गुरुवार, 14 जनवरी 2010

न पनघट न झूले न पीपल के साए, हरे खेत जख्मों के फ़िर लहलहाये । तरही में आज सुनिये दो शायरों दिगम्‍बर नासवा और रविकांत पांडेय की ग़ज़लें ।

मकर संक्रांति, पोंगल और लोहड़ी की शुभकामनाऍं

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तरही में इस बार काफी रचनाएं मिली हैं और सबसे अच्‍छी बात ये है कि इस बार सभी रचनाएं एक से बढ़कर एक हैं । प्रतियोगिता जैसी तो कोई बात नहीं है लेकिन ये तो तय है कि प्रतिस्‍पर्धा हमेशा ही गुणवत्‍ता को जन्‍म देती है । जब हम विद्वानों की सभा में होते हैं तो हमें एक एक वाक्‍य को कहने से पहले सोचना होता है । किन्‍तु जब हम साधारण सभा में होते हैं तो कुछ भी कहने से पहले सोचना नहीं होता है । खैर इस बार की तरही बहुत अच्‍छी हो रही है । कई सारे नये लोगों को रचनाएं मिली हैं । जैसा कि मैंने बताया कि हर सप्‍ताह तीन पोस्‍ट लगाए बिना काम नहीं होने वाला है । सो आज दो और शायरों को पढि़ये तरही में । आज पाठशाला के ही दिगम्‍बर नासवा और रविकांत पांडे की ग़ज़लें शामिल हैं । दोनों ही संवेदनशील कवि हैं । दिगम्‍बर की छंदमुक्‍त कविताओं का तथा रवि की छंदबद्ध कविताओं को मैं सबसे बड़ा प्रशंसक हूं । दोनों का ही परिचय देने की कोई आवश्‍यकता इसलिये नहीं है कि दोनों ही नाम सुपरिचित हैं । सीधे ही सुनते हैं दोनों को ।

digambar

दिगम्‍बर नासवा

न पनघट न झूले न पीपल के साए

शहर काँच पत्थर के किसने बनाए

मैं तन्हा बहुत ज़िंदगी के सफ़र में

न साथी न सपने न यादों के साए

वो ढाबे की रोटी वही दाल तड़का

कोई फिर सड़क के किनारे खिलाए

वो तख़्ती पे लिख कर पहाड़ों को रटना

नही भूल पाता कभी वो भुलाए

वो अम्मा की गोदी, वो बापू का कंधा

मेरा बचपना भी कभी लौट आए

मैं बरसों से सोया नही नींद गहरी

वही माँ की लोरी कोई गुनगुनाए

मेरे घर के आँगन में आया है मुन्ना

न दादी न नानी जो घुट्टी पिलाए

सुदामा हूँ मैं और सर्दी का मौसम

न जाने नया साल क्या गुल खिलाए

मैंने पूर्व में ही लिखा था कि मैं दिगम्‍बर की संवेदनशील कविताओं का प्रशंसक हूं । ये पूरी ग़ज़ल डाउन मेमोरी लेन है । पूरी गज़ल संवेदनाओं से भरी हुई है । एक एक शेर माज़ी से निकल के आ रहा है । वो तख्‍ती वे लिख कर पहाड़ों को रटना, उफ याद आ गया मुझे भी वो बचपन, सूख मेरी पट्टी चंदन की बट्टी । दिगम्‍बर अपनी ये संवेदनशीलता बचा कर रखना ये तुम्‍हारी कविताओं की सबसे बड़ी पूंजी है ।

ravi

रविकांत पांडेय

कोई कैसे पहलू में दिल को बचाये
कयामत सी गुज़रे वो जब मुस्कुराये
हुई आज फ़िर उनकी यादों की बारिश
हरे खेत जख्मों के फ़िर लहलहाये
जो वादा था दोनों ही महफ़िल में आये
मैं सर को झुकाये वो खंजर उठाये
है बाहों का चकला निगाहों का बेलन
मुझे रोटियों की वो माफ़िक घुमाये
मैं हर दांव पर उसके हंसता रहा तो
सितमगर परीशां है कैसे सताये
खुदाया बगावत का अब हौसला दे
जमाने ने हम पर बहुत जुल्म ढाये
गया साल मुझको रुलाकर गया है
न जाने नया साल क्या गुल खिलाये
लहू में जो भर दे उफ़नता-सा लावा
नई पीढ़ी को कौन आल्हा सुनाये
है मुश्किल नहीं पार दरिया को करना
मैं कब से खड़ा हूं वो मुझको बुलाये
तड़पकर किसी रोज हम तुम मिले थे
नहीं भूलता है वो मंज़र भुलाये
चली छोड़कर काम सारे ही राधा
नदी-तीर कान्हा जो वंशी बजाये

