सोमवार, 30 जनवरी 2012

नवीन सी चतुर्वेदी और मुस्‍तफा महिर पंतनगरी से आज सुनते हैं कि :- जानते हो क्यूँ तरक़्क़ी गाँव तक पहुँची नहीं, फाइलों में तो तरक्की है अभी तक गाँव में ।

सुकवि रमेश हठीला स्‍मृति तरही मुशायरा

16-20

इक पुराना पेड़ बाक़ी है अभी तक गाँव में
इक पुराना पेड़ बाक़ी है अभी तक गाँव में

वसंत पंचमी को तरही मुशायरे ने छुटकी अनन्‍या की ग़ज़ल के साथ नई ऊंचाइयों को छुआ । और सभी अग्रजों-अग्रजाओं ने जिस प्रकार से अनन्‍या का उत्‍साह बढ़ाया उससे ये पता लगा कि क्‍यों इस ब्‍लाग को एक परिवार माना जाता है । यहां पर एक परिवार की तरह ही सब आपस में जुड़े हैं । और मुझे ऐसा लगता है कि यही सबसे बड़ी सफलता है । और सबसे बड़ी बात ये है कि परिवार अब धीरे धीरे बढ़ता जा रहा है । हर बार तरही में कुछ नये लोग जुड़ते हैं । पिछली पोस्‍ट पर श्री तिलक राज जी द्वारा की गई टिप्‍पणी बहुत महत्‍वपूर्ण है जिसमें उन्‍होंने रदीफ की व्‍याख्‍या की है और मिसरा ए तरह पर भी चर्चा की है । जिन बातों की ओर उन्‍होंने इंगित किया है वो जानना बहुत ज़ुरूरी है । 'अभी तक' को समझे बिना शेर कहा गया तो शेर बेमज़ा हो जायेगा। कुछ लोग कहते हैं आप अपने ब्‍लाग पर अपनी रचनाएं क्‍यों नहीं लगाते हैं । मैं कहता हूं कि एक तो मैं इन गुणीजनों जितना अच्‍छा नहीं लिख पाता हूं । दूसरा मैं आज भी उस मत पर दृढ़ता से कायम हूं कि संपादक को अपने संपादन में निकलने वाली पत्रिका में अपना संपादकीय देना चाहिये केवल, उसे अपनी कहानी या कविता उस पत्रिका में छापने से बचना चाहिये । इसीलिये मैं केवल संपादकीय ही लिखता हूं । तो चलिये आज का संपादकीय खत्‍म करते हैं और श्री नवीन सी चतुर्वेदी 'नवीन' और मुस्‍तफा माहिर पंतनगरी से सुनते हैं उनकी शानदार ग़ज़लें ।

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श्री नवीन सी चतुर्वेदी 'नवीन' 

नवीन जी आज नये वर्ष के इस मुशायरे में एक नये रूप में अवतरित हो रहे हैं । दरअसल में आज वे पहली बार अपने तख़ल्‍लुस के साथ प्रकाशित हो रहे हैं । नवीन को ही अपना तख़ल्‍लुस बनाया है उन्‍होंने । और आज पहली बार इस तख़ल्‍लुस के सा‍थ ये ग़ज़ल कही है । तो अब वे द्विगुणित नवीन हो चुके हैं । आइये सुनते हैं उनकी ये ग़ज़ल ।

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हरक़तों पे टोकाटाकी है अभी तक गाँव में
नस्ल की तीमारदारी है अभी तक गाँव में

आप का कहना बजा है, गाँव में भी है जलन
फिर भी टकसाली तसल्ली है अभी तक गाँव में

जानते हो क्यूँ तरक़्क़ी गाँव तक पहुँची नहीं
वक़्त की रफ़्तार धीमी है अभी तक गाँव में

यूँ तो महँगाई ने रत्ती भर कसर छोड़ी नहीं
फिर भी मस्ती लाख सस्ती है अभी तक गाँव में

जिस में हिम्मत हो बना ले अपने सपनों के महल
कुदरती मज़बूत धरती है अभी तक गाँव में

ये तो पुरखों के पसीने का ही जादू है फकत
हर तरफ सौंधास रहती है अभी तक गाँव में
    

ज़िन्दगी जिसके लिए थी ज़िन्दगी भर इम्तिहाँ
वो "जनक-धरती की बेटी" है अभी तक गाँव में

उस से मिलता हूँ तो बचपन लौट आता है मेरा
"इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गाँव में"

