सुकवि रमेश हठीला स्मृति तरही मुशायरा
कुछ पुराने पेड़ बाकी हैं अभी तक गॉंव में।
इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गॉंव में।
तरही मुशायरा आज कुछ भावुक होने जा रहा है । दरअसल श्री तिलक राज जी की दो ग़ज़लें तो मुझे पहले ही मिल गईं थीं लेकिन अंकित के शेर पर मेरी भावुक टिप्पणी के चलते उनको लगा कि मेरे मन में श्री हठीला जी आज भी बहुत गहरे कहीं बसे हैं । सो ये ग़ज़ल भले ही उन्होंने हठीला जी को समर्पित की है लेकिन मैं जानता हूं कि ये मेरे लिये ही लिखी है । मेरी भावनाओं के प्रति लिखी है । पढ़कर एकबारगी गहन शोक में डूब गया । आंसू रोक नहीं पाता सो बह पड़े । मन में एक सन्नाटा सा खिंच गया । तो आइये आज सुनते हैं श्री तिलकराज जी से उनकी तीन शानदार ग़ज़लें ।
श्री तिलकराज कपूर
स्वर्गीय रमेश 'हठीला' के विषय में जो कुछ जानता हूँ वह आपके ब्लॉग के माध्यम से ही जाना है। आपके माध्यम से आपके भावों को समझने का एक प्रयास किया है और यही प्रयास इस तरही में है।
भाव से भीनी ये माटी है अभी तक गॉंव में
याद जो तेरी दिलाती है अभी तक गॉंव में।
भाव गीतों से कभी सींचा जिसे तुमने यहॉं
इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गॉंव में।
सृष्टि का नियमन तुझे शायद कभी फिर लायेगा
आस ये, समझा के जाती है अभी तक गॉंव में।
जानता हूँ, मानता हूँ, देह नश्वर है मगर
ऑंख है, भर-भर ही आती है अभी तक गॉंव में
देह मिट्टी थी मिली मिट्टी में लेकिन रूह तो
प्यार के नग्मे सुनाती है अभी तक गॉंव में।
मुस्कुराहट मॉंगकर तुम किस जहॉं को चल दिये
जि़न्दगी तुमको बुलाती है अभी तक गॉंव में।
गीत, कविता, कुण्डली लिखती सुनाती देह वो
मुस्कराती, गुनगुनाती है अभी तक गॉंव में
इक हठीला शख्स था इस गॉंव पर छाया हुआ
याद जिसकी सबको आती है अभी तक गॉंव में।
दूर से भी हो ध्वनित गर, गीत मेरे मित्र का
साथ पुरवैया भी गाती है अभी तक गॉंव में।
देह मिट्टी थी मिली मिट्टी में लेकिन रूह तो प्यार के नगमे सुनाती है अभी तक गांव में, गहरी बात को सरलता से कह डालना ही उस्ताद शाइरों का गुण होता है । सो तिलक जी ने इस शेर में अपने गुण का ही निर्वाह किया है । दूर से भी हो ध्वनित गर गीत मेरे मित्र का, बहुत सुंदर तरीके से श्रद्धांजलि दी है तिलक जी ने । पूरी ग़ज़ल मानो एक सकारात्मक शोक गीत है । सकारात्मक इसलिये कि नश्वरता के बाद बचे रह जाने वाले अंश की बात करती है । खूब ।
मेरी एकवचन और बहुवचन तरही इस प्रकार हैं।
काफि़यों का वृहद् दायरा और रदीफ़ का कड़ा बंधन इस बार रुचिकर रहा।
शाम बचपन सी सुहानी हैं अभी तक गॉंव में
चिट्ठियॉं लिखकर बुलाती हैं अभी तक गॉव में।
एक पीढ़ी बाद लौटा पर ये स्वागत कह गया
कुछ पुराने पेड़ बाकी हैं अभी तक गॉंव में।
