गुरुवार, 2 फ़रवरी 2012

राजीव भरोल और अंकित सफर से आज सुनते हैं दो सुंदर ग़ज़लें - ज़िन्दगी की शाख पे फिर फूल बन के लौट आ, रंग ख़ाबों का सुनहरी है अभी तक गाँव में.

सुकवि रमेश हठीला स्‍मृति तरही मुशायरा

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इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गाँव में.
कुछ पुराने पेड़ बाकी हैं अभी तक गाँव में.

कल कुछ व्‍यस्‍तता हो गई थी सो उस कारण कल का अंक आज लग रहा है । कल यूके के भारतीय मूल के साहित्‍यकार श्री तेजेन्‍द्र शर्मा सीहोर के प्रवास पर आये थे । उनके सम्‍मान में एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था । सो उसके कारण व्‍यस्‍तता हो गई थी । श्री तेजेन्‍द्र शर्मा के साथ पुश्किन सम्‍मान से सम्‍मानित कहानीकार श्री हरी भटनागर भी थे । करीब एक घंटे का कार्यक्रम हुआ जिसमें तेजेन्‍द्र जी ने अपनी वक्‍तव्‍य कला  से सबको बांध दिया । विस्‍तृत रपट शिवना प्रकाशन के ब्‍लाग और फेस बुक पर होगी । आज तरही का सिलसिला आगे बढ़ाते हैं और दो युवा किन्‍तु सशक्‍त रचनाकारों से उनकी रचनाएं सुनते हैं । दोनों अपने तरीके से बहुत प्रभावी ग़ज़लें इन दिनों कह रहे हैं । तो आइये सुनते हैं राजीव भरोल और अंकित सफर को ।

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राजीव भरोल

राजीव की ग़ज़लें हर बार कुछ नया दे जाती हैं । कुछ प्रयोग बहुत सुंदर तरीके से किये जाते हैं । राजीव ने जिस प्रकार से बहर पर पकड़ हासिल की है उससे कई बार हैरानी होती है । राजीव के उदाहरण से ये बात सिद्ध होती है कि बहरों का गणित उतना उलझा नहीं है जितना इसके बारे में प्रचार किया जाता है । तो आइये सुनते हैं ये ग़ज़ल

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मेरे बचपन की निशानी है अभी तक गाँव में
इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गाँव में

इसके एहसासों में अब भी हैं पुरानी खुशबुएँ
आँगन आँगन रातरानी है अभी तक गाँव में

शहर में मेरा बड़ा सा घर है, सब सुविधाएँ हैं
फिर भी अम्मा है कि रहती है अभी तक गाँव में

गाँव के जीवन में थोड़ी मुश्किलें भी हैं तो क्या
रंग ख़ाबों का सुनहरी है अभी तक गाँव में

है यहाँ हासिल सभी को अपने हिस्से की खुशी
सब घरों तक धूप आती है अभी तक गाँव में

दर ब दर हूँ मैं मगर बेघर नहीं हूँ दोस्तो
मेरे पुरखों की हवेली है अभी तक गाँव में

बात अंतिम शेर से ही की जाये । बात हो तो वही पुरखों की हवेली की है किन्‍तु मिसरा उला ने जो बात कही है वो शेर को बहुत भारी कर गई है । तिलक जी ने जिस तुलनात्‍मकता की बात कही थी उस पर पूरा उतरता है ये शेर । और फिर सबके हिस्‍से की धूप में भी बहुत सुंदर तरीके से सा जिसको कहा जाये कि सलीक़े से अपनी बात को कह दिया गया है । आंगन आंगन में संयुक्‍त अक्षर का खूबसूरत प्रयोग है । और अम्‍मा के रहने की बात ने नानी की याद दिला दी, जो चार मामाओं के भोपाल शिफ्ट होने के बाद भी गांव में ही रहती हैं । वाह वाह वाह सुंदर ग़ज़ल ।

