सुकवि रमेश हठीला स्मृति मुशायरा
कुछ पुराने पेड़ बाकी हैं अभी तक गाँव में
इक पुराना पेड़ बाक़ी है अभी तक गाँव में
तरही धीरे धीरे चलती हुई अपने अंतिम पड़ाव पर आ रही है । लेकिन इसके बाद ही तुरंत होली की तरही की भूमिका बन रही है । सो बस कुछ दिनों के बाद ही फिर से नया धमाल । वैसे अभी तो अगले सप्ताह और ये मुशायरा जारी रहना है। उधर सुकवि रमेश हठीला सम्मान को लेकर भी चयन समिति काफी मशक्कत कर रही है । तथा जो सूचनाएं आ रही हैं उससे पता चलता है कि महाशिवरात्री के दिन हम उस सम्मान की घोषणा करने की स्थिति में आ जाएंगे ।
होली का तरही मुशायरा
खैर तो पहले बात की जाये होली के तरही मुशायरे की । जैसा कि आपको बताया जा चुका है कि होली का तरही अंक इस बार पीडीएफ की शक्ल में जारी होने जा रहा है । पहले पीडीएफ की शक्ल में जारी होगा दिनांक 5 मार्च को और फिर होली के धमाल के रूप में वो ही ब्लाग पर उपलब्ध होगा । इस अंक में रचनाएं यदि आप 1 मार्च तक भेज देंगे तो उसे पीडीएफ में शामिल किया जायेगा । साथ में आपका परिचय और एक ताजातरीन फोटो भी अवश्य भेजें । फोटो मोबाइल का न होकर यदि कैमरे का हो तो बहुत अच्छा होगा । ग्राफिक्स का काम करने में उससे मदद मिलेगी । परिचय अवश्य भेजें क्योंकि उसे ही आपके होली के हास्य परिचय में तब्दील किया जायेगा । चूंकि बहुत कम समय है इसलिये बहर और रदीफ काफिये दोनों ही आसान दिये जा रहे हैं ।
होली का मिसरा-ए-तरह
''कोई जूते लगाता है, कोई चप्पल जमाता है''
बहर : बहरे हजज 1222'1222'1222'1222 रदीफ - है, काफिया – आ
ये तो कहने की ज़रूरत नहीं है कि आपको ग़ज़ल नहीं बल्कि हज़ल कहनी है । हास्य रस में सराबोर हज़ल । हास्य जो होली के आनंद को और बढ़ा जाये । और हां होली के इस विशेष अंक के लिये आप हज़ल के अलावा भी और कुछ भेजना चाहें जैसे हास्य समाचार, हास्य विज्ञापन, हास्य समीक्षाएं, हास्य पाठक के पत्र तो उनका भी स्वागत है । चूंकि ये पूरी तरह से पत्रिका के रूप में आ रहा है इसलिये कोशिश की जायेगी कि इसे पूर्ण पत्रिका का ही स्वरूप दिया जा सके । तो उठाइये क़लम और हो जाइये शुरू ।
तरही में आज सुनते हैं डॉ मोहम्मद आज़म और धर्मेंद्र कुमार सिंह सज्जन की शानदार ग़ज़लें ।
डॉ मोहम्मद आज़म
आज़म जी इन दिनों भोपाल के मुशायरे खूब लूट रहे हैं । उनके कहने का अंदाज़ भी लोगों को खूब पसंद आ रहा है । तरही के अंकों में वे आते रहे हैं तथा यहां भी श्रोताओं का मन जीतते रहे हैं । तो आइये आज उनसे सुनते हैं उनकी ये सुंदर ग़जल
टूटी फूटी सी हवेली है अभी तक गाँव में
पूर्वजों की इक निशानी है अभी तक गाँव में
घी दही या दूध हो , विश्वास हो या प्यार हो