वाह वाह मुन्‍नी के पप्‍पा आप तो उस्‍तादों की तरह लिखने लगे हो । देखा इसीको कहते हैं बेटी के शुभ क़दम घर में पड़ना । बना दिया न पापा को पूरा शायर । बहूरानी ने रोटियों की माफिक घुमा रखा है तो उसमें हम कुछ नहीं कर सकते क्‍योंकि उसका तो बहूरानी को लायसेंस मिला है बाकायदा बैंड बाजे के साथ ये लायसेंस मिला है । हुई आज फिर उनकी यादों की बारिश वाह क्‍या शेर निकाला है ।

gilli danda

एक बार फिर से आप सभीको मकर संक्रांति की शुभकामनाएं । तिल गुड़ खाएं, पूरन पोली खाएं, पतंगें उड़ाएं, गिल्‍ली डंडा खेलें, सूर्य नमस्‍कार करें और स्‍वागत करें उत्‍तरायण होते सूर्य का । 

35 टिप्‍पणियां:

  1. दिगम्बर और रविकान्त...दोनों ने ऐसी समा बनाई कि हम तो सोच रहे हैं कि आपसे निवेदन किया जाये कि हमारी वाली रहने ही देना महाराज...मास्साब!! ये सब मिल कर हमारी बैण्ड बजवाने में लगें हैं..इतना बेहतरीन भला कोई लिखता है..जबकि इन सबको मालूम है कि हम भी हैं.. :)


    दिगम्बर की तो खैर कनाडा से ऐसी ही आदत रही है मगर रविकान्त.,,,वो भी उनके साथ हो लिए.. :)


    साजिश!!


    मकर संक्रांति की बहुत लड्डू भरी बधाई..और शुभकामनाएँ..सभी को!!

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  3. आदरणीय पंकज जी, आदाब
    न पनघट के झूले......से शुरू हुआ
    दिगम्बर नासवा जी की ग़ज़ल का सफर
    अम्मा की गोदी, मां की लोरी
    मेरे घर के आंगन में आया है मुन्ना
    हर शेर भावुक कर गया
    शायद यही कामयाबी का पैमाना भी है

    आगे चला तो रविकांत जी के तेवर
    हरे खेत...
    मैं सर को झुकाए

    अतीत के अश'आर में लगता है दोनों ने
    एक दूसरे से जमकर पंजा लड़ाने की ठानी है
    पंकज जी, चलो, दोनों को बराबरी पर छुड़ा दें..!!
    शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

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  4. pankaj ji makar sankranti ki badhai sweekar karen mushaire ka safar bahut achcha chal raha hai
    ravikant ji ki ghazal achchhi hai
    main sar ko.........wah kya bat hai
    lekin digambar ji ne to aisa bhavnatmak saman bandha hai jiska jawab nahin koi sher kam nahin aanka ja sakta, samvednaon aur bhavnaon ki is gagar ko bacha kar rakhiyega digambar ji
    donon shayeron kobahut bahut badhai.

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  5. मकर संक्रांति की पावन सुबह है ये... सभी को बधाई!!

    न दही चुडा न तिल गुड की लाइ
    घर से दूर रह मैंने खिचड़ी मनाई

    दिगंबर जी का तो फैन मैं हूँ ही वो भी मेरे शुभचिंतक हैं... भला ऐसे भी कोई ग़ज़ल कहता है भाई रुला दिया.

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  6. भाई रविकांत,

    क्या खूब यादों की बारिश करी है... हम तो खड़े रह गए अपने सर को झुकाए.

    दोनों शायरों ने अपनी उस्तादी का मुजाहरा किया है.

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  7. दो बेहतरीन ग़ज़लें एक साथ। बधाई पहले दिगम्‍बर नासवा साहब को, रविकॉंत जी को जिन्‍होंने ये ग़ज़लें कहीं और फिर पंकज भाई को जो इन्‍हें सामने लाये।

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  8. गुरुदेव ये तो मुझे मालूम था और मैंने बार बार कहा भी की ये तरही मुशायरा इस बार बुलदियों को छुएगा लेकिन ये बुलंदियां इतनी बुलंद होंगी इसका मुझे भान नहीं था...दिगंबर और रवि यदि पास होते तो दोनों को गले लगाता...दोनों ने ग़ज़ल को नया रंग दिया है, नया अंदाज़ दिया है....कहन में क्या सादगी और बांकपन है...वाह..वाह...ग़ज़ब.