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अंकित सफर

अंकित को जितना मैं डांटता हूं उतना शायद किसी को नहीं डांटता । विवेकानंद ने कहा है कि शिल्‍पकार उस शिला पर सबसे ज्‍यादा प्रहार करता है जो प्रतिमा बनने की सबसे अधिक संभावनाएं लिये होती है । अंकित में बहुत प्रतिभा है लेकिन बस उसे छांव से निकल कर आना होगा । किसी के जैसा लिखने से लाख गुना अच्‍छा है अपने जैसा लिखना । ''हमें स्‍वयं ही नहीं पता होता कि हम कब अपने आदर्श का अनुसरण करने लगते हैं ।'' दुनिया में जितने भी महान लेखक हुए हैं उनका कोई आदर्श नहीं था । वे ही दूसरों के आदर्श बने । साहित्‍य में फोटोकॉपी नहीं चलती । आइये सुनते हैं अंकित की ये ग़ज़ल । 

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घर की मुखिया बूढी लाठी है अभी तक गाँव में
तजरुबों की क़द्र बाकी है अभी तक गाँव में

सरपरस्ती में बुजुर्गों की सलाहें हैं छिपी
राय, मुद्दों पर सयानी है अभी तक गाँव में

खेत की उथली सी पगडण्डी को थामे चल रही
बैलगाड़ी की सवारी है अभी तक गाँव में

दिन ढले चौपाल पर यारों की नुक्कड़, बैठ कर
रात के परदे गिराती है अभी तक गाँव में

क्या मुहब्बत भी किसी फरमान की मोहताज है?
फैसले ये 'खाप' देती है अभी तक गाँव में

शहर में कब तक जियेगा यूँ दिहाड़ी ज़िन्दगी!
लौट जा घर, दाल-रोटी है अभी तक गाँव में

फूल की खुश्बू ने लांघे दायरे हैं गाँव के
पर बगीचे का वो माली है अभी तक गाँव में

मेरे बचपन की कई यादों के दस्तावेज़ सा
"इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गाँव में."

आ चलें फिर गाँव को, रिश्तों का लेने ज़ायका
एक चूल्हा, एक थाली है अभी तक गाँव में

हठीला जी को समर्पित शेर,
ज़िन्दगी की शाख पे फिर फूल बन के लौट आ
तेरे जाने की उदासी है अभी तक गाँव में

रोंगटे खड़े कर देने वाली उदासी है हठीला जी को समर्पित शेर में । मिसरा उला तो मानो जीकर लिखा गया है । और मिसरा सानी उफ-उफ । कितना कुछ कह रहा है ये एक मिसरा । जिंदगी की शाख पर फिर फूल बन कर लौट आ, अहा क्‍या कहा गया है । और फिर वो शेर लौट जा घर का भाव लिये । दाल रोटी को क्‍या खूब काफिये में गूंथा है । गिरह के शेर में दस्‍तावेज़ का प्रयोग भी खूब बन पड़ा है । और हौले हौले चल रही बैलगाड़ी को लेकर कहा गया शेर मानो बैलगाड़ी की सवारी ही करवा रहा है । वाह वाह वाह खूब कहा है ।

तो आनंद लीजिये दोनों सुंदर ग़ज़लों का और देते रहिये दाद । अगले अंक में मिलते हैं कुछ और रचनाकारों से ।

24 टिप्‍पणियां:

  1. सही कहा आपने, दोनों ही गजलों के आख़िरी शेर अन्दर तक झकझोरते हैं

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  2. हर तरही में कुछ एक शायरों के कलामों का मुझे बेसब्री से इंतज़ार एहत है, उनमे से राजीव जी एक है. आज उनके साथ ही इस अंक में मेरी ग़ज़ल भी आ गई है, वाह.
    "इसके एहसासों में अब भी हैं पुरानी खुशबुएँ...............", वाह वा
    क्या खूब मिसरा गढ़ा है, और सानी में वाकई आँगन आँगन बहुत बहुत सुन्दर प्रयोग हुआ है.
    "शहर में मेरा बड़ा सा घर है, सब सुविधाएँ हैं.................", क्या बात कही है राजीव जी, जिंदाबाद शेर.
    "है यहाँ हासिल सभी को अपने हिस्से की खुशी.................", बेहतरीन शेर बुना है, मज़ा आ गया. उल और सानी के तारतम्य में जो शेर खिल के आ रहा है वो अलग ही आनंद दे रहा है.
    और ये आखिरी शेर तो उफ्फ्फ© ,
    "दर ब दर हूँ मैं मगर बेघर नहीं हूँ दोस्तो
    मेरे पुरखों की हवेली है अभी तक गाँव में."
    वाह वा, राजीव जी.
    आपको ढेरों बधाइयाँ, लाजवाब शेरों के लिए.

    बाकी, अंकित सफ़र के बारे में गुरुदेव बहुत कुछ गए हैं, जिससे वो फूले नहीं समा रहे हैं :) :). और उनसे की गईं उम्मीदों को वो अपनी जिम्मेदारियां समझते हुए पुरजोर कोशिश कर रहे हैं और करते रहेंगे. ...........वाकई, साहित्‍य में फोटोकॉपी नहीं चलती.

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  3. अंकित की प्रतिभा का मैं तभी से कायल हूँ जबसे मैं अंकित की गज़ल पहली बार पढ़ी थी. ..'मेघों की साहूकारी में.."

    यह गज़ल भी बहुत बढ़िया लगी. मतला बहुत खूब है "तजरुबों की कद्र बाकी है अभी तक गाँव में. क्या मिसरा कहा है.
    "सरपरस्ती में बुजुर्गों की सलाहें हैं छिपीं/राय मुद्दों पर सयानी है अभी तक गाँव में." सयानी काफिये का बहुत प्यारा इस्तमाल किया है.
    "खेत की उथली सी पगडण्डी को थामे चल रही/बैलगाड़ी की सवारी है अभी तक गाँव में". क्या चित्र खींचा है. बहुत उम्दा.
    चौपाल पर बैठ कर रात तक गप्पें मारने का मंज़र..वाह.
    "खाप" के बारे में तो मेरे दिमाग में ही नहीं आया की शेर कहा जाए. बहुत अच्छा मुद्दा उठाया है.
    "शहर में कब तक जियेगा यूं दिहाड़ी जिंदगी/लौट जा घर, दाल रोटी है अभी तक गाँव में". बहुत खूब कहा है.. राहुल गांधी के यू पी के चुनावी दौरे की याद या गई. ;)
    "फूल की खुशबू ने लांघे दायरे हैं गाँव के.." वाह.
    "आ चलें फिर गाँव को रिश्तों का लेने जायजा/एक चूल्हा एक थाली है अभी तक गाँव में" क्या बात है.
    गिरह का शेर तो बहुत ही बहुत प्यारा बुना है. दोनों मिसरे जैसे एक दूसरे के लिए ही बने हों.
    हठीला जी को समर्पित शेर भी पसंद आया.
    अंकित को बहुत बहुत बधाई.

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  4. दो शायर दोनों युवा और दोनों कुछ अलग लिखने का जूनून लिए एक साथ आज तरही में नज़र आये हैं. राजीव जी की शायरी में ठहराव है, गहराई है...अपने आसपास के माहौल को अलग से ढंग से देखने वाली नज़र है...क्या खूब शेर कहें हैं उन्होंने वाह...आँगन आँगन रातरानी में संगीत है,...फिर भी अम्मा है के रहती में सादगी है, सब घरों तक धुप में आशाएं हैं और दर बदर हूँ मैं...में क्या नहीं है...उफ्फ्फ...कमाल का शेर है...ये वो शेर है जो आपके अनुसार सीधा ऊपर से उतरता है...बेजोड़...वाह राजीव वाह...आनंद ला दिया भाई...