इन में से हर एक असली है अभी तक गाँव में
दुःख सभी का दुःख यहाँ पर , सुख सभी का सुख यहाँ
एकता ऐसी मिसाली है अभी तक गाँव में
रिश्तों की पाकीजगी ,छोटे बड़ों का एहतेराम
ऐसी ही तहज़ीब बाक़ी है अभी तक गाँव में
खेत में ,खलयान में पहले पहुँच जाते हैं लोग
बाद में फिर सुब्ह आती है अभी तक गाँव में
जिसके साये में सियासी सरहदें बिलकुल नहीं
'इक पुराना पेड़ बाक़ी है अभी तक गाँव में ''
शहर 'आज़म' आ गए जिस राह से चलते हुए
वो हमारी राह तकती है अभी तक गाँव में
घी दही और दूध के साथ विश्वास को बहुत सुंदर तरीके से गूंथा है मिसरे में और सबको असली बता कर एक करारा व्यंग्य किया है शहर की व्यवस्था पर । दुख सभी का दुख यहां पर और सुख सभी का सुख यहां बहुत सुंदर बात कही है । गिरह को शेर भी बहुत अलग तरीके से कहा गया है । और फिर मकते के शेर में जिस प्रकार से राह को ही राह तकते हुए बताया है वो सुंदर बन पड़ा है । वाह वाह वाह ।
धर्मेन्द्र कुमार सिंह सज्जन
धर्मेंद्र कुमार जी ने दोनों ही मिसरों पर ग़ज़ल कही हैं । धर्मेंद्र जी की ग़ज़लें उनके ही अंदाज़ में होती हैं । उनकी ग़ज़लों में कुछ हट कर भाव प्रतीक और बिम्ब होते हैं । ये कहा जा सकता है कि उन्होंने अपनी कहन का अपना अंदाज़ विकसित कर लिया है । ये हर रचनाकार के लिये ज़रूरी होता है कि उसका अपना एक अंदाज़ बन जाये । तो आइये सुनते हैं दो शानदार ग़ज़लें ।
एक गइया संग दादी है अभी तक गाँव में
शुद्ध गंगा स्वच्छ काशी है अभी तक गाँव में
रुख़ हवा का है तुम्हारे साथ तो ये मान लो
इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गाँव में
खेत में तकरार होती एकता फिर मेड़ पे
कुछ लड़कपन कुछ नवाबी है अभी तक गाँव में
एक वायर से हजारों बल्ब जलवाता शहर
एक दीपक एक बाती है अभी तक गाँव में
स्वाद में बेजोड़ लेकिन रंग इसका साँवला
इसलिए गुड़ की जलेबी है अभी तक गाँव में
आँख से चंचल नदी की उस बिचारे ने पिया
लोग कहते वो शराबी है अभी तक गाँव में
मुँह अँधेरे ही किसी की याद में महुआ तले
आँसुओं की सेज बिछती है अभी तक गाँव में
छोड़ कर हमको हठीला जी गए गोलोक, पर
वायु उनके गीत गाती है अभी तक गाँव में
नीम पीपल आम साथी हैं अभी तक गाँव में
कुछ पुराने पेड़ बाकी हैं अभी तक गाँव में
सर झुकाते हैं सभी को छू चुकें जब आसमाँ
बाँस के ये पेड़ काफी हैं अभी तक गाँव में
चाय का वर्षों पुराना स्वाद जिंदा है अभी
शुक्र है दो चार तुलसी हैं अभी तक गाँव में
भूल जाता गंध माटी की मैं यारब शुक्रिया
रहगुजर कुछ एक कच्ची हैं अभी तक गाँव में
छान उठाते दूसरों की, छोड़ कर पूजा तेरी
शुक्रिया रब ऐसे पापी हैं अभी तक गाँव में
