मंगलवार, 28 अक्तूबर 2014

बासी दीपावली मनाना भी तो परंपरा है । और वैसे भी दीपावली तो देव प्रबोधनी एकादशी तक रहती है । तो आइये मनाते हैं बासी दीपावली ।

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सुबीर संवाद सेवा के तरही मुशायरों का एक रोचक पहलू ये है कि जब मिसरा दिया जाता है तब ऐसा लगता है कि उत्‍साह में कुछ कमी है । टुक टुक करके धीरे धीरे एक आध ग़जल़ आती है । यहां तक कि मुशायरा शुरू भी हो जाता है और फिर भी सीमित ग़ज़लें ही रहती हैं । फिर ग़ज़लों का प्रस्‍तुत होना और उस पर श्रोताओं की लम्‍बी लम्‍बी टिप्‍पणियां उत्‍साह बढ़ाने लगती हैं । नींद टूटने लगती है । और धड़ा धड़ ग़जल़ें आने लगती हैं । मेरे विचार में ग़ज़लों को लगाने के बाद जो श्रोताओं की टिप्‍पणियां और बहस, चर्चाएं होती हैं असल में उत्‍साह का कारण वह ही होती हैं । मुशायरों की असल रोचकता उन्‍हीं से होती हैं । जैसे पिछली पोस्‍ट पर पचास से अधिक टिपपणियां और वो भी लम्‍बी लम्‍बी । नुसरत दी ने मुझे कहा कि पंकज तुमने तो यहां अनोखा ही माहौल बना रखा है । मैंने कहा कि मैंने नहीं हम सबने बना रखा है । सुबीर संवाद सेवा मेरा नहीं है । ये सबका मंच है । हम सबका । मैं कुछ नहीं । इस बार लम्‍बे अंतराल के बाद मुशायरे का आयोजन हुआ और उसमें इतने उत्‍साह के साथ इतने लोग चले आए।

और जैसा कि होता है दीपावली के बाद भी ग़जलें मिलने का सिलसिला चल रहा है, क्‍योंकि सबको पता है कि बासी दीपावली भी मनाई जाती है । और बल्कि देव उठनी ग्‍यारस तक दीपावली रहती है । पुरानी परंपराओं में शरद पूर्णिमा से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तक पूरे एक माह का त्‍यौहार होता था दीपावली । अब व्‍यस्‍तताओं ने उसे घटा कर पांच दिन का कर दिया है । खैर हमें उससे क्‍या हम तो मना ही सकते हैं ग्‍यारस तक दीपावली को । भभ्‍भड़ कवि भौंचक्‍के ने अपने लिए पूर्व से ही ग्‍यारस का दिन तय कर रखा है पदार्पण करने हेतु।

इस बार का मिसरा ईता दोष की संभावना से भरा हुआ था । विशेष कर छोटी ईता के दोष से । और एक संभावना ये भी थी कि यदि ज़रा चूके तो तीसरा रुक्‍न 1212 के स्‍थान पर 1122 हा जाएगा क्‍योंकि गुनगुनाने में दोनों की ध्‍वनि एक सी होती है। फर्क पकड़ में आता है तकतीई करने पर । और हां दूसरे रुक्‍न के भी 1122 के स्‍थान पर 1212 होने की संभावना हमेशा रहती है । इसके बाद भी सबने इन दोषों से बचा कर निर्दोष ग़ज़लें कहीं। आइये आज दो शायरों के साथ मनाते हैं बासी दीपावली । अभी और भी कुछ नाम आने को हैं । जैसे हाशमी जी की एक हजल भी बासी दीपावली के बम के रूप में कभी भी फूट सकती है । और भभ्‍भड़ कवि तो हैं ही।

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अँधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं

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mukesh tiwari

मुकेश कुमार तिवारी

ज़मीं पे ख़ुशियों के तारे बिखर से जाते हैं
अंधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं

वो लोग जिनके ही कारण है गंद फैली यहां 
वही हमेशा सफेदी से जगमगाते हैं

है ठोकरों में लिखा जब नसीब मेरा तो
सितारे क्यूँ ये भला ख़ुद को आज़माते हैं

ज़माना बदलेगा उम्मीद ज़िंदा है अब भी
भले ही पाँव नज़र क़ब्र में ये आते हैं

हम्‍म देर आयद दुरुस्‍त आयद, खूब ग़ज़ल कही है । मुकेश जी कम लिखते हैं मगर अच्‍छा लिखते हैं । मुकेश जी अपनी ग़ज़लों में आम बोलचाल के शब्‍दों को खूब लाते हैं । समसामयिक बातें करना उनकी ग़जल़ों की विशेषता है । गंद और जगमगाने के विरोधाभास को एक ही शेर में बहुत ही सुंदर तरीके से पिरोया है। ऐसा ही एक विरोधाभास से भरा हुआ शेर नसीब और ठोकरों का है। और अंत का शेर सकारात्‍मकता से भरा हुआ शेर है । मुकेश जी ने तरही की ट्रेन भागते दौड़ते अगले स्‍टेशन से पकड़ी है लेकिन फिर भी उन लोगों से बेहतर हैं जो घर में ही बैठे रहे और ट्रेन पकड़ नहीं सके। बहुत सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।

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shardula di

शार्दूला नोगजा जी

मुहाने अंध गली के जो खुद को पाते हैं
तुम्हारी आँखोँ के कंदील याद आते हैं

गँवार ग्वालनें सिखलातीं प्रेम उद्धव को
बिरज में ज्ञान, सयाने भी भूल जाते हैं

सिया-सिया जो पुकारा था राम ने वन में 
अभी भी स्वर्ण वरन से हिरन लजाते हैं

कलेजा तेज़ हवाओं का मुँह को आता है
अंधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं

कोई संवारता रंगीन पातों से मौसम
यूँ जंगलात तेरे शहर मुस्कुराते हैं

है मास्टरों सी बुझाती शिकस्त बत्तियां और
यकीं के बच्चे लिहाफ़ों में फुसफुसाते हैं

शरों के सेज पे जब थक के 'शार' सोती है
तेरी ग़ज़ल के कफ-ए-दस्त थपथपाते हैं

शार्दूला दी का मुशायरे में होना इस बात का प्रमाण है कि दीपावली की इस कम बैक तरही को लोगों ने कितनी आत्‍मीयता से लिया है । सबसे पहले बात गिरह के शेर की । बिल्‍कुल अलग प्रकार से गिरह बांधी है । तेज़ हवाओं का कलेजा मुंह को आने का अद्भुत है । खूब। और ऊपर के दो शेर एक राम का और एक कृष्‍ण का, दोनों में क्‍या कमाल का बिम्‍ब खींचा है। विशेषकर सिया सिया जो पुकारा था राम ने बन में की तो बात ही अलग है । खूब चित्र है।  और गंवार ग्‍वालनों से ज्ञान सीखते हुए उद्धव की तो बात ही क्‍या है सच में ब्रज में ज्ञानी भी सब भूल जाते हैं। यकीं के बच्‍चों के लिहाफों में फुसफुसाने की तो बात ही क्‍या है अहा आनंद आ ही गया। सुंदर ग़ज़ल वाह वाह वाह।

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तो आज की इन दोनों ग़जल़ों का आनंद लीजिए और दाद देते रहिये। ये बासी दीपावली है इसको भी उतने ही उमंग और उत्‍साह के साथ मनना चाहिए यदि उमंग और उत्‍साह में ज़रा भी कमी आई तो भभ्‍भड़ कवि रूठ जाएंगे और नहीं आएंगे।

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23 टिप्‍पणियां:

  1. पंकज जी , मुशायरे में उत्साह की कमी तो हो ही नहीं सकती है । यह तो दीवाली की तरही मुशायरा है वरना लोगों के ग़ज़ल भेजने का अंत ही नहीं होता । इतनी सुन्दर गज़लें पढने को मिल रहीं है ऊपर से हम युवा लोगों को बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है । हमारा उत्साह तो वैसे ही बना रहेगा ।

    मुकेश जी को पढ़कर अपने आस-पास की बात याद आती है । बहुत सुन्दर भाव पिरोये हैं उन्होंने । एकदम सटीक व्यंग्य है कि वो सफेदी में हैं जो गंदकी फैला रहें है । अंतिम शेर में कमाल की सकारात्मकता है बेहतरीन अंदाज । सारे शेर कमाल के । आप को पढ़ना बहुत सुखद रहा । आपको ढेर सारी बधाइयाँ और शुभकामनायें ।


    शार्दुला जी , दीवाली तरही में आपने कृष्ण और राम के युग की बात को बड़े ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है । आपकी लाजवाब प्रस्तुति ने मुशायरे चार चाँद दिए। इतने अच्छे अच्छे शेर पढ़वाने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद । आगे भी आपकी गज़लें पढने की उत्सुकता बढ़ गई है । शुभकामनायें ।

    सभी को बासी दिवाली की शुभकामनायें ।

    पंकज जी प्रणाम , आपकी वजह से इतने शानदार रचना पढने को मिल रहें है । मुशायरे की सफलता के लिए आपको बहुत बहुत बधाई । भभ्भड़ कवि जी का बहुत बेसब्री से इंतज़ार है । प्रणाम

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    1. विनोद जी,
      हार्दिक धन्यवाद!
      ठेठ दीपावली के दिन अल्पना पूरते हुए ग़ज़ल हुई है इसलिए ही राम-कृष्ण ग़ज़ल में प्रतिबिंबित हो गए हैं.
      भभ्भड़ कविश्रेष्ठ का सत्य ही सबको इंतज़ार है :)

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  2. मुझे तो लगा था की एक मैं ही लेट हूँ इस बार ग़ज़ल भेजने पर ... पर लगता है मेरे जैसे कई धुरंधर हैं ...
    सच है की तरही के दिनों सुबीर संवाद का माहोल उत्सव से कम नहीं होता और सब की भागीदारी एक से बढ़ के एक होती है ... यही खासियत इतने सालों से सब को जोड़े हुयी है ...
    मुकेश जी ने कुछ ही शेरों में अपनी धमाकेदार उपस्थिति का एहसास करा दिया ... अलग अंदाज़ के शेर अंत तक सकारात्मक ऊर्जा में बदल जाते हैं ... बहुत खूब मुकेश जी ...
    शार्दूला जी का तो हर शेर वाह वाह बोलने पर मजबूर करता है ... ब्रिज भूमि वाला शेर और प्रभू राम की आस्था से जुड़ा शेर ... जैसे मील के पत्थर हो इस मुशायरे के ... और गिरह का शेर भी बहुत ही लाजवाब है ... बहुत बहुत बधाई शार्दूला जी को इस उम्दा ग़ज़ल पर ...
    ये जान कर अच्छा लगा की अभी और भी गजलें आनी हैं कवीराज की ग़ज़ल के अलावा ...

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    1. आदरणीय दिगंबर जी ,
      हार्दिक धन्यवाद!
      आपके जैसी सशक्त कलम से अनुमोदन मिला, बहुत अच्छा लगा !