    अंकित को मैं जानता हूँ उसमें सबसे अलग अंदाज़ में अपनी बात कहने को लेकर एक जूनून है...किसे और किसकी शैली को वो फालो करता है ये तो मुझे नहीं मालूम लेकिन अपने अशआर से हमेशा चौंकाता ये मालूम है...मतले से मकते तक के सफ़र में हर शेर पढने वाले को अपने पास रुकने को मजबूर कर देता है...आप बिना रुके आगे बढ़ ही नहीं सकते...हर शेर में रुकते हैं आगे बढ़ते हैं और फिर से पीछे मुड़ कर देखते हैं...सुभान अल्लाह...इसे कहते हैं "उफ्फ्फ यू माँ..."वाली ग़ज़ल... "तज़रबों के कद्र की बात हो, बैलगाड़ी की सवारी की, खाप के फैसलों की , घर जा कर दाल रोटी खाने की या फिर फूल की खुशबू की सभी में हुस्ने अंकित नज़र आ रहा है. हठीला जी पर कहे शेर पर तो आँखें गीली हो गयीं..."ज़िन्दगी की शाख पर..." ऐसा मिसरा है जो किस्मत के धनि शायरों की कलम के नसीब में आता है...बेजोड़.

    नीरज

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  5. बहुत ही उम्दा है दोनों गज़ले .....बधाई......काफी वक्त बाद ब्लॉग पर आना हुआ

    ख़ुशी हुई आकर ..........

    आम के पेड़ों में लगे बौरों में छुप पर कोयल कूकती है आज भी

    बेर की झाड़ियाँ ,अमरूदों के पेड़ों की मेहरबानी है अभी तक गाँव में



    तालाबों की ठंडक ,पेड़ बरगद के विशाल,और उस पे झुला मुनिया का

    गाँव की बेटी के गले में दुपट्टा ,और कुवे में ठंडा पानी है अभी तक गाँव में

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  6. 'साहित्‍य में फ़ोटो कॉपी नहीं चलती'। बहुत कुछ कह दिया आपने। एक सुखद् संयोग देख रहा हूँ इस तरही में कि 'गर्मियों की ये/वो दुपहरी' की ओर देखे बिना शेर आ रहे हैं और काफि़ले के काफि़ले आ रहे हैं।
    दोनों ग़ज़लों में जिस प्रकार नये-नये संदर्भ नये-नये रूप में प्रस्‍तुत किये गये हैं वो स्‍पष्‍ट कर रहे हैं कि ग़ज़ल नित नये संदर्भ तलाश रही है और महफि़लों की एक विशेष ग़ज़लिया शब्‍दावली से खुले वातावरण में आम बोलचाल के शबदों के साथ जीने को आतुर है।
    अंकित की आज की ग़ज़ल एक अलग ही पहचान के साथ खड़ी है।
    दोनों ग़ज़लें आकर्षक हैं, सधे हुए शबद, सधी हुई वाक्‍य रचना और स्‍पष्‍ट सरोकारों के साथ।
    और अंत में अंकित ने 'आ लौट के आ जा मेरे मीत...' की याद दिला दी।

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  7. बग़ैर किसी उठापटक के यही कहूँगा कि दोनों ही शायरों ने जैसे हद ही कर दी शायरी ! क्या खूबी के साथ शे'र कहे गए हैं! अंकित ने उपर सही कहा है की तरही जब शुरू होती है तो कुछ एक शायरों के क़लाम का इंतज़ार की जाती है और उसमे राजीव जी भी आते हैं! वेसे भी आजकल ये फोर्म मे चल रहे हैं, नज़्दीक की चीज़ों को मह्सूसीयत के दायरे मे रखते हुये उसे अल्फाज़ों मे तब्दील करना ही राजीव जी को अन्य से अलग करती है!
    ख़्यालों के पर पे उडाने का काम करती हैं अंकित की शायरी! एक अलग खाका खिंचती हैं शे'र जैसे चित्र बनाते हैं! और फिर वो सारा दृश्य ज़ह्न मे उतरता चला जाता है! बेहद क़रीब से जानते हुये भी ऐसा लगता है अंकित को की इस्की शायरी का जो दायरा है वो काफ़ी बडा है! और ये बात सच भी है!
    मगर उसको ज़्यादा डांटने की बात ??????