    पनघट, झूले, ढाबे की रोटी, दाल तड़का, तख्ती, पहाड़ों का रटना, घुट्टी, सुदामा और सर्दी का मौसम....जैसे रोजमर्रा के लफ्ज़ इस्तेमाल कर दिगम्बर जी ने जो ग़ज़ल कह डाली है उसकी ख़ूबसूरती तक पहुँचने के लिए उस्तादों को पापड़ बेलने पड़ेंगे...ये लफ्ज़ जो अब हमारी ज़िन्दगी में अजनबी से हो चले हैं उन्हें फिर से बटोर लाने का बहुत बहुत शुक्रिया दिगंबर जी...बहुत बहुत शुक्रिया.

    रवि जी के लिए क्या कहूँ ? जैसा गुरुदेव ने कहा वो अत्यंत प्रतिभाशाली कवि शायर हैं...उनकी हिंदी की रचनाएँ हों या ग़ज़लें दोनों में कमाल करते हैं...विलक्षण प्रतिभा है उनकी...जो समय के साथ साथ और भी निखरती जा रही है... अब देखिये न अपनी सोच और कहन के सीधे सरल लेकिन प्रभाव पूर्ण ढंग से उन्होंने यादों की बारिश, हरे खेत जख्मों के, चकला, बेलन, आल्हा, वंशी और कान्हा शब्दों से अपनी ग़ज़ल में एक मायावी संसार की रचना कर डाली है...वाह...

    इश्वर इन दोनों को स्वस्थ रखे और हमें उनकी लिखी अच्छी अच्छी रचनाएँ इसी प्रकार पढवाता रहे...

    नीरज

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  9. digambar ji ki har rachna itni lajwaab hoti hai ki shabd kam pajat hain tarif ke liye aur is rachna mein to lagta hai jaise sare bhav undel kar rakh diye hain.

    ravi kant ji ki gazal ke to kahne hi kya.....har sher mein jaan dal di hai......bahut hi shandar gazal dil ko chhoo gayi.

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  10. उफ्फ्फ् शब्द का विकल्प सोच रही हूँ...क्योंकि अब आप ने तो इस शब्द का प्रयोग करके अपनी बात कह दी अ मैं क्या कहूँ कि पता चले कि कितने जबर्दस्त शेर कहे हैं दिगंबर जी ने...!

    कोई एक शेर तारीफ करने के लिये है ही नही सारी की सारी गज़ल ही लाज़वाब.. हर शेर पर वाह वाह वाह वाह कहते रह गये...!

    दिल से प्रशंसा निकल रही है क्या कहूँ, कैसे कहूँ कुछ समझ नही आ रहा। गज़ल क्या है पूरा लेख है यादों की गली पर

    ना पनघट, ना पीपल, ना झूलों के साये,
    शहर काँच पत्थर के किसने बनाये।


    क्या कहूँ कि कितनी बार न्यौछावर इस शेर के

    वो तख्ती पे लिख कर पहाड़ों को रटना,
    नही ल पाता कभी वो भुलाये।


    हम भी हो लिये उधर ही, खटिया पर लेटे लेटे अम्मा को पहाड़े सुनाने लगे।

    मेरे घर में के आँगन में आया है मुन्ना,
    ना दादी, ना चाची जो लोरी सुनाये।


    क्या बात कही... असरदार..मन को झकझोर देने वाली

    उस मूड के सदके जिसमें आपने ये ग़ज़ल लिखी और हर शेर माशाअल्लाह कहर का बना...!

    और रवि जी तो हैं ही बेहतर। विचारों और छंदबद्धता दोनो में। अभी कल ही बात हो रही थी कहीं कि रवि जी गुरुजी के सबसे प्रिय छात्रों में हैं....!!

    मैं हर दाँव पर उसके हँसता रहा तो,
    सितमगर परीशाँ है कैसे सताये।

    खुदाया बगावत का अब हौसला दे,
    जमाने हम पे बहुत ज़ुल्म ढाये।

    है मुश्किल नही पार दरिया को करना,
    मैं कब से खड़ा हूँ, मुझे वो बुलाये।


    रविकांत जी के ये शेर विशेष पसंद आये।

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  11. इन ग़ज़लों को पढ़ कर मैं वाह-वाह कर उठा। ऊपर इतने शब्द कहे जा चुके हैं कि अलग से कुछ कहने को बचा ही नहीं सिवाए इसके कि दिगंबर जी की रचना तो जैंसे दिल में ही घर कर गई है।

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  12. DIGAMBAR NAASWA AUR RAVIKAANT
    PANDEY KEE GAZALEN KHOOB,BAHUT
    KHOOB HAIN.DONO HEE CHHAA GAYE
    HAIN.BADHAAEE AUR SHUBH KAMNA.