शह्र की तहज़ीब दाख़िल हो चुकी है पर 'नवीन'
एक हद तक फिर भी  नेकी है अभी तक गाँव में

जनक धरती की बेटी, क्‍या प्रयोग किया गया है और मिसरा उला भी उतने सशक्‍त रूप से अपने आपको अभिव्‍यक्‍त कर रहा है । मतले में गांव के मुख्‍य गुण को खूब पकड़ा है गांव में आज भी ये नहीं देखा जाता कि बच्‍चा अपना है कि दूसरे का है, यदि ग़लत कर रहा है तो कोई भी डांट सकता है । वक्‍त की रफ़तार को जिस प्रकार से गांव में धीमा किया है वो भी खूब है मैं तो इस सुस्‍त गति को जानता हूं इसलिये कह सकता हूं कि बहुत खूब । और बचपन के लौट आने की जबरदस्‍त गिरह, वाह वाह वाह । आनंद ला दिया नवीन जी ।

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मुस्‍तफा महिर पंतनगरी

मुस्‍तफा से मैं हर बार कुछ अलग, कुछ खास की उम्‍मीद रखता हूं । पिछले दिनों फेसबुक पर मुस्‍तफा के कुछ कमजोर शेर देखे तो सबसे ज्‍यादा निराश होने वालों में मैं ही था । लेकिन इस ग़ज़ल में कुछ मिसरे तो मुस्‍तफा ने ऐसे गढ़े हैं कि सारी निराशा छू मंतर हो गई है । मुस्‍तफा उस शायर का नाम है जिससे मुझे भविष्‍य में बहुत उम्‍मीदें हैं ।

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मुल्क़  की पहचान बाक़ी है अभी तक गाँव  में  
आदमी हिन्दोस्तानी  है  अभी तक गाँव में 

शहर में तो नफरतें हर दिल पे ग़ालिब हो   गयीं
प्यार की दूकान चलती  है   अभी तक गाँव में
 

मंतरी जी   पांचवां   भी  साल पूरा हो चला
पर सड़क, बिजली न पानी  है अभी तक गाँव में 

फाइलों के आंकड़ों पर गौर मत कीजे  जनाब
फाइलों में तो तरक्की है अभी तक गाँव में

कौन सूरज बनके निगलेगा ग़मों की तीरगी
ये पहेली उलझी उलझी  है अभी तक गाँव में 

छत  पे भी जाती नहीं है   बेदुपट्टा बेटियाँ
शर्म का आँखों में पानी   है अभी तक गाँव में
 

इस ज़माने को गुज़िश्ता दौर से जोड़े हुए,
इक पुराना पेड़ बाक़ी है अभी तक गाँव में

फ़स्ल बोने काटने में गाँव बूढ़ा हो गया,
भूख पर लेकिन जवानी है अभी तक गाँव में.

तुझको ए दिल्ली! मिले फुर्सत तो आ कर  देखना
कितनी मुश्किल  जिंदगानी   है अभी तक गाँव में

किसके इक दीदार की हैं मुन्तजिर तन्हाईयाँ
पारो किसकी राह तकती  है अभी तक गाँव में

आज भी आ जाती हैं यादें तेरी दिल में मेरे,
शाम की चौपाल लगती है अभी तक गाँव में.

छत पे भी जाती नहीं हैं बेदुपट्टा बेटियां, क्‍या कह दिया है मुस्‍तफा । गांव को जीकर लिखा गया है ये शेर । और फिर कहता हूं कि जिसने गांव को स्‍वयं नहीं जिया हो वो फस्‍ल बोने काटने में जैसा मिसरा कह ही नहीं सकता । मतले में भी दोनों बार रदीफ को बेहतरीन तरीके से निभाया है । और गिरह में जिस प्रकार से पिछले दौर को वर्तमान से जोड़ा है आनंद आ गया है । कौन सूरज बने के निगलेगा गमों की तीरगी, गांव की पूरी व्‍यथा को एक ही शेर में पिरो दिया है । वाह वाह वाह । खूब कहा है मुस्‍तफा ।

तो आनंद लीजिये दोनों महत्‍वपूर्ण शायरों का और देते रहिये दाद । अगले अंक में मिलते हैं कुछ और रचनाकारों के साथ ।

26 टिप्‍पणियां:

  1. आनंद से सराबोर करती आज की दोनों ग़ज़ल. 'नवीन' जी तो सचमुच द्विगुणित है - अभी कल ही मुलाक़ात हुई है नोएडा दौरे पर.
    "जिंदगी जिसके लिए थी...." क्या कहन है.
    मुस्तफा जी ने हर दफा बेहतरीन शायरी की है तरही में.
    आज तो निशब्द हूँ सुनकर - "........................है अभी तक गाँव में"

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  2. नवीन जी की शाईरी बहुत प्रैक्टिल बात करती है, और यही इनकी ख़ासियत भी है ! मतला खुद इसको पुख़्ता कर रहा है ! गिरह भी कमाल की लगाई है इन्होनें ! बहुत बधाई !

