मंगलवार, 21 अक्तूबर 2014

शाहिद मिर्ज़ा शाहिद, संजय दानी, मन्सूर अली हाशमी और नवीन चतुर्वेदी के साथ आइये आगे बढ़ते हैं तरही मुशायरे में।

मित्रों सबसे पहले आप सबको आज से शुरू हो रहे पांच दिवसीय दीप पर्व के प्रथम दिवस की मंगल कामनाएं। कल बहुत अच्‍छा आगाज़ हुआ तरही मुशायरे का । और ये भी कि श्रोताओं ने खूब दाद भी दी । ये अलग बात है कि कुछ लोग लगातार यहां से अनुपस्थित रह रहे हैं । इस मुशायरे के बाद सुबीर संवाद सेवा की मेलिंग लिस्‍ट को भी अपडेट कर दिया जाएगा ताकि अनुपस्थित रहने वालों के मेल बाक्‍स में सुबीर संवाद सेवा की अवांछित मेल नहीं पहुंचा करे।अवांछित चीजें हमेशा ही कष्‍ट देती हैं। खैर कल की ग़ज़लें बहुत बहुत शानदार रहीं और आज भी वैसा ही कुछ होने वाला है । कल जब पोस्‍ट लग रही थी तो एक ही गीत दिमाग में गूंज रहा था 'मिले न फूल तो कांटों से दोस्‍ती कर ली' मुझे लगा कि इस बहर पर लिखने के लिए ये सबसे परफेक्‍ट धुन है यदि आपको बहर समझने में दिक्‍कत आती हो तो। कल ही किसी ब्‍लॉग पर संभवत- कबाड़खाना पर नज़ीर अकबराबादी की दीपावली पर लिखी नज्‍़म ' चढ़ा है मुझको भी अब तो नशा दिवाली का' पढ़ी । नज्‍़म तो खैर क्‍या खूब है लेकिन मज़ा ये जानकर आया कि बहर भी यही है जिस पर अपना मुशायरा चल रहा है ।  कल सुधा ढींगरा जी ने सुबीर संवाद सेवा को लेकर बहुत अच्‍छी बात कही उन्‍होंने कहा कि सुबीर संवाद सेवा का माहौल गोष्ठियों के समान होता है जहां रचनाएं और चर्चा दोनों होती हैं ।

खैर तो चलिए आज हम आगे बढ़ते हैं कुछ और शायरों के साथ । आज हम चार शायरों शाहिद मिर्ज़ा शाहिद, संजय दानी, मन्सूर अली हाशमी और नवीन चतुर्वेदी के साथ आगे चल रहे हैं । चारों बहुत अच्‍छे शायर हैं और हमारे तरही आयोजनों के चिर परिचित नाम हैं । किसी परिचय की आवश्‍यकता नहीं है  इनको । तो आइये आज सुनते हैं इन चारों से इनकी ग़जलें ।

deepawali

deepawali (16)

अँधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं

deepawali (7)

shahid-11

शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

deepawali (7)

ये दौर रंज ओ अलम का चलो भुलाते हैं
कोई भी करके जतन खूब मुस्कुराते हैं।

नई उमंग नई आरजू जगाते हैं।
अंधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं।

जला के लाए हैं खुशियों के सब दिलों में चिराग
सभी के साथ चलो हम भी जगमगाते हैं

जरा सा दौर मेरे इम्तहां का क्या आया
खुशी के लम्हे भी जी भरके आजमाते हैं।

सुना है कुफ्र है रहमत से उसकी मायूसी
चलो चिराग उमीदों के जगमगाते हैं।

हमारी गलियों में हमको जो कर गए तन्हा
उन्हीं की याद से हम अंजुमन सजाते हैं।

वही पहुंचते हैं मंजिल पे एक दिन शाहिद
जो अज्म रखके मुसलसल कदम बढ़ाते हैं।

deepawali (7)

सकारात्‍मकता का अपना मज़ा है और मतला पूरी तरह से सकारात्‍मकता से भरा हुआ है । जो है जैसा है उसी में खुश रहने की सीख देता हुआ शानदार मतला । एक शेर सकारात्‍मकता के अद्भुत सौंदर्य से भरा है 'सुना है कुफ्र है रहमत से उसकी मायूसी' अहा क्‍या कह दिया है । काश हर इन्‍सान इस सबक को सीख ले । मकते में आया हुआ 'मुसलसल' शब्‍द क्‍या खूब उदाहरण पेश कर रहा है बहर के उतार चढ़ाव का । सकारात्‍मकता से भरी हुई बहुत ही शानदार ग़ज़ल । क्‍या बात, वाह, वाह, वाह।

deepawali (7)

papa

संजय दानी

deepawali (7)