    दोनों को बहुत बधाई इस तरही को एक अलग ही मुक़ाम पे पहुंचाने के लिये!

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  8. बेहद उम्दा दर्ज़े की ग़ज़लों के लिए राजीव भरोल तथा अंकित सफ़र को बहुत बहुत बधाई । “रदीफ़ को रूह में जज़्ब कर के कही हुई ग़ज़लें हैं ये । बधाई आपको भी । गाँव से दूर होते हुए भी गाँव से दिलो-दिमाग़ का रिश्ता जो हमेशा क़ायम रहता है , इन ग़ज़लों में बाख़ूबी प्रतिबिम्बित होता दिखाई दे रहा है।

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  9. आज तो मज़ा ही आ गया इतनी लाजवाब ग़ज़लें पढ़ने के बाद ...
    राजिव जी की ग़ज़लें हमेशा दिल को छूती हैं ... वैसे भी जब आप किसी की तारीफ़ करते हैं तो उसके इये कड़ी चुनौती होती है और राजीव जी पूरा खरा उतारते हैं उस पर ...
    इसके एहसासों में ... गाँव की खुशबू लिए है .. शहर में मेरा बड़ा सा घर है ... एक ऐसी हकीकत है जिसको कई लोग भोगते हैं रोज ही ... और आकिर वाला शेर तो दिल को बिना आवाज़ के उतर गया ... दर ब दर हूँ मैं मगर ... निःशब्द हूँ अपनी इस सच्चाई को देख कर ..
    और अंकित जी ने जितने भी शेर कहें करीब करीब सभी गाव की मिटटी को जी रहे हैं ... उसकी खुशबू हर शेर से आ रही है ... चाहे वो मतले का शेर हो ... या फिर सरपरस्ती में बुजुर्गों की ... या फिर खेत की उथली सी ... या दिन ढले ... और फिर गिरह वाला शेर तो इस अंदाज़ में बाँधा है की सुभान अल्ला ... जियो अंकित जी ... हठीला जी को समर्पित शेर भी जैसे दिल से निकली आवाज़ की तरह है ....

    ये मुशायरा नयी ऊँचाइयों को जा रहा है और कहाँ जा के रुकेगा .... पता नहीं ...

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  10. किसी तरही के अंत तक आते-आते अपेक्षाओं का स्तर (बार) ऊँचा हो जाता है, कथन और भाव धीरे-धीरे सुने-सुनाये हो जाते हैं. मन को चमकृत करने के लिए कुछ जादू भरे कलाम चाहिए होते हैं.
    बहुत खूबसूरत शेर कहे हैं दोनों शायरों ने. मन खुश हुआ.
    राजीव जी, आपको सबसे पहले "दर ब दर हूँ मैं मगर बेघर नहीं हूँ दोस्तो" ... पे बधाई देना चाहती हूँ ! बहुत ही खूबसूरती से गढ़ा हुआ, बहाव लिए हुए और एक बहुत प्यारी बात कहता हुआ शेर.
    "शहर में मेरा बड़ा... " बड़ी सादगी से सच्ची बात कही है.ये ही फ़न की निशानी है! जाने कितने लोगों का सच है ये.
    "गाँव के जीवन में"...अच्छा बहाव है मिसरे में.
    "है यहाँ हासिल.." ये भी सुन्दर सोच ..ये दोनों शेर बिना कहे ही ये कह जाते हैं कि सोचो शहर में क्या हाल है.
    ----
    अंकित जी आपको "खेत की उथली सी पगडंडी को थामे चल रही ..." के लिए दुआएं पहुंचे! बहुत देर तक मधुबनी की आँचल में छिपा अपना गाँव याद आता रहा, जैसे अनन्या के " मंद स्वर" से याद आया था.
    रात के परदे गिराने .... वाह!
    ...दिहाड़ी ज़िंदगी...ओह! बहुत सुन्दर, सशक्त और सार्थक शेर! आमीन!
    फूल की खुशबू वाला भी बड़ा ही गहरा शेर है... जो शब्द हैं उनसे भी बहुत बड़ा है उसका कथ्य!
    दस्तावेज़ की गिरह...अति सुन्दर!
    रिश्तो का जायका.... सच वहीँ मिलता है जहाँ सम्मिलित परिवार हों, जहाँ चूल्हे कभी बंटते नहीं!
    बहुत प्यारी बातें सोची है आपने अंकित जी और उन्हें नाज़ुक सा लिबास पहना दिया है.
    ज़िंदगी की शाख पे... आदरणीय हठीला जी को अद्भुत श्रदांजलि!
    ========
    आप दोनों की कलम नई बुलंदियों को छुए.
    सादर शार्दुला