    मुस्तफा की शाईरी हमेशा से मह्सुसियत की होती है, एक अलग ही आनन्द देते हैं शे'र !
    छत पे भी जाती नहीं ... पूरा चित्रण है गाँव के लिये यह शे'र ! बहुत ही बारिक़ बातों को मुस्तफा अपनी ग़ज़लों में रखता है जो इसे भीड से अलग करती है! और फिर गिरह ने कमाल किया है !
    तुझको ए दिल्ली बेहद खुबसूरत सवाल और अदब से शिकायत है सभी से! पारो की बात भी अच्छी है !
    बहुत बधाई इन दोनों कमाल के शायरों को !

    अर्श

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  3. वाह. बहुत उम्दा ग़ज़लें आ रही हैं तरही में...
    नवीन जी की गिरह ने दिल खुश कर दिया. बहुत उम्दा मतला और सभी अशआर खूब. "जानते हो क्यों तरक्की गाँव तक पहुँची नहीं..." "यूं तो महंगाई ने रत्ती भर कसार छोड़ी नहीं.." "शहर की तहजीब दाखिल हो चुकी है.." बहुत पसंद आये. नवीन जी तो हार्दिक बधाई.
    मुस्तफ़ा जी ने भी बहुत खूबसूरत मतला कहा है. सभी शेर खूबसूरत हैं. "आदमी हिंदोस्तानी है अभी तक गाँव में.." वाह. "मंत्री जी पांचवा भी साल पूरा हो गया.." लाजवाब शेर. "छत पे भी जाती नहीं हैं बे दुपट्टा बेटियां.." कमाल का शेर कहा है. गिरह वाला शेर भी बहुत बढ़िया लगा. किस किस शेर की तारीफ़ करूँ. मुस्तफ़ा जी को बहुत बहुत मुबारकबाद.

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  4. एक बार फ़िर बहुत खूबसूरत गज़लें !
    =====
    नवीन जी के ये शेर बहुत खूबसूरत लगे:
    जानते हो क्यों तरक्की... वाह! :)
    यूँ तो मंहगाई ने रत्ती... नवीन जी हमेशा बहुत जमीनी हकीकत की बात किया करते हैं और रोजाना में प्रयोग में आने वाली भाषा को भी अपने लेखन में बहुत सुन्दरता से ढाल लेते हैं.
    जिसमें हिम्मत हो बना ले... बहुत ही हौसले वाला शेर लगा ये...सशक्त और सार्थक...ख़ास कर अब, जब गाँव से शहरों और विदेशों में मजदूरी करने के लिए कितने ही नौजवानों का रोज़ पलायन जारी है.
    ज़िंदगी जिनके लिए थी...बहुत खूबसूरती से गठा हुआ मिसरा !
    उससे मिलता हूँ तो बचपन... हकीकतों से लबरेज़ ग़ज़ल के ज़मीनी चहरे पे कुमकुम की तरह ये भावुक शेर ...बहुत सुन्दर!
    =======
    माहिर साहब की ग़ज़ल पे क्या कहूँ जैसे जुबां ही बंद हो गई है...बहुत बहुत सुन्दर लेखन!
    एइसा लगा जैसे ये शेर किसी महफ़िल में पढ़े जा रहे हैं जोर-जोर से...इतना भाव, मूवमेंट और एनेर्जी लिए हुए हैं ये.
    पहले आशीष लें फ़िर प्रशंसा : जीते रहें!
    हिन्दुस्तानी वाला...क्या मतला है, जियो!
    मंत्री जी... टू गुड! क्या तेवर हैं!
    कौन सूरज बन के.... बहुत खूबसूरत और सार्थक शेर!
    छत पे भी ज़ाती नहीं हैं.... उफ्फ इतना खूबसूरत शेर लग कि क्या कहूँ! जीते रहिये!
    क्या गिरह बांधी है...गुजिश्ता दौर...बहुत खूब!
    फ़स्ल बोने काटने में गाँव बूढा हो गया ... ये टाइम और स्पेस को लांघता हुआ बहुत ही खूबसूरत शेर.
    तुझको ए दिल्ली ...एक दम वीररस जैसा :)
    ===
    दोनों शायरों को दिली मुबारकबाद! सादर शार्दुला