लकीरे-दस्त पे विश्‍वास हम जताते हैं,
कभी न हौसलों को अपने आजमाते हैं।

बहारों को कहां मालूम आदतें पा की,
खिजां से इश्क है, काटों में चैन पाते हैं।

अमीरों ने हमें हर दौर में सताया है,
किनारे, लहरों से रिश्ते कहाँ बनाते हैं।

गमे-चराग से हैं इश्क के बिछौने भी,
मकाने- हुस्न में भी आंसू ये बहाते हैं।

जलाना दुश्‍मनों का घर भी है कहाँ जायज,
वहां भी अपना बसेरा खुदा बसाते हैं।

न था हजारों बरस पहले धर्म या मजहब,
हरेक इन्सां के आपस में रिश्ते-नाते हैं।

अंधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं,
तुम्हारे हुस्न की यादों में खो ही जाते हैं।

deepawali (7)

संजय दानी जी ने बहुत सुंदर ग़ज़ल कही है । बहारों को कहां मालूम में मिसरा सानी बहुत कमाल बन गया है । ये भी अपनी तरह की एक सकारात्‍मकता है कि खिजां से इश्‍क है कांटों में चैन पाते हैं । खूब ।  एक और शेर न था हज़ारों बरस पहले धर्म भी अच्‍छा बना है विशेषकर मिसरा सानी में सबके आपस में संबंध होने की बात को बहुत ही सुंदर तरीके से निभाया है । मतले को व्‍यंग्‍य के अंदाज़ में लिख कर कुप्रथा पर करारी चोट की गई है । संजय दानी ने अपने ही अंदाज में ग़ज़ल कही है । बहुत सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।   

deepawali (7)

Mansoor ali Hashmi

मन्सूर अली हाशमी

deepawali (7)

अँधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते है
यक़ीन बढ़ता है वहमो-गुमान जाते है।

अमन के चैन के नग़मे हमें सुनाते हैं
अवाम जागे तो फिर हुक्मराँ सुलाते हैं ।

लतीफा गो है; ये लीडर हमें हँसाते हैं ,
इधर ये प्याज़ो-टमाटर हमें रुलाते हैं। 

हमारे देश के   नेता तो देश की ख़ातिर
न खाने देते किसी को न खुद ही खाते हैं।

वशीकरण सा है मंतर भी इनकी बातों में
ये सब्ज़ बाग़ भी अक्सर हमें दिखाते हैं ।

धरम से वास्ता इनको कभी रहा ही नही
चुनाव जीतने ख़ातिर ही बस  भुनाते हैं ।

'त्रिशंकु' स्थिति भाती है धारा-सभ्यों को
ये 'Trade'  होने की ख़ातिर ही हिनहिनाते हैं !

बदल गए है मआनी  भी सादगी के यहाँ  
लिबासे  खादी में भी लोग  चमचमाते हैं। 

मन्‍सूर भाई बहुत ही चुटीले अंदाज़ में अपनी बात शेरों के माध्‍यम से कहते हैं । और ये ग़ज़ल भी वैसी ही है । अमन के चैन के नग़मे में मिसरा सानी एक साथ हंसा भी देता है और रुला भी देता है । ये ही किसी रचना की सफलता है कि वो आपको हंसाए भी और रुलाए भी। धरम से वास्‍ता इनको कभी रहा ही नहीं में व्‍यंग्‍य अपने चरम पर है । आखिर का शेर लम्‍बी मार करने वाला शेर है काश वहां तक पहुंच सके जहां कि लिए लिखा गया है । लीडर द्वारा हंसाना और टमाटर द्वारा रुलाने का प्रयोग भी सुंदर है । बहुत ही बढि़या ग़ज़ल है । सुंदर अति सुंदर । वाह वाह वाह ।

deepawali (7)

naveen chaturvedi

नवीन चतुर्वेदी

deepawali (7)