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  3. "वो लोग जिनके ही कारण है......" भई वाह ऐसा दमदार शे’र लेकर मुकेश आये तो दीपावली कहीं से भी बासी नहीं लगी। लगा कि अगले साल की दीपावली एक साल पहले आ गई। बधाई, बधाई।

    शार्दूला जी के बारे में क्या कहें। एक से बढ़कर एक शे’र हैं। मतले से जो शुरुआत की है तो ऊद्धव, सिया और गिरह तो लाजवाब। वाह, वाह, बहुत बहुत बधाई शार्दूला जी को इस शानदार ग़ज़ल के लिए।

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    1. धर्मेन्द्र जी,
      हौसला अफ़ज़ाई के लिए आपका शुक्रिया।
      बहुत दिनों बाद आपकी भी ग़ज़ल पढ़ी. बेहद खूबसूरत।
      उधर ही जा के लिखूंगी अधिक.

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  4. वाह वाह दोनों ही गजलें बहुत खूब हुई है.. दोनों रचनाकारों को हार्दिक बधाईयाँ ,

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  5. दीपावली कैसी भी हो बासी या ताजी रौशनी फैलाती है। तभी तो बासी दीपावली के शुभ अवसर पर जगमगाती ग़ज़लें प्रस्तुत हुई हैं।

    मुकेश जी को बहुत कम पढ़ा है इसीलिए उन्हें और पढ़ने की तलब होती है। चार ही शेर उन्होंने भेजे जो चार ग़ज़लों के बराबर हैं। बात चार पांच सात शेर की नहीं उस ज़ज़्बे की है जिसके तहत वो तरही में शामिल हुए। ये तरही की कामयाबी का सबूत है. उनकी गंद फ़ैलाने वाली बात देर तक याद रहेगी।

    शार्दूला जी को पढ़ना एक सुखद अनुभव से गुज़रने जैसा है। उनके बिम्ब और शैली सबसे अनूठी और उनकी अपनी है।ग़ज़ल में उद्धव और बृज को पिरोना वो भी इतनी खूबसूरती से उन्हीं द्वारा संभव है। सिया सिया जैसा शेर तो जैसे ऊपर से उतरता है ये वो शेर है जो दूर तक आपके साथ चलता है। अद्भुत मौलिक अनोखा। इसी तरह यकीं के बच्चों का लिहाफ़ों में फुसफुसाना -अहा हा क्या कल्पना है. किस शेर की तारीफ करूँ किसे छोड़ूँ ? कमाल किया है शार्दूला जी ने। मेरी और से ढेरों दाद कबूल करें।

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    1. नीरज जी,
      प्रणाम एवं हार्दिक धन्यवाद!
      आपकी ग़ज़लों की तरह आपकी टिप्पणी भी मीठी है!
      आप जैसे फ़नकार को कुछ अच्छा लगा, बहुत प्रसन्नता हुई!

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  6. इसे कहते हैं लॉ ऑफ़ इनेर्शिया का सकारात्मक पहलू ! कोई गतिमान प्रक्रिया तत्क्षण स्थिरावस्था में नहीं आती.

    मुकेश भाईजी के शेर सहज शब्दों के वो शेर हैं, जिनका असर देरतक बदस्तूर बना रहता है.
    वो लोग जिनके ही कारण है गंद फैली यहाँ.. .. तथा
    है ठोंकरों में लिखा जब नसीब मेरा तो.... ऐसे ही शेर हैं.
    बहुत खूब ग़ज़ल हुई है. वैसे मैं कमसेकम एक और शेर की मांग करूँगा.



    आदरणीया शार्दुलाजी की ग़ज़ल देर से आयी, यही आश्चर्य है. आपकी रचनाधर्मिता से हम सभी वाकिफ़ हैं.

    गँवार ग्वालनें सिखलातीं प्रेम उद्धव को..
    सिया-सिया जो पुकारा था राम ने वन में..
    कलेजा तेज़ हवाओं का मुँह को आता है..
    ये उपरोक्त अश’आर प्रभावित तो करते ही हैं. मक्ते की आत्मीयता बहा ले जाती है.
    इस ग़ज़ल के लिए बहुत-बहुत बधाई शार्दुलाजी.