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  13. ना पनघट, ना पीपल, ना झूलों के साये,
    शहर काँच पत्थर के किसने बनाये।

    मेरे घर में के आँगन में आया है मुन्ना,
    ना दादी, ना चाची जो लोरी सुनाये।

    मैं बरसों से सोया नहीं नींद गहरी
    वही माँ की लोरी कोई गुनगुनाये

    वो ढाबे की रोटी वही दाल तडका
    कोई फिर सदक के किनारे खिलाये
    ये क्याभी और शेर हैं जो दिल को छू गये लगता है पूरी गज़ल ही कोट हो जायेगी। नास्वा जी ने तो कमाल कर दिया आज भी इनकी एक गज़ल पढी है सही मे उनकी कलम मे जादू है। वैसे भी वो संवेदनशील शायर हैं हर रचना मे ही छोटी छोती बातें भी बहुत खूबसूरती से कह देते है। उन्हें बहुत बहुत बधाई
    जैसे ही मुशायरा आगे बढ रहा है और भी आनन्द आ रहा है। अब तो कुछ कहने के लिये सही मे शब्द नहीं रहे। उपर से रविकान्त जी ने भी क्या कमाल किया है लगता है दोनो ने एक दूसरे से आगे निकलने की कोशिश की है
    खुदाया बगावत का अब हौसला दे,
    जमाने हम पे बहुत ज़ुल्म ढाये।
    हुई आज फिर उनकी यादों की बारिश
    हरे खेत ज्ख्मों के फिर लहलहाये
    लहू मे जो भर दे उफनता सा लावा
    नई पीढी को कौन आल्हा सुनाये
    वाह रविकान्त जी ने भी लाजवाब गज़लें लिखी हैं। सुबीर जी ये आपके तराशे हुये हीरों के बाच मैं कंकड कहाँ से आ गया यही सोच कर हैरान हूँ । चलो आपके परिवार की रोशनी मे कुछ उजाला तो हम पर भी पडेगा। सब को बहुत बहुत बधाई मकर संक्रांति की भी सब को बधाई और आशीर्वाद्

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  14. "सुदामा हूं मैं और सर्दी का मौसम,
    न जाने नया साल क्या गुल खिलाये"
    किन शब्दों में तारीफ़ करूं? बहुत सुन्दर गज़ल है दिगम्बर जी. रविकान्त जी की गज़ल भी अच्छी है.

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  15. digambar aur ravikant dono ki ghazale dil ko chhooone vali hai. dono ko badhaai.isii tarah likh kar sahity ko smriddh karate rahe.

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  16. इन दोनों तरही पढ़ लेने के बाद मेरी भी विनती है समीरलाल जी के अनुसार ही है। यूं तो रवि की ग़ज़ल पहले ही मोबाइल पर सुनने का सौभाग्य उठा लिया था, लेकिन उसे फिर से यहां पढ़ना....वही "उफ़्फ़्फ़्फ़" का उद्‍गार। इस खंजर और सर झुकाने का कंट्रास्ट तो अंदर तक बेध कर गया है...फिर सितमगर परेशां है कैसे सताये का अंदाज़ तो हाय रेsssss

    जीयो रवि मियां!!

    ...और दिगम्बर जी ने तो पूरा माहौल सेंटी कर दिया, पूरे मुशायरे और श्रोता बंधुओं को विगत में ले जाते हुये...तख्ती पे पहाड़ों के रटने वाला जुमला...हो या जबरदस्त मतला...दिली बधाई दिगम्बर भाई इस खूबसूरत ग़ज़ल के लिये। अब अफसोस हो रहा है कि उस रोज{अब तो बीते युग की बात लगती है ये} जब मिले थे हम देहरादुन के बरिश्ता में तो क्यों न आपसे कोई ग़ज़ल सुन ली...

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  17. गुरुदेव ........ ये ग़ज़ल आपके आशीर्वाद के बिना बनना संभव नही थी ......... ये आप भी जानते हैं ...... इसका पूरा श्रेय आपको ही जाता है ........ बाकी सब का भी शुक्रगुज़ार हूँ जिन्होने इसको पसंद किया ........

    और रविकान्त जी के बारे में क्या कहूँ ......... सच में इतने लाजवाब शेर हैं की सुभान अल्ला के सिवा कुछ बोल ही नही पाता ...... बेजोड़ शेरों का संकलन होता जा रहा है ये मुशायरा ..........