अँधेरी रैन में जब दीप झिलमिलावतु एँ
अमा कूँ बैठें ई बैठें घुमेर आमतु एँ

अबन के दूध सूँ मक्खन की आस का करनी
दही बिलोइ कें मठ्ठा ई चीर पामतु एँ

अब उन के ताईं लड़कपन कहाँ सूँ लामें हम
जो पढते-पढते कुटम्बन के बोझ उठामतु एँ

हमारे गाम ई हम कूँ सहेजत्वें साहब
सहर तौ हम कूँ सपत्तौ ई लील जामतु एँ

सिपाहियन की बहुरियन कौ दीप-दान अजब
पिया के नेह में हिरदेन कूँ जरामतु एँ

तरस गए एँ तकत बाट चित्रकूट के घाट
न राम आमें न भगतन की तिस बुझामतु एँ

deepawali (7)

नवीन जी को धन्‍यवाद कि उन्‍होंने ब्रज की मीठी बोली में लिखी हुई ग़ज़ल को लाकर इस मंच को समग्रता प्रदान की । एक शेर जो मुझे सबसे ज्‍यादा पसंद आया है वो है सिपाहियों की पत्नियों द्वारा दीपक के स्‍थान पर हृदय को जलाने वाला शेर है । बहुत सुंदर प्रयोग हो गया है उसमें । वाह । राम के चित्रकूट पर नहीं लौटने का प्रयोग भी बहुत खूब है । वापस नहीं लौटने की अपनी पीड़ा है उस पीड़ा को बहुत सुंदर तरीके से व्‍यक्‍त किया गया है । अबन के दूध में व्‍यंग्‍य की धार खूब पैनी है । बहुत ही सुंदर और मीठी ग़ज़ल है । सुंदर अति सुंदर वाह वाह वाह ।

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वाह वाह वाह, आज तो चारों शायरों ने अपने अपने तरीके से रंग जमा दिया है । अलग अलग रंग और अलग अलग लहजे की ग़ज़लें महफिल में चारा चांद लगा गईं हैं। पूर्णता वास्‍तव में भिन्‍नता में ही आती है ये बात आज की तरही बताती है । तो आनंद लीजिए चारों ग़जलों का और देते रहिए दाद। कल मिलते हैं कुछ और रचनाकारों के साथ । जय हो ।

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22 टिप्‍पणियां:

  1. दो दिन में प्रस्‍तुत सात ग़ज़ल सिद्ध कर रही हैं कि अंतराल से निष्क्रियता नहीं आई; इस बीच सभी अपने आप को और अधिक मॉंजने में सतत् जुटे रहे।
    वही पहुँचते हैं मंजि़ल पे एक दिन शाहिद; बेशक़ शाहिद भाई।
    वाह-वाह।
    दाणी जी ने इस बीच उर्दू भाषा पर भी पकड़ बनाई है जिसका प्रभाव स्‍पष्‍ट दिख रहा है। न था हजारों बरस पहले ... क्‍या बात कही है। वाह-वाह।
    हाशमी साहब ने बड़ी सीधी-सादी ज़ुबां में हाले-दिल बयां करते हुए पैनी धार प्रस्‍तुत कर हार्स-ट्रेडिंग जैसे विषय को खूबसूरती से प्रस्‍तुत किया। वाह-वाह।
    नवीन भाई की ग़ज़ल तो स्‍वनामधन्‍य नवीनता लिये हुए है । न राम ...; वाह-वाह।
    प्रस्‍तुत ग़ज़लों के सभी शेरों ने अपना प्रभाव छोड़ा है। वाह-वाह और वाह-वाह।
    इन खूबसूरत ग़ज़लों का अनंद लेकर सुब्‍ह फिर हाजिर होता हूँ।

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  2. बहुत सुंदर गज़लें आईं हैं:
    शाहिद जी का मतला और मक्ता दोनों गजब हैं. सभी शेर पसंद आये.. ये शेर खास तौर पर पसंद आया. “जला के लाये हैं खुशियों के सब दिलों में चराग/सभी के साथ चलो हम भी जगमगाते हैं.”

    संजय जी की ग़ज़ल के क्या कहने हैं. बहुत खूबसूरत मतला और ये शेर तो बस गजब है: “किनारे लहरों से रिश्ते कहाँ बनाते हैं..”

    मंसूर जी ने ताज़ा हालत पर तंज़ करते हुए बहुत खूबसूरत शेर कहे हैं. बधाई.

    नवीन जी की ग़ज़ल ज्यादा समझ तो नहीं आई लेकिन नवीन जी ने कही है तो बढ़िया ही होगी.

