा के शब्दों की शुचिता के पक्ष में हूं । जैसे अंग्रेजी के शब्द क्लब को मेरे कुछ उर्दू भाषी मित्र कलब बोलते हैं जो सुनने में ही अजीब लगता है । इज़्ज़त को कुछ हिंदी भाषी मित्र इज्जत बोलते हैं जो खट से कानों में लगता है । उर्दू भाषी मित्र कहते हैं कि उर्दू में आधा अक्षर नहीं है और हिंदी भाषी कहते हैं कि उनके यहां नुक्ता नहीं है । जब नहीं है तो किसी डॉक्टर ने कहा है कि इन शब्दों का इस्तेमाल करो । शब्दों को उनके मूल रूप में उपयोग करना चाहिये ये हर साहित्यकार का दायित्व है । ये भी सच है कि क़, ख़ ग़ ज़, फ़ की ध्वनियों के अक्षर हिंदी वर्णमाला में नहीं हैं । किन्तु जैसा कि तिलकराज कपूर जी ने ऊपर कहा कि इनको लिया जा चुका है । मेरे एक मित्र जो हिंदी के प्राध्यापक हैं तथा इसी क्षेत्र में काम कर रहे हैं उनका भी कहना है कि हां लिया जा चुका है । यदि लिया जा चुका है तो इनको हिंदी वर्णमाला की पुस्तकों में शामिल क्यों नहीं किया जा रहा है । ये आवश्यक ध्वनियां हैं ।
हटाएंतुम्हारे मित्र ने सही कहा है पंकज ,,यहाँ ICSE बोर्ड का स्कूल है "शारदा मंदिर” वहाँ जो पुस्तकें
हटाएंकक्षा १ में prescribed हैं उन के हिंदी पाठ्यक्रम की वर्णमाला में ये सारे अक्षर सम्मिलित किये गए हैं
लेकिन एक समस्या और आती है कि हम वर्णों का भी ग़लत उच्चारण करते हैं जैसे फूल = phool ये शब्द फूल न रहकर फ़ूल=fool उच्चारित किया जाने लगा है और दु:ख का विषय ये है कि पढ़े लिखे लोग भी इस का इस्तेमाल कर रहे हैं अब यदि अध्यापक/ अध्यापिका ने ये पढ़ाया हो तो बच्चे को हम ये कैसे समझाएं कि फ़व्वारे में नुक़्ता लगेगा
और हाँ यदि तुम और तुम्हारे जैसे लोग मूढ़मति होंगे तो मैं बुद्धिहीन हूँ ,,अब आगे किसी और संज्ञा का प्रयोग न करना वर्ना लोग टिप्पणी देना बंद कर देंगे कि जब दोनों भाई बहन के पास अक़्ल ही नहीं है तो क्या कमेंट करें :):)
हा हा हा दीदी ये बात तो आनंद दे गई 'दोनों भाई बहन के पास अक्ल नहीं है '
हटाएंपंकज भाई और मेरे सर से तो अक्ल बिना रोक-टोक बाहर हो गयी है यह स्पष्ट है।
हटाएंजब कोई किसी विषय पर समस्त ज्ञान रखने का भ्रम पाल ले तो एक हास्यास्पद स्थिति यह पैदा होती है कि इस बेचारे को तो यह भी नहीं पता कि ज्ञान का सागर कितना विशाल है। ज्ञान कम हो लेकिन पुष्ट होना चाहिये, अधकचरा वृहद् ज्ञान िशायद ही कभी हितकर सिद्ध हुआ हो।
बहुत-बहुत ही खुबसूरत ग़ज़ल...बधाई !!
जवाब देंहटाएं# ॠता शेखर मधु जी
हटाएंआपका बहुत बहुत आभार ग़ज़ल पसंद करने के लिए …
शुभकामनाओं सहित …
राजेंद्र जी की ग़ज़ल का जबाब नहीं इनकी हरेक रचना एक से बढ़ कर एक होती है हाँ इस ब्लॉग पर आकर देखा तो ओ बी ओ के कई लोग मिले बहुत अच्छा लगा देख कर |राजेंद्र जी को इस सुन्दर अप्रतिम ग़ज़ल के लिए बधाई
जवाब देंहटाएं# आदरणीया राजेश कुमारी जी
हटाएंप्रणाम !
हरेक रचना एक से बढ़कर एक … :)
हां, आप हमेशा इसी तरह मेरी ता’रीफ़ करके मुझे प्रोत्साहित करती हैं …
स्नेहाशीष से धन्य करती रहें …
सादर
आदरणीय राजेन्द्र भईया को पढ़ना हमेशा सुखदायी होता है... और यह गजल तो.... बस आनंद ही आ गया.... वाह वाह वाह....
जवाब देंहटाएंउन्हें सादर नमन/बधाई।
# प्रियवर संजय मिश्र जी ‘हबीब’
हटाएंबहुत बहुत आभार !