कोर्ट या कोई कचहरी के बिना भी देखिये
शॉंति से हर बात सुलझी हैं अभी तक गॉंव में।
पंच परमेश्वर बने जो न्याय दें मंज़ूर है
फ़ैसले चौपाल करती हैं अभी तक गॉवं में।
खेत औ खलिहान की सारी थकन गायब लगे
शाम जब चौपाल सजती हैं अभी तक गॉंव में।
योजनायें तो बनीं औ काम भी उन पर हुआ
सूरतें लेकिन न बदली हैं अभी तक गॉंव में।
शह्र की रंगीनियों के रंग सब नकली मिले
रंग असली, भाव असली हैं अभी तक गॉंव में।
शादियॉं नाबालिगों की, सोच में बन्धन कई
मानता हूँ ये खराबी हैं अभी तक गॉंव में।
हो खुशी का कोई अवसर, नाम पर मिष्ठान्न के
शहद सी गुड़ की वो भेली हैं अभी तक गॉंव में।
ज़ेह्न में आकर बसी तो, लौटना मुश्किल हुआ
हॉं वही चम्पा चमेली हैं अभी तक गॉंव में।
मन वचन औ कर्म में अंतर नहीं देखा कभी
आदमी की बात सच्ची हैं अभी तक गॉंव में।
हास औ परिहास की सीमा नहीं लॉंघे कभी
ऐसी मर्यादित ठिठोली हैं अभी तक गॉंव में
सर्वशिक्षा का चला अभियान 'राही' बेटियॉं
हाथ मॉं का ही बँटाती है अभी तक गॉंव में।
योजनाएं तो बनी औ काम भी उन पर हुआ, ये शेर भोगा हुआ यथार्थ है । तिलक जी स्वयं जिम्मेदार अधिकारी हैं, सो योजनाओं के कहीं तक नहीं पहुंच पाने की जो कसक होती है उसे उन्होंने सुंदर तरीके से व्यक्त किया है । गिरह का शेर भी सुंदर है एक पीढ़ी बाद लौटने का स्वागत और उससे उत्पन्न सुख की ठंडक से भरा हुआ ये शेर । मर्यादित ठिठौली में गूढ़ अर्थ है । बहुत सुंदर ग़ज़ल । वाह वाह वाह ।
एकवचन में:
जंगलों की शेष थाती है अभी तक गॉंव में
इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गॉंव में।
जो कचहरी को गया वो मामला निपटा नहीं
न्याय पंचायत दिलाती है अभी तक गॉंव में।
मोह मिट्टी का नहीं छोड़ा गया मॉं से कभी
खैर बच्चों की मनाती है अभी तक गॉंव में।
धूसरित हो खेलने की जादुई चाहत वही
बॉंह फैलाये बुलाती है अभी तक गॉंव में।
एक बिरहन आपकी ही याद में खोई हुई
मॉंग में लाली सजाती है अभी तक गॉंव में।
शह्र में दिखते हैं लेकिन चंद टुकड़े धूप के
हर डगर ये मुस्कराती है अभी तक गॉंव में।
जिस हवा को लोग कहते हैं नसीबा है यहॉं
हर घड़ी वो सरसराती है अभी तक गॉंव में।
एक हरियाली भरा टुकड़ा यहॉं मुश्किल हुआ
जिसकी चादर लहलहाती है अभी तक गॉंव में।
कार धोने में लगे, उतने ही पानी में वहॉं
कोई घर अपना चलाती है अभी तक गॉंव में।
खेत में दिन रात श्रम के मोल की बातें बता
क्या हवेली ज़ुल्म ढाती है अभी तक गॉंव में।
भूत-प्रेतों औ पिशाचों डायनों की कुछ सुना
बात क्या- इनकी डराती है अभी तक गॉंव में।
नस्ल की चाहत मगर बेटी से क्यूँकर फ़र्क जो
जन्म ते ही मौत पाती है अभी तक गॉंव में।
साठ बरसों बाद भी बिजली अगर पहुँची कभी
रस्म भर को टिमटिमाती है अभी तक गॉंव में।