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  18. हाय रे ... आज आयी असल में गुरुकुल की बारी और तन गयी ग़ज़लों की संवेदनशीलता और कहन क्या खूब तरीके से कहा है मेरे दोनों गुरु भाईयों ने ... जब मैं दिगम्बर जी से मिला था तो मुझे नहीं लगा के वो इतने खूबसूरती से ग़ज़लों में छोटी छोटी बातें और फिर वही चटकारे वाली बात ... गुरु जी एक और बात जब मैं दिगम्बर जी से मिला तो उसी होटल में गया था और ठीक उसी टेबल पर हम लोग बैठे थे ... सच में मैं भी इनके छंद मुक्त कवितावों का मुरीद हूँ मैंने इनके मुह पर ही कह दिया था मुझे शिष्य बना लो ....
    जहां तक शायारी की बात है तो मैं जानता तो था मगर उस दिन वो बच के निकल गए .. मतले की बात हो तो हाय रे वाली बात है ..
    फिर ढाबे की रोटी और तड़का / या फिर पहाड़ों को रटना/मेरे घर के आँगन में ... गुरु जीआप कहते हैं के ग़ज़ल में अगर तिन शे'र भी मुकम्मल हो जाएँ तो ग़ज़ल मुकम्मल हो जाती है यहाँ तो सारे ही शे'र बने हैं गुरु जी अब इस ग़ज़ल को क्या कहेंगे ....
    अब बात करते हैं रवि भाई की सच में जब से भाभी जी और बिटिया रानी आयी है ग़ज़लों में और निखार और नाज़ुकी आगई हैं ... पहले तो शे'र शे'र होते थे मगर अब ये सारे कहर बरपा रहे हैं... मेरी भी दरखास्त है गुरु जी के मुझे निलंबित कर मेरी ग़ज़लों को हटा दिया जाए ... :) :)
    मतले पे ही जान लेने की बात कर रहे हैं कातिल मुस्कान पर ...फिर हरे खेत को लहलाते हैं /ओये होए बेलन और चकला को किस तर्ज पर उपमा दिया है कमाल ही कहा जायेगा गुरु देव ये तो ...फिर सितमगर को परेशां भी कर रहे हैं हस्ते हुए ...और सबसे खुबसूरतगंवई बात में आल्हा सूना रहे हैं बचपन में सूना है मैंने भी ...इन दोनों के हर शे'र गुड की मिठास की तरह है ... और तिल की तरह स्वाद वाला ... मकरसक्रांति पर सभी को बहुत बहुत बधाई..
    ख़ास कर इन दोनों ग़ज़ल के दिवानो को...
    सादर प्रणाम गुरु देव...

    अर्श

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  19. मुझे भी दोनों ही ग़ज़ले अच्छी लगीं।
    दिगम्बर जी के ये शेर
    न पनघट...
    मैं तनहा ...
    मेरे घर ...
    सुदामा ...
    बेहतरीन लगे ख़याल और बयान दोनो के लिहाज से।
    इसी तरह रवि जी के ये शेर भी प्रभावित करते हैं
    मैं हर दाँव पर ...
    लहू में जो भर ...
    हुई आज ...
    दोनों मित्रों को सादर बधाई!

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  20. आज की दोनों रचनाओं ने घर परिवार,
    परिवेश से जुडी बारीक - बारीक
    अति महत्त्वपूर्ण बातों से
    अवगत कराए हुए,
    तरही की शर्त का बखूबी पालन भी किया
    और इतनी मन को छू लेनेवाली रचनाएं
    [ दिगम्‍बर नासवा साहब और रविकॉंत जी की]
    पढने को मिलीं हैं
    बस आनंद आ गया .......
    यही तो जीवन है .....
    सुख और दुःख साथ साथ
    पंकज भाई
    आप का आयोजन
    सुमधुर स्मृतियों का कोष बनता जा रहा है
    आभार ..लिखते रहें ..
    सविनय,
    - लावण्या

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  21. .
    .
    .
    आदरणीय पंकज सुबीर जी,
    दिमाग रोक रहा है...पर क्या करूं दिल है कि मानता नहीं... लिख ही देता हूँ... इस बार का तरही मुशायरा भाई दिगम्बर नासवा के नाम हो गया...

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  22. पंकजजी
    दोनों ही गज़लें बेहतरीनह ैं. अबम ुझे भी लगने लगाह ै कि समीरजी केस ाथस ाथ मैंबभी आपकी पाठशाला में नियमित रूप से आया करूँ ताकि दिगम्बर और रवि को बार बार पढ़ने का अवसर मिले.
    तख्ती वाले शेर ने सचमुच यादें ताजा कर दीं
    यादों में फिर घिर कर आये, छूटे हुए हाथ से वे पल
    बुदकी फ़िसली सरकंडे की कलमों से लिखती थी क्षर
    प से होता पत्र जिसे था लिखना चाहा मैने तुमको
    जीवन की तख्ती पर जिसके शब्द रह गये सभीबभटक कर.