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  5. नवीन जी जितने सीधे सरल इंसान हैं उतनी ही अच्छी ग़ज़लें कहते हैं..."जनक धरती की बेटी" जैसे शब्दों का प्रयोग उनकी उत्कृष्ट लेखन क्षमता को स्पष्ट दिखलाता है...इसी तरह "टकसाली", "मस्ती लाख सस्ती" "हर तरफ सौंधास" जैसे शब्द प्रयोग दिल में घर कर लेते हैं.... बधाई बधाई बधाई नवीन भाई...गज़ब के शेर बुने हैं आपने...

    मुस्तफा जी को पढने का मौका मुझे सबसे पहले अंकित ने दिया, उसके बाद आपके ब्लॉग पर उन्हें गाहे बगाहे पढ़ा है और उनकी रचनात्मकता का कायल हुआ हूँ, इस तरही में "मंत्री जी..." "कौन सूरज बन के...""...बेदुपट्टा बेटियां", " फ़स्ल बोने काटने में..." जैसे एक से बढ़ कर एक शेर कह कर उन्होंने मुझे अपना मुरीद बना लिया है...आप सही कहते हैं जब तक ऐसे होनहार नौजवान ग़ज़ल कहते रहेंगे तब तक ग़ज़ल लोगों के दिलों पर राज़ करती रहेगी...आने वाले वक्त के बेहतरीन शायरों में से अधिकांश आपके ब्लॉग पर नज़र आने लगे हैं...ये बहुत ही ख़ुशी की बात है. ऐसे नौजवानों को आप भरपूर मौका दे रहे हैं इसलिए आप बधाई के पात्र हैं.

    तरही का आनंद बढ़ता ही चला जा रहा है...

    नीरज

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  6. आज की दोनों ग़ज़लें जितनी वजनदार हैं उतनी ही असरदार भी....पहले नवीन जी की ग़ज़ल .....नए तखल्लुस के साथ रंग जमा दिया हुज़ूर आपने..हर शेर में गाँव के अलमस्त मिजाज की झलकियाँ...बहुत खूब.....बहुत खूब.

    मुस्तफा भाई की ग़ज़ल की शान में क्या कहा जाए..एक अपेक्षाकृत लम्बे रदीफ़ के साथ मेरे ख्याल में मिसरा सानी में गुंजाईश काफी कम हो जाती है....लेकिन यहाँ क़िबला एक एक कर ग्यारह शेर कह गए....और हर शेर न सिर्फ काबिले-गौर बल्कि यादगार...तेवर स्व.अदम गोंडवी की याद दिलाते हुए.....खालिस इंकलाबी.....और गिरह.....माशाल्ला......

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  7. बहुत खूबसूरत ग़ज़लें। विस्‍तृत टिप्‍पणी में समय लगेगा, कल रात फिर आता हूँ।

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  8. यूँ तो महंगाई ने रत्तीभर कसार छोडी नहीं,
    फिर भी मस्ती लाख सस्ती है अभी तक गाँव में !

    वाह, क्या बात कही नवीन जी !

    तुझको ऐ दिल्ली मिले फुर्सत तो आकर देखना,
    कितनी मुस्किल जिंदगानी है अभी तक गाँव में!

    लाजबाब !

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  9. लड़के (मुस्तफा) मज़ा आ गया, ज़हर ग़ज़ल कही है. कायल और घायल तो पहले से ही हूँ. :)
    अनूठा मतला है, अनूठी कहन के साथ.
    मुल्क़ की पहचान बाक़ी है अभी तक गाँव में
    आदमी हिन्दोस्तानी है अभी तक गाँव में
    वाह वा

    "मंतरी जी पांचवां भी साल पूरा हो चला................" वाह वा
    "फाइलों के आंकड़ों पर गौर मत कीजे जनाब
    फाइलों में तो तरक्की है अभी तक गाँव में"
    क्या खूब अंदाज़े-बयां है.