हर तरफ़ ग्रामीण सड़के बन गयीं लेकिन सड़क
बारिशों में कट ही जाती है अभी तक गॉंव में।
एक चुटकी भर हिना नवयौवना को जब मिले
खिलखिला उठती हथेली है अभी तक गॉंव में
ऑंख में अंजन, महावर पैर में धारे हुए
राह वो तकती अकेली है अभी तक गॉंव में।
शह्र में बिजली मगर अँधियार देखा हर तरफ़
चॉंदनी हर घर में फ़ैली है अभी तक गॉंव में।
शह्र के वातानुकूलन में नहीं 'राही' मगर
मंद पुरवैया झुलाती है अभी तक गॉंव में।
आंख में अंजन, महावर पैर में धारे हुए, शेर में जो 'धारे' शब्द आया है उसे तो क्या कहें, दीवानावार होकर दाद जिस शब्द पर दी जाती है शायद ये वही शब्द है । मतला भी दूसरे अर्थ में यदि देखा जाये तो बहुत कुछ कह रहा है । किस थाती की तरफ शाइर इशारा कर रहा है वो समझना महत्वपूर्ण है । बिजली का रस्म भर का टिमटिमाना मैंने भोगा है, सो ये शेर मन के बहुत क़रीब लग रहा है । सुंदर ग़ज़ल, खूब ।
तो आज आनंद लीजिये तीनों ग़ज़लों का, दाद देते रहिये । मिलते हैं अगले अंक में कुछ और रचनाकारों के साथ ।
गाँव दुलराता हृदय की छाँव में..
जवाब देंहटाएंतीनो ही बेहतरीन और भावुक करती गजलें !
जवाब देंहटाएंतिलकराज जी की गज़लों मैं गाँव की खूबियों और साथ साथ कमियों की बयानी गाँव की एक समूची तस्वीर प्रस्तुत करती हैं !हर पहलू को इनमें छुआ गया है तथा शेरों की रवानगी अच्छी बन पड़ी है !
जवाब देंहटाएंवाह वाह क्या कहने बहुत खूब सर जी
जवाब देंहटाएंएक अलाद्दीन था जिसके पास जादू का चिराग था उसे घिसने पर एक जिन्न प्रकट होता था...जब भी मैं तिलक जी को पढता हूँ मुझे वो जिन्न याद आता है...उसके लिए दुनिया का कोई काम असंभव नहीं हुआ करता था...ये बात तिलक जी पर शतप्रतिशत लागू होती है...किसी विषय पर बात करें उनके पास इतना कुछ बताने को होता है के सोचना पड़ता है ये इंसान है या जिन्न? मैं तो उनकी इस क़ाबलियत पर सौ सौ जान निछावर करने को तैयार रहता हूँ...अब इस तरही को ही लीजिये...हम जैसे लोग जहाँ एक एक शेर के लिए दिमाग का दही किये रहते हैं वहीँ तिलक साहब यूँ शेर कहते हैं जैसे ऐ.के.४७ से गोलियां निकल रही हों...इतना उर्वक दिमाग किसी इंसान के पास होना संभव नहीं...इसीलिए मैं उन्हें प्यार से जिन्न कहता हूँ...
जवाब देंहटाएंहठीला जी पर कहे उनके अशआर सीधे दिल में उतर भावुक कर जाते हैं...ये तो तब है जब वो हठीला जी से रूबरू नहीं मिले हैं...अगर मिले होते तो यक़ीनन खून के आंसू निकलवा देते...हठीला को याद करती हुई उनकी ग़ज़ल गीता का उपदेश भी देती चलती है...उनकी ग़ज़ल को पढ़ कर वो आंसू आते हैं जिनके कहा गया है "आंसू तो वही इक कतरा है, पलकों पे जो तडपे बह न सके". मुझे हठीला जी की ग़ज़ल को पढ़ कर आँख बंद किये बहुत देर तक शांत बैठे रहना पड़ा...