मुंह अधेरे ही किसी की याद में महुआ तले आंसुओं का बिछना, बहुत लयात्मकता के साथ चित्रकारी की है शायर ने । गांव और शहर की तुलना को गुड़ की जलेबी के प्रतीके के रूप में सलीके से कह दिया गया है । कि स्वाद में बेजोड़ तो है लेकिन चूंकि शहर को तो रंग रूप चाहिये होता है इसलिये गुड़ की जलेबी तो गांव में ही रहेगी । दूसरी ग़ज़ल में कच्ची रहगुज़र के बहाने से माटी की गंध को याद रखने की बात सुंदर तरीके से कही गयी है । लेकिन कहन में सबसे जानदार शेर बना है जिसमें ईश्वर से कहा जा रहा है कि दूसरो की छप्पर छानी में हाथ लगाने के लिये पूजा छोड़ने वाले भले ही पूजा छोड़ने के दोष के कारण पापी हों लेकिन शुक्र है कि ऐसे पापी अभी भी गांव में हैं । जिस बात को कहने के लिये प्रवचनकारों को कई सारी बातें कहनी होतीं उसको दो पंक्तियों में कह डाला है शायर ने । वाह वाह वाह ।
होली का मिसरा ए तरह, नियम और शर्तें आपने नोट कर ही ली होंगीं । समय कम है सो शीघ्रता दिखलाइये । देते रहिये दाद, मिलते हैं अगले अंक में कुछ और रचनाकारों के साथ ।
लाजवाब!
जवाब देंहटाएंआज़म जी बहुत ही उम्दा उस्तादाना गज़ल कही है.
बहुत बढ़िया मतला और फिर "इनमे से हर एक असली है..", वाह. "दुःख सभी का दुःख यहाँ पर सुख सभी का सुख.." बहुत ही खूबसूरत बन पड़ा है "रिश्तों की पाकीज़गी..","जिसके साये में सियासी सरहदें.."वाह क्या गिरह लगाई है. इस खूबसूरत गज़ल के लिए आज़म जी को बधाई और धन्यवाद.
धर्मेन्द्र जी का अपना ही स्टाइल है और बहुत खूब है.
बहुत बढ़िया मतला और बहुत ही खूबसूरत शेर. "एक दीपक एक बाती है..","गुड़ की जलेबी..","मुंह अँधेरे ही किसी की याद में.." वाह!
"बांस के य पेड़ बाकी हैं..","तुलसी है" वाह वाह..क्या खूब शेर कहे हैं. धर्मेन्द्र जी को बहुत बहुत बधाई...
बहुत बढ़िया, आख़री शेर में तो सज्जन जी ने गाँव की पोल ही खोल दी :)
जवाब देंहटाएंघी दही या दूध हो , विश्वास हो या प्यार हो
जवाब देंहटाएंइन में से हर एक असली है अभी तक गाँव में
खेत में ,खलयान में पहले पहुँच जाते हैं लोग
बाद में फिर सुब्ह आती है अभी तक गाँव में
जिसके साये में सियासी सरहदें बिलकुल नहीं
'इक पुराना पेड़ बाक़ी है अभी तक गाँव में ''
वाह वाह वाह
आज़म साहब की तारीफ़ के लिए शब्दों कमी तो अक्सर महसूस होती है मगर आज तो मैं लाजवाब हो गया ...
धर्मेन्द्र जी की शायरी में एक अलग ही फ्लेवर होता है अपने जज़्बात को आप शीरी में ऐसे पिरोते हैं कि दिल वाह वाह कर उठता है
जवाब देंहटाएंऔर इसबार तो आपने डबल धमाल किया हुआ है आपकी उम्दा शाइरी को ढेरों दाद ...
एक वायर से हजारों बल्ब जलवाता शहर...