    "कौन सूरज बनके निगलेगा ग़मों की तीरगी.......................", वाह वाह वाह, जियो मेरे दोस्त
    "छत पे भी जाती नहीं है बेदुपट्टा बेटियाँ
    शर्म का आँखों में पानी है अभी तक गाँव में "
    अद्भुत शेर कह दिया है. ये तो ग़ज़ल के नेत्र हो गए. :)

    गिरह भी बहुत खूब बाँधी है, "इस ज़माने को गुज़िश्ता दौर से जोड़े हुए,...................." वाह वा
    "फ़स्ल बोने काटने में गाँव बूढ़ा हो गया,..........................." खतरनाक शेर, वाह वा, जवानी बहुत बेमिसाल अंदाज़ में लाया है सानी में.
    "तुझको ए दिल्ली! मिले फुर्सत तो आ कर देखना ......................", जिंदाबाद शेर
    "किसके इक दीदार की हैं मुन्तजिर तन्हाईयाँ ....................", अच्छा है
    "आज भी आ जाती हैं यादें तेरी दिल में मेरे, ........................" वाह वा

    बेहतरीन शेर निकाले है, वैसे इतनी अच्छी ग़ज़ल और शेर कहने में 'मेरा तेरा पड़ोसी होने का कमाल है क्या या vice versa?' हा हा हा :)
    आज का दिन बन गया.

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  10. नवीन जी की ग़ज़ल नवीनता लिए हुए है.
    "जानते हो क्यूँ तरक़्क़ी गाँव तक पहुँची नहीं
    वक़्त की रफ़्तार धीमी है अभी तक गाँव में "
    अच्छा शेर कहा है. वाह वा

    गिरह भी बहुत खूब बाँधी है,
    "उस से मिलता हूँ तो बचपन लौट आता है मेरा
    "इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गाँव में".
    वाह वा

    बधाई स्वीकार करें.

    जवाब देंहटाएं
  11. आज का तरही मुशायरा अपने खास अंदाज़ में है और गोया आँखों में आँखें डालकर कहती हुई गज़लें आयी हैं.

    भाई नवीन जी के विषय में क्या कहूँ, आपके कहे से हमारे स्वयं के कथ्य-अकथ्य भाव शब्द पाते हैं. एक-एक शे’र पर कई-कई बार रुका और लगातार मुग्ध होता गया. मतले से आपने जो रंग बाँधा है उसकी तासीर मक्ते तक एकसार बनी रहती है. और रंग भी क्या मानो जीये गये क्षण सीधा सामने आ खड़े हो जाते हैं.
    नस्ल की तीमारदारी.. . इस इंगित को खोलने चलें तो कई-कई पन्ने भर जायँ. मरे हुए या मरते हुए की तीमारदारी.. इसे बार-बार जिलाने की कवायद.. वाह नवीन भाई वाह !
    यही कुछ टकसाली-तसल्ली के लिये कहूँगा. क्या समास है ! इस प्रयोग पर हृदय से बधाइयाँ.
    जानते हो क्यूँ तरक्की गाँव तक पहुँची नहीं.. और खुद ही जो कुछ ज़वाब में कहा कि मस्तिष्क के चूल हिल उठे. तन-बदन झन्ना गया. इस उत्तर पर प्रतिध्वनि की तरह तेज़ी से एक प्रतिप्रश्न उभरता है.. क्यों ? और यही शायर की सफलता है. पाठक तिलमिला उठें. नवीन भाईजी, इस अंदाज़ पर आपको हार्दिक बधाइयाँ.
    यूँ तो महँगाई ने.. . और फिर मस्ती लाख सस्ती ! अद्भुत ! प्रसन्नता और आनन्द का मायना जानना है तो उनसे जानो जिन्हें इसका अनुभव है. और वो बिला शक़ गाँव में रहते हैं. वाह-वाह !
    सपनों के महल के लिये प्रकृति प्रदत्त ज़मीन का गाँव में होना एक अनुभूति है. ..! इस इंगित के लिये कोटिशः धन्यवाद.
    ज़िन्दग़ी जिसके लिये थी ज़िन्दग़ी भर इम्तिहाँ
    वो "जनक-धरती की बेटी" है अभी तक गाँव में

    इस शे’र पर निश्शब्द हूँ. अभी बस इतना ही.
    और मक्ते के लिये विशेष साधुवाद. सबकुछ बिगड़ा नहीं है की आश्वस्ति हौसला देती है. सबकुछ मरा नहीं है.
    नवीन भाई ’सौंधास’भरी इस ग़ज़ल के लिये हृदय आपको शुभकामनाएँ दे रहा है.