तरही में एक वचन और बहु वचन में जो अशआर उन्होंने कहें हैं वो ग़ज़ल के विद्द्यार्थियों के लिए किसी पाठशाला से कम नहीं...उनकी ग़ज़लों से हम ग़ज़ल कहने की कला के बारे में बहुत कुछ सीख सकते हैं. दोनों ग़ज़लों में काफियों का निर्वाह देखते ही बनता है...वाह...तिलक जी वाह...पंजाबी में कहूँ तो "खुश कर दित्ता तुसी..." किसी एक आध शेर को अलग से कोट कर बाकि शेरों से किया गया अन्याय मुझे बर्दास्त नहीं होगा...सभी शेर अपनी जगह कमाल के हैं और गरज रहे हैं...
मुझे लगता है, तरही उस ऊँचाई पर पहुँच चुकी है जिसे देखने के लिए अब दस्तार या टोपी का गिरना लाज़मी है...
नीरज
वाह. क्या ग़ज़लें कहीं हैं. तिलक जी की सहज में ही ढेरों और बेहतरीन शेर कहने की क्षमता के आगे मैं नतमस्तक हूँ. तीन ग़ज़लें और कमाल के शेर!
जवाब देंहटाएंहठीला जी को श्रद्धांजलि के रूप में बहुत ही भावुक ग़ज़ल कही है.
तिलक जी बहुत बहुत बधाई और धन्यवाद.
मैं तिलक जी के लेखन पे किस मुँह से कुछ कहूँ...फ़िर भी बस नमन कर के जाना ठीक नहीं लग रहा, ख़ास कर इस बार. सो हिम्मत कर के लिख रही हूँ:
जवाब देंहटाएं"भाव गीतों से जिसे सींचा कभी तुमने यहाँ..." बहुत खूबसूरत सोच और कहन .
" जानता हूँ मानता हूँ ..." बेहद नाज़ुक और संजीदा शेर.
"देह मिट्टी थी...." बहुत कस के गठा हुआ मिसरा...बहुत सुन्दर!
"दूर से भी हो ...." अतिसुन्दर!
इससे बेहतर श्रद्धांजलि क्या होगी हठीला जी को!
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"योजनायें तो बनी और काम भी उन पर हुआ... "यथार्थ के करीब शेर, हालात के दोनों पक्षों को देखता हुआ.
"शादियाँ नाबालिगों की..." बेहतरीन शेर!
" हास और परिहास ...." 'ठिठोली' का काफिये में सुन्दर इस्तेमाल! गहरी बात भी!
"मन, वचन और कर्म..." बहुत ही अच्छे ढंग से कहा हुआ मिसरा.
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ये ग़ज़ल मुझे तीनो ग़ज़लों में सबसे खूबसूरत लगी.
नए नज़रिए, नयी बात और कहन की सुन्दरता ने इस ग़ज़ल के अधिकतर अशआर यादगार बना दिए हैं:
" जंगलों की शेष थाती ..." वाह क्या बात है! लाजवाब शेर!
"जो कचहरी को गया....." कितनी पैनी बात, पर सार्थक सोच के साथ! बहुत खूब!
"मोह मिट्टी का नहीं...." उफ्फ्फ...क्या खूबसूरत अल्फाज़ में कही है आपने सबकी कहानी. नमन!
"धूसरित होने की...." क्या शब्द हैं, क्या कथ्य है...बस मज़ा ही आ गया...आला और निराला शेर है ये.... सच जो मज़ा धूसरित हो खेलने में है वह यहाँ बौलिंग-एली में कहाँ :(
"कार धोने में लगे उतने ही पानी में वहाँ, कोई अपना घर चलाती है अभी तक गाँव में" ... इतना संजीदा, इतना महत्वपूर्ण शेर है ये कि निशब्द करता है! बहुत ही सार्थक लेखन!
"खेत में दिन रात श्रम..." वाह!