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  3. समस्त ग़ज़लें , कमाल कर रही है, बधाई रचनाकार मित्रो को. कल की मेरी रचना के लिए जितने मित्रो ने बधाइयां दी है, उन सभी चाहने वालो का तहेदिल से शुक्रिया . शुभ दीपावली

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  4. शाहिद मिर्ज़ा शाहिद, संजय दानी मंसूर अली हाशमी साहिबान और भाई नवीन चतुर्वेदी जी का कलाम और उनका हुनर अपनी खूबसूरती के साथ यहाँ मौजूद है। आप सब को तथा इस खूबसूरत कलाम की सुन्दर प्रस्तुति के लिए भाई पंकज सुबीर जी को हार्दिक बधाई ।

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  5. एक से बढ़कर एक ग़ज़लें हैं। हर शायर अपनी ग़ज़ल में अलग रंग और रौशनी बिखेर रहा है।
    तहे दिल से सभी को मुबारक़बाद।

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  6. वाह वाह वाह मुशायरा खरामा खरामा पूरे रंग में आता नज़र आ रहा है । यूँ तो तरही मुशायरे और दूसरी साइट पर भी कामयाबी से चलते नज़र आते हैं लेकिन जो मज़ा यहाँ है वो कहीं नज़र नहीं आता। जो आत्मीयता यहाँ है वो और कहीं नहीं। यहाँ शायर की ग़ज़ल के साथ साथ चलती आपकी टिप्पणियां उसकी खूबसूरती में चार चाँद लगा देती हैं।

    भाई शाहिद मिर्ज़ा के कलाम के लिए क्या कहूँ ? जैसे वो खुद सकारात्मकता से भरे हुए हैं वैसा ही उनका कलाम है। एक एक शेर तराशा हुआ नगीना है। रंज ओ अलम के दौर में मुस्कुराने की बात हो ,नयी उमंग नयी आरज़ू जगाने का आव्हान हो या सभी के साथ जगमगाने की सलाह हो शाहिद भाई इन नगीनों सलीके से जड़ते हुए जब..... रहमत से उसकी मायूसी " जैसा हीरा जड देते हैं तो ग़ज़ल की खूबसूरती देखते ही बनती है। वाह वाह वाह वाह शाहिद भाई वाह !!!

    संजय दानी जी को कम पढ़ा है लेकिन जब जब पढ़ा है उनकी लेखनी का लोहा मान गया हूँ। सटीक शब्दों का चयन और सही जगह पर असरदार तरीके उनका प्रयोग दानी जी की विशेषता रही है। उर्दू हिंदी के शब्दों से जो ग़ज़ल उन्होंने कही है वो अद्भुत है। खिजां से इश्क और इश्क के बिछोने लाजवाब शेर कहें हैं। ढेरों दाद दानी साहब।

    मन्सूर भाई की तो बात ही निराली है , कमाल मिजाज पाया है। मजाक मजाक में गम्भीर बात कहने का उनका का अंदाज सब से निराला है. देश के लीडरों की उन्होंने जम के खिंचाई की है। उनके व्यंग की धार बहुत तीखी है जो मुस्कराहट भी लाती है और सोचने पर मजबूर भी करती है। मन्सूर भाई आपको मेरा फर्शी सलाम।

    नवीन हमारा खुराफाती छोटा भाई है , हमेशा कोई ऐसा कारनामा करता है जिसे कोई दूसरा सोच भी नहीं सकता। किसने सोचा था था कि तरही में ब्रज भाषा की चाशनी में लिपटी ग़ज़ल आएगी जिसमें सिपाही की पत्नी का ह्रदय को जलाने जैसा कालजयी शेर होगा। जिन्दाबाद नवीन भाई जिन्दाबाद। कुछ और क्या कहूँ ? नत मस्तक हूँ।

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    1. नीरज जी, शुक्रिया के साथ- इतना अर्ज़ है
      चराग जैसा है हर लफ़्ज़ जो कहें नीरज
      वो आके रौनक़े-बज़्मे-सुखन बढ़ाते हैं

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  7. उफ़ एक से बढ़ कर एक ....
    गजलों का जादू सर चढ़ के बोलने लगा है अभी से .... फिर आने वाली गजलों का क्या होने वाला है ...