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  11. राजीव की ग़ज़लों का शुरू से प्रशंसक रहा हूँ मैं| हट कर लाये गए कथ्य और अपना अलग-सा अंदाज़ उसकी विशेषता रहती है| आखिरी दो शेर खास कर बहुत बहुत पसंद आए| बधाई राजीव इस अच्छी तरही के लिए...

    अंकित के लिए क्या कहूँ| उसमें तो जान धड़कती है अपनी| उसके ये सारे अशआर पहले ही सुन चुका था फोन पर| फिर से लाजवाब हुआ उन्हें यहाँ पढ़कर| लेकिन जहाँ तक मेरा ख्याल है अंकित ने इन दो-तीन सालों में अपनी एक विशिष्ट शैली बना ली है, जो खुद उसकी अपनी है- खास अपनी| गुरू तो स्वाभाविक रूप से पैना ओबजरवेशन रखेंगे अपने चहेते शागिर्द पर... लेकिन अंकित की अपनी शैली को क्रेडिट तो देना ही पड़ेगा गुरूदेव को|
    :-)

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  12. dono ghazalein padh kar maza aa gaya!
    Rajeev ji aur Ankit ji ko badhaai!

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  13. दर ब दर हूँ मैं मगर बेघर.......
    बहुत ख़ूब राजीव !!!

    है यहाँ हासिल सभी को ............
    क्या बात है !!!
    सब घरों तक धूप का पहुंचना बहुत कुछ कह रहा है
    बहुत ख़ूब !!

    लौट जा घर, दाल रोटी ....अंकित ये मिसरा दिल को छू रहा है

    फूल की ख़ुश्बू ने...........
    बहुत ख़ूबसूरत शायरी का मज़ाहेरा किया गया है
    ऐसी ग़ज़लें पढ़वाने का शुक्रिया अंकित और राजीव

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  14. सुबह से ४-५ बार तो पढ़ ही चुका हूँ

    राजीव जी राजीव जी राजीव जी
    ये सब कैसे करते हो आप ....
    ऐसा महसूस होता है मेरे दिल की बात को आप शब्दों में ढालते हैं

    अंकित भाई के लिए बस इतना ही कि
    आप तरही मुशायरे की ग़ज़ल लिखते नहीं बल्कि जीते हैं
    हठीला साब के लिए आपने जो अदभुद शेर कहा है उसके लिए आपको अनंत धन्यवाद

    गुरुदेव आप मुझे भी थोडा ड़ाट दिया करें,शायद मैं भी एक दो अच्छे शेर कह सकूं ...

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  15. औरों की तरह मैं भी राजीव जी की शायरी का मुरीद रहा हूँ. आमफहम अल्फाजों में
    गहरा मानी समेटे उनके अशार सीधे दिल को छूते हैं. यह ग़ज़ल भी उनकी इसी शैली की बानगी है. बहरहाल मेरे वास्ते जो शेर हासिले-ग़ज़ल है वो ये है-"है यहाँ हासिल सभी को अपने हिस्से की ख़ुशी/सब घरों तक धूप आती है अभी तक गाँव में". महानगरीय जीवन में न्यस्त मार-काट और बेजा अफरा-तफरी को आइना दिखाता यह शेर मैं भूल नहीं पा रहा हूँ. ऐसी सुन्दर ग़ज़ल के लिए राजीव जी को हार्दिक बधाई.