"साठ बरसों बाद... रस्म भर को टिमटिमाती..." सच में ज़मीनी हकीकत बयां की है आपने!
"हर तरफ ग्रामीण सडकें...." ये कोई भारत में रह के, बरसात में गाँव के आस पास का हाल जान के ही लिख सकता है. मुझे सच में इस ग़ज़ल में जो यथार्थपरक सरोकार है गाँव से वह बहुत प्रभावित कर रहा है.
अंत में "एक चुटकी भर हिना... " इस शेर के ख्याल, सौंदर्य और इसमें छुपी हुई ये सच्चाई कि कितना काम चाहिए सच में ख़ुशी के लिए...इस शेर को स्वयं खूबसूरत बनाते हैं हिनाई हथेली की भांति!
बहुत अच्छा लगा आपको पढ़ के तिलक जी! नमन स्वीकारें!
उपरोक्त ही नहीं बल्कि हर शेर में, मिसरों का एक दूसरे में यूँ गुंथ सा जाना बहुत सुन्दर लगा!
सादर शार्दुला
Lord Tennyson लिखित 'Home They Brought Her Warrior Dead' शायद पहली कविता थी जिसे पढ़ते-पढ़ते मैं रो पड़ा था। अश्रु की ताकत को हर उस व्यक्ति ने अनुभव किया होगा जिसने इसे रोकने का कभी प्रयास किया हो।
जवाब देंहटाएंमनुष्य में भावशून्यता हो ही नहीं सकती यही भावों की छैनी शब्दों की मूरत को तराशती है।
आज की तीनों तरही कुछ ऐसे ही भावों को जीने का प्रयास है।
पंकज भाई स्वभाव से सीधे, सच्चे ओर सरल हैं ऐसे व्यक्ति जिससे जुड़ते हैं हृदय से जुड़ते हैं और यही कारण है कि मैं उनके मनोभावों को समझने में काफ़ी हद तक सफ़ल रहा।
पंकज भाई का व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा है कि इस ब्लॉग से जुड़ने वाले के लिये इससे अलग हो पाना असंभव सा है।
भावाभिभूत हूँ टिप्पणियों से।
जवाब देंहटाएंहृदय से आभारी हूँ आपके मूल्यवान समय के प्रति जिसने टिप्पणी के रूप में नई ऊर्जा प्रदान की है।
विशेष आभार नीरज भाई और शार्दूला बहन के लिये।
तीनों गज़लें बेहतरीन!!
जवाब देंहटाएंक्या बात है इस पोस्ट पर एक टिप्पणी से काम नहीं चलेगा। इसलिए ढेर सारी बधाई के साथ इसको अंतरिम टिप्पणी समझा जाय। फिर लौटूँगा सविस्तार...तिलक राज जी की जय जयकार....
जवाब देंहटाएंजब कोई संवेदनशील और जिम्मेदार रचनाकार ह्रदय के अंत:करण से श्रद्धांजलि दे रहे हों तब ही ऐसी पंक्तियाँ उधृत होती हैं. आदरणीय तिलक जी ने इस "हठीला स्मृति तरही" को जो उंचाई दी है
जवाब देंहटाएंउनके सम्मान में सर स्वत: झुकता है. गाँव का सम्पूर्ण चित्रण करते हुए इतने सारे अशआर सुन आनंद से भर गया.
आदरणीय तिलकराज जी, सादर नमन.. .
जवाब देंहटाएंकृतकृत्य हूँ इक अज़ीबो खास भाई है अभी तक साथ में...
सादर
सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)
गाँव की सोंधी महक से मन का गाँव महक उठा , वाह !!!!!!!
जवाब देंहटाएंमुस्कुराहट माँगकर .........
जवाब देंहटाएंबहुत ज़बर्दस्त भावभीनी श्रद्धाँजलि !!
खेत औ खलिहान ........
बिल्कुल सच कहा आप ने तिलक जी ,,गाँव जाने की इच्छा और बलवती हो गई
मोह मिट्टी का नहीं ............
बेहतरीन !!!!