    *********

    आजके दूसरे शायर हैं मुस्तफ़ा महिर पंतनगरी साहब. आपको बहुत पढ़ने का संयोग नहीं बना है. लेकिन जो कुछ पढ़ा है उससे यह अवश्य स्पष्ट है कि आपकी दृष्टि पारखी तो है ही, जीये हुए क्षणों को बाँधने की बेपनाह कुव्वत भी है आपमें. आपकी प्रस्तुत ग़ज़ल का एक-एक शे’र इस बात की ताक़ीद करता हुआ है.

    आदमी का हिन्दोस्तनी होना और उसे समझना दोनों हर लिहाज से विशेष है.
    प्यार की दुकान पर सार्थक बल डाल कर आपने एक संस्कार को रेखांकित किया है मुस्तफ़ा भाई. दिली दाद कुबूल फ़रमायें.
    आपके जिन शे’र ने विशेष रूप से प्रभावित किया है और बरबस ध्यान खींचा है, उन्हें प्रस्तुत कर रहा हूँ -
    मंतरी जी पंचवां भी...
    कौन सूरज बन के निगलेगा..
    छत पे भी जाती नहीं है.. इस शे’र में किसी को बहा लेजाने की ताक़त है. वाह, भाई साहब वाह !!
    इस ज़माने को गुज़िश्ता.. क्या बेजोड़ गिरह लगी है. इस नये आयाम के लिये हृदय से आभार.
    फ़स्ल बोने काटने में.. . इसपारखी नज़र को बारहा सलाम. बहुत कुछ कहा और आपका यह शे’र एक मानक बन कर सामने है. बहुत खूब.

    आज के दोनों शायरों में बला की ताक़त है. शब्द से दुनिया बसा दें. मैं आप दोनों गुणीजनों को हृदय से धन्यवाद देता हूँ.

    आखिर में,
    एक तो मैं इन गुणीजनों जितना अच्छा नहीं लिख पाता हूँ..
    पंकज भाईजी, आपकी गुण-ग्राहकता के शैदाई तो हम हैं ही, आपकी नम्रता के भी कायल हो गये हम.

    सादर
    --सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)--

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  12. नवीन चतुर्वेदी एक व्यवहारिक शायर का नाम है. इस बात को एक बार फिर सिद्ध किया है नवीन भाई ने अपनी ग़ज़ल में. प्यार, मुहब्बत, इश्क, वफ़ा, उल्फत, नफरत के बिना भी शायरी होती है ये बताती हैं नवीन जी की ग़ज़लें. सुन्दर अशआर से सजी ग़ज़ल के नवीन भाई को बधाई.

    माहिर पन्तनगरी जी की रचनाएं पहले भी पढ़ चुका हूँ. जमीन से जुडी सोच और उसे अपनी रचनाओं में सार्थकता के साथ प्रतिबिंबित करना बखूबी आता है इन्हें. हर शेर अपनी बात मजबूती से कहने में समर्थ है चाहे फ़स्ल बोने की बात हो या छत पर जाने की बात हो. वाकई माहिर हैं माहिर साहब. बधाई एक अच्छी ग़ज़ल के लिए.

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  13. वाह ... आज के दोनों शायर अपना अलग अंदाज़ लिए हैं ...
    नवीन जी से २ दिन पहले ही चेटिंग हो रही थी और मुझे उनकी गज़ल का बेसब्री से इन्तेज़ार भी था ... गाँव की मिट्टी से जुड़े शेर शेर मतला कहो या गिरह का शेर या नवीन जी का "नवीन" वाला शेर ... अभूत ही लाजवाब बन पड़े हैं सभी शेर ...
    मुस्तफा जी ने भी काबिले दाद शेर निकाले हैं ... इतने बारीकी से पकड़ा है गाँव के सभी पहलुओं को ... चाहे शहर में तो नह्फ्रतें वाला शेर हो या ... छत पे भी जाती अनहि ... फसल बोने काटने वाला शेर ... उनका गिरह वाला शेर तो जैसे कतल कर दिया हो ...
    गुरुदेव ये मुशायरा कुछ और नयी बुलंदियों को छू रहा है ... अभी तो कई दिग्गज छुपे हुवे हैं जिनका बेसब्री से इन्तेज़ार है ...

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  14. नवीन जी ने गिरह तो बहुत ही सुंदर लगाई है साथ ही मक़ता भी मुझे अच्छा लगा
    बधाई !!!