इसलिए गुड़ की जलेबी है अभी तक गाँव में
मुँह अँधेरे ही किसी की याद में महुआ तले
आँसुओं की सेज बिछती है अभी तक गाँव में
छोड़ कर हमको हठीला जी गए गोलोक, पर
वायु उनके गीत गाती है अभी तक गाँव में
सर झुकाते हैं सभी को छू चुकें जब आसमाँ
शुक्र है दो चार तुलसी हैं अभी तक गाँव में
छान उठाते दूसरों की, छोड़ कर पूजा तेरी
शुक्रिया रब ऐसे पापी हैं अभी तक गाँव में
वाह वाह वा
Mohmmad Aazam ki Gajhal ka -matle ka sher, doosra ,chautha aur chhatha tatha Dharmendra Sajjan ki pahli Gazhal ka teesra aur makte ka sher aur doosree gazhal ka matle ka sher aur chautha sher gaon ke hakiki manzar ke kafi nazdeek lage
जवाब देंहटाएंइस दफ़े के दोनों शायरों की ग़ज़लें एक अलग ही तासीर की हैं. मो. आज़मजी के शेरों में जो कहा गया है वह चकित करता है.
जवाब देंहटाएंघी दही या दूध के साथ विश्वास, प्यार को जिसतरह से साधा गया है वह शहर और गाँव की तुलनात्मकता को मुखर कर रहा है.
खेत में, खलयान में शेर भी ज़मीन की कहन है.
गिरह के शेर और मक्ते पर आज़मजी को हृदय से बधाई.
*****
धर्मेन्द्रजी को पढ़ा है, सुना है. हर बार विभोर हुआ हूँ.
आदरणीय पंकजभाईजी, आपकी उस बात को मैं भी ससम्मान स्वीकार करता हूँ कि धर्मेन्द्रजी ने एक अलग ही शैली विकसित कर ली है और अग्रसरित हैं. उनकी दोनों तरह की ग़ज़लों का प्रस्तुतिकरण इसकी गवाही देते हैं.
मैं दोनों ग़ज़लों से किसी एक शेर को उद्धृत नहीं कर पाऊँगा. चाहता भी नहीं. धर्मेन्द्रजी सर्वस्व, सांगोपांग स्वीकार्य हैं.
सादर
--सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)--
'घी, दही...' की असलियत से होते हुए, एकता की मिसाल और रिश्तों की पाकीज़गी को पार करती हुई मुँह अंधेरे खेतो में पहुँचने की बात और सियासी सरहदों से बचाव करता पेड़ और राह तकती डगर, हर दृश्य को समेटे हुए खूबसूरत ग़ज़ल।
जवाब देंहटाएंधर्मेन्द्र जी आपकी दोनों ही ग़ज़ल खूबसूरत है लेकिन 'कुछ लड़कपन, कुछ नवाबी', नायाब गुड़ की जलेबी, नदी का नश्अ:, ऑंसुओं की सेज से हठीला जी को श्रद्धॉंजलि की बात ही कुछ और है।
बॉंस के पेड़ों की विनम्रता, तुलसी की चाय, गंध माटी की, और दूसरों की छान उठाते पापियों की बात- क्या बात है, बहुत खूबसूरत।
आज़म साहब का अंदाज़ लाजवाब है ...
जवाब देंहटाएंमतले में ही खुशबू का एहसास भा दिया है ... और गाँव की असलियत को अपने ही अंदाज़ में पिरोया है ... खेत में खलिहान में ... या फिर दुःख सभी का दुःख यहाँ पर ... गाँव की असलियत के बहुत करीब से लिखे शेर हैं ... और गिरह का शेर भी नए अंदाज़ का है ....
धर्मेन्द्र जी ने तो दोनों ही धमाकेदार ग़ज़लें कहीं हैं ... गाँव की भीनी भीनी महक हर शेर में बसी हुयी है ... चाहे रुख हवा का ... एक वायर से ... या फिर स्वाद में बेजोड वाला शेर हो ...
दूसरी गज़ल में भी मटके का शेर कमाल का है .... चाय का वर्षों पुराना स्वाद ... सच में तुसली वाली चाय की याद करा गया ... भूल जाता गंध माटी की ... ये शेर भी सीधे दिल में उतर् जाता है ...
ये तरही कमाल की गति में चल रही है और अंदर तक भिगो रही है ...