यूँ तो तीनों ही ग़ज़लों में हर शेर ख़ुद को पढ़वा रहा है लेकिन सब का कोट किया जाना मुम्किन नहीं होता
लिहाज़ा ,,बहुत ख़ूब !!!बहुत उम्दा !!ही कह सकती हूँ
तिलक जी और पंकज को बधाई !!
गुरूवर,
जवाब देंहटाएंपहले तो अपने ब्लैक्बेरी से सीधे ही टिप्पणी का प्रयास कल ही किया था, लेकिन नाकामयाब रहा।
आदरणीय तिलक जी को पढ़ने के बाद जाना कि मुझसे न जाने कितने और होंगे जो उअल्झे रहे होंगे कि किस तरह या किसी तरह कोई बात तो जमे} लेकिन उस्ताद होने का फर्क यहीं तो देखा कि किस तरह मिसरा ये हो या वो यानि एकवचन या बहुवचन दोनों पर सीधी नकेल डालकर अपने मनमाफिक नचाना केवल उस्तादों के बस की ही बात है। एक न्ही, दो नही पूरे चालीस शे’र तीन गज़लों में।
मुस्कुराहट माँगकर तुम किस जहाँ को चल दिये
जिन्दगी तुमको बुलाती है अभी तक गाँव में
और फिर गाँव लौटने पर हुआ स्वागत से लगाकर कोर्ट, कचहरी, पंचायत, चौपाल फिर गुड़ की मिठास........
उफ्फ, बस मुँह मीठा हो गया...
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
भाई तिलक जी की गज़ल पढने के लिये तो मै हमेशा लालायित रहती हूँ उनसे बहुत कुछ सीखने को मिलता है। उनकी कर्वा चौथ पर लिखी गज़ल कईबार पढ चुकी हूँ।और ये तीन गज़लें तो न जाने कितनी कितनी बार पढनी पडेंगी बस अफ्सूस यही है कि आपके ब्लाग से कापी नही होती और मुझ से अधिक देर टाईप् नही होता। सभी गज़लें काबिले तारीफ हैं इनके ये शेर----
जवाब देंहटाएंभाव से भीनी-----
मुस्कुराहट माँग कर तुम किस जहाँ को चल दिये--- ये शेर पढ कर आँखें नम हुयी
शह्र की रंगीनियों----
शादियाँ नाबालिगों की---
जेहन मे आ कर बसी----
मन वचन औ----
हास और परिहास मे--- वाह वाह लाजवाब
मोह मिट्टी का गया----
एक विरहन आपकी----
नस्ल की पहचान बेटी--- ये सभी शेर तो दिल को छू गये। बहुत सुन्दर गज़लें भाई साहिब को बधाई।हठीला जी एक कवि थे उनकी की याद मे मुशायरा सच मे भावनात्मक तो होना ही चाहिये था। शुभकामनायें।
आदरणीय भाई तिलक राज कपूर के पास सचमुच अल्लाद्दीन का चराग़ है.
जवाब देंहटाएंस्व० हठीला जी की पावन स्मृति को समर्पित पहली ग़ज़ल तो बिल्कुल भाव भीनी है ही
आख़िरी ग़ज़ल भी बहुत ख़ूब बन पड़ी है । भाई तिलक राज कपूर जी को बधाई ।
लेकिन बहुवचन वाली ग़ज़ल में
शाम बचपन-सी सुहानी हैं के स्थान पर शामें बचपन-सी सुहानी हैं
होता तो बिल्कुल सही होता.