    दोनों को बधाई और साथ में आपका आभार इस आयोजन के लिये

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  23. आप सभी को मकर संक्रांति की बधाई!

    आज तो दिगंबर जी और रवि जी ने समाँ बाँध दिया है. मुशाइरे को लूट लिया है दोनों ने.
    वाह! दिगंबर जी आपकी पूरी ग़ज़ल ने अतीत में पहुंचा दिया जहाँ से निकलना मुश्किल हो रहा है -
    बस, बार बार पढ़ता हूँ.

    इस शेर को पढ़ते हुए अपने माज़ी के उन क्षणों को देखते हुए आँखें नाम हो जाती हैं:
    मेरे घर के आँगन में आया है मुन्ना
    न दादी न नानी जो घुट्टी पिलाए.

    ये अशार बहुत अच्छे लगे:
    मैं तन्हा बहुत ज़िंदगी के सफ़र में
    न साथी न सपने न यादों के साए
    वो ढाबे की रोटी वही दाल तड़का
    (इसके लिए तो मैं भी तरसता हूँ.)
    कोई फिर सड़क के किनारे खिलाये
    वो अम्मा की गोदी, वो बापू का कंधा

    रवि जी के ग्यारह के ग्याराहों अशार में से कौन सा या कौन से शेर बहुत खूबसूरत हैं, ग़ज़ल यह सोचने का मौक़ा ही नहीं दे रही है. ग़ज़ल पढ़ने के बाद निगाह फिर वहीँ पहले शेर पर पहुँच जाती है और फिर वही ग़ज़ल का आनंद लेने का सिलसिला शुरू.

    ये तीनों आशा'र में कुछ ख़ास बातें हैं जिनसे इनमें गज़लीयत या रंगे-तग़ज़्ज़ल निखर कर आया है.
    शेर का पहला पढ़ते ही दूसरे मिसरे के लिए उत्सुकता होने लगती है. दूसरे, बड़ी बातों को इस तरह कहा गया है कि वो दिल को गुदगुदाने के साथ दिल की गहराईयों तक उतर जाती हैं. तीसरे, बग़ावत जैसा बुरा मनहूस शब्द भी इस तरह इस्तेमाल किया है कि बिलकुल बुरा नहीं लगा. इस शेर की यही ख़ूबी है:
    ख़ुदाया बग़ावत का अब हौसला दे
    ज़माने ने हम पर बहुत ज़ुल्म ढाये

    जो वादा था दोनों ही महफ़िल में आये
    मैं सर को झुकाए वो ख़ंजर उठाये
    चली छोड़कर काम सारे ही राधा
    नदी-तीर कान्हा जो वंशी बजाये.
    बहुत सुन्दर.

    दिगंबर जी और रवि जी को हार्दिक बधाई.
    महावीर शर्मा

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  24. वाह वाह कांच पत्थर के शहरों से अपनी ज़िन्दगी चुराने की बढ़िया कोशिश की दिगंबर जी नें. 'मेरे घर के आँगन में ..' वाला शेर तो शायद हम प्रवासियों के भाग्य के साथ जुड़ सा गया है. ग़ज़ल के भाव बहुत सुन्दर लगे. दिगंबर जी को अनेक शुभकामनाएं.

    रविकांत जी के तो हम फैन ही बन चुके हैं. 'जो वादा था दोनों ही महफ़िल में आये, मैं सर को झुकाए वो खंजर उठाये'. वाह वाह, क्या कथ्य क्या शिल्प, सीधे दिल के आर पार हो गया ये शेर तो. बेलन का बढ़िया प्रयोग किया है, हमको तो कई बार लगता है की निगाहों के बेलन की शक्ति का ऐसा रूपांतरण कहीं और मिलना मुश्किल है. पूरी ग़ज़ल बढ़िया लगी. रविकांत जी को इतनी सुन्दर प्रस्तुति के लिए अनेक बधाइयाँ. 'यादों की बारिश' वाला शेर भी टू मच हो गया है. वाह.

    गुरुदेव, इस बार तो मुशायरा नयी उचाइयां तय कर रहा है. इतने सुन्दर आयोजन के लिए आपको धन्यवाद्.

    सभी को मकर संक्रांति की शुभकामनाएं.