बहुत ही सुन्दर गज़लें!
जवाब देंहटाएंघी दही या .... वाह!
दुःख सभी का दुःख... ये कितना खूबसूरत मिसरा!
रिश्तों की पाकीज़गी... सुन्दर बात , सुन्दरता से कही हुई!
खेत में खलिहान में पहले पहुँच जाते हैं लोग/ बाद में फ़िर सुब्ह आती है अभी तक गाँव में... ये कमाल का शेर! वाह मन खुश हो गया! कुछ कवितायेँ याद आ गईं! विशेष आभार इस शेर के लिए!
जिसके साए में...." अंतर से निकला है ये शेर!
शहर आज़म आ गए...वो हमारी...एक धुंध में डूबा सा नोस्टाल्जिया है इस खूबसूरत शेर में!
आभार स्वीकारें इस सुन्दर ग़ज़ल एक लिए!
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अगर कभी मुझे किसी तरही मुशायरे में क्रम व्यवस्था करनी पड़े तो मैं आँख मूँद कर धर्मेंद्रजी को आखिर पे रख दूँगी, क्योंकि चाहे कितने भी शेर बोले जाएं किसी विषय पे, धर्मेन्द्र जी एक ऐसे लेखक हैं जो हर विषय को एक अलग जाविये से देखने और एकदम नए शेर कहने की सामर्थ्य रखते हैं!
गइया और दादी ---वाह! प्यार मतला! किसी की याद आ गई!
रूख़ हवा का है.... इस शेर में अंतरनिहित भाव और शब्दार्थ दोनों बेजोड़! बहुत प्यारी बात कही है!
कुछ लड़कपन कुछ नवाबी... ये बिलकुल आपकी स्टाइल का शेर है धर्मेंद्रजी!
एक वायर से हज़ारों बल्ब.... वाह वाह...ये भी आपकी अपनी पहचान है! पहले मिसरे में बस यूँ लगता है की एक इंजिनियर के नाते बात कही है, पर दूसरे मिसरे का अर्थ पकड़ते ही पहला मिसरा बिलकुल अलग रोशनी में दिखता है! शाबाश! बहुत सुन्दर!
स्वाद में बेजोड़... बहुत ही सार्थक, सुन्दर और सटीक शेर! वाह वाह!
"आँख से चंचल नदी" ...कितना सुन्दर है ये बिम्ब! इस मिसरे में 'बिचारे' की जगह कुछ और लिखते आप तो शायद अधिक अच्छा लगता!
"आसुंओं की सेज महुआ तले... ये भी अतिसुन्दर!
मक्ता भी बड़ी भावपूर्ण श्रदांजलि!
बहुत ही खूबसूरत, अलग सी ग़ज़ल! हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं!
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दूसरी ग़ज़ल में ये बिम्ब नायब हैं धर्मेंद्रजी! इन विचारों से रूबरू कराने के लिए, इतनी उर्वरता के लिए आपको नमन! :
"सर झुकातें है सभी को छू चुके जब आसमां.... ये कमाल का मिसरा!
छान उठाते दूसरों की छोड़ कर पूजा तेरी, शुक्रिया रब ऐसे पापी हैं अभी तक गाँव में... ये अद्वितीय बात! वाह वाह वाह! इसमें वज्न ठीक करने के लिए छां बोलना है?