इसी तरह
चौपाल सजती हैं के स्थान पर चौपालें सजती हैं
ख़राबी हैं के स्थान पर ख़राबियाँ हैं (लेकिन फिर यह ‘ख़राबी’ क़ाफ़िया यहाँ नहीं आ सकता)
शांति से हर बात सुलझी हैं के स्थान पर सब बातें सुलझी हैं
बात सच्ची हैं -बातें सच्ची हैं
ठिठोली हैं - ठिठोलियाँ हैं (लेकिन फिर यह ‘ठिठोली’ क़ाफ़िया यहाँ नहीं आ सकता)
पर पुन: विचार करने की आवश्यकता है ।
यह एक विनम्र अनुरोध है , इसे अन्यथा न लें
भाई मुकेश जी की ऊपर की गई टिपण्णी से पूरी तरह सहमत हूँ.कपूर साहब ने उस्ताद और शागिर्द के बीच का फर्क जाहिर कर दिया.तीनो ग़ज़लें एक से बढ़ कर एक.और पाठकों के लिए इफरात..कपूर साहब का वो मतला .."नौजवां जब थक गए...."आज भी बरबस गुनगुना उठता हूँ.यहाँ भी हमेशा याद रह जाने वाले ऐसे कई शेर हैं.ख़ास कर हठीला जी की स्मृति में लिखी गई Elegy तो अद्भुद है. हार्दिक बधाई...
जवाब देंहटाएंगुरुदेव आप, तिलक जी या नीरज जी ... जब उस्ताद कुछ बोलते हैं या लिखते हैं तो उसको बस ग्रहण ही किया जा सकता है ... तिलक राज जी की तीनों ग़ज़लें, आपकी लेखनी और नीरज जी की प्रतिक्रिया .... सभी कुछ बहुत दूर की बात कह रहे हैं ...
जवाब देंहटाएंगज़लों का आनंद तो तो ऐसा ही की कुछ कहना सूरज को दिया दिखाने जैसा होगा ... हम जैसे जहां ४-५ शेर लिख के ही पस्त हो जाते हैं वहाँ तिलक राज जी ने शेर पे शेर और हर शेर तपा हवा ऐसे निकाला है जैसे खटा खट मशीन से शेरो की प्रोडक्शन हो रही हो ... सुभान अल्ला ...
श्रधांजलि वाली गज़ल के शेर पढ़ के सच में मन भारी हो जाता है ... बुत ही भावुक गज़ल ...
और दूसरी गज़लों में उपयुक्त शब्दों को पढ़ के लगता है की कैसे बह रहे अहिं नए नए शेब्द अपने आप ही हर शेर में ...
गज़ब ... गज़ब ... इस तरही की उड़ान के साथ उड़ने का आनंद ले रहा हूँ बस ...
40 शेरों की लाजवाब पोस्ट ने मन को मुदित कर दिया
जवाब देंहटाएंहर एक शेर के लिए तिलक जी को विशेष आभार
मेरा लगभग पूरा बचपन ऐसे कस्बों में बीता जो शह्र के मुकाबिल गॉंव के अधिक करीब थे। समय के साथ कस्बे पीछे रह गये, मैं शहरी संस्कृति में चला आया। इधर भोपाल में लगभग 21 वर्ष हो गये। इन 21 वर्षों में मृदु-संबंध तो बहुत बने लेकिन मित्र केवल दो बना पाया जबकि कस्बों में मित्र-मण्डली होती थी। उनमें से एक मित्र को कॉंधा देने की ऐसी स्थिति से गुजर चुका हूँ कि चेहरे पर भावशून्यता और ऑंखों में अश्रुशून्यता बंधनकारी हो गयी थी।
जवाब देंहटाएंमहात्मा गॉंधी की चरण-रज बराबर भी नहीं लेकिन उनके बारे में जितना पढ़ा, सुना या समझा उससे मन में कहीं गहरे एक बात बैठी हुई है कि भारत का विकास ग्रामों में बसा है। यही कारण है कि जब ग्राम-विकास खोखला दिखता है तो मन उद्वेलित होता है। इधर शासकीय सेवक होने के नाते अपेक्षित आचरण संबंधी बंधन भी उद्गार पूरी तरह व्यक्त होने से रोकते हैं। बहरहाल आप सबकी स्नेहासिक्त टिप्पणियों के लिये हृदय से आभारी हूँ।