    अंकित जिस तेजी से समकालीन शाइरी में अपना मुकाम बना रहे हैं, लगता है उसी मिहनत से अपनी रचनात्मकता को भी सान पर चढ़ा रहे हैं. उनकी ग़ज़लें निरंतर पहले से बेहतर हो रही हैं. रचना में अमूर्त का आकर्षण आसान है लेकिन उसे साधना उतना ही दुरूह. अंकित ने अपनी रात के पर्दे गिराने वाले शेर में इसे बखूबी साधा है.उन्होंने गिरह भी क्या सलीके से बांधी है.और हठीला जी को समर्पित शेर के बारे में गुरु जी ने जो कहा है उसके बाद और कुछ कहने को रह नहीं जाता.जिगर को चाक करना यही तो कहलाता है....मुबारकबाद कबूल करो दोस्त.

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  16. "सब घरों तक धुप आती है..."
    राजीव जी ने क्या कह दिया है मानो इस मिसरे में. मैं इसे मिसरा उला से जोड़कर नहीं बल्कि स्वतंत्र और ख़ास लाइन के रूप में याद रखना चाहूँगा.
    और आखरी शेर... में मेरे पास भी है पुरखो की हवेली में जो दर्द है सो बहुत है.

    अंकित भाई ने तो बहुत सारे शेर कहें हैं आज और सभी अपना असर लिए हुए है
    मतले में घर की मुखिया का जीवंत चित्रण है.
    गिरह के शेर में - "मेरे बचपन की कई यादों के दस्तावेज सा..."
    बहुत सुन्दर !!

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  17. राजीव जी अंकित जी हर एक शेर लाजवाब है , मजा आ गया पद कर, हर शेर को पद कर सिर्फ एक ही आवाज आ रही है वाह वाह ........

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  18. राजीव भरोल का तीसरा, चौथा और पांचवा शेर और अंकित सफर का छटा शेर और मक्ता खूब पसंद आए !

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  19. बहुत ही खूबसूरत अश’आर कहे हैं दोनों ही शायरों ने।
    दर ब दर वाला शे’र तो कहर ढा रहा है, इस शानदार ग़ज़ल के लिए राजीव जी को बहुत बहुत बधाई।
    अंकित जी ने "जिंदगी की शाख पर.." कहकर गजब कर दिया। बहुत बहुत बधाई इस नौजवान शायर को इतने शानदार अश’आर कहने के लिए।

    "साहित्य में फोटोकॉपी नहीं चलती" कितना बड़ा सच कितनी आसानी से कह दिया गया है। ये वाक्य ही अपने आप में एक ग़ज़ल है।

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  20. क्या ही विचित्र संयोग ! मैं अपने गाँव की ओर गया था जिस कारण इस पन्ने पर आने में मुझसे विलम्ब हो गया. माटी को सूँघ कर आया हूँ और मन उत्फुल्ल है. वापसी पर दोनों ग़ज़लें देख रहा हूँ.. . अह्हाह !

    राजीवजी को मैंने इन्हीं पन्नों के माध्यम से जाना है. फिर तो संजोग बनते गये हैं और पढ़ता गया हूँ. हर बार संतुष्टि मिली है.
    आपकी प्रस्तुत ग़ज़ल पर अबतक बहुत कुछ कहा जा चुका है. अधिकांश उन्हीं बातों को दुहराना अजीब सा लगता है, किन्तु, आँगनांगन ने जिस सलीके से रात की रानी को खिलाया है, वह मुग्ध कर देने वाला है.
    या फिर, अपने हिस्से की खुशी और सब घरों तक धूप के आने की बात पर हृदय बार-बार अभिभूत हो उठता है.
    अपने सिर पर अपनत्त्व की छाँव और अपने परिचय में परंपरा के संबल के होने की घोर संतुष्टि ज़िन्दग़ी के प्रति कितना आश्वस्त रखती है यह आखिरी शे’र में बखूबी निखर कर आया है. राजीव जी बहुत खूब.. . बहुत-बहुत खूब !
    हृदय से बधाई.