हमेशा की तरह सर्वत्र आत्मीयता से मिलने , प्रशंसा करने की आपकी आदत का मैं कायल हूं …
स्नेह-सद्भाव बनाए रहें …
अनंत मंगलकामनाएं !
# आदरणीय पंकज सुबीर जी
जवाब देंहटाएं6-7 टिप्पणियां गायब हो चुकी हैं …
कृपया, स्पैम में जा रही टिप्पणियां निकालें ।
राजेंद्र जी वैसे तो मैं दिन भर टिप्पणियां स्पैम से निकालता रहता हूं लेकिन कल संडे होने के कारण कुछ टिप्पणियां दिन भर की क़ैद में पड़ी रह गईं जिनको आज ही आज़ाद किया है ।
हटाएं:)
हटाएंदिन भर स्पैम से टिप्पणियां निकालना …
किसके हिस्से में क्या काम आना चाहिए , गूगल बाबा को इतना सलीका कहां !
आभार !
( क्षमा करें , दो दिन अति व्यस्तता रहने से अब यहां आ पाया हूं … )
राजेन्द्र जी अपनी रचनाओं पर वाकई बहुत मेहनत करते हैं। उनकी ये ग़ज़ल भी इस बात का सबूत है। इस शानदार और जानदार ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई राजेन्द्र स्वर्णकार जी को।
जवाब देंहटाएं# धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी
हटाएंलेखन ही नहीं , मैं मेरा हर काम मेहनत और दिलचस्पी से करता हूं …
क्योंकि कुछ भी स्वयं की संतुष्टि के लिए ही करना होता है , किसी के दबाव से तो नहीं :)
फिर मेहनत में कमी क्यों ?
ग़ज़ल पसंद करने के लिए बहुत बहुत आभार !
आदरणीय पंकज सुबीर जी बहुत अच्छा लगा आप के पास आ के ..राजेन्द्र भाई की गजल , उनकी रचनाओ की तो बात ही निराली है ..एक बार पढ़िए तो बार बार पढने को मन आतुर ..इस प्रणय गीत ने तो और ही कमाल कर दिया ....कोमल और संतुलित शब्दों का सुन्दर प्रवाह कल कल निनाद सा झरता गया .....सुन्दर ...
जवाब देंहटाएंबंध क्षण क्षण कसे जाएँ भुजपाश के ...प्रिय मिलन की ये घड़ियाँ बड़ी हैं प्रिये ...खूबसूरत
भ्रमर ५
भ्रमर का दर्द और दर्पण
# सुरेन्द्र शुक्ल भ्रमर जी
हटाएंमैं नहीं जानता था कि मेरी रचनाओं को आप इतना पसंद करते हैं …
यानी मेरे ब्लॉग
शस्वरं पर आते रहते हैं आप !
बहुत बहुत आभार मेरी रचनाएं पढ़ने-सराहने के लिए !!
बहुत खुबसूरत गजल...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
:-)
# रीना मौर्य जी
हटाएंबहुत बहुत आभार !
शुभकामनाओं सहित …
बढ़िया विमर्श...
जवाब देंहटाएंउम्दा गज़ल...वो तो खैर राजेन्द्र जी का नाम आते ही..उम्दा...होना ही है,
# आदरणीय समीर जी
हटाएंआपके स्नेह का भी जवाब नहीं …
:)
अंतःस्थल से आभार !
बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल... राजेंद्र स्वर्णकार जी की अपनी छाप है इस ग़ज़ल पर.. बधाई इस सुंदर सृजन के लिए
जवाब देंहटाएं# आदरणीया दीपिका रानी जी
हटाएंअच्छा ! आप भी मेरे सृजन से परिचित हैं …
यह ग़ज़ल आपको पसंद आई , लेखनी धन्य हुई
बहुत बहुत आभार !
एक निहायत ही ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिए राजेंद्र जी को ढेरों बधाईयाँ.मुशायरे के इस अंक में गुरुजन टिप्पणियों के माध्यम से जिस प्रकार की सार्थक चर्चा को आगे बढ़ा रहे हैं वह हमारे जैसे नए लोगों के लिए अनमोल है.
जवाब देंहटाएं# सौरभ शेखर जी
हटाएंआपने ग़ज़ल पसंद की … मेरा सौभाग्य !
आभार और शुभकामनाएं !
राजेंद्र जी ने बहुत खूब शेर निकालें हैं. बधाई.
जवाब देंहटाएं# अंकित जोशी जी
हटाएंशे’र निकल आए …क्या करूं :)
शुक्रिया !
RAJENDRA SWARNKAR VAKAEE SWARNKAR HAIN . UNKEE GAZAL MEIN SWARN KEE SEE
जवाब देंहटाएंCHAMAK HAI . SUBEER JI , UNKEE GAZAL PADH KAR AANANDIT HO GAYAA HUN .