द्विज भाई का विशेष रूप से आभारी हूँ कि उन्होंने निस्संकोच अपना मत दिया। वस्तुत: इस विषय में मेरे मन में कुछ और ही व्याकरण काम कर रही थी। मेरी शिक्षा का माध्यम हायर सेकेण्डरी तक हिन्दी रहा लेकिन अब वह 40 वर्ष पीछे छूट गया है। अन्यथा लेने का तो कोई प्रश्न ही नहीं है; भविष्य में इस विषय में और अध्ययन कर ध्यान रखूँगा।
'जंगलों की शेष थाती....' में पंकज भाई ने 'थाती' पर विशेष ध्यान आकर्षित किया है और मेरा आशय उसी गूढ़ अर्थ तक पुहँचने का था। कहा जाता है कि शेर को कैफि़यत की जरूरत नहीं होती, लेकिन मुझे लगता है कि स्थिति विशेष में विवरण आवश्यक हो जाता है।
हमारी प्रकृति की व्यवस्था कुछ ऐसी रही कि विकास क्रम में बसाहट की आवश्यकता होने पर जंगलों ने उदारतापूर्वक पीछे हट जाना श्रेयस्कर समझा और इसी स्नेहासिक्त रिश्ते में अपनी थाती उस बसाहट (गॉंव) में छोड़ गये कि पीछे हटते हटते कभी हम मिट जायें और तुम्हें हमारी याद आये तो हमें फिर से पैदा करने के लिये तुम्हारे पास हमारी थाती रहेगी। उससे फिर जंगल पैदा कर लेना। दु:खद पहलू यह रहा कि मानव ने न तो इस थाती को पहचाना और न ही जंगल की सहृदयता को कभी समझा।
एक बात और कि उस्ताद की श्रेणी में पहुँचने के लिये तो अभी मुझे बहुत कुछ सीखना है, अभी सीख तो लूँ भाई फिर पापला होकर 95 की उम्र में उस्ताद बनने की भी कोशिश कर लूँगा (तब तक यह भी याद नहीं रहेगा कि उस्ताद का मतलब कया होता है)।
जवाब देंहटाएंएक बात और कि उस्ताद की श्रेणी में पहुँचने के लिये तो अभी मुझे बहुत कुछ सीखना है, अभी सीख तो लूँ भाई फिर पापला होकर 95 की उम्र में उस्ताद बनने की भी कोशिश कर लूँगा (तब तक यह भी याद नहीं रहेगा कि उस्ताद का मतलब कया होता है)।
जवाब देंहटाएंतीनो ग़ज़लें अपने में अनूठी हैं, कई शेर बहुत खूबसूरत बने हैं.
जवाब देंहटाएं"जानता हूँ, मानता हूँ, देह नश्वर है...................", "देह मिट्टी थी मिली मिट्टी में लेकिन रूह तो...............", "इक हठीला शख्स था इस गॉंव पर...............", "योजनायें तो बनीं औ काम भी उन पर हुआ...", "ऑंख में अंजन, महावर पैर में धारे हुए.............", "साठ बरसों बाद भी बिजली अगर पहुँची कभी.............". वाह वाह वाह
तिलक जी, ढेरों बधाइयाँ.
शायरों और संयोजक महानुभावओं को सादर सराहनाओं सहित मेरा नमन..!
जवाब देंहटाएंतीन ग़ज़लें और तीनों ही शानदार। ४० अश’आर और सारे जानदार। ये करिश्मा तो तिलक राज जी ही कर सकते हैं। नमन है इन शानदार अश’आरों को। भाव से..
जवाब देंहटाएंभाव गीतों...
सृष्टि का नियमन...
ये क्या करने बैठ गया मैं सारे ही शे’र कोट करने पड़ेंगे। इसलिए बेहतर यही है कि ज्यादा कुछ कहने की कोशिश करने के बजाय चुपचाप इन मोतियों की चमक का आनंद लिया जाय। एक बार फिर तिलक राज जी को दिल से बधाई।