    मुस्तफ़ा साहब ने इतनी ख़ूबसूरत ग़ज़ल में अपनी गिरह से चार चाँ लगा दिये
    बहुत उम्दा !!!
    तुझ को ऐ दिल्ली..........
    क्या बात है !!

    सोच रही हूँ पंकज से अपनी ग़ज़ल वापस मंगवा लूँ माशा अल्लाह बेहतरीन शो’अरा मौजूद हैं यहाँ तो
    अगली पोस्ट का इंतेज़ार है !!

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  15. दोनों ही शायरों ने क्या गजब के अश’आर कहे हैं। नवीन जी के फन तो मैं पहले से ही कायल हूँ। ऊपर पहले ही बहुत कुछ कहा जा चुका है उसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है। मैं एक एक शब्द से सहमत हूँ। दोनों ग़ज़लकारों को बहुत बहुत बधाई। किस शे’र को कोट करूँ किसको छोडूँ बस ये समझिए कि सारे ही कोट करने लायक हैं। कोई भी छूटा तो उसके साथ नाइंसाफ़ी होगी। एक बार दोनों शायरों को दिल से दाद देता हूँ।

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  16. दोनों ही उत्कृष्ट प्रस्तुतियाँ..

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  17. यों तो दोनों शायरों की ग़ज़लें तमाम ही अच्छी हैं, लेकिन 'नवीन' जी की गज़ल का चौथा,सातवां शेर और मक्ता तो खूब पसंद आया,इसी तरह 'पन्तनगरी' जी का चौथा, पांचवा ,सातवां और नवां शेर खूब पसंद आए !

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  18. गुरुवर,

    गज़लों ने तो जैसे अपने हर शे’र पर क्लीन बोल्ड किया हो।

    नवीन जी की गज़ल के सभी शे’र पसंद आये लेकिन जैसे कहीं मैं अपने आप को व्यक्त पाता हूँ :-

    यूँ तो महंगाई ने रत्ती भर कसर छोड़ी नही
    फिर भी मस्ती लाख सस्ती है अभी तक गाँव में

    और कुछ पने ही अंदाज का यह बयाँ भी :-

    उससे मिलता हूँ तो बचपन लौट आता है मेरा
    इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गाँव में

    मुझे खींचे ले जाता है अपने ननिहाल के उसी पीपल के पेड़ के पास न जाने ऐसे कितने सवाल जो आज भी बता सकते हं कि मैं ऐसा क्यूं हूँ? उसके पास ही रक्खे हैं और मैं तो बेतहाशा भागे जा रहा हूँ उसी तरक्की के पीछे जो अभी तक नही पहुँची है:-

    जानते हैं क्यूँ तरक़्की गाँव तक पहुँची नही
    वक्त की रफ्तार धीमी हैं अभी तक गाँव में

    मुस्तफा महिर "पंतनगरी" के लिए कहा जाए बस इसी उधेड़बुन हूँ कितनी खूबसूरती से कहा है :-

    छत पे भी जाती नही हैं बेदुपट्टा बेटियाँ
    शर्म का आँखों में पानी हैम अभी तक गाँव में

    खेती-किसानी की इस कड़वी सच्चाई को बेनक़ाब करते हुए क्या कूब कहा है :-

    फस्ल बोने काटने में गाँव बूढ़ा हो गया
    भूख पर लेकिन जवानी है अभी तक गाँव में

    तरही अपनी हर एक किश्त के बाद नई ऊँचाईयाँ हांसिल कर रही है, यदि यह सब पता होता तो सिर्फ पढ़ने का हौंसला जुटा पाता कुछ लिखनने कोशिश करना तो दूर की बात है।

    सादर,

    मुकेश कुमार तिवारी

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  19. कुछ शेर इतने पैने होते हैं कि सीधे उतरते हैं।
    इस पुराने नवीन की ग़ज़ल के कुछ शेर ऐसे ही हैं। 'जानते हो.....' का नज़रिया, 'फि़र भी मस्‍ती लाख....' और 'उस से मिलता हूँ....' के साथ 'शह्र की तहज़ीब.......' क्‍या बात है पुराने भाई। मुस्‍तफ़ा जी के शेर 'मुल्‍क की पहचान...', 'पर सड़क, बिजली न पानी..' का सरोकार, 'कौन सूरज...' में बहुत कुछ कह गये, 'छत पे ....' का संस्‍कृति निर्वाह और गिरह के शेर की पुख्‍़तगी, 'फ़स्‍ल बोने....' का डीप कंट्रास्‍ट, 'तुझको ऐ दिल्‍ली...' का संदेशात्‍मक निमंत्रण। भाई खूबसूरत। 'फ़ाईलों में तो तरक्‍की' के स्‍थान पर 'फ़ाईलों में ही तरक्‍की' होता तो बात कुछ और ही होती।