    शाहिद जी का हर शेर आशा और उम्मीद की किरण जगाता है ... ज़रा सा दौर मेंरे इम्तिहाँ का क्या आया ... इस शेर में जीवन की हकीकत को हूबहू उतारा है शाहिद जी ने .... बहुत बधाई इस नायाब ग़ज़ल की ....
    संजय दानी जी ने भी बहुत ही लाजवाब शेर कहे हैं ... धर्म या मजहब वाला शेर बहुत पसंद आया .... बधाई संजय जी को इस ग़ज़ल की ...
    हाशमी साहब के चुटीले अंदाज़ के तो क्या कहने ... इंग्लिश भाषा का प्रयोग ग़ज़ल को सुन्दरता बढ़ा रहा है .... आखरी शेर के व्यंग की धार भी मज़ा दे रही है ....
    नवीन ज तो वैसे भी नवीन बातों के लिए जाने जाते हैं ... उनका ब्रिज का अंदाज़ मुशायरे को अलग रंग और नयी ऊँचाइयाँ दे रहा है ... वैसे तो ब्रिज भाषा समझना ज्यादा मुश्किल नहीं पर फिर भी अगर साथ साथ हिंदी अनुवाद होता तो कई लोगों को समझना आसान हो जाता ...

    गुरुदेव इस मुशायरे से ये तो नहीं लग रहा ही लम्बे समय से इस ब्लॉग पर मेला नहीं लग रहा था ... पर आशा जरूर है अब की ये मेला यूँ ही कुछ कुछ अंतराल पे लगता रहेगा .... सभी को दीपावली की हार्दिक बधाई और शुभकामनायें ....

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    1. शुक्रिया नासवा जी,
      वैसे गिरह में मिसरा तरह से जब का जो अर्थ आपने लिया है....उसके लिए आप बार बार दाद के हक़दार हैं...एक बार फिर से मुबारकबाद कुबूल फ़रमाएं.

      हटाएं
  8. आज के दिन अभी फ़ुरसत पा सका हूँ. पूर्वाह्न में ही देखी हुई ग़ज़लों को अभी पढ़ गया. ग़ज़लें क्या हैं शब्द-पुष्प हैं जो बेहतरीन गुच्छों के रूप में सहेजे-सजाये गये हैं. इस सजावट में सजाने वाले के मनस लालित्य को समझा जा सकता है.

    भाई शाहिद मिर्ज़ा शाहिद साहब की ग़ज़ल के मतले में ’बीति ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेहु’ के भाव को कितनी खूबसूरती से पिरोया गया है. वाह जनाब वाह !

    जरा सा दौर मेरे इम्तहां का क्या आया
    खुशी के लम्हे भी जी भर के आजमाते हैं ..
    सत्य वचन !

    या फिर,
    वही पहुँचते हैं मंज़िल प् एक दिन शाहिद
    जो अज्म रखके मुसलसल कदम बढ़ाते हैं
    आपकी पूरी ग़ज़ल से निस्सृत भाव आश्वस्त करते हैं. मायूस होना मना है.

    आदरणीय संजय दानी साहब की कोई प्रस्तुति एक अरसे बाद देख रहा हूँ. इस ग़ज़ल के बाद कई आत्मीय भाव पुनः कुलबुलाने लगे हैं.

    इस शेर पर जितनी दाद दी जाए, कम होगी -
    बहारों को कहाँ मालूम आदतें पा की
    ख़िज़ां से इश्क है, काँटों में चैन पाते हैं.

    न था हज़ारों बरस पहले धर्म या मज़हब
    हरेक इन्सां के आपस में रिश्ते-नाते हैं.
    साहब, मुझे एक बात साझा करनी है. जब मज़हब या पंथ को कहे में स्थान मिल जाए तो फिर धर्म को उसी सुर में न पढ़ा जाय. सामान्य अर्थ जो प्रचलित हैं उनको अनावश्यक मान न मिले. धर्म निहितार्थ के हिसाब से भी वही नहीं जो पंथ या मज़हब हुआ करते हैं. धर्म की सत्ता बहुत व्यापक हुआ करती है.
    खैर मुझे जो जानकारी है, उसे साझा करना मेरा धर्म है.

    जनाब मन्सूर अली हाशमी साहब की प्रस्तुत ग़ज़ल अपने चुटीले अन्वर्थ के लिए याद रखी जायेगी. आजकी राजनीति के साइड इफ़ेक्ट्स किस सुन्दर शैली में गूँथे गये हैं ! वाह !
    दिल से दाद कुबूल फ़रमायें, मन्सूर साहब..