    ****

    अंकित ’सफ़र’. यह नाम अतिशय आशाएँ जगा रहा है. अंकितजी के बारे में पंकजजी का कहा यह साबित करता है कि इन्होंने पंकजजी को कितना प्रभावित कर रखा है ! वाह !
    प्रत्येक शे’र अपने-अपने हिसाब और लिहाज से मुकम्मल है.
    डिसर्निंग ऑब्जर्वेशन कलमगोई के लिये अन्यतम साधन है. आश्वस्ति यह है कि अंकितजी की आँखें खुली तो हैं ही, परख भी रखती हैं. तभी तो इस तरह का शे’र उमग पड़ता है -
    खेत की उथली सी पगडण्डी को थामे चल रही
    बैलगाड़ी की सवारी है अभी तक गाँव में

    वाह-वाह !
    हठीलाजी को समर्पित शे’र पर हृदय भर आया है.
    अंकितजी से उम्मीद बनी है, यह अनायास नहीं है.

    आज इन दोनों शायरों को सुनना बहुत कुछ कह गया है.. धीरे से, मग़र पुरका वज़न के साथ.. .

    सादर
    सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)

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  21. दो तीन दिन नेट पे नही आ पाई शायद इसी लिये इन दोन गज़लों को पढने से वंचित रह गयी। इन दोनो ने तो और भी कमाल कर दिया। मेरे प[अस शब्द नही कि कुछ कह सकूँ__ ये दोनो गज़ल के मामले मे अब उस्ताद शायर बन गये हैं सब ने बहुत कुछ कह दिया और मै हर शेर पे वाह वाह कर्रही हूँ दोनो को बहुत बहुत बधाई और शुभकामनायें। ये शेर कोट किये बिना नही रह सकी
    राजीव---
    शहर मे मेरा बडा सा घर------ वाहपने दिल की भावनाओं को महसूस किया राजीव ने ----- है यहाँ हासिल----
    गाँव के जीवन मे--- वाह बहुत खूब
    और आँकित-----
    घर की मुखिया बूढी---- गाँवों की पारिवारिक तहज़ीब् सच मे अभी तक गाँवों मे दिखती है
    क्या मुहब्बत भी -----
    मेरे बचपन की कई ---- वाह वाह कमाल की गज़ल लिखी है अंकित ने दोनो को बधाई।

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  22. एक साथ दो धुरंधरों की ग़ज़ल लगायी गुरू जी...!

    राजीव जी बहुत कम समय में बहुत अच्छी ग़ज़ल कहने वालों में एक है

    शहर में मेरा बड़ा सा घर है, सब सुविधाए हैं,
    फिर भी अम्मा है कि रहती है अभी तक गाँव में....!

    हर माँ की बात...!

    और

    दर ब दर हूँ मैं मगर, बेघर नही हूँ दोस्तों,
    मेरे पुरखों की निशानी है अभी तक गाँव में....

    एक दम सही ये भी अधिकांश लोगों का सच...!

    और अंकित

    क्या मोहब्बत भी किसी फरमान की मोहताज़ है... "खाप" प्रथा का किस अंदाज़ में विरोध किया है...!

    शहर में कब तक जियेगा यूँ दिहाड़ी जिंदगी... ये शेर याद दिलाता है, मशहूर गीत की उस पंक्ति की " आजा उमर बहुत है छोटी, अपने घर में भी है रोटी" मार्मिक कहूँ तो ग़लत ना होगा शायद

    फूल की खुशबू ने लाँघे दायरे हैं गाँव के... बहुत बढ़िया मेरे भाई, बहुत बढ़िया "देखन में छोटे लगे घाव करें गंभीर" वाला शेर है, ये.... जियो और ऐसे ही लिखते रहो...!

    हठीला जी को समर्पित शेर... जो मुझे जानते हैं, वो जान ही गये होंगे कि कतने गहरे असर किया होगा मुझे ये शेर....!!!!!

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