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  25. दोनों ही ग़ज़लें लाजवाब है।हर शेर क़ाबिलेतारीफ़ है।दिगम्बर भाई और रविकान्त दोनों ही इतनी अच्छी लेखिनी के लिये बधाई के पात्र हैं। साथ ही धन्यवाद देना चाहूँगा पंकज जी को जिनके सौजन्य से इतना अच्छा पढ़ने के और नया सीखने को मिल रहा है।
    अनेकोअनेक धन्यवाद पंकज भाई

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  26. आदरणीय समीर सा और गौतम भाई के सुर में सुर मिलते हुए सहमती व्यक्त करते है,गुरुदेव से विनती है कि इनको उस्ताद शायर घोषित करते हुए इनकी उपस्थिति को मेहमान उपस्थिति की तरह लिया जाए..अजी तरही को इतना ऊंचा पहुंचा दिया कि हमारे पतंग तो आस पास ही नहीं पहुँच रहे है पेच क्या लड़ाएं?.. हा हा !
    ना पनघट, ना पीपल, ना झूलों के साये,
    शहर काँच पत्थर के किसने बनाये।

    मेरे घर में के आँगन में आया है मुन्ना,
    ना दादी, ना चाची जो लोरी सुनाये।

    मैं बरसों से सोया नहीं नींद गहरी
    वही माँ की लोरी कोई गुनगुनाये

    वो ढाबे की रोटी वही दाल तडका
    कोई फिर सदक के किनारे खिलाये
    नासवा साहब क्या गजब ढा रहे है....तालियाँ तालियाँ तालियाँ !

    खुदाया बगावत का अब हौसला दे,
    जमाने हम पे बहुत ज़ुल्म ढाये।

    हुई आज फिर उनकी यादों की बारिश
    हरे खेत ज्ख्मों के फिर लहलहाये

    लहू मे जो भर दे उफनता सा लावा
    नई पीढी को कौन आल्हा सुनाये
    और रविकांत साहब आप पर समस्त गुरुकुल गर्व कर रहा है.उम्र से बहुत ऊँचा लिखा है...
    सबसे ज्यादा बधाई गुरुदेव आपको है...आपकी मेहनत के फूल गुलशन में खुशबू और रंग बिखेर रहे है.

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  27. प्रणाम गुरु जी,
    सोच रहा था फुर्सत में बैठ के टिपण्णी लिखूंगा मगर दोनों ग़ज़लें पढने के बाद सोचा, ग़ज़लें पढ़ लेने के बाद ये बेमानी होगा.
    दिगम्बर जी और रवि जी दोनों को बेहतरीन ग़ज़लों के लिए बधाई. जल्द ही आता हूँ

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  28. दोनों ग़ज़लें बड़ी ही खूबसूरती से रची गई हैं....वाह !!

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  29. पंकज जी, इतना अच्छा भी कोई लिख सकता है..दिगम्बर जी और रविकांत ने कमाल कर दिया.अब लिखूं क्या? लिखने के काबिल छोड़ा ही कहाँ है..
    वो तख्ती पे लिख कर पहाड़ों का रटना..
    मैं बरसों से सोया नहीं नींद गहरी..
    और रवि ने भी कसर नहीं छोड़ी-
    हुई आज फिर उनकी यादों की बारिश..
    है मुश्किल नहीं पार दरिया को करना..
    वाह भाई वाह बधाई.

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  30. गुरु जी प्रणाम
    मुझसे पहले पोस्ट पर ३१ कमेन्ट आये इन सब को पढने के बाद मुझे समझ नहीं आ रहा की मैं किन शब्दों का चयन करून की मेरा कमेन्ट मौलिक हो

    और जवाब बहुत देर से कुछ नहीं सूझ रहा

    सीधे सीधे शब्दों में कहूं तो दिगंबर साहब की गजल ने बहुत सेंटी कर दिया gajal कई बार पढी और हर बार मन में ये ख्याल आया की अगर इस गजल को कोई दिलकश आवा ज में गा जता तो क्या हो........ क्या इस गजल के सामने जगजीत सिंह जी की गजल "वो कागज़ की कश्ती " टिक पायेगी
    दिगंबर जी से बार बार अनुरोध है की इस गजल को या खुद गा कर सुनाने की कृपा करे या किसी और से गवा कर पोस्ट के द्वारा सुनाएँ
    गजल के किसी शेर को कोट करने की स्थिति में नहीं हूँ

    अब बात करू रवि भाई की मगर रुकिए उससे पहले मैं उनका एक कमेन्ट आपके सामने दोहराना चाहता हूँ ज़रा गौर फरमाइए ...
    "" इस बार का तरही मुशायरा जिस तरह से बढ़ रहा है लगता है सबसे कमजोर कड़ी मैं ही हूँ ""

    और अब रवि भाई की इस गजल को पढ़िए क्या खूबसूरत विरोधाभास है इन दो बातों में ""रवि भैया किसको बेवकूफ बना रहे थे ???
    और अब इस पोस्ट के बाद के कुछ कमेन्ट के कुछ टुकड़ों को पढ़िए
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    Udan Tashtari ने कहा…
    दिगम्बर और रविकान्त...दोनों ने ऐसी समा बनाई कि हम तो सोच रहे हैं कि आपसे निवेदन किया जाये कि हमारी वाली रहने ही देना महाराज...मास्साब!! ये सब मिल कर हमारी बैण्ड बजवाने में लगें हैं..इतना बेहतरीन भला कोई लिखता है..जबकि इन सबको मालूम है कि हम भी हैं.