    प्रस्तुतियों का क्रम बना है. बहुत खूब !
    सादर

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    1. आदरणीय सौरभ जी,
      प्रणाम एवं हार्दिक धन्यवाद!
      आपका सुमधुर लावण्यमय गीत पढ़ा है कुछ दिन हुए. एक साथ ही वहीँ लिखूंगी उसके बारे में.
      आप को जो कुछ भी अच्छा लगा इस भागमभाग की ग़ज़ल में वह सब सुबीर भैया का ही सिखाया-ठीक करा हुआ है!
      देर से आई इसकी माफ़ी आप सबसे!

      हटाएं
    2. आदरणीया शार्दुलाजी, सही कहा आपने. सारा कुछ पंकज भाईजी का ही पढ़ाया-सिखाया हुआ है. आपके कहे का अनुमोदन मैं भी करता हूँ. जिस आत्मीयता से पंकजभाई ने ग़ज़ल की बारीकियाँ साझा की हैं, वह हम जैसे अनेक ग़ज़लकारों के लिए पाठ है.

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  7. तरही में किसी तरह भी स्थान पा जाने और फिर क़ाबिल गजलकारों की महफ़िल शामिल हो जाने के मक़सद तक ही सीमित था मेरा कुछ कहना। जो निखरी हुई ग़ज़ल जो आप तक पहुँची है, उसके लिए इतना ही कह सकता हूँ कि गुरूजन सदैव अपनी कृपा बरसाते हैं और ये सादगी ही गुरू को पूज्य बनाती है।

    सभी को दीपावली और त्यौहारों की बधाइयाँ....

    सादर,

    मुकेश

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  8. देर आयद; दुरस्‍त आयद। देव उठनी ग्‍यारस तक देर नहीं है।
    अब तो कार्तिक मास उतना ठंडा नहीं होता लेकिन जब तक मेरी दादी जी थीं सम्‍पूर्ण कार्तिक मास सुब्‍ह सवेरे ठंडे पानी से स्‍नान करती थीं और कहती थीं कि कंदील पूरे कार्तिक माह टंगना चाहिये, हम एकादशी तक तो ऐसी सुंदर ग़ज़लें प्रस्‍तुत कर ही सकते हैं।
    इसी निरंतरता में आईं दोनों ग़ज़ल एक और पोस्‍ट जगमग करने में सफ़ल हैं।
    इंतज़ार है आगे......

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    1. आदरणीय तिलक जी

      हार्दिक धन्यवाद! कितनी प्यारी बात कही है आपने!
      आशा करती हूँ यूं ही गीत- ग़ज़लों के कंदील जलते रहेंगे इस ब्लॉग पे!

      सादर

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  9. प्यारे सुबीर भैया
    सो आपने आनन-फानन में लिखी ग़ज़ल को ठोक-ठाक के रवाना कर दिया :)
    चलिए, ये तो भाईदूज का दस्तूर है ही :)
    बहूत आभार आपका हम जैसे लेट लतीफों को भी मान देने के लिए. ये आपका स्नेह ही है जो मुझ जैसी गीत लिखने वाली से भी टूटी फूटी ग़ज़ल लिखवा लेता है.
    दीपावली का प्रकाश हम सब के अंतर में ज्योतिर्मय रहे इसी कामना के साथ . . .
    शुभाशीष

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  10. सुबीर जी, बासी दीपावली पर भी ताज़ा पटाख़ा एवं फुलझड़ी! दोनों ही सुंदर.
    और हज़ल को आपने बासी दीपावली के लिये बचा रखा है ! मैं तो समझा था कि वो पटाख़ा फुस्स ही हो गया........!

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  11. Waah kamaal ki gazal hai dono hi ....prastuti ne sab taza kar diya baasi kuch na chod...!!

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  12. आपने तो एक और गीत पिरो लिया आनन-फानन में।
    अगला दौरा कब हेता है पता नहीं, पर अगली बार आपसे मिलने का प्रयास भी रहेगा।

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