    सिपाहियन की बहुरियन कौ दीप-दान अजब
    पिया के नेह में हिरदेन कूँ जरामतु एँ..
    इस एक शेर ने आद. नवीनजी की ग़ज़ल को कित्ती ऊँचाइयाँ बख़्श दी है.
    आदरणीय, दाद कुबूल कर अनुगृहित करेंगे.

    समस्त सदस्यों-सुधीजनों को धनतेरस की अनेकानेक शुभकामनाएँ.
    शुभ-शुभ

    --सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद

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  9. शाहिद साहब ने कमाल की ग़ज़ल कही है। यूँ तो हर शे’र शानदार है पर "सुना है कुफ़्र............." और "वही पहुँचते हैं............" लाजवाब शे’र हैं।

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  10. हमारी गलियों मे हमको.....जरा सा दौर मेरे इम्तहां का....बहारों को कहां मालूम आदतें पा की ......वशीकरण सा है मंतर भी इनकी बातों में .....अबन के दूध सूं.......तरस गए ए तकत बाट......वाह वाह एक से बढकर एक शेर , हर गजल लाजवाब। शाहिद जी ,संजय जी, मन्सूर जी व नवीन जी को बहुत मुबारकबाद इन बेहतरीन गज़लों के लिए। मुशायरा अपने आप में बहुत विविधता व जानकारी समेटे हुए है , लाजवाब ।

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  11. आदरणीय पंकज जी, ग़ज़ल को शामिल करने और हौसला अफ़ज़ाई के लिए शुक्रिया.
    सजय दानी जी का कलाम उम्दा है. मन्सूर अली साहब के कलाम का अलग रंग साफ़ झलक रहा है.नवीन चतुर्वेदी जी की ब्रज भाषा में कही गई ग़ज़ल बहुत खास बन गई है.
    सर्वश्री तिलकराज जी, राजीव भरोल जी, गिरीश पंकज जी, रविकर जी, द्विजेन्द्र द्विज जी, अंकित जोशी जी, नीरज गोस्वामी जी, दिगम्बर नासवा जी, सौरभ पांडेय जी, सज्जन धर्मेन्द्र जी, पारुल जी के साथ उन सभी का शुक्रिया जिन्होंने कोशिश को सराहा, और आगे भी ये सिलसिला जारी रखने के लिए प्रोत्साहित किया.
    शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

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  12. आपने सप्त ऋषियों का मंडल चुना जो गज़ल के जलाता हुआ दीप है
    और संवाद उद्दीच्य तारा हुआ झिलनिलाता सदा ही रहा दीप्त है
    हम सा दीपक कहो तो भला क्या कहे,ज्योतिपुंजो की किरणें निहारा करे+
    बस नये सूर्य की राह तकता रहे, आज का दिन तो लगता गया बीत है

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  13. दानी साहब तो हमेशा ही अच्छा लिखते हैं। इस बार भी "बहारों को कहाँ.............", "अमीरों ने हमें.........." और "न था हज़ारों बरस पहले..." जैसे अश’आर से सजी ये ग़ज़ल कहने के लिए उन्हें बहुत बहुत बधाई

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  14. मन्सूर साहब ने अपने चुटीले अंदाज में कमाल के अश’आर निकाले हैं। उन्हें इस अंदाज के लिए बहुत बहुत बधाई

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  15. नवीन भाई तो हमेशा ही कुछ नवीन करके चौंका देते हैं इस बार भी ब्रज भाषा में ग़ज़ल कहकर उन्होंने चौंका दिया। मुझे लगता है कि हिन्दी की उप भाषाओं में ग़ज़लों का नितान्त अभाव है। उन्हें यह काम जारी रखना चाहिए तथा और भी ग़ज़लें कहनी चाहिए। "सिपाहियन.........जरामतु एँ" ये शे’र गजब का है। "इतने रोज कहाँ थे तुम, आईने शीशे हो गये" वाले पाये का शे’र है। नवीन भाई को बहुत बहुत बधाई इस शानदार ग़ज़ल के लिए।

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  16. अपने रुके कदमो का दुःख तो है मगर सब की गज़लें पढ़ कर संतोष करना पडेगा। लाजवाब गज़लें। सब को बधाई। बच्चों से छुपा कर पढ़ रही हूँ।

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