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  20. भाई नवीन जी और मुस्तफ़ा महिर पंतनगरी की ग़ज़लों पर बड़े भाई आदरणीय नीरज गोस्वामी ने टिप्पणी में बहुत सही कहा है " आने वाले वक्त के बेहतरीन शायरों में से अधिकांश आपके ब्लॉग पर नज़र आने लगे हैं...ये बहुत ही ख़ुशी की बात है. " दोनों शायर और आप बधाई के पात्र हैं . गाँव को जी कर लिखी हुई ग़ज़लें ।

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  21. नवीन भाई तो हर विधा के माहिर हैं हम जैसे लोगुनके बारे मे बस व्क़ह वाह ही कर सकते हैं
    आखिरी 6 शेर तो कमाल के हैं । गाँव की इतनी सुन्दर तस्वीर पेश की है। नवीन भाई को बहुत बहु8त बधाई
    ज़िन्दगी जिसके लिये--- इस शेर की तो जितनी तारीफ की जाये कम है
    यूँ तो मंहगाई ने---- सच मे गाँवों की मस्ती अभी तक बची हुयी है।
    हर शेर लाजवाब
    मुस्तफा जी ने तो इस मुशायरे को बहुत ऊँचे मुकाम पर पहुँचा दिया है
    पूरी गज़ल मे हर शेर कोट करने लायक है। किसी एक शेर की खूबसूरती कहती हुये लगता है दूसरे शेर के साथ नाइन्साफी हो जायेगी। नवे4एन जी और मुस्तफा जी दोनो को बहुत बहुत बधाई।

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  22. बहुत देर से आया हूँ

    सभी लोग अपनी बात कह गये

    माहिर साहब की शाईरी का मुरीद हूँ, हर बार की तरह इस बार भी आपने एक से बढ़ कर एक शेर पेश किये
    पढ़ कर सुकून मिला

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  23. मुस्तफा की ग़ज़लें चौंकाती हैं हमेशा...बहुत अच्छी कहाँ लिए और एकदम नयापन....टटका-टटका|हर शेर पे दादम-दाद हमारी मुस्तफ़ा ! जीयो !!

    नवीन भाई की ग़ज़ल भी लाजवाब है| बेहतरीन !! गिरह तो अनूठा है|

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  24. मुस्तफा की ग़ज़लें चौंकाती हैं हमेशा...बहुत अच्छी कहाँ लिए और एकदम नयापन....टटका-टटका|हर शेर पे दादम-दाद हमारी मुस्तफ़ा ! जीयो !!

    नवीन भाई की ग़ज़ल भी लाजवाब है| बेहतरीन !! गिरह तो अनूठा है|

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  25. सुबीर जी तरही को मोबाइल पर पढ़ता रहा हूँ मथुरा और दिल्ली प्रवास के दौरान। एक से बढ़कर एक ग़ज़लें आ रही हैं। मुस्तफा जी की ग़ज़ल सहसा ही ध्यानाकर्षण करने में सक्षम है।

    मेरी ग़ज़ल पर अपने स्नेह की वर्षा करने वाले सभी मित्रों का कोटि-कोटि आभार

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  26. नवीन जी के बारे में कहूँ तो क्या कहूँ, हम जैसे नौसिखिया कुछ ना ही कहें तो ठीक उनके बारे में.... लेकिन हाँ मुस्तफा यूँ उम्र में भी छोटे हैं ‌और अंकित के मित्र होने के कारण यूँ ही अनुज की श्रेणी में आ जाते हैं।

    मतला ही खूबसूरत.. क्या खूबसूरत विरोधाभास है...!
    फाइलों के आँकड़ों पर गौर मत कीजे जनाब...वाह वाह वाह....!
    और
    तुझको ऐ दिल्ली मिले फुर्सत, तो आ कर देखना....क्या बात कही मुस्तफा...

    बहुत बहुत बहुत अच्छा....! दिल खुश कर दिया तुमने...! आशीष ढेरों आशीष

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