SHABDON AUR BHAAVON KEE AESEE MITHAAS ANYATR DURLABH HAI .
# आदरणीय प्राण जी
हटाएंसादर प्रणाम ! वंदन !
आपकी टिप्पणी पाना गर्व और सौभाग्य की बात है !
…और टिप्पणी के साथ ही ऑनलाइन आशीर्वाद में आपका यह कहना तो मेरे लिए अविस्मरणीय रहेगा -
main aapkee gazal padh kar praffulit ho gayaa hun
aapne aanandit kar diya hai mujhe
isee tarah likhte rahiye
khoob naam kamaaeeyega
main bhee aapkaa fan hun
पुनः पुनः नमन !
आशीर्वाद-स्नेह सदैव बनाए रहें …
व्यस्तता के बावजूद, राजेंद्र जी के खिलाये इस सुन्दर पुष्प से मकरंद चुरा कर मज़ा लेने और आभार व्यक्त करने का लोभसंवरण नहीं कर पाया।
जवाब देंहटाएंवाह! राजेंद्र जी! वाह!
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएं# k the leo जी
जवाब देंहटाएंइतनी निर्लिप्त प्रतिक्रिया ! - ”राजेंद्र जी के खिलाये इस सुन्दर पुष्प से मकरंद चुरा कर मज़ा लेने और आभार व्यक्त करने का लोभसंवरण नहीं कर पाया।”
आपकी लाजवाब टिप्पणी ने मुझे लाजवाब कर दिया :)
जनाब ! आभार तो हमारा स्वीकार कीजिए…
एक सच्चा सृजन-प्रेमी ही समय निकाल कर किसी रचनाकार के उत्साहवर्द्धन का कलेजा रखता है …
बहुत बहुत आभार … (आपके नाम से परिचित करवा देते तो कृपा होती …)
बिजलियों से डरो मत, हमें स्वर्ग से,
जवाब देंहटाएंअप्सराएं मुदित देखती हैं प्रिये।
सुंदर बात...
अनवरत बुझ रहीं, अनवरत बढ़ रहीं,
कामनाएं बहुत बावली हैं प्रिये।
कई बार बहुत खूब...
वैसे तो बहुत से शेर जो बहुत बार प्रशंसा करने को मजबूर करते हैं...!!
बधाई, बहुत बहुत
# कंचन सिंह चौहान जी
हटाएंकई बार बहुत धन्यवाद आपको …
:)
आपने स्वेच्छा-सद्भाव से इतनी सारी प्रशंसा करदी यह मेरे लिए कम सौभाग्य की बात तो नहीं …
फिर मजबूर क्यों होना … … …
:))
पुनः आभार और मंगलकामनाएं !
( …और हां, टीवी पर "बहुत ख़ूब" में आपकी प्रशंसनीय प्रस्तुति के लिए हृदय से बधाई ! )
मैं सबसे पीछे हूँ। राजेन्द्र जी को बधाई इस " गजल " केलिये ( गजल मे नुक्ता नहीं है इस लिये माफी चाहता हूँ) मेरे हिसाब से किसी भी शब्द को मेहमान मत बनाइये बल्कि उसे घर का सदस्य बना लें। कहने का मतलब की अगर हिंदी मे नुक्ता नहीं हैं तो " गजल " ही रहने दें। उर्दू मे " बिरहमन " ही रहने दें। अगर शब्द को मूल भाषा से मिलाते रहेगें तो दो स्थितियाँ आयेगी या तो हिंदी की अपनी कोइ मूल पहचान नहीं होगी या नहीं तो वह जड़ हो जायेगी। अगर आप किसी विदेशी या अन्य भाषा का शब्द अपनी भाषा के नियम से लेतें हैं तो वह सार्थक होती हैं। इससे न तो अपनी भाषा की प्रकृति बदलती हैं और न ही दूसरे भाषा का अपमान होता है। मेरा यही मत है। दूसरे चाहें तो मेरे मत से असहमत हो सकते हैं।
जवाब देंहटाएंतो फिर हम शहर को 12 ही गिनें?
हटाएंवाआह
जवाब देंहटाएंराजेंद्रजी कालजयी रचना रचने के लिए आसमान सी विशाल व् गहन बधाई स्वीकार करें।
मैं खुश नसीब हूँ की मैंने ये रचना आप के मुख से सुनी है और सिर्फ अकेले, कोई और नहीं था श्रवण-साथीदार
आपसे पुन मुलाकात का इंतजार है
आदरणीय राजेन्द्र जी इतना सुन्दर श्रृंगार पर उतने ही कलात्मक ढंग से प्रतीकों का प्रयोग ....बहुत ही लाजवाब है
जवाब देंहटाएंउमंगित और तरंगीत करने वाली
बहुत ही बढ़िया गजल है
बहुत सुंदर प्रस्तुती। मेरे ब्लॉग http://santam sukhaya.blogspot.com पर आपका स्वागत है. अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराये, धन्यवाद
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