सादर शार्दुला
सबसे पहले तो आदरणीय सुबीर जी को कोटिशः धन्यवाद कि मुझ जैसे नौसिखिए को डॉ आजम जैसे सिद्धहस्त ग़ज़लकार के साथ रखे जाने योग्य समझा।
जवाब देंहटाएंआजम जी की ग़ज़ल के बारे में क्या कहूँ, घी दही या दूध... वाले शेर ने लाजवाब कर दिया है। जैसे आटे में गूँथते समय यदि घी, पालक, नमक आदि डाल दिया जाय तो पूड़ियों स्वाद तो बहुत अच्छा आता है पर गूँथना उतना ही मुश्किल हो जाता है। बहुत बहुत बधाई उन्हें इतना शानदार शे’र गूँथने पर। रिश्तों की पाकीजगी..., बाद में फिर सुब्ह आती..... लाजवाब शे’र हैं। गिरह देखकर तो मैं सन्न रह गया, भाई वाह। राह का राह तकना... गजब का बिंब है। आजम जी को बहुत बहुत बधाई।
गुरूवर,
जवाब देंहटाएंइस तरही ने तो गज़ब कमाल किया एक से बढ़कर एक गज़लें आ रही हैं। सभी ने जैसे अपनी अपनी ओर से रमेश हठीला जो को याद किया और श्रृद्धासुमन रूपी गज़लें अर्पित की।
आज़म साहब ने बिल्कुल दुरूस्त कहा है कि :-
रिश्तों की पाकीजगी, छोटे बड़ों का एहतेराम
ऐसी ही तहज़ीब बाकी है अभी तक गाँव में
गाँवों की जिन्दगी में उनके झाँकने का अंदाज मन को लुभा गया और जिन्दा रहने की जद्दोजहद को करीब से दिखा भी गया :-
खेत में खलयान में पहले पहुँच जाते हैं लोग
बाद में फिर सुब्ह आती है अभी तक गाँव में
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धर्मेन्द्र जी के लिए आपका यह कहना कि उन्होंने अपना एक अंदाज विकसित कर लिया है अपनेआप में किसी सम्मान से कम नही है
खूब कहा है :-
खेत में तकरार होती एकता फिर मेड़ पे
कुछ लड़कपन कुछ नवाबी है अभी तक गाँव में
बहुत खूब :-
आँख से चंचल नदी की उस बिचारे ने पिया
लोग कहते हैं वो शराबी है अभी तक गाँव में
पिछले पूरे एक हफ्ते से SAEINDIA BAJA 2012 की तैयारी में व्यस्त था सो वक्त ही नही मिला और पिछली दो पोस्टें छूट गई थी इस तरही की।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
आज की दोनों ही ग़ज़लें आला दर्जे की हैं.दोनों शायरों को दिली मुबारकबाद...
जवाब देंहटाएंआजम साब के आशआर हमेशा बेमिसाल होते हैं| घी दही या दूध वाला शेर तो एकदम अनूठा सा है| गिरह भी लाजवाब बांधा गया है|
जवाब देंहटाएंसज्जन जी के इस शेर का बिम्ब आँख से चंचल नदी को पीने वाला तो उफ़्फ़.... दोनों मिसरे पे लिखने की आजमाइश की तारीफ दिल से |
आज़म साब ने क्या खूब शेर कहे हैं, जो शेर कुछ ख़ास पसंद आये वो हैं "दुःख सभी का दुःख यहाँ पर ......", "रिश्तों की पाकीजगी ,छोटे........", वाह वा
जवाब देंहटाएंहासिल-ऐ-ग़ज़ल शेर है, "खेत में ,खलयान में पहले पहुँच जाते हैं लोग ................" ढेरों दाद क़ुबूल करें.
धर्मेन्द्र सज्जन जी, बहुत खूब शेर कहे हैं. ये कुछ शेर बेहद पसंद आये. "खेत में तकरार होती एकता फिर मेड़ पे ..................", "एक वायर से हजारों बल्ब जलवाता .", "मुँह अँधेरे ही किसी की याद में महुआ..........." वाह वाह
बधाइयाँ स्वीकार करें.
कमाल की बात है...इस तरही में गाँव और शहर के कितने अलग अलग पहलू सामने आये हैं और किसी शायर ने भी किसी बात को दोहराया नहीं है...ये इस तरही की सबसे बड़ी कामयाबी है...भाव जरूर कहीं कहीं दोहराए गएँ होंगे लेकिन कहन में कहीं दोहराव नहीं आने पाया है.