    गौतम राजरिशी ने कहा…
    इन दोनों तरही पढ़ लेने के बाद मेरी भी विनती है समीरलाल जी के अनुसार ही है।




    "अर्श" ने कहा…
    मेरी भी दरखास्त है गुरु जी के मुझे निलंबित कर मेरी ग़ज़लों को हटा दिया जाए ... :) :)

    (गुरु जी अर्श भाई के निवेदन के साथ लगे स्माइली पर विशेष ध्यान दीजिये )
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    अभी अंकित भाई बचे हुए हैं क्या पता वो भी ऐसी ही कोई बात कहने जा रहे हों

    गुरु जी आप और सभी समझ रहे है की मैं क्या कहना चाहता हूँ इस लिए निवेदन है की मेरी काफिया बदली हुई और बिना मिश्रा प्रयोग की गई टूटी फूटी गजल मुशायरे में जरूर जरूर से प्रकाशित करिएगा :):):)



    @रवि भाई आपकी गजल के लिए बस यही कहूंगा की मतला पढ़ते ही मेरे मन मस्तिस्क में वो फोटो आ गई जो आपने आजकल ब्लॉग पर लगा राखी है और वो फोटो क्या फोटो है की देख कर दिल खुश हो जाता है...है ना

    बाकी के शेर इस मतले पर कुर्बान

    --
    आपका वीनस केसरी

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  31. दिगंबर जी की सुंदर गज़ल अतीत का एक ऐसा झरोखा खोलती है जहां समय में पीछे सब कुछ साफ़-साफ़ देखा जा सकता है। कहते हैं संवेदनशीला कवि का प्राथमिक गुण होता है और बखूबी दिगंबर जी इस पर खरे उतरते हैं। "पनघट-पीपल, तख्ती-पहाड़ा या ढाबा-रोटी" किस शेर की तारीफ़ करूं? पूरी गज़ल जबरदस्त है।

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  32. @ दिगम्बर जी, आपने हर लफ्ज़ चुन चुन के रखा है इस ग़ज़ल के हार में. यादों के झरोखों से रूबरू करवा रहा हर एक शेर काबिल-ए-तारीफ है.
    मतले से शुरू हुआ जज्बातों का ये सफ़र गिरह तक आनंद ही आनंद दे रहा है. हर शेर को अपने पास सहेज के रख लिया है. इतनी बेहतरीन ग़ज़ल हम सभी को पढवाने के लिए शुक्रिया. अब आपकी अगली ग़ज़ल का इंतज़ार रहेगा.
    @ रवि जी, मतला क्या खूब निभाया है और उसी कड़ी में अगला शेर उफ्फ्फ्फ़ (आज्ञा से-गौतम भैय्या). मज़ा आ गया, पूरा दर्द समेट के रख दिया है "हरे खेत..." में. "लहू में जो भर दे......" वाला शेर अच्छा बना है. पूरी ग़ज़ल तरही के गुलिस्तान में अपनी खुसबू बिखेर रही है.आपको बहुत बहुत बधाई

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  33. @ दिगम्बर जी, आपने हर लफ्ज़ चुन चुन के रखा है इस ग़ज़ल के हार में. यादों के झरोखों से रूबरू करवा रहा हर एक शेर काबिल-ए-तारीफ है.
    मतले से शुरू हुआ जज्बातों का ये सफ़र गिरह तक आनंद ही आनंद दे रहा है. हर शेर को अपने पास सहेज के रख लिया है. इतनी बेहतरीन ग़ज़ल हम सभी को पढवाने के लिए शुक्रिया. अब आपकी अगली ग़ज़ल का इंतज़ार रहेगा.
    @ रवि जी, मतला क्या खूब निभाया है और उसी कड़ी में अगला शेर उफ्फ्फ्फ़ (आज्ञा से-गौतम भैय्या). मज़ा आ गया, पूरा दर्द समेट के रख दिया है "हरे खेत..." में. "लहू में जो भर दे......" वाला शेर अच्छा बना है. पूरी ग़ज़ल तरही के गुलिस्तान में अपनी खुसबू बिखेर रही है.आपको बहुत बहुत बधाई

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