जवाब देंहटाएंडा. आज़म साहब को पढने का मौका आपके ब्लॉग पर बहुत बार मिला है और हमेशा ही उनके कलाम ने मुझे मंत्रमुग्ध किया है...सादगी से वो कितनी गहरी बात कह जाते हैं...उस्ताद ऐसे ही कोई थोड़ी कहलाता है. घी, दही या दूध...खेत में खलियान में...जैसे शेर पढ़ कर लगता है किस पैनी नज़र से उन्होंने गाँव को देखा, जिया है...सुभान अल्लाह आज़म साहब ढेरों बधाई स्वीकारें.
धर्मेन्द्र भाई ने तो मतले में ही बाँध लिया..."एक गैय्या संग दादी..."वाह...वाह...अद्भुत..."खेत पर तकरार होती...", मुंह अँधेरे ही किसी की याद में..." जैसे शेर ज़ेहन में बस गए हैं....इन्होने तिलक जी की तरह एक वचन और बहु वचन में ग़ज़ल कह कर अपनी विद्वता का परिचय दिया है. "नीम पीपल आम....", चाय का वर्षों पुराना..." तो गज़ब के शेर हैं ही लेकिन "छान उठाते दूसरों की..." जैसा शेर कह कर सबको सकते में डाल दिया है...क्या कहें इस शेर पर...बेमिसाल धर्मेन्द्र भाई...जिंदाबाद जिंदाबाद कहते नहीं थक रहे हम तो...वाह.
नीरज
राजीव भरोल जी, गोदियाल जी, वीनस भाई, अश्विनी जी, सौरभ जी, तिलक राज जी, दिगम्बर नासवा साहब, शार्दूला जी, मुकेश जी, सौरभ से. जी, गौतम राजरिशी जी, अंकित जी, नीरज गोस्वामी जी इस असीम प्यार और दुलार के लिए आप सबका कोटिशः धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंमेरे लिए सुबीर जी की टिप्पणी और उनका आशीर्वाद वाकई किसी पुरस्कार से कम नहीं है। इस ज़र्रानवाज़ी के लिए (चने के झाड़ पर चढ़ाने के लिए :)))))) के लिए उनका तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ।
आदरणीय शार्दूला जी, आखिरी शे’र में "छान उठाते" को "छानुठाते" पढ़ना पड़ेगा, वज़्न ठीक रखने के लिए। ये ग़ज़लों में स्वीकार्य है। मुशायरे वाली बात से मेरा हौसला बढ़ाने के लिए तहे दिल से आभार (वैसे मैं जानता हूँ ये आप केवल मेरा उत्साह बढ़ाने के लिए कह रही हैं :)))))
"घी दही या दूध हो, विश्वास हो या प्यार हो,
हटाएंइनमें से हर एक असली है अभी तक गाँव में।
बिलकुल सच फरमाया आज़म जी और दूसरा सच भी खूब फरमाया आपने कि
खेत में खलयान में पहले पहुँच जाते हैं लोग,
बाद में फिर सुब्ह आती है अभी तक गाँव में।
और धर्मेंद्र जी
खेत में तकरार होती, एकता फिर मेंड़ पर,
कुछ लड़कपन कुछ नवाबी है, अभी तक गाँव में
बड़ा सूक्ष्म एवं सटीक निरीक्षण....
स्वाद में बेजोड़ लेकिन रंग इसका साँवला..... बिलकुल अलग हट के शेर कहे आपने। वैसे जिस गुड़ की जलेबी की बात कर रहे हैं, असल में उस गुण का रंग भी वहाँ पर साँवला ही होता है... है ना ?
और ये शेर
सर झुकाते हैं सभी को छू चुके जब आसमाँ,
बाँस के ये पेड़ बाकी हैं अभी तक गाँव में.... इस रद्दीफ पर ऐसे शेर कम ही लोगो ने लिखे होंगे। ऐसे ही शेर शायर को अलग बनाते हैं।"